काला करिकालन एक शानदार फिल्म Film Review


काला करिकालन - मिथकों से लड़ते, उन्हें उलटते, पलटते, बदलते हुए कथानक पर एक शानदार फिल्म

विश्वास मेश्राम
काला प्रारंभ से अंत तक फ्रेम दर फ्रेम ढेर सारे प्रतिकों के माध्यम से बात करती फिल्म है। अन्य बालीवुड फिल्मों की तरह इसमें प्रेम है, मारधाड़ है, गाने हैं, डांस है, नाटकीयता है फिर भी यह नख से शिख तक स्थापित परंपराओ, मान्यताओं और स्थितियों के खिलाफ अपना अलग संदेश छोड़ती चलती है। काला की खूबी यह है कि यह हमारे
स्मृतियों में बचपन से घुट्टी में पिलायें गये मिथकों से लड़ती है, उन्हें झकझोरती है और बार बार तोड़ती है। यह उनके समानांतर बल्कि ठीक उलटे जनकेन्द्रित विमर्श रखते चलती है।
फिल्म की कहानी धारावी की स्लम बस्ती के लोगों के जीवन की , उनके बनने, मिटने और फिर फिर बनने की कथा है। जहां अंधेरा और दलदल हुआ करता था वह धारावी ।
जातीय भेदभाव के कारण सैकड़ों सालों से जिन्हें शिक्षा, संपत्ति और हथियार रखने से वंचित रखा गया , ऐसे लोग अपने गांव छोड़ कर बेहतर जीवन की तलाश में , आकार लेती बम्बई आए और शहर का कचराखाना इलाके की जमीन को व्यवस्थित कर अपनी बस्ती बसाई, अपने सर पर एक छत का जुगाड़ किया और रहने लगे। दक्षिण भारत से आए इन लोगों में पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की बेहद खूबसूरत झलक है। जबरदस्त आत्मसम्मान - जो उत्तर भारतीय ब्राह्मणी परम्परा के उलट - न किसी के पांव छूता है न किसी को पांव छूने देता है।
तो धारावी की बस्ती में उन्होंने भिमवाड़ा बनाया है । भिमवाड़ा अर्थात डा0 भीमराव आंबेडकर के लोगों के रहने की बस्ती। जहां बुद्ध विहार भी बनाया गया है जो पूरी बस्ती की हर गतिविधि का शक्तिकेंद्र है । वहां की सारी बैठकें , सारे उत्सव, खुशियों से लबरेज़ डांस, संघर्ष के दौर के नुक्कड़ नाटक और असहयोग आंदोलन की हड़ताल भी वहीं से विस्तार पाती है । धारावी बस्ती एक प्रतीक है वास्तविक भारत का और उसकी समकालीन समस्याओं का , जो कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक अवधारणा को बारबार आकृष्ट करती है आईना दिखाते हुए। इसके पहले रमाबाई नगर मुंबई के दलितों के संघर्षों की कहानी आनंद पटवर्धन की टीम द्वारा "जयभीम काम्रेड" फिल्म में भी बहुत जीवंतता और मुखरता के साथ दिखाई जा चुकी है।

नायक रजनीकांत काला है। उसके कपड़ें, उसका चश्मा, उसका छाता, उसकी जीप सब काला है और सांस्कृतिक गुलामी के दौर में स्थापित की गई गोरेपन की उच्चता की भावना को ध्वस्त करने, नेस्तनाबूद करने, चकनाचूर करने का प्रतीक है। वह काला के रुप में द्रविड़ो का, मुलनिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। फिल्म में वह रावण के मिथक की तरह दिखाया गया है और फोनिक्स की तरह भी जो अपनी ही राख से फिर से जी उठता है। विद्वान निर्देशक पा रंजीत फिल्म के अंतिम हिस्से में इसे बहुत खूबसूरती से दर्शाते हैं जब विलेन हरिभाऊ अभयंकर के गुंडे बस्ती में आग लगाते हैं और काला को गोली मारते हैं मगर दूसरे दिन स्लम को तोड़कर कालोनी बनाने भूमिपूजन करने आए विलेन हरिभाऊ को हर जगह काला दिखाई देता है और फिर चारो ओर काला रंग, लाल रंग और नीला रंग छा जाता है जिसके साथ विलेन मारा जाता है । जिन्होंने फिल्म अंत तक देखी उन्हें ठीक अंत के पहले, ढ़ेर सारे रंगों के कोलाज के मध्य भविष्य का आगाज करता जय भीम लिखा नीला परचम लहराता दिखता है ।
काला फिल्म स्लम बस्तियों के लोगों से अपने हकों अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्षों का आह्वान करती है । वह स्पष्ट संदेश देती है कि अपने अधिकार, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ना ही होगा । एक तरफ वह बुद्धिजीवी वामपंथियों को केवल किताबी ज्ञान के आधार पर क्रांति करना छोड़कर जमीन से जुड़ने के लिए ललकारती है तो दूसरी ओर वंचितों को उनकी ताकत बताती है कि भले ही हमारे पास धन जायजाद, महल अटारी, व्यापार उद्योग नहीं, यह शरीर ही हमारी ताकत है । यह अनायास नहीं है कि नायक अपने बेटे का नाम लेनिन रखता है और बुनियादी समझ के बिना किए जा रहे उसके रूमानी संघर्षों पर बेटे की खिंचाई करता है।
जैसा कि पहले कहा, काला प्रतीकों की फिल्म है। हरिभाऊ के द्वारा बस्ती में आग लगवाना लंका जलवाने का प्रतीक है और वह सोचता है कि इससे बस्ती वासी टूट जाएंगे तभी काला लोगों को एकजूट कर श्रमशक्ति के असहयोग का काल देता है जिसके बाद सारे अंधेरी वासी और उनके रिश्तेदार अपना सारा काम बंद कर देते हैं । कन्ट्रास्ट देखिये कि एक संभ्रांत नवयौवना टैक्सी चालकों के न मिलने से लोकल ट्रेन में जाने की मजबूरी पर नाक भौ सिकोड़ती है और धारावी वासियों को भलाबुरा कहती है वहीं बाम्बे स्टाक एक्सचेंज की पृष्ठभूमि में एक सफेदपोश उद्योगपति प्रतिदिन दस लाख के नुकसान का रोना रोते हुए हड़तालियों को गालियां देता है जबकि बस्तीवासी काला के साथ अपने अस्तित्व को बचाने लड़ रहे होते हैं।
काला फिल्म सांप्रदायिक ताकतों के षड्यंत्रों को भी भलीभांति उजागर करती है। वह बताती है कि किस प्रकार एक वर्गविशेष सर्वहारा की एकता को तोड़ने के लिए दंगे फैलाने के लिए अपने भाड़े के टट्टुओं का इस्तेमाल करता है लेकिन अगर दलितों-मुसलमानों के बीच परस्पर संवाद और सौहार्द है तो वे असफल होते रहेंगे। इस दृश्य को देखते हुए भीष्म साहनी अपनी तमश के साथ अनायास जहन में उभरने लगते हैं।
काला में डायलॉग तो सशक्त हैं ही, प्रतीकों का जबरदस्त इस्तेमाल कर पा रंजीत अपने संदेश देते हैं।
विलेन हरिभाऊ अभयंकर गोरा है, उसे देख तिलक की आर्कटिक सागर से आये आर्यों की थ्योरी याद आ जाती है। उसके कपड़ें झक्क सफेद, उसका मकान व्हाइट हाउस, उसके गुंडे श्वेत वस्त्रधारी तथाकथित अभिजात्य संस्कृति के प्रतीक लेकिन उसका काम ठीक उलट -भू माफिया, हत्यारा, दंगा फसाद भड़काने वाला, राजनैतिक दल का कंट्रोलर यानि कि समानांतर सत्ता का केंद्र ।हरिभाऊ की ताकत पैसा, गुंडई और राजनैतिक पहुंच है तो काला की ताकत उसके लोग हैं ।
हरिभाऊ अपने बंगले में रामकथा करवाते हैं तो काला के बेडरूम में आनंद नीलकंठन की रावण और उसके लोगों पर केन्द्रित "असुर" पुस्तक पर पा रंजीत कैमरा फोकस करते हैं। हरिभाऊ पैर छुवाते हैं तो काला, हरिभाऊ की पोती को पैर छूने से स्पष्ट मना करते हुए आदमी-आदमी के एक समान होने का, समता और समानता का संदेश देते हैं । पूरी फिल्म में ये सभी अंतर बार बार नजर के सामने आते हुए वर्गभेद और जातिभेद को स्पष्ट करते चलते हैं।
काला मिडिल क्लास मानसिकता के प्रभाव में आकर धारावी बस्ती छोड़कर जाने का मन बनाते अपने बेटे बहू को डांटते हैं और अपनी जमीन से जुड़े रहने का संदेश देते हैं । काला की पत्नी के रुप में सेल्वी की स्क्रिप्ट भी बहुत सशक्त बनाई गई है । एक पूरे घर को बांधकर रखने वाली गृहिणी, पति के साथ आत्मसम्मान से लबरेज़ , उसके विचारों की साथी, बदले की आग में धधकते हुए काला की व्यक्तिगत लड़ाई को सामाजिक लड़ाई में तब्दील करने वाली ।
फिल्म में एक पढ़ी लिखी मुस्लिम महिला के रूप में जरीना का रोल भी बहुत अहम है। वह एक एनजीओ चलाती है । अफ्रीकन देशों में स्लम बस्तियों का सुधार कर धारावी को सुधारने लौटी है । सिंगल मदर है जिसकी बेटी का नाम कायरा ( ग्रीक भाषा में काला ) है। मूलतः धारावी में ही पली बढ़ी । काला की मंगेतर । ठीक शादी के दिन हरिभाऊ की गुंडागर्दी में काला और उसके परिजनों की हत्याएं दिखाई गई है जिसके बाद दोनों अलग हो जाते हैं । काला तड़ीपार तो जरीना किसी मिशनरी के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका । तो वह धारावी को सुधारने के लिए आर्किटेक्ट ( टाउन प्लानर ) से प्लान तैयार करवाती है । इस प्लान का काला और उसके साथी विरोध करते हैं कि इसे धारावी की जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जाएं न कि किसी बिल्डर के मुनाफा कमाने के लिए। शुरुआत में वह काला के विरोध को समझ नहीं पाती मगर बाद में बिल्डर की सच्चाई और गुंडागर्दी को देखकर वह अंधेरी की जनता के साथ आ खड़ी होती है और अंतिम जीत तक वह काला और उसके साथियों के साथ होती है।
फिल्म में जातियां नहीं दिखाई गई है मगर जातिय वर्ग बहुत स्पष्ट दिखते हैं।
शुरुआत में ही ओबीसी-दलित एकता के प्रतीक के रूप में धोबीघाट को तोड़ने से बचाने का संघर्ष है।
फिल्म के अधिकतर कलाकार तमिल हैं। सभी ने अपनी भूमिकाएं बेहतरीन ढ़ंग से निभाई हैं । रजनीकांत नोडाउट सुपरस्टार हैं और हर फ्रेम में अपनी छाप छोड़ी है। हरिभाऊ अभयंकर के नेगेटिव रोल के साथ नानापाटेकर ने पूरा न्याय किया है और एक मंजे हुए अभिनय का परिचय दिया है। उन्हें शाबाश नाना कहना लाजिमी है। हुमा कुरैशी ने भी जरीना की भूमिका बखूबी निभाई है। सभी कलाकारों को सौ सौ सलाम ।
P रंजीत की कल्पनाशीलता और उसका विजन निस्संदेह काबिलेतारीफ है जिसमें वह काला फिल्म और उसका नायक काला करिकालन से समग्रता में बुद्ध के बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिए जीने और मरने का संदेश देने में कामयाब रहे हैं। काला फिल्म शुरुआत से अंत तक हिंसा से भरी है फिर भी यह हिंसा की व्यर्थता को रेखांकित करती है और दलित-वंचित मूलनिवासीजन को आत्मसम्मान से जीने, एकजूट होकर अपनी ताकत से अपनी जमीन और अपना अस्तित्व बचाने तथा बेहतर जीवन स्थितियां हासिल करने की जबरदस्त अपील करती है।

