गांधी और दलित प्रश्न

(भारतीय भाषा परिषद में दिया गया व्याख्यान का अंश)
गांधी और दलित प्रश्न
            संजीव खुदशाह
यह सर्वविदीत है कि महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पोषक थे। इसके पीछे वे तर्क देते थे कि यह व्यवस्था विश्व के अधिकांश उन्नत समाजो में देखने मिलती है। वे जाति भेद को वर्ण भेद से अलग मानते थे। वे मानते है कि ''वर्ण व्यवस्था में उंच नीच की भेद वृत्ति नही है।``[1]  वे मनु की तरह वर्गो को उच्च और निम्न बड़ा या छोटा नही मानते है।
गांधीजी के हरिजन उत्थान मुद्दे पर निम्न चार बिन्दुओं को उदघृत किया जाता है जो इस प्रकार है-
१.  पुना पैक्ट जिसमें उन्होने यरवदा जेल में अनशन किया था।
२. अपनी पत्रिका का नाम हरिजन (गांधीजी का अंग्रेजी साप्ताहिक विचार पत्र) रखना।
३. साबरमती आश्रम में अछुत जातियों को शामिल करना।
४. दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन प्रवास करना।
यहां पर हमें गांधीजी के व्दारा समय समय पर किये गये इन कार्यो की एतिहासिकसामाजिक एवं राजनीतिक पहलूओं पर चर्चा करेगें साथ-साथ अपना ध्यान इस ओर भी आकृष्ट करेगे की इस मुद्दे पर उनके विचार क्या थे तथा व्यवहारिक धरातल पर उनके विचार क्या प्रभाव छोड़ते है।
वैसे गांधी के परिप्रेक्ष्य में दलित (यहां हरिजन कहना उचित होगा) के विषय में चर्चा करना एक गैर जरूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा  समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि नगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नही थे।
एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है- ''वर्ण व्यवस्था का सिध्दान्त ही जीवन निर्वाह तथा लोक मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नही मिला तो व्यक्ति उस काम को कार सकता है। बर्शते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करेउसे वह निष्काम भाव सेसेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।`` [2]
यानि जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम मनोरंजन के लिए करें (व्यवसाय के रूप में नही)। इसी प्रकार गाय चराने का पुश्तैनी कार्य करने वाले चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैंलेकिन पूजा से लाभ नही प्राप्त कर सकते । जाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नही चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अत: यहां गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह बंदिश केवल निम्न जातियों के लिए तय की गई ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और अराम तलब तथा उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहां स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।
कहीं-कहीं पर गांधीजी के विचार साफ-साफ बुजुर्वावर्ग को सुरक्षित करने हेतु रखे गये मालूम होते है-गांधीजी के समाज में विश्वविद्यालय का प्रोफेसरगांव का मुन्शीबड़ा सेनापतिछोटा सिपाहीमजदूर और भंगी सब एक से खानदानी माने जायेगे। सबकी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति समान होगी इससे प्रतिष्ठा या आय वृध्दि के लिए धन्ध छोड़कर दूसरा धन्धा करने का प्रलोभन नही रहेगा।[3]
यानि प्रोफेसर और भंगी दोनों खानदानी माने जायेगें। क्यो माने जायेगे कैसे माने जायेगे ये स्पष्ट नही है। लेकिन धन्धा बदलने की पावंदी गांधी स्पष्ट लगाते है। जो आज के दौर में प्रासंगिक बिल्कुल भी नही है। पहले भी नही था। गांधी के करीबी एवं फाईनेन्सर टाटा लुहार तो नही थे लेकिन लुहार का काम (व्यवसाय) करते थे। ऐसे ही कई उनके करीबी थे जो गैरजातिगत पेशा अपनाए हुए थे। गांधी अपनी आत्मकथा में खुद को एक पंन्सेरी बताते है लेकिन सियासत करते थे।
यहां पाठको का ध्यान आकृष्ठ कराना चाहूगां कि गांधीजी ये मानते थे कि गवांर का बेटा गवांर और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे ''मनुष्य अपने पूर्वजो की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह खास गुण लेकर ही पैदा होता है।`` [4]
गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते है। लेकिन एक मेहतर को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नही देते है। वे कहते है कि -अपनी संतानों के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति मेहतर है तथा आधुनिक औषधि विज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति एक चमार किन्तु हम उनके कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है।[5]  गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते है।
वे एक स्थान पर लिखते है कि ब्राम्हण वंश का पुत्र ब्राम्हण ही होगाकिन्तु बड़े होने पर उससे ब्रामहण जैसे गुण नही है तो उसे ब्राम्हण नही कहा जा सकेगा। वह ब्राम्हणत्व से च्युत हो जायेगादूसरी ओर ब्राम्हण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्राम्हण माना जायेगा यद्यपि वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नही करेगा। [6] यानि कोई भी गैर ब्राम्हण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे।
गांधीजी के इन आदर्शो के विपक्ष में डा. अम्बेडकर आपत्ति दर्ज कराते है कि जाति-पांति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदो से भरे बर्तन के समान है। अपने  गुणो के आधार पर कायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की  इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।
ज्यादातर यह माना जाता है कि १९३२ के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा पोशी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। ज्यादातर साथी पूना पैक्ट के बारे में अवगत है। दरअसल स्वतंत्रता पूर्व डा.अम्बेडकर की सलाह पर अंग्रेज प्रधान मंत्री रैम्जले मैक्डोनल्ड ने १७ अगस्त १९३२ में '`कम्युनल अवार्ड`` के अंतर्गत दलितों को दोहरे वोट का अधिकार दिया था। जिसके व्दारा दलितों को यह अधिकार प्राप्त होना था कि आरक्षित स्थानों पर केवल वे ही अपनी पसंद के व्यक्ति को वोट देकर चुन सकते थे तथा समान्य सीटों पर भी वे अन्य जातियों के प्रत्याशियों को वोट देकर अपनी ताकत दिखा सकते थे। गांधीजी इस प्रस्ताव के विरूध्द थे उन्होने यह तर्क दिया कि इससे हरिजन हिन्दुओं से अलग हो जायेगे। उन्होने लगभग ३० दिनों का आमरण अनशन किया। घोर दबाव में दलितों के मसिहा डा.अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलित अपने अधिकार से वंचित हो गये। इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।
पूना पैक्ट के संदर्भ में यरवदा जेल में हुए इस अनशन में गांधीजी जीत तो गये लेकिन उन्होने दलितों की समस्या को काफी करीब से देखा एवं महसूस किया। शायद उनके अंदर जलती हुई पश्चाताप का नतीजा ही रहा होगा कि उन्होने अपनी हरिजन सेवक नाम की हिन्दी साप्ताहिक विचार पत्रिका प्रारंभ १९३२ की तथा काफी सारे लेख अस्पृश्यता पर केन्द्रित करते हुए लिखां उन्होने अपने आश्रम में पैखाने सफाई हेतु लगे भंगी को हटा कर पारी-पारी सभी को पैखाने सफाई कराने के निर्देश दिये। जिस पर उनका उनकी पत्नी से तकरार भी हुई।
ऐसा कहा जाता है कि महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होने ''हरिजन`` शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही  इस्तेमाल करना शुरू किया था। दूसरा वाक्या अकसर सुनाया और बार-बार दोहराया जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि-''यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूंगा।`` अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति पे्रम को साबित करने के लिए सुनाते है।
एक दलील और भी दी जाती है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएं उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी वही यहां उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूगां। [7]
यानि गांधीजी खुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन १२ जनवरी सन १९३४ में वे लिखते है-''एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।`` यानि गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वकालत करते नजर आते है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रसिध्द अधिकारी कर्नल सलीमन ने अपनी पुस्तक "RAMBLINGS IN OUDH" सफाई कर्मचारियों की १८३४ की हड़तालों का जिक्र किया है। इस पुस्तक से जाहिर है कि सफाई कर्मचारियों की हड़ताल से वे परेशान थे। परन्तु गांधीजी जो सिविल नाफरमानीहड़तालो और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थेभंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे। [8]
१९४५ में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारो का समर्थन कर हड़ताल जल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे किन्तु उन्होने उल्टे अंग्रेज सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है।
''सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के खिलाफ मेरी राय वही है जो १८९७ में थी जब मै डरबर (द.अफ्रीका) में था। वहां एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिएमैने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।`` [9]
इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है-
''विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमजोरी की निशानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नही छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीके उपलब्ध है।`` यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मागांधी की दृष्टी में अवैध है।
गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमानब्राम्हण या शूद्र नही होगाबल्कि उसकी महचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृश्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूंढना जरूर कहा जाएगा कि जब जक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरा की आशा नही की जा सकती। अत: वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है।
इस व्यवस्था के औचित्य के लिए शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करना उचित नही। अम्बेडकर ने कहा-शास्त्रों के आदेशो के कारण ही हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन बना हुआ है जिसने हिन्दुओं में उंच-नीच की भावना उत्पन्न की हैजो अस्पृश्यता का मूल कारण है। स्पष्ट है आधुनिक युग में वर्ण विभाजन के आधार पर हिन्दू समाज का संगठन उचित प्रतीत नही होता।
डा.अंबेडकर इस बारे में आगे कहते है- ''हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार पर पुन: संगठित करना चाहिए जो स्वतंत्रतासमता और बन्धुता के सिध्दान्त को स्वीकार करता हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की अलंध्यता तभी नष्ट की जा सकती हैजब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।``
आखिर में यही कहा जा सकता है कि दलित संदर्भ में गांधी के विचार प्रासंगिता की कसौटी पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े करते है। बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में कस कर देखते। तथा सभी को उच्च कोटि के व्यवसाय अपनाने की आज्ञा देते। समाज में उच्च कोटी तथा निम्न कोटी के व्यवसाय दोनो की जरूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आजादी गांधी क्यों नही देतेंक्यो उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष  लेते हैआखिर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही हैं । इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है।

