युध्‍दरत आम आदमी के पिछडा वर्ग विशेषांक की समी‍क्षा

अमलेश प्रसाद पत्रिका समीक्षा ।  सबसे ज्‍यादा मतदाता हैं, लेकिन राष्‍ट्रीय मुद्दों में हस्‍तक्षेप न के बराबर है। सबसे ज्‍यादा आबादी है, लेकिन सबसे ज्‍यादा असंगठित समाज यही है। सबसे ज्‍यादा कामगार इसी वर्ग के हैं, लेकिन अधिकांश बेराजगार हैं। सबसे ज्‍यादा कारीगर भी इस समाज के हैं, लेकिन कलाकारी में कहीं नामो-निशान नहीं है। सबसे ज्‍यादा किसान भी यही हैं, लेकिन अभी अधिकांश भूखे-नंगे हैं।
चाहे साहित्‍य हो, चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म हो, चाहे अध्‍यात्‍म हो, चाहे कला हो, चाहे खेती-बागवानी हो, हर क्षेत्र में सबसे ज्‍यादा पसीना बहानेवाला यही समाज रहा है। कितनी विडंबना है कि वेद की चंद ऋचाएं रटने वाले को योग्‍य माना जाता है, लेकिन मनुष्‍य की दैनिक जरूरत की चीजों का प्रकृति के साथ-साथ सृजन करनेवाले को अयोग्‍य कहा जाता है। पिछड़ा वर्ग के पिछड़ेपन का मुख्‍य कारण कूटनीति है। पिछड़ा वर्ग उतना कूटनीतिज्ञ नहीं है, जितना सवर्ण समाज। हर विधा में सक्षम होने के बावजूद कूटनीति के अभाव के चलते पिछड़ा वर्ग अपंग बना हुआ है। इतिहास गवाह है कि आज का पिछड़ा कभी अगड़ा रहा है। जीवन के हर क्षेत्र की कारीगरी एवं कलाकारी में इसे महारत हासिल है, लेकिन इसे कूटनीति से हराकर बंधुआ मजदूरी करायी जा रही है। जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक मनुष्‍य को जितनी चीजों की जरूरत होती है, उन सबका पालक, उत्‍पादक और निर्माता पिछड़ा वर्ग ही है। लेकिन दुर्भाग्‍य है कि आज पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य और राजनीति दोनों मौन धारण कर बैठे हुए हैं।
अब कुछ लोग पिछड़े समाज को लेकर साहित्‍य और राजनीति में कुछ-कुछ कर रहे हैं। लेकिन आबादी के हिसाब से यह प्रयास न के बराबर है। इसी कमी को पूरा करने के लिए युद्धरत आम आदमी का पिछड़ा वर्ग विशेषांक उल्‍लेखनीय है। इस अंक के अतिथि संपादक संजीव खुदशाह ने ‘पिछड़ा वर्ग साहित्‍य आंदोलन खड़ा करेगा’ संपादक रमणिका गुप्‍ता ने ‘अभी लम्‍बा सफर तय करना है पिछड़ा वर्ग को’ और कार्यकारी संपादक पंकज चौधरी ने ‘साम्‍प्रदायिक नहीं हैं पिछड़ी जातियां’ आंदोलित करने वाला संपादकिय लेख लिखे हैं। इस विशेषांक में पिछड़े वर्ग के तमाम पहलुओं को शामिल करने की कोशिश की गई है। इस अंक को मुख्‍य रूप से निम्‍न खंडों में विभाजित किया गया है- दस्‍तावेज, इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्री, समाज राजनीति नेतृत्‍व, मीडिया, पसमांदा मुसलमान, अति पिछड़ी जातियां, एकता/अन्‍य, आरक्षण, साक्षात्‍कार, पुस्‍तक अंश और पुस्‍तक वार्त्‍ता।
संपादकीय के बाद पहले खंड दस्‍तावेज में ‘जाति प्रथा नाश- क्‍यों और कैसे’ डॉ. राममनोहर लोहिया का लेख है। लोहिया ने जाति की जड़ खोदने के साथ-साथ अपने समय को भी कैनवास पर उतारा है, यथा- ‘ऊंची जातियां सुसंस्‍कृत पर कपटी हैं, छोटी जातियां थमी हुई और बेजान हैं।’‘इतिहास आन्‍दोलन संस्‍कृति स्‍त्री’ खंड में प्रेमकुमार मणि का ‘भारतीय समाज में वर्चस्‍व व प्रतिरोध’, बजरंग बिहारी तिवारी का ‘केरल का नवजागरण और एसएनडीपी योगम्’, बृजेन्‍द्र कुमार लोधी का ‘वर्ण व्‍यवस्‍था एवं जाति प्रथा : मिथक तथा भ्रांतियां’ और सीए विष्णु दत्‍त बघेल का ‘पराधीनता व आत्‍मग्‍लानि का बोझ’ लेख शामिल हैं। इस खण्‍ड में उत्‍तर से दक्षिण और प्राचीन से आधुनिक भारत के जातीय इतिहास को मथा गया है।  
‘समाज राजनीति नेतृत्‍व’ खंड में अनिल चमड़िया, पंकज चौधरी, के.एस. तूफान और रामशिवमूर्ति यादव का क्रमश: ‘नमो को पिछड़ा बनाने के निहितार्थ’, ‘उत्‍तर का राजनीतिक नवजागरण’, राजनीति सत्‍ता और पिछड़ा वर्ग’ और ‘नेतृत्‍वविहीन है पिछड़ा वर्ग’ आलेख को स्‍थान दिया गया है। यहां पिछड़ा वर्ग के राजनीति उतार-चढ़ाव को रेखांकित किया गया है। ‘मीडिया’ खण्‍ड में उर्मिलेश और संजय कुमार के दो लेख हैं। इनके शीर्षक हैं क्रमश: ‘भारतीय मीडिया और शूद्र’ तथा ‘हाशिए का समाज मीडिया में भी हाशिए पर’। 
पिछड़े वर्ग की पीड़ा और प्रताड़ना से पसमांदा मुसलमान भी पीड़ित हैं। ‘पसमांदा मुसलमान’ खण्‍ड में अली अनवर, कौशलेन्‍द्र प्रताप यादव, ईश कुमार गंगानिया और प्रो. मो. सईद आलम के लेख क्रमश: ‘पसमांदा ही भागाएंगे साम्‍प्रदायिकता के भूत को’, ‘कौन समझेगा पसमांदा मुसलमानों का दर्द’, ‘पसमांदा मुस्‍लिम की अस्‍मिता के प्रश्‍न’, और ‘पसमांदा मुसलमानों को आम्‍बेडकर की तलाश’ लेखों से यह स्‍पष्‍ट होता है कि पसमांदा मुसलमान भी अब धार्मिक कठमुल्‍लेपन को छोड़कर अपने आत्‍मसम्‍मान, अस्‍मिता, सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन के मुद्दे उठाने के लिए निकल पड़ा है। इस पिछड़ा वर्ग विशेषांक में अति पिछड़ों का भी पूरा ख्‍याल रखा गया है। ‘अति पिछड़ी जातियां’ खण्‍ड में डॉ. राम बहादुर वर्मा, डॉ. पीए राम प्रजापति, महेन्‍द्र मधुप का क्रमश: ‘यूपी में अति पिछड़ी जातियों की दशा-दिशा’, ‘बदलते आर्थिक परिवेश में अति पिछड़ा वर्ग का विकास एवं चुनौतियां’, ‘अति पिछड़ों को ठगने का काम राजनैतिक दल छोड़ें’ आदि महत्‍वपूर्ण लेख शामिल हैं।
दलित समाज की सभा/सम्‍मेलनों में पिछड़ों को भाई कहा जाता है और पिछड़े समाज की सभा/सम्‍मेलनों में दलितों को भाई कहा जाता है।एकता खण्‍ड में दलित-पिछड़ों की इसी एकता पर गंभीर चर्चा की गई है। इसमें मूल चंद सोनकर ने ‘आम्‍बेडकर ही एकमात्र विकल्‍प’, केशव शरण ने ‘पिछड़ा वर्ग और उनकी दशा-दिशा’, डॉ. धर्मचन्‍द्र विद्यालंकर ने ‘दलित पिछड़ा भाई-भाई, तभी होगी केन्‍द्र पर चढ़ाई’, डॉ. हरपाल सिंह पंवार ने ‘क्‍या पिछड़ी जातियां भी शूद्र हैं’, रमेश प्रजापति ने ‘ब्राहमणवाद के जुए को उतार फेंके पिछड़ा वर्ग’, इला प्रसाद ने ‘चित्रगुप्‍त के वंशज’ तथा यशवंत ने ‘हक न पा सकने वाली नस्‍ल’ लेख लिखा है। अब तक आरक्षण को लेकर मानवता को शर्मसार करनेवाली कितनी ओछी राजनीति होती रही है। यह ‘आरक्षण’ खण्‍ड को पढ़ने से ज्ञात होता है। इस खण्‍ड में महेश प्रसाद अहिरवार ने लिखा है ‘पिछड़ों को आरक्षण मा. कांशीराम की देन’। राम सूरत भारद्वाज ने ‘पिछड़ों को आरक्षण : काका कालेलकर से मण्‍डल कमीशन तक’ की चर्चा की है। वहीं जवाहर लाल कौल ने ‘ओबीसी आरक्षण : एक विवेचन’ में शोधपरक विवेचना की है। ‘साक्षात्‍कार’ खण्‍ड में कांचा इलैया, राजेन्‍द्र यादव, मुद्राराक्षस, मस्‍तराम कपूर, चौथी राम यादव, डॉ. शम्‍सुल इस्‍लाम, असगर वजाहत, आयवन कोस्‍का, दिलीप मंडल और रमाशंकर आर्या के साक्षात्‍कार शामिल हैं। साक्षात्‍कार में कुछ महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न सभी लोगों से पूछे गये हैं। यहां प्रश्‍नों के दोहराव से बचना चाहिए था। ‘पुस्‍तक अंश’ खण्‍ड में रामेश्‍वर पवन की ‘द्विजवर्णीय नहीं हैं कायस्‍थ’, गणेश प्रसाद की ‘गरीबों का हमदर्द कर्पूरी ठाकुर’, संजीव खुदशाह की ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ और अभय मौर्य के उपन्‍यास ‘त्रासदी’ के अंश हैं। ‘पुस्‍तक वार्त्‍ता’ खण्‍ड में आरएल चंदापुरी की पुस्‍तक ‘भारत में ब्राहमणराज और पिछड़ा वर्ग आन्‍दोलन’ तथा संजीव खुदशाह की ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ की समीक्षा शामिल है।  
वर्त्‍तमान में दक्षिण और उत्‍तर भारत के कई राज्‍यों में पिछड़ों की सरकार है। यहां तक कि भाजपा नेता नरेंद्र मोदी पिछड़ी जाति का प्रमाण-पत्र लेने के बाद ही प्रधानमंत्री बन पाए। पर, इस अंक में पिछड़े वर्ग के एक भी नेता को शामिल नहीं किया गया है। इस विशेषांक के बहाने पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं का मुंह भी खुलवाना चाहिए था कि वे साम्‍प्रदायिकता, जातीय व धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध सामाजिक परिवर्तन और पिछड़ों के अस्‍मिता, अस्‍तित्‍व व आत्‍मसम्‍मान के किस पाले में हैं? वैसे पिछड़े वर्ग पर साहित्‍य की अभी बहुत कमी है। बहरहाल विशेष प्रयास से युद्धरत आम आदमी का निकला यह विशेषांक हाथ में आते ही एक बार उलटने-पलटने और पढ़ने के लिए विवश कर देता है।
समीक्षक : अमलेश प्रसाद
पता : 204, डीए9, एनके हाउस, शकरपुर, लक्ष्‍मी नगर, दिल्‍ली- 92

