अंबेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी के हार की समीक्षा

अंबेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी के हार की समीक्षा
·         संजीव खुदशाह
विगत दिनों उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में अंबेडकरवादी पार्टी मानी जाने वाली बी एस पी की करारी हार हुईवही भारतीय जनता पार्टी की बंपर जीत हुई. बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती सहित उसके कार्यकर्ता हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे है. बस हार का ठीकरा evm के सर फोड़ रहे है. कुछ तो को कुछ मोहन भागवत को और निर्वाचन आयोग को गरिया रहे है. दरअसल हार की समीक्षा हर हालत में होनी चाहिए चाहे हार का कारण जो भी हो लेकिन bsp evmके मुद्दे की आड़ में हार की समीक्षा से बचना चाहती है. ऐसा प्रतीत होता है. यह उन लोगों के साथ छल की तरह जिन्होंने अपने खून पसीने की कमाई से इस पार्टी को खड़ा किया. इस पार्टी के दान दाता कोई औधोगिक घराना नहीं रहा है इसे उन लोगों ने दान देकर खड़ा किया जिन्हें खुद दो वक्त की रोटी मुश्किल से नसीब होती रही हैं. इनके कार्यकर्ताओं ने बेहद कम संसाधनों में कैम्प आयोजित कर-कर के लोगों को जगाया उन्हें सामाजिक न्याय से अवगत कराया. हर वे लोग जो समानता, समता, प्रगतिशीलता, लोकतंत्र पर यकीन करते थे उन्होंने अम्बेडरवादी पार्टी ब स पा को सपोर्ट किया था और उसे एक ऊंचाई पर देखना चाहते थे. हालांकि राजनैतिक पार्टियों की हार एवं जीत का आम बात है.  बावजूद इसे बसपा का एक-एक समर्थक उन वास्तविक कारणों को जानना चाहता है जिसके कारण उसकी हार हुई है.

इस पर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक समीक्षा करने का प्रयास कर रहा हूं इसके साथ उन मुद्दों पर बात करूँगा की कैसे और किन कारणों से भारतीय जनता पार्टी जीत सुनिश्चित हुई.
(अ) बसपा ने अपना मूल वोट बैंक (मतदाताओं) का विश्वास खोया
(1) यह एक मात्र पार्टी है जो समाज के वंचितों, दबे कुचले, पिछड़ों के हितों की रक्षा को लेकर खड़ी हुई खासकर उनके आरक्षण के पक्ष को जनता तक पहुंचायालेकिन bsp के सरकार बनते ही सवर्णों को  आरक्षण देने की वकालत करने वाली भी यही एक माह पार्टी बन गई.
(2) यह पार्टी अंबेडकर फुले की विचारधारा को लेकर पैदा हुइ जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्खा करनाहर प्रकार की भेदभावसामंतवादब्राह्मणवाद को ख़त्म करने की बातें इसके मूल सिद्धांत में शामिल हैं और अंबेडकर फूल वाद का सबसे बड़ा सिद्धांत है कुर्सी के खातिर अपने सिद्धांतो की बलि को ना चढ़ाना. लेकिन मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के लिएbjp के साथ समझौता कर यह संदेश अपने वोटरों को दिया कि वे अंबेडकर सिद्धांत को अपने पैरों तले कुचल ने के लिए आमादा है
(ब)  पार्टी में लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी
(1) काशीराम ने जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए इस पार्टी को खड़ा कियापार्टी एक परिवार / व्यक्ति की संपत्ति बनकर रह गई है के प्रति तीन साल बी एस पी में अध्यक्ष पद का चुनाव महज एक औपचारिकता बन कर रह गया काशीराम के बाद मायावती लगातार अध्यक्ष बनती रही. पार्टी सदस्यता का कहना है कि अध्यक्ष चुनाव में नियमानुसार वोटिंग पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
(2)  आम कार्यकर्ता और जनता से दूरी
कांशीराम ने जिस प्रकार एक आम कार्यकर्ताओं की तरह जीवन गुजारा,लोगों के बीच रहकर मिशन को खड़ा किया. मायावती ठीक इसके उलट आम आदमी तो दूरविधायक और सांसद को भी मिलने का समय छः – छः  महीने के बाद का देती है. (नाम ना छापने की शर्त पर एक पूर्व सांसद ने इन पंक्तियों के लेखक को यह जानकारी दी है)
(3) हिटलर शाही
मायावती पार्टी की सर्वे सर्व है अगर सतीश चंद्र मिश्रा को छोड़ दे तो शेष कोई भी नहीं है जो मायावती के आगे बैठ सके. वे इस पार्टी की प्रवक्ता है,मीडिया प्रमुख भी खुद ही हैसारे राज्यों की अध्‍यक्ष  वही है कोषाध्‍यक्ष  भी वे ही है याने पार्टी की सारे अधिकार वो अपने पास ही रखती है उन्‍हे पार्टी के किसी कार्यकर्ता और नेताओं पर एक कौड़ी का विश्‍वास नही है।
(4) दूसरी लाइन के नेताओं को ठिकाने लगाना
यदि मैं आपसे पूछ हूं कि bsp मैं कौन-कौन से नेता प्रमुख है तो शायद आप सोच में पड़ जाएंगे। या कोई नाम नहीं बता पाएंगे। मायावती ने बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत काशीराम के समय के नेताओ और कार्यकर्ताओं को ठिकाने लगाया है। नतीजतन किसी ने नहीं पार्टी बना लियातो किसी ने दूसरी पार्टी जॉइन कर लियाकिसी ने नया संगठन बना लियाकिसी ने बामसेफ को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और वे बिखर कर अपने अपने स्तर पर काम करते रहे।
(स) भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए मायावती जरूरी है
सभी जानते हैं कि अंबेडकरवादी बिकाऊ नहीं होते लेकिन बीजेपी कांग्रेस को अपनी राजनीतिक रोटी सेक ने के लिए ऐसे बिकाऊ नेता की नितांत अवश्‍यकता होती है जो देखने में लगे कि यह गरीबों के दलितों के मसीहा हैंअंबेडकरवादी है,लेकिन वास्तव में ऐसा ना हो। इस कड़ी में आप उदित राजरामदास आठवले,रामविलास पासवान आदि का नाम ले सकते हैं इन सभी में मायावती अहम है क्योंकि उनकी मुठ्ठी में बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टी है जिसकी कार्यकर्ता उसे अंधभक्तों की तरफ पूजते हैं(जिस व्‍यक्ति पूजा का विरोध डॉं अंबेडकर ने किया था) उनकी गलतियों तक को सुनने के लिए तैयार नहीं है। स्वर्ण पार्टियों के प्रमुख जानते हैं कि बी एस पी में मायावती के रहते कोई सच्चा लीडर नहीं आ सकता। इसलिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समय समय पर जब जैसा चाहें मायावती और बहुजन समाज पार्टी का प्रयोग करती रही है।
इसी प्रकार मायावती को भी इन केंद्र सरकार वाली पार्टियों की सख्त जरुरत हैक्‍योकि मायावती आय से अधिक संपत्ति (जो की कार्यकर्ताओं के खून पसीने से भेजी गई चंदा की रकम है) भाई के 50 कंपनियों के घोटालेताज कारीडोर जैसे कई मामले में फसी हुई है उन्हें कभी भी सजा हो सकती है उनकी लाख करोड की संपत्ति जप्‍त किया जा सकता है। 
सभी सवर्ण पार्टियां और उनकी मीडिया चाहती है कि मायावती का इसी प्रकार महिमा मंडन किया जाएताकि देश में एक मात्र दलितों की लीडर के रूप में वे नजर आए और उनकी भारी भरकम छवि बनी रहे। आज बहुजन समाज पार्टी नियमानुसार अपनी राष्ट्रीय पार्टी होने का तमगा भी खो चुकी है
(ड) क्या मायावती सच में दलितों की लीडर है?
