International human rights day seminar at raipur

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर

आज के दौर में मानवाधिकार आन्दोलन का महत्त्व पर परिचर्चा संपन्न

रायपुर 10 दिसम्बर 2018 |

*पीस रायपुर व छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति (CNSSS) द्वारा* अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर “आज के दौर में मानवाधिकार आन्दोलन का महत्त्व” पर परिचर्चा आज राजधानी रायपुर में वाई.एम.सी.ए. प्रोग्राम सेंटर में आयोजित की गई |

छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी 1857 के विद्रोह शहीद वीर नारायण सिंह को कार्यक्रम में श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया | 

कार्यक्रम में अध्यक्षता प्रख्यात लेखक संजीव खुदशाह ने की | 

कार्यक्रम में आधार वक्तव्य क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम), पीस रायपुर व ‘विकल्प आवाम का घोषणापत्र’ के संपादक तुहिन देब ने “हिरासत व जेलों में घुटता भारतीय जीवन” नामक आलेख के ज़रिये प्रस्तुत किया | 

दलित मुक्ति मोर्चा के संयोजक एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज, भिलाई के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता जयप्रकाश नायर ने इस अवसर पर अपना उद्बोधन दिया| 

इनके अलावा डॉ. बिप्लव, डॉ. प्रवीर चटर्जी, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा मजदूर कार्यकर्ता समिति की श्रेया, उर्मिला देवी, भा.क.पा. (माले) के राज्य सचिव कॉ. सौरा आदि ने भी इस अवसर पर अपनी बात रखी | कवयित्री शिवानी मोइत्रा ने मानवाधिकार पर कविता, भिलाई की संस्कृतिकर्मी समीक्षा नायर एवं नाचा थिएटर के संयोजक निसार अली ने जनगीत प्रस्तुत किया | संचालन अखिल भारतीय क्रांतिकारी विद्यार्थी संगठन के संयोजक विनय ने किया |

वक्ताओं ने कहा कि 1945 में दुसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद – साम्राज्यवाद से मुक्ति, आज़ादी, शांति, समानता व समाजवाद के पक्ष में दुनिया की अधिकांश जनता इकट्ठे होने लगी | ऐसी ही परिस्थिति में मानव के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की अगुवाई में 10 दिसम्बर 1948 को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस घोषणापत्र अस्तित्व में आया |

मानवाधिकार प्रत्येक मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है | अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर मानवाधिकारों के प्रति बढ़ती जागृति के बावजूद तस्वीर का बदरंग पहलू है मौजूदा परिस्थिति में कॉर्पोरेट फासीवादी राज में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन | छत्तीसगढ़ समेत पूरे देश में अघोषित आपातकाल है तथा पुलिस, सशस्त्र बलों व निरंकुश कानूनों के ज़रिये धार्मिक कट्टरपंथ व जल – जंगल – ज़मीन की कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को जेल, यातना और यहां तक कि शारीरिक रूप से समाप्त कर खामोश किया जा रहा है | जनवादी अधिकारों की बहाली व संरक्षण के लिए तमाम संघर्षशील, प्रगतिशील व जनवादी ताक़तों को एकजुट होकर आवाज़ उठानी पड़ेगी | 

कार्यक्रम में भीमा – कोरेगांव घटना के नाम पर गिरफ्तार तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों को रिहा करने की तथा भीमा – कोरेगांव घटना के  मास्टरमाइंड संघ के प्रचारक मिलिंद एकबोटे व सम्भाजी भिड़े को तत्काल गिरफ्तार करने की तथा दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मेहनतकशों व महिलाओं पर हो रहे दमन पर रोक लगाने हेतु प्रस्ताव पारित किए गए |

आभार छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक अखिलेश एडगर ने किया | 

सभा में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए हस्ताक्षर – पोस्टकार्ड अभियान चलने का निर्णय लिया गया | 

संगोष्ठी में बड़ी संख्या में विद्यार्थी – बुद्धिजीवी व जनसंगठनों के लोग उपस्थित थे |
Tuhin

Change or EVM?

परिवर्तन या ईवीएम?

ललित सुरजन
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की मतगणना में अब सिर्फ पांच दिन शेष रह गए हैं। छत्तीसगढ़ में 12 नवंबर को पहले चुनाव के मतदान के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ वह 11 दिसंबर को थम जाएगा। वैसे तो यह कुल तीस दिन का मामला है, लेकिन हमें और पीछे जाकर चुनाव तिथियों की घोषणा तथा आचार संहिता लागू होने के दिन से इस सिलसिले की शुरूआत मानना चाहिए। बहरहाल सबकी निगाहें नतीजों पर टिकी हैं। कांग्रेस इस बारे में बेहद आश्वस्त नजर आ रही है कि चार राज्यों में वह फिर सत्ता में लौटेगी और मिजोरम के मतदाताओं का लगातार तीसरी बार उस पर विश्वास प्रकट होगा। लगभग अचानक रूप से ही परिवर्तन शब्द आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अपने दावे और अपना विश्वास है। उनका कहना है कि परिवर्तन की बात ऊपरी-ऊपरी है।  वे जिस दम-खम के साथ अपनी जीत सुनिश्चित बताते हैं उसे देखकर कांग्रेसजन भी विचलित दिखाई पड़ते हैं।

एक तरफ कांग्रेसी खेमों में अगली सरकार बनाने को लेकर गुणा-भाग चल रहा है, वहीं दूसरी ओर पार्टी चुनावों में भाजपा द्वारा धांधली किए जाने की आशंका से भी ग्रस्त है। उसकी चिंता चुनाव के दौरान घटित कुछ प्रसंगों के चलते वाजिब प्रतीत होती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर में कुछ स्थानों पर कांग्रेस के एजेंटों को ईवीएम पर अपनी सील लगाने से रोक दिया गया, वहीं धमतरी में पार्टियों को सूचित किए बिना तहसीलदार अपने अमले को लेकर स्ट्रांगरूम में चले गए और तीन घंटे तक कथित रूप से विद्युत लाइन ठीक करवाते रहे। उधर मध्यप्रदेश में एक जगह होटल में वोटिंग मशीनें मिलीं, तो अन्यत्र तकरीबन अड़तालीस घंटे देरी से मशीनें जमा करवाई गईं।  एक और जगह कथित विद्युत अवरोध के कारण सीसीटीवी कैमरा बंद हो गए। इन सारी बातों की शिकायतें कांग्रेस ने चुनाव आयोग से की हैं। भाजपा कांग्रेस के भय को निर्मूल बताकर उनकी खिल्ली उड़ा रही है, लेकिन ये सारे प्रसंग गंभीर अव्यवस्था की ओर संकेत करते हैं।

इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इन प्रदेशों के अपने कार्यकर्ताओं को हर तरह से सावधान और सतर्क रहने की सलाह दी है। छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल ने अपने उम्मीदवारों को आगाह किया है कि विजयी घोषित होने के बाद वे जुलूस वगैरह न निकालें और यहां-वहां जाने के बजाय एक पूर्व निर्दिष्ट स्थान पर एकत्र हों। समझ आता है कि पार्टी किसी भी तरह की जोखिम नहीं उठाना चाहती। पिछले साल-दो-साल में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए जो हथकंडे अपनाए हैं उन्हें देखते हुए ये आशंकाएं खारिज नहीं की जा सकतीं।   गोवा भले ही छोटा सा प्रदेश हो, लेकिन वहां सरकार बनाने के लिए और सरकार में बने रहने के लिए भाजपा ने जो कुछ भी किया उसे जनतंत्र की हत्या ही कहा जाएगा। मेघालय में भी ऐसा ही हुआ। यदि अभी के चुनावों में कांग्रेस को किसी राज्य में विजय मिलती है और वह बहुमत से बहुत अधिक नहीं होती तो आशंका बनती है कि भाजपा वहां खरीद-फरोख्त से बाज नहीं आएगी।

जनतंत्र में हार-जीत लगी रहती है।  इसे जीवन-मरण का प्रश्न बना लेना किसी भी दृष्टि से वांछित नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि श्रीमान मोदी और श्रीमान शाह की जुगल जोड़ी पर हर हालत में जीत चाहने का भूत सवार है। मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है? हमने यह देखा है कि पिछले सत्तर साल में केन्द्र और राज्य दोनों में बार-बार सत्ता परिवर्तन होते रहा है। जब तक जनता संतुष्ट है तब तक ठीक है; और जनता जब असंतुष्ट होती है तो वह सरकार बदल देती है। आज आप भीतर हैं, कल बाहर हैं, लेकिन परसों फिर भीतर आ सकते हैं। इसी आशा पर चुनावी राजनीति होना चाहिए। जो राजनेता अनंत काल तक राज करने का स्वप्न संजोते हैं उनकी प्रवृत्ति तानाशाही की होती है और वे भूल जाते हैं कि वे अमृत फल खाकर इस दुनिया में नहीं आए हैं। मुझे बशीर बद्र का शेर याद आता है- 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।' हमारे राजपुरुषों को इसका मर्म समझना चाहिए। 

ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान नेतृत्व ही सत्तामोह से इस तरह ग्रस्त हो। हम जिसे दुनिया का सबसे पुराना जनतांत्रिक देश मानते हैं और जिसके साथ अपने देश को सबसे बड़े जनतांत्रिक देश घोषित कर आत्मश्लाघा करते हैं उस संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी समय-समय पर इस मनोभाव का परिचय दिया है।  1972 का चुनाव बहुत पुरानी बात नहीं है। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने दुबारा चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए। उन्होंने विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की  जासूसी ही नहीं करवाई बल्कि उनके मुख्यालय में सेंधमारी भी करवाई। वह शोचनीय प्रसंग वाटरगेट कांड के नाम से कुख्यात है। वाशिंगटन पोस्ट अखबार ने इसका खुलासा किया तो निक्सन को दूसरी पारी के बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा और उपराष्ट्रपति स्पेरो एग्न्यू शेष अवधि के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। निक्सन किसी तरह महाभियोग से तो बच गए, लेकिन देश और दुनिया की जनता की निगाह से जो गिरे तो फिर गिरे ही रह गए।

अमेरिका में ही दूसरा प्रकरण इस सदी के प्रारंभ में घटित हुआ जब पूर्व राष्ट्रपति जार्ज एच. डब्ल्यू बुश के पुत्र जार्ज डब्ल्यू बुश जूनियर रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बन कर मैदान में उतरे। उनके सामने डेमोक्रेटिक पार्टी के उपराष्ट्रपति रह चुके अल गोर थे। इस चुनाव को जीतने के लिए बुश बाप-बेटे ने धांधली की। उन्होंने अमेरिका की जटिल चुनाव प्रणाली का फायदा उठाया। अल गोर को बुश जूनियर से अधिक मत (पापुलर वोट) मिले थे, लेकिन फ्लोरिडा राज्य की मतगणना में धांधली कर बुश को जिता दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि बुश जूनियर के बड़े भाई जेब बुश उस समय फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर थे। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन वहां भी बुश सीनियर द्वारा मनोनीत जजों ने मामला खारिज कर दिया। इन दोनों प्रकरणों के चलते अमेरिका क्रमशः सीनेटर जॉन मैक्गवर्न और सीनेटर अल गोर जैसे बुद्धिजीवी, सुयोग्य और प्रतिष्ठित राजनेताओं की राष्ट्रपति पद पर सेवा पाने से वंचित रह गया।

मैं यहां सुप्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार अपटन सिंक्लेयर के उपन्यास 'द जंगल' का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा-

"एक या दो माह बाद युर्गिस को वह व्यक्ति मिला जिसने उसे अपना नाम मतदाता सूची में रजिस्टर्ड कराने की सलाह दी। जिस दिन मतदान होना था, उसे सूचना मिली कि सुबह नौ बजे तक वह कहीं बाहर रहे। फिर वह व्यक्ति युर्गिस और उसके झुंड को मतदान केंद्र तक ले गया और एक-एक को समझाया कि उन्हें कैसे और किसे वोट देना है। जब वे वोट देकर बाहर निकले तो उस व्यक्ति ने उन्हें दो-दो डॉलर दिए।  युर्गिस इस अतिरिक्त कमाई से बेहद खुश था, लेकिन जब बस्ती में वापिस लौटा तो योनास ने यह बताकर उसकी खुशी छीन ली कि उसने तो तीन वोट डाले जिसकी एवज में उसे चार डॉलर की कमाई हुई।" 

यह उपन्यास 1906 में प्रकाशित हुआ था। मतलब यह हुआ कि यह दृश्य सन् 1900 या 1904 के राष्ट्रपति चुनाव के समय होगा। आप इसी उपन्यास का एक और अंश देखिए-

"और फिर यूनियन दफ्तर में युर्गिस को वही व्यक्ति फिर मिला जिसने उसे समझाया कि अमेरिका किस तरह रूस से अलग है। अमेरिका में जनतंत्र है और वहां जो भी व्यक्ति राज करता है, तथा घूस लेने का अधिकारी बनता है, उसे पहले चुनाव जीतना होता है। इस तरह घूसखोरों के दो पक्ष होते हैं, जिन्हें राजनीतिक दल के नाम से जाना जाता है। जीतता वह है जो सबसे अधिक वोट खरीद पाता है। कभी-कभी मुकाबला कांटे का होता है। तब गरीब लोगों की जरूरत पड़ती है।"

इसे पढ़कर हम कह सकते हैं कि अमेरिका हो या भारत, बीसवीं सदी हो या इक्कीसवीं सदी, जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, हम इस तरह की सरकार चुनने के लिए अभिशप्त रहेंगे।

#देशबंधु में 06 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

Cast & class system in India book review

भारत की वर्ण और जाति व्यवस्था.... पुस्तक समीक्षा


शुरुआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर व्याख्यायित मान्यताओं को सम्मिलित किया है। हिंदू, ईसाई (सृष्टि का वर्णन)और इस्लाम (सुरतुल बकरति, आयत् सं. 30 से 37) को भी उद्धृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ों वर्ष के सतत् विकास