[1] महात्मा गांधी यंग इन्डीया 29/12/1920
[2] पृष्ठ क्रमांक 122, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[3] पृष्ठ क्रमांक 123, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[4] पृष्ठ क्रमांक 126, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[5] पृष्ठ क्रमांक 102, महात्मा- तेन्दुलकर जी.डी. भाग-पब्लिीकेषन डिवीजन भारत सरकार नई दिल्ली
[6] महात्मा गांधी यंग इन्डिया 17 जुलाई 1925
[7] पृष्ठ क्र. 27 बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां लेखक भगवान दास प्र. दलित टुडे प्रकाषन लखनउ 226016
[8] पृष्ठ क्र. 31 बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां लेखक भगवान दास प्र. दलित टुडे प्रकाषन लखनउ 226016
[9] Removal of Untouchability by M.K.Gandhi Harijan 21-4-46

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हम दलित मुव्हमेंट ऐशोसियेशन की दलित उत्थान पत्रिका का दूसरा अंक निकालने जा रहे है। आप सभी बंधुओं से निवेदन है कि अपनी रचनाएं अनुभव जो कुछ भी आपके मन में हो हमें भेजे, हम अवश्य इस पत्रिका में शामिल करेगें।
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संजीव खुदशाह
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1. दलित उत्थान पत्रिका

Fwd: [D.M.A.-:1855] आमिर खान सचमुच बधाई के पात्र हैं

             आमिर खान के सत्य मेव जयते के ८ जुलाई  २०१२ के एपिसोड पर  बुद्धिजीवियों की जो प्रतिक्रियाय्रें फेसबुक पर आयीं हैं, उनमें अधिकाँश निराश करने वाली हैं. ऐसा लगता है कि जिस तरह  वाल्मीकि समाज के लोगों ने उसे काफी पसंद किया है, उस तरह से  अन्य लोगों ने उसका स्वागत नहीं किया है. कुछ ने इसे गांधीवादी माडल से परोसा गया प्रोग्राम बताया है, तो कुछ की शिकायत यह है कि इसमें डा. आंबेडकर और उनके जाति उन्मूलन आन्दोलन का  जिक्र नहीं किया गया है. कुछ का यह कहना है कि आमिर खान नाम का आदमी सरोकार का धंधा कर रहा है, इसलिए वे इस प्रहसन को महत्व नहीं देते.  किसी ने यह भी कहा कि आमिर खान मैला उठाने के इशु को भी भुना रहा है. एक टिप्पणी यह भी है कि इस समस्या को समझने में आमिर खान ने बहुत ज्यादा समय लगा लिया. और भी बहुत सारी टिप्पणियां हैं, पर मुख्य रूप से दलित बुद्धिजीवी इसलिए ज्यादा नाराज़ हैं कि आमिर खान ने डा. आंबेडकर का उल्लेख क्यों नहीं किया? 
            मेरी समझ में नहीं आता कि ये कैसी सामजिक चिताओं के बुद्धिजीवी हैं कि दलित गरिमा के इतने जरुरी और महत्वपूर्ण सवाल को उठाने वाले प्रोग्राम का भी उन्होंने स्वागत नहीं किया. आमिर खान ने इस एपिसोड  में जिस शिद्दत से मानवीय गरिमा को केंद्र में रखा है, वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है. इसमें वाल्मीकि समुदाय की पीड़ा को ही नहीं, बल्कि चमारों की पीड़ा को भी दिखाया  गया है. केवल  हिन्दू समाज ही नहीं, बल्कि उसमें   मुस्लिम, ईसाई और सिख समाजों में  मौजूद जातिभेद का गन्दा चेहरा भी  दिखाया गया है.  मगर खेद है कि इन समाजों के लोगों की इस पर कोई टिप्पणी पढने को नहीं मिली. यह गाँधी और आंबेडकर के नज़रिए से जातिवाद पर बहस करने वाला कोई दार्शनिक  कार्यक्रम नहीं था, वरन यह एपिसोड देश के भद्र जनों की आँखों का जाला साफ़  करने के लिए था, ताकि वे  इक्कीसवीं सदी में भी छुआछूत और जातिभेद की भयानक मौजूदगी को देख लें.  माना  कि आमिर खान ने  पैसों के लिए सत्य मेव जयते बनाया है, इसमें सरोकारों के व्यवसायीकरण की बात भी गलत नहीं है, पर क्या इस आधार पर किसी रचनात्मक काम की आलोचना की जानी चाहिए?  जो व्यावसायिकता गंभीर सामजिक मुद्दों पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करती हो, जिसने  सरकारों तक को झकझोर दिया हो, उस व्यावसायिकता को कोसना सही समझ  नहीं है. इसी  बिना पर यदि कोई इसे आमिर खान का नाटक या प्रहसन समझता है, तो मुझे पक्का यकीन है कि सरोकारों से उसका रिश्ता हीनहीं है. संभवता ऐसे ही लोग आमिर खान का कार्यक्रम देख कर सवर्ण अस्मिता का सवाल उठा रहे हैं. क्या व्यवसायिकता के सन्दर्भ में उन दलित एन जी ओ  पर बात न करें, जो करोड़ों रूपये खर्च करके भी एक भी दलित समस्या पर देश का ध्यान आकर्षित नहीं कर सके, सिवाय सफाई कर्मचारी आन्दोलन को छोड़ कर; जिसके लीडर बेजवाडा बिलसन हैं. केवल इसी व्यक्ति को देश के चारों कोनों में जन आन्दोलन करने और सुप्रीम कोर्ट में मामला ले जाने का श्रेय जाता है. 
           मेरे लिए यह बड़ी ख़ुशी की बात है कि आमिर के प्रोग्राम को वाल्मीकि समाज के लोगों ने बहुत पसंद किया है. यह इसलिए भी कि इस  प्रोग्राम ने मैला साफ़ करने वाले लोगों की विचलित कर देने वाली जिन्दगी पर ज्यादा फोकस किया है. मुझे पूरा यकीन है कि इस ग्राम को देख कर बहुत से वाल्मीकि युवक-युवतियों में पढने के लिए संघर्ष की ललक पैदा हुई होगी. पर, उनमें से किसी ने भी गाँधी और बेडकर का सवाल नहीं उठाया. और न ही उन्होंने आमिर खान की नीयत पर सवाल उठाया है. बस आंबेडकर के नाम से वास्ता रखने वाले लोग  ही ये सवाल उठाया करते हैं. आंबेडकर मौजूद हैं, तो वे खुश, गाँधी गायब हैं, तो और भी खुश. ऐसे लोगों का क्या किया जाये, जो सिर्फ आंबेडकर का फोटो पोस्ट करने और जय भीम लिखने के सिवा कुछ नहीं करते. जब आमिर खान के प्रोग्राम में आंबेडकर का जिक्र न किये जाने की बात चली है, तो मुझे लगता है कि यह जिक्र डा. कौशल पवार अच्छे ढंग से कर सकतीं थीं. इस प्रोग्राम से यदि कोई हीरो बना है, तो डा. कौशल पवार ही बनीं हैं. जिस बेबाकी से उन्होंने अपनी पीड़ा और संघर्ष गाथा को प्रोग्राम में रखा, उस पूरी बातचीत में यदि वे डा. आंबेडकर को याद नहीं कर सकीं, तो जाहिर है कि आंबेडकर का उनकी जिंदगी में कोई रोल नहीं है. या वे भी वाल्मीकि समाज के उन लाखों लोगों में एक  हैं, जो आज भी आंबेडकर से नहीं जुड़े हैं. डा. कौशल लेखिका भी हैं, पर उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. यदि 
लिखी होती, तो वे  हिंदी में पहली आत्मकथा लेखिका होतीं. मेरा सुझाव है कि वे आत्मकथा जरूर लिखें. 
        आमिर खान सचमुच  बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने दलित गरिमा के सवाल को  पूरे राष्ट्र की गरिमा का सवाल बनाने का सबसे जरूरी काम किया है. 
                