यह प्रश्न हमेशा खड़ा होता है कि क्या दलित परिवार में जन्म देना ही इस योग्‍यता को समृद्ध करता है कि वह दलितों का नेता है। जबकि यह सच नहीं हैमायावती ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहने के दौरान दलितों आदिवासियों वंचितों के लिए क्या-क्या काम किए? उनकी शिक्षा के लिए कितने कॉलेजविश्वविद्यालय बनाएंकितने किताब छपवाएंकौन-कौन सी पत्रिकाएं निकलवाईदेश में होने वाले कितने आंदोलन में वे जमीनी तौर पर शामिल हुईया कौन सा आंदोलन उन्होंने खड़ा किया ? वे कभी भी एक जन नेता के रुप में नहीं जानी गई। जबकि उन्‍होने अंबेडकर सिद्धांत की विरुद्ध अपने कार्यकाल के दौरान निजीकरण को बढ़ावा दिया।

वह कभी भी रोहित वेमुलाजिग्नेश कन्‍हैया कुमार के आंदोलन के साथ नहीं खड़ी हुई। न ही वे किसी दलित प्रताडना या महिला प्रताडना के पक्ष में आंदोलन करते देखा गया। जबकि इसके साथ खड़ी होकर up में बहुजन आंदोलन के रफ्तार को बढ़ा सकती थी।
समाधान
आइए जाने की कोशिश करें की किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी ने कैसे जनता का विश्वास जीता
(1) इन्होंने 2014 से पूरे up में अपने कार्यकर्ताओं को काम पर लगवाया जो फूल टाइमर थे इन्‍हे नियत वेतन दिया गया। जबकि बहुजन समाज पार्टी ने सदस्यता का अभियान तक नहीं चलाया और जो कार्यकर्ता फिल्ड में काम करते थे उन्हें आर्थिक सहायता देना तो दूर उनसे चंदा वसूलने का टारगेट दिया जाता रहा।
(2)  भारतीय जनता पार्टी ने अपने मूल सिद्धांत से कभी समझौता नहीं किया हिंदूवाद ब्राह्मणवाद पर अडिग रहे। लेकिन मायावती ने अपने सिद्धांत के उलट ‘’हाथी नहीं गणेश है यह ब्रम्हा विष्णु महेश है ये’’ का नारा बुलंद किया
(3) भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के एक-एक वोटरों से घरों-घर संपर्क किया और वह यह समझाने में कामयाब रहे कि अखिलेश यादवयादव’ के नेता हैं। मायावती चमारों की नेता है। उन्होंने जनता के बीच सबका साथ सबका विकास’ नारा को बुलंद किया जिसकी भनक अखलेश और मायावती तक को नहीं लगी।
(4)  मायावती ने जीतने वाले उम्मीदवारों को दरकिनार कर के मुसलमानों को 100 टिकट देने की कोई कारण नहीं थे। सिवाय इसके की किसी गुप्त समझौते के तहत समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट काटकर भारतीय जनता पार्टी की जीत सुनिश्चित किया जाए। जब की भारतीय जनता पार्टी अपने सिद्धांत के तहत किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया।
(5)  चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोक दी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने अपनी पूरी कैबिनेट मंत्रियों को उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में लगा दिया। जिसमें भारतीय जनता पार्टी से शासित राज्‍यों के मुख्यमंत्री भी शामिल है। जबकि बहुजन समाज पार्टी में मायावती अपने सिवाय किसी और को स्टार प्रचारक तक नहीं बनने दिया।
(6) भारतीय जनता पार्टी और rss ने अपने बुद्धिजीवी लेखकों को चिंतकों को सर आंखों पर बिठाया। उन्होंने बकायदा एक इन्‍टेलेक्‍चुअल विंग का निर्माण किया तथा उन से संवाद जारी रखा। इन्होंने माहौल बनानेदस्तावेज बनाने और चुनाव को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जबकि बहुजन समाज पार्टी ने अपने लेखकों चिंतकों बुद्धिजीवी को दूध की मक्खी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया।

बी जे पी की जीत का ठीकरा ई वी एम के सर फोड़ने के पीछे भी एक साजिश की बू आती है। दरअसल मायावती स्वयं यह नहीं चाहती कि बहुजन समाज पार्टी में हार की समीक्षा हो और उनके द्वारा की गई कार गुजारिंया सामने आए। जबकी ई वी एम पर हमला करने पर कार्यकर्ताओं मतदाताओं को आसानी से गुमराह किया जा सकता है।
मैं नहीं कहता कि मायावती बुरी है मैं ये भी नहीं कहता कि बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने चुनाव में कोई कोर कसर छोड़ी होगी। मैने वही बात रखी है जो मेरे टेबल में बिखरे समाचार पत्रों दस्‍तावेजो से सामने आई है। कुछ लोगों को लग सकता है कि मैंने मायावती को कुछ ज्यादा ही जिम्मेदार ठहराया है दरअसल हार की समीक्षा तो होनी चाहिए। हार का जिम्मा भी उन्‍ही के सर जाता है जो जीत का सरताज पहने की आगे रहते है। अब मुद्दा ये नहीं रह गया। मुद्दा यह है कि बहुजन समाज पार्टी में कैसे लोकतंत्र की बहाली होकैसे वह अंबेडकर फुले के सिद्धांत पर चलेकैसे वह दबे कुचले लोगों के हितों की बात कर सकेयह तभी संभव है जब बहुजन समाज पार्टी में नेताओं की संख्या में इजाफा होगा और हर एक नेता मुख्यमंत्री बनने की हैसियत रखता हो। लेकिन आज की परिस्थिति में ये संभव नहीं है क्योंकि मायावती अध्यक्ष पद छोड़ेगी नहीयदि छोड़ दिया तो उनका अगला पड़ाव जेल में होगा। क्योंकि जो bsp के नेता उन्हें बचाने की ताकत रखते थे। उन्हें बहनजी ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। यदि bsp खत्म होती है यानि मायावती की राजनीतिक ताकत खत्‍म होने की सूरत में भी वे कानून के घेरे में आयेगी। यानी भविष्‍य में भी बहुजन समाज पार्टी एक व्‍यक्‍ति की संपत्ति बनी रहेगी यदि उसके कार्यकता न जागे तो। बेहतर होगा बहुजन समाज पार्टी जल्‍दी से जल्‍दी वास्‍तव में बहुजनों की पार्टी बने उनमें अन्‍दरूनी लोकतंत्र की स्‍थापना हो।




ई. व्ही. एम. .......! एक विश्लेषण -श्रवण देवरे

ई. व्ही. एम. .......! एक विश्लेषण -श्रवण देवरे

यह आलेख श्री श्रवण देवरेजी ने डी एम ऐ ग्रुप हेतु खास तौर पर भेजा है, वे चाहते है की इसे सिमित लोगो तक पहुचाया जाय. ध्यान रखे ये प्रकाशन हेतु नहीं है. यदि प्रकाशन करना हो तो उनसे यक्तिगत स्तर संपर्क करे.

आजकल ईव्हीएम के बारे मे चर्चा शिखरपर है! यह चर्चा 2004 से ही दबी आवाज मे शुरू हो यी थी! 2009 मे मैने खुद इसपर लिखा भी था और शंका जाहीर भी की थी! मगर 2014 के बाद चर्चा गतिमान हुई और अब 2017 मे यु.पी. चुनाव के बाद मामला सुप्रिम कोर्टतक पहुच रहा है! वोटींग के साथ (VVPAT) पर्ची का भी जिक्र चल रहा है, जो सुप्रिम कोर्ट ने अनिवार्य किया था मगर नही हो रहा है! इसीलिए शक की जगह (अ) विश्वास भी पक्का होता जा रहा है! सभी पार्टीया शक कर रही है, मगर मान्यवर वामन मेश्रामजी की बहुजन मुक्ती पार्टी, केजरीवालकी आप और बहनजी की बसपा के शिवाय काई मैदान मे नही आना चाहता! मगर इनकी बात लोग क्यों माने? क्योंकी इसी मशिन के सहारे यह दोनो पार्टीया यु.पी. और देल्ही दो-दो बार भारी बहुमत से जितके आई थी!
व्होटिंग मशिन के बारेमे ऐसी चर्चा करते हुए एक बात हमे ध्यान से देखनी पडेगी की, जबतक कॉंग्रेस आक्षेप लेकर आगे नही आएगी तबतक कुछ हल ना निकलेगा! क्योंकी 2014 से सबसे ज्यादा मशिन की मार कॉंग्रेस झेल रही है! इसके हाथसे तो पुरा देश छुट रहा है फिरभी कॉंग्रेस एक शब्द भी व्होटींग मशिन के खिलाफ नही बोल रही है! सवाल यह उठाना चाहीए की, अगर मशिन मे गडबडी की जा सकती है तो सबसे ज्यादा मार खानेवाली राष्ट्रीय पार्टी कॉंग्रेस चूप क्यों है?
इस सवाल के बारे मे बादमे सोचेंगे! पहले यह सोचा जाय की, क्या मशिन मे गडबडी की जा सकती है? अगर की जा सकती है, तो यह गडबडी कब होती है? मशिन बनते वक्त? मशिन बनने के बाद? वोटींग सुरू होने से पहले? वोटींग खतम होने के तुरंत बाद और सील करने के पहले? सील होने के बाद रास्ते मे? स्ट्रॉंग रुम मे बंद होने के बाद? स्ट्रॉंग रुमसे गिणती हॉलतक के रास्तेमे? गिणती हॉल मे गिणती शुरू होने से पहले? कब होती है यह गडबडी? अगर मशिन को गलत साबित करना है तो हर उस मुद्देकी चर्चा हमे करनी चाहीए जो खाल खिचकर अंदरतक जाकर कुछ ठोस मुद्दा रख सके!! लेकीन जो चर्चा मै सून और पढ रहा हुं, उसमे एसा कोई मुद्दा सामने नही आया, जो खाल खिंच सके! बस्स! एकही रट लगायी जाती है, मनुवादी लोग, फेकू महाशय, वगैरे वगैरे! ब्राह्मणों को गाली देकर अपने आपको शांत किया जा रहा है! चर्चा कोई नही कर हा है!
