superstation on independence day

स्‍वतंत्रता दिवस पर अंधविश्‍वास की परछाई
संजीव खुदशाह
Indian Flags
यह प्रश्न अटपटा हो सकता है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि 14 अगस्त को पाकिस्तान में आजादी का दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे इतिहास में कुछ कहानियां छिपी हुई है। 1929 में तत्कालीन कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वराज की मांग की थी। उस समय 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के लिए चुना गया था। अंग्रेजो ने 14 अगस्‍त को भारत छोड़ने का निर्णय लिया था।
आजाद भारत की पृष्‍ठ भूमि
Pakistani Flage
द्वितीय विश्वयुद्ध (1935 से 1945) के बाद अंतर्राष्ट्रीय संधि के दबाव में ब्रिटिश संसद में लॉर्ड माउंटबेटन को 30 जून 1948 तक सत्ता का ट्रांसफर करने का अधिकार दिया था। सी राजगोपालचारी ने इस बारे में कहा था कि यदि वह जून 1948 तक इंतजार करते हैं। तो ट्रांसफर करने के लिए कोई सत्ता ही नहीं बचेगी। इसीलिए 4 जुलाई  1947 को माउंटबेटन भारत को छोड़ने का बिल पेश किया। जिसे 15 दिन में ही पास कर दिया गया। जिसमें यह तय किया गया कि 15 अगस्त 1947 के पहले भारत छोड़ दिया जायेगा।
इस तरह 14 अगस्त 1947 कि बीती रात को भारत छोड़ने का निर्णय लिया गया। इसी समय भारत के दो टुकड़े हुए जिसका निर्णय काफी पहले लिया जा चुका था। और पाकिस्तान में उसी दिन अपने आप को आजाद कर लिया। लेकिन भारत में इस गुलामी से छुटकारा पाने के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद ने गोस्वामी गणेश दास महाराज के माध्यम से उज्जैन के ज्योतिष सूर्यनारायण व्यास को हवाई जहाज से दिल्ली बुलवाया और पंचांग देखकर आजादी का मुहूर्त निकलवाया।
पूरे संसार में यह बिरली घटना है जब किसी ने गुलामी की बेड़ियों को खोलने के लिए भी ज्योतिष, शुभ-अशुभ, मुहूर्त, अंधविश्वास का सहारा लिया और उसे 1 दिन और अपनी गुलामी में रहना पड़ा।
Pt Jyotish suryanarayan vyas
ज्योतिष पंडित सूर्यनारायण व्यास ने 14 तारीख के बजाय 15 तारीख की बीती रात को शुभ लग्न बताया। इस हिसाब से हम पाकिस्तान से 1 दिन छोटे हो गए.। जो पंचांग बनाया गया उसमें यह बताया गया कि यदि 15 तारीख को आजाद होते हैं तो भारत में लोकतंत्र, सुख शांति और प्रगति बनी रहेगी। 75 वर्ष के भीतर भारत विश्व गुरु बनेगा। इतना ही नहीं, पं. व्यास के कहने पर ही स्वतंत्रता की घोषणा के तत्काल बाद देर रात ही संसद को धोया गया, बाद में बताए मुहूर्त के अनुसार गोस्वामी गिरधारीलाल ने संसद की शुद्धि भी करवाई।
यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत  पाकिस्तान से भी ज्यादा लोकतांत्रिक सुख शांति और प्रगति वाला देश है आइए इसका विश्लेषण करते हैं।
पहला भारत में जिस प्रकार से संप्रदायीक हत्याएं हो रही है। लिंचिंग जैसी घटनाएं हो रही है। दलित और ओबीसी तथा अल्पसंख्यको का दमन किया जा रहा है। इंसान को जानवर और जानवरों को माता का दर्जा दिया जा रहा है। इससे आप भारत में सांप्रदायिक और लोकतांत्रिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं।
पाकिस्तान पाकिस्तान में भी यह स्थिति भारत के समकक्ष हुई लगती है। वहां भी मारकाट क्षेत्रीयतावाद, महिलाओं का दमन चरम पर है। और भारत की तरह पड़ोसी देश को नीचा दिखाने के लिए सरकारें आमदा रहती हैं।
दूसरा न्याय व्यवस्था भारत की न्याय व्यवस्था आज बिगड़ी हालत में बदल चुकी है। कॉलोसियम परंपराओं में अयोग्य न्यायाधीशों का दबदबा कोर्ट में बढ़ गया है। ईमानदार न्याय प्रिय न्यायाधीशों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। और बेहद दबाव में यह काम करने के लिए मजबूर है।
वही पाकिस्तान में न्याय व्यवस्था कुछ मजबूती दिखाई पड़ती है। जहां पर पूर्व राष्ट्रपति को 1 घंटे खड़े रहने की सजा दी जाती है। तो दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री को पनामा केस में सजा दी जाती है। उसी पनामा केस की भारत में फाइलें बंद की जा चुकी है।
तीसरा भारत में जिस प्रकार से प्रेस मीडिया को दबाव में रखा जा रहा है और सोशल मीडिया को कंट्रोल किए जाने की कोशिश हो रही है। इससे नहीं लगता कि लोकतंत्र ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा।
वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में गलत कामों के लिए मीडिया में अपने प्रधानमंत्री का मजाक बनाना एक आम बात होती है।
चौथा भारत में शिक्षा व्यवस्था बेहद खस्ता हाल में पहुंच चुकी है। हजारों स्कूलों को बंद किया जा चुका है। आठवीं तक बिना पढ़े पास होने का फरमान जारी है। ऐसी स्थिति में आप समझ सकते हैं कि आम भारतीय की शिक्षा की स्थिति क्या होगी ठीक यही स्थिति पाकिस्तान में भी है।
पांचवा ग़रीबी भारत में गरीबी और विकासशील देशों की सूची में काफी पीछे है। 5 जून 2016 जनसत्ता में छपी खबर के मुताबिक भारत को विकासशील देशों की सूची से हटाकर पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ लो और इनकम वाली सूची में रखा गया है। इससे आप भारत की गरीबी का अंदाजा लगा सकते हैं।
यह चंद आंकड़े हैं जो यह बताने के लिए काफी है कि पंडित ज्योति सूर्यनारायण व्यास की भविष्यवाणी और उनका पंचांग कहां तक सही है।
रही बात भारत के विश्व गुरु बनने की तो शिक्षा की स्थिति के आधार पर यह कहना हास्यास्पद है। मुझे लगता था कि आज के समय में भारत अपनी अंधविश्वास से निजात पाएं और स्वयंभू विश्व गुरु बनने के दावा से बाहर निकलें।
यह यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है दुनिया की 100 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय की सूची में हमारा एक ही विश्वविद्यालय शामिल क्यों नहीं है? दुनिया के अविष्कारों में भारत का एक भी अविष्कारक नहीं है।
हमें अपनी आत्ममुग्धता की बीमारी से निजात पाने की जरूरत है । तभी सही मायने में भारत आजाद कहलाएगा। नहीं तो गुलामी का एक दिन कई हजार सालों के बराबर होगा।

