Personality of the week with Dr dinesh mishra Part-2 episode- 10 dmaindiaonline

डी एम ए इंडिया आनलाईन यूट्यब चैनल के पर्सनालिटी आफ द वीक में अंधश्रध्‍दा निर्मूलन समिति के अध्‍यक्ष डॉं दिनेश मिश्र बता रहे है आज का पढ़ा लिखा व्‍यक्ति भी अंधविश्‍वास के गिरफ्त में है। इसके लिए जरुरी है कि पहली क्‍लास से अंध्‍द श्रध्‍दा पर एक पाठ्यक्रम होना चाहिए। वे और भी रोचक बाते बता रहे है देखे उनका यह एक्‍सक्‍लूसीव इंटरव्‍यू दो भागों में।

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Personality of the week with Dr dinesh mishra Part-1 episode- 9 dmaindiaonline


डी एम ए इंडिया आनलाईन यूट्यब चैनल के पर्सनालिटी आफ द वीक में अंधश्रध्‍दा निर्मूलन समिति के अध्‍यक्ष डॉं दिनेश मिश्र बता रहे है आज का पढ़ा लिखा व्‍यक्ति भी अंधविश्‍वास के गिरफ्त में है। इसके लिए जरुरी है कि पहली क्‍लास से अंध्‍द श्रध्‍दा पर एक पाठ्यक्रम होना चाहिए। वे और भी रोचक बाते बता रहे है देखे उनका यह एक्‍सक्‍लूसीव इंटरव्‍यू दो भागों में।
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Riddles of Hinduism किताबों की दुनिया से एपिसोड नंबर 3 dmaindiaonline

डॉ बाबासाहेब आंबेडकर की किताब द रिडल्स ऑफ हिंदुइजम पर आज बातचीत कर रहे हैं रवि बौद्ध जी। वह बता रहे हैं कि यह किताब पढ़ना क्यों जरूरी है दरअसल यदि आप को हिंदू धर्म की पहेलियों को समझना है। तो यह आपके लिए बेहद जरूरी किताब है। इस वीडियो को देखें और कोई सलाह हो तो कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट जरुर करें। Friends welcome to youtube channel DMAINDIA ONLINE please go through the link for subscription. You will got alert for live & new post. https://goo.gl/BtJmKS only scientific temperament Please subscribe this channel, you can get notification for new upload and live broadcast. केवल वैज्ञानिक सोच आप इस चैनल को सबस्क्रांईब करने के लिए यहां क्लिक कर सकते है.। ताकि आपको नियमित पोस्टो एवं सीधे प्रसारण की सूचना मिल सके।

Ratan gondane in personality of the week dmaindia online dmaindia online

रंगकर्मी श्री रतन गोंडानेजी बता रहे हैं कि उन्हें पढ़ने का ऐसा शौक था कि गरीबी परिस्थिति होने के कारण वह रद्दी की दुकान से किताबें खरीद कर पढ़ा करते थे. वह जबलपुर में रहने के दौरान हरिशंकर परसाई, मलय घोष, कमला प्रसाद जैसे नामी लेखकों के साथ करीबी तालुकात थे. Friends welcome to youtube channel DMAINDIA ONLINE please go through the link for subscription. You will got alert for live & new post. https://goo.gl/BtJmKS

हिन्दू जाति का उत्थान पतन | किताबो की दुनिया से

लेखक रजनीकांत शास्त्री. हिंदू जाति का उत्थान पतन काफी पुरानी किताब है जो जाति व्यवस्था पर लिखी गई है यह सबसे पहले 1940 में प्रकाशित हुई थी किताब महल के द्वारा और काफी डिमांड होने के बाद यह 2005 में पुनः प्रकाशित हुई है इस किताब में हिंदू धर्म ग्रंथों के रिफरेंस का प्रयोग किया गया है तथा बड़ी सावधानी पूर्वक निष्पक्ष होकर उनका विश्लेषण किया गया है जाति व्यवस्था किस प्रकार खत्म की जा सकेगी इसका भी एक निष्कर्ष दिया गया है यह जरूरी किताब है पड़नी चाहिए

डीएमए इंडिया ऑनलाइन चैनल के किताबों की दुनिया से की इस कड़ी में

DMAindia online channel present episode on FROM WORLD OF BOOK in this episode we discuss about cast system. Dilip C mandal was on facebook live and talking about the book cast system written by bharat patankar, he analysis about gail omvedt conclusion about caste system in india.This video is published after his permission. 

 डीएमए इंडिया ऑनलाइन चैनल के किताबों की दुनिया से की इस कड़ी में दिलीप मंडल जाति प्रथा के बारे में गेल ओमवेट के निष्कर्षों पर बातचीत कर रहे हैं। देखिए उनकी एक महत्वपूर्ण चर्चा।

जन गायिका को झुग्गी बस्ती बचाने के लिए जेल यात्रा भी करना पड़ी

डीएमए इंडिया ऑनलाइन YouTube चैनल *पर्सनालिटी ऑफ द वीक* की इस कड़ी में आप देखिए 
जन गायिका एवं समाजिक कार्यकर्ता चंद्रिका कौशल से उन्हे अपनी झुग्गी बस्ती बचाने के लिए जेल यात्रा भी करना पड़ी । वे महिला एवं परिवार मुद्दे पर लगातार काम कर रही है अपनी गीतों के माध्यम से। वे रायपुर कोर्ट में काउसलर के पद पर भी रह चुकी है। वे एक प्रसिद्ध पंडवानी गायिका भी है। देखिये उनका यह संगीतमय साक्षात्कार।

आंबेडकरी आंदोलन छोटी दलित जातियों तक कैसे पहुंचे ?

डीएमए इंडिया ऑनलाइन YouTube चैनल *पर्सनालिटी ऑफ द वीक* की इस कड़ी में आप देखिए 
अंबेडकरवादी फुले आंदोलन के विचारक श्री शुभ्रांशु हरपाल बता रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने स्टूडेंट लाइफ से इस आंदोलन को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए काम किया। वह अभी बता रहे हैं कि छोटी-छोटी तमाम दलित जातियां जो कि अंबेडकरी आंदोलन से महरूम है। उन्हें किस प्रकार अंबेडकरी आंदोलन में जोड़ा जाए दरअसल 5 या 6 जातियां जो कि अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ी हुई है। वह समझती है कि पूरा देश अंबेडकर मय हो गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि अनुसूचित जाति में ही तमाम ऐसी छोटी-छोटी जातियां हैं। जिनके पास अभी तक अंबेडकर मिशन नहीं पहुंच पाया है। वह बता रहे हैं कि इनसे, पहले एक दोस्ताना संबंध बनाना होगा। तभी वह आपकी बात सुनेंगे और मिशन को समझ पाएंगे। देखिए इनका यह महत्वपूर्ण साक्षात्कार।

Personality of the week with Vishnu baghel

डीएमए इंडिया ऑनलाइन YouTube चैनल *पर्सनालिटी ऑफ द वीक* की इस कड़ी में आप देखिए पिछड़ा वर्ग आंदोलन के साथी विष्णु बघेल से बातचीत।

श्री विष्णु बघेल बता रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग अपने सवर्ण होने के भ्रम में जी रहा है. इस कारण ओबीसी में सामाजिक चेतना नहीं आ पाई. यदि ओबीसी को अपने बारे में जानना है समझना है तो उन्हें मंडल आयोग की रिपोर्ट और रामजी महाजन आयोग की रिपोर्ट जरूर पढ़नी चाहिए. यही उनके लिए रामायण और गीता है.




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Personality of the week Rajendra Gaikwad




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लेखक और केंद्रीय जेल अधीक्षक श्री राजेंद्र गायकवाड बता रहे हैं कि किस प्रकार वह साहित्य और जेल के बीच सामंजस्य बैठाते हैं। वह यह भी बताते हैं कि पिछले साल कैदियों ने श्रम करके दो करोड़ रुपया कमाया। इसमें से आधी रकम उन पीड़ितों को दी गई जिन्हें इन कैदियों के द्वारा हानि पहुंचाया गया था। देखिए राजेंद्र गायकवाड़ का यह महत्वपूर्ण वीडियो। https://www.youtube.com/channel/UCvKf... contact.dmaindia@gmail.com Web www.damindia.online

प्रस्तुत है 3 जनवरी 1954को फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को जर्मन भाषा में लिखे आइंस्टीन के खत का हिंदी अनुवाद

आइंस्टीन का ईश्वर के सम्बन्ध में एक खत


3 जनवरी 1954 को आइंस्टीन ने फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को एक खत लिखा, जो आगे चलकर बहुत मशहूर हो गया। दरअसल एरिक ने अपनी नई किताब - Choose Life: The Biblical Call to Revolt 


आइंस्टीन को पढ़ने के लिए भेजी थी,जिसके जवाब में आइंस्टीन ने चिट्ठी में अपने व्यक्तिगत विचार अभिव्यक्त किए थे। ये बात कम ही लोगों को मालूम है कि जन्म से यहूदी आइंस्टीन को इस्राइल से द्वितीय राष्ट्रपति बनने का आमंत्रण मिला था, जिसे उन्होंने एकदम से ठुकरा दिया था,क्योंकि वो यहूदी धर्म की इस बात में यकीन नहीं रखते थे कि - यहूदी ईश्वर की सबसे प्रिय संतानें हैं। ऐसे ही एक दूसरे अवसर पर जब आइंस्टीन येरुशलेम गये थे, तो उन्होंने वहां की प्रसिद्ध 'वेलिंग वॉल' पर कई युवा यहूदियों को प्रार्थना करते,नाक रगड़ते और रोते हुए देखा। ये देखकर आइंस्टीन ने कहा - ये भावुक नौजवान बीते हुए वक्त से दीवानगी की हद तकचिपके हुए हैं, इन्होंने भूतकाल को गले से लगा रखा है, जबकि भविष्य की ओर पीठ कर रखी है। 


प्रस्तुत है 3 जनवरी 1954को फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को जर्मन भाषा में लिखे आइंस्टीन के खत का हिंदी अनुवाद -


"....भगवान शब्द मेरे लिए मानवीय कमजोरी की अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ और नहीं। बाईबिल, आदरणीय लेकिन बचकानी कहानियों के संग्रह से ज्यादा कुछ और नहीं है। और इसकी कोई भी व्याख्या, चाहे वो कितनी भी परिष्कृत क्यों न हो, इनके बारे में मेरे विचार नहीं बदल सकती। इनकी व्याख्याएं विविधताओं से भरी हैं और मूल लेखन से इनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे सभी धर्मों की तरह यहूदी धर्म भी बचकाने अंधविश्वास के अवतार से ज्यादा कुछ और नहीं है। यहूदी लोग,जिनमें गर्व के साथ मैं भी शामिल हूं और जिनकी मानसिकता से मैं गहराई से जुड़ा हुआ हूं, उनमें ऐसी कोई विशिष्टता नहीं है जो दूसरे लोगों में न हो। मैं अगर अपने अनुभव की बात करूं तो यहूदी लोग दूसरे लोगों से किसी भी तरह बेहतर नहीं हैं। हालांकि वो सत्ता विहीन हैं, इसलिए संवेदनाएं उनके साथ हैं, अगर इस बात को छोड़ दिया जाए तो मैं उनमें ऐसी कोई खास बात नहीं देखता जो इस धार्मिक धारणा को सही साबित करता हो कि यहूदी लोग ईश्वर की सबसे प्यारी संतानें हैं।


