आरक्षण की आंच बनी गले की फांस



 छत्तीसगढ में दलितों के आरक्षण में ४ प्रतिशत की कटौती

रायपुर !   कांग्रेस के भारी विरोध और अपने ही पार्टी के असंतुष्टों का आक्रोश झेल रही डॉ. रमन सिंह की सरकार चौतरफा घिरती नजर रही है। आरक्षण के नए बंटवारे को लेकर अनुसूचित जाति वर्ग ने मोर्चा खोल लिया है। भाजपा ने हाल में ही आदिवासियों को 32 फीसदी आरक्षण का लाभ देकर एक बड़े वर्ग को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया है, लेकिन अनुसूचित जाति वर्ग के आरक्षण में 4 फीसदी की कटौती कर उसे 16 से 12 फीसदी कर दिया है, इससे समूचा अनुसूचित जाति वर्ग आक्रोशित है। अनुसूचित जाति वर्ग के आक्रोश को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आरक्षण की यह आंच रमन सरकार की गले की फांस बन गई है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगा। आठ वर्ष से सत्ता से दूर कांग्रेस को नित नये मुद्दे मिल रहे है। पिछड़ा वर्ग समुदाय भी 40 फीसदी आबादी की तर्ज पर 40 फीसदी आरक्षण को लेकर लामबंद होने लगा है। आरक्षण को लेकर उभरा आक्रोश आगामी चुनाव में भाजपा के वोट बैंक पर सेंध मार सकता है। महंत सतनामी समाज, गुरूघासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, छत्तीसगढ़ सतनामी समाज, आरक्षित वर्ग आंदोलन, सत्यनाम सेवा संघ एवं डॉक्टर अम्बेडकर अधिवक्ता समिति ने रमन सरकार के इस फैसले को गलत करार दिया है।
आरक्षण मसले पर आज जिला न्यायालय में डॉ. अम्बेडकर समिति की बैठक आहूत की गई। समिति के प्रांतीय सचिव अधिवक्ता रामकृष्ण जांगड़े ने कहा कि रमन मंत्रिमंडल की बैठक में आरक्षण परिसीमन कमेटी के सदस्य एवं मंत्री पुन्नूलाल मोहले मौजूद थे, लेकिन केबिनेट द्वारा अनुसूचित जाति वर्ग को आबादी के हिसाब से 12 फीसदी आरक्षण देकर 4 फीसदी कटोती किए जाने पर उन्होंने आपत्ति नहीं दर्ज कराई। समिति संतोष मारकण्डेय ने इसे लेकर श्री मोहले एवं दयालदास बघेल से इस्तीफे की मांग की है तथा निंदा प्रस्ताव पारित किया है। समिति की बैठक में विजय बघेल, भजन जांगड़े, एके अनंत, ओपी मारकण्डेय, हरिशंकर धृतलहरे, जीडी सोनवानी आदि मौजूद थे।
उल्लेखनीय है कि रमन मंत्रिमंडल ने हाल में ही जनसंख्या के आधार पर आदिवासी अनुसूचित जनजाति वर्ग को 20 की जगह 32 फीसदी तथा पिछड़ा वर्ग समुदाय को 14 फीसदी आरक्षण यथावत् देने की घोषणा की है। मध्यप्रदेश सरकार के समय से लागू आरक्षण नीति को अपनाते हुए छत्तीसगढ़ ने प्रदेश में अनुसूचित जाति वर्ग को 20 फीसदी तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 फीसदी आरक्षण की पात्रता प्रदान की थी, लेकिन आदिवासियों के बलबूते सरकार बनती रही भाजपा सरकार ने लगातार उठ रही मांग को देखते हुए हैट्रिक मारने आदिवासियों को 32 फीसदी आरक्षण तो दिया, लेकिन अनुसूचित जाति वर्ग से 4 फीसदी छीन लिया।
छत्तीसगढ़ सतनामी समाज के संचालक मंडल सदस्य एलएल केशले, आरएस बांधी, पीआर गहिने, एनआर टोण्डर आदि ने आरक्षण में कटौती की निंदा करते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ शासन द्वारा अनुसूचित जाति की संविधान से प्राप्त आरक्षण के लाभ को जानबूझकर वंचित किया जा रहा है। अनुसूचित जाति के आरक्षण को सोची-समझी साजिश द्वारा समाप्त करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।
उच्च शिक्षा विभाग, छग शासन द्वारा वर्ग तीन एवं चार के कर्मचारियों के भर्ती का विज्ञापन विभागाध्यक्ष स्तर से निकाला गया है, जिसमें अनसुूचित जाति वर्ग के लिए एक भी पद आरक्षित नहीं रखा गया है। कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रवेश में आरक्षण की अनदेखी करते हुए अजा वर्ग के छात्र को प्रताड़ित करने का मामला प्रकाश में आया है। छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल में अजा आरक्षित वर्ग के अधिकारियोंकर्मचारियों को पदोन्नति देकर सामान्य वर्ग को अनुभाग अधिकारियों को लेखा अधिकारी पद पर छग राज्य पॉवर कंपनी में नियम विरूध्द कार्रवाई की गई है।
वर्ष 2001 की जनगणना में अजा की जनसंख्या 11.61 प्रतिशत दर्शाया है, जो वास्तविकता में सर्वथा परे है। शासकीय दस्तावेजों के परीक्षण से यह बात सामने आई है कि कई अजाअजजा बाहुल्य ग्रामों में उनकी जनसंख्या निरंक बताया गया है, गांवों को वीरान दर्शाया गया है। अनुसूचित जाति वर्ग की जनसंख्या कम कर देने अथवा बढ़ जाने से संविधान की व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, परंतु शासन द्वारा जनगणना 2001 के आंकड़ों को लगभग 10 वर्ष बाद आधार मानकर लिया गया निर्णय अव्यवहारिक तथा दुर्भाग्यपूर्ण है।
उपरोक्त कमियों को दूर करने के उपाय के बजाय छग मंत्रिमंडल द्वारा वर्ग विशेष को संविधान द्वारा प्राप्त 16 फीसदी आरक्षण में कटौती कर 12 फीसदी करने का तुगलकी फरमान जारी किया है, जिससे सम्पूर्ण सतनामी समाज, बौध्द समाज एवं अनु. जाति के लोग उध्देलित आक्रोशित हैं। छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल अपने निर्णय पर यदि पुनर्विचार यथाशीघ्र नहीं करती है तो पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में विरोध के स्वर मुखर होंगे। आरक्षण कम करने को राजनैतिक षड़यंत्र बताते हुए सतनाम सेवा संघ महिला विंग की प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती यशोदा मनहरे ने कहा है कि जनसंख्या किसी भी समाज की हो, दिनोंदिन बढ़ती है, कि घटती है, आदिवासी समाज को जनसंख्या बढ़ोत्तरी के तहत 20 से 32 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। ये बहुत अच्छी बात है, परंतु अजा का आरक्षण बढ़ने के बजाय कम किया जा रहा है, जबकि सालों-साल परिवार बढ़ रहा है, यह एक राजनैतिक षड़यंत्र है। पूर्व में भी हमारे एक लोकसभा सदस्य एवं राज्यसभा सदस्य कम करके अजा. समाज का अपमान किया गया है, चूंकि पूर्व में आरक्षण 16 फीसदी था, अब इसे बढ़ाकर 20 फीसदी किया जाए कि 16 से 12 फीसदी
आरक्षित वर्ग आंदोलन के प्रमुख संयोजक राजेन्द्र चंद्राकर ने अनु. जातिजनजाति पिछड़ा वर्ग के सामाजिक राजनैतिक नेताओं से अपील की है कि उनके लिए आरक्षण एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है, अत: वे आपस में सामंजस्य बिठा सयंत हो, कोई भी अगला कदम उठावें।
श्री चंद्राकर का कहना है प्रदेश सरकार की नीयत आरक्षित वर्गों को उनके हक के हिसाब से आरक्षण देने की कतई नहीं है, वरन् वह इस मुद्दे पर उन्हें उलझाकर उनके साथ राजनीति कर रही है। श्री चंद्रकार ने आगे कहा विगत वर्ष जब सरकार ने अनु. जनजाति के 32 फीसदी आरक्षण देने अनु. जाति के आरक्षण को 16 से 12 फीसदी करने का निर्णय लिया था, तब अनु. जाति के नेताओं ने आरक्षण कम करने का पुरजोर विरोध किया था और सरकार ने इस पर पुनर्विचार की बात कही थी, लेकिन एक साल बाद सरकार ने फिर वही पुराना निर्णय दुहरा दिया।
महंत सतनामी समाज के सीएल बंजारे ने कहा कि तमिलनाडू कर्नाटक में आरक्षण की सीमा 68 और 70 फीसदी है। हमारे छत्तीसगढ़ में 58 फीसदी हो रहा है, फिर भी ये क्या अनु. जा. के आरक्षण को कटौती करना न्याय संगत है। हमेशा जातिगत संख्या में वृध्दि जनसंख्या में वृध्दि हो रही है, के बवजूद कटौती हमेशा से आरक्षण में बढ़ोत्तरी के लिए समय-समय पर शासन को ज्ञापन सौंपा जाता रहा है। अनु. जाति के साथ आरक्षण में कटौती करना खिलवाड़ है। अनु. जाति के हितैषी होने का सरकार खोखला ड्रामा कर रही है, जो नौकरी, पदोन्नति, विशेष भर्ती, भर्ती भी सही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। अनु. जाति के लोग बेरोजगारी के कारण पलायन कर रहे हैं। इस वर्ग के साथ इस प्रकार की नीति अनु. जाति वर्ग के साथ खिलवाड़ ही है।
साभार देशबंधु से