सुदर्शन समाज का इतिहास

सुदर्शन समाज का इतिहास
संजीव खुदशाह
मूलत: बघेलखण्ड और बुंदेलखण्ड (आज मप्र और उप्र के कुछ हिस्से) में निवास करने वाली डोमार जाति जो भंगी व्यवसाय में जुडी हुई है। ने अचानक 1941 के आस पास अपने आपको सुदर्शन नाम के पौराणिक ऋषि से जोड लिया। वे अपनी जाति की पहचान सुदर्शन समाज के रूप में बताने लगे। वे ऐसा क्यो करने लगे ? क्या कारण थे ? इसका जवाब बताने से पहले अन्य भंगी व्यवसाय से जुड़ी वाल्मीकि समाज के बारे में जानना जरूरी है।
1920 से 1930 ईस्वी के आस पास की बात है जब डाँ अंबेडकर दलितों के उद्धारक के रूप में उभरते जा रहे थे। वे दलितों को उत्पीङन से बचने के लिए गांव से शहर में आकर बसने की सलाह दे रहे थे साथ ही अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़ने की अपील कर रहे थे। इस समय देश के लाखों दलित अपने घृणित व्यवसाय को छोड़कर शहर में अन्य व्यवसाय की तलाश कर रहे थे। इसी दौरान पंजाब की चूहङा जाति(पखाना सफाई में लिप्त थी) के लोग जो बालाशाह और लालबेग को अपना धर्म गुरू मानते थे।  इनमें बडी मात्रा में ईसाई धर्म की ओर झुकाव हाेने लगा और जो लोग ईसाई धर्म को ग्रहण कर लेते वे गंदे काम को करना बंद कर देते। इसी समय पंजाब के लाहौर और जालंधर इत्यादि बडे. शहरों में आर्य समाज और कांग्रेसियों का प्रभाव था उन्होने गौर किया कि यदि ऐसा ही धर्म परिवर्तन चलता रहा तो पखाने साफ करने वाला कोई भी नही रहेगा। इन्हे हिन्दू बना ये रखने के लिए हिन्दुओं ने प्रचार शुरू किया कि तुम हिन्दू हो। बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हे गोमांस न खाने को राजी किया गया। ऐडवोकेट भगवान दास अपनी किताब बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां में लिखते है बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हे गोमांस न खाने को राजी किया गया। अपने खर्चे लाल बेग के बौद्ध स्तूपों की तरह ढाई ईट से बने थानों की जगह मंदिर बनाये जाने लगे। कुर्सीनामों की जगह रामायण का पाठ और होशियारपुर के एक ब्राह्मण द्वारा लिखी आरती ओम जय जगदीश हरेगाई जाने लगी। हिन्दुकरण को मजबूती देने के लिए पंजाब के एक ब्राह्मण श्री अमीचन्द्र शर्मा ने एक पुस्तक वाल्मीकि प्रकाशके नाम से छपवाई जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि भंगी चुहडा वाल्मीकि का वंशज नही, अनुयायी है। उधर गांधी जी ने भी इस नये नाम की सराहना की और अपना आशीर्वाद दिया।
ग़ौरतलब है कि सन् 1931 में जाति नाम वाल्मीकि को सरकारी स्वीकृति मिल गयी। पंजाब हरियाणा के बाहर अन्य भंगी जातियां इससे प्रभावित नही हुई। किंतु इन जातियों के लोग भी इसाई और मुस्लिम धर्म की ओर बढ रहे थे एवं तरक्की कर रहे थे। जो व्यक्ति इसाई या मुस्लिम धर्म में चला जाता वह गंदे पेशे को छोङ देता। हिन्दु वादियों ने इन्हे भी एक-एक संत थोप दिया, और उस संत को उनका कुल गुरू बताया गया।, उनके बीच धार्मिक किताबे मुफ्त में बांटी गई, उन्हे कहा गया की तुम्हारे कुल के देवी देवता मरही माई, देसाई दाई, ज्वाला माई, कालका माई कोई और नही दुर्गा के ही अन्य नाम है, इस तरह इन गैर हिन्दु जातियों को हिन्दु धर्म में बिना दीक्षा के मिला दिया गया। कुछ जातियां स्वयं धार्मिक किताबों में अपने संतो की खोज करने लगे। इसके तीन कारण थे।
1.    लालबेगियों के द्वारा वाल्मीकि जयंती मनाने और सभा करने की प्रक्रिया को संगठित होना समझते थे। इस प्रकार वे भी संगठ‍ित होना चाहते थे।
2.    सरकार के द्वारा किसी प्रकार के फायदे मिलने की लालसा थी।
3.    गंदे जाति नाम से छुटकारा पाने की मजबूरी थी।