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अब आसानी से बनेगा जाति प्रमाण पत्र


(गौर तलब है कि सिर्फ छत्तीसगढ में दलितों एवं आदिवासियों को जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए तरह-तरह से उल्झाया जा रहा है। जिसके विरूध में हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद शासन के कानों जूं तक नही रेगती।)

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की एकलपीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में जाति प्रमाणपत्र के लिए १९५० के भू-अभिलेखों की अनिवार्यता नहीं होने की बात कही है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को इसके बिना नियमानुसार जाति प्रमाणपत्र बनाकर देने के निर्देश दिए हैं।
कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ निवासी रामसजीवन ने मनेंद्रगढ़ एसडीओ के समक्ष स्थाई जाति प्रमाणपत्र बनवाने आवेदन दिया था। १९५० के पूर्व के भू-अभिलेख रिकार्ड प्रस्तुत नहीं करने पर उसके आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इस पर उसने अधिवक्ता जितेंद्र पाली एवं मतीन सिद्दीकी के माध्यम से हाईकोर्ट में याचिका लगाई। इसमें बताया गया कि १९७० में उनके पिता की नियुक्ति एसईसीएल में हुई। उन्हें छत्तीसगढ़ के कोयलांचल एरिया में पदस्थ किया गया। १० दिसंबर १९८१ गंज उसका जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ। छत्तीसगढ़ शासन के सर्कुलर दिनांक २७ जून २००७ को छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार वह व्यक्ति जो केंद्र सरकार की नौकरी में छत्तीसगढ़ में पदस्थ हैं, वह उनकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। छत्तीसगढ़ शासन के कर्मचारी उसकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक हैं। संवैधानिक पद पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हुआ व्यक्ति उसकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक होंगे। निगम, एजेंसी, कमिशन बोर्ड, बोर्ड के कर्मचारी व उनकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक होंगे, परंतु उनकी जाति प्रेसीडेंटल आर्डर में दर्ज होनी चाहिए। याचिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायादृष्टांत कुमारी माधुरी विरुद्ध एडिशनल कमिश्नर, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की डीबी से पारित आदेश नरेंद्र डहरिया विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन में हुए निर्णय को प्रस्तुत किया गया। याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सतीश अग्निहोत्री ने अंतिम आदेश पारित कर एसडीओ मनेंद्रगढ़ को कहा है कि वे नियमानुसार याचिकाकर्ता को जाति प्रमाणपत्र बनाकर दें, इसके लिए १९५० का भू-अभिलेख रिकार्ड नहीं मांगा जाना चाहिए।
यदि इससे संबंधित कोई आदेश आपके पास मौजूद हो तो क़पया इस ईमेंल पर प्रेषित करने का कष्ट करें।

movementassociation.dalit@gmail.com

Fwd: प्रेस विज्ञप्ति

दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन का वार्षिक सम्मेलन तथा डॉ अम्बेडकर जयंती समारोह

 १४ अप्रैल २०१२ को दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन के तत्वाधान में डोमार-हेला महासम्मेलन तथा डॉं अम्बेडकर जयंती समारोह का आयोजन ऐसेमबली हाल, गास मेमोरियल सेन्टर, जय स्तंभ चौक रायपुर में किया गया। इस कार्यक्रम में अनुसूचित जाति आयोग के सचिव श्री एच.के.सिंह उईके, जी मुख्य अतिथी के रूप में उपस्थीत थे। सबसे पहले श्री हरीश कुण्डे जी ने इस कार्यक्रम तथा एसोसियेशन का परिचय दिया। प्रथम सत्र का संचालन श्रीमति जयश्री मानकर ने किया इस सत्र के वक्ता के रूप में बिलासपुर से आये श्री विश्वनाथ खुदशाह ने बाबा साहेब के द्वारा इस समाज पर किये गये उपकार पर प्रकाश डाला। तत्पश्चाल श्री ब्रजमोहन मानकर ने अपने वक्तव्य में कहा कि इस कार्यक्रम में समाज के लोग ज्यादा इस लिए नही आना चाहते क्योकि वे डरते है कि उनकी जाति की पोल न खुल जाये। मुख्य अतिथी श्री एच.के.सिंह उईकेजी ने अनुसूचित जाति आयोग के व्दारा दिये जाने वाली राहत एवं सुविधाओं की जानकारी दी। उन्होने बताया की जब तक दलित समाज एकजुट होकर बाबासाहेब के बताए रास्ते पर नही चलेगा। तब तक इस समाज का व्यक्ति तरक्की तो करेगा किन्तु बिखरा रहेगा। 
इस कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथी के रूप में उपस्थीत श्री सच्चिदानंद उपासनेजी ने दलित मुव्हमेंन्ट एशोसियेशन द्वारा प्रकाशित वार्षिक दलित उत्थान पत्रिका का लोकार्पण किया दलित लेखक श्री संजीव खुदशाह द्वारा संपादित इस पत्रिका की, श्री उपासनेजी ने भूरी भूरी प्रसंशा कि एवं कहा की डा अम्बेकर ने सिर्फ दलित समाज के लिए ही नही बल्की पूरे समाज में समता के लिए कार्य किया। आज वे सभी समता वादीयो के लिए प्रेरणा श्रोत है।
इस कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में भेघावी बच्चो को सम्मान दिया गया। इसी सत्र में जाति प्रमाण पत्र में आने वाली दिक्कतों एवं आरक्षण कोटे में ४ प्रतिशत की कमी किये जाने पर चर्चा की गई। बिलासपुर से आये श्री अनंत हथगेनजी ने आरक्षण व्यवस्था एवं जाति प्रमाण पत्र विषय पर गंभीरता से उदबोधन देते हुए कहा कि जिन छोटी छोटी दलित जातियों का जाति प्रमाण पत्र नही बनता है उनके बारे में यहां की बहुसंख्यक दलित जाति का कोई मददगार रवैया नही रहता है। यह फूट डालो राज करो नीति जैसा है।  
सत्र के अंत में एक समाजिक समस्याओं के उपचार हेतु ऐजेण्डे का अनुमोदन किया गया तथा एक समाज भवन रायपुर में निर्माण किये जाने पर सहमती जताई गई। यह भी तय किया गया कि एक प्रतिनीधि मंडल अपनी समस्याओ को लेकर मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन सौपेगा। इस कार्यक्रम में लगभग सभी जिलो से आये लोग शमिल हुऐ। इसे सफल बनाने में दलित मुव्हमेंन्ट ऐसोसियेशन के स्टेट कनवेनर डिस्ट्रीक्ट कनवेनर तथा समाजिक कार्यकर्ताओं ने बड़ा सहयोग दिया जिनमें शामिल है दिनेश पसेरिया, गणेश त्रिमले, ललित कुण्डे  तथा अनंत हथगेन।

भवदीय


हरीश कुण्डे
स्टेट कनवेनर
दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन



Buddha is not an incarnation of Vishnu.

