View of Dalit Sahitya


दलित साहित्य का नजरिया
  • संजीव खुदशाह
साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा यही रही है कि ''साहित्य वही है जो समाज के यर्थात का चित्रण करे, समाज को समाज के सत्य से परिचित कराये।`` इसीलिए साहित्य को समाज का प्रतिबिन्ब भी कहा जाता है। मेरे दिमाग में यह प्रश्न हमेशा कौंधता था कि दलित साहित्य की स्वीकारोक्ति पर विवाद क्यों? जबकि भारतीय समाज में साहित्य के कई रूप पहले से ही मौजूद है जैसे भक्ति-साहित्य, संत-साहित्य, सूफी-साहित्य, आदि-आदि। साहित्य के स्वयंभू मठाधीश आखिर क्यों दलित साहित्य को साहित्य के रूप में स्वीकारने में कोताही बरत रहे है?
इसके जवाब में मुझे खुशवंत सिंह के एक साक्षात्कार की याद रही है। जिसमें उन्होने कहा था - पंजाब में महिलाओं को हिन्दी पढ़ाने पर जोर दिया जाता है। ताकि वे पंजाबी साहित्य की वैचारिक बाते पढ़ सके तथा उन्हे हिन्दी में गीता प्रेस की ही किताबे लाकर दी जाती जिससे वे पति सेवा एवं चाहर दिवारी को ही अपना संसार समझे। उन्होने आगे कहा -गुरूमुखी इन्हे इतनी ही सिखाई जाती कि वे गुरूग्रंथ साहेब का पाठ कर सके।
दरअसल यही परम्परागत भारतीय साहित्य का सच भी है। यहां पूरा दलित समाज पंजाब की महिलाओं जैसा है, जिन्हे तुलसीदास के इन पक्तियों को पढ़ने की छूट है ''ढोर गवार शूद्र पशु नारी, ये है ताड़न के अधिकारी।`` उस पर भी जुमला ये की यही उत्कृष्ट साहित्य है। आज तक भारतीय साहित्य में साहित्य उसे माना गया जो लिखा गया चाहे वो कामसुत्र ही क्यो हो और लिखने का ठेका उनके हाथो में जिन्होने कभी यर्थात को भोगा ही नही। तभी तो भारतीय साहित्य यर्थात से लंबे समय तक विमुख रहा। यदि कभी किसी ने लिखा भी तो उसे हासिये पर पटक दिया गया। चाहे वो बौध्द हो, रविदास हो या संत कबीर का साहित्य। दलितों को वैचारिक चेतना से दूर रखना एवं जातिय दंभ को भूला पाना ही दलित साहित्य को अस्वीकारने का मुख्य कारण है।
हम इन पूरे परिप्रेक्ष्य पर गौर फरमाये तो देखेगे की साहित्य पर हमेशा राजनीति का प्रभाव रहा है। भारतीय सभ्यता में या संकुचित अर्थो में हिन्दु समाज कहें तो, राजनीति ने कभी इस विकृत सामाजिक ढांचे को बदलने का प्रयास नही किया बृहदत्त के बाद किसी ने ऐसी कोशिश नही की बल्कि इसे पुष्ट ही किया इसलिए जातिगत प्रताड़नाएं बढ़ती गई और एक वर्ग आरामतलब होता गया। लगभग दो हजार साल के गुलामी काल में विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी इसे हिन्दुओं का अन्दुरूनी मामला कहकर छेड़ने से परहेज रखा। शायद यही कारण रहा हो कि सवर्णो को आजादी के लिए आन्दोलन चलाने की जरूरत नही पड़ी। बल्कि इसी वक्त श्रीराम  तुलसी की रामायण में दस्तखत करने के लिए आये जब ये तथाकथित हिन्दु गुलाम ही थे। वो क्या कारण थे जब एक गुलाम (सवर्ण हिन्दु) इस शर्त में गुलामी स्वीकार कर रहा था कि उसके अपने धार्मिक गुलाम (शूद्र) उससे आजाद कराये जाये। इन्ही धार्मिक गुलामों को गुलाम बनाये रखने के लिए जो शक्तियां कलम के रूप में खर्च करनी पड़ी वह भारतीय साहित्य बना। तो इस साहित्य में यर्थात् कहां से आता, आखिर यर्थात की परिभाषा तो हमने पश्चिम से पाई, जिनके उत्कृष्ठ साहित्य के आगे हमारा साहित्य कहीं नही ठहरता। फिर भी हम ये दंभ पाले हुए है कि हमारा साहित्य पुरातन है भले ही दागदार हो।