अब प्रश्न ये उठता है कि लालबेगियों की तरह उनकी भी जरूरते समान थी इसके बावजूद वे वाल्मीकि नाम से क्यो नही जुङे। इसके भी तीन कारण है।
1.      वे अपने आपको लालबेगियों से अलग मानते थे।
2.      वाल्मीकि नाम से जुडकर वे अपने जाति अस्तित्व को समाप्त नही करना चाहते थे।
3.      वाल्मीकि में लालबेगियों के एकाधिकार के कारण वे अपने हितों को लेकर असुरक्षित थे।
इस प्रकार बांकी भंगी जातियां अपने अपने गुरूओं की तलाश करने लगी। इस कार्य में हिन्दुवादियों ने अपना सहयोग दिया। धानुक जाति ने अपने आपकों धानुक ऋषि से, डोम ने देवक ऋषि से, मातंग ने मातंग ऋषि से और डोमरों ने सुदर्शन ऋषि से अपने आपको जोडा। चूकि चर्चा का विषय सुदर्शन समाज पर है इसलिए मै इस पर विस्तार से चर्चा करूगां।
सुदर्शन समाज की शुरूआत 1941 के बाद हुई ऐसी जानकारी मिलती है। स्व रामसिंग खरे जो डोमार जाति के थे, ने सर्वप्रथम सुदर्शन सेवा समाज की स्थापना पंश्चिम बंगाल के खडगपुर में की। स्व रामसिंग खरे के सहयोगी थे स्व भीमसेन मंझारे, स्व लालुदयाल कन्हैया, स्व रामलाल शुक्ला, स्व पन्ना लाल व्यास। यहां सुदर्शन सेवा समाज की ओर से एक स्कूल भी चलाया जा रहा था। बाद में मध्यप्रदेश के बिलासपुर (अब छत्तीसगढ.) में करबला नामक स्थान में एक सुदर्शन आश्रम की स्थापना उन्होने ने की। आज यहां पर एक बडा सुदर्शन समाज भवन नगर निगम की मदद से बनवाया गया है। इस बीच सुदर्शन समाज का सम्मेलन कानपुर, खडगपुर, नागपुर, जबलपुर एवं बिलासपुर में आयोजित किया गया। रामसिंग खरे मूलत: हमीरपुर बांदा के रहने वाले थे। वे खडगपुर में निवास करते थे लेकिन पूरे जीवन भर सुदर्शन ऋषि के नाम पर समाज को जोङने के लिए पूरे देश में दौरा किया करते थे। इसके पहले डोमार जाति सुदर्शन या सुपच ऋषि से परिचित नही थी।
ऐसी जानकारी मिलती है कि की स्व रामसिंग खरे बंगाल नागपुर रेल्वे में सफाई कर्मचारी के पद पर कार्यरत थे, बाद में वे हेल्थ इंस्पैक्टर होकर सेवानिवृत्त हुये। उन्होने रेल सफाई कमर्चारियों की समस्याओं को लेकर कई कार्य किये। रेल सफाई कर्मचारियों के पद्दोन्ती का श्रेय उन्ही के प्रयास को जाता है। स्व पन्नालाल के पुत्र राजकिशोर व्यास बताते है कि  1940 से पहले वे अपने सहयोगियों के साथ दिल्ली में गांधीजी से मिले थे। गांधी ने उनके सुदर्शन ऋषि के कान्सेप्ट को आर्शिवाद दिया था ऐसा अंदाजा लगाया जाता है। लेकिन सर्वप्रथम सुदर्शन ऋषि या सुपच ऋषि के बारे में उन्हे कोन बताया ये कह पाना कठीन है।
स्वपच क्या है? स्वपच का तत्सम श्वपच है। जिसका अर्थ कुत्ते का मांस खाने वाले लोग।
श्वान+पच= कुत्ते का मांस खाने वाले[1]
किन्ही अन्य संदर्भ में चांडाल को भी श्वपच कहा जाता है। यानि जिस किसी ने भी स्व रामसिंग खरे को सुपच या सुदर्शन ऋषि का कान्सेप्ट दिया था वो बडा ही घूर्त आदमी रहा होगा। क्योकि स्व रामसिंग खरे और उनके साथी ज्यादा पढे लिखे नही थे। यदि उन्हे ये जानकारी होती की सुपच का अर्थ कुत्ते का मांस खाने वाला है तो वे किसी भी हाल में सुदर्शन ऋषि को नही अपनाते।
सुदर्शन ऋषि की उत्पत्ति- यहां यह बताना जरूरी है सुदर्शन ऋषि के परोकार महाभारत के एक प्रसंग से सुदर्शन ऋषि को जोडते है। जिसकी कथा कबीर मंसूर में मिलती है की महाभारत युध्‍द के बाद युधिष्ठीर को अत्यन्त पश्चाताप हुआ कि उन्होने अपने ही रिश्तेदारो की हत्या कर यह राजपाट पया है जिसके कारण उन्हे नरक भोगना पडेगा। श्री कृष्ण ने उन्हे इस संकट से मुक्ति के लिए यज्ञ करने की सलाह दी, जिसमें सभी साधु-संतों को भोजन कराए जाने का निर्देश दिया और कहा कि जब आकाश में घंटा सात बार बजेगा तभी यज्ञ पूरा हुआ माना जाएगा अन्यथा नही। इस प्रकार सभी सन्तों को बुलाकर भोजन कराया गया, किन्तु कोई घंटा नही बजा। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के कहने पर सुदर्शन ऋषि को बङी मिन्नत करके बुलाया गया एवं भोजन कराया गया। इसके बाद आकाशीय घंटा बजता है।[2] इसी प्रकार का विवरण सुख सागर नामक ग्रन्थ में भी मिलता है। गौरतलब है इस कथा में सुदर्शन को नीच जाति का बतलाया गया।
क्या महाभारत में सुदर्शन ऋषि का विवरण मिलता है? यह एक आश्चर्य है की जिस क्था को कबीर मंसूर या सुखसागर मे महाभारत से जोडकर बताया गया है वह मूल महाभारत मे है ही नही । इस कारण सुदर्शन का महाभारत से कोई संबंध साबित नही होता है।
इतिहास में क्या कहीं सुदर्शन ऋषि का विवरण मिलता है? नागपुर विश्वविद्यालय के पाली भाषा के अध्यक्ष डॉ विमल किर्ती बताते है कि बौद्ध काल में सुदर्शन नाम के एक बौद्ध भिक्षु का जिक्र मिलता है। वे आगे कहते है चूकि सारे दलित पूर्व में बौध्द ही थे इसलिए ऐसा हो सकता है सुदर्शन ऋषि कोई और नही वही बौद्ध भिक्षु ही रहे होगे।
कौन-कौन सी जातियां सुदर्शन समाज से जुडी है? डोमार के वे लोग जो सुदर्शन के समर्थक है, ये दावा करते है कि डोम-डुमार, हेला, मखिया, धनकर, बसोर, धानुक, नगाडची आदि सभी सुदर्शन को मानते है। लेकिन ये एक झूठ है, सच्चाई ये है कि केवल डोमार(डुमार) या अन्य जाति के वे परिवार जिन्होने इनसे वैवाहिक संबंध बनाये है सुदर्शन को मानते है। यहां ये भी बताना जरूरी है की ऐसे लोग जो पढ लिख गये और सुदर्शन की सच्चाई से वाकिफ हो गये वे सुदर्शन को मानना बंद कर दिये। क्योंकि सुदर्शन आज डुमार समाज की गुलामी का प्रतीक है। यह एक ऐसा थोपा हुआ कलंक है जिसने इस जाति को हिन्दू धर्म का गुलाम बनाकर दलित आंदोलन से दूर कर दिया। इस कलंक को जितना जल्दी हो मिटा दिया जाय उतना अच्छा है।
सुदर्शन ऋषि से जुडने के कारण होने वाली हान‍ि
० अम्बेडकर के दलित आंदोलन से दूरी- पूरे देश में दलित आंदोलन चला जो ब्राम्हणवाद के विरोध में खडा हुआ। जिसमें जाटव, चमार, महार, रविदास आदि जाति शामिल हुई और तरक्की कर गई। जो दलित जातियां गुरू, ऋष‍ि के चक्कर में रही वे पिछडती गई। सांमंतवादी, ब्राम्हणवादी ताक़तें ये चाहती है की वे अंबेडकर से दूर रहे और गंदे पेशे को ना छोड़े ताकि उनके सुख में कोई खलल न हो।
० अपने गौरवशाली इतिहास को भूला दिया गया अम्बेडकरवाद जहां एक ओर अपने इतिहास को जानने के लिए प्रेरित करता है। आपने उदृधारक और शोषण कर्ता के बीच फर्क करना सिखाता है। वहीं सुदर्शन जैसे गुरूओं के साथ आने के कारण ये इतिहास ब्राम्हणवादी आडंबरो अंधविश्वासों में खो गया। अपने गौरवशाली इतिहास को अपने हाथों मिटा दिया।
० अपनी अवैदिक संस्कृति को मिटा जा रहा है- दलितों की महिला प्रधान, गैरब्राम्हणी, अवैदिक संस्कृति को मिटाया गया। डोमार समाज में कभी किसी अवसर या संस्कार में ब्राह्मण को नही बुलाया जाता था। क्योकि इनकी अपनी अवैदिक संस्कृति थी। इनकी अपनी पूजा की शैली, भजन गायन पध्दती थी, छिटकी बुदकी थी जिसे सुदर्शन के नाम पर हिन्दुकरण होने के कारण आज पूरी तरह मिटा दिया गया।
० केवल हिन्दू जज मान बनकर रह गये- आज डोमार लोग केवल हिन्दू समाज के जज मान बन कर रह गये। वे अनुसूचित जाति में आते है और डाँ अंबेडकर के प्रयास से दलित होने का लाभ जैसे आरक्षण, छात्रवृत्ति, नौकरी, व्यवसाय, ऐट्रोसिटी, सबसीडी का फायदा तो जमकर उठाते है। लेकिन जब चढ़ावा देने की बारी आती है तो वे वैष्णो देवी या किसी गुरू के द्वार जाते है। डाँ अम्बेडकर को मानने में आज भी संकोच करते है।
० पुश्तैनी भंगी व्यवसाय से छुटकारा नही मिल पाया-भारत की लगभग दलित जातियां जो अंबेडकर आंदोलन से जुड़ीं उन्होने संघर्ष करके अपना पुश्तैनी गंदे पेशे से छुटकारा पा लिया। लेकिन जो जातियां हिन्दू धर्म की गुरू या ऋषि की ओर गई वे गंदे पेशे में सुधार तो चाहती है लेकिन छोड़ना नही चाहती। डोमार जाति के नेता सफाई में सुविधा, पैसा की मांग तो करते है लेकिन पेशे को छोड़ने की मांग नही करते ।
० गुमराह करने वाले समाजिक नेता कुकुरमुत्ते की तरह पैदा हो गये- चूकि अम्बेडकरी आंदोलन सच्चे और झूठ में फर्क करना सिखाता है इसलिए आप अपने मार्ग दर्शक खुद बन जाते है। और आपको किसी नेता की जरूरत नही पडती। लेकिन सुदर्शन समाज में ऐसे नेताओं की कमी नही है जो आपको सुदर्शन के नाम पर गुमराह करने में कोई कसर नही रखेगे। वे चाहेंगे आप अपने गंदे पेशे को करते रहे और सुदर्शन का भजन गाते रहे ताकि उनकी राजनीतिक रोटियाँ सिकती रहे।
डाँ अंबेडकर की ओर एक कदम- पहले इस समाज के लोग सुदर्शन के साथ अंबेडकर का फोटो लगाते थे। लेकिन अब वे सुदर्शन के फोटो को हटा रहे हे। दलित मुव्हमेन्ट ऐसोसियेशन रायपुर, अंबेडकर विकास समिति जबलपुर, समाजिक विकास केन्द्र नागपुर इसके ज्वलंत उदाहरण है। डुमार समाज के सबसे बडे मार्ग दर्शक थे नागपुर के स्व राम रतन जानोरकर जो आरपीआई से नागपूर के महापौर बने थे। वे डाँ अम्बेडकर से बहुत करीब से जुडे थे। उन्हे महाराष्ट्र सरकार की ओर से दलित मित्र की उपाधि से नवाजा था। वे डाँ अंबेडकर के बौद्ध दीक्षा कार्यक्रम के संयोजक थे और उन्होने उनसे बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी। डोमार समाज सहीत अन्य दलित समुदाय भी उनके मार्ग पर चलने को तत्पर है। स्व राम रतन जानोरकर इस समाज के सच्चे मार्ग दर्शक है। इस प्रकार और भी लेखक चिंतक समाजिक कार्यकर्ता है जो अंबेडकर आंदोलन से इन्हे जोड़ने की कोशिश कर रहे है।