क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए?


विद्या भूषण रावत
क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए. आज उनका जन्मदिन है लेकिन उनको याद करने वाले कम लोग है. बहुत से उन्हें आज भी जी भर के पानी पी पी के कोसते है. सवर्णों की बहुत बड़ी तादाद उन्हें आज भी अपने साथ हुए अन्याय के लिए कोसती है और जो मंडल का इतिहास लिख रहे है वे भी उनलोगों का नाम क्रांतिकारियों में लिखते है जो मंडल के दौरान विपक्षी कैंप में थे लेकिन वी पी को जान बूझकर भुला देते है. क्या मंडल की कोई व्याख्या वी पी सिंह के योगदान के बगैर संभव है. हम शरद यादव को श्रेय देते है, रामविलास पासवान को इसके लिए जिम्मेवार बताते है लेकिन वी पी सिंह को क्यों नहीं ?

विश्वनाथ प्रताप भले ही शुरूआती दौर से सामाजिक न्याय के मोर्चे के व्यक्ति नहीं रहे हो लेकिन उन्होंने ईमानदारी से अपने काम किये और उसके लिए ताउम्र सत्ता के हरेक ताकतवर व्यक्ति से वो टकराए. अम्बानी से लेकर चंद्रास्वामी तक से उन्होंने लड़ा लेकिन अंततः अकेले पड़ गए. उनकी अपनी बिरादरी वालो ने उन्हें दुश्मन बताया तो जिनके लिए वो लडे वो भी उनको याद नहीं रख पाते.

दरअसल आज के दौर में सामाजिक न्याय का मुद्दा सभी का प्रमुख सवाल होना चाहिए था लेकिन उसको भी खांचो में बाँट दिया गया और नेताओं और उनकी पार्टियों के हिसाब से ही उसकी भी व्याख्या हो रही है और समय पड़ने पर सभी समझौता करने के लिए भी तैयार बैठे है.

विश्वनाथ प्रताप की राजनीती की ईमानदार समीक्षा करने का समय है. उनका कार्यकाल हालाँकि कम समय का था लेकिन भारतीय राजनैतिक पटल पर उन्होंने बहुत असर डाला. आज भारतीय नेताओ को सबसे आसानी से जिन लोगो ने गुलाम बनाया वो है बाबा ब्रिगेड और दलाल स्ट्रीट के जातिवादी पूंजीपति. वी पी सिंह इन दोनों से बहुत दूर रहे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में उन्होंने इन्ही पूंजीपतियों पर हाथ डाला था जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेजा था. वहा पर भी वी पी ने एच डी डब्ल्यू सबमरीन घोटाले की जांच के आदेश देकर सभी से दुश्मनी ले ली थी.

वी पी सिंह के छोटे से कार्यकाल में न केवल मंडल रिपोर्ट लागु हुई अपितु उनकी सरकार अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के प्रश्न पर संविधान की मर्यादाओं का पालन करते हुए गिरी. भाजपा ने मंडल का सीधे तरीके से विरोध न कर उसको राम नाम की राजनीती से ख़त्म करने की कोशिश की. वी पी की सरकार को गिरवाने ने कॉर्पोरेट से लेकर ब्राह्मणवादी ताकते लग गयी क्योंकि सबको पता था के यदि वह सरकार दो साल भी और चल जाती तो देश की राजनीती में बहुत बड़ा परिवर्तन स्थाई तौर पर हो जाता. दुर्भाग्य ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओ के चलते उस सरकार को गिरवा दिया गया.

अपनी सरकार के गिरने के बादभी वी पी कुछ समय तक सक्रिय रहे और उहोने जनता के सवालो पर सामाजिक आन्दोलनों के साथ मिलकर कार्य किया.

वी पी सिंह की राजनीती की आज आवश्यकता है क्योंकि मोदी जैसो को वो आसानी से पानी पिला सकते थे. इसका कारण था उनका जनोन्मुखी राजनीती. वी पी ने हमेशा जनता से अपना संपर्क बनाए रखा और देश के सभी राजनितिक लोगो से उनके अच्छे सम्बन्ध थे. तमिलनाडु में करूणानिधि, आंध्र में एन टी रामाराव, और वामपंथियों से उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. आज की राजनीती में ये बहुत आवश्यक है. दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात, वी पी ने राजनीती में संसदी और पदों की परवाह नहीं की जो कम से कम आज के दौर में तो देखने को नहीं मिलता. जब नेता आँख नहीं खोल पा रहे हो लेकिन सांसदी होने का सुख छोड़ने को तैयार नहीं, वही वी पी सिंह ने ये सब बहुत पहले ही छोड़ दिया. हकीकत यह है के उनका संसदीय कार्यकाल कुल मिला जुला के १० वर्षो से कम का ही होगा लेकिन संसद पर उनके कार्यो का असर भारत के किसी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं होगा.

वी पी आज भी हाशिये पे है. लेकिन हम उम्मीद करते है के जब भी देश में सामाजिक न्याय के लिए काम करने वालो की बात होगी उन्हें जरुर याद किया जाएगा. उम्मीद है के उनकी राजनीती में मंडल के अलावा उनके छोटे से कार्यकाल के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओ को याद करते हुए और उनके प्रधानमंत्रिय कार्यकाल के बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं पर उनका योगदान जरुर याद किया जाएगा.