[D.M.A.-:1447] दलित मुव्हमेन्ट ऐशोसियेशन के एक प्रतिनीधि मंण्डल ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से मुलाकात कर छत्तीसगढ़ में दलित जातियों की कठिनाईयों से अवगत कराया गया।

दलित मुव्हमेन्ट ऐसोसियेशन
(सामाजिक अधिकारों के लिए प्रतिबध्द)
शासन व्दारा मान्यता प्राप्त
पंजीकृत कार्यालय:- 687 दोन्देखुर्द एच.बी.कालोनी, रायपुर (छ.ग.) पिन-493111
प्रेस विज्ञप्ति                                                                                                दिनांक 3/11/2011

पिछले दिनों दलित मुव्हमेन्ट ऐशोसियेशन के एक प्रतिनीधि मंण्डल ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी से मुलाकात कर छत्तीसगढ़ के दलित जातियों की कठिनाईयों से अवगत कराया गया।
ज्ञातव्य है कि छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी समस्या जाति प्रमाण पत्र नही बनना है। आवेदक से ५०-६० साल पुराना भूमि का रिकार्ड मांगा जाता है। जबकि छत्तीसगढ़ के ज्यादातर दलित खासकर अतिदलित भूमिहीन थे एवं अनपढ़ थे। इस कारण वे यहां निवास करने का ५०-६० साल पुराना रिकार्ड पेश नही कर पा रहे है परिणाम स्वरूप उनका जाति प्रमाण पत्र नही बन पा रहा है। और वे आरक्षण जैसी मूल भूत सुविधा से वंचित है। वे जातियां जिनका जाति प्रमाण पत्र नही बन रहा है उनमें से डोमार, डोम, महार, भंगी, मेहतर, वाल्मीकि, खटिक, देवार आदि प्रमुख है।
प्रतिनीधि मंण्डल द्वारा यह मांग कि गई कि यहां अधिकता में निवास करने वाली डोमार जातियों का जाति प्रमाण पत्र कई नामों से जारी किया जाता है जैसे कहीं हरिजन, कहीं मेंहतर और कहीं डोमार या डुमार एवं भंगी आदि। इसलिए सतनामी जाति की तरह एक ही नाम डोमार से जाति प्रमाण पत्र जारी किये जाने का आदेश प्रसारित किया जाय।
इस प्रकार प्रतिनीधि मंडल ने ऐशोसियेशन हेतु कार्यालाय भवन की मांग सहीत अन्य समस्याओं से मुख्यमंत्री महोदय को एक ज्ञापन जनदर्शन के अंतर्गत सौपा। जनदर्शन वेबसाईट www.cg.nic.in/jandarshan में टोकन क्रमांक 500711011613 एवं 500711011669 पर ज्ञापन पर शासन द्वारा कि जाने वाली कार्यवाही आन लाईन देखी जा सकती है। प्रतिनीधि मंडल में ललित कुंडे, मोतिलाल धर्मकार, कैलाश खरे, हरिश कुंडे एवं संजीव आदि थे।

कन्वीनर


दलित मुव्हमेंट ऐशोसियेशन
रायपुर

अन्ना इन भ्रष्टाचारों पर मौन क्यों है ?