[1] देखे पृष्ठ क्रमांक 66 सफाई कामगार समुदाय लेखक संजीव खुदशाह प्रकाशक राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली


[2] देखे पृष्ठ क्रमांक 118 सफाई कामगार समुदाय लेखक संजीव खुदशाह प्रकाशक राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली
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कालोनियों में सांस्‍कृतिक हमले की भूमिका


क्‍या कहता है भारत का कालोनी कल्‍चर ?



· संजीव खुदशाह



तेजी से विकसित होते भारतीय शहरों और कस्‍बेा में कालोनियों, अर्पाटमेंटों की बाढ आ गई है। कालोनियों और अपार्टमेंटों में निवास करना अब शान का प्रतीक बन चुका है। आधुनिकी करण एवं सुविधाओं के कारण लोग सकरीं गली मुहल्‍लों में रहने के बजाय इन कालोनियों में रहना ज्‍यादा पसंद करते है। इतिहास गवाह है कि भारत में कालोनी कल्‍चर ने धर्म, जाति, रंग भेद को मिटने में अहम भूमिका अदा की है।


कालोनी क्‍या है?


मनुष्‍यों के निवास के लिए व्‍यवस्थित नगर निर्माण जिनमें कम से कम अधार भूत सुविधाऐं जैसे पेयजल, नाली, सडक, बिजली आदी का प्रावधान हो, मकान एक जैसे ज्‍यादा संख्‍या में भी हो सकते है तो उसे हम कालोनी या अपार्टमेंट कहेंगे। 


कालोनी का इतिहास


भारत में कालोनी का इतिहास काफी पुराना है, विकसित कालोनी के निर्माण के साक्ष्‍य सिंधु धाटी सभ्‍यता में मिलते है जो कि ईसा से 3300 वर्ष पूर्व के है। सिधु सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो के भवन बड़े होते थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत और प्रत्‍येक घरों में दी गई सुविधाओं को देख कर कहा जा सकता है की उनकी व्‍यवस्‍थीत निवास व्‍यवस्‍था कितनी वैज्ञानिक थी। 


हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं। अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं आज की सिवरेज की तरह। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं। 


भारत में व्‍यवस्थित नगर विन्‍यास व्‍यवस्था योरोपियों के आने के बाद दिखती है, आधुनिक नगर सबसे पहले सूरत, गोवा, दमन, पाडिचेरी बसाया गया, बाद में अंग्रेजा द्वारा बंबई कलक्‍ता और चेन्‍नई जैसे नगर को बसाय गया। ये नगर ज्‍यादातर सरकारी या कंपनी ही होते थे जैसे छावनी, सीविल लाईन, रेल्‍वे कालोनी, प्रशासनिक कालोनी आदी। कुछ औद्धोगिक कालोनियों का भी विकास हुआ, पहला औधोगिक नगर जमशेदपुर था जिसकी नीव 1850 को पडी थी। इसके पहले जो नगर बसे वे धार्मिक या राजनीतिक केन्‍द्र के रूप में विकसित हुये। जिसे हम धर्मनगरी या राजधानी भी पुकारते है। ऐसा प्रतीत होता है की ये नगर व्‍यवस्थित नगर निर्माण योजना के अंतर्गत नही बसाये गये। इसलिए इनकी बस्तियां, नालियां सडके अव्‍यवस्थित रही है। लेकिन ग्रामों में जो मुहल्‍ले और पारें बनाये जाते थे वे शुध्‍द जाति आधारित थे जैसे ब्राम्‍हण पारा, तेली पारा, खटिक मुहल्‍ला आदि। ये मुहल्‍ले भी अव्‍यवस्थित ही थे जो किसी परिवार या पारिवारिक समुह जाति समुह के आधार पर बस जाते थे और जनसंख्‍या वृध्दि के आधार पर मकान बढते जाते जिससे गलियां सकरी होती जाती। 


कालोनी में रहने के कारण


1. जगह की कमी


आज जगह की कमी कालोनी में रहने का सबसे प्रमुख कारण है, लोग मुहल्‍लों और गांवों की असुविधाओं से परिचित है, इसलिए वे निवास हेतु ज्‍यादा सुविधा पाने के लिए कालोनी में रहना पसंद करते है।


2. अत्‍याधुनिक सुविधायें


आज कल कई अत्याधुनिक कालोनियां विकसित की गई जिसमें वाई फाइ्र, इन्‍टर कॉम, सिक्‍योरिटी, क्‍लब, गार्डन, स्‍वीमिंगपूल, बार, मनोरंजन भवन एवं हैलीपेड आदि की सुविधायें उपलब्‍ध की जाती है। 


3. शांत वातावरण


कई बार लोग गली मुहल्‍ले के कानफोडू शोर से तंग आकर कालोनी में निवास करना पसंद करते है। कालोनी की की एक खास विशेषता ये भी होती है की यहां का वातावरण शांत होता। कोई गाली गलोज नही कोई झगडा झंझट नही। ना लाउडस्‍पीकर न ही गाडियों का शोर। सब अपने में मस्‍त होते है।