सामान्य तौर पर मैं इसे काफी दुखदायी पाता हूं कि एक तरह आप विशिष्ट होने का दावा करते हैं, और दूसरी ओर आप गर्व के बनावटी दोहरे आवरणों के बीच बचने और छिपने की कोशिश करते हैं। इनमें पहला आवरण बाहरी है जिसमें आप एक व्यक्ति होते हैं, जबकि दूसरा आवरण आंतरिक है जिसमें आप यहूदी हो जाते हैं। अब मैं खुले तौर पर कहता हूं कि जहां तक बौद्धिक प्रतिबद्धता का सवाल है, हमारे विचार नहीं मिलते, लेकिन मानवीय व्यवहार की मूलभूत बातों पर हमारे विचार एक-दूसरे के काफी करीब हैं। इसलिए मैं समझता हूं कि अगर हम वास्तविक मुद्दों की बात करें तो हम एक-दूसरे को कहीं बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।"


एक दोस्ताना शुक्रिया और शुभकामनाओं के साथ


आपका

ए.आइंस्टीन

DMAINDIA ONLINE YOUTUBE CHANNEL

हमें यह बताते हुये खुशी हो रही है कि हम YOUTUBE चैनल प्रारंभ कर रहे है। यह चैनल आम जनता के बीच काम कर रहे जन पत्रकारों के द्वारा दिये जाने वाले समाचार पर आधारित होगा। ऐसे मुद्दे पर बातचीत होगी जिन पर मेन स्ट्रीम मीडिया अक्सर खामोश रहता है। इस चैनल में समाज के वंचित वर्ग खासकर दबे कुचले पिछड़े महिलाओं एवं ट्रांसजेडर सेक्शन के मुद्दों को शामिल किया जावेगा। चैनल का विशेष सप्ताहिक कार्यक्रम साक्षात्कार पर केंद्रित होगा। ऐसे लोग जो अंधविश्वास मुक्तिप्रगतिशील,बहुजन,अंबेडकरवादी एवं कम्युनिस्ट विचारधारा को लेकर काम कर रहे हैं या उससे संबंधित हैं उन्हें शामिल किया जावेगा।
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यदि कोई सुझाव हो तो हम स्वागत करते है।  समाचार की वीडियो एवं साक्षात्कार हमे भेज सकते है। शर्त यह है कि वह अप्रकाशित हो।
अंतिम निर्णय 6 सदस्यीय योगदानी संपादकों की टीम करेगी ।

संपर्क
संजीव खुदशाह
मुख्य संपादक
Cell no - 09977082331

आखिर क्यों हार गई त्रिपुरा की माणिक सरकार

त्रिपुरा के चुनाव नतीजो के निहितार्थ और आदिवासी प्रश्न
विद्या भूषण रावत 
March 6, 2018 विद्या भूषण रावत त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से खबरे आ रही है के संघी कार्यकर्ताओ ने लेनिन की मूर्ति को बड़ी बेशर्मी से गिरा दिया है. वहा के संघी राज्यपाल तथागत राय को इसमें कोई गलत नहीं दिखा वो कहते है के यह भी एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुए सरकार की इच्छा है और उसका सम्मान होना चाहिए हालंकि अभी सरकार बनी नहीं है. वैसे खबरे आ रही है के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे है और कई लोग अपने घरो से भी नहीं निकल पा रहे है. ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक है. क्या यह भविष्य का संकेत है के अगले पांच साल केंद्र की तर्ज पर कोई काम नहीं होगा केवल पिछली सरकार की बुराइया और उसके समर्थको पर हमला होता रहेगा . नयी सरकार को चाहिए के वह अपने अजेंडे पर चले और सकारात्मक कार्य करे नहीं तो उत्तर पूर्व में भयावह स्थिति हो सकती है. खैर इन चुनावो के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है लेकिन पहले नतीजों की समीक्षा कर ली जाए बाकी प्रश्नों पर बाद में आया जाएगा. ६० सदस्यीय विधान सभा में ५९ में मतदान हुआ था और भाजपा को ४३% वोट मिले और माकपा को ४२.७% वोट प्राप्त हुए. लेकिन बराबर वोट प्रतिशत के बावजूद भाजपा को ३५ सीटे और भाकपा को मात्र १९ सीटें मिली जो वर्तमान चुनाव प्रणाली की खामियों को दर्शाता है. हकीकत ये है अगर देश में आनुपातिक चुनाव प्रणाली लागू होती तो दोनों पार्टियों को लगभग बराबर सीटे मिलती क्योंकि उनका वोट शेयर लगभग बराबर है.  हमारे जैसे बहुत से लोग पिछले एक दशक से भारतीय चुनाव प्रणाली में परिवर्तन की बात कर रहे है लेकिन ताकत पार्टिया उसका समर्थन नहीं करती क्योकी वर्तमान प्रणाली एक अल्पमत आधारित हा जो विपक्षियो के मतों को विभाजित कर बनती है और इसमें माफिया, मनी और मीडिया की बड़ी भूमिका है. तीनो के रोल अलग अलग है लेकिन मिलकर काम कर रहे है ताकि देश में एक पार्टी का राज्य कायम हो सके. वैसे कम्युनिज्म के नाम पर दुनिया भर में ऐसा हुआ है लेकिन ब्राह्मणवादी संघी तंत्र ये सब ‘पारदर्शी’ और ‘लोकंतांत्रिक’ तरीके से करेगा और त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में जो हुआ है वो उस तंत्र की कार्यशैली का प्रतीक है जिनका असली स्वरुप हमें अगले चुनावो में दिखाई देगा. त्रिपुरा की हार से बहुत लोग सदमे में है. बहुत लोग कह रहे है के मानिक सरकार जैसे इमानदार आदमी को हरा कर त्रिपुरा ने गलत संकेत दिए है और ये भी के भारत में ईमानदार व्यक्ति राजनीति में नहीं रह सकते. मेरे हिसाब से ये उत्तर पूर्व की राजनीती का सरलीकरण है. अगर लोग ईमानदार व्यक्ति को नहीं चाहते तो मानक सरकार इतने वर्षो तक मुख्यमंत्री कैसे रहते ? ईमानदार होना और असरदार होने में बहुत फर्क है. मानक सरकार की सी पी एम् ने केरल और बंगाल से भिन्न कोई कार्य नहीं किया और त्रिपुरा की कम्युनिस्ट पार्टी भी बंगाली सवर्णों की डोमेन कायम रखने वाली पार्टी बनी रही और त्रिपुरा और उत्तरपूर्व की भौगौलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को कभी भी अपनी राजनीती में नहीं ला पायी लिहाजा एक बड़े वर्ग की पार्टी बन कर रह गयी. सी पी एम् को देखना पड़ेगा के आज २५ वर्षो के राज के बावजूद भी वह कभी भी वहा की जनजातियो का दिल नहीं जीत पायी. आखिर ऐसा क्यों ? अभी लगातार त्रिपुरा में जनजातीय संघटनो के साथियो के संपर्क में हूँ और वो बता रहे के वामपंथियों को हराना इसलिए जरुरी था क्योंकि उन्होंने आदिवासी हको को ख़त्म करने के प्रयास किये. आखिर त्रिपुरा जैसे राज्य में जहाँ १९०१ में आदिवासियों की जनसँख्या ५८% थी वह १९८१ तक २८% रह गयी हालाँकि अभी के आंकड़े ये कह रहे है के यह ३१% है. अनुसूचित जातियों की आबादी १७% और पिछड़ी जातियों की आबादी २४%. सभी को अगर जोड़ दे तो ७२% आबादी देश के सबसे सीमान्त तबको है लेकिन संसाधनों पर इनकी भागीदारी कहा है ? त्रिपुरा में दलितों और आदिवासियों के आरक्षण की वो ही हालात है जैसे बंगाल और केरल में और त्रिपुरा सरकार उनकी संख्या २४% बताती है लेकिन उनके आरक्षण को लागु करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए. त्रिपुरा देश के उन राज्यों में है जहा मंडल आधार पर आरक्षण लागू नहीं है. आखिर इसका दोषी कौन ? सत्ता पर बंगाली भद्रलोक का कब्ज़ा है और अगर वह के दबे कुचले लोग अपना हिस्सा मांग रहे है तो किसका दोष ? हमें बताया जा रहा है के त्रिपुरा में ओबीसी आरक्षण इसलिए लागू नहीं किया गया क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजातियो के आरक्षण से ही ४८% कोटा जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने ५०% की लिमिट लगाई हुई है इसलिए उससे आगे नहीं बढ़ा जा सकता. पहली बात यह के क्या वाकई में त्रिपुरा सरकार के हर लेवल पर आदिवासियों की संख्या ३१% और दलितों की १७% है. क्या दलित आदिवासियों की भागीदारी बनाये रखने के लिए त्रिपुरा की सरकार ने कोई कोशिश की या ये डाटा केवल दिखाने का है. सभी जानते है के ओबीसी आबादी सत्ता के ढांचे से बाहर है और क्या त्रिपुरा सरकार का ये कर्त्तव्य नहीं था का उनको सत्ता में भागीदारी देने के प्रयास करती और सुप्रीम कोर्ट में ये बात रखती आखिर तमिलनाडु और कर्नाटक में भी तो सरकारों ने ५०% की सीमा को लांघा है और इससे कही भी मेरिट प्रभावित नहीं होती . क्या त्रिपुरा की वामपंथी सरकार ने कभी इन प्रश्नों को कोई महत्व दिया ? त्रिपुरा के जनजातीय लोग अपनी स्वायत्ता और अस्मिता को बचाने का संघर्ष कर रहे है. उनका साफ़ मानना है के उनके प्राकृतिक संशाधनो को चालाकी से उनके नियंत्रण से बाहर किया जा रहा है और त्रिपुरा में बाहर से आये लोगो के कारण उनके अल्पसंख्यक होने का खतरा है. दिल्ली में हम सब लोग देश के सारी समसयाओ को हिन्दू मुस्लिमान के चश्मे से देखते है लेकिन उत्तर पूर्व के मसले में इन सबके बावजूद अन्य बाते भी है जिनको समझना जरुरी है. बांग्लादेश से आ रहे शर्णार्थियो का मसला स्थानीय स्तर पर है और भाजपा ने उसको और हवा दी है लेकिन ये कहना के कोई मसला ही नहीं है झूठ है. उत्तरपूर्व में अनेक जनजातिया है और उनके अपने अंतर्विरोध भी है इसलिए उनको समझना जरुरी भी है और उनके हल के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करने होंगे लेकिन ये बात जरुर है के उत्तर पूर्व की स्वायत्ता के नाम पर भी दमदार लोगो का बर्चस्व कभी न कभी तो विरोध और विर्दोह झेलेगा ही. भाजपा ने बहुत चालाकी इन अंतर्द्वंदो को देखा और सत्ता के लिए वो सब तिकडम की जिनका वो विरोध करने का दावा करती रही है. इन अंतर्द्वंदो को उत्तर भारतीय राष्ट्रवाद के चश्मे से देखना आग से खेलना होगा . त्रिपुरा में वन अधिकार कानून के तहत भी आदिवासियों को लाभ नहीं हुआ. वह अभी भी सवाल कर रहे है के ये कानून क्या वाकई में उनके लिए बना है या नहीं ? शिक्षा और नौकरियों में दलित आदिवासियों की स्थिति तो नगण्य है और तकनीक तौर पर ओबीसी आरक्षण भी नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक त्रिपुरा में अभी भी चतुर्थ वेतन आयोग के अनुसार ही वेतन दिया जा रहा है जबकि देश भर में अभी ७ वे वेतन आयोग की बातो के आधार पर बात चल रही है. सरकारी कर्मचारियों का असंतोष भी सरकार के विरुद्ध काम किया. और ये भी सही है के २५ वर्षो तक भी एक पार्टी की सत्ता नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर विपक्ष नहीं है तो वो ताकते हावी होंगी ही जो नकारात्मकता के बहाने पे अपने अजेंडा थोपना चाहती है. वैसे त्रिपुरा और उत्तर पूर्व में भाजपा का अजेंडा बहुत पहले से चल रहा है और वो खतरनाक भी है. तथागत राय को बिना सोचे समझे वहा नहीं भेजा गया था और वह राज्यपाल बन्ने के शुरू से ही बेहद ही घटिया दर्जे की राजनीती कर रहे है और अपने पद की गरिमा के विरुद्ध काम किये जा रहे थे लेकिन उनका काम ही था के वह संघ के लिए माहौल बनाए और उसके कार्यकर्ताओं को अपना सुरक्षा कवच पहनाये. पहले भाजपा ने लोगो से बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियो को वापस भेजने की बात की लेकिन अब भारतीय नागरिकता कानून १९५५ में संशोधन कर संघ के शिष्यों ने इसका भी संप्रदायीकरण कर दिया है और उसका पूरा चुनावी फायदा लिया गया. भाजपा अब कह रही है बांग्लादेश से आने वाले हिन्दुओ को तो वो नागरिकता देगी लेकिन मुसलमानों को नहीं. इसके दुसरे मायने भी है, अब बाहर से आने वाला गैर क़ानूनी हिन्दू भी भारत की नागरिकता ले लेगा लेकिन देश में ईमानदारी से रह रहा मुस्लिम नागरिक हमेशा दवाब में रहेगा और उसको संघी सेना बंगलादेशी कह कर प्रताड़ित करती रहेगी. त्रिपुरा के चुनावो की इस पृष्ठभूमि को हम नहीं नकार सकते . सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है के भाजपा को छोड़ अन्य राष्ट्रिय पार्टियों ने इसमें कुछ नहीं किया. कांग्रेस ने शर्मनाक तौर पर विपक्ष का पूरा स्पेस संघ को सौंप दिया और नतीजा ये हुआ जो आज हम भुगत रहे है. वामपंथियों और अन्य दलों ने उत्तर पूर्व की हालातो पर कोई विशेष धयान नहीं दिया जिसके नतीजे में संघी प्रोपगंडा सफल हो गया . उत्तर पूर्व के संवेदनाओं को समझने की जरुरत है और उस पर हम दिल्ली की बहस न थोपे. जरुरत इस बात की भी है के तथाकथित राष्ट्रीय पार्टिया स्थानीय भावनाओं को समझे, सार्थक बहस चलाये और मुद्दों को छिपाने की कोशिश ने करें. त्रिपुरा का पूरा प्रश्न आदिवासियों के मुद्दों को किनारे करके बहस नहीं किया जा सकता. ये हकीकत है के बांग्लादेश में चकमा आदिवासियों के प्रति बेहद ही ख़राब रवैय्या चल रहा है. गत वर्ष एक अन्तराष्ट्रीय सम्मेल्लन में मेरी मुलाकात बांग्लादेश के चटगाँव क्षेत्र में कार्य कर रहे एक चकमा कार्यकर्ता से हुई जिसने वहा की सेना और इस्लामिक उग्रपंथियो द्वारा उन पर हमले की दास्तान सुनाई. वो इंटरव्यू प्रकाशित भी हुआ लेकिन उस साथी ने सुरक्षा कारणों से अपना नाम बदल देने की शर्त पर मुझे इतना विस्तृत इंटरव्यू दिया. कहने का आशय यह के अब समय आ गया है जब भारत, बांग्लादेश, मयन्मार, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और श्रीलंका गंभीरता से एक दूसरे के साथ बैठे और इन प्रश्नों पर विचार करें. जरुरत इस बात की है के हम अपने अपने देशो में धार्मिक, भाषाई अल्प संख्यको को पूर्ण सुरक्षा दे और उनकी समस्याओं को अपने देश के अन्दर की राजनीती में न लपेटे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो ये सभी लोगो के नाम पर अलग अलग देशो में बहुलतावादी राजनीती चलेगी और जिन लोगो की किसी भी देश में राजनितिक पैठ नहीं होगी वे फिर अपना अलग रास्ता तय करेंगे . त्रिपुरा में चुनाव के नतीजो से एक बात साफ़ है के तथाकथित राजनैतिक दल अभी भी ब्रह्मवादी मुख्यधारा की राजनीती में लगे जिसके फलस्वरूप हासिये में रह रहे लोगो के प्रश्न हमेशा हासिये पर ही रह जाते है और ताकतवर जातीय अपने राजनैतिक समीकरण बदल देते है. त्रिपुरा में कुछ नहीं हुआ केवल ताकतवर लोगो ने अपने को बचाने के लिए नए तेवर अपना लिए है और लाल की जगह अब  गेरुआ ओढ़ लिया है. देखना यह है के दलित आदिवासियों-पिछडो की 72% आबादी वाले त्रिपुरा को अभी  अपना मुख्यमंत्री बनाने में और सम्मानपूर्वक राजनैतिक भागीदारी करने के लिए.क्तिने और वर्षो का इंतज़ार करना पड़ेगा . क्या संघ देश की राजनीती को ध्यान में रखते हुए कोई आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेलेगा या एक बंगाली भद्रलोक की जगह में उसी बिरादरी का दूसरा नेता थोप कर ‘ताकतवर’ लोगो को खुश करेगा ताकि त्रिपुरा के सहारे बंगाल के माहौल को भी गरमाया जा सके ? 