संजीव खुदशाह
अन्ना तथा कथित पाक-साफ छबी के बताये जाते है। यहां पाक छबी के भी अपने-अपने पैमाने है। चाहे कुछ भी हो अन्ना अपने आपको आम भारतीय का प्रतिनीधि बताते है जो कम से कम लोकतंत्र में एक सफेद झूठ जैसा है। चंद शहरी लोगों को लेकर सिविल सोसाईटी का निमार्ण करने कि प्रक्रिया, आम भारतीय की जुबान बनने का प्रमाण पत्र नही है। दरअसल प्रश्न ये उठता है कि क्या ये सोसाईटी चंद तथाकथित बुध्दिजीवि, धनी, राजनेताओं का जमावड़ा है जिसमें कुछ पर्दे के सामने है कुछ पर्दे के पीछे ?

यदि अन्ना और उसके प्रमुख सहयोगियों कि बात करे तो वे गांधीवादी होने के बहाने हमेशा हिन्दूवाद को ही बढ़ावा देते है। उनके इस आन्दोलन में दलित आदिवासी एवं अल्पसंख्यक का कोई स्थान नही है यदि स्थान है भी तो केवल भीड़ बढ़ाने के लिए। इस आन्दोलन में हावी वे ही लोग है जो समाजिक धार्मिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मौन रहते है।