4. अच्‍छे कल्‍चर में रहने की अकांक्षा


ज्‍यादा तर ये देखा जाता है कि लोग शहर के बीच तंग मुहल्‍ले में रहने के बजाय दूरस्‍थ स्थित कालोनी में रहना पसंद करते है भले ही इन कालोनी के मकानों का मूल्‍य अधिक हो। इसका सबसे बडा कारण है एक समान हैसियत वाले लोगों का एक जगह निवास करना। जिससे एक अच्‍छा कल्‍चर डेवलप होता है। हर परिवार ये चाहता है किसी अच्‍छे मौहोल में गुजर बसर करे।


कालोनियों में सांस्‍कृतिक हमले






आप जब भी किसी नये कालोनी की प्रचार सामग्री पर गौर करे तो पायेगे। आज कल की कालोनी का प्रमुख आकर्षण गार्डन और मंदिर होता है। प्रश्‍न यह है की क्‍या भारत में सिर्फ एक धर्म के ही लोग कालोनी पर निवास करते है? ज्‍यादातर सरकारी हाउसिंग बोर्ड कालोनियों में आप मंदिर ही पायेगे। प्राईवेट कालोनी के विज्ञापन तो मंदिर को सामने रखकर ही दिये जाते है। जबकी सच्‍चाई ये है की कालोनी में सभी धर्म समुदाय के लोग निवास करते है, लेकिन कहीं भी सर्वधर्म प्रार्थना भवन नही मिलेगा। ये भारत में सामुदायिक सौहार्द के लिए खतरनाक है। खतरा इसका भी है कि कहीं ये कालोनियां जाति या धर्म केन्द्रित मुहल्‍ले का रूप न ले ले। निजी और सरकारी हाऊसिंग समितियों से ये अपेक्षा है की वे सभी धर्मो और समुदाय के हित को ध्‍यान में रखकर कालोनी का निर्माण करे ताकि सामुदायिक हित की रक्षा हो सके। ज्‍यादातर ये होता है की अल्‍पसंख्‍यक अपने आपको ऐसी कालोनी में असुरक्षित महसूस करते है और भाईचारा कायम नही हो पाता।

अंधविश्‍वास के खिलाफ जंग

अंधविश्‍वास के खिलाफ जंग
संजीव खुदशाह
देश के जाने माने वैज्ञानिक डॉ नरेन्‍द्र नायक के द्वारा विगत दिनों रायपुर में प्रस्‍तुत अंधविश्‍वास और चमत्‍कार पर दिया गया उनका आडियों विडियों व्‍याख्‍यान बेहद सराहनीय रहा। सराहनीय इसलिए भी रहा क्‍योकि जहां आज के दौर में पढे लिखे डाक्‍टर इंजिनीयर अंधविश्‍वास को मान रहेउसका आस्‍था के नाम पर बचाव भी कर रहेऐसे माहौल में अंधविश्‍वास के विरूध्‍द अलख जगाए रखना वास्‍तव में एक साहस का काम है।
दरअसल डॉ नरेन्‍द्र नायक अंधविश्‍वास शब्‍द को सही नही मानते है। वे कहते है कि अंधविश्‍वास शब्‍द वास्‍तव में अंधे लोगों का अपमान है। जो हमें नही करनी चाहिए क्‍योकि जिसे हम अंध विश्‍वास कहते है वह आँखों देखा गलत विश्‍वास है। वे अंधविश्‍वास के स्‍थान पर गलत विश्‍वास शब्‍द का प्रयोग करना ज्‍यादा ठीक समझते है।
वे कहते हे संसार में कोई भी चीज चमत्‍कार नही है। हर चमत्‍कार के पीछे ठोस वैज्ञानिक कारण है। हमारी अज्ञानता ही चमत्‍कार है, जब इन  चमत्‍कारों का कारण एक साधारण व्‍यक्ति जान जाता है तो वह विज्ञान कहलाता है और जब ये कारण किसी ठग की जानकारी में आता है तो वह अंधविश्‍वास बन जाता है।
दरअसल भारत में बहुत बडा वर्ग अंधविश्‍वास का पोषण करना चाहता है। इसके पीछे उनकी राजनीतिकधार्मिकआर्थिक हित छिपे है। अंधविश्‍वास को फलने फूलने के लिए धर्म सबसे आसान खाद युक्‍त ज़मीन होती है। अगर ऐसा नही होता तो धर्म के प्रसार के नाम पर नर संहार नही हुये होते।
दरअसल आज आस्‍था और अंधविश्‍वास की महीन किन्‍तु स्‍पष्‍ट लकीर को मिटा दिया गया है। आज जब मंगल यान छोड़े जाने के दौरान इसरो प्रमुख द्वारा तिरूपती जाकर मंगल शांति की पूजा की जाती है तो पूरा संसार हमारी ओर कौतूहल की निगाह से देखता है। यह यकीन करना मुश्किल है की किस प्रकार देश के तथाकथित क्रीम वर्ग (बुद्धजीवि वर्गका अंधविश्‍वास के गर्त में डूब जाना, सिर्फ डूब ना नही बल्कि उस अंध विश्‍वास को अपनाने में गर्व भी करना सबसे बडा हास्‍यास्‍पद है।
वे कहते है आज देश में तीक्ष्‍ण बुध्‍दी के केन्‍द्र माने जाने वाले सारे संस्‍थान अंधविश्‍वास के केन्‍द्र बन चुके है। परिक्षाओं में पास होने के लिए मंदिर मस्जिद मजारों गुरूद्वारों में यहां के छात्र चढावा चढाने में आगे होते है। ये सारे संस्‍थान अंधविश्‍वास की गीरफ्त में आ चुके है चाहे IIT कानपूर रूरकी या खरगपुर हो या IIM हो या ISSRO हो चाहे IMA हो। किसी भी संस्‍थानों के छात्रों प्रोफेसरों द्वारा इन अंधविश्‍वास के खिलाफ आवाज नही उठाये गये। आखिर क्‍योंइसका कारण है बचपनहमारे यहां बच्‍चों को प्रश्‍न करने नही दिया जाता । जब बच्‍चा पहली  बार प्रश्‍न उठाता है तो हम उसे जलील करते है। इतनी हद तक जलील करते है की उसकी भविष्‍य में प्रश्‍न  पूछने की संभावनाएं खत्‍म हो जाती है। यदि बच्‍चा धर्म पर प्रश्‍न करता है तो हम बौखला जाते है। तय है हम उपहार स्‍वरूप अपने बच्‍चो को अंधविशास ही देते है।  जब वही व्‍यक्ति वैज्ञानिक बनता है तब भी अंधविश्‍वास की जकड से निकल नही पाता।
अंधविश्‍वास पर ठग करने वाले हमेशा इन्‍ही अंधविश्‍वासी क्रीम लोगों का हवाला  देकर  आम पढे  लिखे  लोगों की जबान बंद कर देते है। अंधविश्‍वास के झण्‍डाबरदार के आतंक का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की पिछले वर्ष अंधविश्‍वास निवारण के अग्रणी कार्यकर्ता श्री नरेन्‍द्र दाभोलकर की हत्‍या उनके द्वारा कर दी जाती है। वह भी सिर्फ इस लिए क्‍योकि वे आम लोगों को अंधविश्‍वास से मुक्ति का मार्ग दिखा रहे थे।
वे बताते है कि किस प्रकार हिमालय की चमत्‍कारी जडीबुटियों के नाम पर टीवी विज्ञापन के द्वारा जनता में अधंविश्‍वास फैला कर उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई को लूटा जाता है। लेकिन धर्म के नाम पर मठाधीश समर्थन में तो सरकार मौन खडी नजर आती है। उसी प्रकार जर्मनी के टेक्‍नोलाजी का प्रयोग करके पेंडेन्‍ट बनाया जाता जिसे चमत्‍कारी अल्‍लाह ताबीज या हनुमान चालीसा यंत्र लाकेट के नाम पर बेचा जाता है।  आज अंधविश्‍वास और विज्ञान की लडाई चरम पर है और जीत अंत में विज्ञान की ही होगी। 
ज्‍योतिषवास्‍तु आदि के साथ विज्ञान शब्‍द जोड देने से ये सब विज्ञान सम्‍मत नही हो जाता है। ठग आम जनता को ठगने के सारे हथकण्‍डे अपनाते है। वो  कभी धर्म का आड लेता है तो कभी विज्ञान की गलत व्‍याख्‍या का। धर्म की कट्टरता को बढावा देकर अपने अंधविश्‍वास को वैज्ञानिकता का जामा पहनाना  कोई नई बात नही है। और रोडे अटकाने वालों का नर संहार वे ही धर्म करते है जो अपने आपको असहिसुष्‍णता का दावा करते नही थकते। ईसाई धर्म में गैलिलियों, कापरसनिकस, ब्रुनी जैसे वैज्ञानिक की हत्‍या सिर्फ इसलिए की गई क्‍योकि उनके निष्‍कर्ष धर्म के विपरीत थे। 11वी से 14वी शताब्‍दी के बीच ईसाई धर्म के प्रचार हेतु विरोधियों की हत्‍या करना किसी से छिपा नही है। मुस्लिम कट्टर वादियों के द्वारा किये जाने वाले नर संहार इसी  धार्मिक विश्‍वास भेद खुल जाने  के डर से किया जा रहा है। इसी प्रकार का विश्‍वास आज भारत में भी कट्टर हिन्‍दूओं द्वारा किया जा रहा है वो भी बडी ही जोर शोर से। वे ईसाई कट्टर वादियोंमुस्लिम आतंकियों के नक्‍शे कदम में चलकर इन्‍ही अल्‍पसंख्‍यकों के प्रति जहर उगलते है। चर्चो और मस्जिदों में हमलें इसी के परिणाम है। इसके उदाहरण आप सोशल मीडिया जैसे वाटस ऐपफेसबुक में आसानी से देख सकते है। ऐसे संदेशों को फारवर्ड या लाईक करने वाले मासूम लोग इन कट्टर वादियों के आसान शिकार और हथियार बन जाते है। क्‍योकि इन्‍हे पिक्‍चर का केवल एक ही पहलू दिखाया जाता है। यहां जिम्‍मेदारी उन लोगों की ज्‍यादा बनती है जो इन कट्टर वादियों के षडयंत्र को जानते है। उन्‍हे चाहिए की इसका अपोज करेसोशल मीडिया द्वारा लोगों को पिक्‍चर के दूसरे पहलू से अवगत कराये। तभी अंधविश्‍वास के खिलाफ लड़ाई को आगे बढाया जा सकता है।
जिस देश का शिक्षित वर्ग अंधविश्‍वास के गर्त में जा रहा हो उस देश के द्वारा विश्‍वगुरू बनने का दावा करना क्‍या अपने मूह मिया मिट्ठू बनने जैसा नही है? क्‍या भारत कभी इस गर्त से बारह निकल पायेगा?