फिर आया अंग्रेजो का काल इन्होने पूरे भारतीयों को अश्वेत के तौर पर देखा। क्या सवर्ण क्या दलित सभी उसकी नजर में एक समान अश्वेत थे। सबसे पहले उन्हे कर्मचारी के रूप में दलितों से ही सामना हुआ। फिर शैनै-शैनै सवर्ण भी करीब आये। अंग्रेजो का इरादा भारत को स्थाई उपनिवेश बनाने का था। इसलिए उन्होने पूरा इन्फ्रास्टंक्चर सुधारने का निर्णय लिया, स्कूल, कालेज, रेल आदि शुरू करवाये। भारत के दो हजार साल के ज्ञात इतिहास में सर्वप्रथम महान भारत के महान सामाजिक ढांचे को छेड़ने का दुस्साहस अंग्रेजो ने किया। जिन्हाने भारत की कई महान संस्कृति जो एक इन्सान को जानवर से भी बदतर का दर्जा देती थी, को कानून बनाकर निजात दिलाना प्रारंभ किया। जैसे सती प्रथा, कन्या वध प्रथा, मंदिरों में नरबली प्रथा, दास प्रथा, देवदासी प्रथा तथा शूद्रों एवं स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वारा खोलना आदी। बस यही वह कारण था जब भारतीय बुजुर्वा वर्ग दो हजार साल के गुलामी के इतिहास में पहली बार आजादी की जरूरत महसूस करने लगा। क्योकि उसके गुलाम आजाद होने लगे थे। और ये बात हर हाल में उसे बर्दाश्त नही थी। इसी राजनीतिक परिस्थिती में महात्मा फुले ने  ''किसान का चाबुक`` लिखा यह किताब ब्रिटेन की महारानी को समर्पित की गई थी। इससे पहले के साहित्य चाहे वो कबीर हो या रैदास पद या छंदो में अपनी बात कहते थे लेकिन फुले ने ढंके की चोट पर सीधे-सीधे अपनी बाते कहीं और अंग्रेजो की भूरी-भूरी प्रसंशा भी की। मै दलित साहित्य को यर्थात साहित्य मानता  हूँ जो उस राजनैतिक परीस्थिति की पैदावर थी जिसे अंग्रजो ने उपहार स्वरूप दिया था। जिसकी भूमि फूले और अम्बेडकर ने तैयार की। हालाकि अंग्रेजो का सीधा इस मामले में कोई इन्टरेस्ट नही था। वे तो अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहते थे और कार्य में ढृढता एवं स्थायित्व उनका अलंकार था। शायद वे भारत को मदारियों एवं सपेरों के देश की छबी को बदल देना चाहते थे।
मै उस राजनीतिक परिस्थिति की बात कर रहा हैं जो ब्रिटीश काल में लोकतंत्र होते हुए भी लोकतंत्र जैसी थी। जिसमें शूद्रों को अपनी बात कहने का अधिकार था। किसी के कान में पिघला शीशा डालाना आसान नही था। पढ़ाई का सबको अधिकार था। अपने दुख दर्द बोलने लिखने का अधिकार था। बाद में बुजुर्वा वर्ग के प्रतीनिधित्व में चलाये गये आंदोलन तथा द्वितीय विश्वयुध्द के बाद निर्मीत अन्तराष्ट्रीय राजनैतिक परिस्थिती के कारण ब्रिटीश सरकार ने अपना उपनिवेश भारत से हटाने का मन बना लिया और 15 अगस्त 1947 को देश छोड़ दिया। आजादी के बाद तो लोकतंत्र जैसे उपहार में मिल गया। इस बीच बुजुर्वा वर्ग ने फिर आजादी के परवानों के पर काटने की कोशिश की, ये कोशिश आज तक जारी है। चाहे मामला साहित्य का हो या आरक्षण का या शिक्षा के व्यवसायीकरण का सभी जगह  उद्देश्य एक मात्र गुलाम को गुलाम बनाये रखने का है।
लेकिन अब दलित साहित्य सिर्फ साहित्य नही रह गया है। अब एक सशक्त विचारधारा के रूप में प्रगट हुआ है। जो किसी के स्वीकारोक्ति का मोहताज नही है। यह तय है यह साहित्य बलंदी पर पहुचेगा और जन सामान्य की आवाज बनेगा। लेकिन श्रेय लेने की होड़ इतनी शीध्र प्रारंभ हो जायेगी इसका अंदाजा नही था। भय तो सिर्फ इसका है कि कहीं कुमारिल भट्ट (बौध्दों विचारधारा का विभीषण) बनकर कोई इसकी जड़े खोदने भिड़ जाये।