अन्ना के आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य लोकपाल है न कि भ्रष्टाचार का खत्मा
अन्ना ने लोकपाल विधेयक पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सिवील सोसायटी का जनलोकपाल के पास हो जाने पर भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा? क्या प्रधानमंत्री को लोकपाल के नीचे लाने पर भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा। शायद सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए ये जुमले अच्छे लगते है लेकिन ऐसा लोकपाल लागू होने पर लोकतंत्र को ही खतरा हो सकता है। चुने हुए प्रतिनीधि का महत्व खत्म हो जायेगा। अन्ना के साथ-साथ आम जनता को गुमराह करने का सबसे बड़ा काम चंद धर्मवादी मीडिया भी कर रही है। जो अन्ना को एक हीरों कि तरह पेश कर रही है । आखिर टी आर पी भी तो काई चीज़ है चाहे इसके लिए समाजिक हितों की ही क्यो न बली देनी पड़े।  इस काम के लिए प्राईवेट न्यूज चैनलो को महारत हासिल है।
इन भ्रष्टाचार पर अन्ना मौन है
उपरी तौर पर जो भ्रष्टाचार हो रहा है उसका कारण यह है कि हमारे रोम रोम में भ्रष्टाचार व्याप्त है जबतक भारत का आम आदमी भ्रष्ट रहेगा तब तक ऐसे हजारो लोकपाल बिल व्यवस्था को बदलने मे असक्षम रहेगे। आईये अब आपको बताते है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत कहा से हो रही है।
बच्चे के जन्म से भ्रष्टाचार- आज एक आम भारतीय के घर कोई महिला गर्भवती होती है, तो भ्रष्टाचार प्रारंभ हो जाता है। परिवार के लोग लड़का होने के लिए मन्नत, चिरैरी करते है जो आगे बढ़कर सोनोग्राफी तक पहुच जाता है। लड़का हुआ तो भ्रष्टाचार को आचार बनायेगा, लड़की हुई तो वो भी उसी भ्रष्टाचार का अभिन्न अंग बनेगी। क्लास में पास होना तो भ्रष्टाचार, एंडमिशन होना हो तो भ्रष्टाचार। रोम-रोम में भ्रष्टाचार बसा है तो जब वो बच्चा या बच्ची बड़ी होकर उच्चे ओहदे में आने के बाद भ्रष्टाचार में लिप्त नही होगे ऐसा कैसे हो सकता है।
धार्मिक भ्रष्टाचार- भारत में जिस प्रकार से धार्मिक भ्रष्टाचार को मान्यता है वह किसी वहसी समाज में ही संभव है। मनुस्मृति, वराह पुराण, भागवत गीता आदि हिन्दू धर्म ग्रंथ हमेशा उच-नीच को ही बढ़ावा देते है। जिससे जाति भेद, लिंग भेद को धार्मिक स्वीकृति मिलती है। इन्ही धर्म ग्रंथो से जिन जातियों को शोषण करने का अधिकार मिलता है वे हिन्दूवाद को बढ़ाना चाहते है तथा वे ये भी चाहते कि भारत का संविधान इन धर्म ग्रन्थो से प्रतिस्थापित हो जाये ताकि भ्रष्टाचार में उनका ऐकाधिकार रहे। यदि अन्ना वास्तव में भ्रष्टाचार मिटाना चाहते है तो इन उच-नीच को बढ़ावा देने वाले धर्म ग्रन्थों की मान्यता रद्ध करवाये उसकी सार्वजनिक होली जलाये। लेकिन वे ऐसा नही करेगे क्योकि कोई अपने पैरो में कुल्हाड़ी क्यो मारेगा। यानि जिससे हमे हानी हो रही हो वो भ्रष्टाचार खत्म होना चाहिए और जिससे हमे लाभ हो रहा हो वो भ्रष्टाचार जारी रहना चाहिए। ऐसा शिक्षीत समाज का मानना है।
समाजिक भ्रष्टाचार- भारत में सामाजिक भ्रष्टाचार धर्म ग्रंथो की कोख से पैदा हुआ है। जिसके गिरफ्त में हिन्दू तो है ही साथ में मुस्लिम, सिक्ख, जैन, बौध्द, इसाई भी इससे अछूते नही है। यानि ये नही कहा जा सकता की फला धर्म में समाजिक भ्रष्टाचार नही है। भारत में जिस भी धर्म ने प्रवेश किया वे समाजिक भ्रष्टाचार से नही बच सके क्योकि जितने भी लोगो ने उन धर्मो को अपनाया वे पहले से ही समाजिक भ्रष्टाचार में लिप्त थे। बहुत इमानदार समझने वाला व्यक्ति भी यदि अपनी कालोनी मे गैस सिलेडर की ट्राली आते देख ५० रूपये ज्यादा देकर अपनी पारी आये बिना सिलेडर लेने में कोई गलती नही समझता है। उसे लगता है कि उसने कोई भ्रष्टाचार नही किया। यहां बिना लाईन पर खड़े हुये ब्लैक में टिकिट लेना, टैक्स चोरी करना, सीना जोरी कर प्रशासन से नियम विरूध काम करवाना, अपनी जाति भाई के लोगो को फायदा पहुचांना भ्रष्टाचार में शामिल नही है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार-पहले के बजाय आज राजनीतिक भ्रष्टाचार कम है, आज जो भ्रष्टाचार दिख रहा है जिसके विरूध अन्ना लाम बंद हो रहे है वो दरअसल राजनीतिक भ्रष्टाचार ही है पहले सामंति युग में यह भ्रष्टाचार चरम पर था जहां एक ओर किसी वर्ग को देवतुल्य सुविधाऐ थी तो एक वृहद जन समुदाय को जानवर से भी बदतर समझा जाता था। उसे मानव अधिकार भी प्राप्त नही थे। लेकिन अब तक ज्ञात भारत के इतिहास में पहली बार लोकतंत्र लागू हुआ है और हासिये पर पड़े उस वर्ग को भी थोड़े बहुत मानव अधिकार प्राप्त हुऐ है। उसके बावजूद आज का भारत अन्य देशो के मुकाबले राजनीतिक मुआमले में ज्यादा भ्रष्ट है। ये महज इत्तेफाक नही है कि आजादी के तुरंत बाद भारत के प्रधानमंत्री सहित देश के सभी राज्यो के मुख्यमंत्री किसी एक ही जाति से ताल्लुक रखते थे।
प्रशासन में भ्रष्टाचार- चूकि भारत में राजनीतिक शक्ति किसी एक वर्ग के पास थी इसलिए प्रशासन में भी उसी वर्ग का राज था और वे लोग भ्रष्टाचार को सदाचार समझ कर निभाते आये। जब तक राजनेता भ्रष्ट रहेगे उनके द्वारा संचालित प्रशासन भी भ्रष्ट ही रहेगा। आज प्रशासन की कार्यविधी इतनी जटील है कि एक साधारण से कर्लक के पास ये अधिकार है कि वह फाईल को रोक ले या आगे बढने दे। प्रशासन में जवाबदेही को लेकर आज भी संदेह है। अधिकारी अरामतलब है तो कर्मचारी काम के बोझ तले दबा जा रहा है। काम की अधिकाता वेतन में विसंगती वर्तमान में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है। महत्चपूर्ण पद पर बैठे अधिकारी कर्मचारी का वेतन इतना कम है कि वे अपने परिवार का पोषण करने में असक्षम पाते है। और महत्वपूर्ण कार्य में भ्रष्टाचार के आफर को वे ठुकरा नही पाते। इसलिए प्रशासन में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सबसे पहले हर पदो की जवाबदेही निश्चित की जानी चाहिए साथ ही पदानुसार वेतन सुविधाओं की विसंगती को खत्म किया जाना चाहिए।
प्राईवेट क्षेत्रो में भ्रष्टाचार चरम पर है -आज प्राईवेट क्षेत्रों में भ्रष्टाचार चरम पर है जिसके तरफ कोई ध्यान नही देता है। इसके लिए मै एक उदाहरण देना जरूरी समझता हू। एक लोकप्रिय राष्ट्रीय समाचार पत्र ने १०० पद सर्वेयर का निकाला जिसमें युवक युवती की भर्ती की गई ५०००/- वेतन की बात हुई। सर्वेयर को समाचार पत्र का विज्ञापन करना था तीन महिने शहर गांव की गली-गली की खाक छानी और सामाचार पत्र की चल पड़ी । उस समाचार पत्र ने इन्हे एक-एक महिने का वेतन थमाया और तुम्हारी जरूरत नही कह कर नौकरी से निकाल दिया। ये भर्तियां पहले से ही सुनियोजित होती है। इसी प्रकार का छल फैक्टी में, दुकानो में, घर में काम करने वाले नौकरो के साथ रोज घटीत होता है लेकिन आवाज कौन उठाये। बड़ी-बड़ी नेशनल इन्टरनेशनल कम्पनीयां इस काम में माहिर है। चाहे मामला जमीन हड़पने का हो या ३जी घोटाले का। लोगो से महिनो काम लिया जाता लेकिन वेतन नसीब नही होता। शिकायत कहां करे। प्रशासन में भ्रष्टाचार हो तो उसकी शिकायत उसके बड़े अधिकारियों से कि जा सकती है प्राईवेट सेक्टर में शिकायत किससे करे।
बेहतर होता अन्ना भ्रष्टाचार को गहराई से समझते और उसे समूल उखाड़ने की मुहीम चलाते किन्तु ये मुहिम आम लोगो की मुहिम नही है इसलिए इस बात की गुन्जाईश भी नही है जिसके लिए मैने तर्क उपर दिये है। दरअसल जबतक अन्ना या अन्ना जैसे लोग धार्मिकवाद का मोह नही त्यागेगें तब तक भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा नही होगा यदि भ्रष्टाचार है तो है चाहे वह किसी भी मुआमले में हो वह गलत है उसका खात्मा होना चाहिए। लोकपाल तो लोकप्रियता और टीआरपी का खेल है इससे न कुछ खास होना है न वे (आश्य आन्ना आंदोलन से है) ऐसा कुछ खास होने देना चाहते है।


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संजीव खुदशाह
Sanjeev Khudshah 

अन्ना, क्या यह गांधी की भाषा है ?