काला करिकालन एक शानदार फिल्म Film Review


काला करिकालन - मिथकों से लड़ते, उन्हें उलटते, पलटते, बदलते हुए कथानक पर एक शानदार फिल्म

विश्वास मेश्राम
काला प्रारंभ से अंत तक फ्रेम दर फ्रेम ढेर सारे प्रतिकों के माध्यम से बात करती फिल्म है। अन्य बालीवुड फिल्मों की तरह इसमें प्रेम है, मारधाड़ है, गाने हैं, डांस है, नाटकीयता है फिर भी यह नख से शिख तक स्थापित परंपराओ, मान्यताओं और स्थितियों के खिलाफ अपना अलग संदेश छोड़ती चलती है। काला की खूबी यह है कि यह हमारे
स्मृतियों में बचपन से घुट्टी में पिलायें गये मिथकों से लड़ती है, उन्हें झकझोरती है और बार बार तोड़ती है। यह उनके समानांतर बल्कि ठीक उलटे जनकेन्द्रित विमर्श रखते चलती है।
फिल्म की कहानी धारावी की स्लम बस्ती के लोगों के जीवन की , उनके बनने, मिटने और फिर फिर बनने की कथा है। जहां अंधेरा और दलदल हुआ करता था वह धारावी ।
जातीय भेदभाव के कारण सैकड़ों सालों से जिन्हें शिक्षा, संपत्ति और हथियार रखने से वंचित रखा गया , ऐसे लोग अपने गांव छोड़ कर बेहतर जीवन की तलाश में , आकार लेती बम्बई आए और शहर का कचराखाना इलाके की जमीन को व्यवस्थित कर अपनी बस्ती बसाई, अपने सर पर एक छत का जुगाड़ किया और रहने लगे। दक्षिण भारत से आए इन लोगों में पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की बेहद खूबसूरत झलक है। जबरदस्त आत्मसम्मान - जो उत्तर भारतीय ब्राह्मणी परम्परा के उलट - न किसी के पांव छूता है न किसी को पांव छूने देता है।
तो धारावी की बस्ती में उन्होंने भिमवाड़ा बनाया है । भिमवाड़ा अर्थात डा0 भीमराव आंबेडकर के लोगों के रहने की बस्ती। जहां बुद्ध विहार भी बनाया गया है जो पूरी बस्ती की हर गतिविधि का शक्तिकेंद्र है । वहां की सारी बैठकें , सारे उत्सव, खुशियों से लबरेज़ डांस, संघर्ष के दौर के नुक्कड़ नाटक और असहयोग आंदोलन की हड़ताल भी वहीं से विस्तार पाती है । धारावी बस्ती एक प्रतीक है वास्तविक भारत का और उसकी समकालीन समस्याओं का , जो कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक अवधारणा को बारबार आकृष्ट करती है आईना दिखाते हुए। इसके पहले रमाबाई नगर मुंबई के दलितों के संघर्षों की कहानी आनंद पटवर्धन की टीम द्वारा "जयभीम काम्रेड" फिल्म में भी बहुत जीवंतता और मुखरता के साथ दिखाई जा चुकी है।