दलित एवं पिछडा वर्ग  साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, प्रगतिशील विचारक. कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक और पत्रकार. पिछङा वर्ग पर इनकी किताब "आधुनिक भारत में पिछङा वर्ग(पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं) काफी चर्चित रही।"
पता इस प्रकार है:-

संजीव खुदशाह
एम-II/156 फेस-1
संत थामस स्कूल के पास
कबीर नगररायपुर (छग)
पिन-492099
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Buddha Vishnu ke Avtar Nahi Hai.

बुध्द पूर्णीमा पर विशेष
बुद्ध की जाति पर प्रश्न ?
· संजीव खुदशाह
पिछड़ा वर्ग के अध्ययन से बुद्ध की जाति पर पुनर्विचार करना लाजमी है, क्योंकि इस जाति के आधार पर ही बुद्ध को ब्राम्हणों द्वारा विष्णु के दसवें अवतार के रूप में प्रतिस्थापित किया गया । इसी प्रतिस्थापना के खेल में बुद्ध की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर दिया गया, क्योंकि इस स्थापना से बुद्धिजम का सीधे संविलियन हिन्दुइज्म में ही जाता है । वास्तव में यह कोशिश हिन्दुवादियों द्वारा बुद्धिवादियों के पचाने की है । इस कोशिश के पीछे आम जनता में १पिछड़ा वर्ग१ अपनी प्रभुता कायम रखना रहा है । इसके एक मनतव्य यह भी रहा है कि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक छोटी से शाखा प्रतीत हो तथा बुद्ध धर्म के प्रति आकर्षण खत्म हो जाये । ब्राम्हणवाद इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी रहा ।

वास्तव में अब बुद्ध का जाति पर पुनर्विचार किये जाने की नितांत आवश्यकता है । इस बात के प्रमाण अवश्य मिले हैं कि शाक्य जाति के थे, लेकिन ये जाति शूद्रों में शुमार होती थी । बुद्ध को क्षत्रिय कहने का सबसे बड़ा कारण उनका शासक का पुत्र होना है, जबकि शासक किसी भी जाति का हो सकता था । ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं जिनमें यह तथ्य उभरकर आता है कि निचली जाति का व्यक्ति शासक बनने पर अपनी वंशवाली में सुधार कर क्षत्रिय जाति में स्थापित हो जाता है । ऐसे कृत्यों के ताजा उदाहरणों में महाराष्टं के शिवाजी तथा बंगाल के सेन वंश को लिया जा सकता है ।
इस आधार पर बुद्ध को शाक्य शूद्र वंश का कहने में कोई जल्दबाजी नहीं होगी, बल्कि कई जगह बुद्ध द्वारा ब्राम्हण के साथ वार्तालाप में शाक्यों का पक्ष लेते हुए विवरण दिया गया है, लेकिन बुद्धकाल में शाक्यों की जाति प्रतिष्ठि थी, ऐसा विवरण भी मिलता है ।
पहला प्रश्न यह उठता है कि बुद्ध हिन्दु थे या नहीं, तो उसका यह जवाब प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह किया जा सकता है कि वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये, बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई, साधारण भाषा में कहंे तो हिन्दुओं से मिल गए । चूंकि वे शासक वर्ग के थे अनचाहे ही क्षत्रिय होने का दर्जा पा गये, किन्तु महात्मा बुद्ध अपने कई उपदेशों में शाक्य होने का वर्णन करते हैं तथा शाक्यों का भरपूर पक्षपात करने की चेष्टा करते हैं । इससे यह अनुमान होता है कि उस समय शाक्य एवं ब्राम्हण में वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति थी और बुद्ध धर्म का फैलना यह सिद्ध करता है कि शाक्यों ने अथवा बुद्ध ने हिन्दूवाद को जबरदस्त शिकस्त दी थी । गौरतलब तथ्य यह है कि बुद्ध ने कभी अपने-आपको क्षत्रिय नहीं कहा । बुद्ध और ब्राम्हण के वार्तालाप में एक जगह ब्राम्हण ने शाक्य को नीच शूद्र जाति बताया । इस पर अम्बष्ट माणवक का उनर ध्यान देने योग्य है-''श्रवण गौतम दुष्ट हैं । हे गौतम ! शाक्य जाति चण्ड है । है गौतम ! शाक्य जाति शूद्र है । हे गौतम ! शाक्य जाति बकवादी है । इभ्य समान होने से शाक्य जाति ब्राम्हणों का सत्कार नहीं करते, ब्राम्हणों का मान नहीं करते, गुरूकार नहीं करते, ब्राम्हणों की पूजा नहीं करते ।``
इस बात से इस संभावना को और बल मिलता है कि ब्राम्हणों ने शाक्यों को इसी संघर्ष के कारण शूद्र में ढकेल दिया गया । बुद्ध काल में वे बुद्ध को शूद्र कहते रहे, बाद में लगभग १००० साल बाद स्मृति काल में अचानक ब्राम्हणों ने बुद्ध को क्षत्रिय बना लिया, क्यांेकि क्षत्रिय वर्ग ब्राम्हण का अनुगामी था । बुद्ध को क्षत्रिय बताने के दो फायदे थे -
१ उन्हें शूद्र से सीधे क्षत्रिय में पदोन्नत करने पर बुद्धवाद पर हिन्दुवाद लादा जा सकता था तथा तमाम आम जनता १पिछड़ा वर्ग१ जो बुद्धिष्ठ थी, को बिना अनुष्ठान के ही हिन्दू में तब्दील किया जा सकता था ।
२ यदि उन्हें शूद्र की संज्ञा दी जाती तो वे शूद्रों के स्थाई एवं अकाट्य भगवान बन जाते । उन्हें शूद्रों से अलग नहीं किया जा सकता और पूरी जनता हिन्दू धर्म से अलग मानी जाती ।