जानिये क्यों जरूरी है भीमा कोरेगांव को याद रखना


भीमा कोरेगांव आज बहुजन समाज के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल बन चुका है. लेकिन क्याा आपको मालूम है इसे तीर्थ बनाने में लोगो ने अपने जान की बाजी लगा दी. यह समय था आज से लगभग 200 साल पहले 1818 का. जब कहने को तो शिवाजी के वंश मराठों का शासन था पर दरअसल हुक़ूमत पेशवाओं (चितपावन ब्राम्हपणों) की चलती थी. कहा जाता है कि पेशवाओं ने मनुस्मृ(ति के कानून को लागू कर रखा था. वहां पिछड़ी जाति के लोगों को संपत्ति, वस्त्रम, गहने आदि खरीदने के अधिकार नही था. दुकानदार नये वस्त्रे बेचते समय दलितों के बेचे गये वस्त्रृ बीच से फाड़ दिया करते थे. उनका कहना था ऐसा पेशवा का फरमान है. मनुस्मृेति में दिये गये आदेश के अनुसार अन्य्थे जों ( दलितों) के परछाई से भी परहेज करना था. पेशवओं ने दलितों को अपने पीठ में झाड़ू एवं गले में गड़गा बांधने के लिए मजबूर कर दिया था. मकसद था चलते समय उनके पद चिन्ह़ मिट जाये और उनकी थूक सड़क पर न गिरे. एक खास प्रकार का आवाज़ भी उन्हेन निकालना पड़ता था ताकि सवर्ण यह जान जाये की कोई दलित आ रहा है और वे उनकी परछाई से दूर हो जाये. वह अपवित्र हाने से बचे रहे. बड़ी ही जलालत भरी जिन्दलगी थी उस वक्तस दलितों की. जिससे मानवता भी शर्मशार हो जाये.
इस वक्त अंग्रेज शैने शैने अपने पांव जमा रहे थे. पूणे का कुछ हिस्सा उनके कब्जेत में आ चुका था. शनिवारवाड़ा समेत महत्वंपूर्ण हिस्साप अब भी पेशवाओ के हक में ही था. अंग्रेजो ने महार रेजिमेंट का गठन किया जिसमें अन्यत दलित जातियों के साथ साथ ज्याादातर महार जाति के भी लोग थे. दलितों को अपनी गुलामी से निजात पानी थी. लड़ाई में अंग्रेजो का मकसद तो जगजाहिर था लेकिन दलितो ने इस लड़ाई को अपनी अस्मिता का प्रश्नज बना दिया. 1 जनवरी 1818 को संशाधनो की कमी के बावजूद वे पूर दमखम के साथ लड़े. यह निर्णायक लड़ाई पूणे के पास स्थित कोरेगाव जो भीमा नदी से लगा हुआ था पर हुई. दस्ताावेजी तथ्यप के मुताबिक महार रेजिमेन्ट की ओर से करीब 900 सैनिक एवं पेशवाओं की 25000 फौज आपने सामने लड़ी. जिसमें पेशवाओं की बुरी तरह हार हुई. इस लड़ाई ने पेशवा राज को हमेशा हमेशा के लिए खत्मड कर दिया. जो एक इन्सातन की गुलामी का प्रतीक था. बाद में यहां पर एक स्मायरक बनाया गया है जिसमें महार रेजिमेंट के सैनिको के नाम लिखे है. 1927 में डॉं अंबेडकर के यहां आने के बाद इस स्थाहन को तीर्थ का दर्जा मिल गया.
कुछ सामंतवादी लोग इस घटना को देशद्रोह के नजरिये से देखने की कोशिश करते है. वे कहते है अंग्रेज पूंजीवादियों के साथ मिलकर देशी राजाओं से लड़ना देशद्रोह है. जबकि ये लड़ाई देश से भी ऊपर मानव स्तरर की जिन्द़गी पाने के लिए थी. यहां पर अंग्रेज जो उन्हेअ एक इन्साशन का दर्जा दे रहे थे और उन्हेर सैनिक के रूप में स्वी कार कर रहे थे दूसरी ओर भारतीय राज व्यीवस्थाज उन्हेर पालतू जानवर तक का दर्जा भी देने के लिए तैयार नही थी.
क्योी महत्वयपूर्ण है यह लड़ाई?
इस लड़ाई को याद रखा जाना इसलिए जरूरी है, क्यो कि आज महार समुदाय के लोग बहुत तरक्की कर चुके है. ये घटना इस बात को दर्शाती है कि उन्होंजने इस मुकाम को पाने के लिए क्या‍ क्याह नहीं किया. आज तमाम दलित पिछड़ी जातियां जिस मानव निहीत सुविधा के हकदार हैं वे उस महार रेजिमेंट के हमेशा ऋणी रहेगे. और सभी वंचित जातियों को प्रेरणा देते रहेगे. हालांकि बाद में अंग्रेजों ने इसी तर्ज पर चमार रेजिमेंट एवं मेहतर रेजिमेंट का भी गठन किया था. लेकिन जब अन्यि सवर्ण जाति के लड़ाके भर्ती किये जाने लगे तो इन रेजिमेंट को बंद कर दिया गया.
इस लड़ाई के बाद अंग्रेजी शासन ने दलितों के लिए शिक्षा, संपत्ति के द्वार खोल दिये गये. महात्माल फुले पढ़कर निकले, पहली महिला शिक्षिका सावित्र बाई फुले बनी. यानि इस लड़ाई ने पूरे वंचित जातियों को प्रभावित किया. जो समाजिक,आर्थिक,बौध्दिक दृष्टिकोण से मील का पत्थ र साबित हुआ.
  • लेखक- संजीव खुदशाह