नायक रजनीकांत काला है। उसके कपड़ें, उसका चश्मा, उसका छाता, उसकी जीप सब काला है और सांस्कृतिक गुलामी के दौर में स्थापित की गई गोरेपन की उच्चता की भावना को ध्वस्त करने, नेस्तनाबूद करने, चकनाचूर करने का प्रतीक है। वह काला के रुप में द्रविड़ो का, मुलनिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। फिल्म में वह रावण के मिथक की तरह दिखाया गया है और फोनिक्स की तरह भी जो अपनी ही राख से फिर से जी उठता है। विद्वान निर्देशक पा रंजीत फिल्म के अंतिम हिस्से में इसे बहुत खूबसूरती से दर्शाते हैं जब विलेन हरिभाऊ अभयंकर के गुंडे बस्ती में आग लगाते हैं और काला को गोली मारते हैं मगर दूसरे दिन स्लम को तोड़कर कालोनी बनाने भूमिपूजन करने आए विलेन हरिभाऊ को हर जगह काला दिखाई देता है और फिर चारो ओर काला रंग, लाल रंग और नीला रंग छा जाता है जिसके साथ विलेन मारा जाता है । जिन्होंने फिल्म अंत तक देखी उन्हें ठीक अंत के पहले, ढ़ेर सारे रंगों के कोलाज के मध्य भविष्य का आगाज करता जय भीम लिखा नीला परचम लहराता दिखता है ।
काला फिल्म स्लम बस्तियों के लोगों से अपने हकों अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्षों का आह्वान करती है । वह स्पष्ट संदेश देती है कि अपने अधिकार, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ना ही होगा । एक तरफ वह बुद्धिजीवी वामपंथियों को केवल किताबी ज्ञान के आधार पर क्रांति करना छोड़कर जमीन से जुड़ने के लिए ललकारती है तो दूसरी ओर वंचितों को उनकी ताकत बताती है कि भले ही हमारे पास धन जायजाद, महल अटारी, व्यापार उद्योग नहीं, यह शरीर ही हमारी ताकत है । यह अनायास नहीं है कि नायक अपने बेटे का नाम लेनिन रखता है और बुनियादी समझ के बिना किए जा रहे उसके रूमानी संघर्षों पर बेटे की खिंचाई करता है।
जैसा कि पहले कहा, काला प्रतीकों की फिल्म है। हरिभाऊ के द्वारा बस्ती में आग लगवाना लंका जलवाने का प्रतीक है और वह सोचता है कि इससे बस्ती वासी टूट जाएंगे तभी काला लोगों को एकजूट कर श्रमशक्ति के असहयोग का काल देता है जिसके बाद सारे अंधेरी वासी और उनके रिश्तेदार अपना सारा काम बंद कर देते हैं । कन्ट्रास्ट देखिये कि एक संभ्रांत नवयौवना टैक्सी चालकों के न मिलने से लोकल ट्रेन में जाने की मजबूरी पर नाक भौ सिकोड़ती है और धारावी वासियों को भलाबुरा कहती है वहीं बाम्बे स्टाक एक्सचेंज की पृष्ठभूमि में एक सफेदपोश उद्योगपति प्रतिदिन दस लाख के नुकसान का रोना रोते हुए हड़तालियों को गालियां देता है जबकि बस्तीवासी काला के साथ अपने अस्तित्व को बचाने लड़ रहे होते हैं।
काला फिल्म सांप्रदायिक ताकतों के षड्यंत्रों को भी भलीभांति उजागर करती है। वह बताती है कि किस प्रकार एक वर्गविशेष सर्वहारा की एकता को तोड़ने के लिए दंगे फैलाने के लिए अपने भाड़े के टट्टुओं का इस्तेमाल करता है लेकिन अगर दलितों-मुसलमानों के बीच परस्पर संवाद और सौहार्द है तो वे असफल होते रहेंगे। इस दृश्य को देखते हुए भीष्म साहनी अपनी तमश के साथ अनायास जहन में उभरने लगते हैं।
काला में डायलॉग तो सशक्त हैं ही, प्रतीकों का जबरदस्त इस्तेमाल कर पा रंजीत अपने संदेश देते हैं।
विलेन हरिभाऊ अभयंकर गोरा है, उसे देख तिलक की आर्कटिक सागर से आये आर्यों की थ्योरी याद आ जाती है। उसके कपड़ें झक्क सफेद, उसका मकान व्हाइट हाउस, उसके गुंडे श्वेत वस्त्रधारी तथाकथित अभिजात्य संस्कृति के प्रतीक लेकिन उसका काम ठीक उलट -भू माफिया, हत्यारा, दंगा फसाद भड़काने वाला, राजनैतिक दल का कंट्रोलर यानि कि समानांतर सत्ता का केंद्र ।हरिभाऊ की ताकत पैसा, गुंडई और राजनैतिक पहुंच है तो काला की ताकत उसके लोग हैं ।
हरिभाऊ अपने बंगले में रामकथा करवाते हैं तो काला के बेडरूम में आनंद नीलकंठन की रावण और उसके लोगों पर केन्द्रित "असुर" पुस्तक पर पा रंजीत कैमरा फोकस करते हैं। हरिभाऊ पैर छुवाते हैं तो काला, हरिभाऊ की पोती को पैर छूने से स्पष्ट मना करते हुए आदमी-आदमी के एक समान होने का, समता और समानता का संदेश देते हैं । पूरी फिल्म में ये सभी अंतर बार बार नजर के सामने आते हुए वर्गभेद और जातिभेद को स्पष्ट करते चलते हैं।
काला मिडिल क्लास मानसिकता के प्रभाव में आकर धारावी बस्ती छोड़कर जाने का मन बनाते अपने बेटे बहू को डांटते हैं और अपनी जमीन से जुड़े रहने का संदेश देते हैं । काला की पत्नी के रुप में सेल्वी की स्क्रिप्ट भी बहुत सशक्त बनाई गई है । एक पूरे घर को बांधकर रखने वाली गृहिणी, पति के साथ आत्मसम्मान से लबरेज़ , उसके विचारों की साथी, बदले की आग में धधकते हुए काला की व्यक्तिगत लड़ाई को सामाजिक लड़ाई में तब्दील करने वाली ।
फिल्म में एक पढ़ी लिखी मुस्लिम महिला के रूप में जरीना का रोल भी बहुत अहम है। वह एक एनजीओ चलाती है । अफ्रीकन देशों में स्लम बस्तियों का सुधार कर धारावी को सुधारने लौटी है । सिंगल मदर है जिसकी बेटी का नाम कायरा ( ग्रीक भाषा में काला ) है। मूलतः धारावी में ही पली बढ़ी । काला की मंगेतर । ठीक शादी के दिन हरिभाऊ की गुंडागर्दी में काला और उसके परिजनों की हत्याएं दिखाई गई है जिसके बाद दोनों अलग हो जाते हैं । काला तड़ीपार तो जरीना किसी मिशनरी के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका । तो वह धारावी को सुधारने के लिए आर्किटेक्ट ( टाउन प्लानर ) से प्लान तैयार करवाती है । इस प्लान का काला और उसके साथी विरोध करते हैं कि इसे धारावी की जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जाएं न कि किसी बिल्डर के मुनाफा कमाने के लिए। शुरुआत में वह काला के विरोध को समझ नहीं पाती मगर बाद में बिल्डर की सच्चाई और गुंडागर्दी को देखकर वह अंधेरी की जनता के साथ आ खड़ी होती है और अंतिम जीत तक वह काला और उसके साथियों के साथ होती है।
फिल्म में जातियां नहीं दिखाई गई है मगर जातिय वर्ग बहुत स्पष्ट दिखते हैं।
शुरुआत में ही ओबीसी-दलित एकता के प्रतीक के रूप में धोबीघाट को तोड़ने से बचाने का संघर्ष है।
फिल्म के अधिकतर कलाकार तमिल हैं। सभी ने अपनी भूमिकाएं बेहतरीन ढ़ंग से निभाई हैं । रजनीकांत नोडाउट सुपरस्टार हैं और हर फ्रेम में अपनी छाप छोड़ी है। हरिभाऊ अभयंकर के नेगेटिव रोल के साथ नानापाटेकर ने पूरा न्याय किया है और एक मंजे हुए अभिनय का परिचय दिया है। उन्हें शाबाश नाना कहना लाजिमी है। हुमा कुरैशी ने भी जरीना की भूमिका बखूबी निभाई है। सभी कलाकारों को सौ सौ सलाम ।
P रंजीत की कल्पनाशीलता और उसका विजन निस्संदेह काबिलेतारीफ है जिसमें वह काला फिल्म और उसका नायक काला करिकालन से समग्रता में बुद्ध के बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिए जीने और मरने का संदेश देने में कामयाब रहे हैं। काला फिल्म शुरुआत से अंत तक हिंसा से भरी है फिर भी यह हिंसा की व्यर्थता को रेखांकित करती है और दलित-वंचित मूलनिवासीजन को आत्मसम्मान से जीने, एकजूट होकर अपनी ताकत से अपनी जमीन और अपना अस्तित्व बचाने तथा बेहतर जीवन स्थितियां हासिल करने की जबरदस्त अपील करती है।

क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए?