शाक्य कौन थे ?
श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय जी अपने अध्ययन लोकायत में बुद्ध को एक जनजाति समाज का बताते है और तथ्य देते हैं ।
१. बुद्ध स्वयं शाक्य थे । यह याद रखना आवश्यक है कि उस समय शाक्य जनजातीय चरण में थे, यद्यपि विकास के काफी उच्च स्तर तक पहुंच चुके थे। कुछ अगे्रज विद्वान भी इस तथ्य को नहीं पकड़ पाए ।
आगे श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय जी लिखते हैं कि ''शाक्य जनजाति के अंदर संभवत: कई कबीले 'गोत्र' थे । स्वयं बुद्ध गौतम ''गोत्र'' से थे । ऐसा कहा गया है कि यह ब्राम्हण कबीला था जो प्राचीन इसी १ऋषि१ गौतम के वंशज होने का दावा करते थे किन्तु इसका प्रमाण बहुत मामूली है । हमेंे कहीं भी यह नहीं मिलता कि शाक्य स्वयं को ब्राम्हण कहते हों। दूसरी और कई ऐसे कबीले हैं, जो इस आधार पर बुद्ध के अवशेषों के कुछ भाग पर अपना दावा करते हैं कि बुद्ध की भांति वे भी खनिय थे । १यह खनिय का अर्थ योद्धा है१
इस प्रकार देवीप्रसाद जी शाक्य में जनजातीय होने के तथ्य देते हैं ।

भगवान बुद्ध का जन्म ५६७ ई.पू. तथा निर्वाण ४८७ ई.पू. माना जाता है । पिता का नाम शुद्दोधन और माता का नाम महामाया था । शुद्धोधन कपिलवस्तु गण के राजा थे । वे शाक्य जाति के इक्ष्वाकु वंश में थे । डॉ. बुद्ध प्रकाश कहते हैं कि यक्षु शब्द अक्वासा, अक्कका, यकाकू, यक्यू व इक्ष्वाकु का बदला हुआ रूप है । इनका सम्बन्ध उन हाइकसोस से हो सकता है जो सेमिटिक लोग थे जिनहोंने १७५० ई.पू. में मिश्र पर आक्रमण किया था । ये लोग मूल रूप से भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लम्बे सिर वाले द्रविड़ लोग थे अर्थात बुद्ध आर्य नहीं थे । अनार्यो की तरह शाक्यों में गणतंत्र गणसंघ व्यवस्था थी । शाक्यगण वज्जीसंघ का एक घटकगण था । इसी प्रकार शाक्यों मेंे मातृप्रधान परिवार व्यवस्था थी ।``
श्री नवल वियोगी संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि ''शाक्य बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्वाकुओं की संतति से था । उनके धार्मिक जीवन के प्रारंभ में उन्हें नागराजा मुचलिंदा की शरण व सुरक्षा प्राप्त थी । जीवन पर्यंत नागों के साथ मित्रता के संबंध रहे और मुत्यु के समय के नाग राजाओं ने उनके अस्थि अवशेषों में से अपना हिस्सा मांगा और प्राप्त करने पर उन पर स्तूपों का निर्माण किया ।
डॉ नवल वियोगी अपनी इस बात के समर्थन में आगे कहते हैं कि -''बुद्ध धर्म तथा असुर नागों की संतानों में निकटता के क्या संबंध थे, इसके प्रमाण अमरावती व सांची के महास्तूपों के मूर्तियों तथा उभरे हुए चित्रों में मिलते हैं । इन महास्तूपों में हमें नागलोक, भगवान बुद्ध तथा उनके चिन्हों का सम्मान अथवा पूजा करते हुए दिखाई पड़ते हैं ।`` - - - इनमें से कुछ में बुद्ध के सिरों को फैले हुए सात नागफनों की सुरक्षा में देखा जाता है । यह नागफन नाग राजाओं की मुख्य पहचान है । ऐसा लगता है अवश्य ही बुद्ध व नाग जातियों में कोई खून का संबंध था ।``