का परिणाम है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह एक नई दृष्टि देता है। फिर भी आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग। पुस्तक की शुरुआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नहीं भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नहीं होता।

चूंकि भारत में जातीय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है, इसलिए लेखक श्री संजीव ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिंदूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वानों के मतों को खंगाला और उद्धृत किया है।
चार अध्यायों में समाहित यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए हैं उनकी पहचान कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज का पिछड़ा वर्ग हिंदूधर्म के चौथे वर्ण 'शूद्र' से संबंधित माना जाता है। किंतु खुदशाह के इस शोध प्रबंध से स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारत का पिछड़ा वर्ग मूलरूप से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग हैं। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इनका शूद्रों में समावेश कर लिया गया। लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ने ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यहे तीनों ग्रंथ आर्यों के पहले ग्रंथ हैं और केवल तीन वर्णों की ही पुष्टि करते हैं। (पृष्ठ-26) वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में चार वर्णों का वर्णन है किंतु उक्त दसवें मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया है।

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए खुदशाह ने दोहराया है कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थीं, जो आज हिंदूधर्म की संस्कृति को संजोए हुए हैं। क्योंकि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में अवैध संतान घोषित नहीं किए गए हैं (पृष्ठ-30) वह लिखते हैं—"यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णों की सेवा करने का आदेश दिया है, किंतु इन सेवाओं में ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानि पिछड़े वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है—शूद्र उच्च वर्ग के दास होंगे। यहां दास से संबंध उच्च वर्णों की प्रत्यक्ष सेवा से है। वह आगे लिखते हैं—उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि 1. शूद्र कौन और कैसे में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी में से सूर्यवंशी अनार्य थे, जिन्हें आर्यों द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
2. बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ जिसने इन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इसी संघर्ष के परिणाम से नए वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिसे शूद्र कहा गया। ये ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आते थे। यहीं से चातुर्वर्ण परंपरा की शुरुआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो युद्ध में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हों। अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया।
शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातियां कहां से आईं। यह निम्न बिंदुओं के तहत दिया गया है।
1. यह जातियां आर्यों के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थीं, सिंधु घाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थीं।
2. आर्य हमले के पश्चात इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योंकि
(अ) आर्यों को इनकी आवश्यकता थी क्योंकि आर्यों के पास कामगार नहीं थे।
(ब) आर्य युद्ध, कृषि तथा पशु पालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपुण नहीं थे।
(स) आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योंकि ये जातियां आर्यों का विरोध नहीं करती थीं चूंकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थीं।
(द) दूसरे अन्य राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी असुर, डोम, चांडाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यों का विरोध करती थीं आर्यों द्वारा कोपभाजन का शिकार बनीं तथा अछूत करार दी गईं।
3. चूंकि कामगार अनार्य जाति शूद्रों में गिनी जाने लगीं। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिलकर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-31-32)
अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र हैं, किंतु आर्यों ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ था। एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतिहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थीं। इन्होंने आर्यों की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकि बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थीं, जिन्होंने आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके। विद्वान ऐसा मानते हैं कि ये अनार्यों में शासक जातियों के रूप में थीं। आर्यों के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुईं। इन्हें बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप में स्वीकार किया गया। इन्हें ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है।

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गों में बांटा गया है। संजीव ने कामगार पिछड़े वर्ग(शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है—(1) उत्पादक जातियां (2) गैर उत्पादक जातियां। किंतु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियों का समावेश न हो किंतु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनों तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया है। चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो आधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली (साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां हैं। जबकि बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरुदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुत-सी गैर जातियां हैं। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिंदूधर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होंगी। किंतु बाद में उन्होंने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मांतरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर (सफाई कामगार) आदि।

पिछड़े वर्ग की पहचान के बाद भी वह दूसरे अध्याय—'जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिंदूकरण' में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या हैं, उसे पाठकों के सामने रखते हैं। क्योंकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राह्मण होने का दावा करती रही हैं। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए हैं किंतु हम भी लोकजीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे हैं, जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राह्मण बतलाती हैं तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी हैं। आज वे पिछड़े वर्ग की आधिकारिक सूची में दर्ज हैं। जबकि हिंदू स्मृतियां उन्हें वर्णसंकर घोषित करती हैं और इन्हीं वर्ण संकर संतति से विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ बताती हैं।

पिछड़े वर्ग की जो जातियां स्वयं को क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करती हैं, लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। किंतु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नहीं किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी वीरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीत कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची तब ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वह शूद्र हैं। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव-महादेव का कैसे हिंदूकरण करके बिना धर्मांतरण के अनार्यों को हिंदू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस में बुद्ध के क्षत्रिय होने का जो मिथक अब तक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई कि वे शाक्य थे। और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आए। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखें पृष्ठ-71-72)

अध्याय-तीन विकास यात्रा के विभिन्न सोपान में लेखक ने उच्च वर्गों के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि—"जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नहीं था कि दलित वर्गों में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती और उन्हें सूचीबद्ध किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी के अनुसरण में 29 जनवरी 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़े वर्ग आयोग का गठन था। किंतु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाए ब्राह्मणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में 1978 में मंडल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया।'' संजीव ने पिछड़ेवर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है।
लेखक कई ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए लेखक बधाई ।
राजेंद्र प्रसाद ठाकुर 
राष्ट्रीय प्रधान महासचिव 
महामुक्ति संघ

MORE ABOUT THE BOOK ADHUNIK BHARAT ME PICHDA VARG
पुस्तक का नाम

आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक -संजीव खुदशाह
ISBN -97881899378
मूल्य -200.00 रू.
संस्करण -2010 पृष्ठ-142
प्रकाशक - शिल्पायन 10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली-110032 फोन 011-22326078

ME TOO CAMPAIGN IS BASED ON ELITE CLASS


अभिजात वर्गीय है मी टू कैंपेन
संजीव खुदशाह
पिछले दिनों से मी टू कैंपेन सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक काफी चर्चित हो रहा है। इस मूवमेंट में महिलाएं #MeToo के साथ कडुवे अनुभव कुछ स्क्रीन शॉट्स भी शेयर कर रही हैं। भारत में इसकी शुरूआत 2017 से हुई थी लेकिन अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के मामले ने  पहले पहल तूल पकड़ा । उन्होंने नाना पाटेकर पर आरोप लगाए थे।
सबसे पहले सोशल मीडिया पर इस #MeToo की शुरुआत मशहूर हॉलीवुड एक्ट्रेस एलिसा मिलानो ने की थी. उन्होंने बताया कि हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे विंस्टीन ने उनका रेप किया था । मी तू कैम्पेन की  शुरूआत अमेरिकी सिविल राइट्स एक्टिविस्ट तराना बर्क ने की थी। भारत में मी टू कैंपेन शुरू होने के बाद से अब तक कई बड़ी बॉलीवुड हस्तियों के नाम इसमें सामने आ चुके हैं इनमें विकास बहल, चेतन भगत, रजत कपूर, कैलाश खैर, जुल्फी सुईद, आलोक नाथ, सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य, तमिल राइटर वैरामुथु और मोदी सरकार में मंत्री एमजे अकबर शामिल हैं।
बता दूं कि बेसिकली यह कैंपेन सोशल मीडिया पर आधारित है और सोशल मीडिया के दबाव के कारण कुछ मामलों ने पुलिस ने संज्ञान लिया है। 