विद्या भूषण रावत
क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए. आज उनका जन्मदिन है लेकिन उनको याद करने वाले कम लोग है. बहुत से उन्हें आज भी जी भर के पानी पी पी के कोसते है. सवर्णों की बहुत बड़ी तादाद उन्हें आज भी अपने साथ हुए अन्याय के लिए कोसती है और जो मंडल का इतिहास लिख रहे है वे भी उनलोगों का नाम क्रांतिकारियों में लिखते है जो मंडल के दौरान विपक्षी कैंप में थे लेकिन वी पी को जान बूझकर भुला देते है. क्या मंडल की कोई व्याख्या वी पी सिंह के योगदान के बगैर संभव है. हम शरद यादव को श्रेय देते है, रामविलास पासवान को इसके लिए जिम्मेवार बताते है लेकिन वी पी सिंह को क्यों नहीं ?

विश्वनाथ प्रताप भले ही शुरूआती दौर से सामाजिक न्याय के मोर्चे के व्यक्ति नहीं रहे हो लेकिन उन्होंने ईमानदारी से अपने काम किये और उसके लिए ताउम्र सत्ता के हरेक ताकतवर व्यक्ति से वो टकराए. अम्बानी से लेकर चंद्रास्वामी तक से उन्होंने लड़ा लेकिन अंततः अकेले पड़ गए. उनकी अपनी बिरादरी वालो ने उन्हें दुश्मन बताया तो जिनके लिए वो लडे वो भी उनको याद नहीं रख पाते.

दरअसल आज के दौर में सामाजिक न्याय का मुद्दा सभी का प्रमुख सवाल होना चाहिए था लेकिन उसको भी खांचो में बाँट दिया गया और नेताओं और उनकी पार्टियों के हिसाब से ही उसकी भी व्याख्या हो रही है और समय पड़ने पर सभी समझौता करने के लिए भी तैयार बैठे है.

विश्वनाथ प्रताप की राजनीती की ईमानदार समीक्षा करने का समय है. उनका कार्यकाल हालाँकि कम समय का था लेकिन भारतीय राजनैतिक पटल पर उन्होंने बहुत असर डाला. आज भारतीय नेताओ को सबसे आसानी से जिन लोगो ने गुलाम बनाया वो है बाबा ब्रिगेड और दलाल स्ट्रीट के जातिवादी पूंजीपति. वी पी सिंह इन दोनों से बहुत दूर रहे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में उन्होंने इन्ही पूंजीपतियों पर हाथ डाला था जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेजा था. वहा पर भी वी पी ने एच डी डब्ल्यू सबमरीन घोटाले की जांच के आदेश देकर सभी से दुश्मनी ले ली थी.

वी पी सिंह के छोटे से कार्यकाल में न केवल मंडल रिपोर्ट लागु हुई अपितु उनकी सरकार अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के प्रश्न पर संविधान की मर्यादाओं का पालन करते हुए गिरी. भाजपा ने मंडल का सीधे तरीके से विरोध न कर उसको राम नाम की राजनीती से ख़त्म करने की कोशिश की. वी पी की सरकार को गिरवाने ने कॉर्पोरेट से लेकर ब्राह्मणवादी ताकते लग गयी क्योंकि सबको पता था के यदि वह सरकार दो साल भी और चल जाती तो देश की राजनीती में बहुत बड़ा परिवर्तन स्थाई तौर पर हो जाता. दुर्भाग्य ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओ के चलते उस सरकार को गिरवा दिया गया.

अपनी सरकार के गिरने के बादभी वी पी कुछ समय तक सक्रिय रहे और उहोने जनता के सवालो पर सामाजिक आन्दोलनों के साथ मिलकर कार्य किया.

वी पी सिंह की राजनीती की आज आवश्यकता है क्योंकि मोदी जैसो को वो आसानी से पानी पिला सकते थे. इसका कारण था उनका जनोन्मुखी राजनीती. वी पी ने हमेशा जनता से अपना संपर्क बनाए रखा और देश के सभी राजनितिक लोगो से उनके अच्छे सम्बन्ध थे. तमिलनाडु में करूणानिधि, आंध्र में एन टी रामाराव, और वामपंथियों से उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. आज की राजनीती में ये बहुत आवश्यक है. दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात, वी पी ने राजनीती में संसदी और पदों की परवाह नहीं की जो कम से कम आज के दौर में तो देखने को नहीं मिलता. जब नेता आँख नहीं खोल पा रहे हो लेकिन सांसदी होने का सुख छोड़ने को तैयार नहीं, वही वी पी सिंह ने ये सब बहुत पहले ही छोड़ दिया. हकीकत यह है के उनका संसदीय कार्यकाल कुल मिला जुला के १० वर्षो से कम का ही होगा लेकिन संसद पर उनके कार्यो का असर भारत के किसी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं होगा.

वी पी आज भी हाशिये पे है. लेकिन हम उम्मीद करते है के जब भी देश में सामाजिक न्याय के लिए काम करने वालो की बात होगी उन्हें जरुर याद किया जाएगा. उम्मीद है के उनकी राजनीती में मंडल के अलावा उनके छोटे से कार्यकाल के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओ को याद करते हुए और उनके प्रधानमंत्रिय कार्यकाल के बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं पर उनका योगदान जरुर याद किया जाएगा.

वी पी की राजनीती जे पी की राजनीती से ज्यादा बड़ी है लेकिन जो वी पी के समय बड़े हुए वे जे पी का नाम लेते है लेकिन ये नहीं बता पायेगे आखिर जे पी ने सामाजिक न्याय के लिए किया क्या. शायद वी पी अकेली वो हस्ती है जिनके नाम पर इस देश में एक छोटी सा मोहल्ला या गली तक नहीं है. वो व्यक्ति जिसने अपनी पूरी जमीन भूदान आन्दोलन को दे दी और जिसकी बहुत सी जगहों पर आज भी लोग बिना किसी भय के रह रहे है, आज राजनीती में चुपचाप बिसरा दिया गया है. ब्राह्मणवादी सेक्युलरो को वी पी से सख्त नफरत है क्योंकि मंडल ने जो दर्द मनुवादियों के सीने में दिया है वो 'असहनीय' है. ऐसे में कुछ समय बाद आर एस एस, जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और बोला, उनको 'महान' बता दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

क्या तेजस्वी यादव और अखिलेश इतनी हिम्मत जुटा पायेंगे के सामाजिक न्याय के इस योधा को याद कर सके ?