दो अपवाद है! एक संजीव खुदशाह साहब और दुसरे दिलीप मंडल साहब! संजीव जी ने विस्तारसे चर्चा करते हुऐ कहा की वोटींग के बाद जब सबके सामने मतलब अलग अलग पार्टी के पोलींग एजंट्स के सामने मशिन सीलबंद की जाती है, तबतक के सफर मे मशिन मे गडबडी नही की जा सकती है! इसी वजहसे संजीव साहब ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा है की, ‘ नही! मशिन मे कोई गडबडी नही की जा सकती! अगर गडबडी है तो उन लोगों के दिमाग मे है, जो मशिनपर शक कर रहे है!’
दिलीप मंडलसाहब ने कहा था की, ‘जिस राज्य के शासन-प्रशासन मे ओबीसी-बीसी का पर्याप्त प्रतिनिधीत्व है, उन राज्यो मे मशिन मे गडबडी नही की सकती!’ उदाहरण के तौर पर उन्होने बिहार राज्य के ऍसेंब्ली चुनाव बताया जहा भाजपा हार गयी और राजद-जेडीयु का महागठबंधन सत्ता मे आया! और उत्तरप्रदेश मे भी यह गडबडी नही हो सकती ऐसी भविष्यवाणी भी उन्होने की थी! मगर यह मुद्दा साबित ना हुआ! क्योंकी 2014 के पार्लमेंट्री इलेक्शन मे बिहार और युपीमे गैर-भाजपाई पुरी तरहसे वॉशआऊट हो गये थे! जैसे 2017 मे युपी असेंब्ली मे भी वॉशआऊट हो गये है! मगर बिहार राज्य के 2015 के चुनाव मे ऐसा क्यों नही हुआ? क्या उसी वक्त शासन-प्रशासन के ओबीसी जागृत हो गये थे? 2014, 2015, 2017 अंतर तो कुछ ज्यादा नही है! तो हल कैसे निकले?
दुसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है की, जो गडबडी की जा सकती है वो मशिन के अंदर या बाहर? अंदर के बारे मे मैने सोचा! 2009 मे मैने खुद ने एक सवाल उठाया था की क्या सॅटिलाईट के माध्यम से इस मशिनके अंदरकी सिस्टीम को प्रभावित किया जा सकता है? 2009 मे मैने कुछ एक्सपर्ट से बात की! उदाहरण के तौर पर मुंबई के ट्रेन की सिग्नल सिस्टीम जो सॅटेलाईट्से कंट्रोल की जा सकती है, ऐसा मैने सुना था! मगर इस सिस्टीम के एक्सपर्ट से पता चला की ऐसा कुछ नही है और एसा हो भी नही सकता! रिमोट कंट्रोल से यह संभव नही! ऑटो-सेन्सेटिव्ह सिस्टीमसे ही सिग्नल काम करते है! अगर सभी मशिन मे कुछ बदलाव करना है, तो बाहरसे किसी रिमोल कंट्रोल से, सॅटेलाईटसे या किसी चिपसे यह संभव नही! अगर मशिन के अंदर जाकर कुछ बदलाव करना है तो वो भी संभव नही, क्यों की ऐसे कितने मशिन के सील आप तोड सकते है? और सील तोडना भी चाहते है तो फिरसे सील करने के लिए इतने लोगोंकी साईन हुबेहुब करने के लिए लगनेवाला टाईम भी तो ज्यादा होता है! स्ट्रॉंग रूममे हेराफेरी के कम चान्सेस है, क्यों की काऊंटिंग के दिन तक कुछ भी हो सकता है! इससे यह बात साफ होती है की, मशिन के अंदर जाकर या बाहरसे अंदरकी सिस्टीम बदली नही जा सकती! तो फिर हल कैसे निकले? एकही मार्ग बाकी रहता है....  और वो है बाहर से बाहरी फेरफार!
अगर दिलीप मंडल साहब और संजीव खुदशाह साहब इन दोनों के मुद्दे एकसाथ लेकर चर्चा की जाय तो हल मिल सकता है! सोल्युशन को हासिल करने का रास्ता इनके मुद्दों से मिल सकता है! संजीव कहते है के वोटींग के बाद सबके सामने सील की गयी मशिन मे कुछ भी गडबडी नही की जा सकती है! मतलब मशिन के निर्माण से लेकर वोटिंग के बाद सील लगने तक कोई गडबडी नही हो सकती! यह बात 16 आने सच है! मगर सील करने के बाद वाहनसे स्ट्रॉंगरुम मे लाया जाता है! जिस गाडी से अनेक मशिन्स स्ट्रॉंग रुममे लायी जाती है, उस गाडी मे सभी बुथके कर्मचारी उपस्थित रहते है और वो कमसेकम 30-35 लोग रहते है! तो वहा भी बाहरसे बाहरी गडबडी या अंदरसे अंदरकी गडबडी संभव नही! स्ट्रॉंग रुममे भी यह गडबडी संभव नही क्योंकी सीसीटिव्ही लगायी जाती है और आय.ए.एस., आय.पी.एस दर्जे की निगराणी भी होती है!! यह बाहरी गडबडी बाहरसे तभी संभव है जब कमसेकम लोग मशिन्स के संपर्क मे हो, कमसेकम वक्त का सफर हो, कोई सीसीटिव्ही भी ना हो! और काऊंटिंग सुरू होने से कुछ समय पहले हो! ताकी जांच-पडताल को कोई टाइम ना मिले! काउंटिंग हॉल मे पहुचने के बाद तो कुछ गडबडी संभव ही नही क्योंकी वहा तो पार्टी एजंट्स और दुसरे लोगोंकी भीड रहती है! गडबडी करने के लिए यह आवश्यक है की, मशिन्स के आसपास कमसे कम लोग हो, सफर का वक्त कमसे कम हो और कोई कॅमेरा भी नही हो! काऊंटिंग सुरू होने से कुछ समय पहले हो! ताकी जांच-पडताल को कोई टाइम ना मिले! ऐसी स्थिती एकही है और वो है... स्ट्रॉंग रुमसे लेकर काऊंटिंग हॉल का रास्ता! यहापर दिलीप मंडल जी का प्रशासन-कर्मचारी का मुद्दा काम करता है! 3-4 लोग जो गाडीमे रहते है वो आसानी से मॅनेज किये जा सकते है! इस रास्तेपर बाहरसे बाहरी गडबडी की जा सकती है! यह क्या गडबडी है, जो हो सकती है? रास्ते मे सब मिलाकर 10-12 मशिन्स बदले जा सकते है! ओर 10-12 मशिन्स बदलने का मतलब है कमसे कम 12-15 हजार वोटींग का फेरफार! इससे ज्यादा कुछ नही किया जा सकता है! अगर कोई सत्ताधारी वर्गजाती-पक्षका उम्मीदवार इस चुनाव मे 8-10 हजार से हारने की संभावना है तो वो इस तरह की गडबडी की वजहसे थोडी-बहुत मार्जिनसे जीत जाएगा! और उनका कोई उम्मीदवार पहलेसेही अपने दमपे जीत रहा है, तो वो इस गडबडी के वजहसे भारी बहुमतसे जीतेगा!
एक खुलासा जरूर करना चाहुंगा! सायन्स-टेक्नॉलॉजी के बारे मे आज जो कुछ कहा जाएगा वो कलतक कायम नही रहता! क्योंकी सायन्स-टेक्नॉलॉजी निरंतर विकास की दिशा मे जानेवाली चीज होती है, यह तो हम भारतीय इन्सान है, जो टेक्नॉलॉजी के सहारे आगे बढने के बजाय पिछे जाने मे मतलब हासिल करते है! ईव्हीएम घोटाला इसका सही उदाहरण है! ईव्हीएम घोटाला किसी भी कारण हो, कैसे भी किया जाता हो, मगर इस घोटाले के कारण 100 परसेंट जीत इंपॉसिबल है! और जीस दिन घोटाले का परसेंट बढ जाएगा, समझो उस दिन रुलिंग क्लास-कास्ट मे जातीय दरार बढ गयी है और एक बडा हादसा भारतीय पॉलिटिक्स मे होनेवाला है! इसके आसार भी अभी दिखने लगे है! बस्स देरी राईट टाईम की है!
अब सवाल यह खडा होता है की, इसतरह की गडबडी कौन कर रहा है? गडबडी करने का संबंध सिर्फ तैनात प्रशासक-कर्मचारी और रिश्वतके पैसे से है, तो यह गडबडी कोई भी कर सकता है! अपक्ष और स्वतंत्र खडे उम्मीदवार भी कर सकते है! क्योंकी वो भी तो करोडपती-अब्जोपती होते है! क्या वो यह षडयंत्र कर सकते है? नही कर सकते! क्योंकी ईव्हीएम को बदलने के लिए उतनेही और वैसेही दुसरे ईव्हीएम चाहीए और पूरी नकल के साथ चाहिए! और यह इतना आसान काम नही है! दुसरी बात, कौनसी गाडी कौनसे कामपर लगाना है और कौनसी मशिन्स लेकर जा रही है यह इनफर्मेशन वगैरा मिलना आसान नही होता! तो यह कोई पैसों का खेल नही के हर कोई दाव लगा ले! यह दांव है सिस्टीम का! जिसके बारे मे हम क्रांतिकारी, पुरोगामी, फुले-आंबेडकरवादी वगैरा वगैरा हमेशा अन्जान होते है! बस्स! दो-चार गालीयां फेबुपर मोहन भागवत को दे दी ..... तो हो गया हमारा आत्मा शांत और समाधानी! रातको बहोत अच्छी निंद आती है!
