Change or EVM?

परिवर्तन या ईवीएम?

ललित सुरजन
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की मतगणना में अब सिर्फ पांच दिन शेष रह गए हैं। छत्तीसगढ़ में 12 नवंबर को पहले चुनाव के मतदान के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ वह 11 दिसंबर को थम जाएगा। वैसे तो यह कुल तीस दिन का मामला है, लेकिन हमें और पीछे जाकर चुनाव तिथियों की घोषणा तथा आचार संहिता लागू होने के दिन से इस सिलसिले की शुरूआत मानना चाहिए। बहरहाल सबकी निगाहें नतीजों पर टिकी हैं। कांग्रेस इस बारे में बेहद आश्वस्त नजर आ रही है कि चार राज्यों में वह फिर सत्ता में लौटेगी और मिजोरम के मतदाताओं का लगातार तीसरी बार उस पर विश्वास प्रकट होगा। लगभग अचानक रूप से ही परिवर्तन शब्द आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अपने दावे और अपना विश्वास है। उनका कहना है कि परिवर्तन की बात ऊपरी-ऊपरी है।  वे जिस दम-खम के साथ अपनी जीत सुनिश्चित बताते हैं उसे देखकर कांग्रेसजन भी विचलित दिखाई पड़ते हैं।

एक तरफ कांग्रेसी खेमों में अगली सरकार बनाने को लेकर गुणा-भाग चल रहा है, वहीं दूसरी ओर पार्टी चुनावों में भाजपा द्वारा धांधली किए जाने की आशंका से भी ग्रस्त है। उसकी चिंता चुनाव के दौरान घटित कुछ प्रसंगों के चलते वाजिब प्रतीत होती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर में कुछ स्थानों पर कांग्रेस के एजेंटों को ईवीएम पर अपनी सील लगाने से रोक दिया गया, वहीं धमतरी में पार्टियों को सूचित किए बिना तहसीलदार अपने अमले को लेकर स्ट्रांगरूम में चले गए और तीन घंटे तक कथित रूप से विद्युत लाइन ठीक करवाते रहे। उधर मध्यप्रदेश में एक जगह होटल में वोटिंग मशीनें मिलीं, तो अन्यत्र तकरीबन अड़तालीस घंटे देरी से मशीनें जमा करवाई गईं।  एक और जगह कथित विद्युत अवरोध के कारण सीसीटीवी कैमरा बंद हो गए। इन सारी बातों की शिकायतें कांग्रेस ने चुनाव आयोग से की हैं। भाजपा कांग्रेस के भय को निर्मूल बताकर उनकी खिल्ली उड़ा रही है, लेकिन ये सारे प्रसंग गंभीर अव्यवस्था की ओर संकेत करते हैं।

इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इन प्रदेशों के अपने कार्यकर्ताओं को हर तरह से सावधान और सतर्क रहने की सलाह दी है। छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल ने अपने उम्मीदवारों को आगाह किया है कि विजयी घोषित होने के बाद वे जुलूस वगैरह न निकालें और यहां-वहां जाने के बजाय एक पूर्व निर्दिष्ट स्थान पर एकत्र हों। समझ आता है कि पार्टी किसी भी तरह की जोखिम नहीं उठाना चाहती। पिछले साल-दो-साल में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए जो हथकंडे अपनाए हैं उन्हें देखते हुए ये आशंकाएं खारिज नहीं की जा सकतीं।   गोवा भले ही छोटा सा प्रदेश हो, लेकिन वहां सरकार बनाने के लिए और सरकार में बने रहने के लिए भाजपा ने जो कुछ भी किया उसे जनतंत्र की हत्या ही कहा जाएगा। मेघालय में भी ऐसा ही हुआ। यदि अभी के चुनावों में कांग्रेस को किसी राज्य में विजय मिलती है और वह बहुमत से बहुत अधिक नहीं होती तो आशंका बनती है कि भाजपा वहां खरीद-फरोख्त से बाज नहीं आएगी।

जनतंत्र में हार-जीत लगी रहती है।  इसे जीवन-मरण का प्रश्न बना लेना किसी भी दृष्टि से वांछित नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि श्रीमान मोदी और श्रीमान शाह की जुगल जोड़ी पर हर हालत में जीत चाहने का भूत सवार है। मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है? हमने यह देखा है कि पिछले सत्तर साल में केन्द्र और राज्य दोनों में बार-बार सत्ता परिवर्तन होते रहा है। जब तक जनता संतुष्ट है तब तक ठीक है; और जनता जब असंतुष्ट होती है तो वह सरकार बदल देती है। आज आप भीतर हैं, कल बाहर हैं, लेकिन परसों फिर भीतर आ सकते हैं। इसी आशा पर चुनावी राजनीति होना चाहिए। जो राजनेता अनंत काल तक राज करने का स्वप्न संजोते हैं उनकी प्रवृत्ति तानाशाही की होती है और वे भूल जाते हैं कि वे अमृत फल खाकर इस दुनिया में नहीं आए हैं। मुझे बशीर बद्र का शेर याद आता है- 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।' हमारे राजपुरुषों को इसका मर्म समझना चाहिए। 

ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान नेतृत्व ही सत्तामोह से इस तरह ग्रस्त हो। हम जिसे दुनिया का सबसे पुराना जनतांत्रिक देश मानते हैं और जिसके साथ अपने देश को सबसे बड़े जनतांत्रिक देश घोषित कर आत्मश्लाघा करते हैं उस संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी समय-समय पर इस मनोभाव का परिचय दिया है।  1972 का चुनाव बहुत पुरानी बात नहीं है। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने दुबारा चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए। उन्होंने विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की  जासूसी ही नहीं करवाई बल्कि उनके मुख्यालय में सेंधमारी भी करवाई। वह शोचनीय प्रसंग वाटरगेट कांड के नाम से कुख्यात है। वाशिंगटन पोस्ट अखबार ने इसका खुलासा किया तो निक्सन को दूसरी पारी के बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा और उपराष्ट्रपति स्पेरो एग्न्यू शेष अवधि के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। निक्सन किसी तरह महाभियोग से तो बच गए, लेकिन देश और दुनिया की जनता की निगाह से जो गिरे तो फिर गिरे ही रह गए।

अमेरिका में ही दूसरा प्रकरण इस सदी के प्रारंभ में घटित हुआ जब पूर्व राष्ट्रपति जार्ज एच. डब्ल्यू बुश के पुत्र जार्ज डब्ल्यू बुश जूनियर रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बन कर मैदान में उतरे। उनके सामने डेमोक्रेटिक पार्टी के उपराष्ट्रपति रह चुके अल गोर थे। इस चुनाव को जीतने के लिए बुश बाप-बेटे ने धांधली की। उन्होंने अमेरिका की जटिल चुनाव प्रणाली का फायदा उठाया। अल गोर को बुश जूनियर से अधिक मत (पापुलर वोट) मिले थे, लेकिन फ्लोरिडा राज्य की मतगणना में धांधली कर बुश को जिता दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि बुश जूनियर के बड़े भाई जेब बुश उस समय फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर थे। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन वहां भी बुश सीनियर द्वारा मनोनीत जजों ने मामला खारिज कर दिया। इन दोनों प्रकरणों के चलते अमेरिका क्रमशः सीनेटर जॉन मैक्गवर्न और सीनेटर अल गोर जैसे बुद्धिजीवी, सुयोग्य और प्रतिष्ठित राजनेताओं की राष्ट्रपति पद पर सेवा पाने से वंचित रह गया।

मैं यहां सुप्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार अपटन सिंक्लेयर के उपन्यास 'द जंगल' का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा-

"एक या दो माह बाद युर्गिस को वह व्यक्ति मिला जिसने उसे अपना नाम मतदाता सूची में रजिस्टर्ड कराने की सलाह दी। जिस दिन मतदान होना था, उसे सूचना मिली कि सुबह नौ बजे तक वह कहीं बाहर रहे। फिर वह व्यक्ति युर्गिस और उसके झुंड को मतदान केंद्र तक ले गया और एक-एक को समझाया कि उन्हें कैसे और किसे वोट देना है। जब वे वोट देकर बाहर निकले तो उस व्यक्ति ने उन्हें दो-दो डॉलर दिए।  युर्गिस इस अतिरिक्त कमाई से बेहद खुश था, लेकिन जब बस्ती में वापिस लौटा तो योनास ने यह बताकर उसकी खुशी छीन ली कि उसने तो तीन वोट डाले जिसकी एवज में उसे चार डॉलर की कमाई हुई।" 

यह उपन्यास 1906 में प्रकाशित हुआ था। मतलब यह हुआ कि यह दृश्य सन् 1900 या 1904 के राष्ट्रपति चुनाव के समय होगा। आप इसी उपन्यास का एक और अंश देखिए-

"और फिर यूनियन दफ्तर में युर्गिस को वही व्यक्ति फिर मिला जिसने उसे समझाया कि अमेरिका किस तरह रूस से अलग है। अमेरिका में जनतंत्र है और वहां जो भी व्यक्ति राज करता है, तथा घूस लेने का अधिकारी बनता है, उसे पहले चुनाव जीतना होता है। इस तरह घूसखोरों के दो पक्ष होते हैं, जिन्हें राजनीतिक दल के नाम से जाना जाता है। जीतता वह है जो सबसे अधिक वोट खरीद पाता है। कभी-कभी मुकाबला कांटे का होता है। तब गरीब लोगों की जरूरत पड़ती है।"

इसे पढ़कर हम कह सकते हैं कि अमेरिका हो या भारत, बीसवीं सदी हो या इक्कीसवीं सदी, जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, हम इस तरह की सरकार चुनने के लिए अभिशप्त रहेंगे।

#देशबंधु में 06 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

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