२५ जून, २०१८

Episode no16 personality of the week नीलेश लंगोटे सफाई कर्मचारी आन्दोलन.

सुदर्शन समाज रायपुर स्थित बस्ती को स्थानीय प्रशासन द्वारा बुलडोजर चलाकर तोड़ दिया गया और आनन-फानन निवासियों को अपनी व्यवस्था करनी पड़ेगी हाईकोर्ट ने राहत दी है लेकिन प्रशासन अभी तक मौन है

Episode no 17 personality of the week सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आया- जन्मेजय सोना

इस हफ्ते पर्सनालिटी ऑफ द वीक में एडवोकेट जन्मेजय सोना जी बता रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने गरीबी परिस्थिति में अपनी पढ़ाई पूरी की और वह किस प्रकार सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आएं है। और आज समाज सेवा में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना। आज काला फिल्म बेहद चर्चा में है। चर्चा इस बात को लेकर है कि दलित बहुजन और वंचित वर्ग, खासकर के अंबेडकरवादी और मार्क्सवादी विचारधारा के लोग इस फिल्म को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सामंतवादी लोग इस फिल्म का विरोध भी कर रहे हैं। इस फिल्म को देखने के बाद संजीव खुदशाह और शेखर नाग इस पर अपना एक रिव्यू पेश कर रहे हैं। देखिए यह महत्वपूर्ण समीक्षा। सबसे पहले फिल्म का ट्रेलर हिंदी में देखें।

क्या गीता एक साहित्यिक चोरी है ? प्रेमकुमार मणि

क्या गीता एक साहित्यिक चोरी है ?