बुध्द पूर्णीमा पर विशेष

बुध्द विष्णु के अवतार नही है।

संजीव खुदशाह 
पिछड़ा वर्ग के अध्ययन से बुद्ध की जाति पर पुनर्विचार करना लाजमी है, क्योंकि इस जाति के आधार पर ही बुद्ध को ब्राम्हणों द्वारा विष्णु के दसवें अवतार के रूप में प्रतिस्थापित किया गया। इसी प्रतिस्थापना के खेल में बुद्ध की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर दिया गया, क्योंकि इस स्थापना से बुद्धिजम का सीधे संविलियन हिन्दुइज्म में ही जाता है।

वास्तव में यह कोशिश हिन्दुवादियों द्वारा बुद्धिवादियों के पचाने की है। इस कोशिश के पीछे आम जनता में 'पिछड़ा वर्ग' अपनी प्रभुता कायम रखना रहा है। इसके एक मनतव्य यह भी रहा है कि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक छोटी से शाखा प्रतीत हो तथा बुद्ध धर्म के प्रति आकर्षण खत्म हो जाये । ब्राम्हणवाद इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी रहा। वास्तव में अब बुद्ध का जाति पर पुनर्विचार किये जाने की नितांत आवश्यकता है। इस बात के प्रमाण अवश्य मिले हैं कि शाक्य जाति के थे, लेकिन ये जाति शूद्रों में शुमार होती थी।
बुद्ध को क्षत्रिय कहने का सबसे बड़ा कारण उनका शासक का पुत्र होना है, जबकि शासक किसी भी जाति का हो सकता था। ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं जिनमें यह तथ्य उभरकर आता है कि निचली जाति का व्यक्ति शासक बनने पर अपनी वंशवाली में सुधार कर क्षत्रिय जाति में स्थापित हो जाता है। ऐसे कृत्यों के ताजा उदाहरणों में महाराष्टं के शिवाजी तथा बंगाल के सेन वंश को लिया जा सकता है। इस आधार पर बुद्ध को शाक्य शूद्र वंश का कहने में कोई जल्दबाजी नहीं होगी, बल्कि कई जगह बुद्ध द्वारा ब्राम्हण के साथ वार्तालाप में शाक्यों का पक्ष लेते हुए विवरण दिया गया है, लेकिन बुद्धकाल में शाक्यों की जाति प्रतिष्ठि थी, ऐसा विवरण भी मिलता है। पहला प्रश्न यह उठता है कि बुद्ध हिन्दु थे या नहीं, तो उसका यह जवाब प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह किया जा सकता है कि वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये, बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई, साधारण भाषा में कहंे तो हिन्दुओं से मिल गए। चूंकि वे शासक वर्ग के थे अनचाहे ही क्षत्रिय होने का दर्जा पा गये, किन्तु महात्मा बुद्ध अपने कई उपदेशों में शाक्य होने का वर्णन करते हैं तथा शाक्यों का भरपूर पक्षपात करने की चेष्टा करते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि उस समय शाक्य एवं ब्राम्हण में वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति थी और बुद्ध धर्म का फैलना यह सिद्ध करता है कि शाक्यों ने अथवा बुद्ध ने हिन्दूवाद को जबरदस्त शिकस्त दी थी। 
गौरतलब तथ्य यह है कि बुद्ध ने कभी अपने-आपको क्षत्रिय नहीं कहा। बुद्ध और ब्राम्हण के वार्तालाप में एक जगह ब्राम्हण ने शाक्य को नीच शूद्र जाति बताया। इस पर अम्बष्ट माणवक का उनर ध्यान देने योग्य है-''श्रवण गौतम दुष्ट हैं। हे गौतम! शाक्य जाति चण्ड है। है गौतम! शाक्य जाति शूद्र है। हे गौतम! शाक्य जाति बकवादी है। इभ्य समान होने से शाक्य जाति ब्राम्हणों का सत्कार नहीं करते, ब्राम्हणों का मान नहीं करते, गुरूकार नहीं करते, ब्राम्हणों की पूजा नहीं करते।  इस बात से इस संभावना को और बल मिलता है कि ब्राम्हणों ने शाक्यों को इसी संघर्ष के कारण शूद्र में ढकेल दिया गया। बुद्ध काल में वे बुद्ध को शूद्र कहते रहे, बाद में लगभग 1000 साल बाद स्मृति काल में अचानक ब्राम्हणों ने बुद्ध को क्षत्रिय बना लिया, क्योंकि क्षत्रिय वर्ग ब्राम्हण का अनुगामी था। बुद्ध को क्षत्रिय बताने के दो फायदे थे1 उन्हें शूद्र से सीधे क्षत्रिय में पदोन्नत करने पर बुद्धवाद पर हिन्दुवाद लादा जा सकता था तथा तमाम आम जनता पिछड़ा वर्ग जो बुद्धिष्ठ थी, को बिना अनुष्ठान के ही हिन्दू में तब्दील किया जा सकता था।  यदि उन्हें शूद्र की संज्ञा दी जाती तो वे शूद्रों के स्थाई एवं अकाट्य भगवान बन जाते। उन्हें शूद्रों से अलग नहीं किया जा सकता और पूरी जनता हिन्दू धर्म से अलग मानी जाती । शाक्य कौन थे? श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय जी अपने अध्ययन लोकायत में बुद्ध को एक जनजाति समाज का बताते है और तथ्य देते हैं। 
बुद्ध स्वयं शाक्य थे। यह याद रखना आवश्यक है कि उस समय शाक्य जनजातीय चरण में थे, यद्यपि विकास के काफी उच्च स्तर तक पहुंच चुके थे। कुछ अगे्रज विद्वान भी इस तथ्य को नहीं पकड़ पाए । आगे श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय जी लिखते हैं कि ''शाक्य जनजाति के अंदर संभवत: कई कबीले 'गोत्र' थे। स्वयं बुद्ध गौतम ''गोत्र'' से थे। ऐसा कहा गया है कि यह ब्राम्हण कबीला था जो प्राचीन इसी १ऋषि१ गौतम के वंशज होने का दावा करते थे किन्तु इसका प्रमाण बहुत मामूली है । हमेंे कहीं भी यह नहीं मिलता कि शाक्य स्वयं को ब्राम्हण कहते हों। दूसरी और कई ऐसे कबीले हैं, जो इस आधार पर बुद्ध के अवशेषों के कुछ भाग पर अपना दावा करते हैं कि बुद्ध की भांति वे भी खनिय थे ।
यह खनिय का अर्थ योद्धा है१ इस प्रकार देवीप्रसाद जी शाक्य में जनजातीय होने के तथ्य देते हैं। भगवान बुद्ध का जन्म 567 ई.पू. तथा निर्वाण 487 ई.पू. माना जाता है। पिता का नाम शुद्दोधन और माता का नाम महामाया था। शुद्धोधन कपिलवस्तु गण के राजा थे। वे शाक्य जाति के इक्ष्वाकु वंश में थे। डॉ. बुद्ध प्रकाश कहते हैं कि यक्षु शब्द अक्वासा, अक्कका, यकाकू, यक्यू व इक्ष्वाकु का बदला हुआ रूप है। इनका सम्बन्ध उन हाइकसोस से हो सकता है जो सेमिटिक लोग थे जिनहोंने 19750 ई.पू. में मिश्र पर आक्रमण किया था । ये लोग मूल रूप से भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लम्बे सिर वाले द्रविड़ लोग थे अर्थात बुद्ध आर्य नहीं थे । अनार्यो की तरह शाक्यों में गणतंत्र गणसंघ व्यवस्था थी । शाक्यगण वज्जीसंघ का एक घटकगण था । इसी प्रकार शाक्यों मेंे मातृप्रधान परिवार व्यवस्था थी ।`` श्री नवल वियोगी संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि ''शाक्य बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्वाकुओं की संतति से था । उनके धार्मिक जीवन के प्रारंभ में उन्हें नागराजा मुचलिंदा की शरण व सुरक्षा प्राप्त थी । जीवन पर्यंत नागों के साथ मित्रता के संबंध रहे और मुत्यु के समय के नाग राजाओं ने उनके अस्थि अवशेषों में से अपना हिस्सा मांगा और प्राप्त करने पर उन पर स्तूपों का निर्माण किया । डॉ नवल वियोगी अपनी इस बात के समर्थन में आगे कहते हैं कि -''बुद्ध धर्म तथा असुर नागों की संतानों में निकटता के क्या संबंध थे, इसके प्रमाण अमरावती व सांची के महास्तूपों के मूर्तियों तथा उभरे हुए चित्रों में मिलते हैं । इन महास्तूपों में हमें नागलोक, भगवान बुद्ध तथा उनके चिन्हों का सम्मान अथवा पूजा करते हुए दिखाई पड़ते हैं ।- - - इनमें से कुछ में बुद्ध के सिरों को फैले हुए सात नागफनों की सुरक्षा में देखा जाता है । यह नागफन नाग राजाओं की मुख्य पहचान है । ऐसा लगता है अवश्य ही बुद्ध व नाग जातियों में कोई खून का संबंध था ।`` अत: उपर्युक्त अध्ययन से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं । १. बुद्ध को क्षत्रिय कहने के पीछे केवल एक ही दावा है कि वो राजा की संतान है। यह एक बहुत ही हल्का दावा है । २. बुध़्द द्वारा कई जगह शाक्य का पक्ष लेते हुए ब्राम्हणों से विवाद करना तथा ब्राम्हणों द्वारा शाक्यों को नीचा दिखाने की कोशिश यह सिद्ध करती है कि शाक्य निश्चित रूप से वर्ण व्यवस्था से बाहर की जाति थी, क्योंकि शाक्यों के क्षत्रिय होने पर ब्राम्हणों द्वारा नीचा दिखाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । ३. श्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का तर्क कि शाक्य जनजातीय थे, बिना ठोस तथ्य के स्वीकार योग्य नहीं है, किन्तु ब्राम्हण नहीं है । 'गौतम` गोत्र के आधार पर उनके तर्क स्वीकार योग्य हैं । यदि थोड़ी देर के लिये श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय का जनजातीय वाला तर्क स्वीकार कर लिया जाये तो श्री नवल वियोगी के द्वारा अनार्य होने के लिए दिये गये तथ्य उन्हें अनार्य तो सिद्ध करती है, किन्तु 'जनजातीय' होने पर अभी और पुष्टि की अपेक्षा है । ४. अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर इस नतीजे पर पहु!चा जा सकता है कि बुद्ध आर्य नहीं थे, न ही क्षत्रिय थे, किन्तु बुद्ध के नागवंशी संतति होने के स्पष्ट प्रमाण भी नहीं मिलते हैं । 5 डॉ. बुद्ध प्रकाश द्वारा प्रस्तुत तर्क कि` बुद्ध अनार्य है, स्वीकार योग्य है, क्योंकि अनार्य की विशेषता थी – 1गणतंत्र व्यवस्था 2. मातृप्रधान परिवार 3. द्रविड़ की तरह लम्बे सिर की बनावट ४. बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्काकुओ से था, जो कि अनार्य वंश से सम्बन्धित थे। अत: इस निष्कर्ष की पुष्टि देती है कि बुद्ध भारत के मूलवासी अनार्य की संतान थे। इतिहास से ऐसा ज्ञात होता है कि बौद्ध शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुद्ध की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हें विष्णु का दसवां अवतार भी इसी काल में बनाया गया । यह प्रव्यि बौद्धों का हिन्दुकरण कहलाती है
टीप:-इस लेख को प्रकाशित किया जा सकता है बशर्ते इसके स्त्रोत का उल्लेख अवश्य करते हुऐ हमें सूचीत करे।
पुस्तक अंश -आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं) प्रकाशक शिल्‍पायन नई दिल्‍ली लेखक- संजीव खुदशाह 