सकारात्‍मक पहलू यह है कि अंधविश्‍वास निवारण पर केन्द्रित इस कार्यक्रम में बडे हाल का खचा खच भरा होना वो भी वर्कींग डे परइस बात का प्रमाण है की भारत का आम आदमी इन अंधविश्‍वास से मुक्ति चाहता है। अंधविश्‍वास को करीब से समझना चाहता है ताकी उसका खात्‍मा किया जा सके। खास तौर पर धन्‍यवाद के पात्र वे है जिन्‍होने जाने अंजाने अंधविश्‍वास को मिटाने की पहल की या पहल करने की आकांक्षा रखते है।

नागपुर के दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन सामजिक विकास केंद्र नागपुर द्वारा आयोजित किया गया ।


नागपुर के दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन सामजिक विकास केंद्र नागपुर द्वारा आयोजित किया गया । कार्यक्रम के मुख्य संयोजक श्री उमेश पिम्परे जी ने बहुत ही शानदार तरीके से कार्यक्रम को सम्पन्न कराया। कार्यक्रम में श्री संजीव खुदशाह, राकेश जी, डॉ कुलदीप वअन्य बुद्धिजीवीयों के नेतृत्व. में डोम डुमार, मलिक, बसोर, बांसफोर, बेन, बरार, राउत, धानुक, धारिकार, धनक,धेनुक,धनुष्य,कठेरिया,नगारची,नायक,हाडी,हेला,मखियार,तुरैहा,बजनिया,रूरवीह,धरकार, वाल्मीकि, सुदर्शन और भी बहुत सी जातियों के बीच रोटी बेटी  का सम्बन्ध बनाने व एक हो जाने के विचार को प्रमुखता से उठाया व समर्थन किया तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपने एकीकरण व एक नए नामकरण करने का निर्णय लिया जो जातियों को तोड़नेँ व ब्राम्हणवाद के खिलाफ एक बहुत अच्छा प्रयास है।

 सबसे अच्छी बात है की इस समुदाय का जो बाल्मिकी और सुदर्शन के नाम पर ब्राह्मणीकरण किया गया उसका विरोध अब शुरू हो गया है इन समुदायों का बाल्मिकी और सुर्दशन से कोई लेना देना नहीं है !!! इस समुदाय पर अब तक ये आरोप लगाया गया की ये समाज भाजपाई है व ब्राह्मण वादी व्यवस्था के समर्थक है जबकि हकीकत

यह है कि तथाकथित आम्बेडकर वादियों और समाजवादी नेताओं ने इनके बीच न कभी काम करने का प्रयास किया ना इनके बीच किसी भी प्रकार का सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया और ना ही इनके बीच जाने की जरूरत को समझा !! खासकर बहुजन समाज पार्टी ने इनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा की एक ब्राह्मण एक दलित के साथ करता है। साथ ही साथ राजनीतिक छुआछुत भी किया । इनको एक असम्माजनक पेशे से जोड़कर देखा जाना आपत्तिजनक है !! आज ये खुूद आत्मचेतना से डाँ भीम राव आम्बेडकर के रास्ते पर चलने के लिए तैयार है , बिना किसी बैसाखी के बिना किसी फ़र्ज़ी अम्बेडकरवादियों के!!!
डॉं कुलदीप सिंग नई दिल्‍ली

सफाई कामगार समुदाय का संशोधित पेपर बैक संस्‍करण प्रकाशित


राधाकृष्‍ण प्रकाशन द्वारा उत्‍कृष्‍ट साहित्‍य के जनसुलभ संस्‍करण के अंतर्गत चर्चित पुस्‍तक ''सफाई कामगार समुदाय'' का पुन: प्रकाशन हुआ है। साथ में लायब्रेरी संस्‍करण भी प्रकाशित किया गया है। लेखक संजीव खुदशाह जनसुलभ संस्‍करण में अपने विचार रखते है कि

पुस्तक प्रकाशन के 10 वर्ष हो गए। व्यापक स्तर पर इस पुस्तक को सराहा गया । कुछ लोंगों एवं संस्थाओं ने पुस्तक की प्रतियां खरीदकर वितरित भी की। हिन्दीतर पाठकों ने भी इस पुस्तक में दिलचस्पी‍ दिखाई । फलस्वसरूप मराठी, ओडिया और पंजाबी सहित अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। ये सब मेरे लिए किसी बडे पुरस्कार से भी ज्यादा है। मै उन सभी बुध्दिजीवियों, पाठकों, समाजसेवियों एवं संस्था ओं का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। पाठकों द्वारा पुस्तक कम मूल्य में उपलब्‍ध कराऐ जाने की मांग आती रही है। इसलिए जनसुलभ संस्करण प्रकाशित होने पर मुझे भी बडी खुशी है।
प्रस्तुक संस्करण में हल्के फुल्के संशोधन किये गये है, कुछेक नई जानकारी भी इस किताब में शामिल कर रहा हूँ।
संपर्क राधाकृष्‍ण प्रकाशन नई दिल्ली +91 11 2327 8144

एक शाम शिक्षा एवं शांति के नाम

एक शाम शिक्षा एवं शांति के नाम सावित्री बाई फूले की जयंती के उपलक्ष में शाम 4 बजे से 8 बजे तक दिनांक 3 जनवारी 2015 स्थान वृन्दावन हाल, कबीर चौक, सिविल लाईन रायपुर
(फूले दंपत्ती ने सर्वप्रथम भारत के ज्ञात इतिहास में शूद्रों(obc) और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोले)Priyanka Sandilya's photo.