वी पी की राजनीती जे पी की राजनीती से ज्यादा बड़ी है लेकिन जो वी पी के समय बड़े हुए वे जे पी का नाम लेते है लेकिन ये नहीं बता पायेगे आखिर जे पी ने सामाजिक न्याय के लिए किया क्या. शायद वी पी अकेली वो हस्ती है जिनके नाम पर इस देश में एक छोटी सा मोहल्ला या गली तक नहीं है. वो व्यक्ति जिसने अपनी पूरी जमीन भूदान आन्दोलन को दे दी और जिसकी बहुत सी जगहों पर आज भी लोग बिना किसी भय के रह रहे है, आज राजनीती में चुपचाप बिसरा दिया गया है. ब्राह्मणवादी सेक्युलरो को वी पी से सख्त नफरत है क्योंकि मंडल ने जो दर्द मनुवादियों के सीने में दिया है वो 'असहनीय' है. ऐसे में कुछ समय बाद आर एस एस, जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और बोला, उनको 'महान' बता दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

क्या तेजस्वी यादव और अखिलेश इतनी हिम्मत जुटा पायेंगे के सामाजिक न्याय के इस योधा को याद कर सके ?

२५ जून, २०१८

Episode no16 personality of the week नीलेश लंगोटे सफाई कर्मचारी आन्दोलन.

सुदर्शन समाज रायपुर स्थित बस्ती को स्थानीय प्रशासन द्वारा बुलडोजर चलाकर तोड़ दिया गया और आनन-फानन निवासियों को अपनी व्यवस्था करनी पड़ेगी हाईकोर्ट ने राहत दी है लेकिन प्रशासन अभी तक मौन है

Episode no 17 personality of the week सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आया- जन्मेजय सोना

इस हफ्ते पर्सनालिटी ऑफ द वीक में एडवोकेट जन्मेजय सोना जी बता रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने गरीबी परिस्थिति में अपनी पढ़ाई पूरी की और वह किस प्रकार सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आएं है। और आज समाज सेवा में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना। आज काला फिल्म बेहद चर्चा में है। चर्चा इस बात को लेकर है कि दलित बहुजन और वंचित वर्ग, खासकर के अंबेडकरवादी और मार्क्सवादी विचारधारा के लोग इस फिल्म को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सामंतवादी लोग इस फिल्म का विरोध भी कर रहे हैं। इस फिल्म को देखने के बाद संजीव खुदशाह और शेखर नाग इस पर अपना एक रिव्यू पेश कर रहे हैं। देखिए यह महत्वपूर्ण समीक्षा। सबसे पहले फिल्म का ट्रेलर हिंदी में देखें।

क्या गीता एक साहित्यिक चोरी है ? प्रेमकुमार मणि

क्या गीता एक साहित्यिक चोरी है ?

प्रेमकुमार मणि
गीता हिन्दू अभिजन का केंद्रीय धर्मग्रन्थ तो है ही , इसका राष्ट्रीय मूल्य भी है . हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में तिलक और गाँधी ने इसे वैचारिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया और तमाम भारतीय जुबानों में इसकी जाने कितनी व्याख्याएं हुईं . तिलक का 'गीता रहस्य ' और गाँधी का यरवदा मंदिर प्रांगण में दिए गए प्रवचनों की श्रृंखला 'गीता बोध ' देश में खूब पढ़ी गयी है . स्वयं मुझे गीता के बहुत सारे श्लोक कंठाग्र हैं . उसके खूबसूरत -प्रांजल भाषा सौष्ठव पर मैं मुग्ध होता रहा हूँ . किसी को संस्कृत सीखनी हो ,तो उसे गीता पढ़नी चाहिए .
लेकिन मैं कहूं कि साहित्यिक रूप में यह पैरोडी या चोरी है ,तब बात अटपटी लग सकती है . लेकिन कुछ तथ्यों को देखना शायद बुरा नहीं होगा . ' सौन्दरनन्द ' के नाम से कम लोग परिचित हैं . यह संस्कृत के महाकवि अश्वघोष की एक काव्यकृति है . आधुनिक भारत में इससे प्रभावित होकर हिंदी लेखक मोहन राकेश ने एक बहुत खूब नाटक की रचना की है -'लहरों के राजहंस ' . इसके अलावे मुझे भारतीय जनमन पर इसके किसी और प्रभाव की जानकारी नहीं है . आप जानते होंगे अश्वघोष बौद्ध थे और उनकी रचनाएं तड़ीपार कर दी गई थीं . वह वर्णव्यवस्था विरोधी पुस्तक ' बज्रसूचि ' के लेखक भी थे . उनकी दो और साहित्यिक रचना है -' बुद्ध चरित ' और 'सारिपुत्रप्रकरण ' . बुद्ध चरित का आधा ही हिस्सा मिल सका .शेष भाग चीनी अनुवाद से प्राप्त हो सका है . 'सारिपुत्रप्रकरण ' नाटक है और वह भी अधूरा प्राप्त हुआ है . सौन्दरनन्द सही सलामत उपलब्ध हो सका है . इसके काव्य सौष्ठव का मैं प्रशंसक हूँ और कह सकता हूँ यह बुद्धचरित से श्रेष्ठ है .
सौन्दरनन्द को तरुणाई के दिनों में पढ़ा था . पढ़ते समय मुझे अनुभव हुआ गीता और इसमें बहुत साम्य है . साम्यता इतनी है कि किसी को भी हैरान कर सकती है . अपने तरीके से उसपर कुछ सोचा -विचारा था . सोचा था कि इसे लेकर एक लेख लिखूंगा . लेकिन न लिख सका . इधर मोतीलाल बनारसीदास गया तो सौन्दरनन्द को ढूँढ लाया . गीता तो सहज उपलब्ध हो गयी . दोनों को आहिस्ता -आहिस्ता पढ़ा .लेख केलिए कुछ नोट्स बनाये . सोचा ,कुछ मित्रों से भी साझा करूँ .
पहले गीता और सौन्दरनन्द के तुलनात्मक स्वरूप पर विहंगम नज़र डालें . गीता हमारे राष्टीय धरोहर महाभारत का एक अंश है ,जिसके कृतिकार कृष्ण द्वैपायन हैं . उन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है . गीता आकार में बहुत छोटी है .इस में अठारह अध्याय और 693 श्लोक हैं . सौन्दरनन्द में भी अठारह सर्ग या अध्याय हैं ,लेकिन श्लोकों की संख्या 1063 है . इसके रचयिता अश्वघोष हैं .
अब हम दोनों के कथानक देखें .
सौन्दरनन्द की कहानी इस प्रकार है . ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध कपिलवस्तु जाते हैं . भिक्षाटन केलिए निकले बुद्ध अपने सौतेले भाई नन्द के घर पहुँचते है ; लेकिन नन्द अपनी युवा पत्नी के श्रृंगार में लगा है . वह बुद्ध की आवाज़ नहीं सुन पाता . जब उसे पता होता है कि उसके विश्रुत भाई उसके द्वार पर आये और खाली हाथ लौट गए ,तब वह आत्मग्लानि से भर गया . बुद्ध के पास वह लज्जित भाव से जाता है . पत्नी को वायदा कर गया है कि उसका विशेषक सूखने के पहले ही वह लौट आएगा . लेकिन बुद्ध का प्रभामंडल देख वह आकर्षित हो जाता है और भिक्षु बन जाता है . लेकिन उसका मन डांवाडोल है . वह दुविधाग्रस्त है . पत्नी को वह भूल ही नहीं पाता . बुद्ध उसे संसार की निस्सारता का उपदेश देते हैं . स्थितप्रज्ञता का महत्व बतलाते हैं . सर्ग 10 और 11 में वह नन्द को स्वर्ग की भव्यता का दिग्दर्शन कराते हैं .अंततः उसकी भी निस्सारता बतलाते हैं . 12 वे से 18 वे सर्ग तक ज्ञान ही ज्ञान है . दरअसल यह काव्य ग्रन्थ बुद्ध के विचारों को काव्य रूप में पिरोने का एक खूबसूरत प्रयास है .
गीता की कहानी ,जैसा कि आप सब परिचित हैं ,कुरुक्षेत्र की है . युद्ध केलिए सेनाएं सजी हैं . अर्जुन जो कृष्ण का फुफेरा भाई है ,नन्द की तरह दुविधा ग्रस्त है . युद्ध करे या ना करे की दुविधा में वह डोल रहा है . तीसरे अध्याय से अठारहवें अध्याय तक कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं . संसार की निस्सारता ,ज्ञान और कर्मयोग का महत्व बतलाते हैं . ग्यारहवें अध्याय में सौन्दरनन्द के स्वर्गदर्शन की तरह विश्व या विराट दर्शन का नाटकीय रूप है . उसके बाद पुनः ज्ञानदान का सिलसिला . आश्चर्य तो यह है कि दोनों के ज्ञान तत्व भी मिलते -जुलते हैं . गीता के ज्ञान पर आस्तिकता का मुलम्मा है . कृष्ण सब कुछ छोड़ अपनी शरण में आने केलिए ,समर्पित हो जाने केलिए अर्जुन से कहते है . अंततः अर्जुन तैयार हो जाता है . गीता एक सांसारिक व्यक्ति को युद्ध में प्रवृत्त करता है . वह युद्ध को संसार से पृथक , धर्म सिद्ध कर देते हैं .
सौन्दरनन्द में कामासक्त नन्द को बुद्ध धम्म दीक्षा देते हैं . अपने नहीं ,धम्म के शरण में आने की सीख देते हैं जिससे जीवन सक्रिय और प्रकाशमय हो सके . आस्तिकता की जगह यहाँ विवेक है ,इसीलिए मेरी दृष्टि में गीता के मुकाबले सौन्दरनन्द में श्रेष्ठ ज्ञान का प्रदर्शन अथवा चित्रण है .
अब हम ऐतिहासिकता देखें . अश्वघोष का समय ईसा की पहली सदी लगभग मान्य है . इसलिए यह रचना लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है . लेकिन गीता के ऐतिहासिक साक्ष्य 500 से 1500 साल पुराने होने का है . महाभारत जिसका एक अंश गीता है ,कई बार संशोधित -परिवर्धित हुआ . नाम भी बदलते गए . पहले यह 'जय ' था , फिर ' भारत ' और अब जाकर महाभारत . गीता महाभारत के आरंभिक स्वरूप का हिस्सा था ,इसमें संदेह है . संदेह का आधार भाषा है . वर्तमान गीता की जो भाषा है वह इतनी प्रांजल और बोधगम्य है कि इसके जयदेव के इर्दगिर्द होने का अहसास होता है . दरअसल बुद्ध के कुछ सौ साल बाद प्रतिनिधि बौद्धों ने पाली छोड़कर संस्कृत अपना लिया था . बौद्धों ने संस्कृत को नए रूप में ढाला . इसे संकर संस्कृत कहते हैं . यह कुछ -कुछ हिंदुस्तानी की तरह का प्रयोग था . इससे संस्कृत की रचनात्मकता विकसित हुई . अनेक रचनाकारों पर संकर संस्कृत का प्रभाव है . गीता का संस्कृत संकर संस्कृत है . इसीलिए वह सौन्दरनन्द की अपेक्षा अधिक प्रांजल और बोधगम्य है . इससे प्रतीत होता है गीता सौन्दरनन्द से बहुत बाद की रचना है . यह उससे प्रभावित हो कर लिखी गयी . पूर्ववर्ती रचनाकारों से प्रभावित होना बुरा नहीं है .यह स्वाभाविक है . कालिदास पर अश्वघोष के प्रभाव हैं . लेकिन कालिदास निसंदेह अश्वघोष से बड़े रचनाकार हैं . गीता पर सौन्दरनन्द का प्रभाव नहीं कहा जायेगा ,यह तो नक़ल है . कथा योजना , शिल्प और विचार तक . भाषा के रूप में गीता निसंदेह सौन्दरनन्द से आगे है ,लेकिन विचार में यह संभव नहीं हुआ . ऐसा होता तो यह एक स्वतन्त्र उल्लेखनीय रचना हो सकती थी . ज्ञान पक्ष सौन्दरनन्द का गीता के मुकाबले उत्कृष्ट है . इसपर विस्तार से फिर कभी .
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prem kumar mani