इव्हीएम घोटाला को सच माननेवालेको इन मुद्दोंपर ध्यान देना चाहीए!
  1. इव्हीएम मे अगर घोटाला हो रहा है तो वह केवल 2 या 3 परसेंट व्होट का फेरफार करने के लिए हो सकता है, किसीको पुरे 100 परसेंट जीताने के लिए नही!
  2. इव्हीएम का घोटाला किसी भी तरह हो रहा हो, तो वो पैसों की वजहसे नही! सिस्टिम को बचाने के लिए राष्ट्रिय स्तरपर हो रहा है षडयंत्र!
  3. यह घोटाला जो भी कर रहा है वो राष्ट्रीय स्तर के संघटन का षडयंत्र है!
अब आप कहेंगे की राष्ट्रीय स्तर का संघटन तो केवल आर.एस.एस. है ओर वही भाजपा को जीता रही है! यह सोच बिल्कूल गलत है! कोई भी भूप्रदेश जब राष्ट्र बनने के लीए गठीत होता है तो उसके कुछ उद्दिष्ट होते है! इन उद्दिष्टोंको साध्य करने के लिए कुछ नितीयां होती है! जैसे की अमेरिका का मुख्य उद्दिष्ट दुनियाभर मे उनका (Monopoly Capitalist) वर्चस्व कायम बने रहे! इस उद्दिष्ट को साध्य करने के लिए अमेरिका के रूलींग क्लास ने मिलीट्री, सी.आय.ए., एफ.बी.आय. पेंटॅगॉन वगैरे संस्थाए निर्माण कर रखी है! यह संस्थाए अपने एजंट्स का जाल दुनियाभरमे फैला देते है और अपने राष्ट्र के हित मे काम करते है! इनको इतनी स्वतंत्रता रहती है के यह किसी को जबाबदेही नही रहते है! ऑन पेपर इनका बॉस देशका प्रेसिडेंट होता है, मगर ऑफ दि रेकॉर्ड यह लोग अपने प्रेसिडेंट को भी जान से मार देते है! दुसरे देशो मे इनके एजंट्स इस तरह से काम करते है जिससे वह देश अमेरिका की गुलामी से बाहर ना निकले! उदाहरण के तौरपर मै बताउंगा..... भारत के 50 से अधिक सायंटिस्ट इन दो सालमे मारे गये है, ओर खुनी नही मिल रहे है! 10 चुहे भी अगर किसी एक जगहपर मरे पडे दिख जाए, तो भारतका मिडिया वेल्थ ऑफिसर से लेकर वेल्थ मिनिस्टर तक के सभी जिम्मेदार लोगों के पिछे पड जाता है! मगर इतने बडे पैमाने पर सायंटिस्ट मारे जा रहे है और कोई मिडिया इसको अपनी न्युज नही बना रहा है! बस्स, इस विषयपर सुप्रिम कोर्ट चिल्ला रहा है, और किसी के पास वक्तही नही सुप्रिम कोर्ट की कुछ सुने! तो यह होता है अमरिका का आंतरराष्ट्रीय षडयंत्र, अपने राष्ट्र के हित मे काम करने का! उसी तरह हर देश मे रूलींग क्लास की ऐसी संस्थाऐ होती है, जो हर पाच साल मे आनेवाली-जानेवाली सरकार से बेमतलब रहती है! उसका काम सिर्फ अपने देश के रूलींग क्लास की सिस्टिम को बचाना होता है! जो भी कोई उनकी सिस्टीम को धक्का पहुंचानेकी कोशिश करता है उसके लिए बहिष्कृतता, दहशत, जेल, मौत ऐसा कोईभी हत्यार युज किया जाता है!
भारत मे वर्गव्यवस्था नही है, जातीव्यवस्था है जो वर्गव्यवस्थासे प्रभावी होती जा रही है! इसलिए भारत मे रूलींग क्लास नही, रुलींग कास्ट-क्लास है! ओर इस रुलींग कास्ट ने अपने देश के कुछ उद्दीष्ट तय कीए है! अपनेही देशमे अपने वर्ग-जात का वर्चस्व कायम रहे और अपने अप्पर वर्ग-जातकी सिस्टीम कायम रहे, यह इसका मुख्य उद्दिष्ट है! वह इस तरह है.......
  1. वर्ण सिस्टीम खतम करनेवाले बौद्ध धम्म ने अपनी विचारधारा की युनिव्हर्सिटीज बनायी! इन बौद्ध विद्यापीठोने रेनेसॉन्स मुव्हमेंट चलाया जिसकी वजहसे वर्णसिस्टीम खतम हो गयी! मतलब वर्ण-संघर्ष वर्ण-युद्ध मे तबदिल नही हुआ और वर्णांतकी क्रांती शांतीसे, अहिंसा से कामयाब हो गयी! बौद्धधम्म क्रांतीने जिसतरहसे शांती-अहिंसा से क्रांती का काम किया, इससे सिख लेकर जाती सिस्टीम को निर्माण ओर कायम करने के लिए मनुवादीयों ने बौद्ध युनिव्हर्सिटीज नष्ट कर दी और अपने विचारधारा की युनिव्हर्सिटीज का निर्माण कीया!  
  2. लेकीन जाती सिस्टीम की कमजोरी की वजहसे बाहरी आक्रमणकारी मुस्लीम और अंग्रेज पॉलिटिकल पॉवर मे आ गये! परिणाम यह हुआ की जाती सिस्टीम को खतम करने के लिए संत नामदेव से लेकर संत रईदास और फुले-शाहू-आंबेडकर जैसे महापुरूष निर्माण हो गये!
  3. मुस्लीम और अंग्रेज तो केवल पॉलिटिकल पॉवर मे थे, रिलिजीयस, सोशियल, कल्चरल पॉवरमे तो ब्राह्मीण कास्ट कायम थी! जैसे ही मुस्लीम और अंग्रेज पॉलिटिकल पॉवर से हट गये, पूरी सत्ता ब्राह्मीण कास्ट के हाथमे आ गयी! स्वतंत्र भारत मे अब ब्राह्मीण कास्ट फूल पॉवरमे है! इसी वजहसे आज देशमे जितने भी युनिव्हर्सिटीज है, सभी के सभी ब्राह्मीण विचारधारा की है, जो प्रतिक्रांतिके लिए देश के युवाओं को तय्यार कर रही है! और इस प्रतिक्रांति के लिए SC+ST+OBC को उतावले करने का काम चल रहा है! स्वतंत्रता के बाद तुरंत पहला काम यह किया गया की रुलींग अप्पर कास्टकी सरकारी एजंन्सियां गठीत की गयी, जो हरपल हरक्षण सतर्क रहे ताकी देशकी अप्पर कास्ट डॉमिनेटेड सिस्टीम को कोई धक्का न लगा सके!
  4. कांशीराम साहब के आंदोलन की वजहसे दलित जागा और मंडल कमिशन के लिए किये गये आंदोलन की वजह से जैसेही 52 परसेंट ओबीसी तबका जागृत होने लगा, जाती सिस्टिम की नींव हिलने लगी! 1992 से भारतीय पॉलिटिक्स मे अप्पर कास्ट का वर्चस्व कम होते गया और दलित-ओबीसी का वर्चस्व बढते गया! ऐसी स्थिती मे देशमे केवल दलित-ओबीसी पार्टीज के अलायन्सकी सरकार प्रस्थापित होने की शुरूवात हो गयी, उदाहरण... देवेगौडा की केंद्रिय सरकार....  अब यह सरकारी एजंन्सियों ने रूलिंग कास्ट को सलाह दी की .... आपको बचना है तो EVM लेके आओ! सो लेके आए...
  5. जैसे जैसे दलित-ओबीसी जाग्रती बढने लगी EVM के घोटालेका परसेंटेज बढता गया! लेकीन एक हदतक ही वह बढ सकता था! उससे ज्यादा नही! EVM के घोटाले की वजहसे 2004 मे और 2009 मे हंग पार्लमेंट आयी और कॉंग्रेस ओबीसी-बहुजन पार्टीज की मददसे सत्ता मे आयी!
  6. 2009 जातीगत जनगणना के मुद्देकी वजहसे ओबीसी जाग्रती बढ गयी! EVM घोटाले का परसेंटेज अपनी सीमा के चरम अवस्थापर था! ओबीसी जाग्रती के परसेंटेज को पार करना मुष्कील लग रहा था! केवल अँटीइन्कंबंसी पर भरोसा नही कीया जा सकता था! ऐसी स्थिती मे यह रुलिंग कास्ट की सरकारी संस्थाऐ अपने रूलिंग कास्ट को कुछ हिंट देती है और यह पार्टीज उसपर अमल करती है! उदाहरण के तौर पर बताना चाहता हुं.... 2011 मे सबसे पहले अंबानी ने नेक्स्ट पी.एम. के लिए मोदी जी का नाम आगे किया! उसके बाद 2012 मे इंटरनॅशनल मॅगेझीन ‘टाईम्स’ ने स्पष्ट कर दिया की मोदीजीही अगले पी.एम. होंगे! मोदी जी को प्रधानमंत्री का उम्मिदवार बनाने का सुझाव इसी सरकारी संस्थाओं ने दिया था, जो मान लिया गया और सक्किस भी हो गया!