कैंपेन को असहमति की सहिष्णुता नहीं है
इस कैंपेन की एक खास बात यह भी है की वे लोग जो इस कैंपेन से सहमत नहीं है उन्हें ट्रोल भी किया जा रहा है असहमति यों को बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है  कुछ साहित्यका,र लेखक, व्यक्ति, राजनैतिक लोगों ने अपनी असहमति जाहिर की है  और वे ट्रोल का शिकार हो गए । आखिर यह लोकतंत्र है कोई ब्राह्मणवादी या तानाशाही तंत्र नहीं है। किसी एक जाति या लिंग के आधार पर किसी को गलत या सही नहीं ठहराया जा सकता । पुरुष सभी गलत होते हैं या महिलाएं सभी अच्छी होती हैं। इस मान्यता से ऊपर उठना होगा। असहमति की गुंजाईस होनी चाहिए।

इस कैंपेन से क्या हो रहा है
मीटू के इस कैंपेन से हो यह रहा है कि करीब 10 साल या 20 साल या उससे भी ज्यादा समय के बाद महिलाएं अपने साथ हुए शोषण को सोशल मीडिया पर रख रहे हैं और उन लोगों को बेनकाब कर रही हैं जिन्होंने उनके साथ शोषण किया है अमेरिका की तरह भारत में भी यह कैंपेन फिल्मी दुनिया के इर्द-गिर्द घूम रहा है जबकि फिल्मी दुनिया में यौन कर्म एक आम बात है ऐसा माना जाता रहा है कास्टिंग काउच हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक आम बात है। फिल्मी दुनिया में कामयाबी पाने के लिए अपने आप को और अपने संबंधों को इस्तेमाल करना कोई नया नहीं है ।  लेकिन इस कैम्पेन से लोगों की नींद उड़ी हुई है। और कई नकाबपोश बेनकाब हुए हैं। यही इस कैंपेन की उपलब्धि है। इस कैंपेन के कारण शोषण करता की बदनामी हो रही है और उसे जवाब देते नहीं बन रहा है। महिला वर्ग खासकर महिला वादी लोग इस कैंपेन पर बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।

कानूनी पहलू
इस कैंपेन का कानूनी पहलू यह है कि इसे कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है। हालांकि किसी भी शिकायत को थाने में दर्ज कराया जा सकता है। या फिर सीधे कोर्ट में मामला लिया जा सकता है। लेकिन काफी समय हो जाने के कारण सबूत और गवाह नष्ट हो चुके हैं और परिस्थितियां बदल चुकी हैं इसीलिए शोषण करता को सजा के निकट ले जाने में मुश्किल आ सकती है।
काश वंचित वर्ग की महिलाओ को इस कैम्पेन  में जगह मिलती.
जैसा कि इस कैंपेन से नाम से जाहिर है की यह एक निजी कैंपेन है। किसी और की पीड़ा को इस कैंपेन में शामिल नहीं किया जा रहा है। इसीलिए इस कैंपेन के दौरान हुई अन्य महिलाओं के साथ बदसलूकी बलात्कार हत्याओं को इस कैंपेन में नहीं उठाया गया है। अब तक यह मामला या इसे कैंपेन कहें अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित है या सेलिब्रिटी वर्ग तक सीमित है कह सकते हैं। इसमें वे महिलाएं जो कमजोर और पीड़ित वर्ग की आती हैं उनकी बातों को तवज्जो नहीं दी जा रही है । ना ही वे ऐसा करने का हिम्मत कर पा रही है। यह इस कैंपेन का काला पक्ष है। काश दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ हुए शोषण को भी इस कैंपेन में जगह मिलती।

Third moolnivasi film, art & literary festival

तीसरा मूलनिवासी कला साहित्य एवं फिल्म फेस्टिवल
संजीव खुदशाह

आगामी 29 और 30 सितंबर को भिलाई में  मूलनिवासी कला साहित्य एवं फिल्म फेस्टिवल 2018 का आयोजन किया गया है। इस कार्यक्रम में देश भर से तमाम कला साहित्य और फिल्म जगत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उपस्थित होंगे। कई महत्वपूर्ण विषयों पर शोध पत्र पेश किए जाएंगे। मूलनिवासी नायको की जिंदगियों के बारे में आख्यान प्रस्तुत होगा।
इस फेस्टिवल का मकसद  मूल निवासियों के कला, साहित्य, की विरासत से नई पीढ़ी से अवगत कराना है तथा हमारे स्वस्थ और सामूहिक जीवनमूल्यों को पुनर्जीवित करना है।

यह कार्यक्रम फेस्टिवल के लिए गठित संयुक्त आयोजन समिति के द्वारा कराया जा रहा है जो कि गैर राजनीतिक संस्थाओं और व्यक्तियों का समूह है।
देश के हृदय स्थल में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम का उद्घाटन 29 सितंबर की सुबह ठीक 9:30 बजे *पद्मश्री जेएम नेलसन* के द्वारा किया जाएगा । उद्घाटन सत्र में ही छायाचित्र, शिल्प कला, पेंटिंग, रंगोली, कविता पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया जाएगा। इसके बाद 11:30 बजे मूलनिवासी थीम पर फेंसी ड्रेस शो,  और लोकगीतों का कार्यक्रम किया जाएगा। तत्पश्चात डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन, संत रविदास के पदों का गायन तथा राकेश बोम्बार्डे द्वारा निर्देशित नाटक प्रतिनिधित्व का मंचन  होगा।  शाम के सत्र मे भारतीय रंगमंच पर फुले अंबेडकरी विचारों का प्रभाव विषय पर सुप्रसिद्ध नाटककार राजेश कुमार जी अपना व्याख्यान देंगे। फेस्टिवल के दूसरे दिन याने 30 सितंबर रविवार को ठीक 9:30 बजे उच्च शिक्षा पर संगोष्ठी के साथ केरियर काउंसलिंग का कार्यक्रम होगा। 11:00 बजे सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता *मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त बेजवाड़ा विल्सन जो कि सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं* द्वारा हाथों से किए जाने वाले श्रम और मूल निवासियों का इतिहास विषय पर संवाद होगा। इसके बाद 
युवाओ के शोधपत्रों की प्रस्तुति, नागराज मंजुला की फिल्म फेन्ड्री की स्क्रीनिंग औरअरूणा मेश्राम द्वारा निर्देशित नाटक भ्रांति का मंचन किया जाएगा। 
दो दिवसीय इस कार्यक्रम में कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा अपने विचार सांझा किये जायेंगे। 
इस कार्यक्रम में भागीदारी  के लिए तमाम मूल निवासी  कला,  साहित्य और फिल्म प्रेमियों से अपील की गई है। 