राष्ट्र निर्माण का कार्यक्रम है आरक्षण


लेखक: दिलीप मंडल
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आरक्षण पर चल रहे विवाद में नया मोड़ ला दिया है। उन्होंने कहा ‘जीवन में आगे बढ़ने के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं है। बिना आरक्षण भी सफलता पाई जा सकती है।’ इसे लेकर एक निरर्थक विवाद खड़ा हो गया है, जबकि राष्ट्रपति महोदय ने यह बात सदिच्छा से कही है और उनकी बात सही है। संविधान में आरक्षण का प्रावधान इसलिए नहीं किया गया कि वंचित समुदायों के लोग या कोई भी इसका लाभ उठाए और तरक्की करे। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की कल्पना व्यक्तिगत उपलब्धियां हासिल करने के जरिए के तौर पर नहीं की थी। रिजर्वेशन का निजी तरक्की से कोई लेना-देना नहीं है। सरकारी क्षेत्र में इतनी नौकरियां और सरकारी शिक्षा संस्थानों में इतनी सीटें भी नहीं हैं कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में इनके बल पर किसी समुदाय की तरक्की हो जाए।
भेदभाव का समाज
संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को राष्ट्र निर्माण का कार्यक्रम माना था और ‘एक बनते हुए राष्ट्र’ के लिए जरूरी समझकर इसे संविधान में जगह दी थी। यही वजह है कि इसे मूल अधिकारों के अध्याय में रखा गया। संविधान निर्माता भारत को एक समावेशी देश बनाना चाहते थे, ताकि हर समूह और समुदाय को लगे कि वह भी राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार है। यह पूना पैक्ट के समय वंचित जातियों से किए गए वादे का पालन भी है। दलित, पिछड़े और आदिवासी मिलकर देश की तीन चौथाई से भी ज्यादा आबादी बनाते हैं। इतनी बड़ी आबादी को किनारे रखकर भला कोई देश कैसे बन सकता है? आरक्षण सबको साथ लेकर चलने का सिद्धांत है। इसे सिर्फ करियर और तरक्की से जोड़कर देखना सही नहीं है।

रिजर्वेशन ने वंचित समूहों के लिए तरक्की के अवसर खोले हैं। इतिहास में यह पहला मौका है जब भारत की इतनी बड़ी वंचित आबादी, खासकर एक समय अछूत मानी जाने वाली जातियों के लोग शिक्षा और राजकाज में योगदान कर रहे हैं। किसान, पशुपालक, कारीगर और कमेरा जातियों की भी राजकाज में हिस्सेदारी बढ़ी है, जिससे देश मजबूत हुआ है। आरक्षण विरोधी तर्कों के जवाब में सिर्फ इतना कहना जरूरी लगता है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए आरक्षण कतई जरूरी नहीं है, बशर्ते जन्म के आधार पर समाज में भेदभाव न हो। भारत में ऊंच-नीच को धार्मिक साहित्य में मान्यता प्राप्त है। इसलिए बाबा साहेब ने इन ग्रंथों को खारिज करने की बात ‘एनिहिलिशेन ऑफ कास्ट’ नामक किताब में प्रमुखता से की है। यहां हर आदमी एक वोट दे सकता है और हर वोट की बराबर कीमत है लेकिन समानता का यह चरम बिंदु है। हर आदमी की बराबर कीमत या औकात यहां नहीं है और यह हैसियत अक्सर जन्म के संयोग से तय होती है।

दूसरे, तरक्की के लिए भी आरक्षण जरूरी नहीं, बशर्ते हमारा समाज ऐसा हो, जिसमें किसी खास समुदाय में पैदा होना किसी एक की कामयाबी और दूसरे की नाकामी का कारण न बने। जैसे, काफी संभावना है कि कॉर्पोरेट सेक्टर में आपका जॉब इंटरव्यू कोई सवर्ण पुरुष ले रहा हो और आपके प्रमोशन का फैसला भी किसी सवर्ण हिंदू पुरुष के हाथ में हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि आप जातिवादी हैं या इंटरव्यू लेने वाले जातिवादी हैं। यह भारतीय समाज की संचरना का नतीजा है। ऊपर के पदों पर खास जातियों का वर्चस्व एक सामाजिक सच्चाई है। यही सुविधा पिछड़े और दलितों को भी हासिल हो, तब कहा जा सकता है कि तरक्की करने के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं है। अभी तो जन्म का संयोग जीवन में किसी के सफल या असफल होने में एक बड़ा फैक्टर है।
तीसरे, अगर तरक्की करने के लिए आरक्षण जरूरी न होता तो भारत में आजादी के बाद बना शहरी दलित-पिछड़ा मध्यवर्ग सरकारी नौकरियों के अलावा और क्षेत्रों से भी आता। आज लगभग सारा दलित मध्य वर्ग सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वजह से तैयार हुआ है। अगर सब कुछ प्रतिभा और मेहनत से ही तय हो रहा है तो शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करने वाले दलित निजी क्षेत्र के शिखर पदों पर लापता क्यों हैं? कानून और न्याय के क्षेत्र में भी यह सच है। उच्च न्यायपालिका में आरक्षण नहीं है। नतीजा यह है कि सुप्रीम कोर्ट में आज एक भी दलित जज नहीं है, और तो और, कोई सीनियर एडवोकेट भी नहीं है।
चौथी बात। महामहिम राष्ट्रपति की बात का अर्थ यदि यह है कि आरक्षण से तरक्की के दरवाजे बेशक खुल जाते हैं, पर कामयाबी मेहनत से ही मिलती है, तो वह बिल्कुल वाजिब बात कह रहे हैं। किसी इंस्टिट्यूट में प्रवेश बेशक आरक्षण से मिल सकता है, पर सभी स्टूडेंट्स को एक ही परीक्षा एक ही मापदंड से पास करनी होती है। इसलिए जब स्टूडेंट पास होकर निकलता है, तो उसके पास बुनियादी क्वालिफिकेशन और काबिलियत जरूर होती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका ऐडमिशन कोटे से हुआ है या नहीं।
सपनों से दूर
भारत में तरक्की करना परीक्षा पास करने और नौकरी पा लेने का मामला नहीं है। उससे पहले वंचित समुदाय के व्यक्ति को, खुद से एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। वह लड़ाई है महत्वाकांक्षा जगाने की। वंचित समुदाय के व्यक्ति के लिए अक्सर बड़े सपने देखना आसान नही होता। दरअसल सपने इस बात पर निर्भर करते हैं कि व्यक्ति के आसपास का वातावरण उन सपनों के अनुकूल है या नहीं, और उन सपनों की प्रतिष्ठा है या नहीं। कमजोर तबके अक्सर इस कल्चरल कैपिटल से वंचित होते हैं। प्रतिभा और मेहनत के बावजूद ऊंचे पद कई बार उनकी कल्पना में ही नहीं होते। इसलिए आरक्षण जरूरी है। किसी की निजी तरक्की के लिए नहीं, बेशक राष्ट्र निर्माण के लिए।
courtesy navbharat times

दलितों का ब्राहमणी करण आखिर कब तक चलेगा?

यह दौर दलितों के तालिबानीकरण का है !
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राजसमन्द में हुई आतं?की वारदात के पक्ष में बड़ी संख्या में चरमपंथी हन्दू सोशल मीडिया पर अपने विचार खुल कर ज़ाहिर कर रहे है ,लोगों ने आतंकी शम्भू की तस्वीर को " माई हीरो शम्भू भवानी " हेज टैग के साथ अपनी प्रोफाइल पिक्चर तक बना डाली है ,इन शम्भू समर्थकों के नाम के साथ लगी जाति का विश्लेषण करने पर चोंकाने वाला सत्य सामने आता है ,इस दुर्दांत हत्याकांड का खुलकर समर्थन कर रहे लोगों का 95 फीसदी अपर कास्ट हिन्दू है ,जो शम्भू लाल रेगर नामक एक दलित के कृत्य को जायज ठहरा रहे है ।

कातिल के चाहने वाले लोगों के तर्क लगभग वही है जो संघी दुष्प्रचार के साहित्य में बर्षों से विष वमन किये जा रहे है ,लोग राजसमन्द की वारदात को जायज ठहराने के लिए अजीबोग़रीब कुतर्क उछाल रहे है ,लोगों के बीच यह झूठ फैलाया जा रहा है कि आतंकी हमले का शिकार हुआ बंगाली मजदूर अफराजुल ने हत्यारे शम्भू की बहन से शादी कर रखी थी और उसे भगा कर पश्चिमी बंगाल ले गया था ,जबकि सच्चाई तो यह है कि कातिल की बहन तो छोड़िए उसकी किसी रिश्तेदार से भी अफराजुल का किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं था ,वह तो     नफरत की विचारधारा द्वारा प्रशिक्षित हत्यारे शम्भू को ठीक से जानता तक नहीं था ,बावजूद उसे कातिल ने महज़ मुसलमान होने की वजह से हमले का शिकार बनाया और बड़ी बेरहमी से पहले तो काटा और फिर जला डाला ।

इस आतंकी वारदात को सिर्फ सनकी आदमी की सनक में किया आम अपराध बता देना उन घृणा के कारोबारी संगठनों की तरफदारी करना है जो अपनी विषैली विचारधारा से कमजोर दिमाग युवाओं को फंसा कर आत्मघाती दस्ते तैयार कर रहे है ,राजसमन्द का जघन्य हत्याकांड यह भी साबित करता है कि दलित युवाओं का तालिबानीकरण किया जा रहा है ,उनके ज़रिए मौत के सौदागर अपना आतंकी खेल खेलने में सफल हो रहे है ।

इससे उच्च जाति के साम्प्रदायिक तत्व एक तीर से कईं शिकार करने की कोशिस कर रहे है ,वे दलितों और मुसलमानों को आमने सामने की एक अंतहीन लड़ाई में झोंक कर खुद सुरक्षित होने के प्रयास में है ,इसी के साथ वे दलित नोजवान पीढ़ी के अपराधीकरण का काम भी कर रहे ताकि वे हत्या ,दंगे ,लूट ,हमले जैसी वारदातें करते रहे और जेलों में बरसों सड़ते रहें ,इस तरह एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा परिवार ही बर्बाद हो जाये और अन्ततः सम्पूर्ण समुदाय ही नष्ट हो जाये ।

दलित और मुस्लिम्स को आपसी युद्ध मे धकेल कर भारत के मनुवादी तत्व सारे अवसरों ,साधनों व संशाधनों पर काबिज हो कर ऐश्वर्य भोगते रहना चाहते है ,यह एक दीर्घकालिक भयानक हिन्दू षड्यंत्र है जिसका दलित शिकार हो चुका है ।

बड़े पैमाने पर दलित युवाओं को उन उग्र हिन्दू संगठनों से जोड़ा जा रहा ,जिनके जरिये हिंसक गतिविधिया करवाई जा सके ,हुड़दंग करने ,दंगे फैलाने ,त्रिशूल बांटने ,शस्त्र पूजा करवाने ,चाकूबाजी और मुकदमे करवाने ,हत्याएं करवाने तथा जैल भेजने के लिए ये नवनिर्मित हिन्दू बहुत काम आते है ,हालांकि ये हिन्दू तभी तक माने जाते हैं ,जब तक कि सामने मुसलमान हो या चुनाव हो ,बाकी समय मे इनको नीच हिन्दू के तौर पर ही माना जाता है ,हिंदुत्व की प्रयोगशाला में आज दलितों की औकात चीरे फाड़े जाने वाले मेढकों जैसी हो गयी है ,फिर भी दलित खुशी खुशी हिंदुत्व के हरावल दस्ते बने हुए है ।