निर्मल बाबा के बहाने बेपर्द न्यूज़ चैनल


नर्मलजीत सिंह नरुला
जो इन दिनों निर्मल बाबा के नाम से देश के 39 टीवी चैनलों पर काबिज हैं, चतरा, झारखंड से निर्वाचित लोकसभा सांसद इंदरसिंह नामधारी के साले हैं। निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह ने इससे पहले झारखंड में ठेकेदारी की, ईंट भट्टा चलाया, कपड़े की दुकान खोली और जब सब जगह से हताश और विफल हो गए तो सब कुछ छोड़ कर दिल्ली चले आए। यहां आकर उन्होंने ‘समागम’ शुरू किया, जिसमें देश के हजारों लोग शामिल होते रहे हैं। वर्चुअल स्पेस यानी इंटरनेट पर निर्मल बाबा से जुड़ी इस तरह की खबरें पिछले एक महीने से चल रही थीं।मीडिया से जुड़ी वेबसाइटें लगातार इस खबर की फॉलो-अप खबरें दे रही थीं। जबकि एकाध चैनलों को छोड़ दें तो देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय चैनलों पर लाखों रुपए लेकर निर्मल बाबा दरबार और समागम से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित होते रहे। इन कार्यक्रमों में भोले श्रद्धालुओं को समस्याओं के टोटके सुझाए जाते थे। जहां तुक्का सही लगा, ‘बाबा’ उसे अदृश्य शक्ति की ‘किरपा’ बताते, जो उनके जरिए श्रद्धालु तक पहुंची! इस बीच इंडीजॉब्स डॉट हब पेजेज डॉट कॉम ने निर्मल बाबा के फ्रॉड होने का सवाल उठाया। उसे निर्मल दरबार की ओर से कानूनी नोटिस भेजा गया और सामग्री हटाने को कहा गया। अब वह पोस्ट इस वेबसाइट से हटा ली गई है। इसके बाद कई मीडिया वेबसाइटों को कानूनी नोटिस दिए जाने की बात प्रमुखता से आती रही। लेकिन किसी भी चैनल ने इससे संबंधित किसी भी तरह की खबर और निर्मल बाबा के विज्ञापन की शक्ल में कार्यक्रम दिखाए जाने को लेकर स्पष्टीकरण देना जरूरी नहीं समझा। टोटके जारी रहे और लंबे-चौड़े ‘कार्यक्रम’ से होने वाली भारी-भरकम कमाई भी। 11 अप्रैल को झारखंड से प्रकाशित दैनिक प्रभात खबर ने ‘‘कौन है निर्मल बाबा’’ शीर्षक से पहले पन्ने पर खबर छापी और फिर रोज उसका फॉलो-अप छापता रहा। हालांकि अखबार की इस खबर में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे पहले सोशल वेबसाइट और फेसबुक पर शाया न किया गया हो। लेकिन सांसद इंदरसिंह नामधारी का वह वक्तव्य प्रकाशित किए जाने से उन खबरों की आधिकारिक पुष्टि हो गई, जिसमें निर्मलजीत सिंह के अतीत का हवाला भी था। सबसे पहले 12 अप्रैल की शाम स्टार न्यूज ने ‘‘कृपा या कारोबार’’ नाम से निर्मल बाबा के पाखंड पर खबर प्रसारित की। चैनल ने दावा किया कि वह इस खबर को लेकर पिछले एक महीने से तैयारी कर रहा है, लेकिन उसकी इस खबर में उन्हीं बातों का दोहराव था, जो सोशल मीडिया पर प्रकाशित होती आई थीं। यहां तक कि निर्मल बाबा की कमाई के जो ब्योरे दिए, वे समागम में शामिल होने वाले लोगों और उनकी फीस को लेकर अनुमान के आधार पर ही निकाले गए थे। चैनल ने वह कार्यक्रम प्रसारित करने से पहले जो स्पष्टीकरण (डिस्क्लेमर) दिया, वह भी अपने आप में कम दिलचस्प नहीं था। बताया गया कि वह खुद भी निर्मल बाबा के कार्यक्रम को विज्ञापन की शक्ल में प्रसारित करता आया है, जिसे अगले महीने 12 मई से बंद कर देगा। किसी दूसरे विज्ञापन की तरह ही चैनल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इस विज्ञापन की पूरी जिम्मेदारी निर्मल बाबा की संस्था निर्मल दरबार के ऊपर है। इसका मतलब है, चैनल निर्मल बाबा के खिलाफ खबर के बावजूद एक महीने तक पाखंड भरे विज्ञापन रूपी कार्यक्रमों को प्रसारित करता रहेगा। इस स्पष्टीकरण और आगे के प्रसारण को लेकर दो-तीन गंभीर सवाल उठते हैं। पहली बात तो यह कि 12 अप्रैल को जब चैनल को पता चल जाता है कि निर्मल बाबा पाखंडी है और दुनिया भर में अंधविश्वास फैलाने का काम कर रहा है, फिर भी व्यावसायिक करार के चलते इसका प्रसारण करता रहेगा। क्या किसी चैनल को कुछेक लाख रुपए के नुकसान की बात पर देश के करोड़ों लोगों के बीच अगले एक महीने तक अंधविश्वास फैलाने की छूट दी जा सकती है, जिसे वह खुद विवाद के घेरे में मानता है। दूसरा, अगर निर्मल बाबा समागम के कार्यक्रम विज्ञापन हैं तो स्टार न्यूज ही क्यों, बाकी न्यूज चैनल भी उसे ‘‘कार्यक्रम’’ की शक्ल में क्यों दिखाते आए हैं? उसे कार्यक्रमों की सूची में क्यों शामिल किया जाता रहा है? क्या किसी दूसरे विज्ञापन के बारे में चैनलों पर कभी बार-बार बताया जाता है कि कौन विज्ञापन कब-कब प्रसारित होगा? चैनलों का इस कदर पल्ला झाड़ लेना कि चूंकि यह विज्ञापन है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी नहीं है, क्या सही है? पैसे के दम पर विज्ञापन देकर कोई भी कुछ भी प्रसारित करवा सकता है? फिर आने वाले समय में राजनीतिक विज्ञापन और पेड न्यूज से किस तरह लड़ा जा सकेगा? क्या यह पिछवाड़े से पेड न्यूज का प्रवेश नहीं है, जो पैसा देकर वह सब प्रसारित करवा ले, जो विज्ञापनदाता और विज्ञापन पाने वाले के हित में है, मगर समाज के अहित में? सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित मीडिया मॉनिटरिंग सेल जब कभी बैठक करता है और चैनलों को स्कैन करके जो रिपोर्ट जारी करता है, उसके साथ विज्ञापन के निर्देश भी नत्थी करता है। क्या न्यूज चैनलों के लिए वह सब निरर्थक है? तीसरी, इन सबसे बड़ी बात यह है कि अगर ये विज्ञापन थे- जो थे ही- तो फिर टीआरपी चार्ट