  7. 2014 मे भी EVM से इलेक्शन हुआ था! अगर केवल EVM के घोटाले के भरोसे इलेक्शन जीता जा सकता है तो कोईभी ब्राह्मीण व्यक्ती प्रधानमंत्री का उम्मिदवार बना देते और EVM से भारत की सत्ता पा लेते! मोदीजी की जरूरत क्या थी? जरूरत थी, और शुद्र-ओबीसीकीही जरूरत थी! परिसंघ के रामराज की नही! क्यों की ओबीसी जाग्रती का पॉलिटिकल परसेंटेज इतना बढ गया की वो EVM के घोटाले के परसेंटेज को परास्त करने जा रहा था! इसीलिए ओबीसी फेस नरेंद्र भाईकी जरूरत आ गयी!
  8. मिडिया मोदीसाहब को जितना ‘ओबीसी फेस’ बता रहा था, उतनाही काफी था, भाजपा डॉमिनेटेड हंग पार्लमेंट के लिए! लेकीन मोदि साहब अपने मातृसंघटन से भी आगे बढ गये! अपनेआपको पिछडा, निची जात का बताने लगे भरी सभाओं मे! और सब दोष रख दिया कॉंग्रेस के सरपर! इसकी वजहसे ओबीसी आक्रमक भी हो गया और उसके जागृती का परसेंटेज भी बढ गया! इसके परिणाम जो होने थे वो चुनाव नतीजे के दिन उजागर हो गये, जिसकी उम्मिद ना कॉंग्रेस ने की थी, ना RSS-BJP ने! विशेषज्ञ की बात तो बहोत दुरकी! भारत के इतिहास मे यह घटना पहलीबार घट रही थी, कोई प्रधानमंत्रीपद का उम्मिदवार प्रचार सभाओ मे खुदको नीचली जातका ओबीसी बताकर वोट मांग रहा हो! ऐसा तब किया जाता है, जब उस कॅटिगोरी की वोट बँक निर्णायक (Dominent and Guranteed ) हो! EVM घोटाले का फायदा इतनाही हुआ की, 20-25 सीट ज्यादा आगयी! लेकीन करिष्मा तो ओबीसी वोटबँककाही था!
अब EVM के विषयपर फिरसे आते है! 2004 के लोकसभा इलेक्शन मे भी EVM था! लेकीन EVM के घोटाले का परसेंटेज ओबीसी जागृती के परसेंटेजपर उतनाही हावी हुआ जितना कॉंग्रेस पार्टी को लाभदायक था! 2009 मे फिर EVM ही था! इसबार भाजपा के जितने के आसार बहुत थे! लेकीन ओबीसी जागृती का झुकाव लालू, मुलायम और मायावती के तरफ जाने के कारण EVM के घोटालेका परसेंटेज कम पड गया और भाजपा नही जीती! दलित-ओबीसी पार्टीज के सपोर्ट से कॉंग्रेस फिरसे सत्ता मे आ गयी! नितिशजी ने ठिक वक्तपर भाजपा से नाता तोडा! क्यों की बिहार मे नितिशजी की वजहसे ओबीसी भाजपा को वोट दे रहे थे! उन्होने ओबीसी जाग्रती का तकाजा जानते हुए लालूजी से दोस्ती कर ली और फायदे मे रहे! लेकीन यु.पी, मे इधर सपा-बसपा अपनी पार्टी की ‘जात’ से और पार्टी के ‘सगे-परिवार’ से बाहर नही आ रही थे! बसपा का माया-प्रेम और सपा का सगा-परिवार-प्रेम बढताही जा रहा था! 2014 तक यह इतना बढ गया की ओबीसी के सामने एकमात्र रास्ता था- ओबीसी-मोदी का! अरे भाइ गणेशकाही दर्शन करना है तो सतिश मिश्रा के हाथी मे क्यों देखे गणेश? सीधे भाजपा के गणेश का दर्शन क्यों ना लिया जाय! मायावतीने कोई ओबीसी फेस सामने ना आने दिया, जैसे सपाने मुस्लीम फेस आजमखान को युज किया! मायावतीने ब्राह्मिण फेस मिश्रा को सामने रखा! 2014 के लोकसभा इलेक्शन मे मार खाने के बावजूद सपा-बसपा नही सुधरे, तो फिरसे ओबीसी ने उनको 2017 मे स्टेट मे भी उलटा लटका दिया!
सपा-बसपा को आत्मपरिक्षण टालने का कारण मिल गया! EVM के सरपर दोष मढनेसे सपा-बसपा की हार को हल्के मे लेने वाले आजका समय तो टाल सकते है, मगर आगे आनेवाले समय मे होनेवाले परिणामों को कौन टाल सकता है?? ओबीसी जाग्रती की वजह से दिन-ब-दिन जातीसिस्टिम का तणाव बढते जा रहा है! EVM की मददसे सपा-बसपा-भाजपा टाईमपास कर लेंगे मगर कितने दिन तक? EVM तो 2-3 परसेंट से कुछ ज्यादा फेरफार नही कर सकता! हवा के झोके से झाड के पन्ने हिल सकते है, झाड नही! 1992 से यह भारतीय पॉलिटिक्स का पूरा वृक्ष इधरसे-उधर हिल रहा है, वो ओबीसी की बढती जाग्रती की वजहसे और उसको ना समजनेवाले सपा-बसपा जैसी नॉन-ब्राह्मिण पार्टीज की वजहसे!
RSS कतई नही चाहती की ओबीसी जाग्रती को ‘ओबीसी’ नामसे पहचाना जाए! 2014 मे उसने ओबीसी जाग्रती को ‘’मोदीलाट’’ (Modi-Wave) के नामसे बदनाम किया! और आज हम EVM का नाम देकर ओबीसी जाग्रती को ठुकरा रहे है! कितने मुर्ख है हम की जो ‘अपनी ही ताकत को नकार रहे है और दुष्मनों की ताकत बढा रहे है!
मैने इस आर्टिकल के दुसरे पॅरॉ मे सवाल उठाया था, कॉंग्रेस 2014 से EVM की मार सबसे ज्यादा झेल रही है और वो आज नामशेष होने जा रही है तो वो फिरभी शांत क्यो है??? EVM के खिलाफ सपा-बसपा की तरह बोल क्यों नही रही! उसका सबसे बडा कारण यह है की कॉंग्रेस रूलिंग कास्ट का सबसे बडा अंहम हिस्सा है! भाजपा दुसरा-दुय्यम हिस्सा है!
भारतीय लोकशाही का एक ट्रेंड है! लोकशाही मे अँटी-इन्कंबस्सी की वजह से लोग कॉंग्रेस के खिलाफ वोट करते है! यह अँटी-इंन्कंबस्सी हर 10 साल के बाद आती है! स्वतंत्र भारत का पहला इलेक्शन 1952 मे हुआ था! पहली अँटी-इन्कंबस्सी 15 साल के बाद आयी, 1967 मे! अँटी-इन्कंबस्सी के सभी वोट समाजवादी पार्टीज को मिले, जिसमे लोहिया-चंदापूरी अलायन्स के कारण ओबीसी नेतृत्व फोकस मे आया! उसके बादकी अँटी-इन्कंबस्सी 1977 मे आयी और इसबार ओबीसी नेतृत्व का वर्चस्व थोडा और बढ गया जिसके कारण पूरा देश मंडल कमिशन के माध्यमसे जाती-संघर्ष के रास्तेपर गतिमान हो गया! इस गती को रोखने के लिए भारी बहुमतवाली जनता पार्टी की सरकार को गिराना जरूरी था, सो वो सबकी सहमती से गिर गयी! RSS ने 75 सीट वाली जनसंघ-भाजपा को अंडरग्राऊंड कर दिया ताकी कॉंग्रेस पूरी तरह बहुमत से सत्ता मे आ जाय! सो वो आ गयी, जिसने कालेलकर आयोग की तरह मंडल कमिशन को भी पूरा दफन कर दिया! मगर इसबार रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज नया प्लॉन बना रही थी! ओबीसी जाग्रती बढती जाएगी और 10 सालबाद आनेवाली अँटी-इन्कंबस्सी मे जो नयी सरकार आएगी उसको मंडल कमिशन अमल मे लाने से कोई नही रोख सकता! 1989 मे जो नयी सरकार आएगी उसमे ओबीसी डॉमिनन्स होगा और मंडल कमिशन के अमलसे उसकी ताकत और बढ जायेगी! इसलिए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने 1985 मे ही नया प्लॉन बनाया और अमल मे भी लाया! प्लॉन था, जब 1989 की नयी सरकार मंडल कमिशन अमल मे लाएगी तो उसको गिराने के लिए बाबरी मस्जिद को गिराना पडेगा! 50 साल से बंद पडा बनावटी रामंदिर का दरवाजा 1985 मे खोला गया और बॅलन्स रखने के नामपर ‘शहाबानो’ नामक चिनगारी को हवा दे दी गयी! 1998-90 मे क्या हुआ और रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज के प्लॉन सक्सेस कैसे हुआ, यह दोहराने की जरूरत नही!