एक फर्जी किस्म का ऊपरी ऊपरी क्षणिक आदर भाव मिल जाने और थोड़ी बहुत आर्थिक मदद पा कर आज का भ्रमित दलित नोजवान आत्मघाती हमलावर तक बनने को तत्पर हैं ,वह कुछ भी सोच विचार नही कर पा रहा है ,उसके मन मस्तिष्क पर हिदुत्व कुप्रचार इतना हावी हो गया है कि वह स्वयं को धर्म यौद्धा समझ कर मरने मारने पर उतारू है ,वस्तुतः आज देश का दलित किशोर और नोजवान ज़िंदा बम बन कर खुदकशी की राह पर चल पड़ा है ।

दलित युवाओं का यह तालिबानीकरण अब रंग दिखा रहा है ,उन्हें  इतना भर दिया गया है कि वे अब भस्मासुर बनकर खुद का ही नुकसान कर रहे है ,वे अब मनु के गीत गा रहे है ,वे अब आरक्षण हटाने की मांग कर रहे है ,कल वे संविधान को मिटाने की बात करेंगे और लोकतंत्र की जगह तानशाही की वकालत भी करने लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी ।

दलितों को आतंकी बनानेे का सबसे सटीक उदाहरण राजसमन्द को माना जा सकता है, किसी भी हिन्दू संगठन ने अफराजुल की निर्मम हत्या की निंदा नही की ,एक दो दिन की खामोशी के बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मौजूद इंटरनेट हिन्दू आर्मी सक्रिय हो गई और हत्यारे शम्भू को हीरो बना डाला ,उसे एक भटका हुआ नोजवान बताते हुए उससे बात करने और उसके प्रति सहानुभूति दिखाने की अपीलें जारी होने लगी है ।

हैरत की बात तो यह है कि जितने भी लोग सोशल मीडिया और अन्यत्र शम्भू के पक्ष में मोर्चा खोले हुए है वे लगभग ऊपर के तीन वर्णों से आते है और उनका सीधा जुड़ाव संघ और उसके समविचारी संगठनों से है ,हद तो यह है कि एक नराधम के कुकृत्य को धर्मसम्मत और राष्ट्रभक्ति का पर्याय बताया जा रहा है ,उसको शम्भू नाथ बाहुबली कह कर गौरवान्वित किया जा रहा है ,एक निर्दोष ,निरपराध व्यक्ति को धोखे से बुलाकर पीछे से वार करने वाले अव्वल दर्जे के कायर को महान शूरवीर बता कर उसको महिमामण्डित इसलिए किया जा रहा है ताकि अन्य दलित युवाओं को भी इससे प्रेरणा मिल सके और वे भी इस धर्मयुद्ध में शामिल हो जाएं ।

आतंक को पालने पोषने और उसका समर्थन करने के लिए टेरर फंडिंग भी शुरू हो चुकी है ,हत्यारे शम्भू भवानी के मुकदमे के लिए पैसे एकत्र हो रहे है ,उसके परिवार को मदद करने के लिए उसकी पत्नी का बैंक अकाउंट नम्बर सबको भेजा गया है ,यह गतिविधियां इसलिए हो रही है कि इस तरह की आतंकी वारदातों को अंजाम देने वाले स्वयं को अकेला नही समझें ,उग्र हिदू समूह उनके साथ खड़े है ,वे बेझिझक विधर्मियों,लव जिहादियों ,पाकपरस्त म्लेच्छों को मार सकते है।

यह दौर भारत के दलितों के तालिबानीकरण का है । 

-भंवर मेघवंशी
( सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार )

बाबासाहेब डाॅ.भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस के अवसर पर ’साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्म निरपेक्षता’ विषय पर संगोष्ठी संपन्न

विमर्श,कसम,जाति उन्मूलन आंदोलन एवं दलित मूवमेंट एसोसिएशन का संयुक्त आयोजन

रायपुर, 07.12.2017। समाज में साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष माहौल बनाने हेतु विमर्श छत्तीसगढ़, क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच छत्तीसगढ़, जाति उन्मूलन आंदोलन छत्तीसगढ़ व दलित मूवमेंट एसोसिएशन ने बाबासाहेब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस एवं बाबरी मस्जिद के विध्वंस दिवस के अवसर पर ’साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्म निरपेक्षता’ विषय पर रायपुर में संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच कसम व जाति उन्मूलन आंदोलन की राज्य कमेटी सदस्य रेखा गोंडाने ने की। इस अवसर पर विशिष्ट वक्ता के रूप में जाति उन्मूलन आंदोलन के अखिल भारतीय कार्यकारी संयोजक व छत्तीसगढ़ संयोजक संजीव खुदशाह,क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच के अखिल भारतीय संयोजक तुहिन, अम्बेडकर,फुले,पेरियार छात्र संगठन के सदस्य व टीस मुंबई के शोधार्थी श्रीकांत,अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान संगठन के छत्तीसगढ़ राज्य सचिव काॅ. तेजराम विद्रोही एवं वरिष्ठ वामपंथी विचारक काॅ.मृदुलसेन गुप्ता उपस्थित थे। कार्यक्रम में जाति उन्मूलन आंदोलन के सदस्य रवि बौद्ध,एडवोकेट रामकृष्ण जांगडे़ व गुरू घासीदास सेवादार संघ के दिनेश सतनाम ने भी अपनी बात रखी। कार्यक्रम का संचालन विमर्श के रविन्द्र व आभार क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच के सदस्य रतन गोंडाने ने किया। इस अवसर पर प्रख्यात जनगायिका बिपाशा राव ने जनगीत प्रस्तुत किया। संगोष्ठी में आगामी 17 दिसंबर 2017 को रायपुर में आयोजित जाति उन्मूलन आंदोलन के राज्य सम्मेलन को तथा नागपुर में आगामी 13-14 जनवरी 2018 को जाति उन्मूलन आंदोलन के अखिल भारतीय सम्मेलन को सफल बनाने की अपील की गई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं रेखा गोंडाने ने कहा कि बाबासाहेब सभी समाज को अपना घर समझते थे। यह हमें समता,समानता और न्याय आधारित संविधान की रचना में दिखता है। हमें दकियानूसी विचारों को छोड़ना व नये विचारों से युवा वर्ग को अवगत कराना होगा जिससे नवीन समाज की स्थापना हो और महिला-पुरूष में भेदभाव रहित समाज की ओर आगे बढ़ना है।
कार्यक्रम में प्रारंभिक वक्तव्य रखते हुए तुहिन ने कहा कि आज ही के दिन 25वर्ष पूर्व अयोध्या में धर्म निरपेक्षता को तार-तार किया गया था और इसके लिए डाॅ.बी.आर. अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस को जानबुझकर चुना गया। 1826 से पूर्व बाबरी मस्जिद व रामजन्म भूमि कोई मुद्दा नहीं था। सभी समुदाय भारत की बहुलतावादी संस्कृति के तहत एक साथ रहते आए । सबसे पहले अंग्रेज इतिहासकार लिडेन व बेबरीज ने बाबरी मस्जिद व रामजन्म भूमि विवाद को पैदा किया और इसे अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम समुदाय को लड़ाने के लिए मुद्दे के तौर पर इस्तेमाल किया। 7वीं सदी में व्हेनसांग के जीवन वृतांत में उल्लेख है कि अयोध्या बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। बाबरनामा से पता चलता है कि बाबर कला प्रेमी था और किसी भी साक्ष्य में यह पता नहीं चलता कि अयोध्या में मस्जिद  उसने बनवाई थी। बाद में दक्षिणपंथी कट्टरवादियों ने झूठ की बुनियाद पर साम्प्रदायिकता की आग भड़काई जिससे पूरे देश मेें दंगे हुए और भय का माहौल बना। वर्तमान दौर में देश में धुर दक्षिणपंथी शासक वर्ग द्वारा हमारी सामाजिक विरासत गंगा-जमुनी तहजीब के ताने-बाने को छिन्न भिन्न करने की लगातार कोशिश हो रही है इसे आमजनों तक सही बात को पहुंचाना होगा। लोगों के खान पान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले हो रहे हैं। मेहनतकश मजदूरों,किसानों,दलितों,आदिवासियों,महिलाओं व अल्पसंख्यकों की आवाज को दबाया जा रहा है। एैसे माहौल में प्रगतिशील संगठनांे, बुद्धिजीवियों व छात्र-नौजवानों को आगे आकर लोगों को सही बातों को बताने और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है।
संजीव खुदशाह ने कहा कि विचारोें की प्रासंगिकता वक्त के साथ बदल सकती है लेकिन डाॅ. भीमराव अम्बेडकर की सोच प्रगतिशील लोकतांत्रिक व्यवस्था में थी जिसके कारण उनकेे विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा कि धर्म निरपेक्षता का मतलब है कि शासन प्रणाली व राजनीति धर्म से अलग होगी। धर्म एक व्यक्तिगत मुद्दा है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि धर्म व राजनीति का घालमेल हो व धर्म राजनीति से उपर हो। हमारे पड़ोसी मुल्क में कानून के उपर धर्म है जिसके दुष्परिणाम हम देखते हैं। हमारे देश में तमिलनाडु में आदेश निकाला गया है कि सरकारी संस्थानों में किसी भी तरह के धार्मिक क्रियाकलाप नहीं होगा। वहीं अन्य प्रदेशों में यह लगातार जारी है। आज के समय बुद्धिजीवी वर्ग की जिम्मेदारी है कि बाबासाहेब के विचारों को आगे बढ़ाने की ताकि ऊंच-नीच,जाति भेद,लिंग भेद तोड़कर एक भेदभाव मुक्त समतावादी भारत की कल्पना को साकार किया जा सके। उन्होंने उपस्थित जनों से बाबा साहब के दिखाये पथ पर जाति उन्मूलन आंदोलन से जुड़ने की अपील की।
टीस मुंबई के शोधार्थी श्रीकांत ने कहा कि शोषितों से शोषक बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था जब तक है तब तक समाज में बदलाव नहीं आऐगा। आमजन को मिथकों से दूर रहने के लिए सही बात बताना होगा। हमारे सामने इतिहास को विकृत कर प्रस्तुत किया गया है। इसलिए इतिहास पढ़ना ही नहीं इतिहास बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है। रस्सी को सांप बताने वालों से हमें सावधान रहने की जरूरत है। शोषितों में सबसे शोषित महिला होती है और महिलाओं के लिए जाति व्यवस्था शोषण का प्रवेश द्वार है। विषमतावादी समाज को खत्म कर समतावादी समाज बनाना, जाति प्रथा को खत्म करना हमारी जिम्मेदारी है। 
इस अवसर पर बड़ी संख्या में बुद्धिजीवीगण,सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि,लेखक,साहित्यकार,संस्कृतिकर्मी व छात्र/छात्राएं उपस्थित थे।

शिक्षाकर्मियों की हड़ताल हर बार असफल क्‍यों हो जाती है?