अत: उपर्युक्त अध्ययन से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं ।

१. बुद्ध को क्षत्रिय कहने के पीछे केवल एक ही दावा है कि वो राजा की संतान है। यह एक बहुत ही हल्का दावा है ।
२. बुध़्द द्वारा कई जगह शाक्य का पक्ष लेते हुए ब्राम्हणों से विवाद करना तथा ब्राम्हणों द्वारा शाक्यों को नीचा दिखाने की कोशिश यह सिद्ध करती है कि शाक्य निश्चित रूप से वर्ण व्यवस्था से बाहर की जाति थी, क्योंकि शाक्यों के क्षत्रिय होने पर ब्राम्हणों द्वारा नीचा दिखाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
३. श्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का तर्क कि शाक्य जनजातीय थे, बिना ठोस तथ्य के स्वीकार योग्य नहीं है, किन्तु ब्राम्हण नहीं है । 'गौतम` गोत्र के आधार पर उनके तर्क स्वीकार योग्य हैं । यदि थोड़ी देर के लिये श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय का जनजातीय वाला तर्क स्वीकार कर लिया जाये तो श्री नवल वियोगी के द्वारा अनार्य होने के लिए दिये गये तथ्य उन्हें अनार्य तो सिद्ध करती है, किन्तु 'जनजातीय` होने पर अभी और पुष्टि की अपेक्षा है ।
४. अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर इस नतीजे पर पहु!चा जा सकता है कि बुद्ध आर्य नहीं थे, न ही क्षत्रिय थे, किन्तु बुद्ध के नागवंशी संतति होने के स्पष्ट प्रमाण भी नहीं मिलते हैं ।
५. डॉ. बुद्ध प्रकाश द्वारा प्रस्तुत तर्क कि` बुद्ध अनार्य है, स्वीकार योग्य है, क्योंकि अनार्य की विशेषता थी -
१. गणतंत्र व्यवस्था २. मातृप्रधान परिवार ३. द्रविड़ की तरह लम्बे सिर की बनावट ४. बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्काकुआंे से था, जो कि अनार्य वंश से सम्बन्धित थे ।
अत: इस निष्कर्ष की पुष्टि देती है कि बुद्ध भारत के मूलवासी अनार्य की संतान थे ।

इतिहास से ऐसा ज्ञात होता है कि बौद्ध शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुद्ध की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हें विष्णु का दसवां अवतार भी इसी काल में बनाया गया । यह प्रव्यिा बौद्धों का हिन्दुकरण कहलाती है

टीप:-इस लेख को प्रकाशित किया जा सकता है बशर्ते इसके स्त्रोत का उल्लेख अवश्य करते हुऐ हमें सूचीत करे।
संजीव खुदशाह
३९/३५० गणेश नगर,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
पिन-४९५००४
मो.०९८२७४९७१७३
पुस्तक अंश -आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं)
लेखक- संजीव खुदशाह