मंडल कितना अमल मे आया, कैसे अमल मे आया और किसतरह नॉन-क्रिमी लेयर का रोडा डालकर उसकी गती को रोखने की कोशिश हुइ यह सब जानते है! ओबीसी जाग्रती धीमी हो गयी मगर रूलींग कास्ट की नींव को धक्का देने का काम करती रही!
2009 तक ओबीसी जाग्रती ने रूलींग अप्पर कास्ट की किसी भी पार्टी को बहुमत से राज ना करने दिया! 52 परसेंट जाग्रत ओबीसी वोटर कभी मायावती मे तो कभी मुलायम-लालू-भुजबल मे देश का नया मसिहा ढुंढता रहा! दरम्यान रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने दुसरा प्लॉन बनाया और वो था EVM का, जिसको 2004 से ही धिरे-धिरे कम परसेंटेज के घोटाले के काम मे लगा दिया! ओबीसी वोट कुछ ज्यादाही गतीसे लालू, मुलायम, मायावती और नितीश के तरफ जा रहे थे! दक्षिण मे महाराष्ट्रा जैसे राज्य से छगन भुजबल और स्मृतीशेष गोपीनाथजी मुंडे जैसे ओबीसी लिडर देश के स्तरपर उभर रहे थे! रूलींग कास्ट जानती है की EVM कुछ ज्यादा नही कर सकता! केवल EVM के भरोसे 2014 की इलेक्शन जीतना नामुमकीन है, क्यों की ओबीसी जाग्रती का परसेंटेज इतना बढ गया है, जो EVM के घोटाले के परसेंटेज को परास्त कर सकता है! इसी वजह से रिस्क ना लेते हुए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने सलाह दी- ‘मोदीजी को प्र.मं. का उम्मिदवार बनाने की’!
इस दौरान बढती ओबीसी जाग्रती से अन्जान सपा-बसपा-राजद-सजद-भुजबल वगैरा इस गलत फहमी रहे की केवल अपनी अपनी जात के भरोसे हम अपने अपने इलाके मे सुरक्षित है! मायावती समजती थी, जाटव से ब्राह्मिण-जात को जोड लुंगी तो जीत जाऊंगी! अखिलेश-मुलायम सोचते रहे की, यादव से मुस्लीम जुडे है, तो हारने की संभावनाही नही! भुजबल सोचते रह गये की, मेरे पिछे माली बडी संख्या मे है तो कोई माई का लाल मुझे जेल नही भेज सकता! बस्स आप सोचते रहेंगे, जीतते रहेंगे और तुम्हारे दुष्मन शांती से तुम्हारी जीत देखते रहेंगे! असल मे इनको मालूमही नही की हमारा दुष्मन कौन है, वो कितना ताकतवर है और किसी भी हद को पार कर सकता है?? अपने दुष्मन की जानकारी रखनेवाले और जीतने के लिए स्ट्रटेजी बनानेवाले विद्वान केवल ब्राह्मणों मे नही है, बहुजनों मे भी है! लेकीन रूलींग अप्पर कास्ट के विद्वान सरकारी एजन्सीज मे बिठाए जाते है, पत्रकार बना दिये जाते है, पुरस्कारोसे सम्मानित किये जाते है! अप्पर कास्ट विद्वानों का कद इतना ज्यादा बढाया जाता है की उसकी सलाह हमारे SC+ST+OBC नेता भी मानने लगते है! लेकीन खुदकी अपनी जाती के विद्वानों को यह SC+ST+OBC नेता अपने पास भी नही आने देते! बहुजन के सच्चे विद्वानों को उनकी जाति के नेताओ से दूर रखा जाता है! इसका एक उदाहरण देना चाहता हुं---- 2015 मे दो दिन की 7 वी अखिल भारतीय सत्यशोधक गोलमेज परिषद कल्याण (जि. ठाणे) मे संपन्न हुयी! कॉन्फरन्स का अध्यक्ष हमे बनाया गया था और मान्यवर छगन भुजबल साहब को इनॉगरेशन करने के लिए आमंत्रित किया गया था! तो इस कॉन्फरन्स मे श्रावण देवरे और भुजबल पूरे दिन एकसाथ रहनेवाले थे! इस होनी से रुलींग कास्ट के विद्वान इतने डर गये की आप सोच भी नही सकते! जैसेही प्रोग्राम कार्ड प्रकाशित हुआ, सब के सब इस कोशिश मे लग गये की, ‘कुछ भी हो जाय लेकीन भुजबल साहब को इस प्रोग्राम मे जानेसे रोखना होगा!’ इस षडयंत्र का प्लॉन बनानेवाले थे भांडारकरवाले ब्राह्मिण, मगर प्लॉन को अमल लाने का काम कर रहे थे माली विद्वान(?)!
कॉंग्रेस EVM के षडयंत्र के खिलाफ इसलिए नही बोल रही है की, उसको 2024 मे यही EVM दिल्ली मे सत्ता देनेवाली है! भाजपा सरकारकी अँटीइन्कंबस्सी 10 साल मे बढ जाएगी! इसका फायदा माया-मुलायम-लालू-नितिश को नही मिलना चाहिए, सीधे कॉंग्रेसकोही मिलना चाहिए इस कोशिशमे सरकारी एजन्सीज काम कर रही है! सभी दलित-ओबीसी नेताओं को जेल जाने का डर है! दलित-ओबीसी वोटसे वो सत्ता तो पा लेते है, मगर अप्पर-कास्ट सिस्टिम को धक्का नही देना चाहते! जो भी नेता यह काम करेगा उसे तुरंत जेल मे डाल दिया जात है! इसी डर की वजहसे माया-मुलायम-लालू-नितिश-भूजबल ऐसा कोई भी काम नही करेंगे जिससे 10 साल के बाद अँटिइन्कंबस्सी का फायदा उठाते हुए पूरी 100 परसेंट बहुजन-सत्ता केंद्र मे स्थापित हो जाय!  कॉंग्रेस को फिरसे सत्तामे बिठाने के लिए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज अब इस फिक्र मे है की, ऐसा कौनसा हादसा किया जाय जिससे भारतीय पॉलिटिक्स मे 1989 की तरह उथल-पुथल मच जाय और लोग फिरसे कॉंग्रेस के तरफ झुक जाय! 2019-2024 के वक्त चुनाव मे EVM भी रहेगा, माया-मुलायम-लालू-नितिश-भूजबलभी रहेंगे और मोदीसाहब भी रहेंगे! मगर EVM का करिष्मा उनके हित मे ना होगा!!
यह सब जो अखिल भारतीय रूलींग कास्ट की अखिल भारतीय रूलर एजन्सीज के माध्यम से षडयंत्रों का सिलसिला चल रहा है, वह सिर्फ ब्राह्मण-वर्चस्ववाली जातीव्यवस्था को कायम रखने के लिए किया जा रहा है! और हमारे बहुजन नेता अपने आपको जेल जाने से बचने के लिए पुरे बहुजन पॉलिटिक्स को खतम कर रहे है! तात्यासाहब महात्मा जोतीराव फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के आंदोलनसे और उनके असंख्य प्रामाणिक कार्यकर्ताओं की 225 साल की मेहनत से जातीव्यवस्था खतम करनेवाला बहुजन पॉलिटिक्स आज यशस्वी हो सकता है, मगर हमारे आधे-अधुरे बहुजन नेताओं की वजहसे यह पॉलिटिक्स जीतने मे कामयाब नही हो रहा है! बस्स! अब हमारे हाथमे 2 साल है.... कुछ करो .... करनाही होगा... इन दो सालों मे आगे दिए हुए प्रोग्राम सक्केस हो सकते है..... और अप्पर कास्ट के फांसे पलटा सकते है!
बस्स, दोही मार्ग है! एक लॉंग-टर्म और दुसरा शॉर्ट टर्म
  1. बौद्ध युनिव्हर्सिटिज का मॉडेल सामने रखकर ऑल इंडिया के स्तरपर रेनेसॉन्स मुव्हमेंट चलानी पडेगी, जिससे ओबीसी-बहुजन जागृती निगेटिव्ह से पॉझिटिव्ह हो जाए और केवल जाती-संघर्ष से जातीव्यवस्था को खतम किया जा सके! यह एक लंबा प्रोग्राम है.... लॉंग टर्म!
  2. जातीसंघर्ष का शॉर्ट-टर्म प्रोग्राम ऐसा होना चाहीए की जिससे रूलिंग कास्ट की कमर टूट जाय! आज की तारीख मे ‘’जातीगत जणगणना’’ यह एकमात्र मुद्दा है जो रूलिंग अप्पर-कास्ट को ध्वस्त कर सकता है! इसी मुद्दे की वजहसे अडवाणी कचरे के डिब्बे मे डाल दिये गये, मुंडेजी और जयललिताजीको जान से हाथ धोना पडा और भुजबल चाचा-भतिजे को जेल मे बंद कर दिया गया!!