कविता
अन्ना, क्या यह गांधी की भाषा है ?
भारत माँ की शान में,
बुर्जुग अन्ना बैठ गये है
रामलीला मैदान में।
अन्ना आपसे देश को
बहुत आशा है।
मिल रहा समर्थन भी,
अच्छा खासा है।
            
सिर पर गांधी टोपी पहने,
हाथ में लेकर झण्डा,
जय जयकारे लगा रहे है,
भ्रष्टों के कारनामे बांच रहे है
भ्रष्टाचार पर नाच रहे है,
क्या खूब
करप्शन उत्सव है !
कहा जा रहा है,
यह क्रान्ति है, यह विप्लव है।
गली गली से
रामलीला तक
`मैं अन्ना हूँ`
का अजब तमाशा है।
पर लेन देन ही भ्रष्टाचार है
लोकपाल  में करप्शन की
इतनी सीमित क्यों परिभाषा है ?
अन्ना आपसे देश को बहुत आशा है।
            
इस आन्दोलन से -
बरसों बाद लोग फिर जागे है।
गांधी के हत्यारे सबसे आगे है।
सिब्बल को वे `कुत्ता` कहते,
दिग्गी को वे `चूहा` मानते।
उनके लिये -
सोनिया भ्रष्टाचार की मम्मी है।
राजनीति को कहते, बहुत निकम्मी है।
वे सरकार को नंगा करेंगे,
नही तो जमकर पंगा करेंगे।
विरोधियो  को भेजेंेगे पागलखाने
फिर क्या होगा, रामजाने।
किरण जी ने कह दिया है-
अन्ना ही भारत है,
भारत है वो अन्ना है।कुछ भी कहते, कुछ भी बकते
ना ही रूकते, ना ही थकते।
मचा रखा एक शोर चारो ओर है,
जो अन्ना संग नहीं , वे सब चोर है।
बोलो गां धीवादिय़ॉ
क्या यह भाषा, गांधी की भाषा है ?
उत्तर दो अन्ना ,देश को जिज्ञासा है।
अन्ना आपसे देश को बहुत आशा है।
            
अब `से ` अन्ना `है
और है ` ` से ` अराजकता `
`` से आवारा भीड़ भी है
और है उसके खतरे भी,
आज अगर ये जीत जायेंगे
कल फिर से ये दिल्ली आयेंगे
दुगने जोर से चिल्लायेंगे
आरक्षण को खत्म करायेंगे
संविधान को नष्ट करायेंगे
लोकतंत्र की जगह
तानाशाही राज लायेंगे
फिर वो होगा, जिसकी हम को
सपने में भी नहीं आशा है।
जन मानस में बढ़ने
लगी हताशा है।
अन्ना आपसे देश को बहुत आशा है।
            
मगर निराश न हों
हताश न हों
उठो, देशवासियो ,
गरीब, गुरबों,
मजदूरों, किसानों
दलितों, आदिवासियों
जवाब दो
इस अराजक आवारा भीड़ को
कि कोई हमारे लोकतंत्र को
`बंधक` नहीं बना सकता
और अपनी शर्तों पर
डेमोक्रेसी को नहीं चला सकता।
हमें अपनी आजादी
अपना संविधान
अपना लोकतंत्र
और अपना मुल्क
बेहद प्यारा है जिसे एक ` हजारे ` ने नहीं `हजारो ने
लाखों और करोड ने
अपने खून, पसीने से संवारा है।
यह प्रण है हमारा -
हम `जनता` के नाम पर
असंवैधानिक आचरण चलने नहीं देंगे
`जनलोकपाल ` की आस्तीन में
`तानाशाही` के सांप को पलने नहीं देंगे।
            
हाँ, हम उठ खड़े होंगे
चीखेंगे और चिल्लायेंगे
कि हमें हमारा लोकतंत्र चाहिए
हमें हमारा सं विधान चाहिए
हमें हमारी आजादी चाहिए।
कि हम निर्भीक होकर
खुली हवा मे सांस लेना चाहते है,
हमंे मजबूर मत करो,
हमें पानी में चांद मत दिखाओं
जन लोकपाल के नाम पर मत भरमाओं,
हम जानते है
एक कानून नहीं बदल सकता है
देश की तकदीर
लोकपाल नहीं मिटा सकता है
भ्रष्टाचार
क्योंकि भ्र ष्टाचार तो
इन चतुर सयानों के दिमागों में है
इनकी वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा
और पुरातन संहिताओं में है।
हम उस भ्रष्टाचार से सदियों से सन्तप्त है
उसके अत्याचार, उत्पीड़न और अत्याचार से त्रस्त है
जिसमें लिप्त है सब।
            
और अन्ना आप भी,
कभी नहीं बोले -
छुआछूत पर,
दलितों पर हो रहे अत्याचारों
के विरूद्ध,
आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ,
क्यों चुप रहे
अन्ना आप ?
खैरलांजी पर, सिंगुर, नंदीग्राम,
पोस्को, जेतापुर
क्या क्या गिनाऊं
क्या यह भी कहूँकि आपके ही आदर्श गांव रालेगण सिद्धि में
दलितों को
क्यों नहीं मिल पाया सामाजिक न्याय
और आपके ही राज्य में
आत्महत्या करने वाले लाखों किसानों को,
क्यों नहीं बचा पाये ?
तीन साल की एक बच्ची
जो नहीं समझती
कि `जनलोकपाल` क्या है ?
और क्या है भ्र ष्टाचार ?
उसका तो अनशन तुड़वाकर
खूब बटोरे गये बाइटस मीडिया पर
लेकिन क्या
ग्यारह बरस से अनशन पर बैठी
पूर्वोत्तर की बेटी
इरोम शर्मिला चानू
आपको अपनी बेटी नहीं लगताी,
उसका अनशन कौन तुड़वायेगा,
इन सब पर कब सोचेंगे आप
मराणी मानुष राजठाकरे
और हजारो बेगुनाहों के
नरसंहार के साक्षी
नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा
से फुर्सत मिले,
तो जरा सोचना
इनके लिये भी,
क्योंकि अन्ना आपसे देश को बहुत आशा है।
- भँवर मेघवंशी
(डायमंड इंडिया के सम्पादक है
जिनसे -  -bhanwarmeghwanshi@gmail.com तथा मोबाइल -९४६०३२५९४८
पर सम्पर्क किया जा सकता है)

यदि देना ही था तो संजीव खुदशाह और ओमप्रकाश वाल्मीकि दोनों

यह तथ्‍य डंक उपन्‍यास मे आया कि संजीव खुदशाह की प़सिध्‍द पुस्‍तक सफाइ कामगार समुदाय से ओमप़काश वाल्‍‍मीकि ने  सामग़ी चुराइ। विस्‍तृत विवरण इस लिंक मे पढे। 

न्याय की कसौटी पर साहित्यीक चोरी ..........!