- संजीव खुदशाहनवंबर 2008 में एक एनजीओ के बुलावे पर मैं पुणे गया। वहां का कार्यक्रम सफाई कामगारों के उत्थान के लिए समर्पित था, किन्तु वहां के सफाई कामगारों की बस्तियों में घुमना तथा अपने पाठकों से मिलना बेहद रोमांचक यादगार पल था। पाठकों का मेरे प्रति प्रेम सम्मान एवं अपनापन के बीच मुझे पुणे में नया जैसा कुछ भी नहीं लग रहा था। पूणे की आबो-हवा एवं वहां के लोगों का बर्ताव बेहद सरल है। पुणे की एक विशेषता मुझे अच्छी लगी वह यह की यहां एक भी भिखारी नहीं है। लोग कहते है पूना बुद्धिमानों का शहर है, भिखारी के भेष में अमीरी की उसे परख है, शायद इसलिए यहां भीख देने का रिवाज नहीं है।
यहां सफाई कामगार बहुत बड़ी संख्या में रहते है। इनकी लगभग 20 से 25 बस्तियां है। ज्यादातर कामगार गुजराती तथा राजस्थानी मूल है, कुछेक यूपी से भी आये है। इनका रहन सहन का स्तर (पुणे के बारे में जैसा माना जाता है) तुलनात्मक अच्छा नहीं है, लेकिन गुजरात जैसे राज्य के बनिस्पत ठीक है। इसीलिए गुजरात से आये कुछ मानव-अधिकार कार्यकर्ताओं को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यहां के सफाई कामगार अच्छी स्थिति में रह रहे है।
दरअसल गुजरात जैसे कट्टरपंथी एवं परंपरावादी राज्य में, जहां सफाई कामगार आज भी नरक सी सामाजिक स्थिति में जीवन-यापन कर रहे हैं, पर नवसृजन नाम का एक एनजीओ कार्य कर रहा है। ऐसी असामान्य स्थिति में काम करना अपने आपमें एक साहस का कार्य है। जब वहां के कार्यकर्ताओं ने पहली बार यहां के कामगारों की स्थिति देखी तो उनका आत्मविश्वास ठहर सा गया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वहां और ताकत से कार्य किये जाने की जरूरत है। चूंकि मैं मध्यभारत के अन्य शहरों में जाकर इनकी स्थिति से परिचित था, इसलिए मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी।
असल में इन कामगारों का आर्थिक स्तर तो सुधरा है, लेकिन सामाजिक स्तर (जिसे सामाजिक चेतना भी कहते है) वहीं का वहीं है। आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद भी लोग सफाई पेशा छोडऩे को तैयार नहीं हैं।
मैंने इनके सदस्यों से मुलाकात की। यह आत्मीय मुलाकात सचमुच अविस्मरणिय है इनकी यहां स्थानीय पंचायत भी है। इसी पंचायत के प्रबंध सदस्य श्री खेमचंद बाबू साउके ने गोगापीर के बारे में जानकारी मिथक के रूप में दी। वे बड़े ही रोचक ढंग से बताते हैं कि गोगापीर नाथसंप्रदाय के गुरू श्री गोरखनाथ के शिष्य थे। मैं यहां पर जानकारी देना आवश्यक समझता हूं कि बौद्ध धर्म के पतन के समय जब हीनयांन-महायान की उत्पत्ति हो चुकी थी, उसी समय कुछ पंथ भी तैयार हुए। ये पंथ बौद्ध भिक्षुओं से ही टूटकर बने थे। इन्ही में एक पंथ नाथ सम्प्रदाय था, जिसमें बौध्द धर्म के अवशेष नाम-मात्र के थे। भंगी जाति के लोग यह मानते हैं कि गोगापीर चुहड़ा जाति के हंै लेकिन सच्चाई कुछ और है।
ऐसा कहा जाता है कि मारवाड़ क्षेत्र में एक राजपूत राजा थे, जिनका नाम जेवर तथा उनकी रानी का नाम बाचल था। रानी लंबे समय से संतानहीनता का दंश झेल रही थी। इन्हें एक साधु ने आर्शीवाद के साथ गोगल (सर्प के जहर से बना लुगदीनुमा मणी जैसा) भी दिया। उस रानी ने इस गोगल के पांच भाग किये तथा चार भाग अपनी सेविकाओं को भी दे दिया जो संतानहीन थीं। उनमें से एक भाग मेहतरानी (चुहड़ी) को तथा एक टुकड़ा घोड़ी को भी दिया। एक भाग स्वयं रानी ने भी खाया। रानी से जो पुत्र पैदा हुआ वह गोगापीर कहलाये। कहीं कहीं इन्हें गोगावीर भी कहते हैं। जो पुत्र मेहतरानी से हुआ वे रत्नाजी चावरिया कहलाये चूंकि गोगल के रिश्ते से दोनों भाई थे, इसलिए चूहड़ा समाज के लोगों ने इन पर विशेष श्रध्दा दिखाई। कहा जाता है कि गोगापीर विशेष चमत्कारी व्यक्तित्व के थे। इनके मानने वाले कहीं कहीं कालबेलिया भी कहलाते है।
जैसा कि अन्य चमत्कारियों के हाथ पांव सफाई कामगीरों को उबारने के मामले में ठंडे पड़ जाते हैं, उसी प्रकार गोगापीर की भी चमत्कारिक शक्तियां अपने गोगली भाईयों को मैला ढोने की संस्कृति से निजात दिलाने के मामले में जवाब दे बैठी।
लेकिन ये सफाई करने वाली जातियां जोर-शोर से इनकी रैलियां निकालती हंै। वे उसे भगवान मानते हैं। उनके शिष्यों के आगमन पर पुणे में भव्य स्वागत किया जाता है। ऐसा नहीं है कि सभी लोग दलित चेतना से विमुख हंै। कुछ लोग तो हंै, लेकिन उन्हें उंगलियों में गिना जा सकता है। अम्बेडकरी धारा में आने के सम्बन्ध में उनका कहना है कि नये ब्राम्हणों ने भी हमारा खूब शोषण किया है। उनका सभी दलित संस्थाओं में कब्जा है। अपने शोषकों के साथ हम कैसे हो सकते हैं।
यहां की बहुसंख्यक दलित जाति के बारे में वे राय रखते हैं कि हमें मिलने वाली सभी सुविधाएं ये ले लेते है और हमसे छुआछूत बरतते हैं। ऐसे में दलित चेतना गंजे के सिर में पानी डालने जैसा है। जब तक यहां की बहुसंख्यक संगठित जातियां हमसे समानता का व्यवहार नहीं करेंगी, तब तक हम कैसे इनके साथ दलित चेतना से जुड़ पायेंगे। माणुस्कि जैसे कुछ एनजीओ के कार्यकर्ता ऐसा प्रयास कर रहे है जो सराहनीय हैं, इसलिए कुछेक व्यक्तियों का रूझान दलित चेतना की ओर हुआ है, किन्तु बैठकों में भंगी-भंगी की पुकार एवं अलग से पहचान करवाये जाने के कारण वे कुण्ठा के शिकार हो जाते हैं। कुछ तो इस दंश के कारण वापस आने से भी परहेज करते हैं। दरअसल दलित संस्थानों में सफाई कामगारों को वाल्मीकि पुकारना भी एक अटपटा अनुभव है। आखिर कब तक सभी दलित जातियां अपने दासत्व बोधी नाम से छुटकारा पायेंगी?
जब दलित आंदोलन से जुड़े लोग भी ऐसा करते है तो दुख होता है। क्या ऐसी दिशाहीन संस्थाएं समाज को दिशा दिखा सकेंगी?