  3. अगर पूरे देश के ओबीसी-बहुजन बडी संख्या मे ‘जातीगत जणगणना’ का एकमात्र मुद्दा लेकर देल्ही मे 10-12 दिन के लिए रामलीला मैदान मे बैठ गये तो ........  
  1. खुदको ‘ओबीसी फेस’ बतानेवाले मोदीसाहब का ओबीसी मास्क हट जाएगा! क्यों की आर.एस.एस. उनको यह काम किसी भी हालतमे नही करने देंगी!
  2. 2019 के इलेक्शन को देखते हुए मोदीसाहब अपने ओबीसी फेस को बचाने का प्रयत्न करेंगे! इस प्रयत्न मे वो ‘जातीगत जनगणना’ के पक्ष मे कुछ तो बोलेंगे और आर.एस.एस. के खिलाफ उनका संघर्ष बढ जाएगा!
  3. जातीगत जनगणना के मुद्देपर मोदी विरूद्ध आर.एस.एस. संघर्ष मे ओबीसी और दुसरे एम.पी. भी मोदी के नेतृत्व मे एकजूट हो सकते है! सभी मेंबर्स ऑफ पार्लमेंट को एक बात मान्य है, की हम कोईभी चुनाव ओबीसी की मांग के खिलाफ जाकर नही जीत सकते!
  4. जिसतरह कॉंग्रेस तोडकर व्हि. पी. सिंग बाहर आये और ओबीसी-बहुजनोंके सपोर्टसे पी.एम. बन गये! मंडल कमिशन लागू करके रूलींग कास्ट की ऐसी कमर तोडी के आज भी वह संभल नही पा रही है! अगर क्षत्रिय व्हि.पी.सिंगजी ब्राह्मणवाद को ध्वस्त कर सकता है, तो ओबीसी-मोदी क्यों नही???
  5. ओबीसी जातीगणना का आंदोलन इतना बढा और इतना लंबा होना चाहीए की जिससे भाजपा के दोही तुकडे हो... एक- ब्राह्मिण और दुसरा नॉन-ब्राह्मिण
  6. जैसे ही मोदीजी नॉन-ब्राह्मिण भाजपा को साथ लेकर 2019 के चुनाव मे उतरेंगे तो सभी ओबीसी-दलित-मुस्लीम पार्टीज को उनसे महागठबंधन बनाना पडेगा! जैसे 1977 मे कॉंग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के नामसे बनाये थे!
  7. 2019 का नॉन-ब्राह्मिण भाजपा के साथ जो महागठबंधन होगा वो ब्राह्मिण-कॉंग्रेस और ब्राह्मिण-भाजपा के खिलाफ होगा.....
  8. जैसे ही ओबीसी-बहुजन महागठबंधन केंद्रीय सत्ता मे आयेगा तो पहला काम करेगा....... बहुजन रूलिंग कास्ट की बहुजन डॉमिनेटेड सी.बी.आय., आय.बी., इडी, सीडी, रॉ वगैरा... वगैरा.... इन्ही सरकारी संस्थाओं की वजहसे आजतक 3 परसेंटवाले हमपर राज कर रहे थे!
  9. दुसरा महत्वपूर्ण काम होगा--- नचिअप्पन कमिटी की शिफारसे तुरंत प्रभाव से अमल मे लाना, ताकी जाट-पटेल-मराठा से लेकर पिछडे मुस्लीमों को भी अलग आरक्षण देनेसे कोई किसीको नही रोख सकता!
  10. तिसरा महत्वपूर्ण काम हाथ मे लिया जाएगा .... 2021 की सेंसस पूर्णतः जातीगत होगी जिससे समाज के हर तबके को अपनी संख्या के हिसाब से हर क्षेत्र मे भागीदारी देने मे कोई रोख ना होगी!
  11. चौथा महत्वपूर्ण काम होगा.... देशकी सभी युनिव्हर्सिटीज का और स्कूल-कॉलेजेस का करिक्युलम (Text Books) हिंदू-मुस्लीम संघर्ष के बजाय वर्ण-जाती के संघर्ष से भरा होगा! 2000 साल पहले बौद्ध विद्यापीठों ने जीस करिक्युलम की वजहसे वर्णव्यवस्था नष्ट करनेकी प्रबोधनक्रांती की, बस्स उसी तरह आजकी युनिव्हर्सिटीज अपने नये पाठ्यक्रम से जातीव्यवस्था नष्ट करने की प्रबोधन क्रांती (Renaisance Movement) चलाएगी!
  12. 2025 मे आर.एस.एस. की स्थापना को 100 साल पूरे हो रहे है और वो अपनी शताब्दि ‘ब्राह्मिण राष्ट्र’ (पेशवाई) की स्थापना करके मनाना चाहते है! हमारे बेटे, नात-नाती के गलेमे फिरसे मटकी और पिछे झाडू बांधना चाहते है!  तो क्या हमे उस दिनतक रूखना चाहीए? या उपरोक्त दिये हुए ऍक्शन प्रोग्रामपर काम करना चाहिए??? दो साल है हाथमे... बस्स!
                                    प्रतिक्रयाए भेजे...........    
मोबाईल नंबर 9422788546

ईमेल- evm2019@gmail.com,

भगवा की जीत के और मायावती की हार के कारण

भगवा की जीत के और मायावती की हार के कारण

(कँवल भारती)
      इस बार उत्तर प्रदेश में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने स्वयं भाजपा का रास्ता साफ़ किया था. इसलिए अब जब वह अति पिछड़ी और अति दलित जातियों के बल पर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ गयी है और योगी युग का आगाज़ हो चुका है, तब विपक्ष का आरोप है कि दलितों और मुसलमानों के लिए बुरे दिन आने वाले हैं, कह तो ऐसे रहे हैं, जैसे उनके राज में अच्छे दिन चल रहे थे. मायावती, मुलायम और अखिलेश के युग में मुसलमानों और दलितों के नहीं, बल्कि उनके दलालों के अच्छे दिन आये थे. मुसलमानों और दलितों की राजनीति करके उनके उन तथाकथित नेताओं ने अपने साम्राज्य खड़े कर लिए. मुलायम और अखिलेश ने दलितों और मुसलमानों के मुहल्लों में भी झांककर नहीं देखा कि वे किस हाल में हैं? वे अपनी पार्टी के दलित-मुस्लिम नेताओं की खुशी को ही दलितों और मुसलमानों की खुशी समझते रहे. आजम खां ने जो चाहा, और जितना चाहा, मुलायम और अखिलेश ने उन्हें दिया, वगैर यह सोचे हुए कि वह अपना विकास कर रहे हैं या मुसलमानों का? सबसे ज्यादा जुल्म सपा सरकार में मुसलमानों पर ही हुए. अल्पसंख्यक और मलिन बस्तियों के विकास के लिए अल्पसंख्यक विभाग का अधिकांश धन रामपुर में पाश और आवास विकास की कालोनियों में खर्च हुआ. यकीन न हो, तो वहाँ लगे उद्घाटन के पत्थर देखे जा सकते हैं. ‘काम बोलता है’ का ढिढोरा पीटने वाले अखिलेश ने कभी जाकर देखा कि मुसलमानों और दलितों के इलाकों में क्या सचमुच विकास हुआ है? संभल में स्टेशन से सोतीपुरा को जाने वाली सड़क इन पांच सालों में भी इसलिए नहीं बनी, क्योंकि वहाँ जाटवों की बस्ती है. कौन से विकास पर वे जीतना चाहते थे, एक्सप्रेस-वे और मेट्रो के बल पर? इस विकास पर तो लखनऊ के लोगों ने ही उन्हें नकार दिया.
      कोई सिर पर लाल टोपी रखने भर से समाजवादी नहीं हो जाता और न प्रो-मुस्लिम होने से कोई धर्मनिरपेक्षतावादी हो जाता है. समाजवादी वह है, जो आर्थिक समानता लाने के लिए काम करता है, और यह समानता मोबाइल या लेपटॉप बांटने से नहीं आती है. धर्मनिरपेक्षतावादी वह है, जो धर्म मात्र से निरपेक्ष होता है. इस अर्थ में तीन तलाक पर मुस्लिम कट्टरपंथियों का पक्ष लेने वाले समाजवादी और बहुजनवादी भी उसी तरह धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, जिस तरह तस्लीमा नसरीन को निर्वासन के लिए मजबूर करने वाले कम्युनिस्ट धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं. जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंशी बजा रहा था. और जब उत्तरप्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों की आग में जल रहा था, तो मुलायम, अखिलेश और उनका समाजवादी कुनबा सैफई में जश्न मना रहा था. आज इन्हें मुसलमानों की चिंता हो रही है, पर इनके राज में ही मुसलमान सबसे ज्यादा दंगों की भेंट चढ़े हैं.