प्रेमकुमार मणि
गीता हिन्दू अभिजन का केंद्रीय धर्मग्रन्थ तो है ही , इसका राष्ट्रीय मूल्य भी है . हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में तिलक और गाँधी ने इसे वैचारिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया और तमाम भारतीय जुबानों में इसकी जाने कितनी व्याख्याएं हुईं . तिलक का 'गीता रहस्य ' और गाँधी का यरवदा मंदिर प्रांगण में दिए गए प्रवचनों की श्रृंखला 'गीता बोध ' देश में खूब पढ़ी गयी है . स्वयं मुझे गीता के बहुत सारे श्लोक कंठाग्र हैं . उसके खूबसूरत -प्रांजल भाषा सौष्ठव पर मैं मुग्ध होता रहा हूँ . किसी को संस्कृत सीखनी हो ,तो उसे गीता पढ़नी चाहिए .
लेकिन मैं कहूं कि साहित्यिक रूप में यह पैरोडी या चोरी है ,तब बात अटपटी लग सकती है . लेकिन कुछ तथ्यों को देखना शायद बुरा नहीं होगा . ' सौन्दरनन्द ' के नाम से कम लोग परिचित हैं . यह संस्कृत के महाकवि अश्वघोष की एक काव्यकृति है . आधुनिक भारत में इससे प्रभावित होकर हिंदी लेखक मोहन राकेश ने एक बहुत खूब नाटक की रचना की है -'लहरों के राजहंस ' . इसके अलावे मुझे भारतीय जनमन पर इसके किसी और प्रभाव की जानकारी नहीं है . आप जानते होंगे अश्वघोष बौद्ध थे और उनकी रचनाएं तड़ीपार कर दी गई थीं . वह वर्णव्यवस्था विरोधी पुस्तक ' बज्रसूचि ' के लेखक भी थे . उनकी दो और साहित्यिक रचना है -' बुद्ध चरित ' और 'सारिपुत्रप्रकरण ' . बुद्ध चरित का आधा ही हिस्सा मिल सका .शेष भाग चीनी अनुवाद से प्राप्त हो सका है . 'सारिपुत्रप्रकरण ' नाटक है और वह भी अधूरा प्राप्त हुआ है . सौन्दरनन्द सही सलामत उपलब्ध हो सका है . इसके काव्य सौष्ठव का मैं प्रशंसक हूँ और कह सकता हूँ यह बुद्धचरित से श्रेष्ठ है .
सौन्दरनन्द को तरुणाई के दिनों में पढ़ा था . पढ़ते समय मुझे अनुभव हुआ गीता और इसमें बहुत साम्य है . साम्यता इतनी है कि किसी को भी हैरान कर सकती है . अपने तरीके से उसपर कुछ सोचा -विचारा था . सोचा था कि इसे लेकर एक लेख लिखूंगा . लेकिन न लिख सका . इधर मोतीलाल बनारसीदास गया तो सौन्दरनन्द को ढूँढ लाया . गीता तो सहज उपलब्ध हो गयी . दोनों को आहिस्ता -आहिस्ता पढ़ा .लेख केलिए कुछ नोट्स बनाये . सोचा ,कुछ मित्रों से भी साझा करूँ .
पहले गीता और सौन्दरनन्द के तुलनात्मक स्वरूप पर विहंगम नज़र डालें . गीता हमारे राष्टीय धरोहर महाभारत का एक अंश है ,जिसके कृतिकार कृष्ण द्वैपायन हैं . उन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है . गीता आकार में बहुत छोटी है .इस में अठारह अध्याय और 693 श्लोक हैं . सौन्दरनन्द में भी अठारह सर्ग या अध्याय हैं ,लेकिन श्लोकों की संख्या 1063 है . इसके रचयिता अश्वघोष हैं .
अब हम दोनों के कथानक देखें .
सौन्दरनन्द की कहानी इस प्रकार है . ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध कपिलवस्तु जाते हैं . भिक्षाटन केलिए निकले बुद्ध अपने सौतेले भाई नन्द के घर पहुँचते है ; लेकिन नन्द अपनी युवा पत्नी के श्रृंगार में लगा है . वह बुद्ध की आवाज़ नहीं सुन पाता . जब उसे पता होता है कि उसके विश्रुत भाई उसके द्वार पर आये और खाली हाथ लौट गए ,तब वह आत्मग्लानि से भर गया . बुद्ध के पास वह लज्जित भाव से जाता है . पत्नी को वायदा कर गया है कि उसका विशेषक सूखने के पहले ही वह लौट आएगा . लेकिन बुद्ध का प्रभामंडल देख वह आकर्षित हो जाता है और भिक्षु बन जाता है . लेकिन उसका मन डांवाडोल है . वह दुविधाग्रस्त है . पत्नी को वह भूल ही नहीं पाता . बुद्ध उसे संसार की निस्सारता का उपदेश देते हैं . स्थितप्रज्ञता का महत्व बतलाते हैं . सर्ग 10 और 11 में वह नन्द को स्वर्ग की भव्यता का दिग्दर्शन कराते हैं .अंततः उसकी भी निस्सारता बतलाते हैं . 12 वे से 18 वे सर्ग तक ज्ञान ही ज्ञान है . दरअसल यह काव्य ग्रन्थ बुद्ध के विचारों को काव्य रूप में पिरोने का एक खूबसूरत प्रयास है .
गीता की कहानी ,जैसा कि आप सब परिचित हैं ,कुरुक्षेत्र की है . युद्ध केलिए सेनाएं सजी हैं . अर्जुन जो कृष्ण का फुफेरा भाई है ,नन्द की तरह दुविधा ग्रस्त है . युद्ध करे या ना करे की दुविधा में वह डोल रहा है . तीसरे अध्याय से अठारहवें अध्याय तक कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं . संसार की निस्सारता ,ज्ञान और कर्मयोग का महत्व बतलाते हैं . ग्यारहवें अध्याय में सौन्दरनन्द के स्वर्गदर्शन की तरह विश्व या विराट दर्शन का नाटकीय रूप है . उसके बाद पुनः ज्ञानदान का सिलसिला . आश्चर्य तो यह है कि दोनों के ज्ञान तत्व भी मिलते -जुलते हैं . गीता के ज्ञान पर आस्तिकता का मुलम्मा है . कृष्ण सब कुछ छोड़ अपनी शरण में आने केलिए ,समर्पित हो जाने केलिए अर्जुन से कहते है . अंततः अर्जुन तैयार हो जाता है . गीता एक सांसारिक व्यक्ति को युद्ध में प्रवृत्त करता है . वह युद्ध को संसार से पृथक , धर्म सिद्ध कर देते हैं .
सौन्दरनन्द में कामासक्त नन्द को बुद्ध धम्म दीक्षा देते हैं . अपने नहीं ,धम्म के शरण में आने की सीख देते हैं जिससे जीवन सक्रिय और प्रकाशमय हो सके . आस्तिकता की जगह यहाँ विवेक है ,इसीलिए मेरी दृष्टि में गीता के मुकाबले सौन्दरनन्द में श्रेष्ठ ज्ञान का प्रदर्शन अथवा चित्रण है .
अब हम ऐतिहासिकता देखें . अश्वघोष का समय ईसा की पहली सदी लगभग मान्य है . इसलिए यह रचना लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है . लेकिन गीता के ऐतिहासिक साक्ष्य 500 से 1500 साल पुराने होने का है . महाभारत जिसका एक अंश गीता है ,कई बार संशोधित -परिवर्धित हुआ . नाम भी बदलते गए . पहले यह 'जय ' था , फिर ' भारत ' और अब जाकर महाभारत . गीता महाभारत के आरंभिक स्वरूप का हिस्सा था ,इसमें संदेह है . संदेह का आधार भाषा है . वर्तमान गीता की जो भाषा है वह इतनी प्रांजल और बोधगम्य है कि इसके जयदेव के इर्दगिर्द होने का अहसास होता है . दरअसल बुद्ध के कुछ सौ साल बाद प्रतिनिधि बौद्धों ने पाली छोड़कर संस्कृत अपना लिया था . बौद्धों ने संस्कृत को नए रूप में ढाला . इसे संकर संस्कृत कहते हैं . यह कुछ -कुछ हिंदुस्तानी की तरह का प्रयोग था . इससे संस्कृत की रचनात्मकता विकसित हुई . अनेक रचनाकारों पर संकर संस्कृत का प्रभाव है . गीता का संस्कृत संकर संस्कृत है . इसीलिए वह सौन्दरनन्द की अपेक्षा अधिक प्रांजल और बोधगम्य है . इससे प्रतीत होता है गीता सौन्दरनन्द से बहुत बाद की रचना है . यह उससे प्रभावित हो कर लिखी गयी . पूर्ववर्ती रचनाकारों से प्रभावित होना बुरा नहीं है .यह स्वाभाविक है . कालिदास पर अश्वघोष के प्रभाव हैं . लेकिन कालिदास निसंदेह अश्वघोष से बड़े रचनाकार हैं . गीता पर सौन्दरनन्द का प्रभाव नहीं कहा जायेगा ,यह तो नक़ल है . कथा योजना , शिल्प और विचार तक . भाषा के रूप में गीता निसंदेह सौन्दरनन्द से आगे है ,लेकिन विचार में यह संभव नहीं हुआ . ऐसा होता तो यह एक स्वतन्त्र उल्लेखनीय रचना हो सकती थी . ज्ञान पक्ष सौन्दरनन्द का गीता के मुकाबले उत्कृष्ट है . इसपर विस्तार से फिर कभी .
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prem kumar mani