Alternate Politics - The Search & Need

Alternate Politics - The Search & Need
By Goldy M. George
www.countercurrents.org 17 November, 2003
Human history has remained the chronology of struggles between master and servant, have and have nots, between capitalists and proletariats, exploiter and exploited. The irony of the world history turns everything upside down. How to evaluate this historical process? It is quite a difficult task, but when we try to understand from the people's viewpoint, the picture is clearer. How to explain such theoretical sterility and sclerosis of praxis in spite of much unquestioned commitment to the cause of a classless and just society? Any search for an answer must begin with a critical appraisal of the historical practice of Indian politics over the past many years along with the ancient system of local governance.
One of the outstanding developments in Indian politics was the participation of the common man in the freedom struggle. Congress, initially was a forum of the common man, rather a platform which took up the brunt to emancipate Indians from the clutches of British imperialism. Although the bourgeois funded Congress, it had a set of agendas for these struggles. Subsequently in the post-independence period, the Congress turned to be a bunch of bourgeoisie. Gandhi's dream of "Gram-Swaraj" went into oblivion. Eventually the kind of independence that the people got was only a transfer of power from a cluster of exploiters to another.
Another significant role was of the Communist movement in India. Organising the working class was their major program, through trade union. Indeed, many of the early leaders were committed to the cause of the proletarian class. Particularly, from late 30s till early 60s it could be derived as the era of mass left movements apart from the freedom struggle. Hundreds of struggles were initiated during this period, especially by the working sector. These proletarian struggles were mainly centred in Kerala, West Bengal, and Andhra Pradesh, in some parts of Bihar and in the North-Eastern states. This range from participating in the parliamentary politics to the extreme end of armed guerrilla warfare. The experiment of land reforms among the communist Governments seemed to be successful, which turned as a debacle at the end of the day.
But slowly, in the course of time the proletarian agenda of the communist parties is also diffusing rapidly. Their structure has moreover shifted to capital orientedness than people's power. Also the democratic process was terribly demoralised. As a part of this they candidly invite the multinational corporation, whose one and only agenda is to exploit every thing on earth to the maximum extend. Although the isolated armed struggles headed by the marxist-leninist groups had gained very little, they still continue with the hope of prosperity in future.
Sangh Parivar with the ideology of violent nationalism had attained the utmost support from the middle class elite. Hindutva catalogue had widely gained a space due to the sentimental loyalty towards Hinduism. Subsequently the definition and identity of nationalism was also given a renewed shape. Also this had substantially led to the emergence of consumerism.
However the most significant political development of the last one and half century is the growth of a socio-political consciousness among the Dalits and of course among the Adivasis. This has brought in a new dynamics to the overall political process, particularly with the struggle of Dalits for their Dignity. Dalits are the lowest strata of people according to the Hindu social structure, who were once slaves to the upper caste people known as Shudras and Atishudras. They are one of the long persecuted humanities anywhere in the world.
Tides Tturned:
What has happened in the last few decades is a gradual, sensible and rationale growth in the level of awareness among the Dalits. Various questions relating to caste issue has been challenged that intimidates the very existence of the upper caste segment, which is also the ruling class, despite the insignificance of party affiliation. Strengthening of upper caste is a felt need to the Hindutva catalogue since casteism is the corner stone of Hinduism itself. Without casteism or strengthening of the upper caste there is no existence of Hinduism as such. Ambekdarite movement has checked this to greater extend. However this continues as the root of all social dilemmas in India.
So far the rustic poor are concerned, one thing that is very vivid from this is that all the present political factions have turned to be a bunch of caste elite having seldom interest in the masses and any sort of change. In some parts of India, the oppressed sector had expressed their opposition to the power holders in many different ways, some through peaceful means and other through violent ways. Many others are yet to realise the exploitative trend.
In the past, many of the violent movements, basically enrolled by the working class were born as a part of the ongoing invasion of imperialistic forces on their basic rights. To them it is the only way to express their wrath and thus they considered the ruling class as their birth foe. Apparently, the growth of people's organisations in different parts is an indicator of people's rise. Verily there is the genesis of the search for alternatives to the present politics.
Currently there is hardly any role of the common man in this process than casting votes. Another tragic scene of this trend is the systematic and strategic alienation of the common man from this process. This purely explains the ignoble surrender before the multinational onslaught in the name of globalisation and liberalisation without even a whimper, nay, with dubious declarations of glorious exploits.
Turning back to the people the concept of decentralisation of power is the only way for a redemption - rather the one and only alternative. But before that a wave of cultural change has to be brought into, turning from capital oriented social political and economic structures to a more socialist and egalitarian one based on equality and dignity.
Gram Swaraj can be one possible way in this approach. But the concept of Gram Swaraj, which I mean, is not the current craved advertisement by the Congress. Even the ancient Indian Gram Sabhas were entirely the monopoly of a few feudal upper caste landlords or the local rich. This cannot be the true spirit of decentralisation of power. The dalits, women and other deprived sectors had no say in such panchayats. Such a system will be an absurd than an asset fabricating more problems to the poor strata. Essentially the need of the hour is the balance between the casteless and classless society.
Rustic revolt particularly of the poor and working sector will definitely storm the existing citadels of power, thus emerging the new era of power, a cohesive outburst of people's struggles.
This is from where one has to initiate a serious debate on search of alternatives - people's power. It is not the spontaneous emergence of masses, but a slow and steady evolution that transfers the complete power - social, political, and economic from the clutches of a few to the hands of the battered strata, which is also the need of the hour.
Today when Congress stands at the crossroad, BJP stands with its Hindutava agenda, Communists had diluted its working class agenda, and Socialists striving to find space among the people; can we rewrite our future, and emancipate people from the vulgar clutches of party politics?
Goldy M. George is a Dalit-Adivasi activist in Chhattisgarh. He is currently the convener of Dalit Study Circle.Goldy M. George Convener, Dalit Study Circle

The Book "SAFAI KAMGAR SAMUDAY" Publish in Marathi Language.