डॉं आंबेडकर एवं कार्ल मार्क्स - वर्ण बनाम वर्ग

संजीव खुदशाह
आज हम कार्ल मार्क्स की 200 वी जयंती के उपलक्ष में वर्ग बनाम वर्ण पर बात करने जा रहे हैं। मेरी आप सब से गुज़ारिश है कि मेरी बातों को बिना किसी पूर्वाग्रह के गौर करने का कष्ट करें तभी शायद मैं अपनी बात आप तक सही ढंग से पहुंचाने में सफल हो सकूंगा। दूसरी बिनती मैं यह करना चाहता हूं की यहां पर अपनी बात रखने का मकसद यह नहीं है कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे। मैं एक स्वस्थ चर्चा करने पर विश्वास रखता हूं।
Karl Marks
वर्ग बनाम वर्ण की चर्चा इससे पहले भी होती रही है। लेकिन जब हम कार्ल मार्क्स के बरअक्स इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं, तो यहां पर वर्ग के मायने कुछ अलग हो जाते हैं। भारत में वर्ग के मायने होते हैं अमीर वर्ग और गरीब वर्ग। लेकिन कार्ल मार्क्स जिस वर्ग की बात कर रहे हैं। उसमें मालिक वर्ग और मजदूर वर्ग है। इसलिए हमें बहुत ही सावधानी पूर्वक इस अंतर को समझते हुए बात करनी होगी।इसी प्रकार वर्ण की भी विभीन्‍न परिभाषाएं सामने आती है। कई बार वर्ण को रंगों के विभाजन के तौर पर देखा जाता है। तो कई बार वर्णों को जाति व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई के तौर पर भी देखा जाता है। हम यहां पर चर्चा के दौरान इसे इसी परिभाषा के तौर पर आगे बातचीत करेंगे।
मार्क्स ने जिस मालिक और मजदूर की बात की और उनके संघर्ष को महत्वपूर्ण बताया तथा पूंजीवाद को इन वर्ग के सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित किया। वह अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है लेकिन इन सिद्धांतों को उसी वर्ग के आधार पर भारत के परिप्रेक्ष में लागू करना कहीं ना कहीं जल्दबाजी करने जैसा रहा है। क्योंकि भारत में वर्ग का अस्त्वि कभी भी मालिक और नौकर की तरह नहीं रहा है। भारत में पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग कहा गया या फिर अमीर वर्ग गरीब वर्ग कहां गया। लेकिन जैसा रिश्ता यूरोप में मालिक और मजदूर के बीच रहा है वैसा रिश्ता भारत में अमीर और गरीब के बीच कभी भी नहीं रहा है।भारत में इन वर्गों के बीच जातीय संरचना भी है जो मालिक और नौकर के सिद्धांत पर नहीं चलती।
Dr B R Ambedkar
मुझे लगता है यह भारत के परिपेक्ष में मार्क्सवादी सिद्धांतों को मालिक और नौकर के नजरिए से नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की जटिलताओं उनके बीच भेदभाव उनके बीच अछूतपन और धार्मिक संहीता को ध्यान में रखते हुए देखना होगा।
भारत में एक छोटी जाति का व्यक्ति अमीर तो हो सकता है। उसके कल कारखाने भी हो सकते है। इसके पहले भी हुए हैं। गंगू तेली का उदाहरण सामने पड़ा है। शिवाजी का उदाहरण है लेकिन इन्हें धार्मिक स्वीकृति या कहें सामाजिक राजनीतिक स्वीकृति प्रदान नहीं होती है। इस कारण राजा होने के बावजूद शिवाजी को राज तिलक करवाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। और किसी ब्राम्हण के पैर के अंगुठे से अपने माथे पर राज तिलक करवाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह उदाहरण बेहद महत्वपूर्ण है जब हम वर्ग बनाम वर्ण की बात करते हैं।
गंगू तेली और शिवाजी के उदाहरण से यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि भारत के परिप्रेक्ष में साम्यवाद या समाजवाद, जिसकी बात कार्ल मार्क्स कहते हैं। वह और उसका आधार आर्थिक नहीं है उससे कहीं आगे है। भारत के परिपेक्ष में आर्थिक समानता कभी भी राजनीतिक और सामाजिक समानता का रूप नहीं ले पाती है। और ना ले पाई है। इसके तमाम उदाहरण इतिहास में मौजूद है। शायद मार्क्सवाद के सिद्धांत को भारत में लागू करने से पहले इन ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया।
इस कारण भारत के परिपेक्ष में कम्युनिस्ट विचारधारा फेल हो गई या फिर सिर्फ पूंजी की लड़ाई तक सीमित रह गई या फिर उन जगह ही रह पाई जहां पर फैक्ट्री और मजदूर रहे हैं। यह लड़ाई कभी भी किसानों तक नहीं पहुंच पाई ना ही उन दलित पिछड़ा वर्ग आदिवासियों तक पहुंच पाई जिन्हें समानता साम्यवाद या समाजवाद की जरूरत थी। उन प्राइवेट दुकानों संस्थानों तक नहीं पहुंच पाई जहां पर पढ़ा-लिखा कलम चलाने वाला मजदूर शोषण का शिकार रोज होता है।
जहां एक ओर यूरोप में पूंजीवाद के गर्भ से श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ वहीं भारत में श्रमिक वर्ग मां के गर्भ से पैदा होता है।
भारत में युरोप का वर्ग नहीं है और जब वर्ग ही नहीं तो वर्ग संघर्ष का सवाल ही पैदा नहीं होता। बल्कि भारत में वर्ग की जगह वर्ण संघर्ष हो रहा है। जिसे मार्क्स ने भी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि भारत में वर्ण संघर्ष ही संभव है और उसके बाद ही वर्ग संघर्ष हो सकता है। इसे इमीएस नम्बूदरीपाद ने भी स्वीकार कियाजिनके नेतृत्व में केरल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी। बी. टी. रणदीवे ने भी स्वीकार कियाक्योंकि भारत में सत्ता और संपत्ति पर सवर्ण वर्ग का ही कब्जा है।
दरअसल हमें मार्क्स के साम्यवाद को नए सिरे से भारत के परिप्रेक्ष में परिभाषित करना पड़ेगा। यहां पर आर्थिक समानता से कहीं ज्यादा जरूरी सामाजिक और राजनीतिक समानता की बात है। कार्ल मार्क्स ने जिन स्थानों पर काम किया वहां पर आर्थिक विषमता तो थी लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक विषमताएं नहीं रही। इसीलिए उन्होंने यह सिद्धांत दिया की पूंजी का समान वितरण होने पर साम्यवाद स्थापित हो सकेगा।
डॉ आंबेडकर अपनी किताब बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स में कार्ल मार्क्स की अवधारणा को 10 बिंदुओं में रेखांकित करते हैं। जिन पर कार्ल मार्क्स के सिद्धांत खड़े हुए हैं।
1 दर्शन का उद्देश्य विश्व का पुनः निर्माण करना है ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं है।
2 जो शक्तियां इतिहास की दिशा को निश्चित करती है वह मुख्यतः आर्थिक होती हैं।
3 समाज दो वर्गों में विभक्त है मालिक तथा मजदूर ।
4 इन दोनों वर्गों के बीच हमेशा संघर्ष चलता रहता है ।