शिक्षाकर्मियों की हड़ताल हर बार असफल क्‍यों हो जाती है?
सचिन खुदशाह
लोगों के मन में यह सवाल हमेशा से आता रहा है कि शिक्षाकर्मी बार-बार हरताल क्यों करते है? इसके जवाब में तमाम मैसेज सोशल मीडिया में तैर रहे हैं जो इस तथ्‍य को बता रहे हैं कि क्यों शिक्षाकर्मी हड़ताल करने के लिए मजबूर हैं। उनकी परेशानियां उनकी आर्थिक स्थिति किसी से भी छिपी नहीं है। क्या राजनेता, क्या प्रशासक, पत्रकार मीडिया सभी उनकी परेशानियों से बावास्‍ता है।
शिक्षाकर्मी की मजबूरी
शिक्षाकर्मी संगठन की शिकायत है कि उन्हे कई कई महिने वेतन नही मिलता। इस कारण आर्थिक समस्‍या बनी रहती है। उनकी खास मांगों में शिक्षाकर्मी से शिक्षक मे संविलियन (यानी सरकारी कर्मचारी का दर्जा चाहिए जो वर्तमान में उन्‍हे नही मिल रहा है), उचित स्‍थानांतरण नीति शामिल है।
अब प्रश्न या होता है कि वे कौन से कारण है जिसके कारण शिक्षाकर्मी हड़ताल सफल नहीं हो पाती। इसकी पड़ताल भी जरूरी है आज हम इस मुद्दे पर बात करेंगे।
सरकार की मजबूरी
पहली बात तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि शिक्षाकर्मी फॉर्म भरने के पहले खासकर शुरुआती दौर में तकरीबन 22 साल पहले जब शिक्षाकर्मी जैसे पद का सृजन किया गया उसमें यह शर्त खुले तौर पर शासन के द्वारा प्रसारित किया गया था कि यह सेवा केवल 3 वर्ष के लिए है। और उसके बाद उन्हें सेवा से पृथक कर दिया जाएगा। किंतु बाद में इनकी सेवाएं बढ़ाई जाने लगी और वह कभी भी स्थाई शिक्षकों के तौर पर भर्ती नहीं किए गए। हालांकि कुछ शिक्षकों को स्थाई शिक्षक के तौर पर पदोन्नति भी मिली।
अब मैं आपको बताना चाहूंगा की शिक्षा कर्मी की भर्ती 3 वर्ष के लिए क्यों की जाती रही है। दरअसल उस समय इस बात को सामने रखा गया की शिक्षाकर्मी के इस पद हेतु रुपयों का इंतजाम वर्ल्ड बैंक के द्वारा होता है। और वर्ल्ड बैंक यह राशि ऋण के रूप में स्टेट गवर्नमेंट को 3 साल के लिए देता है। बाद में परिस्थिति का जायजा लेने के बाद यह राशि अगले तीन वर्षो के लिए बढ़ा दी जाती है।
दावा है छत्तीसगढ़ राज्य में करीब ढाई लाख शिक्षाकर्मी कार्यरत है निश्चित तौर पर इन्हें स्थाई करने के बाद और वर्ल्ड बैंक द्वारा राशि नहीं देने की स्थिति में वेतन देना राज सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन जाएगी। इसलिए राज्‍य सरकार इन्‍हे स्‍थाई करने में हिचकिचाती है।
दूसरी मजबूरी है यूजीसी की गाईडलाईन जिनके अनुसार स्‍थाई शिक्षको को भारी भरकम वेतन देना जरूरी है। इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते है मान लिजिये किसी शिक्षाकर्मी का वेतन 30000 प्रतिमाह है तो यदि उसे शिक्षक पद पर बहाल किया जायेगा तो उसे यू जी सी के गाईडलाईन के अनुसार करीब डेढ गुना ज्‍यादा वेतन (75000) देना होगा। ऐसा करना सरकार के लिए एक टेढ़ी खीर है।
अब हम इस मुद्दे पर आते हैं कि क्यों शिक्षाकर्मियों का हड़ताल जो तमाम छोटी-छोटी मांगों पर आधारित होता है वह अक्सर असफल हो जाता पिछले बार के हड़ताल में तो करीब 25 शिक्षा कर्मी को मौत के मुंह में जाना पड़ा इनमें 4 आत्‍महत्‍या शामिल है बावजूद इसके सरकार का मन नहीं डोला इसके कुछ कारण है।
इसके कई कारण है जैसे शिक्षाकर्मियों के संगठन में कई गुट है अक्‍सर वह एकमत नहीं हो पाते हैं।  शिक्षाकर्मी में पोस्टिंग को लेकर बहुत मारा मारी है। शहर के आसपास पोस्टिंग कराने में वह मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की एप्रोच रहते हैं। और जिन दमदार शिक्षाकर्मियों की पहुच उन तक रहती है वह शहर के आसपास वर्षों से काबिज है। बहुसंख्‍यक शिक्षाकर्मी सरकारा के निर्देशानुसार ग्राम पंचायत के मुख्‍यालय में नही रहते है। सरकारी काम के बटवारे  को लेकर महिला पुरूष में मतभेद की खबरे आम है। जनसमर्थन जुटाने में कमजोर साबित होते है। शिक्षाकर्मियों को चाहिए कि वह अपनी परेशानियों को पालको के आगे रखें और उनसे जनसमर्थन मांगे।
मताधिकार पर कमजोर - सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद वे सरकार बदलने का माद्दा नहीं रखते हैं वे और उनके परिवार चाहे जातिगत कारण हो या धर्मगत या अन्य कारण हो। वह उसी पार्टी को वोट देते हैं जिनके खिलाफ हड़ताल पर खड़े रहते हैं। इसीलिए कोई भी पार्टी उनसे खौफ नहीं खाती। इसीलिए हड़ताल पर जाने से पहले शिक्षाकर्मियों को मनन और विश्लेषण करना होगा और पूरी तैयारी के साथ हड़ताल पर बैठना होगा। तब कहीं जाकर उनका आंदोलन सफल हो सकेगा। क्योंकि उनकी सेवाओं से उनके परिवार की रोजी रोटी बंधी हुई है। वहीं बच्चों का भविष्य भी जुड़ा हुआ है।
सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए यह समस्‍या आने वाली है।

 यदि कोई केन्‍द्र या राज्‍य सरकार का कर्मचारी यह समझे की यह समस्‍या सिर्फ शिक्षाकर्मियों की है। वह इस समस्‍या से सुरक्षित है तो मै यह बताना चाहूंगा की नई नई पूंजी वादी एवं उदारवादी नीति में यही योजना बनाई जा रही है। अब चपरासी से लेकर आई ए एस तक ठेके पर लिये जायेगे। सरकार शिक्षा स्‍वास्‍थ अन्‍य जनहित वाली योजना से हाथ खीचना चाहती है। सरकार का काम केवल दो ही होगा। जनता से भूमि छीन कर पूंजीवादियों को देना और टैक्‍स वसूलना। राजस्‍थान सहित कई राज्‍यों में इसकी शुरूआत भी हो चुकी है। शिक्षाकर्मी की तरह पुलिस, पटवारी, ग्रामसेवक,कलर्क और अधिकारी ठेके पर भर्ती किये जा रहे है। इसलिए अन्य संगठन को भी समस्‍या को गंभीरता से लेने की जरूरत है।

 

भारत की पहली संविधान सभा का समापन भाषण

भारतीय संविधान के निर्माता भीमराव अंबेडकर ने यह भाषण नवंबर 1949 में नई दिल्ली में दिया था। 300 से ज्यादा सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी।
भारतीय संविधान की प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यह भाषण औपचारिक रूप से अपना कार्य समाप्त करने से एक दिन पहले दिया था। उन्होंने जो चेतावनियां दीं- एक प्रजातंत्र में जन आंदोलनों का स्थान, करिश्माई नेताओं का अंधानुकरण और मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र की सीमाएं- वे आज भी प्रासंगिक हैं।
पेश है भीमराव अंबेडकर का भाषण- 
"महोदय, संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए 9 दिसंबर,1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन हो जाएंगे। इस अवधि के दौरान संविधान सभा की कुल मिलाकर 11 बैठकें हुई हैं। इन 11 सत्रों में से छह उद्देश्य प्रस्ताव पास करने तथा मूलभूत अधिकारों पर, संघीय संविधान पर, संघ की शक्तियों पर, राज्यों के संविधान पर, अल्पसंख्यकों पर,अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों पर बनी समितियों की रिपोर्टों पर विचार करने में व्यतीत हुए। सातवें, आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें सत्र प्रारूप संविधान पर विचार करने के लिए उपयोग किए गए। संविधान सभा के इन 11 सत्रों में 165 दिन कार्य हुआ। इनमें से 114 दिन प्रारूप संविधान के विचारार्थ लगाए गए।