superstation on independence day

स्‍वतंत्रता दिवस पर अंधविश्‍वास की परछाई
संजीव खुदशाह
Indian Flags
यह प्रश्न अटपटा हो सकता है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि 14 अगस्त को पाकिस्तान में आजादी का दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे इतिहास में कुछ कहानियां छिपी हुई है। 1929 में तत्कालीन कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वराज की मांग की थी। उस समय 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के लिए चुना गया था। अंग्रेजो ने 14 अगस्‍त को भारत छोड़ने का निर्णय लिया था।
आजाद भारत की पृष्‍ठ भूमि
Pakistani Flage
द्वितीय विश्वयुद्ध (1935 से 1945) के बाद अंतर्राष्ट्रीय संधि के दबाव में ब्रिटिश संसद में लॉर्ड माउंटबेटन को 30 जून 1948 तक सत्ता का ट्रांसफर करने का अधिकार दिया था। सी राजगोपालचारी ने इस बारे में कहा था कि यदि वह जून 1948 तक इंतजार करते हैं। तो ट्रांसफर करने के लिए कोई सत्ता ही नहीं बचेगी। इसीलिए 4 जुलाई  1947 को माउंटबेटन भारत को छोड़ने का बिल पेश किया। जिसे 15 दिन में ही पास कर दिया गया। जिसमें यह तय किया गया कि 15 अगस्त 1947 के पहले भारत छोड़ दिया जायेगा।
इस तरह 14 अगस्त 1947 कि बीती रात को भारत छोड़ने का निर्णय लिया गया। इसी समय भारत के दो टुकड़े हुए जिसका निर्णय काफी पहले लिया जा चुका था। और पाकिस्तान में उसी दिन अपने आप को आजाद कर लिया। लेकिन भारत में इस गुलामी से छुटकारा पाने के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद ने गोस्वामी गणेश दास महाराज के माध्यम से उज्जैन के ज्योतिष सूर्यनारायण व्यास को हवाई जहाज से दिल्ली बुलवाया और पंचांग देखकर आजादी का मुहूर्त निकलवाया।
पूरे संसार में यह बिरली घटना है जब किसी ने गुलामी की बेड़ियों को खोलने के लिए भी ज्योतिष, शुभ-अशुभ, मुहूर्त, अंधविश्वास का सहारा लिया और उसे 1 दिन और अपनी गुलामी में रहना पड़ा।
Pt Jyotish suryanarayan vyas
ज्योतिष पंडित सूर्यनारायण व्यास ने 14 तारीख के बजाय 15 तारीख की बीती रात को शुभ लग्न बताया। इस हिसाब से हम पाकिस्तान से 1 दिन छोटे हो गए.। जो पंचांग बनाया गया उसमें यह बताया गया कि यदि 15 तारीख को आजाद होते हैं तो भारत में लोकतंत्र, सुख शांति और प्रगति बनी रहेगी। 75 वर्ष के भीतर भारत विश्व गुरु बनेगा। इतना ही नहीं, पं. व्यास के कहने पर ही स्वतंत्रता की घोषणा के तत्काल बाद देर रात ही संसद को धोया गया, बाद में बताए मुहूर्त के अनुसार गोस्वामी गिरधारीलाल ने संसद की शुद्धि भी करवाई।
यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत  पाकिस्तान से भी ज्यादा लोकतांत्रिक सुख शांति और प्रगति वाला देश है आइए इसका विश्लेषण करते हैं।
पहला भारत में जिस प्रकार से संप्रदायीक हत्याएं हो रही है। लिंचिंग जैसी घटनाएं हो रही है। दलित और ओबीसी तथा अल्पसंख्यको का दमन किया जा रहा है। इंसान को जानवर और जानवरों को माता का दर्जा दिया जा रहा है। इससे आप भारत में सांप्रदायिक और लोकतांत्रिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं।
पाकिस्तान पाकिस्तान में भी यह स्थिति भारत के समकक्ष हुई लगती है। वहां भी मारकाट क्षेत्रीयतावाद, महिलाओं का दमन चरम पर है। और भारत की तरह पड़ोसी देश को नीचा दिखाने के लिए सरकारें आमदा रहती हैं।
दूसरा न्याय व्यवस्था भारत की न्याय व्यवस्था आज बिगड़ी हालत में बदल चुकी है। कॉलोसियम परंपराओं में अयोग्य न्यायाधीशों का दबदबा कोर्ट में बढ़ गया है। ईमानदार न्याय प्रिय न्यायाधीशों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। और बेहद दबाव में यह काम करने के लिए मजबूर है।
वही पाकिस्तान में न्याय व्यवस्था कुछ मजबूती दिखाई पड़ती है। जहां पर पूर्व राष्ट्रपति को 1 घंटे खड़े रहने की सजा दी जाती है। तो दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री को पनामा केस में सजा दी जाती है। उसी पनामा केस की भारत में फाइलें बंद की जा चुकी है।
तीसरा भारत में जिस प्रकार से प्रेस मीडिया को दबाव में रखा जा रहा है और सोशल मीडिया को कंट्रोल किए जाने की कोशिश हो रही है। इससे नहीं लगता कि लोकतंत्र ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा।
वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में गलत कामों के लिए मीडिया में अपने प्रधानमंत्री का मजाक बनाना एक आम बात होती है।
चौथा भारत में शिक्षा व्यवस्था बेहद खस्ता हाल में पहुंच चुकी है। हजारों स्कूलों को बंद किया जा चुका है। आठवीं तक बिना पढ़े पास होने का फरमान जारी है। ऐसी स्थिति में आप समझ सकते हैं कि आम भारतीय की शिक्षा की स्थिति क्या होगी ठीक यही स्थिति पाकिस्तान में भी है।
पांचवा ग़रीबी भारत में गरीबी और विकासशील देशों की सूची में काफी पीछे है। 5 जून 2016 जनसत्ता में छपी खबर के मुताबिक भारत को विकासशील देशों की सूची से हटाकर पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ लो और इनकम वाली सूची में रखा गया है। इससे आप भारत की गरीबी का अंदाजा लगा सकते हैं।
यह चंद आंकड़े हैं जो यह बताने के लिए काफी है कि पंडित ज्योति सूर्यनारायण व्यास की भविष्यवाणी और उनका पंचांग कहां तक सही है।
रही बात भारत के विश्व गुरु बनने की तो शिक्षा की स्थिति के आधार पर यह कहना हास्यास्पद है। मुझे लगता था कि आज के समय में भारत अपनी अंधविश्वास से निजात पाएं और स्वयंभू विश्व गुरु बनने के दावा से बाहर निकलें।
यह यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है दुनिया की 100 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय की सूची में हमारा एक ही विश्वविद्यालय शामिल क्यों नहीं है? दुनिया के अविष्कारों में भारत का एक भी अविष्कारक नहीं है।
हमें अपनी आत्ममुग्धता की बीमारी से निजात पाने की जरूरत है । तभी सही मायने में भारत आजाद कहलाएगा। नहीं तो गुलामी का एक दिन कई हजार सालों के बराबर होगा।