5 मजदूरों का मालिकों द्वारा शोषण किया जाता है। मालिक उस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं जो उन्हें अपनी मजदूरों के परिश्रम के परिणाम स्वरुप मिलता है।
6 उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण अर्थात व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन करके शोषण को समाप्त किया जा सकता है।
7 इस शोषण के फलस्वरुप श्रमिक और अधिकाधिक निर्बल व दरिद्र बनाए जा रहे हैं।
8 श्रमिकों की इस बढ़ती हुई दरिद्रता व निर्बलता के कारण श्रमिकों की क्रांतिकारी भावना उत्पन्न हो रही है और परस्पर विरोध वर्ग संघर्ष के रूप में बदल रहा है।
9 चूंकि श्रमिकों की संख्या स्वामियों की संख्या से अधिक है। अतः श्रमिकों द्वारा राज्य को हथियाना और अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है। इसे उसने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम से घोषित किया है।
10 इन तत्वों का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता इसलिए समाजवाद अपरिहार्य है.।
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यहां पर आप देख सकते हैं की कंडिका 9 मे इस बात का जिक्र किया गया है कि श्रमिकों द्वारा उनकी संख्या ज्यादा होने के कारण बलपूर्वक अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है। जिसे उन्होंने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नाम घोषित किया है। यानी कार्ल मार्क्स श्रमिकों के द्वारा तानाशाही शासन की अनुमति देते हैं।
जबकि डॉ आंबेडकर कहते हैं बलपूर्वक प्राप्त किया गया शासन वह भी तानाशाही वाला शासन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। भविष्य में भी संघर्ष की संभावनाएं बनी रहती है। वह कहते हैं "मार्क्सवादी सिद्धांत को 19वी शताब्दी के मध्य में जिस समय प्रस्तुत किया गया था उसी समय से उसकी काफी आलोचना होती रही है इस आलोचना के फलस्वरुप कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का काफी बड़ा ढांचा ध्वस्त हो चुका है इसमें कोई संदेह नहीं कि मांस का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 19 सौ 17 में उसकी पुस्तक दास कैपिटल समाजवाद का सिद्धांत के प्रकाशित होने के लगभग 70 वर्ष के बाद सिर्फ एक देश में स्थापित हुई थी यहां तक कि साम्यवाद जो कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है और उसमें आया तो यह किसी प्रकार की मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था वहां एक क्रांति हुई थी और इसके रूस में आने से पहले भारी रक्तपात हुआ था तथा अत्यधिक हिंसा के साथ वहां सोद्देश्य योजना करनी पड़ी थी शेष विश्व में अभी भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के आने की प्रतीक्षा की जा रही है मार्क्सवाद का कहना है कि समाजवाद अपरिहार्य है उसके इस सिद्धांत के झूठे पर जाने के अलावा सूचियों में वर्णित अन्य अनेक विचार भी तर्क तथा अनुभव दोनों के द्वारा ध्‍वस्‍त  हो गए हैं अब कोई भी व्यक्ति इतिहास की आर्थिक व्याख्या को यह इतिहास की केवल एक मात्र परिभाषा स्वीकार नहीं करता इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि सर्वहारा वर्ग को उत्तरोत्तर कंगाल बनाया गया है और यही बात उसके अन्य तर्क के संबंध में भी सही है" पृष्ठ क्रमांक 347 वॉल्यूम 7
 भारत के परिप्रेक्ष्य में वर्ग की लड़ाई
जब आप वर्ग की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सिर्फ आर्थिक समानता की बात करते हैं दरअसल भारत में जो वर्गीय अंतर है वह सिर्फ आर्थिक नहीं है। यह समझना होगा। यहां पर जातीय असमानता है। राजनीतिक असमानताएं गहरे पैठ बनाए हुए हैं। और इन जटिलताओं को सुलझाने के लिए समानता लाने के लिए आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करना काफी नहीं है। जातीय एवं राजनीतिक असमानता को खत्म करने के लिए तमाम क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व देना जरूरी है । यह प्रतिनिधित्व राजनीति, धार्मिक, समाजिक पदवी में, प्रशासन में, न्यायालय में देना होगा। डॉ अंबेडकर ने इसी प्रतिनिधित्व को रिजर्वेशन का नाम दिया। रिजर्वेशन कभी भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं तैयार किया गया। दरअसल यह भारत में फैली असामान्यताओं को खत्म करने के लिए बेहद जरूरी कार्यक्रम है। इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर ने आजादी के पहले गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधित्व के अधिकार की मांग की थी।
यह बात सही है कि डॉ आंबेडकर और मार्क्स दोनों समाज में समानता चाहते थे। लेकिन दोनों के समानता के उद्देश्य में बुनियादी फर्क है।
एक वर्ण व्यवस्था में समानता की बात करते हैं तो दूसरे वर्ग व्यवस्था में समानता की बात करते हैं।
एक वर्ग व्यवस्था में समानता के लिए संघर्ष की बात करते हैं। चाहे इसके लिए सर्वहारा तानाशाही ही क्यों ना करनी पड़े।
दूसरे वर्ण व्यवस्था में समानता लाने के लिए लोकतांत्रिक उपाय किए जाने की बात करते हैं जिसमें खूनी संघर्ष और तानाशाही के लिए कोई जगह नहीं है। वे जाति व्‍यवस्‍था का उन्‍मूलन में सबको साथ लेकर चलने की बात करते है। डॉं अंबेडकर कहते है एक ऊंच नीच वाली प्रणाली को खत्‍म करने के लिए नई ऊंच नीच वाली प्रणाली का निर्माण नही किया जाना चाहिए।
जब आप वर्ण यानी जाति व्यवस्था की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सामाजिक आर्थिक राजनैतिक तीनों प्रकार की समानता की बात करते हैं।
यह बात शायद भारतीय मार्क्सवादियों ने नजरअंदाज कर दिया होगा। क्योंकि बीमारी डायग्नोसिस करना किसी भी बीमारी के इलाज का पहला चरण होता है। डायग्नोज करने के बाद ही उसी हिसाब से उसका इलाज किया जा सकता है। जहां पर वर्ग की समस्या नहीं है वहां पर आप वर्ग के हिसाब से उसका इलाज करेंगे तो रिजल्ट्स नहीं आने वाले। जहां पर वर्ण की समस्या है, वर्ण संघर्ष की समस्या है वहां पर वर्ण के हिसाब से ही उसका इलाज करना होगा। तब कहीं जाकर उसके परिणाम सामने आ सकेंगे। यही जो बुनियादी फर्क है। वर्ग और वर्ण में। उसे समझना होगा। तब कहीं जाकर हम मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के समानता के सिद्धांत को अमलीजामा पहना पाएंगे।