प्रारूप समिति की बात करें तो वह 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा चुनी गई थी। उसकी पहली बैठक 30 अगस्त को हुई थी। 30 अगस्त से 141 दिनों तक वह प्रारूप संविधान तैयार करने में जुटी रही। प्रारूप समिति द्वारा आधार रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए संवैधानिक सलाहकार द्वारा बनाए गए प्रारूप संविधान में 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियां थीं। प्रारूप समिति द्वारा संविधान सभा को पेश किए गए पहले प्रारूप संविधान में 315 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां थीं। उस पर विचार किए जाने की अवधि के अंत तक प्रारूप संविधान में अनुच्छेदों की संख्या बढ़कर 386 हो गई थी। अपने अंतिम स्वरूप में प्रारूप संविधान में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां हैं। प्रारूप संविधान में कुल मिलाकर लगभग 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए थे। इनमें से कुल मिलाकर 2,473 संशोधन वास्तव में सदन के विचारार्थ प्रस्तुत किए गए।
मैं इन तथ्यों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि एक समय यह कहा जा रहा था कि अपना काम पूरा करने के लिए सभा ने बहुत लंबा समय लिया है और यह कि वह आराम से कार्य करते हुए सार्वजनिक धन का अपव्यय कर रही है। उसकी तुलना नीरो से की जा रही थी, जो रोम के जलने के समय वंशी बजा रहा था। क्या इस शिकायत का कोई औचित्य है? जरा देखें कि अन्य देशों की संविधान सभाओं ने, जिन्हें उनका संविधान बनाने के लिए नियुक्त किया गया था, कितना समय लिया।
कुछ उदाहरण लें तो अमेरिकन कन्वेंशन ने 25 मई, 1787 को पहली बैठक की और अपना कार्य 17 सितंबर, 1787 अर्थात चार महीनों के भीतर पूरा कर लिया। कनाडा की संविधान सभा की पहली बैठक 10 अक्टूबर, 1864 को हुई और दो वर्ष पांच महीने का समय लेकर मार्च 1867 में संविधान कानून बनकर तैयार हो गया। ऑस्ट्रेलिया की संविधान सभा मार्च 1891 में बैठी और नौ वर्ष लगाने के बाद नौ जुलाई, 1900 को संविधान कानून बन गया। दक्षिण अफ्रीका की सभा की बैठक अक्टूबर 1908 में हुई और एक वर्ष के श्रम के बाद 20 सितंबर, 1909 को संविधान कानून बन गया।
यह सच है कि हमने अमेरिकन या दक्षिण अफ्रीकी सभाओं की तुलना में अधिक समय लिया। परंतु हमने कनाडियन सभा से अधिक समय नहीं लिया और ऑस्ट्रेलियन सभा से तो बहुत ही कम। संविधान-निर्माण में समयावधियों की तुलना करते समय दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। एक तो यह कि अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के संविधान हमारे संविधान के मुकाबले बहुत छोटे आकार के हैं। जैसा मैंने बताया, हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिकी संविधान में केवल 7 अनुच्छेद हैं, जिनमें से पहले चार सब मिलकर 21 धाराओं में विभाजित हैं। कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलियाई में 128 और दक्षिण अफ्रीकी में 153 धाराएं हैं।
याद रखने लायक दूसरी बात यह है कि अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के संविधान निर्माताओं को संशोधनों की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। वे जिस रूप में प्रस्तुत किए गए, वैसे ही पास हो गए। इसकी तुलना में इस संविधान सभा को 2,473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विलंब के आरोप मुझे बिलकुल निराधार लगते हैं और इतने दुर्गम कार्य को इतने कम समय में पूरा करने के लिए यह सभा स्वयं को बधाई तक दे सकती है।
प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की गुणवत्ता की बात करें तो नजीरुद्दीन अहमद ने उसकी निंदा करने को अपना फर्ज समझा। उनकी राय में प्रारूप समिति द्वारा किया गया कार्य न तो तारीफ के काबिल है, बल्कि निश्चित रूप से औसत से कम दर्जे का है। प्रारूप समिति के कार्य पर सभी को अपनी राय रखने का अधिकार है और अपनी राय व्यक्त करने के लिए नजीरुद्दीन अहमद का ख्याल है कि प्रारूप समिति के किसी भी सदस्य के मुकाबले उनमें ज्यादा प्रतिभा है। प्रारूप समिति उनके इस दावे की चुनौती नहीं देना चाहती।
इस बात का दूसरा पहलू यह है कि यदि सभा ने उन्हें इस समिति में नियुक्त करने के काबिल समझा होता तो समिति अपने बीच उनकी उपस्थिति का स्वागत करती। यदि संविधान-निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं थी तो निश्चित रूप से इसमें प्रारूप समिति का कोई दोष नहीं है।
प्रारूप समिति के प्रति अपनी नफरत जताने के लिए नजीरुद्दीन ने उसे एक नया नाम दिया। वे उसे 'ड्रिलिंग कमेटी' कहते हैं। निस्संदेह नजीरुद्दीन अपने व्यंग्य पर खुश होंगे। परंतु यह साफ है कि वह नहीं जानते कि बिना कुशलता के बहने और कुशलता के साथ बहने में अंतर है। यदि प्रारूप समिति ड्रिल कर रही थी तो ऐसा कभी नहीं था कि स्थिति पर उसकी पकड़ मजबूत न हो। वह केवल यह सोचकर पानी में कांटा नहीं डाल रही थी कि संयोग से मछली फंस जाए। उसे जाने-पहचाने पानी में लक्षित मछली की तलाश थी। किसी बेहतर चीज की तलाश में रहना प्रवाह में बहना नहीं है।
यद्यपि नजीरुद्दीन ऐसा कहकर प्रारूप समिति की तारीफ करना नहीं चाहते थे, मैं इसे तारीफ के रूप में ही लेता हूं। समिति को जो संशोधन दोषपूर्ण लगे, उन्हें वापस लेने और उनके स्थान पर बेहतर संशोधन प्रस्तावित करने की ईमानदारी और साहस न दिखाया होता तो वह अपना कर्तव्य-पालन न करने और मिथ्याभिमान की दोषी होती। यदि यह एक गलती थी तो मुझे खुशी है कि प्रारूप समिति ने ऐसी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं किया और उन्हें ठीक करने के लिए कदम उठाए।
यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की प्रशंसा करने में एक अकेले सदस्य को छोड़कर संविधान सभा के सभी सदस्य एकमत थे। मुझे विश्वास है कि अपने श्रम की इतनी सहज और उदार प्रशंसा से प्रारूप समिति को प्रसन्नता होगी। सभा के सदस्यों और प्रारूप समिति के मेरे सहयोगियों द्वारा मुक्त कंठ से मेरी जो प्रशंसा की गई है, उससे मैं इतना अभिभूत हो गया हूं कि अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं। संविधान सभा में आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था।
मुझे दूर तक यह कल्पना नहीं थी कि मुझे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जाएगा। इसीलिए, उस समय मुझे घोर आश्चर्य हुआ, जब सभा ने मुझे प्रारूप समिति के लिए चुन लिया। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। प्रारूप समिति में मेरे मित्र सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे मुझसे भी बड़े, श्रेष्ठतर और अधिक कुशल व्यक्ति थे। मुझ पर इतना विश्वास रखने, मुझे अपना माध्यम बनाने एवं देश की सेवा का अवसर देने के लिए मैं संविधान सभा और प्रारूप समिति का अनुगृहीत हूं। (करतल-ध्वनि)
जो श्रेय मुझे दिया गया है, वास्तव में उसका हकदार मैं नहीं हूं। वह श्रेय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी.एन. राव को जाता है, जिन्होंने प्रारूप समिति के विचारार्थ संविधान का एक सच्चा प्रारूप तैयार किया। श्रेय का कुछ भाग प्रारूप समिति के सदस्यों को भी जाना चाहिए जिन्होंने, जैसे मैंने कहा, 141 बैठकों में भाग लिया और नए फॉर्मूले बनाने में जिनकी दक्षता तथा विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करके उन्हें समाहित करने की सामथ्र्य के बिना संविधान-निर्माण का कार्य सफलता की सीढिम्यां नहीं चढ़ सकता था।
श्रेय का एक बड़ा भाग संविधान के मुख्य ड्राफ्ट्समैन एस.एन. मुखर्जी को जाना चाहिए। जटिलतम प्रस्तावों को सरलतम व स्पष्टतम कानूनी भाषा में रखने की उनकी सामर्थ्य और उनकी कड़ी मेहनत का जोड़ मिलना मुश्किल है। वह सभा के लिए एक संपदा रहे हैं। उनकी सहायता के बिना संविधान को अंतिम रूप देने में सभा को कई वर्ष और लग जाते। मुझे मुखर्जी के अधीन कार्यरत कर्मचारियों का उल्लेख करना नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि उन्होंने कितनी बड़ी मेहनत की है और कितना समय, कभी-कभी तो आधी रात से भी अधिक समय दिया है। मैं उन सभी के प्रयासों और सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूं। (करतल-ध्वनि)
यदि यह संविधान सभा भानुमति का कुनबा होती, एक बिना सीमेंट वाला कच्चा फुटपाथ, जिसमें एक काला पत्थर यहां और एक सफेद पत्थर वहां लगा होता और उसमें प्रत्येक सदस्य या गुट अपनी मनमानी करता तो प्रारूप समिति का कार्य बहुत कठिन हो जाता। तब अव्यवस्था के सिवाय कुछ न होता। अव्यवस्था की संभावना सभा के भीतर कांग्रेस पार्टी की उपस्थिति से शून्य हो गई, जिसने उसकी कार्रवाईयों में व्यवस्था और अनुशासन पैदा कर दिया। यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन का ही परिणाम था कि प्रारूप समिति के प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन की नियति के प्रति आश्वस्त होकर उसे सभा में प्रस्तुत कर सकी। इसीलिए सभा में प्रारूप संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।
यदि इस संविधान सभा के सभी सदस्य पार्टी अनुशासन के आगे घुटने टेक देते तो उसकी कार्रवाइयां बहुत फीकी होतीं। अपनी संपूर्ण कठोरता में पार्टी अनुशासन सभा को जीहुजूरियों के जमावड़े में बदल देता। सौभाग्यवश, उसमें विद्रोही थे। वे थे कामत, डॉ. पी.एस. देशमुख, सिधवा, प्रो. सक्सेना और पं. ठाकुरदास भार्गव। इनके साथ मुझे प्रो. के.टी. शाह और पं. हृदयनाथ कुंजरू का भी उल्लेख करना चाहिए। उन्होंने जो बिंदु उठाए, उनमें से अधिकांश विचारात्मक थे।
यह बात कि मैं उनके सुझावों को मानने के लिए तैयार नहीं था, उनके सुझावों की महत्ता को कम नहीं करती और न सभा की कार्रवाइयों को जानदार बनाने में उनके योगदान को कम आंकती है। मैं उनका कृतज्ञ हूं। उनके बिना मुझे संविधान के मूल सिद्धांतों की व्याख्या करने का अवसर न मिला होता, जो संविधान को यंत्रवत् पारित करा लेने से अधिक महत्वपूर्ण था।
और अंत में, राष्ट्रपति महोदय, जिस तरह आपने सभा की कार्रवाई का संचालन किया है, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं। आपने जो सौजन्य और समझ सभा के सदस्यों के प्रति दर्शाई है वे उन लोगों द्वारा कभी भुलाई नहीं जा सकती, जिन्होंने इस सभा की कार्रवाईयों में भाग लिया है। ऐसे अवसर आए थे, जब प्रारूप समिति के संशोधन ऐसे आधारों पर अस्वीकृत किए जाने थे, जो विशुद्ध रूप से तकनीकी प्रकृति के थे। मेरे लिए वे क्षण बहुत आकुलता से भरे थे, इसलिए मैं विशेष रूप से आपका आभारी हूं कि आपने संविधान-निर्माण के कार्य में यांत्रिक विधिवादी रवैया अपनाने की अनुमति नहीं दी।
संविधान का जितना बचाव किया जा सकता था, वह मेरे मित्रों सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर और टी.टी. कृष्णमाचारी द्वारा किया जा चुका है, इसलिए मैं संविधान की खूबियों पर बात नहीं करूंगा। क्योंकि मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों।
एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों - जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।
यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उनके दल किस तरह का आचरण करेंगे? अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या वे संवैधानिक तरीके इस्तेमाल करेंगे या उनके लिए क्रांतिकारी तरीके अपनाएंगे? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल रहेगा। इसलिए जनता और उनके राजनीतिक दलों की संभावित भूमिका को ध्यान में रखे बिना संविधान पर कोई राय व्यक्त करना उपयोगी नहीं है।
संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दलों द्वारा की जा रही है - कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह वास्तव में एक बुरा संविधान है? मैं कहूंगा, नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। सोशलिस्ट दो बातें चाहते हैं। पहली तो वे चाहते हैं कि संविधान यह व्यवस्था करे कि जब वे सत्ता में आएं तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे मुआवजे का भुगतान किए बिना समस्त निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजिकरण कर सकें। सोशलिस्ट जो दूसरी चीज चाहते हैं, वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभत अधिकार असीमित होने चाहिए, ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में असफल रहती है तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे न केवल राज्य की निंदा कर सकें, बल्कि उसे उखाड़ फेंकें।