काला करिकालन एक शानदार फिल्म Film Review


काला करिकालन - मिथकों से लड़ते, उन्हें उलटते, पलटते, बदलते हुए कथानक पर एक शानदार फिल्म

विश्वास मेश्राम
काला प्रारंभ से अंत तक फ्रेम दर फ्रेम ढेर सारे प्रतिकों के माध्यम से बात करती फिल्म है। अन्य बालीवुड फिल्मों की तरह इसमें प्रेम है, मारधाड़ है, गाने हैं, डांस है, नाटकीयता है फिर भी यह नख से शिख तक स्थापित परंपराओ, मान्यताओं और स्थितियों के खिलाफ अपना अलग संदेश छोड़ती चलती है। काला की खूबी यह है कि यह हमारे
स्मृतियों में बचपन से घुट्टी में पिलायें गये मिथकों से लड़ती है, उन्हें झकझोरती है और बार बार तोड़ती है। यह उनके समानांतर बल्कि ठीक उलटे जनकेन्द्रित विमर्श रखते चलती है।
फिल्म की कहानी धारावी की स्लम बस्ती के लोगों के जीवन की , उनके बनने, मिटने और फिर फिर बनने की कथा है। जहां अंधेरा और दलदल हुआ करता था वह धारावी ।
जातीय भेदभाव के कारण सैकड़ों सालों से जिन्हें शिक्षा, संपत्ति और हथियार रखने से वंचित रखा गया , ऐसे लोग अपने गांव छोड़ कर बेहतर जीवन की तलाश में , आकार लेती बम्बई आए और शहर का कचराखाना इलाके की जमीन को व्यवस्थित कर अपनी बस्ती बसाई, अपने सर पर एक छत का जुगाड़ किया और रहने लगे। दक्षिण भारत से आए इन लोगों में पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की बेहद खूबसूरत झलक है। जबरदस्त आत्मसम्मान - जो उत्तर भारतीय ब्राह्मणी परम्परा के उलट - न किसी के पांव छूता है न किसी को पांव छूने देता है।
तो धारावी की बस्ती में उन्होंने भिमवाड़ा बनाया है । भिमवाड़ा अर्थात डा0 भीमराव आंबेडकर के लोगों के रहने की बस्ती। जहां बुद्ध विहार भी बनाया गया है जो पूरी बस्ती की हर गतिविधि का शक्तिकेंद्र है । वहां की सारी बैठकें , सारे उत्सव, खुशियों से लबरेज़ डांस, संघर्ष के दौर के नुक्कड़ नाटक और असहयोग आंदोलन की हड़ताल भी वहीं से विस्तार पाती है । धारावी बस्ती एक प्रतीक है वास्तविक भारत का और उसकी समकालीन समस्याओं का , जो कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक अवधारणा को बारबार आकृष्ट करती है आईना दिखाते हुए। इसके पहले रमाबाई नगर मुंबई के दलितों के संघर्षों की कहानी आनंद पटवर्धन की टीम द्वारा "जयभीम काम्रेड" फिल्म में भी बहुत जीवंतता और मुखरता के साथ दिखाई जा चुकी है।

