दिनांक 24 दिसंबर 2017 को रायपुर से 95
किलोमीटर दूर महासमुंद जिले के सिरपुर प्राचीन बौद्ध शहर में आयोजित होने वाले तीन
दिवसीय अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन में शामिल होने का मौका मिला। इस कार्यक्रम
में आयोजको की मेहनत उनका लगन देखते बन रहा था। लेकिन उन्हें जिस प्रकार से लोगों
का सहयोग मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। रविवार होने के बावजूद सम्मेलन में ज्यादातर चेयर खाली थी ऐसा लग
रहा था कि प्रचार में कुछ कमी रह गई या प्रचार किसी खास कुनबे तक सीमित था। खुद इन
पंक्तियों के लेखक को तीन दिन पहले ही ऐसे किसी सम्मेलन हाने का पता चला। नाम भले ही अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन रखा
गया था लेकिन देश के नामचीन बौद्ध प्रचारक जो खास तौर पर साहित्य और विभिन्न माध्यमों
से धम्म का प्रसार कर रहे हैं और देश भर में दौरा कर रहे हैं। वे लोग इस
कार्यक्रम में नदारत थे। वजह जो भी हो लेकिन यह सम्मेलन अधूरा सा प्रतीत हो रहा था।

बौद्ध आंदोलन अपने मुख्य लक्ष्य से भटक गया है
बौद्ध आंदोलन या बौद्ध प्रचार का मुख्य मकसद बौद्धों की
जनसंख्या में बढ़ोतरी करना या बौद्ध धर्म में प्रवेश करने हेतु धमकी देना रह गया
है। दूसरा मकसद चंदे की उगाही है. बाद में बिना ऑडिट किये हिसाब देना फेमस रिवाज है. समाजिक बुराईयों से मुक्त जातिविहीन वर्गविहीन समतामूलक समाज निर्माण का
मकसद कहीं पीछे छूट गया है और ऐसा अंधविश्वास से मुक्ति और वैज्ञानिक विचारधारा की
ओर जाने पर ही हो पाएगा। लेकिन बौद्ध सम्मेलनों में जातिविहीन, समतामूलक समाज
बनाने के लिए कोई प्रयास दिखाई नहीं पड़ते हैं। इस कारण बौद्धिस्ट किसी खास
जातियों या वर्गों तक सीमित दिखाई पड़ते हैं और इनके बीच जातियां उसी प्रकार कायम
रहती हैं जिस प्रकार वे हिंदू धर्म में थे। कई बार बौध महासभा के पदाधिकारियो की लिस्ट देख कर लगता है की यह किसी जाति की खाप पंचायत है.
उनके बीच गैर जाति का बुद्धिस्ट अलग-थलग ठगा सा महसूस करता है। किसी ने ठीक ही कहा है डॉक्टर अंबेडकर के बुद्धिस्ट बनने के बाद वंचित समुदाय ने अपने आप को बुद्ध धर्म तक सीमित कर लिया है। वह आंदोलन जो उन्होंने शुरू किया था वह दम तोड़ चुका है। इस कार्यक्रम में आने के बाद यह बातें शत-प्रतिशत सही लग रही थी। मैं बुरी तरह भयभीत हूं कि कहीं बौद्ध समाज हिंदू धर्म के एक नए कुनबे की तरह ना बन जाए। जाति तोड़ने के बजाय एक नई जाति के रूप में ना स्थापित हो जाए। ऊंच-नीच खत्म करने के बजाय एक नए ऊंच-नीच की खाई को ना बना दिया जाए।
उनके बीच गैर जाति का बुद्धिस्ट अलग-थलग ठगा सा महसूस करता है। किसी ने ठीक ही कहा है डॉक्टर अंबेडकर के बुद्धिस्ट बनने के बाद वंचित समुदाय ने अपने आप को बुद्ध धर्म तक सीमित कर लिया है। वह आंदोलन जो उन्होंने शुरू किया था वह दम तोड़ चुका है। इस कार्यक्रम में आने के बाद यह बातें शत-प्रतिशत सही लग रही थी। मैं बुरी तरह भयभीत हूं कि कहीं बौद्ध समाज हिंदू धर्म के एक नए कुनबे की तरह ना बन जाए। जाति तोड़ने के बजाय एक नई जाति के रूप में ना स्थापित हो जाए। ऊंच-नीच खत्म करने के बजाय एक नए ऊंच-नीच की खाई को ना बना दिया जाए।
संजीव खुदशाह
www.sanjeevkhudshah.com
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