      आज मायावती कह रही हैं कि आरएसएस योगी को आगे करके हिंदुत्व का एजेंडा लागू करने वाली है. इस पर हंसा जाए या सिर धुना जाए? मायावती को आरएसएस का एजेंडा अब पता चला है? भाजपा के समर्थन से तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती आरएसएस के एजेंडे से इतनी अनजान कैसे हो सकती हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि आरएसएस की सहमति  से ही भाजपा ने उन्हें समर्थन दिया था? क्या उन्हें नहीं मालूम कि शिक्षा और संस्कृति की सारी संस्थाओं की बागडोर उन्होंने अपने राज में भाजपा को ही सौंपी थी? तब क्या वहाँ उन्हें आरएसएस का लागू होता हुआ एजेंडा दिखाई नहीं दे रहा था? क्या वह यह भी भूल गयीं कि गुजरात दंगों के बाद वह मोदी जी के लिए गुजरात में दलितों से वोट मांगने गयीं थीं? तब उनके राजनीतिक गुरु कांशीराम जी जीवित थे, और उन्होंने भाजपा को एक ‘गैर-साम्प्रदायिक’ पार्टी बताया था. तब उन्हें इसका अन्दाजा क्यों नहीं हुआ था कि जो हिंदुत्व उन्हें मुख्यमंत्री बना रहा है, उनकी पार्टी के लिए उसका भविष्य क्या होगा? अगर उस समय हिंदुत्व उन्हें अच्छा लग रहा था, तो आज वह कैसे बुरा हो गया? क्या इसलिए कि उनकी बोई हुई फसल से आज हार के फल मिले हैं? आज वह 19 सीटों पर सिमट कर रह गयीं. पर अब मैं यह नहीं कहूँगा कि अगर वह 80-90 सीटें पा जातीं, तो भाजपा से समझौता नहीं करतीं, क्योंकि वह पहले ही घोषणा कर चुकीं थीं कि किसी से समझौता नहीं करेंगी. पर, जनता यह भी जानती है कि राजनीति में दिखाने और खाने के दांत अलग-अलग होते हैं.
      मायावती ने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि आरएसएस ने उनके शासन-काल में ही दलितों और पिछडों का हिन्दूकरण करने का अभियान शुरू किया था, क्योंकि वह स्वयं भी ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ का नारा देकर बहुजनों का हिन्दूकरण कर रहीं थीं. सच तो यह है कि मायावती और आरएसएस दोनों ने मिलकर बहुजनों का हिन्दूकरण किया. ऐसा नहीं है कि इस हिन्दूकरण की धारा में केवल गैर-जाटव दलित ही बहे हैं, जाटव भी खूब बहे हैं, सिवाए उनके, जिन पर बुद्ध और अम्बेडकर का रंग चढ़ चुका है.
मायावती की यह आखिरी पारी थी, जिसमें उनकी शर्मनाक हार हुई है. 19 सीटों पर सिमट कर उन्होंने अपनी पार्टी का अस्तित्व तो बचा लिया है, परन्तु अब उनका खेल खत्म ही समझो. मायावती ने अपनी यह स्थिति अपने आप पैदा की है. मुसलमानों को सौ टिकट देकर एक तरह से उन्होंने भाजपा की झोली में ही सौ सीटें डाल दी थीं. रही-सही कसर उन्होंने चुनाव रैलियों में पूरी कर दी, जिनमें उनका सारा फोकस मुसलमानों को ही अपनी ओर मोड़ने में लगा  रहा था. उन्होंने जनहित के किसी मुद्दे पर कभी कोई फोकस नहीं किया. तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह आज तक जननेता नहीं बन सकीं. आज भी वह लिखा हुआ भाषण ही पढ़ती हैं. जनता से सीधे संवाद करने का जो जरूरी गुण एक नेता में होना चाहिए, वह उनमें नहीं है. हारने के बाद भी उन्होंने अपनी कमियां नहीं देखीं, बल्कि अपनी हार का ठीकरा वोटिंग मशीन पर फोड़ दिया. ऐसी नेता को क्या समझाया जाय! अगर वोटिंग मशीन पर उनके आरोप को मान भी लिया जाए, तो उनकी 19 सीटें कैसे आ गयीं, और सपा-कांग्रेस को 54 सीटें कैसे मिल गयीं? अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आसान है, पर अपनी कमियों को पहिचानना उतना ही मुश्किल.
अब इसे क्या कहा जाए कि वह केवल टिकट बांटने की रणनीति को ही सोशल इंजिनियरिंग कहती हैं. यह कितनी हास्यास्पद व्याख्या है सोशल इंजिनियरिंग की. उनके दिमाग से यह फितूर अभी तक नहीं निकला है कि 2007 के चुनाव में इसी सोशल इंजिनियरिंग ने उन्हें बहुमत दिलाया था. जबकि वास्तविकता यह थी कि उस समय कांग्रेस और भाजपा के हाशिए पर चले जाने के कारण सवर्ण वर्ग को सत्ता में आने के लिए किसी क्षेत्रीय दल के सहारे की जरूरत थी, और यह सहारा उसे बसपा में दिखाई दिया था. यह शुद्ध राजनीतिक अवसरवादिता थी, सोशल इंजिनियरिंग नहीं थी. अब जब भाजपा हाशिए से बाहर आ गयी है और 2014 में शानदार तरीके से उसकी केन्द्र में वापसी हो गयी है, तो सवर्ण वर्ग को किसी अन्य सहारे की जरूरत नहीं रह गयी, बल्कि कांग्रेस का सवर्ण वोट भी भाजपा में शामिल हो गया. लेकिन मायावती हैं कि अभी तक तथाकथित सोशल इंजिनियरिंग की ही गफलत में जी रही हैं, जबकि सच्चाई यह भी है कि मरणासन्न भाजपा को संजीवनी देने का काम भी मायावती ने ही किया था. उसी 2007 की सोशल इंजिनियरिंग की बसपा सरकार में भाजपा ने अपनी संभावनाओं का आधार मजबूत किया था.
मुझे तो यह विडम्बना ही लगती है कि जो बहुजन राजनीति कभी खड़ी ही नहीं हुई, कांशीराम और मायावती को उसका नायक बताया जाता है. केवल बहुजन नाम रख देने से बहुजन राजनीति नहीं हो जाती. उत्तर भारत में बहुजन आंदोलन और वैचारिकी का जो उद्भव और विकास साठ और सत्तर के दशक में हुआ था, उसे राजनीति में रिपब्लिकन पार्टी ने आगे बढ़ाया था. उससे कांग्रेस इतनी भयभीत हो गयी थी कि उसने अपनी शातिर चालों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और वह खत्म हो गयी.  उसके बाद कांशीराम आये, जिन्होंने बहुजन के नाम पर जाति की राजनीति का माडल खड़ा किया. वह डा. आंबेडकर की उस चेतावनी को भूल गए कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता. बसपा की राजनीति कभी भी बहुजन की राजनीति नहीं रही. बहुजन की राजनीति के केन्द्र में शोषित समाज होता है, उसकी सामाजिक और आर्थिक नीतियां समाजवादी होती हैं, पर, मायावती ने अपने तीनों शासन काल में सार्वजानिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचा और निजी इकाइयों को प्रोत्साहित किया. उत्पीडन के मुद्दों पर कभी कोई आन्दोलन नहीं चलाया, यहाँ तक कि रोहित वेमुला, कन्हैया कुमार और जिग्नेश भाई के प्रकरण में भी पूरी उपेक्षा बरती, जबकि ये ऐसे मुद्दे थे, जो उत्तर प्रदेश में बहुजन वैचारिकी को मजबूत कर सकते थे.
इन चुनावों में मायावती को मुसलमानों पर भरोसा था, पर मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया, जिसका कारण भाजपा के साथ उनके तीन-तीन गठबंधनों का अतीत है. उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मात्र 4 और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मात्र 2 सीटें मिली हैं, जिसका मतलब है कि उनके जाटव वोट में भी सेंध लगी है. मायावती की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह जमीन की राजनीति से दूर रहती हैं. न वह जमीन से जुड़ती हैं और न उनकी पार्टी में जमीनी नेता हैं. एक सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन का कोई मंच भी उन्होंने अपनी पार्टी के साथ नहीं बनाया है. यह इसी का परिणाम है कि वह बहुजन समाज के हिन्दूकरण को नहीं रोक सकीं. इसी हिन्दूकरण ने लोकसभा में उनका सफाया किया और यही हिन्दूकरण उनकी वर्तमान हार का भी बड़ा कारण है.
मायावती की इससे भी बड़ी कमी यह है कि वह नेतृत्व नहीं उभारतीं. हाशिए के लोगों की राजनीतिक भागीदारी जरूरी है, पर उससे ज्यादा जरूरी है उनमें नेतृत्व पैदा करना, जो वह नहीं करतीं. इसलिए उनके पास एक भी स्टार नेता नहीं है. इस मामले में वह सपा से भी फिसड्डी हैं.
 मायावती के भक्तों को यह बात बुरी लग सकती है, पर मैं जरूर कहूँगा कि अगर उन्होंने नयी लीडरशिप पैदा नहीं की, वर्गीय बहुजन राजनीति का माडल खड़ा नहीं किया और देश के प्रखर बहुजन बुद्धिजीवियों और आन्दोलन से जुड़े लोगों से संवाद कायम करके उनको अपने साथ नहीं लिया, तो वे 11 मार्च 2017 की तारीख को बसपा के अंत के रूप में अपनी डायरी में दर्ज कर लें.
(11 मार्च 2017)