नायक रजनीकांत काला है। उसके कपड़ें, उसका चश्मा, उसका छाता, उसकी जीप सब काला है और सांस्कृतिक गुलामी के दौर में स्थापित की गई गोरेपन की उच्चता की भावना को ध्वस्त करने, नेस्तनाबूद करने, चकनाचूर करने का प्रतीक है। वह काला के रुप में द्रविड़ो का, मुलनिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। फिल्म में वह रावण के मिथक की तरह दिखाया गया है और फोनिक्स की तरह भी जो अपनी ही राख से फिर से जी उठता है। विद्वान निर्देशक पा रंजीत फिल्म के अंतिम हिस्से में इसे बहुत खूबसूरती से दर्शाते हैं जब विलेन हरिभाऊ अभयंकर के गुंडे बस्ती में आग लगाते हैं और काला को गोली मारते हैं मगर दूसरे दिन स्लम को तोड़कर कालोनी बनाने भूमिपूजन करने आए विलेन हरिभाऊ को हर जगह काला दिखाई देता है और फिर चारो ओर काला रंग, लाल रंग और नीला रंग छा जाता है जिसके साथ विलेन मारा जाता है । जिन्होंने फिल्म अंत तक देखी उन्हें ठीक अंत के पहले, ढ़ेर सारे रंगों के कोलाज के मध्य भविष्य का आगाज करता जय भीम लिखा नीला परचम लहराता दिखता है ।
काला फिल्म स्लम बस्तियों के लोगों से अपने हकों अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्षों का आह्वान करती है । वह स्पष्ट संदेश देती है कि अपने अधिकार, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ना ही होगा । एक तरफ वह बुद्धिजीवी वामपंथियों को केवल किताबी ज्ञान के आधार पर क्रांति करना छोड़कर जमीन से जुड़ने के लिए ललकारती है तो दूसरी ओर वंचितों को उनकी ताकत बताती है कि भले ही हमारे पास धन जायजाद, महल अटारी, व्यापार उद्योग नहीं, यह शरीर ही हमारी ताकत है । यह अनायास नहीं है कि नायक अपने बेटे का नाम लेनिन रखता है और बुनियादी समझ के बिना किए जा रहे उसके रूमानी संघर्षों पर बेटे की खिंचाई करता है।
जैसा कि पहले कहा, काला प्रतीकों की फिल्म है। हरिभाऊ के द्वारा बस्ती में आग लगवाना लंका जलवाने का प्रतीक है और वह सोचता है कि इससे बस्ती वासी टूट जाएंगे तभी काला लोगों को एकजूट कर श्रमशक्ति के असहयोग का काल देता है जिसके बाद सारे अंधेरी वासी और उनके रिश्तेदार अपना सारा काम बंद कर देते हैं । कन्ट्रास्ट देखिये कि एक संभ्रांत नवयौवना टैक्सी चालकों के न मिलने से लोकल ट्रेन में जाने की मजबूरी पर नाक भौ सिकोड़ती है और धारावी वासियों को भलाबुरा कहती है वहीं बाम्बे स्टाक एक्सचेंज की पृष्ठभूमि में एक सफेदपोश उद्योगपति प्रतिदिन दस लाख के नुकसान का रोना रोते हुए हड़तालियों को गालियां देता है जबकि बस्तीवासी काला के साथ अपने अस्तित्व को बचाने लड़ रहे होते हैं।
काला फिल्म सांप्रदायिक ताकतों के षड्यंत्रों को भी भलीभांति उजागर करती है। वह बताती है कि किस प्रकार एक वर्गविशेष सर्वहारा की एकता को तोड़ने के लिए दंगे फैलाने के लिए अपने भाड़े के टट्टुओं का इस्तेमाल करता है लेकिन अगर दलितों-मुसलमानों के बीच परस्पर संवाद और सौहार्द है तो वे असफल होते रहेंगे। इस दृश्य को देखते हुए भीष्म साहनी अपनी तमश के साथ अनायास जहन में उभरने लगते हैं।
काला में डायलॉग तो सशक्त हैं ही, प्रतीकों का जबरदस्त इस्तेमाल कर पा रंजीत अपने संदेश देते हैं।
विलेन हरिभाऊ अभयंकर गोरा है, उसे देख तिलक की आर्कटिक सागर से आये आर्यों की थ्योरी याद आ जाती है। उसके कपड़ें झक्क सफेद, उसका मकान व्हाइट हाउस, उसके गुंडे श्वेत वस्त्रधारी तथाकथित अभिजात्य संस्कृति के प्रतीक लेकिन उसका काम ठीक उलट -भू माफिया, हत्यारा, दंगा फसाद भड़काने वाला, राजनैतिक दल का कंट्रोलर यानि कि समानांतर सत्ता का केंद्र ।हरिभाऊ की ताकत पैसा, गुंडई और राजनैतिक पहुंच है तो काला की ताकत उसके लोग हैं ।
हरिभाऊ अपने बंगले में रामकथा करवाते हैं तो काला के बेडरूम में आनंद नीलकंठन की रावण और उसके लोगों पर केन्द्रित "असुर" पुस्तक पर पा रंजीत कैमरा फोकस करते हैं। हरिभाऊ पैर छुवाते हैं तो काला, हरिभाऊ की पोती को पैर छूने से स्पष्ट मना करते हुए आदमी-आदमी के एक समान होने का, समता और समानता का संदेश देते हैं । पूरी फिल्म में ये सभी अंतर बार बार नजर के सामने आते हुए वर्गभेद और जातिभेद को स्पष्ट करते चलते हैं।
काला मिडिल क्लास मानसिकता के प्रभाव में आकर धारावी बस्ती छोड़कर जाने का मन बनाते अपने बेटे बहू को डांटते हैं और अपनी जमीन से जुड़े रहने का संदेश देते हैं । काला की पत्नी के रुप में सेल्वी की स्क्रिप्ट भी बहुत सशक्त बनाई गई है । एक पूरे घर को बांधकर रखने वाली गृहिणी, पति के साथ आत्मसम्मान से लबरेज़ , उसके विचारों की साथी, बदले की आग में धधकते हुए काला की व्यक्तिगत लड़ाई को सामाजिक लड़ाई में तब्दील करने वाली ।
फिल्म में एक पढ़ी लिखी मुस्लिम महिला के रूप में जरीना का रोल भी बहुत अहम है। वह एक एनजीओ चलाती है । अफ्रीकन देशों में स्लम बस्तियों का सुधार कर धारावी को सुधारने लौटी है । सिंगल मदर है जिसकी बेटी का नाम कायरा ( ग्रीक भाषा में काला ) है। मूलतः धारावी में ही पली बढ़ी । काला की मंगेतर । ठीक शादी के दिन हरिभाऊ की गुंडागर्दी में काला और उसके परिजनों की हत्याएं दिखाई गई है जिसके बाद दोनों अलग हो जाते हैं । काला तड़ीपार तो जरीना किसी मिशनरी के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका । तो वह धारावी को सुधारने के लिए आर्किटेक्ट ( टाउन प्लानर ) से प्लान तैयार करवाती है । इस प्लान का काला और उसके साथी विरोध करते हैं कि इसे धारावी की जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जाएं न कि किसी बिल्डर के मुनाफा कमाने के लिए। शुरुआत में वह काला के विरोध को समझ नहीं पाती मगर बाद में बिल्डर की सच्चाई और गुंडागर्दी को देखकर वह अंधेरी की जनता के साथ आ खड़ी होती है और अंतिम जीत तक वह काला और उसके साथियों के साथ होती है।
फिल्म में जातियां नहीं दिखाई गई है मगर जातिय वर्ग बहुत स्पष्ट दिखते हैं।
शुरुआत में ही ओबीसी-दलित एकता के प्रतीक के रूप में धोबीघाट को तोड़ने से बचाने का संघर्ष है।
फिल्म के अधिकतर कलाकार तमिल हैं। सभी ने अपनी भूमिकाएं बेहतरीन ढ़ंग से निभाई हैं । रजनीकांत नोडाउट सुपरस्टार हैं और हर फ्रेम में अपनी छाप छोड़ी है। हरिभाऊ अभयंकर के नेगेटिव रोल के साथ नानापाटेकर ने पूरा न्याय किया है और एक मंजे हुए अभिनय का परिचय दिया है। उन्हें शाबाश नाना कहना लाजिमी है। हुमा कुरैशी ने भी जरीना की भूमिका बखूबी निभाई है। सभी कलाकारों को सौ सौ सलाम ।
P रंजीत की कल्पनाशीलता और उसका विजन निस्संदेह काबिलेतारीफ है जिसमें वह काला फिल्म और उसका नायक काला करिकालन से समग्रता में बुद्ध के बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिए जीने और मरने का संदेश देने में कामयाब रहे हैं। काला फिल्म शुरुआत से अंत तक हिंसा से भरी है फिर भी यह हिंसा की व्यर्थता को रेखांकित करती है और दलित-वंचित मूलनिवासीजन को आत्मसम्मान से जीने, एकजूट होकर अपनी ताकत से अपनी जमीन और अपना अस्तित्व बचाने तथा बेहतर जीवन स्थितियां हासिल करने की जबरदस्त अपील करती है।

क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए?


विद्या भूषण रावत
क्या विश्ववनाथ प्रताप सिंह इस लायक भी नहीं के उन्हें मंडल कमीशन की सिफारिशे लागु करने के लिए जिम्मेवार माना जाए. आज उनका जन्मदिन है लेकिन उनको याद करने वाले कम लोग है. बहुत से उन्हें आज भी जी भर के पानी पी पी के कोसते है. सवर्णों की बहुत बड़ी तादाद उन्हें आज भी अपने साथ हुए अन्याय के लिए कोसती है और जो मंडल का इतिहास लिख रहे है वे भी उनलोगों का नाम क्रांतिकारियों में लिखते है जो मंडल के दौरान विपक्षी कैंप में थे लेकिन वी पी को जान बूझकर भुला देते है. क्या मंडल की कोई व्याख्या वी पी सिंह के योगदान के बगैर संभव है. हम शरद यादव को श्रेय देते है, रामविलास पासवान को इसके लिए जिम्मेवार बताते है लेकिन वी पी सिंह को क्यों नहीं ?