(VIKALP) विकल्प: छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष

(VIKALP) विकल्प: छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे:
इस दिसम्बर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । लगातार तीसरी बार जीतने का शानदार रिकार्ड बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने देश में अपना नाम व मान बढ़ाया है । प्रदेश गठन के पश्चात हुए पहले स्वतंत्र चुनाव में डॉ. रमन सिंह ने पहली बार 2003 में बहुमत प्राप्त किया था । तब लगभग अजेय समझे जाने वाले कांग्रेस के अजीत जोगी को मात देकर डॉ. रमन सिंह ने पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का पद संभाला ,तब से लगातार उन्होंने अपनी सौम्य व संयत छवि से प्रदेश के मतदाताओं को अपने मोह से बांधे रखा है। 2008 एवं पिछले वर्ष 2013 दोनों ही चुनावों में तमाम अटकलों को विराम देते हुए उन्हों जीत का परचम लहराया । इस वर्ष उनकी हैट्रिक को 1 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस पर सुहागा ये कि केन्द में भी भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई है, तो अब जीत की हैट्रिक का जश्न तो बनता है । इसी खुशी को सार्वजनिक रूप से मनाने के बहाने आने वाले निकाय चुनावों में पकड़ बनाने के उद्देश्य से भाजपा के प्रदेश नेतृत्व ने जश्न को वृहत्तर स्तर पर आयोजित किया है । इस कड़ी में दो महत्वपूर्ण आयोजन किए जा रहे हैं । एक राजनैतिक व सांगठिक स्तर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैली एवं दूसरा बौद्धिक वर्ग को संतुष्ठ करने राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक आयोजन, रायपुर साहित्य महोत्सव, इसी कड़ी में पहली बार आयोजित किया जा रहा है । 12 दिसम्बर को अमित शाह की रैली एवं साहित्यिक महोत्सव का आयोजन इसी मायने में महत्वपूर्ण है कि प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है एवं तीसरी बार सत्ता में आने एक वर्ष भी पूर्ण हो रहे हैं । भाजपा की यह उपलब्धि कम नहीं है । ऐसा नहीं है कि भाजपा को यह उपलब्धि कोई थाली में परोसकर मिली हो । इन 11 वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई जिससे लगा कि अब भाजपा के दिन लद गए मगर पार्टी जीतने में कामयाब रही । पिछले कार्यकाल में गर्भाशय कांड से लेकर झीरम घाटी तक की वारदातों ने भाजपा की नींद उड़ा दी थी । मगर कांग्रेस अपेक्षित लाभ उठाने में नाकाम रही । इधर तीसरी बार सत्ता में आई भाजपा के लिये यह एक वर्ष भी काफी दुखदायी रहा है । हाल ही में नसबंदी कांड , फिर नक्सल हमले में जवानों की मौत और फिर नवजात शिशुओं की लगातार मौतों ने सरकार को परेशानियों के साथ साथ सवालों के कटघरे में भी खड़ा कर दिया है । विपक्षी दल कांग्रेस लगातार इन मुद्दों पर सरकार को घेर रहा है मगर आम जनता में किसी तरह न तो कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ न ही सामाजिक स्तर पर कोई ठोस विरोध के साथ सामने आया । कुल मिलाकर राजनैतिक विरोध की आड़ में संवेदनशील मद्दे दब कर रह गए। काँग्रेस ने तमाम तरीके अपनाए यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी राय सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किए , मगर आब तक तो कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया । विपक्षी दल कांग्रेस ने इन हादसों को लेकर साहित्य महोत्सव का भी विरोध किया । साहित्यकारों से महोत्सव में शामिल न होने की अपील की इसका आगे क्या असर होगा यह तो समय बताएगा मगर अब तक तो किसी साहित्यकार ने काँग्रेस की अपील को गंभीरता से लिया हो ऐसा लगता नहीं है । विपक्षी दल के नाते कांग्रेस का विरोध भी अपनी जगह ठीक है । यदि भाजपा विपक्ष में होती तो वह भी यही करती । बात साहित्यकारों की करें तो यह बात काफी दुखद भी है कि पूर्व में भी किसी घटना पर कभी भी साहित्यकारों की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती रही । विशेष रूप से छत्तीसगढ में गर्भाशय कांड, झीरम घाटी ,नसबंदी कांड , नवजात शिशुओं की मौत से लेकरअभी या पूर्व में भी नक्सली हमलों में मारे गए जवानों का मामला हो, इन किसी भी हादसों में अंचल के साहित्यिक बौद्धिक हलकों में कोई प्रतिक्रिया दिखलाई नहीं दी । इससे इन आत्मकेन्द्रितों की संवेदनशीलता का अंदाजा लगाया जा सकता है । ऐसे लोगों से अपील करने का क्या तुक? और इसका नतीजा भी कुछ कुछ देखने मिला जब अखबारों में कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कारों में उन्होंने खुलकर कांग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। वैसे यह ठीक भी है कि कांग्रेस के कहने से कोई क्यों चले ? लोग कहने लगे कि अशोक बाजपेयी ने तो दशकों पूर्व कांग्रेस के शासनकाल में भोपाल गैस त्रासदी के ठीक बाद हुए साहित्यिक महोत्सव में कहा था कि मुर्दो के साथ मर नहीं जाते । कल भी साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि महोत्सव है कोई मनोरंजन नहीं जिसका विरोध किया जाय , इतने वरिष्ठ और विद्वान साहित्यकार ने प्रतिक्रिया में कहा तो ठीक ही होगा । विभिन्न मसलों पर अक्सर बौद्धिक साहित्यिक वर्ग सर्द खामोशी ओढ़े रहता है । इक्का दुक्का साहित्यकारों को छोड़ सराकरी प्राश्रय प्राप्त साहित्यकार अक्सर चुप रहकर अपनी रोटियाँ सेकते रहते हैं । एक सतही और चलताऊ सा तर्क दे देते हैं कि हर घटना पर कोई झण्डा उठा लेना, धरना देना या सड़क पर आना तो जरूरी नहीं है ... मुद्दों से कन्नी काट जाने का यह अच्छा बहाना होता है । इस बीच नक्सलियों के हमले में एक बार फिर जवानों की मौत हुई । नक्सल मोर्चे पर सरकार लगातार नाकाम हो रही है । अब तो केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है तो ठीकरा केन्द्र पर मढ़ना भी संभव नहीं हो पा रहा है । केन्द्रिय गृहमंत्री आए और राजधानी से ही लौट गए । बस्तर मुख्यालय जगदलपुर तक जाने की ज़ेहनत नहीं उठाई । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही केन्द्र की उपेक्षा का शिकार रहा है चाहे केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की । इन सब मुद्दों पर हर तरह के विरोध विपक्षी दल करते रहे हैं । यह विपक्ष का कर्म भी है और धर्म भी। मगर हकीकत ये है कि भाजपा विगत 11 वर्षों से लगातार सत्ता में काबिज है और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को फिलहाल किसी भी तरह की कोई गंभीर चुनौती मिलती दिख नहीं रही है । तो सफलता का जश्न भी लाजमी है जो अमित शाह की रैली और रायपुर साहित्य महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । ®®®