में उन्हें बाकायदा चैनल कंटेंट के रूप में क्यों शामिल किया जाता है? न्यूज 24, जिसने सबसे पहले निर्मल बाबा के विज्ञापन को कमाई का जरिया बनाया, जिसका एक भी कार्यक्रम (कालचक्र को छोड़ दें तो) टॉप 5 में नहीं रहा, पिछले दो महीने से निर्मल बाबा पर प्रसारित विज्ञापन इस सूची में शामिल रहा है? क्या इससे पहले कोई और विज्ञापन बतौर चैनल कंटेंट टीआरपी चार्ट में शामिल किया गया है और उसके दम पर चैनल की सेहत सुधारने की कवायद की गई है? गोरखधंधे का यह खेल क्या सिर्फ निर्मल बाबा और टीवी चैनलों तक सीमित है या फिर इसका विस्तार टीआरपी सिस्टम तक होता है? निर्मल बाबा के इस विज्ञापन ने टीवी चैनलों के व्याकरण और सरकारी निर्देशों को किस तरह से तहस-नहस किया है, इसे कुछ उदाहरणों के जरिए बेहतर समझा जा सकता है। हिस्ट्री चैनल, जो कि अपने तर्कसंगत विश्लेषण, शोध और तथ्यपरक सामग्री के लिए दुनिया भर में मशहूर है, वहां भी निर्मल बाबा समागम के कार्यक्रम बिना किसी तर्क और स्पष्टीकरण के प्रसारित किए जा रहे हैं। सीएनएन आइबीएन चैनल, जो कि स्टिंग ऑपरेशन के मामले में अपने को बादशाह मानता रहा है, वहां भी निर्मल बाबा का विज्ञापन चलाने के पहले उनकी पृष्ठभूमि की कोई पड़ताल शायद नहीं की गई। आजतक ने सप्ताह के बीतते हुए सच को जानने-बताने का जरूर जतन किया, कुछ तार्किक लोगों से बात की, जिन्होंने निर्मल बाबा का उपहास किया। लेकिन निर्मल बाबा से की गई ‘एक्सक्लूसिव’ बातचीत काफी नरम थी। क्या यह अकारण है कि निर्मल बाबा ने बाकी हर चैनल को इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया? 
वैसे तो टीवी चैनलों, खासकर न्यूज चैनलों पर संधि-सुधा, लाल- किताब, स्काई-शॉपिंग के विज्ञापनों के जरिए सरकारी निर्देशों की धज्जियां सालों से उड़ाई जा रही हैं। रात के ग्यारह-बारह बजे उनमें सिर्फ विज्ञापन या पेड कंटेंट दिखाए जाते हैं, जबकि उन्हें लाइसेंस चौबीस घंटे न्यूज चैनल चलाने का मिला है। लेकिन निर्मल बाबा के जरिए यह मामला तो प्राइम टाइम तक पहुंच गया। सवाल है कि जब इन चैनलों के पास चौबीस घंटे न्यूज चलाने की सामग्री या क्षमता नहीं है, तो उन्हें चौबीस घंटे चैनल चलाने का लाइसेंस क्यों दिया जाए? दूसरे, क्या दिन में दो-तीन बार आधे-आधे घंटे के लिए लगातार ऐसे विज्ञापन प्रसारित करना केबल एक्ट के अनुसार सही है? गौर करने की बात है कि इस तरह के लंबे-चौड़े कार्यक्रम-रूपी विज्ञापनों में प्रसिद्ध अभिनेताओं का इस्तेमाल भी होता है, जो मासूम दर्शकों को विज्ञापन के ‘कार्यक्रम’ होने का छलावा पैदा करने में मदद करते हैं। 
2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो तमाशे दिखाए गए और अण्णा के लाइव कवरेज से 37.5 की रिकॉर्डतोड़ टीआरपी मिली, उससे टीवी संपादकों का सुर अचानक बदला। शायद टीआरपी की इस सफलता के दम पर ही न्यूज चैनलों के हित में काम करने वाले बीइए और एनबीए जैसे संगठनों ने दावा किया कि इस देश को अण्णा की जरूरत है! अब निर्मल बाबा की टीआरपी अण्णा के उस रिकार्ड को तोड़ कर चालीस तक पहुंच गई है, तो इसका मतलब क्या यह होगा कि देश को लोगों को चूना लगाने वालों की जरूरत है? संभव है कि स्टार न्यूज ने निर्मल बाबा के खिलाफ जो खबर प्रसारित की है, उसकी टीआरपी समागम से भी ज्यादा मिले। यह भी संभव है कि आजतक पर प्रसारित निर्मल बाबा के इंटरव्यू को सबसे ज्यादा देखा गया हो। ऐसा भी हो सकता है कि चैनल अब एक दूसरे की देखादेखी निर्मल बाबा के खिलाफ शायद ज्यादा खबरें प्रसारित करें, क्योंकि सहयोग न करने वाले चैनल को बाबा के भारी – भरकम विज्ञापन मिलने बंद हो जाएंगे। अभी तो बाबा के कारनामों के बारे में जानकारी बहुत प्राथमिक स्तर पर है। तब और तफसील से सूचनाएं आने लगेंगी। लेकिन, क्या एक-एक करके दर्जनों चैनल निर्मल बाबा का असली चेहरा यानी धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने वाला पाखंड साबित कर देते हैं तो इससे पूरा सच सामने आ जाएगा? दरअसल, यह तब तक आधा सच रहेगा, जब तक यह बात सामने नहीं आती कि इस करोड़ों (बाबा ने खुद यह राशि करीब 240 करोड़ रुपए सालाना बताई है) की कमाई से टीवी चैनलों की झोली में कितने करोड़ रुपए गए? 
तेज-तर्रार संपादकों के आगे ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि उन्होंने अपनी साख ताक पर रख कर इसे प्रसारित किया? क्या कोई संपादक हमारे टीवी चैनलों में ऐसा नहीं, जिसने जनता को गुमराह करने वाले कार्यक्रम-रूपी विज्ञापनों के खिलाफ आवाज उठाई हो? क्या टीवी चैनलों पर सचमुच संपादक हैं? यह सवाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि पेड न्यूज मामले में हमने देखा कि 2011 में चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के विधायक उमलेश यादव की सदस्यता रद्द कर दी, लेकिन जिन दो अखबारों ने पैसे लेकर खबरें छापीं, वे अब भी सीना ताने खड़े हैं। निर्मल बाबा के खिलाफ न्यूज चैनलों द्वारा लगातार खबरें प्रसारित किए जाने से संभव है कि शायद उन पर भी कार्रवाई हो। लेकिन प्रसारित करने वाले 39 चैनल, जो कि इस अनाचार में बराबर के भागीदार हैं, उनका क्या होगा? भविष्य में और ‘निर्मल’ बाबाओं के पैदा होने न होने का मुद्दा भी इसी से जुड़ा है। (मूलतः जनसत्ता के रविवार के अंक में प्रकाशित )विनीत कुमार