मुख्य रूप से ये ही वे आधार हैं, जिन पर संविधान की निंदा की जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श स्वरूप है। मैं यह नहीं कहता कि मुआवजे का भुगतान किए बिना निजी संपत्ति अधिगृहीत न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। मैं यह भी नहीं कहता कि मौलिक अधिकार कभी असीमित नहीं हो सकते और उन पर लगाई गई सीमाएं कभी हटाई नहीं जा सकतीं। मैं जो कहता हूं, वह यह है कि संविधान में अंतनिर्हित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं। यदि आप इसे अत्युक्ति समझें तो मैं कहूंगा कि वे संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं। उन्हें संविधान में शामिल करने के लिए प्रारूप समिति को क्यों दोष दिया जाए? मैं तो कहता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों को भी क्यों दोष दिया जाए? इस संबंध में महान अमेरिकी राजनेता जेफरसन ने बहुत सारगर्भित विचार व्यक्त किए हैं, कोई भी संविधान-निर्माता जिनकी अनदेखी नहीं कर सकते। एक स्थान पर उन्होंने कहा है -
हम प्रत्येक पीढ़ी को एक निश्चित राष्ट्र मान सकते हैं, जिसे बहुमत की मंशा के द्वारा स्वयं को प्रतिबंधित करने का अधिकार है; परंतु जिस तरह उसे किसी अन्य देश के नागरिकों को प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है, ठीक उसी तरह भावी पीढिम्यों को बांधने का अधिकार भी नहीं है।
एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा है - ''राष्ट्र के उपयोग के लिए जिन संस्थाओं की स्थापना की गई, उन्हें अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए भी उनके संचालन के लिए नियुक्त लोगों के अधिकारों के बारे में भ्रांत धारणाओं के अधीन यह विचार कि उन्हें छेड़ा या बदला नहीं जा सकता, एक निरंकुश राजा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ एक सराहनीय प्रावधान हो सकता है, परंतु राष्ट्र के लिए वह बिल्कुल बेतुका है। फिर भी हमारे अधिवक्ता और धर्मगुरु यह मानकर इस सिद्धांत को लोगों के गले उतारते हैं कि पिछली पीढिम्यों की समझ हमसे कहीं अच्छी थी। उन्हें वे कानून हम पर थोपने का अधिकार था, जिन्हें हम बदल नहीं सकते थे और उसी प्रकार हम भी ऐसे कानून बनाकर उन्हें भावी पीढिम्यों पर थोप सकते हैं, जिन्हें बदलने का उन्हें भी अधिकार नहीं होगा। सारांश यह कि धरती पर मृत व्यक्तियों का हक है, जीवित व्यक्तियों का नहीं।
मैं यह स्वीकार करता हूं कि जो कुछ जेफरसन ने कहा, वह केवल सच ही नहीं, परम सत्य है। इस संबंध में कोई संदेह हो ही नहीं सकता। यदि संविधान सभा ने जेफरसन के उस सिद्धांत से भिन्न रुख अपनाया होता तो वह निश्चित रूप से दोष बल्कि निंदा की भागी होती। परंतु मैं पूछता हूं कि क्या उसने सचमुच ऐसा किया है? इससे बिल्कुल विपरीत। कोई केवल संविधान के संशोधन संबंधी प्रावधान की जांच करें। सभा न केवल कनाडा की तरह संविधान संशोधन संबंधी जनता के अधिकार को नकारने के जरिए या आस्ट्रेलिया की तरह संविधान संशोधन को असाधारण शर्तो की पूर्ति के अधीन बनाकर उस पर अंतिमता और अमोघता की मुहर लगाने से बची है, बल्कि उसने संविधान संशोधन की प्रक्रिया को सरलतम बनाने के प्रावधान भी किए हैं।
मैं संविधान के किसी भी आलोचक को यह साबित करने की चुनौती देता हूं कि भारत में आज बनी हुई स्थितियों जैसी स्थितियों में दुनिया की किसी संविधान सभा ने संविधान संशोधन की इतनी सुगम प्रक्रिया के प्रावधान किए हैं! जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता।
संवैधानिक महत्व का केवल एक बिंदु ऐसा है, जिस पर मैं बात करना चाहूंगा। इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि संविधान में केंद्रीयकरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है और राज्यों की भूमिका नगरपालिकाओं से अधिक नहीं रह गई है। यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण है बल्कि संविधान के अभिप्रायों के प्रति भ्रांत धारणाओं पर आधारित है। जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का सवाल है, उसके मूल सिद्धांत पर ध्यान देना आवश्यक है। संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का विभाजन केंद्र द्वारा बनाए गए किसी कानून के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं संविधान द्वारा किया जाता है। संविधान की व्यवस्था इस प्रकार है। हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शक्तियों के लिए राज्य किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है। इस विषय में केंद्र और राज्य समानाधिकारी हैं।
यह समस्या कठिन है कि ऐसे संविधान को केंद्रवादी कैसे कहा जा सकता है। यह संभव है कि संविधान किसी अन्य संघीय संविधान के मुकाबले विधायी और कार्यपालक प्राधिकार के उपयोग के विषय में केंद्र के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र निर्धारित करता हो। यह भी संभव है कि अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी गई हो, राज्यों को नहीं। परंतु ये व्यवस्थाएं संघवाद का मर्म नहीं है। जैसा मैंने कहा, संघवाद का प्रमुख लक्षण केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का संविधान द्वारा किया गया विभाजन है। यह सिद्धांत हमारे संविधान में सन्निहित है। इस संबंध में कोई भूल नहीं हो सकती। इसलिए, यह कल्पना गलत होगा कि राज्यों को केंद्र के अधीन रखा गया है। केंद्र अपनी ओर से इस विभाजन की सीमा-रेखा को परिवर्तित नहीं कर सकता और न न्यायपालिका ऐसा कर सकती है। क्योंकि, जैसा बहुत सटीक रूप से कहा गया है-
''अदालतें मामूली हेर-फेर कर सकती हैं, प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं। वे पूर्व व्याख्याओं को नए तर्को का स्वरूप दे सकती हैं, नए दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकती हैं, वे सीमांत मामलों में विभाजक रेखा को थोड़ा खिसका सकती हैं, परंतु ऐसे अवरोध हैं, जिन्हें वे पार नहीं कर सकती, शक्तियों का सुनिश्चित निर्धारण है, जिन्हें वे पुनरावंटित नहीं कर सकतीं। वे वर्तमान शक्तियों का क्षेत्र बढ़ा सकती हैं, परंतु एक प्राधिकारी को स्पष्ट रूप से प्रदान की गई शक्तियों को किसी अन्य प्राधिकारी को हस्तांतरित नहीं कर सकतीं।''  इसलिए, संघवाद को कमजोर बनाने का पहला आरोप स्वीकार्य नहीं है।
दूसरा आरोप यह है कि केंद्र को ऐसी शक्तियां प्रदान की गई हैं, जो राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण करती हैं। यह आरोप स्वीकार किया जाना चाहिए। परंतु केंद्र की शक्तियों को राज्य की शक्तियों से ऊपर रखने वाले प्रावधानों के लिए संविधान की निंदा करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। पहली यह कि इस तरह की अभिभावी शक्तियां संविधान के सामान्य स्वरूप का अंग नहीं हैं। उनका उपयोग और प्रचालन स्पष्ट रूप से आपातकालीन स्थितियों तक सीमित किया गया है।
ध्यान में रखने योग्य दूसरी बात है- आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए क्या हम केंद्र को अभिभावी शक्तियां देने से बच सकते हैं? जो लोग आपातकालीन स्थितियों में भी केंद्र को ऐसी अभिभावी शक्तियां दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं वे इस विषय के मूल में छिपी समस्या से ठीक से अवगत प्रतीत नहीं होते। इस समस्या का सुविख्यात पत्रिका  'द राउंड टेबल' के दिसंबर 1935 के अंक में एक लेखक द्वारा इतनी स्पष्टता से बचाव किया गया है कि मैं उसमें से यह उद्धरण देने के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हूं। लेखक कहते हैं-
''राजनीतिक प्रणालियां इस प्रश्न पर अवलंबित अधिकारों और कर्तव्यों का एक मिश्रण हैं कि एक नागरिक किस व्यक्ति या किस प्राधिकारी के प्रति निष्ठावान् रहे। सामान्य क्रियाकलापों में यह प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि सुचारु रूप से अपना कार्य करता है और एक व्यक्ति अमुक मामलों में एक प्राधिकारी और अन्य मामलों में किसी अन्य प्राधिकारी के आदेश का पालन करता हुआ अपने काम निपटाता है। परंतु एक आपातकालीन स्थिति में प्रतिद्वंद्वी दावे पेश किए जा सकते हैं और ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अंतिम प्राधिकारी के प्रति निष्ठा अविभाज्य है। निष्ठा का मुद्दा अंतत: संविधियों की न्यायिक व्याख्याओं से निर्णीत नहीं किया जा सकता। कानून को तथ्यों से समीचीन होना चाहिए, अन्यथा वह प्रभावी नहीं होगा। यदि सारी प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं को एक तरफ कर दिया जाए तो निरा प्रश्न यह होगा कि कौन सा प्राधिकारी एक नागरिक की अवशिष्ट निष्ठा का हकदार है। वह केंद्र है या संविधान राज्य?''
इस समस्या का समाधान इस सवाल, जो कि समस्या का मर्म है, के उत्तर पर निर्भर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकांश लोगों की राय में एक आपातकालीन स्थिति में नागरिक को अवशिष्ट निष्ठा अंगभूत राज्यों के बजाय केंद्र को निर्देशित होनी चाहिए, क्योंकि वह केंद्र ही है, जो सामूहिक उद्देश्य और संपूर्ण देश के सामान्य हितों के लिए कार्य कर सकता है।
एक आपातकालीन स्थिति में केंद्र की अभिभावी शक्तियां प्रदान करने का यही औचित्य है। वैसे भी, इन आपातकालीन शक्तियों से अंगभूत राज्यों पर कौन सा दायित्व थोपा गया है कि एक आपातकालीन स्थिति में उन्हें अपने स्थानीय हितों के साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र के हितों और मतों का भी ध्यान रखना चाहिए- इससे अधिक कुछ नहीं। केवल वही लोग, जो इस समस्या को समझे नहीं हैं, उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं।
यहां पर मैं अपनी बात समाप्त कर देता, परंतु हमारे देश के भविष्य के बारे में मेरा मन इतना परिपूर्ण है कि मैं महसूस करता हूं, उस पर अपने कुछ विचारों को आपके सामने रखने के लिए इस अवसर का उपयोग करूं। 26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। (करतल ध्वनि) उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है।
 यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है, बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण ऐसा हुआ है।
सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैन्य अधिकारियों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के दलालों से रिश्वत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कोई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे।
जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। सन् 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे।
क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह वह विचार है, जो मुझे चिंता से भर देता है। इस तथ्य का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे? मैं नहीं जानता। परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। (करतल ध्वनि)
26 जनवरी, 1950 को भारत इस अर्थ में एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। यही विचार मेरे मन में आता है। उसके प्रजातांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है।
यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- क्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित है।
सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा।
भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।
प्रजातंत्र को केवल बाह्य स्वरूप में ही नहीं बल्कि वास्तव में बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मेरी समझ से, हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए। इसका अर्थ है, हमें क्रांति का खूनी रास्ता छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग और सत्याग्रह के तरीके छोड़ने होंगे। जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का कोई संवैधानिक उपाय न बचा हो, तब असंवैधानिक उपाय उचित जान पड़ते हैं। परंतु जहां संवैधानिक उपाय खुले हों, वहां इन असंवैधानिक उपायों का कोई औचित्य नहीं है। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही अच्छा है।
दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।
तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।"
(प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित और रुद्रांक्षु मुखर्जी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारत के महान भाषण' से साभार।)