डॉं आंबेडकर एवं कार्ल मार्क्स - वर्ण बनाम वर्ग

संजीव खुदशाह
आज हम कार्ल मार्क्स की 200 वी जयंती के उपलक्ष में वर्ग बनाम वर्ण पर बात करने जा रहे हैं। मेरी आप सब से गुज़ारिश है कि मेरी बातों को बिना किसी पूर्वाग्रह के गौर करने का कष्ट करें तभी शायद मैं अपनी बात आप तक सही ढंग से पहुंचाने में सफल हो सकूंगा। दूसरी बिनती मैं यह करना चाहता हूं की यहां पर अपनी बात रखने का मकसद यह नहीं है कि किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे। मैं एक स्वस्थ चर्चा करने पर विश्वास रखता हूं।
Karl Marks
वर्ग बनाम वर्ण की चर्चा इससे पहले भी होती रही है। लेकिन जब हम कार्ल मार्क्स के बरअक्स इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं, तो यहां पर वर्ग के मायने कुछ अलग हो जाते हैं। भारत में वर्ग के मायने होते हैं अमीर वर्ग और गरीब वर्ग। लेकिन कार्ल मार्क्स जिस वर्ग की बात कर रहे हैं। उसमें मालिक वर्ग और मजदूर वर्ग है। इसलिए हमें बहुत ही सावधानी पूर्वक इस अंतर को समझते हुए बात करनी होगी।इसी प्रकार वर्ण की भी विभीन्‍न परिभाषाएं सामने आती है। कई बार वर्ण को रंगों के विभाजन के तौर पर देखा जाता है। तो कई बार वर्णों को जाति व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई के तौर पर भी देखा जाता है। हम यहां पर चर्चा के दौरान इसे इसी परिभाषा के तौर पर आगे बातचीत करेंगे।
मार्क्स ने जिस मालिक और मजदूर की बात की और उनके संघर्ष को महत्वपूर्ण बताया तथा पूंजीवाद को इन वर्ग के सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित किया। वह अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है लेकिन इन सिद्धांतों को उसी वर्ग के आधार पर भारत के परिप्रेक्ष में लागू करना कहीं ना कहीं जल्दबाजी करने जैसा रहा है। क्योंकि भारत में वर्ग का अस्त्वि कभी भी मालिक और नौकर की तरह नहीं रहा है। भारत में पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग कहा गया या फिर अमीर वर्ग गरीब वर्ग कहां गया। लेकिन जैसा रिश्ता यूरोप में मालिक और मजदूर के बीच रहा है वैसा रिश्ता भारत में अमीर और गरीब के बीच कभी भी नहीं रहा है।भारत में इन वर्गों के बीच जातीय संरचना भी है जो मालिक और नौकर के सिद्धांत पर नहीं चलती।
Dr B R Ambedkar
मुझे लगता है यह भारत के परिपेक्ष में मार्क्सवादी सिद्धांतों को मालिक और नौकर के नजरिए से नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की जटिलताओं उनके बीच भेदभाव उनके बीच अछूतपन और धार्मिक संहीता को ध्यान में रखते हुए देखना होगा।
भारत में एक छोटी जाति का व्यक्ति अमीर तो हो सकता है। उसके कल कारखाने भी हो सकते है। इसके पहले भी हुए हैं। गंगू तेली का उदाहरण सामने पड़ा है। शिवाजी का उदाहरण है लेकिन इन्हें धार्मिक स्वीकृति या कहें सामाजिक राजनीतिक स्वीकृति प्रदान नहीं होती है। इस कारण राजा होने के बावजूद शिवाजी को राज तिलक करवाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। और किसी ब्राम्हण के पैर के अंगुठे से अपने माथे पर राज तिलक करवाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह उदाहरण बेहद महत्वपूर्ण है जब हम वर्ग बनाम वर्ण की बात करते हैं।
गंगू तेली और शिवाजी के उदाहरण से यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि भारत के परिप्रेक्ष में साम्यवाद या समाजवाद, जिसकी बात कार्ल मार्क्स कहते हैं। वह और उसका आधार आर्थिक नहीं है उससे कहीं आगे है। भारत के परिपेक्ष में आर्थिक समानता कभी भी राजनीतिक और सामाजिक समानता का रूप नहीं ले पाती है। और ना ले पाई है। इसके तमाम उदाहरण इतिहास में मौजूद है। शायद मार्क्सवाद के सिद्धांत को भारत में लागू करने से पहले इन ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया।
इस कारण भारत के परिपेक्ष में कम्युनिस्ट विचारधारा फेल हो गई या फिर सिर्फ पूंजी की लड़ाई तक सीमित रह गई या फिर उन जगह ही रह पाई जहां पर फैक्ट्री और मजदूर रहे हैं। यह लड़ाई कभी भी किसानों तक नहीं पहुंच पाई ना ही उन दलित पिछड़ा वर्ग आदिवासियों तक पहुंच पाई जिन्हें समानता साम्यवाद या समाजवाद की जरूरत थी। उन प्राइवेट दुकानों संस्थानों तक नहीं पहुंच पाई जहां पर पढ़ा-लिखा कलम चलाने वाला मजदूर शोषण का शिकार रोज होता है।
जहां एक ओर यूरोप में पूंजीवाद के गर्भ से श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ वहीं भारत में श्रमिक वर्ग मां के गर्भ से पैदा होता है।
भारत में युरोप का वर्ग नहीं है और जब वर्ग ही नहीं तो वर्ग संघर्ष का सवाल ही पैदा नहीं होता। बल्कि भारत में वर्ग की जगह वर्ण संघर्ष हो रहा है। जिसे मार्क्स ने भी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि भारत में वर्ण संघर्ष ही संभव है और उसके बाद ही वर्ग संघर्ष हो सकता है। इसे इमीएस नम्बूदरीपाद ने भी स्वीकार कियाजिनके नेतृत्व में केरल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी। बी. टी. रणदीवे ने भी स्वीकार कियाक्योंकि भारत में सत्ता और संपत्ति पर सवर्ण वर्ग का ही कब्जा है।
दरअसल हमें मार्क्स के साम्यवाद को नए सिरे से भारत के परिप्रेक्ष में परिभाषित करना पड़ेगा। यहां पर आर्थिक समानता से कहीं ज्यादा जरूरी सामाजिक और राजनीतिक समानता की बात है। कार्ल मार्क्स ने जिन स्थानों पर काम किया वहां पर आर्थिक विषमता तो थी लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक विषमताएं नहीं रही। इसीलिए उन्होंने यह सिद्धांत दिया की पूंजी का समान वितरण होने पर साम्यवाद स्थापित हो सकेगा।
डॉ आंबेडकर अपनी किताब बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स में कार्ल मार्क्स की अवधारणा को 10 बिंदुओं में रेखांकित करते हैं। जिन पर कार्ल मार्क्स के सिद्धांत खड़े हुए हैं।
1 दर्शन का उद्देश्य विश्व का पुनः निर्माण करना है ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं है।
2 जो शक्तियां इतिहास की दिशा को निश्चित करती है वह मुख्यतः आर्थिक होती हैं।
3 समाज दो वर्गों में विभक्त है मालिक तथा मजदूर ।
4 इन दोनों वर्गों के बीच हमेशा संघर्ष चलता रहता है ।