दलित मुव्हमेन्ट ऐसोशियेशन कि ओर से बाबा साहेब डा अम्बेडकर जयंती कि लाखो बधाईयां।


जय भीम साथियों
आज हमें यह बतलाते हुए अत्यंत खुशी हो रही है कि आज से लगभग ५ वर्ष पहले शुरू किया गया यह प्रयास जो अति दलित जातियों को जागृत करने का उद्देश्य पर केन्द्रित था, आज पूरे देश में एक जाना पहचाना नाम है। दलित मुव्हमेन्ट ऐशोसियेशन का गठन ४ अगस्त २००६ को कुछेक ४-५ सदस्यों के साथ किया गया। हमने एक ऐसे प्लेटफार्म का निर्माण किया जहां सभी पिछड़ी जातियां एवं दबे कुचले वर्ग के लोग मिलकर अपने विचारों का आदान प्रदान कर सके। वर्तमान में हम डोमार, हेला, मखियार, वाल्मीकि आदि अति पिछड़ी दलित जातियों में सामाजिक चेतना का संचार करने के लिए प्रयासरत है।
इस संस्था के प्रारंभिक सोपान में हमने गुगल में एक ग्रुप का निर्माण किया जिसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये 5000 से ज्यादा सदस्यों वाला देश का सबसे बड़ा समूह है। इस समय हमने इसका ब्लाग प्रारभ किया www.dalit-movement-association.blogspot.com इसमें दलित साहित्य से संबंधित किताबों की जानकारी १० किश्तों में प्रकाशित की गई। कई पुस्तक समीक्षाएं एवं दलितों के हित संबंधी जानकारी समय समय पर प्रकाशित होती रहती है। यह ब्लाग एवं ग्रुप आज देश का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ग्रुप है। इस गु्रप के दो मैनेजर निरंतर प्रबंधन का कार्य करते है। १. विनोद चारवंडे पुणे २. संजीव खुदशाह रायपुर।
इस संस्था ने मानव  अधिकार संस्थाओं के सहयोग से रायपुर, बिलासपुर एवं नागपुर में दलित हित पर कई कार्यक्रम कार्यशालाओं का आयोजन करावाया है। जिनमें दलित वकीलों का सेमीनार भी शामिल है।
इसके बाद सन २०१० में इसका विधिवत पंजीयन किया गया। इस प्रकार दलित मुव्हमेंन्ट ऐसोसियेशन अपने अधिनियम धाराओं सहित मजबूत संस्था का रूप ले लिया। परंपरानुसार संस्था का वार्षिक कार्यक्रम १४ अप्रैल को किया जाता है।
इसी बीच संस्था की कुछ उपलब्धियों से मै आपको अवगत कराना जरूरी समझता हू। पहला ये कि हमने क्ड। का अपना free sms service प्रारंभ किया है। जिसमें हम जरूरी सूचनाएं, शोध, समाचार आदि प्रेषित करते है। इस SMS का लाभ लेने हेतु आपको JOIN DMAINDIA लिखकर 09219592195 पर SMS करना है। इसके बाद आपको हमेशा बिना किसी शुल्क के एस.एम.एस. प्राप्त होता रहेगा। दूसरी उपलब्धि यह है कि हमने अपने ब्लाग में फ्री मेट्रीमोनी सेवा की शुरूआत कि, ताकि दलित समाज के लोग विवाह हेतु आसानी से रिश्ते तलाश कर सके।
तीसरी उपलब्धी यह है कि हमने राजधानी में अपने समाज का सामाजिक भवन हेतु भूमि की तलाश पूर्ण की। अभी इस भूमि को प्राप्त करने हेतु शासन स्तर पर कार्य प्रगति पर है। आशा करते है कि शीघ्र ही हम अपना अगला कार्यक्रम अपने भवन पर करेगे।
अंत में मै अपने सभी सामाजिक बन्धुओं से अनुरोध करूंगा की आईये, बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर के बताए रास्ते पर चले यही एक मात्र रास्ता है हमारे उज्जवल भविष्य का। संगठित हुए बिना विकास संभव नही है और संगठन हेतु तन-मन-धन की आवश्यकता होती है। यदि अपने समाज को उंचाई पर देखना चाहते हो तो समाज के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करे। पादर्शिता हमारा संबल है अत: वार्षिक आय-व्यय की आडिट रिर्पोट हम अपनी पत्रिका दलित उत्थान में प्रकाशित करते है। आशा है यह प्रयास एक सकारात्मक सोच में सहायक होगा।
*संजीव खुदशाह* 

दलित मुव्हमेन्ट ऐसोशियेशन का वार्षिक सम्मेलन तथा डा. अम्बेडकर जयंती समारोह

दलित मुव्हमेन्ट ऐसोशियेशन छत्तीसगढ़ रायपुर

वार्षिक सम्मेलन तथा डा. अम्बेडकर जयंती समारोह


समस्त समाजिक बंधुओं को यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि पिछले वर्ष की भांती १४ अप्रैल को डोमार,हेला, मखियार, सुदर्शन समाज का वार्षिक छत्तीसगढ़ स्तरीय सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद से हमारे समाज को संगठित किये जाने की जरूरत महसूस हो रही थी ताकि छत्तीसगढ़ के सभी निवासी बंधु अपनी समस्याओं मुद्दो पर मिल बैठकर बातचीत कर सके। इसी उद्देश्य से हम दलित एवं स्त्री समाज के मुक्तिदाता बाबासाहेब डा.भीमराव आंबेडकर की जयंती पर सामाजिक सम्मेलन का आयोजन कर रहे है।  इस कार्यक्रम में आप परिवार सहित आमंत्रित है।
हमें अपनी उपलब्धी पर गर्व है:-
१.     रायपुर में समाजिक भवन हेतु भूमि का चयन किया जा चुका है। इस भूमि को प्राप्त करने हेतु शासन स्तर पर कार्यवाही जारी है।
२.    डी.एम.ए. के वेबसाईट पर सामाज का मेट्रीमोनीयल वेबसाईट का शुभारंभ।
३.    समाजिक पत्रिका ''दलित उत्थान`` के प्रथम अंक का प्रकाशन।
४.    डी.एम.ए का अपना एस.एम.एस. सर्विस की शुरूआत। Free sms “JOIN DMAIDNA” TO 09219592195
हमारा लक्ष्य:-
१.     शीध्र ही रायपुर में सामाज हेतु भूमि को प्राप्त करने के लिए प्रदर्शन करना।
२.    हमारे आरक्षण कोटे में से ४ प्रतिशत की कटौती की गई है। विरोध प्रदर्शन करना।
३.    जाति प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली कठिनाईयों का निराकरण करना। (इस संबंध में डी.एम.ए. के एक प्रतीनिधी मंडल ने मुख्यमंत्रीजी से मुलाकात कर अपना निवेदन प्रस्तुत किया जिस पर कार्यवाही जारी है।)
४.    समाज के लिए राज्य महादलित आयोग का गठन करवाना।


कार्यक्रम का विवरण


दिनांक १४ अप्रैल २०१२
स्थान:- रायपुर छ.ग.

प्रथम सत्र
द्वितीय सत्र
११.०० से २.०० तक कार्यक्रम का उद्धान
             (आये हुऐ अतिथियों व्दारा डा. अम्बेडकर के कार्य पर      केन्द्रित वक्तव्य)
२.०० से ३.०० तक भोजन
३.०० से ४.०० तक   सामाजिक पत्रिका दलित उत्थान का लोकार्पण  आपसी परिचय तथा समाज कि समस्याओं पर केन्द्रित चर्चा
४.०० से ५.०० तक बच्चों का सम्मान एवं पुरस्कार वितरण
५.०० से ६.०० तक   समाजिक समस्याओं एवे उसके उपचार हेतु ऐजेण्डे का अनुमोदन।
जिला संयोजक:- अंबिकापुर:-राजेश राउते, दिवाकर प्रसाद इमालिया, बिलासपुर:- अजिताभ खुरसैल अनंत हथगेन, राजकुमार समुंद्रे, सचिन खुदशाह, चिरीमीरी:-राजेश मलिक, गौरी हथगेन ऐल्डरमैन चिरमीरी, अजय बंदीश दुर्ग-भिलाई:-विजय मनहरे, राजेश कुण्डे, गणेश त्रिमले डोगंरगढ़:-उमेश हथेल, कोरबा:-अशोक मलिक, रमेश कुमार, रायगढ़:-सुदेश कुमार लाला, रायपुर:-, दिनेश पसेरिया, ललित कुण्डेमनोज कन्हैया मनेन्द्रगढ़:-राजा महतो।
राज्य संयोजक - कैलाश खरे मो-०९७५२८७७४८८, हरीश कुण्डे मो. ०९३०१०९९९६३, संजीव खुदशाह मो.०९९७७०८२३३१
टीप-हमे सामाजिक हित में कार्य करने हेतु आर्थिक मदद की आवश्यकता है। आपसे निवेदन है कि इस कार्य हेतु मुक्त हाथों से हमें आर्थिक सहयोग प्रदान करे। नगद सहयोग देकर रसीद प्राप्त करें, आप 'दलित मुव्हमेन्ट ऐसोशियेशन रायपुर` के नाम चेक से भी सहयोग कर सकते हैं एवं फडं ट्रासफर पध्दिती से दलित मुव्हमेंट ऐसोसियेशन के भारतीय स्टेट बैक खाता क्र. ३१७०४८८०६१० में भी मदद कर सकते है। आय व्यय की प्रमाणित प्रति प्रति वर्ष वेबसाईट पर प्रकाशित कि जाती है।