'सफाई कामगार समुदाय` हे अभ्यासपूर्ण पुस्तक आहे
· विलास वाघ
मेहत्तर, भंगी इत्यादी सफाई काम करणात्या समाजाला सफाई कामगार शब्द वापराला जातो, समाजाच्या आरोग्याच्या दृष्टीने अत्यंत महत्वाचे काम करणारा हा समाज अत्यंत उपेक्षित राहिला आहे. या समाजाच्या प्रश्नांकडे फारसे कोणाचे लक्ष्य गेले नाही. आता हा समाज जागृत होत आहे. संघटित होत आहे. महाराष्टं दोन वेळा अभ्यास समित्या नेमल्या गेल्या. त्यांच्या काही शिफारसी मान्य झाल्या आहेत. हा समाज देशभर विखुरला गेला आहे. त्यामुळ त्याचे संघटन करणे अवघड आहे.
बिलासपूर, छत्तीसगढ़चे संवेदनशिल सामाजिक कार्यकर्ते व लेखक संजीव खुदशाह यांनी 'सफाई कामगार समुदाय` हे अभ्यासपूर्ण पुस्तक लिहीले, प्रत्येक राज्यात या समाजाचे प्रश्न वेगवेगळे आहेत. चालीरीती रूढी. परंमरामध्ये थोडा फार फरक आहे. पण यांचे सामाजिक प्रश्न समान आहेत. हा समाज इतर समाजात मिलळत नाही आणि इतर समाजही यांना स्वीकारत नाही असा हा अपेक्षिला गेलेला समाज आहे.
खुदशाह यांनी ह्या समाजाचा बारकाईने अभ्यास करून हे पुस्तक लिहिले आहे. सफाई कामगार समाज कसा निर्माण झाला, त्यासंबंधी पुराणातले संदर्भ, सामाजिक स्थिती, सामाजिक प्रश्न, त्यावरील उपाय इत्यादींवर अभ्यासपूर्ण विचार श्री खुदशाह यांनी मांडले आहेत.
या पुस्तकावर अनेक ठिकाणी चर्चा झाली आहे, समीक्षा झालेली आहे. अमेरिकेतील काही विद्यापीठातील अभ्यासक्रमात या पुस्तकाचा समावेश झाला आहे. पंजाबी भाषेत याचे भाषांतर झाले आहे. महाराष्टंतील सामाजिक विषयांवरील लेखक, आंबेडकरी चळवळीतील कार्यकर्ते आयु. भीमराव गणवीर यांनी या पुस्तकाचे मराठीत भाषांतर केले आहे. याबद्दल त्यांना धन्यवाद दिले पाहिजेत. याविषयावर मराठीत गणवीर यांनी भाषांतर केले आहे. भाषांतर उत्तम झाले आहे. मूळ विषयाचा आशय त्यांनी जपला आहे. संजीव खुदशाह आणि भीमराव गणवीर यांना मराठी वाचकांकडून धन्यवाद.
समीक्षित कृति:- सफाई कामगार समुदाय
लेखक :- संजीव खुदशाह
अनुवादक:- भीमराव गणवीर
पृष्ठ सं. :-९५ मूल्य :- ७०रू.
प्रकाशक :-सुगावा प्रकाशन, ५६२ए सदाशिव पेठ, पुणे-३० महाराष्ट्र
Phone:-24478263
Fax:-24479228

Dalit Movement associations heartily whish you A Very Happy New Year

Dear Friends,Dalit Movement Association heartily wishes you all 'A Very Happy New Year' 2009, and hope that in the coming years India will establish the ideal for equality by nullifying the discriminations based on caste, creed, sex, color and class etc. and take it to the ground. We, the Members of this group, our well wishers, friends and those who think in the same way as we do resolve to take two major initiatives in this year.
1. The beginning of a library.
2. The establishment of a school at Raipur in future.
Hope for your support and co-operation.
दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन आपको आने वाले नये वर्ष २००९ की हार्दिक शुभकामनाऐ देता है, और आशा करता है कि आने वाले सालों में जाति-भेद, लिगं-भेद, रंग-भेद एवं वर्ग-भेद मिटाकर भारत समानता का आदर्श स्थापित करेगा। इस ग्रुप के हम सभी मेम्बर, मित्रगण तथा समान विचारधारा वाले लोग इस आंदोलन को पूरा करने का संकल्प लेते है।
इस वर्ष हमने निम्नलिखित दो मुख्य कार्य प्रारंभ करने का निश्चय किया है।
१. एक लाईब्रेरी की शुरूआत।
२. भविष्य में एक स्कूल की स्थापना।
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