उपन्यास के प्रमुख पात्र विराट और संध्या भी ऐसी ही द्घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं और भारत के विभिन्न राज्यों में भ्रमण करने के लिए निकलते हैं। गौरतलब है कि उपन्यास का प्रमुख पात्र विराट दलित है और उसकी प्रेमिका संध्या ठाकुर द्घराने से ताल्लुक रखती है। उनके द्घूमने से ही उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है। उपन्यास का प्रारंभ मध्यप्रदेश के एक आदिवासी गांव टिनहरीया से होता है। आदिवासी युवक को विवाह से पहले अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है। इसके लिए उसे रीछ से भी लड़ना पड़ता है और अपनी प्रेमिका को डण्डा बनाकर रस्सी पर भी चलना पड़ता है।
उपन्यास में लेखक बीच-बीच में नीतिपरक सूक्तियों का भी प्रयोग करता है जैसे- 'यदि आपके अन्दर किसी चीज को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा है तो आप प्राप्त कर सकते हैं। हिम्मतीसाहसीविवेकशील और मृत्यु से भय न करने वाले पुरुष ही अपनी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।(पृष्ठ १६) उपन्यास में लेखक दर्शाते हैंं कि सामाजिक कुरीतियां सुनामी लहरों से ज्यादा भयंकर होती हैं। पुल बनाने के लिए दलितों-पिछड़ों की बलि देना सामाजिक कुप्रथाओं का उदाहरण है। भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था एवं रूढ़ियों पर लेखक बार-बार प्रहार करता है कि किस तरह ये दलितों को डस रही हैं। उनके डंक से वे किस तरह छटपटा रहे हैं। ठाकुर जाति की एक लड़की वाल्मीकि जाति के ड्राइवर के साथ भागकर शादी कर लेती है तो ठाकुर परिवार के लोग वाल्मीकि ड्राइवर के पूरे परिवार का कत्ल कर देते हैं। ऐसी खाप पंचायतों के फतवे निर्दोषों की जान ले लेते हैं इज्जत के नाम पर। किन्तु लेखक उन्हें निरीह नहीं दर्शाता बल्कि यह भी बताता है कि किस तरह वे अपनी मानवीय गरिमा के लिए संद्घर्ष कर रहे हैं।
इस उपन्यास में पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया गया है। पर्यावरण के नष्ट होने के खतरे की ओर संकेत करते हुए उपन्यास बताता है कि संपूर्ण विश्व खतरे में है। विश्व की संपूर्ण मानवता के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग गया है। ग्लेशियर पिद्घल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग का खेल शुरू हो गया है। यह संकेत है कि पशु-पक्षियों और मानव जाति के संपूर्ण नष्ट होने का। (पृष्ठ ६७) उपन्यास सामाजिक समस्याओं मे ं'भ्रूण हत्या' 'मैला ढोने की प्रथाआदि पर भी विस्तार से चर्चा करता है और उसके समाधान बताता है।
लेखक आर्थिक समृद्धि को जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए जरूरी समझता है। आर्थिक उपलब्धियों ने ये सारी द्घिसी-पिटी परंपराएं तोड़ दी हैं। डॉक्टर अम्बेडकर द्वारा दिए गये ज्ञान ने इनको शिक्षित बना दिया है। इनमें एकता आ गयी है। खटीक,चमारकोरीबउरीयामेहतरसचानयादव सभी इस बारात में सम्मिलित हैं। आप इनकी बारात को न रोकें क्योंकि इस बारात में विवेकशीलब्राह्मणक्षत्रिय और बनिया भी शामिल हैं। (पृष्ठ ८१) यह युग आपसी भाईचारेप्यारमोहब्बत और जातिविहीन समाज के निर्माण का युग है। कौन छोटा है और कौन बड़ा इस विकृति भरी सोच को दफन कर दो। आज के युग में न कोई छोटा है और न ही कोई बड़ा। आदमी अपने कर्मोंयोग्यता और शिक्षा से छोटा-बड़ा हो सकता है। एक दलित प्रोफेसर एक अनपढ़गंवारब्राह्मणठाकुर से बड़ा हो सकता है।(पृष्ठ ८२) जिस दिन दलित आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाएंगे उस दिन इस देश से विषमताएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी। (पृष्ठ १३३)
लेखक समाज के शोषकों की तुलना अमरबेल से करता है। 'इन अमरबेल की तरह समाज में चारो तरफ फैली विंसगतियों,असमानताओंछुआछूत को नष्ट किया जा सकता है। अमरबेल हरे-भरे पेड़ का शोषण करती है। उनको मिलने वाली खुराक को हजम कर जाती है। बिना मेहनत के पलती है।'(पृष्ठ ९५) इस भारत देश में सदियों से जातिवादछुआछूतअसमानताऊंच-नीच की जहरीली जड़ें मजबूती से विकसित होती रही हैं।(पृष्ठ ११७) लेखक पाठक में आत्मविश्वास पैदा करता है कि देश में बुराइयां हैं पर इन्हें नष्ट किया जाना संभव है। इस तरह उपन्यास पाठक पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।
पर उपन्यास में कुछ कमियां भी दृष्टिगोचर होती हैं जिनसे बचा जा सकता था। जैसे इस उपन्यास के प्रमुख पात्र विराट और संध्या प्रेमचंद की कहानी 'कफनऔर रूपनारायण सोनकर की 'कफनकी आपस में तुलना करते हैं। (देखें पृष्ठ १२६-१३०)। इसी प्रकार पृष्ठ १३२-१३३ में ओमप्रकाश वाल्मीकि वाला प्रकरण है। ये दो प्रसंग लेखक के कद को छोटा करते हैं। क्योंकि इसमें एक तो अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसी प्रवृत्ति झलकती है। पाठक इतने बेवकूफ नहीं होंगे कि ये समझ न सके कि भले ही ये चर्चा विराट और संध्या कर रहे हों और विराट संतुलित बातें भी कर रहा हो पर हैं तो ये रूपनारायण सोनकर के ही पात्र। कोई और लेखक इस तरह अपने किसी उपन्यास में जिक्र करता तो और बात होती। दूसरी बात ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रकरण को भी उपन्यास में शामिल करने की आवश्यकता नहीं थी। यदि देना ही था तो संजीव खुदशाह और ओमप्रकाश वाल्मीकि दोनों से बात कर उनकी बातों को उनके ही शब्दों में यथावत्‌ दिया जाता क्योंकि ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के एक वरिष्ठ लेखक हैं और इस तरह की चर्चा से उनका कद छोटा नहीं होगा। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं एक निष्पक्ष बात कह रहा हूं। ओमप्रकाश वाल्मीकि का पक्ष लेने का मेरा मकसद नहीं है और न ओमप्रकाश वाल्मीकि को मेरे पक्ष की आवश्यकता है। मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ऐसे प्रकरणों से रूपनारायण सोनकर की छवि धूमिल होती है। हालांकि रूपनारायण सोनकर आज के चर्चित लेखक हैं। वे अपने उपन्यास में ये दो प्रकरण न भी देते तो भी उनकी प्रसिद्धि में कोई कमी नहीं आती। 
इन कुछ छोटी-सी कमियों को छोड़ दिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास व्यवस्था के डंक तोड़ने का निशंक प्रयास है। उपन्यास केवल देश ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर की समस्याओं पर भी विचार करता है जो कि आमतौर पर दलित उपन्यासों में नहीं उठाई जाती। कुल मिलाकर यह बेहद पठनीय एवं पाठकों को जागरूक करने वाला उपन्यास है।

दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह, मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंने अपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है।


सफाई कामगारों की व्यथा से दूर हिंदी साहित्य

साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। साहित्य मे हमें समाज की प्राचीन एवंनवीन- हर तरह की जानकारी मिलती है। हिंदी साहित्य में उन उपेक्षित औरलाचार लोगों का भी साहित्य है, जिन्हें समाज से केवल दुत्कार,उपेक्षा,तिरस्कार और अस्पृश्यता ही मिली है। ऐसे लोगों के दर्द के दर्पण दलितसाहित्य को हिंदी साहित्य में अपना स्थान बनाने के लिए कई तरह के विरोधोंका सामना करना पड़ा। कई साहित्यकार इसे अलग साहित्य का नाम देने के पक्षमे नहीं थे। परंतु दलित साहित्य ने हर विरोध का सामना करते हुए साहित्यमें अपनी अलग जगह और अस्तित्व बनाया और आज इसे प्रोत्साहन भी मिल रहाहै।…………..सुरेखा पुरुषार्थीपरंतु दलितों में भी एक ऐसा महादलित समाज है, जिसकी वास्तविकता की असलीकहानी से किसी भी लेखक ने समाज को अवगत नहीं कराया। वो महादलित समाज है-सफाई कामगारों का। इस समाज के विषय पर साहित्य में ज्यादा चर्चा नहीं हुईहै। महादलित सफाई कामगार वर्ग, 'जो हजारों साल से नरक का जीवन जीते आयाहै और आज आधुनिकता के युग में भी वही नरक का जीवन जी रहा है।'साहित्यकारों का मानना है की दलित साहित्य की शुरुआत तो प्रेमचंद केकाल से ही हो गई थी। अपने साहित्य मे उन्होंने हमेशा दलितों के दुःख-दर्दका वर्णन किया,जिसका एक उदाहरण उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना- गोदान- है। परंतुप्रेमचंद ने भी अपने साहित्य मे सफाई कामगारों का वर्णन नहीं किया है। एकऔर ऐसे साहित्यकार हैं, जो दलितों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं-अमृतलाल नागर। उन्होंने साहित्य को नाच्यो बहुत गोपाल, बगुले के पंख, आदिजैसी रचनाएं दी है। नागरजी ने अपनी इन दोनों रचनाओ में मेहतर जाति(दलितों की ही एक जाति) को विषय बनाया है। परंतु उन्होंने भी अपनी रचनामें सफाई कर्मी की पीड़ा और व्यथा का वर्णन करने की जगह अपने ही मन केद्वेष को उड़ेल कर रख दिया है। उनके उपन्यास "बगुले के पंख" का नाम हीसफाई कामगार का मजाक उड़ाता जान पड़ता है। बहुत से अन्य साहित्यकारो ने
भी लगभग ऐसा ही किया है।
सफाई कामगार वो लोग हैं, जो सुबह सूरज की किरणों के साथ ही दूसरे लोगोंका मैला अपने सिर पर ढोने के लिए निकल पड़ते हैं। मानव का मानव पर येकैसा जुल्म है, जहा एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का मैला अपने सिर पर ढोने केलिए बाध्य है। सिर पर मैला ढोने वाले इन लोगों का जिक्र तो दलित साहित्यमें मिलता है, पर सफाई कामगारों के तहत वे लोग भी हैं, जो हर रोज कहीं नाकहीं, किसी ना किसी जगह गंदे नाले (सीवर) में सफाई के लिए उतरते हैं।इनकी निर्मम दशा के विषय मे कहीं भी, किसी भी साहित्यकार ने बात तक नहींकी है। साधारण शब्दों में कहें तो समाज के इस वर्ग को साहित्य ने
उपेक्षित रखा है।
दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह, सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह,मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंनेअपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है। परंतुसीवर साफ़ करने वाले इन लोगों का जिक्र किसी ने नहीं किया। लेकिन इनमहादलित लोगों की सही हालत और उनकी व्यथा का स्पष्ट वर्णन मैंने हाल हीमें दर्शन रतन रावण जी की पुस्तक 'आंबेडकर से विमुख सफाई कामगार समाज'में पढ़ा है।दर्शन रतन रावण हालांकि लेखक या साहित्यकार नहीं हैं, और उनकी पुस्तकउनका पहला प्रयास भी है, लेकिन अपने इस प्रयास मे ही उन्होंने सफाईकामगार लोगों की जहालत की जिंदगी का इतना सजीव वर्णन किया है कि पाठक केमन में उन पलों की तस्वीर स्पष्ट उभरती है, जब एक सफाई मजदूर सीवर मेउतरता होगा। दर्शन रतन रावण ने केवल उनकी अमानवीय दशा का ही वर्णन नहींकिया है, बल्कि ये भी बताया है की हर वर्ष कितनी बड़ी संख्या मे सीवरसाफ करने वाले सफाई कर्मी बीमारी या सीवर में ही दम घुटने की वजह से मरजाते हैं और सरकार को इसकी कोई खबर तक नहीं होती।यानी आज समाज में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने इन लोगो के दुख दर्द से समाज कोअवगत कराने का बीड़ा उठाया और उनमें दर्शन रतन रावण, हरकिशन संतोषी जैसेलोग शामिल हैं। ये प्रयास केवल कलम और पन्नों तक ही सीमित नहीं है।दर्शनरतन रावण स्वयं इसी जमीन से जुड़े हुए हैं और "आदि धर्म समाज" जैसे संगठनके माध्यम से पूरे भारत मे सफाई कर्मियों के विकास, सांस्कृतिक परिवर्तनएवं सम्मानजनक पहचान के लिए कार्य कर रहे हैं।आज समाज हर वर्ग उन्नति केशिखर पर पहुंच रहा है, पर महादलित वर्ग आज भी वहीं जी रहा जहां सदियोंसे जीता आया है। अब साहित्यकारों को इन लोगो के दर्द को साहित्य में जगहदेकर अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए।
(साभार – सामयिक वार्ता)

अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के जाति प्रमाण पत्र सत्यापन के लिए दिशा-निर्देश जारी



Caste certificate validation high level committee

SC, ST and backward classes caste certificate validation guidelines issued
Tribal Research and Training Institute is Caste Verification center
अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के जाति प्रमाण पत्र सत्यापन के लिए दिशा-निर्देश जारी
रायपुर, 24 जून 2009 - उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार आरक्षित पदों में शासकीय नौकरी और शैक्षणिक पाठयक्रमों में प्रवेश के लिए उम्मीदवारों के जाति प्रमाण पत्रों का सत्यापन कराया जाना जरूरी है। राजधानी रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ सरकार के आदिम जाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान में सत्यापन के लिए उच्चस्तरीय छानबीन समिति का गठन किया गया है। न्यायालय के निर्देशानुसार अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के उम्मीदवारों को जाति प्रमाण पत्र सत्यापन के लिए जरूरी अभिलेख प्रस्तुत करने के लिए संस्थान द्वारा विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी किए गए है। संस्थान की ओर से पोस्टर छपवाकर राज्य के सभी गांवों और शहरों में इन दिशा-निर्देशों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। फर्जी प्रमाण पत्रों की रोकथाम और आरक्षित पदों पर वास्तविक हितग्राहियों को लाभ दिलाने के लिए जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन की यह प्रक्रिया अपनाई गई है।
आदिम जाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार उम्मीदवारों को अपने पिता अथवा पूर्वजों के मूल निवास जिले के ग्राम से संबंधित अनुविभागीय राजस्व अधिकारी द्वारा जारी किया गया स्थाई प्रमाण पत्र होना चाहिए। साथ ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा जारी नोटिफिकेशन दिनांक 10 अगस्त 1950 और 6 सितम्बर 1950 के पहले अपने पिता अथवा पूर्वजों के ऐसे अभिलेख जिसमें उनकी जाति का स्पष्ट उल्लेख हो, प्रस्तुत करना होगा। अन्य पिछड़ा वर्ग के मामले में 26 दिसम्बर 1984 के पहले का जाति अंकित अभिलेख प्रस्तुत किया जाना जरूरी होगा। अधिकारियों ने इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बताया कि ऐसे अभिलेखों में अपने पूर्वजों के मिसल अभिलेख जिसमें जाति अंकित हों अथवा यदि पूर्वज पढ़ा-लिखा रहे हों तो उक्त दिनांक से पहले का उनका दाखिल-खारिज पंजी का प्रधानपाठक द्वारा अभिप्रमाणित प्रतिलिपि अथवा पूर्वजों के जन्म-मृत्यु पंजी की मुख्य प्रतिलिपिकार द्वारा अभिप्रमाणित प्रतिलिपि अथवा नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की मुख्य प्रतिलिपिकार से अभिप्रमाणित प्रतिलिपि जिसमें जाति का उल्लेख हो, प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
इसके अलावा पूर्वजों से प्रारंभ कर जाति प्रमाणपत्र धारक तक ग्राम के पटवारी द्वारा जारी किया गया वंशावली, पूर्वजों के उपरोक्तानुसार अंकित तिथि से पहले का मूल निवास प्रमाण पत्र अथवा उक्त दिनांक से 15 वर्ष पहले का अभिलेख जिससे प्रमाणित हो सके कि पूर्वज छत्तीसगढ़ की भौगोलिक सीमा के मूल निवासी रहे है। अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को अपने पिता का चालू वित्तिय वर्ष का आय प्रमाण पत्र भी प्रस्तुत करना होगा।
भारत सरकार गृह मंत्रालय और माननीय उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय के अनुसार ऐसे अनुसूचित जाति और जनजाति जिनके पूर्वज 1950 के पहले और अन्य पिछड़ा वर्ग के मामले में 1984 के पहले छत्तीसगढ़ के मूल निवासी नहीं थे,उन्हें आरक्षण की पात्रता अपने पिता अथवा पूर्वजों के मूल राज्य में आयेगीछत्तीसगढ़ राज्य में नहीं।
Circular Dated 26/10/2009
Circular Dated 15/10/2010