कार्ल मार्क्स के 200वें जन्म दिवस पर कार्ल मार्क्स और उनका योगदान

कार्ल मार्क्स के 200वें जन्म दिवस पर
कार्ल मार्क्स और उनका योगदान
  - तुहिन देब
कार्ल मार्क्स, जिनका जन्म 5 मई 1818 को हुआ था, इस दौर के सबसे महान चिन्तक थे । उनके क्रांतिकारी विचारों ने दुनिया के मजदूरों को मुक्ति का रास्ता दिखाया और समाजवाद के लिए संघर्ष की प्रेरणा प्रदान की । इस वर्ष 5 मई को कार्ल मार्क्स का 200वां जन्म दिवस है । महान नेताओं का जन्म दिवस या मृत्यु दिवस और उनसे जुड़े ऐतिहासिक क्षणों की जयंती का समय एक आदर्श परिस्थिति होती है जब उनके द्वारा किये गये काम और उनके योगदानों का मूल्यांकन करते हुए वर्तमान समय में उसकी प्रासंगिकता पर गहन चर्चा और बहस की जाये । कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र का प्रकाशन फरवरी 1848 में हुआ था, जिसकी 170वीं जयंती फरवरी 2018 में मनाई गई । इसके ठीक पहले 2017 की शरद ऋतु में पूंजी की 150वीं जयंती मनाई गई थी, जिसके प्रथम खण्ड का प्रकाशन 1867 में हुआ था । 
कहा जाता है कि उनके विचारों ने मानवजाति के इतिहास में सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है । मार्क्स के विचार व्यापक और बहुआयामी हैं । उन्होंने वैज्ञानिक समाजवाद के विचार को विकसित किया जिसका तीन मुख्य घटक तत्व थे: द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद, राजनैतिक अर्थशास्त्र और वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त । संक्षेप में, उन्होंने ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण किया । इस तरह के विश्लेषण के आधार पर मार्क्स ने इतिहास की सही व्याख्या की, पूंजीवाद की बारीकियों को उजागर किया तथा समाजवादी और साम्यवादी क्रांति की जरूरत को रेखांकित किया । 
उन्होंने अर्थनीति, राजनीति, दर्शन, इतिहास, संस्कृति, समाजशास्त्र, विज्ञान और अन्य विषयों पर विस्तार से लिखा । उन्होंने वैज्ञानिक समाजवाद की नींव रखी और सर्वहारा महिला आन्दोलन व पर्यावरण आन्दोलन के लिए वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । उन्होंने नस्लवाद-विरोधी और जाति-विरोधी जैसे आन्दोलन को भी देखा ।
लेकिन उनका मजबूत किला केवल उनके विचार नहीं थे । वे अलग-अलग देशों के विभिन्न टेªड यूनियन संगठनों द्वारा गठित प्रथम वर्किंगमेन एशोसिएशन (कामगार संघ जिसे प्रथम कम्युनिस्ट लीग कहा जाता था) में सक्रिय थे । उन्होंने जर्मन वर्कर्स एसोशिएशन का गठन किया (हालांकि वे उस समय बेल्जियम में रह रहे थे) । कम्युनिस्ट लीग की ओर से ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा था । इस प्रकार, उन्होंने सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रवाद के सिद्धान्त को व्यवहार में लागू किया था, जिसे उन्होंने पूंजीवादी राष्ट्रवाद के विरोध में प्रतिपादित किया था ।
इस सभी गतिविधियों के लिए मार्क्स को व्यक्तिगत रूप से भारी कुर्बानी देनी पड़ी थी । उन्हें और उनके परिवार को प्रायः हमेशा गरीबी और पुलिस दमन का सामना करना पड़ा था । उन्हें कई बार देश निकाला का सामना करना पड़ा (दो बार फ्रान्स से और एक बार बेल्जियम से) और आखिरकार राज्यहीन व्यक्ति के रूप में इंगलैण्ड में रहना पड़ा था, क्योंकि इंगलैण्ड ने उन्हें नागरिकता प्रदान करने से इन्कार कर दिया था, जबकि प्रशिया ने उनकी नागरिकता को बहाल करने से मना कर दिया था । इस प्रकार, उन्हें अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में अपना काम जारी रखना पड़ा था । ऐसे कठोर जीवन के कारण उनकी पत्नी और परिवार को भारी कष्ट उठाना पड़ा था । इसकी वजह से उनके सात में से चार बच्चे बहुत कम उम्र में ही मर गये थे ।
कार्ल मार्क्स ने अर्थशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों में जिन विचारों का प्रतिपादन किया, कई लोग उसकी सच्चाई को स्वीकार करते हैं । फिर भी वे कहते हैं कि क्रांति के उनके विचार सही नहीं हैं और यह उनके अन्य विचारों में समाहित नहीं है । साफ तौर पर यह कहना गलत है । कार्ल मार्क्स के विचारों का सारतत्व क्रांति के बारे में उनकी अवधारणा है । यह उनके कामों की जीवनरेखा है । (क्रांति के विचार के बिना मार्क्स के विचार कुछ भी नहीं हैं) ।
मार्क्स के देहान्त पर उनकी कब्रगाह पर फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था: ‘‘उनका नाम युगों-युगों तक बना रहेगा और इसलिए उनका काम भी ।’’ यहां तक कि मार्क्सवाद-विरोधी भी एंगेल्स के इस बयान से असहमत नहीं होंगे, क्योंकि मार्क्स ऐसे विद्वान थे जिन्हें उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से अब तक सबसे ज्यादा सम्मान मिला है और सबसे ज्यादा पढ़ा गया है । मार्क्स के देहान्त के बाद, उनके महान काम को, जिसमें ऐसी रचनाएं भी शामिल रहे हैं जो कुछ समय तक लोगों की नजर में नहीं थे और जो केवल एंगेल्स और यूरोप के वामपंथी बुद्धिजीवियों के लेखों और भाषणों तक सीमित रह गये थे, लेनिन और रूस की अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने दुनिया के मंच पर ला दिया । आज इक्कीसवीं सदी में जब पूंजीवाद दीर्घकालीक संकटों के दौर से गुजर रहा है, एक बार फिर से मार्क्स के प्रति आकर्षण और उनकी किताबों को पढ़ने में रूचि बढ़ने लगी है । निश्चित ही, मार्क्सवाद के प्रति यह आकर्षण केवल तभी प्रासंगिक होगा जब मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं और उनके राजनैतिक हस्तक्षेप को उस ऐतिहासिक संदर्भ के साथ जोड़कर समझा जायेगा जिसमें वे रहे थे और काम किया था । धार्मिक किताबों के विपरीत, चूंकि मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक सिद्धान्त और समग्र विश्व दृष्टिकोण है, इसलिए यह कभी भी जड़सूत्र (लकीर का फकीर), या बन्द किताब, या अंतिम पाठ नहीं हो सकता है । यह कई अनसुलझे सवाल और रिक्त स्थान छोड़ जाता है जिसे आगामी क्रांतियों के द्वारा ही भरा जा सकता है और इसके आसन्न कामयाबियों को मार्क्सवादी सिद्धान्त व व्यवहार के ‘देश’ व ‘काल’ में उचित ढंग से शामिल किया जा सकता है ।
सभी समय के महानतम विद्वानों में से एक कार्ल मार्क्स एक राजनैतिक कार्यकर्ता थे जो क्रांतिकारी संघर्षों में लगे हुए थे और इसलिए उन्हें कई देशों से निष्कासित किया गया था । वे 1871 में पेरिस कम्युन के पक्ष में दृढ़ता के साथ खड़े हुए थे जो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में पहला समाजवादी प्रयोग था । अपने अवस्थानों के साथ कठमुल्ला की तरह चिपके रहने के बजाय, मार्क्स हमेशा ही तथ्यों की सत्य की खोज करने का तरीका अपनाकर अपने मत में बदलाव के लिए तैयार रहते थे । कार्ल मार्क्स की महानता केवल इस बात में नहीं है कि ठोस वास्तविकाताओं के प्रति उनके विचार पैने और स्पष्ट थे, बल्कि वे उन वास्तविकताओं को बदलने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी रखते थे । ये मार्क्स ही थे जिन्होंने जोर देकर कहा था कि परिवर्तन के नियम को छोड़कर अन्य सभी चीजें निरंतर परिवर्तनशील हैं । मार्क्सवाद पर भी परिवर्तन का यह नियम लागू होता है ।
मार्क्सवाद और उसकी पद्धति
हालांकि मार्क्स ने मात्र 29 वर्ष की उम्र में एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट घोषणापत्र को एक राजनैतिक बयान के रूप में, कम्युनिस्ट लीग के कार्यक्रम के रूप में लिखा था, तथापि उनका महानतम योगदान पूंजी लिखकर पूंजीवाद के गति के नियमों को उजागर करना था । उन्होंने जिस तरह से इसकी रचना की वह जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनैतिक अर्थशास्त्र और फ्रान्सिसी राजनैतिक सिद्धान्त की विभिन्न विचारधाराओं के उनके समसामयिक विद्वानों से मूलभूत रूप से अलग था । लेकिन इस बीच पूंजीवाद ने लम्बा सफर तय किया है । उन्नीसवीं सदी के अन्त में पूंजीवाद का साम्राज्यवाद में रूपांतरण हुआ जिसके बारे में लेनिन ने ‘‘साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था’’ लिखकर युगांतरकारी अध्ययन किया था । बीसवीं सदी में यह लम्बे समय तक उपनिवेशवाद और फिर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में नव-उपनिवेशवाद के रास्ते पर चला और इक्कीसवीं सदी में वैश्विकृत नव-उदारवादी साम्राज्यवाद के रूप में इसने आगे और विस्तार किया । इस लम्बे सफर में पूंजीवादी अपनी उपयोगिता खो चुका है और मार्क्स के समय की अपेक्षा हजार गुना ज्यादा दमनकारी, शोषणकारी और घृणित हो चुका है । इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि आज की ठोस परिस्थितियों के अनुरूप मार्क्सवाद और मार्क्स की पद्धति को ज्यादा सख्त तरीके से लागू किया जाये । 