विश्वनाथ प्रताप भले ही शुरूआती दौर से सामाजिक न्याय के मोर्चे के व्यक्ति नहीं रहे हो लेकिन उन्होंने ईमानदारी से अपने काम किये और उसके लिए ताउम्र सत्ता के हरेक ताकतवर व्यक्ति से वो टकराए. अम्बानी से लेकर चंद्रास्वामी तक से उन्होंने लड़ा लेकिन अंततः अकेले पड़ गए. उनकी अपनी बिरादरी वालो ने उन्हें दुश्मन बताया तो जिनके लिए वो लडे वो भी उनको याद नहीं रख पाते.

दरअसल आज के दौर में सामाजिक न्याय का मुद्दा सभी का प्रमुख सवाल होना चाहिए था लेकिन उसको भी खांचो में बाँट दिया गया और नेताओं और उनकी पार्टियों के हिसाब से ही उसकी भी व्याख्या हो रही है और समय पड़ने पर सभी समझौता करने के लिए भी तैयार बैठे है.

विश्वनाथ प्रताप की राजनीती की ईमानदार समीक्षा करने का समय है. उनका कार्यकाल हालाँकि कम समय का था लेकिन भारतीय राजनैतिक पटल पर उन्होंने बहुत असर डाला. आज भारतीय नेताओ को सबसे आसानी से जिन लोगो ने गुलाम बनाया वो है बाबा ब्रिगेड और दलाल स्ट्रीट के जातिवादी पूंजीपति. वी पी सिंह इन दोनों से बहुत दूर रहे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में उन्होंने इन्ही पूंजीपतियों पर हाथ डाला था जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेजा था. वहा पर भी वी पी ने एच डी डब्ल्यू सबमरीन घोटाले की जांच के आदेश देकर सभी से दुश्मनी ले ली थी.

वी पी सिंह के छोटे से कार्यकाल में न केवल मंडल रिपोर्ट लागु हुई अपितु उनकी सरकार अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के प्रश्न पर संविधान की मर्यादाओं का पालन करते हुए गिरी. भाजपा ने मंडल का सीधे तरीके से विरोध न कर उसको राम नाम की राजनीती से ख़त्म करने की कोशिश की. वी पी की सरकार को गिरवाने ने कॉर्पोरेट से लेकर ब्राह्मणवादी ताकते लग गयी क्योंकि सबको पता था के यदि वह सरकार दो साल भी और चल जाती तो देश की राजनीती में बहुत बड़ा परिवर्तन स्थाई तौर पर हो जाता. दुर्भाग्य ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षाओ के चलते उस सरकार को गिरवा दिया गया.

अपनी सरकार के गिरने के बादभी वी पी कुछ समय तक सक्रिय रहे और उहोने जनता के सवालो पर सामाजिक आन्दोलनों के साथ मिलकर कार्य किया.

वी पी सिंह की राजनीती की आज आवश्यकता है क्योंकि मोदी जैसो को वो आसानी से पानी पिला सकते थे. इसका कारण था उनका जनोन्मुखी राजनीती. वी पी ने हमेशा जनता से अपना संपर्क बनाए रखा और देश के सभी राजनितिक लोगो से उनके अच्छे सम्बन्ध थे. तमिलनाडु में करूणानिधि, आंध्र में एन टी रामाराव, और वामपंथियों से उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे. आज की राजनीती में ये बहुत आवश्यक है. दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात, वी पी ने राजनीती में संसदी और पदों की परवाह नहीं की जो कम से कम आज के दौर में तो देखने को नहीं मिलता. जब नेता आँख नहीं खोल पा रहे हो लेकिन सांसदी होने का सुख छोड़ने को तैयार नहीं, वही वी पी सिंह ने ये सब बहुत पहले ही छोड़ दिया. हकीकत यह है के उनका संसदीय कार्यकाल कुल मिला जुला के १० वर्षो से कम का ही होगा लेकिन संसद पर उनके कार्यो का असर भारत के किसी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं होगा.

वी पी आज भी हाशिये पे है. लेकिन हम उम्मीद करते है के जब भी देश में सामाजिक न्याय के लिए काम करने वालो की बात होगी उन्हें जरुर याद किया जाएगा. उम्मीद है के उनकी राजनीती में मंडल के अलावा उनके छोटे से कार्यकाल के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओ को याद करते हुए और उनके प्रधानमंत्रिय कार्यकाल के बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं पर उनका योगदान जरुर याद किया जाएगा.

वी पी की राजनीती जे पी की राजनीती से ज्यादा बड़ी है लेकिन जो वी पी के समय बड़े हुए वे जे पी का नाम लेते है लेकिन ये नहीं बता पायेगे आखिर जे पी ने सामाजिक न्याय के लिए किया क्या. शायद वी पी अकेली वो हस्ती है जिनके नाम पर इस देश में एक छोटी सा मोहल्ला या गली तक नहीं है. वो व्यक्ति जिसने अपनी पूरी जमीन भूदान आन्दोलन को दे दी और जिसकी बहुत सी जगहों पर आज भी लोग बिना किसी भय के रह रहे है, आज राजनीती में चुपचाप बिसरा दिया गया है. ब्राह्मणवादी सेक्युलरो को वी पी से सख्त नफरत है क्योंकि मंडल ने जो दर्द मनुवादियों के सीने में दिया है वो 'असहनीय' है. ऐसे में कुछ समय बाद आर एस एस, जिसके विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और बोला, उनको 'महान' बता दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

क्या तेजस्वी यादव और अखिलेश इतनी हिम्मत जुटा पायेंगे के सामाजिक न्याय के इस योधा को याद कर सके ?

२५ जून, २०१८

Episode no16 personality of the week नीलेश लंगोटे सफाई कर्मचारी आन्दोलन.

सुदर्शन समाज रायपुर स्थित बस्ती को स्थानीय प्रशासन द्वारा बुलडोजर चलाकर तोड़ दिया गया और आनन-फानन निवासियों को अपनी व्यवस्था करनी पड़ेगी हाईकोर्ट ने राहत दी है लेकिन प्रशासन अभी तक मौन है

Episode no 17 personality of the week सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आया- जन्मेजय सोना

इस हफ्ते पर्सनालिटी ऑफ द वीक में एडवोकेट जन्मेजय सोना जी बता रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने गरीबी परिस्थिति में अपनी पढ़ाई पूरी की और वह किस प्रकार सोशल मीडिया के माध्यम से अंबेडकरवाद की तरफ आएं है। और आज समाज सेवा में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना।

जानिए क्यों जरूरी है काला फिल्म को देखना। आज काला फिल्म बेहद चर्चा में है। चर्चा इस बात को लेकर है कि दलित बहुजन और वंचित वर्ग, खासकर के अंबेडकरवादी और मार्क्सवादी विचारधारा के लोग इस फिल्म को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सामंतवादी लोग इस फिल्म का विरोध भी कर रहे हैं। इस फिल्म को देखने के बाद संजीव खुदशाह और शेखर नाग इस पर अपना एक रिव्यू पेश कर रहे हैं। देखिए यह महत्वपूर्ण समीक्षा। सबसे पहले फिल्म का ट्रेलर हिंदी में देखें।