शिक्षित रहो संगठीत होकर संघर्ष करों
सूक्तियां
१.     डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त शिक्षा, समानता तथा आरक्षण जैसी सुविधाओं का लाभ उठाने में हमे कोई शर्म नही आती है। लेकिन उन्हे अपना मानने में हमे शर्म आती है, क्या ये सही है?
२.    इस समाज को नुकशान उन पढ़े-लिखे लोगों ने ज्यादा पहुचाया, जिन्होने डा. अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ लेकर उचाई का मकाम हासिल किया किन्तु उसी समाज तथा बाबा साहेब को तिरस्कृत करने में कोई कसर नही छोड़ी। ऐसे लोगो कि सामजिक, सार्वजनिक भर्त्सना की जानी चाहिए।
३.    जिस समाज का व्यक्ति प्रतिमाह एक दिन का वेतन समाज के लिए खर्च करता है। उस समाज को तरक्की करने से काई रोक नही सकता।
४.    जिस समाज के बुजूर्ग प्रतिवर्ष एक माह के पेंशन का पचास प्रतिशत समाज के लिए देते है। वह समाज शिखर पर होता है।
५.    ऐसी संस्कृति जिसने हमें हजारों सालों से गुलाम बनाये रखा, वा हमारी संस्कृति नही हो सकती।
६.    जिस धर्म ग्रन्थो ने हमें गाली दी, जिस संस्कृति ने हमें शोषित किया, जिन देवताओं ने हमारे पूर्वजों को मारा, वो धर्म वो संस्कृति वो देवता हमारे हो नही सकते।
७.    अपना इतिहास जानों, पूर्वजों की मूल संस्कृति का सम्मान करों, एवं शाषकों की संस्कृति का तिरस्कार करों।
८.    फर्जी जाति प्रमाण पत्र बनाने वालों को सजा नही दिया जाता बल्की जाति प्रमाण पत्र बनवाने में कड़े कानून बनाये जाते है ताकि भोली भाली जनता अपने मूलभूत संवैधानिक अधिकारों से मरहूम रहे। क्या ये शासन की जन कल्याण कारी योजना है?
यदि आप अपना विचार इस कार्यक्रम में व्यक्त करना चाहते है तो कृपया लिखित में १४.४.२०१२ के पूर्व हमें प्रेषित करें।
दलित मुव्हमेन्ट ऐसोशियेशन रायपुर, छत्तीसगढ़
शासन व्दारा मान्यता प्राप्त
पंजीयन क्रमांक/ छ.ग.राज्य ३२२०
Please Join  & Visit us at   www.dalit-movement-association.blogspot.com

डोमार दलित जाति मध्यप्रदेश महाराष्ट्र छत्तीसगढ तथा यूपी में बहुसंख्या में निवास करती है। किन्तु सबसे नीचे के पायदान में आज भी है।

       ये एक आशर्चय जनक तथ्य है कि दलित आंदोलन से अछूती एक बङी जाति जिसे डोमार, डुमार नाम से पुकारा जाता है। पूरी तरह से एकता विहीन, असंघठित एवं अपनी पहचान बनाने में असफल  है। जबकि ये जाति बहुसंख्या में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ तथा यूपी में निवास करती है। ऐसी बात नही है क‍ि इस जाति मे पढे लिखे लोग नही है  ही ये बात है कि ये जाति बहुत ही गरीब है। बल्कि अंग्रेजकाल से रेल एवं नगर निकाय में काम करने वाली ये जाति शहरी सभ्यतासे जुङी हुई है। इसके बावजूद इस जाति के लोग अपनी पहचान छुपातेफिरते है खासकर वे लोग जो आरक्षण का लाभ पाकर उंचे ओहदे पर है। सिर्फ छिटकी बुंदकी के अधार पर शादियां तय करते है।
               इसी पहचान छुपाने कि प्रव्रित्ति ने इस समाज को विलुप्ति के कगार पर ला खङा किया। पहचान छिपाने कि इसी गरज से सुदर्शन समाज नाम का चोला पहना किन्तु बहुत जल्द इससे भी दूरियां हो गई कारण है सुदर्शन ऋषि से इस जाति का कोई संबंध नही था। ये तो सिर्फ वाल्मीकि (ऋषि) समाज का नकल मात्र था। आज जरूरत है कि इस समाज का व्यक्ति अपने आपको एक दलित के रूप में पेश करे अपनी जाति को न छिपायेतभी निक़ष्टतम कहलाने वाली इस जाति का उध्दार हो सकेगा।

इस
 जाति के लोगो के सरनेम इस प्रकार है

समुंद्रेखरेमोगरेसमनविरहाकलसियाकलसाभारतीसक्तेल,रक्सेलखोटेबनाफरबेरियाचमकेलतांबेजानोकरबढेलछडिले,छडिमलीकुण्डेचौहताबंदीशहाथीबेडमानकरमनहरेबंछोर,खुद‍िशाराउतेरेवतेराणाधर्मकारमधुमटकेबैसव्यासचुटेल,चुटेलकरपसेरकरबडगईयाबघेललद्रेइटकरेचौहानहथगेनत्रिमले,मोगरियासाधूपथरौलियावनराजडेलिकरहथेलडकहाग्राय,ग्रायकरमुंगेरमुंगेरियारबरसेपरागमलिककटारेकटारियाललपुरे,बैरिसालअतरबेलनन्हेटखुरसैलअसरेटबरसेहरसेमनवाटकर,लंगोटेसरवारी आदि।

जाति प्रमाण पत्र सत्यापित करने के लिए वर्ष 1950 के दस्तावेज प्रस्तुत करने की बाध्यता के खिलाफ बुद्धिस्ट सोसायटी आफ इंडिया व अन्य की याचिका खारिज

जाति प्रमाण पत्र सत्यापित करने के लिए वर्ष 1950 के दस्तावेज प्रस्तुत करने की बाध्यता के खिलाफ दायर याचिका बिलासपुर हाईकोर्ट ने पिछ्ले बुधवार को खारिज कर दी। याचिकाकर्ता का तर्क था कि राज्य शासन का यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के खिलाफ है। बुद्धिस्ट सोसायटी आफ इंडिया व अन्य ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि राज्य शासन ने 23 जुलाई 2003 और 28 नवंबर 2006 को जो सरकुलर जारी किया है, उसे शून्य घोषित किया जाए। इस सरकुलर में शासन ने कहा था कि जाति के लिए आवेदन के साथ वर्ष 1950 के जमीन व परिवार संबंधी दस्तावेज प्रस्तुत किए जाएं ताकि यह पता चल सके कि व्यक्ति के पूर्वज वास्तव में उल्लेखित जाति के थे और इस आधार पर उसे स्थाई जाति प्रमाणपत्र जारी किया जा सके। हाईपावर स्कूटनी कमेटी इसी सरकुलर के आधार पर किसी भी एडमिशन, नियुक्ति या प्रमोशन के पहले 1950 के जाति संबंधी दस्तावेजों की मांग करती है। यह बाध्यता भी खत्म की जाए। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि शासन का यह सरकुलर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने माधुरी पाटिल व पावेती गरी के मामले में जाति निर्धारित करने के लिए निर्देश तय किए हैं।

इसके आधार पर जो लोग छत्तीसगढ़ बनने की तारीख से प्रदेश में निवास कर रहे हैं, उस दौरान उनकी जो जाति निर्धारित थी, उसी आधार पर जाति सर्टिफिकेट जारी किए जाएं। चीफ जस्टिस राजीव गुप्ता, जस्टिस सुनील सिन्हा की डिवीजन बेंच ने सुनवाई के बाद इसे जनहित का मुद्दा न मानते हुए याचिका खारिज कर दी।