दूसरी तरफ, वैचारिक और राजनैतिक कमजोरियों के चलते आम तौर पर समूचा वामपंथ (या विचारों की विभिन्न मार्क्सवादी धाराएं) इस स्थिति में नहीं हैं कि वे इस संबंध में वैचारिक और राजनैतिक जिम्मेदारियों को अपने हाथों में ले सके, जिसकी आज सख्त जरूरत है । उदाहरण के लिए, पूंजी और श्रम के बीच अन्तर्विरोध की यांत्रिक रूप से व्याख्या या महज तोतरटंत आज शोषण और उत्पीड़न की उजागर हो रही जटिल प्रक्रिया का यथेष्ट विश्लेषण नहीं है, क्योंकि तीखा होता अन्तर्विरोध अन्य परिक्षेत्रों में भी उभर रहा है जो बहुआयामी है । असल में, मार्क्स अपने विश्लेषण की ऐतिहासिक और स्थानिक सीमाओं से स्वयं अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए उन्होंने उत्पादन की पंूजीवादी विधि के बारे में अपने मानक विश्लेषण को विभिन्न सामाजिक गठनों में लागू करने के लिए और आगे विस्तार करने की गुंजाइश रखी थी ।
इस मामले में एक अच्छा उदाहरण है मार्क्स की ‘‘उत्पादन की एशियाई विधि’’ की अवधारणा । उन्होंने यह अवधारणा ‘‘ब्रिटिश ताज के कोहिनूर’’, भारत में जाति प्रथा के बारे में अपनी समझदारी के संदर्भ में रखी थी जिसे समझे बिना दुनिया के इस हिस्से की उत्पादन विधि, श्रम के विभाजन और अतिरिक्त मूल्य के दोहन का द्वन्द्वात्मक रूप से विश्लेषण नहीं किया जा सकता है । हालांकि वे उस समय अग्रणी पूंजीवादी देश ब्रिटेन में रह रहे थे और अपना अधिकांश वक्त पूंजीवाद का विश्लेषण करने में लगा रहे थे, तथापि इस तथ्य पर उतना ध्यान नहीं दिया गया कि मार्क्स ने गैर-यूरोपीय समाजों तथा एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद की विनाशकारी भूमिका के अध्ययन के लिए भी अपना काफी वक्त दिया था । बाद के दिनों के ‘‘मार्क्सवादियों’’ के विपरीत, मार्क्स इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थे कि अनोखी और कुख्यात रूप से अमानवीय जाति प्रथा की जड़ें गहरी हैं और यह अधिरचना और ऊपरी ढांचे में दोनों को अविभाज्य रूप से प्रभावित करती है, जिसे ध्यान में रखे बिना एशियाई समाज का कोई भी वर्ग विश्लेषण अमूर्त होगा । 
मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार, किसी सामाजिक व्यवस्था का पूरा सारतत्व अन्ततः उत्पादन के साधनों के मालिकाना के चरित्र द्वारा तय होता है । इस संदर्भ मंे, सम्पत्ति के मालिकाना और उत्पादन विधि का ‘यूरोप-केन्द्रित’ विश्लेषण, उदाहरण के लिए, भारत जैसे देश के लिए (जहां आज 130 करोड़ की आबादी है) नामुनासिब है, जहां आबादी के एक बड़े हिस्से, उत्पीड़ित जातियांे को सदियों से हाशिए पर रहने के लिए बाध्य किया गया है, यहां तक कि शासन व्यवस्था के ढांचे से दूर रखा गया है और ‘‘सामाजिक संबंधों की विशिष्ट टुकड़ी’’ होने के नाते जमीन समेत उत्पादन के साधनों के मालिकाना से ऐतिहासिक रूप से वंचित रखा गया है जिसके फलस्वरूप यहां अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज और संस्कृति का अनूठा पैटर्न (स्वरूप) तैयार हुआ है । कुल मिलाकर, मार्क्स के तकरीबन सभी रचनाओं मंे, जैसे कि जर्मन विचारधारा, दर्शन की दरिद्रता, राजनैतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान और सबसे बढ़कर उनकी कालजयी रचना पूंजी में तथा न्यूयार्क डेली ट्राइब्यून अखबार के लिए लिख गये ‘‘भारत में ब्रिटिश राज भावी परिणाम’’ जैसे लेखों में उन्होंने भारतीय उप-महाद्वीप में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका का खास तौर पर जिक्र किया है । यह अद्वितीय दूरदर्शीता और प्रतिभा, जिसका मार्क्स ने शुरू से ही प्रदर्शन किया है, उनकी अवधारणा और पद्धति को, विभिन्न सामाजिक गठनों की अपनी खासियतों के बावजूद, सार्वभौमिक बनाती है ।
हम इस दिन मार्क्स को केवल अतीत की उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मान देने के लिए याद नहीं कर रहे हैं । हम विशेष रूप से इस बात पर जोर देते हैं कि कार्ल मार्क्स का विचार ही भविष्य है, यह कि विभिन्न किस्म के संकटों कृ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, नस्लीय और पर्यावरणीय संकटों से ग्रसित दुनिया में वैज्ञानिक समाजवाद ही भविष्य है । ऐसी एक दुनिया मंे कार्ल मार्क्स ने हमें एक ऐसी दुनिया की रचना का मौका दिया है जो वर्गविहीन होगा, जहां नस्ल, प्रजाति, लिंग, जाति और इस प्रकार के अन्य पक्षपात नहीं होंगे। यह एक ऐसी दुनिया होगी जहां उत्पादन के साधनों पर कृ जमीन और उद्योग पर कृ निजी मालिकाना नहीं रहेगा, जहां से मानवजाति के असली इतिहास की शुरुआत होगी।
आइए, हम सब मिलकर कार्ल मार्क्स को सही अर्थों में याद करने का प्रयत्न करें । आइए, हम सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रवाद की भावना को बुलन्द रखने, जनवाद और आजादी के लिए, समाजवाद और साम्यवाद के लिए लड़ने तथा कार्ल मार्क्स ने जैसी दुनिया की दृष्टि प्रदान की है वैसी दुनिया के लिए संघर्ष करने के अपने प्रण और उत्साह नये सिरे से दुहरायें । ’’क्र्रांतिकारी पार्टियों व संगठनों के अंतरराष्ट्रीय समन्वय (आईकोर)’’ ने सभी कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों से अपील की है कि कार्ल मार्क्स के 200वें जन्म दिवस पर ‘‘मार्क्स द्वारा दिखाये गये क्रांतिकारी रास्ते पर चलने के लिए नौजवानों को प्रेरित करने के लिए’’ तथा ‘‘दुनिया को समाजवाद और साम्यवाद की दिशा में बदलने’’ के नारे की रूह को बुलन्द करने के लिए मार्क्स के विचारों को प्रचारित करें ।
आज नव-उदारवाद के तहत, पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था अपने लम्बे इतिहास में सबसे बदतर और दीर्घकालिक संकट से गुजर रही है । सामाजिक जीवन के सभी परिक्षेत्र, जिसमें विज्ञान और तकनीकी की ताजा उन्नत्ति भी शामिल है, मुट्ठीभर कॉरपोरेट अबरपतियों के कब्जे में है । गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, विस्थापन, सम्पत्तिहरण, गैर-बराबरी, असुरक्षा, युद्ध का खतरा, पर्यावरण का विनाश, सांस्कृतिक अधःपतन इत्यादि अत्यन्त बुरी स्थिति में पहुंच गये हैं । एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद आज काल-दोष का शिकार है ।
इस अनुकूल वस्तुनिष्ठ परिस्थिति के बावजूद, वामपंथी और कम्युनिस्ट आन्दोलन कमजोर है और इस स्थिति में नहीं है कि वह मजदूरों और उत्पीड़ित जन समुदायों के खदबदाते असंतोष को क्रांति के रास्ते में नेतृत्व प्रदान कर सके । वामपंथी और प्रगतिशील नेतृत्व की एक मुख्य कमजोरी यह है कि वह पूर्ववर्ती समाजवादी प्रयोगों से उचित सबक लेने में तथा इसके अनुरूप राजनीति का विकास करने में अक्षम है । अन्य चीजों के अलावा, मुख्यतः भूतपूर्व समाजवादी देशों के नौकरशाही और केन्द्रीकृत राज्य तंत्र के नाम पर (जिसका नवीनतम प्रतीक चीन का नौकरशाही राजकीय इजारेदार पूंजीवाद है), मुक्त बाजार के प्रवक्ता और नव-उदारवाद के वैचारिक पैरोकार उत्तर-आधुनिकतावादी मार्क्सवाद पर जोरदार हमला कर रहे हैं । 
मार्क्सवादी पाठों से यांत्रिक और कठमुल्लावादी ढंग से चिपके रहने के साथ-साथ, ऐतिहासिक और सामाजिक विशेषताओं और परिस्थितियों के अनुरूप मार्क्सवाद का विकास करने में अक्षम रहने से भी दुश्मन खेमे को ‘‘मार्क्सवाद की मौत’’ का ऐलान करने का बल मिला है । इसके साथ ही, ‘‘विचारधारा का अन्त’’, ‘‘इतिहास का अन्त’’, ‘‘उत्तर-वैचारिक राजनीति’’, जैसी चरम-दक्षिणपंथी भविष्यवाणी करने के लिए अनुकूल माहौल बना है ।
वहीं यह ऐसा समय भी है जब सभी जगहों पर मजदूर और उत्पीड़ित जनता संघर्षरत है । आज दुनिया में अनौपचारिक और असंगठित तबकों की बड़े पैमाने पर गोलबन्दी भी देखी जा रही है । किसान, महिलाएं, प्रवासी, शरणार्थी और उत्पीड़ित जातियां, वर्ग व तबके अपनी दावेदारी कर रहे हैं, जैसा कि भारत में देखा जा रहा है । यह दिनांेदिन साफ होता जा रहा है कि मौजूदा नव-उदारवादी व्यवस्था के अन्तर्गत चौतरफा संकट का समाधान नहीं किया जा सकता है ।
इस नाजुक मोड़ पर मार्क्स के महान योगदान को पढ़ना और भी महत्वपूर्ण हो गया है । जैसा कि बहुत से लोग गलत समझते हैं, मार्क्सवाद विचार का कोई अमूर्त संकलन नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक और व्यवहारिक दोनों है । यह कोई चीज थोपता नहीं है, बल्कि वस्तुनिष्ठ रूप से मौजूद सामाजिक संबंधों से शुरुआत करता है । इससे पार पाने की प्रक्रिया में मार्क्सवाद का आगे विकास होता है । कोई मसीहा नहीं होता है; जनता को स्वयं राजनैतिक चेतना से लैस होकर अपने अस्तित्व को बदलना है । आज जब हम मार्क्स के 200वें जन्मदिवस पर उन्हें पुनः याद कर रहे हैं तो यह उनके लेखों के अमूर्त पाठ के बजाय चेतना को बढ़ाने का प्रयास होना चाहिए । 
’’दुनिया के मजदूरों व उत्पीड़ितों एक हों’’
  (लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।) 
संपर्क: तुहिन देब
फोन:  095899-57708 
ई-मेल: tuhin_dev@yahoo.com