5 मजदूरों का मालिकों द्वारा शोषण किया जाता है। मालिक उस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं जो उन्हें अपनी मजदूरों के परिश्रम के परिणाम स्वरुप मिलता है।
6 उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण अर्थात व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन करके शोषण को समाप्त किया जा सकता है।
7 इस शोषण के फलस्वरुप श्रमिक और अधिकाधिक निर्बल व दरिद्र बनाए जा रहे हैं।
8 श्रमिकों की इस बढ़ती हुई दरिद्रता व निर्बलता के कारण श्रमिकों की क्रांतिकारी भावना उत्पन्न हो रही है और परस्पर विरोध वर्ग संघर्ष के रूप में बदल रहा है।
9 चूंकि श्रमिकों की संख्या स्वामियों की संख्या से अधिक है। अतः श्रमिकों द्वारा राज्य को हथियाना और अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है। इसे उसने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम से घोषित किया है।
10 इन तत्वों का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता इसलिए समाजवाद अपरिहार्य है.।
पृष्ठ क्रमांक 346 वॉल्यूम 7
यहां पर आप देख सकते हैं की कंडिका 9 मे इस बात का जिक्र किया गया है कि श्रमिकों द्वारा उनकी संख्या ज्यादा होने के कारण बलपूर्वक अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है। जिसे उन्होंने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नाम घोषित किया है। यानी कार्ल मार्क्स श्रमिकों के द्वारा तानाशाही शासन की अनुमति देते हैं।
जबकि डॉ आंबेडकर कहते हैं बलपूर्वक प्राप्त किया गया शासन वह भी तानाशाही वाला शासन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। भविष्य में भी संघर्ष की संभावनाएं बनी रहती है। वह कहते हैं "मार्क्सवादी सिद्धांत को 19वी शताब्दी के मध्य में जिस समय प्रस्तुत किया गया था उसी समय से उसकी काफी आलोचना होती रही है इस आलोचना के फलस्वरुप कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का काफी बड़ा ढांचा ध्वस्त हो चुका है इसमें कोई संदेह नहीं कि मांस का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 19 सौ 17 में उसकी पुस्तक दास कैपिटल समाजवाद का सिद्धांत के प्रकाशित होने के लगभग 70 वर्ष के बाद सिर्फ एक देश में स्थापित हुई थी यहां तक कि साम्यवाद जो कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है और उसमें आया तो यह किसी प्रकार की मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था वहां एक क्रांति हुई थी और इसके रूस में आने से पहले भारी रक्तपात हुआ था तथा अत्यधिक हिंसा के साथ वहां सोद्देश्य योजना करनी पड़ी थी शेष विश्व में अभी भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के आने की प्रतीक्षा की जा रही है मार्क्सवाद का कहना है कि समाजवाद अपरिहार्य है उसके इस सिद्धांत के झूठे पर जाने के अलावा सूचियों में वर्णित अन्य अनेक विचार भी तर्क तथा अनुभव दोनों के द्वारा ध्‍वस्‍त  हो गए हैं अब कोई भी व्यक्ति इतिहास की आर्थिक व्याख्या को यह इतिहास की केवल एक मात्र परिभाषा स्वीकार नहीं करता इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि सर्वहारा वर्ग को उत्तरोत्तर कंगाल बनाया गया है और यही बात उसके अन्य तर्क के संबंध में भी सही है" पृष्ठ क्रमांक 347 वॉल्यूम 7
 भारत के परिप्रेक्ष्य में वर्ग की लड़ाई
जब आप वर्ग की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सिर्फ आर्थिक समानता की बात करते हैं दरअसल भारत में जो वर्गीय अंतर है वह सिर्फ आर्थिक नहीं है। यह समझना होगा। यहां पर जातीय असमानता है। राजनीतिक असमानताएं गहरे पैठ बनाए हुए हैं। और इन जटिलताओं को सुलझाने के लिए समानता लाने के लिए आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करना काफी नहीं है। जातीय एवं राजनीतिक असमानता को खत्म करने के लिए तमाम क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व देना जरूरी है । यह प्रतिनिधित्व राजनीति, धार्मिक, समाजिक पदवी में, प्रशासन में, न्यायालय में देना होगा। डॉ अंबेडकर ने इसी प्रतिनिधित्व को रिजर्वेशन का नाम दिया। रिजर्वेशन कभी भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं तैयार किया गया। दरअसल यह भारत में फैली असामान्यताओं को खत्म करने के लिए बेहद जरूरी कार्यक्रम है। इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर ने आजादी के पहले गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधित्व के अधिकार की मांग की थी।
यह बात सही है कि डॉ आंबेडकर और मार्क्स दोनों समाज में समानता चाहते थे। लेकिन दोनों के समानता के उद्देश्य में बुनियादी फर्क है।
एक वर्ण व्यवस्था में समानता की बात करते हैं तो दूसरे वर्ग व्यवस्था में समानता की बात करते हैं।
एक वर्ग व्यवस्था में समानता के लिए संघर्ष की बात करते हैं। चाहे इसके लिए सर्वहारा तानाशाही ही क्यों ना करनी पड़े।
दूसरे वर्ण व्यवस्था में समानता लाने के लिए लोकतांत्रिक उपाय किए जाने की बात करते हैं जिसमें खूनी संघर्ष और तानाशाही के लिए कोई जगह नहीं है। वे जाति व्‍यवस्‍था का उन्‍मूलन में सबको साथ लेकर चलने की बात करते है। डॉं अंबेडकर कहते है एक ऊंच नीच वाली प्रणाली को खत्‍म करने के लिए नई ऊंच नीच वाली प्रणाली का निर्माण नही किया जाना चाहिए।
जब आप वर्ण यानी जाति व्यवस्था की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सामाजिक आर्थिक राजनैतिक तीनों प्रकार की समानता की बात करते हैं।
यह बात शायद भारतीय मार्क्सवादियों ने नजरअंदाज कर दिया होगा। क्योंकि बीमारी डायग्नोसिस करना किसी भी बीमारी के इलाज का पहला चरण होता है। डायग्नोज करने के बाद ही उसी हिसाब से उसका इलाज किया जा सकता है। जहां पर वर्ग की समस्या नहीं है वहां पर आप वर्ग के हिसाब से उसका इलाज करेंगे तो रिजल्ट्स नहीं आने वाले। जहां पर वर्ण की समस्या है, वर्ण संघर्ष की समस्या है वहां पर वर्ण के हिसाब से ही उसका इलाज करना होगा। तब कहीं जाकर उसके परिणाम सामने आ सकेंगे। यही जो बुनियादी फर्क है। वर्ग और वर्ण में। उसे समझना होगा। तब कहीं जाकर हम मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के समानता के सिद्धांत को अमलीजामा पहना पाएंगे।