Personality of the week with Dr dinesh mishra Part-2 episode- 10 dmaindiaonline

डी एम ए इंडिया आनलाईन यूट्यब चैनल के पर्सनालिटी आफ द वीक में अंधश्रध्‍दा निर्मूलन समिति के अध्‍यक्ष डॉं दिनेश मिश्र बता रहे है आज का पढ़ा लिखा व्‍यक्ति भी अंधविश्‍वास के गिरफ्त में है। इसके लिए जरुरी है कि पहली क्‍लास से अंध्‍द श्रध्‍दा पर एक पाठ्यक्रम होना चाहिए। वे और भी रोचक बाते बता रहे है देखे उनका यह एक्‍सक्‍लूसीव इंटरव्‍यू दो भागों में।

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Personality of the week with Dr dinesh mishra Part-1 episode- 9 dmaindiaonline


डी एम ए इंडिया आनलाईन यूट्यब चैनल के पर्सनालिटी आफ द वीक में अंधश्रध्‍दा निर्मूलन समिति के अध्‍यक्ष डॉं दिनेश मिश्र बता रहे है आज का पढ़ा लिखा व्‍यक्ति भी अंधविश्‍वास के गिरफ्त में है। इसके लिए जरुरी है कि पहली क्‍लास से अंध्‍द श्रध्‍दा पर एक पाठ्यक्रम होना चाहिए। वे और भी रोचक बाते बता रहे है देखे उनका यह एक्‍सक्‍लूसीव इंटरव्‍यू दो भागों में।
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Riddles of Hinduism किताबों की दुनिया से एपिसोड नंबर 3 dmaindiaonline

डॉ बाबासाहेब आंबेडकर की किताब द रिडल्स ऑफ हिंदुइजम पर आज बातचीत कर रहे हैं रवि बौद्ध जी। वह बता रहे हैं कि यह किताब पढ़ना क्यों जरूरी है दरअसल यदि आप को हिंदू धर्म की पहेलियों को समझना है। तो यह आपके लिए बेहद जरूरी किताब है। इस वीडियो को देखें और कोई सलाह हो तो कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट जरुर करें। Friends welcome to youtube channel DMAINDIA ONLINE please go through the link for subscription. You will got alert for live & new post. https://goo.gl/BtJmKS only scientific temperament Please subscribe this channel, you can get notification for new upload and live broadcast. केवल वैज्ञानिक सोच आप इस चैनल को सबस्क्रांईब करने के लिए यहां क्लिक कर सकते है.। ताकि आपको नियमित पोस्टो एवं सीधे प्रसारण की सूचना मिल सके।

Ratan gondane in personality of the week dmaindia online dmaindia online

रंगकर्मी श्री रतन गोंडानेजी बता रहे हैं कि उन्हें पढ़ने का ऐसा शौक था कि गरीबी परिस्थिति होने के कारण वह रद्दी की दुकान से किताबें खरीद कर पढ़ा करते थे. वह जबलपुर में रहने के दौरान हरिशंकर परसाई, मलय घोष, कमला प्रसाद जैसे नामी लेखकों के साथ करीबी तालुकात थे. Friends welcome to youtube channel DMAINDIA ONLINE please go through the link for subscription. You will got alert for live & new post. https://goo.gl/BtJmKS

हिन्दू जाति का उत्थान पतन | किताबो की दुनिया से

लेखक रजनीकांत शास्त्री. हिंदू जाति का उत्थान पतन काफी पुरानी किताब है जो जाति व्यवस्था पर लिखी गई है यह सबसे पहले 1940 में प्रकाशित हुई थी किताब महल के द्वारा और काफी डिमांड होने के बाद यह 2005 में पुनः प्रकाशित हुई है इस किताब में हिंदू धर्म ग्रंथों के रिफरेंस का प्रयोग किया गया है तथा बड़ी सावधानी पूर्वक निष्पक्ष होकर उनका विश्लेषण किया गया है जाति व्यवस्था किस प्रकार खत्म की जा सकेगी इसका भी एक निष्कर्ष दिया गया है यह जरूरी किताब है पड़नी चाहिए