फारवर्ड प्रेस में छापा और दुर्गा महिषासुर प्रसंग

क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा?
संजीव खुदशाह
विगत 9 अक्टूबर 2014 को दिल्ली स्थित फारवर्ड प्रेस के कार्यालय में छापा पङा । यह छापा किसी दलित बहुजन पत्रिका के कार्यालय में पङने वाला पहला छापा है। इसके पहले भी कुछ पत्रिकाओं में छापे पङे थे लेकिन ये पत्रिकाये दलित बहुजन विचारधारा से प्रेरित नही थी। मै आपको बताना चाहूगां की भारत में अब तक सैकङो दलित बहुजन या अंबेडकरवादी पत्रिकाएँ निकलती है जिनमें अब तक कभी छापे नही पङे। फारर्वड प्रेस एक ऐसी पत्रिका है जो बहुजनवादी दृष्टिकोण से बैकवर्ड को जगाने का बीड़ा उठाये हुये है। हलांक‍ि फारवर्ड प्रेस ने अपने आपको अंबेडकरवादी पत्रिका होने की कभी घोषणा नही की किंतु उनके विचार प्रकोष्ट के महापुरुषों में अंबेडकर का स्थान प्रमुख है।
विगत तीन सालों से इस पत्रिका के अक्टूबर माह का अंक दुर्गा-महिषासुर पर केन्द्रित आ रहा है। इस माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है कि महिषासुर और दुर्गा की लड़ाई आर्य और अनार्य की लड़ाई है। महिषासुर एक पशु पालक जाति का व्यक्ति और मूल निवासी है जिसे आर्य दुर्गा के माध्यम से छल के द्वारा हत्या करवा देते है। इसी प्रकार फारवर्ड प्रेस  देश भर में होने वाले महिषासुर शहादत दिवस कार्यक्रम को प्रमुखता से प्रकाशित कर रहा है। प्रेस की रपट से ज्ञात होता है कि जे एन यू दिल्ली सहित देश के कुछ नाम चीन विश्वविद्यालय में दशहरे के दिन महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है।
फारवर्ड प्रेस में छापे और गिरफ़्तारी से प्रश्न खड़ा होता है कि क्या फारवर्ड प्रेस अकेली वह पत्रिका है जो इस मुद्दे को उठा रही है। जबकि सच यह है कि यह मुद्दा नया नही हैमहात्मा ज्योतिबा फुले अपने साहित्य में  बलीराजाप्रहलाद और महिषासुर के मुद्दाे को पहले ही उठा चुके है। वे बलीराजा को भारत का मूल निवासी राजा करार देते है। इस लिहाज से कार्यवाही फूले के उपर होनी चाहिए या उनकी उन किताबों परजो इस तरह के संदेश देती है। लेकिन फारवर्ड प्रेस पर दमन की कार्यवाही के पीछे मंशा कुछ और थीऐसा प्रतीत होता है। सबसे पहला कारण है फारवर्ड प्रेस भारतीय मूल के किसी ईसाई संपादक के द्वारा संचालित किया जा रहा हैदूसरा कारण है दलित बहुजन आंदोलन को लेकर चलने वाली यह पत्रिका व्यवसाय‍िक तौर पर अपने पैर जमा चुकी है। 10,000 से अधिक संख्या में छपने वाली यह पत्रिका अंग्रेजी हिन्दी दोनो भाषा में प्रकाशित होती है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग नये अंक का बेसब्री से इंतजार करते है और यह पत्रिका हांथो हाथ बिक जाती है। ये दोनो कारण किसी भी सामंतवादी विचारधारा के व्यक्ति के लिए संकट बन सकते है। खासकर उनके लिए जो हिन्दू राष्ट्र के पैरो कार है। मुझे लगता है किसी ऐसे ही पूर्वाग्रही व्यक्ति के इशारों में ये कार्यवाही करवाई की गई। इस दौरान कुछ ऐसे मौक़ापरस्त लेखकों के लेख पढने को मिले जिसमें फारवर्ड प्रेस को दोषी ठहराते हुए दुर्गा को स्त्री विमर्श की ऊचाई पर बिठाया गया।
क्या डा अंबेडकर पौराणिक मिथको को बहुजन नायक बनाने के पक्ष में थे मै यहां पर यह जानकारी देना आवश्यक समझता हूँ की डाँ भीम राव अंबेडकर महात्मा फूले को अपना गुरू मानते थे। किंतु वे पौराणिक नायकों को बहुजन नायक बनाने पर जोर नही देते थे। वे मानते थे की इससे बहुजन भ्रमित हो जायेगे। इसलिए अंबेडकर वादियों के नायक बुद्धकबीरफुले एवं स्वयं अंबेडकर रहे है। ग़ौरतलब है की फारवर्ड प्रेस ने महिषासुर के मुद्दे को उठा कर खासतौर पर ओबीसी समुदाय के बीच अपना ध्यान खींचा है।
आज से 40 या 50 साल पहले दुर्गा पूजा उत्सव केवल बंगाल या उसके आसपास के क्षेत्रों में मनाया जाता था। अब यह पूरे देश में खासकर उत्तर भारत में बडे ही धूम धाम से मनाया जाता है। लेकिन विगत कुछ सालों से यह उत्सव हिन्दूत्व के प्रतीक के रूप में उभरता गया। किसी जाति (राक्षस या तथाकथित पशु पालक) विशेष की हत्या के प्रतीक के रूप में यह उत्सव पूरे विश्व में सिर्फ यहीं मनाया जाता है। ये भारत जैसे देश का एक दुखद पहलू है की जिसके पास जश्न के कोई और विकल्प नही रह गये है हम ऐसे मिथको पर जश्न मनाने को मजबूर है जो किसी की हत्या पर आधारित है। लानत है ऐसी संस्कृति पर। कल फूले ने ऐसा प्रश्न खड़ा किया था आज फारवर्ड प्रेस ने कियापरसों कोई और किसी मुद्दे पर प्रश्न खड़ा करेगा। आखिर कब तक और किस किस को गिरफ़्तार करेगी सरकार। अभी तो और भी मिथक नायकों के बारे में सवाल खड़े होने बाकी है जैसे रावणहिरण्याकश्यपसुग्रीव बालीएकलव्य,संबूकबलीराजा आदि आदि।
धार्मिक भावना भङकाये जाने का भ्रम-ज्यादातर ऐसे मुआमलो में यह आरोप लगाना आसान होता है कि ऐसे साहित्यों से धार्मिक भावनाएं आहत हुई। इसलिए जप्ती और गिरफ़्तारी क‍ि कार्यवाही की गई। मेरा कहना है यदि धार्मिक किताबों से किसी की भावनाएं यदि आहत होती हो तो किसकी गिरफ़्तारी होनी चाहिए ? यदि ऐसे किताबों का पठन पाठन हो तो किस पर कार्यवाही होनी चाहिए। तुलसी दास के रामायण में शूद्र गवांर ढोल पशु नारी ये है ताडन के अधिकारी में पूरे स्त्री एवं शूद्र वर्ग की भावनाएं आहत हुई और रोज हो रही है। मनु स्मृति में छोटी-छोटी ओबीसी जातियों को अवैध संतान बताया गया है। क्या इससे उनकी भावनाएं आहत नही होती? क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा? भारत की न्याय व्यवस्था पर यह प्रश्न हमेशा भारी पडेगा।
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Review of Kancha Ilaiah’s “Why I am not a Hindu”


By Ranbir Singh

Kancha Ilaiah is professor and head of the department of political science at Osmania University , Hyderabad . He is perhaps best known for writing Why I am not a Hindu in 2007. Anyone approaching this work with the prior knowledge of Bertrand Russell (Why I am not a Christian) and Ibn Warraq (Why I am not a Muslim) would certainly have their expectations dashed. In a truly appalling collection of half-truths, lack of methodical research and racial myths, Ilaiah’s book has the dubious distinction of making Hitler’s Mein Kampf look like a literary masterpiece in comparison. Ilaiah shares much else with Hitler, notably his obsession with race and inventing racial categories where they do not even exist. To say in his defence that Ilaiah is inspired by the oppression of Dalits in India would be equivalent to justifying National Socialism and the Third Reich on the basis that the Versailles Treaty was after all rather unfair to Germany .

In page after page this appalling writer spews venom against anything Hindu. If one needs to find a prime example of a dysfunctional illiterate elite who replaced white colonial masters in a Third World kleptocracy, Kancha Ilaiah would certainly be hard to beat. For him Hinduism is basically spiritual fascism. Yet Ilaiah is hardly averse in being ideologically associated with the “f” word himself. His attack on the “Baniya economy” bares unhealthy semblance to the Nazi obsession with Jewish banking houses such as Rothschild holding the German volk to ransom. In discussing Hindu deities Ilaiah echoes the music of Richard Wagner in his addiction to the idea of an Aryan race, even if it as the comic book strip bad guys in his rewriting of Indian history to fit into a racist mould. All Hindu gods have suppression of Dalits as their purpose. Brahma is a light-brown Aryan, Vishnu is blue because apparently this was the colour of the mixed race Kshatriyas, while Shiva is dark because he resembles a “tribal” in order to delude the indigenous pre-Aryan inhabitants of India . The Ramayana is some primeval race war in which the Aryans suppressed the Dravidian south. In a twist to classic anti-Semitic motifs Brahmins control all India ’s political parties, including the Communists. Replace “Brahmin” with “Jew” and Ilaiah could be rendering a speech written by Sir Oswald Mosley in the 1930s. Most incredibly, yet like so many of his remarks which lack any solid basis, cremation was a Brahminist plot to hide the mass genocide of India’s indigenous Shudras.

The contrast between Hinduism on the one hand and Christianity, Islam and Buddhism on the other is explained by the former having “an inborn spiritual fascist” character while the other three possess “basic character of spiritual democracy”. By this stage we should be alleviated of any doubts that Ilaiah has not rewritten world history in manner befitting Himmler’s SS research institute known as Das Ahnenerbe which traversed the corners of the earth to find the origins of the Aryan race. In the end the Nazi ‘scholars’ came back with recordings of Finnish folk music and plaster casts of Tibetan faces which serious academia even then laughed off.

In summary Why I am Not a Hindu is a wasted opportunity at dissecting the world’s oldest surviving culture. In a free society we should not take offence at our beliefs being criticised. That is the hallmark of a healthy vibrant democracy. Censorship and banning is the character of totalitarianism. Yet academic standards must not be allowed to drop in allowing hate ideologies to stifle the very liberal ideas which allow for democracy in the first place.


Read the rest and full article at the original source:http://www.hinduhumanrights.info/review-of-kancha-ilaiahs-why-i-am-not-a-hindu/


जाति प्रमाण के लिये 1950 के कागज ज़रुरी नहीं


छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाणपत्र के लिये अब 1950 के दस्तावेजों की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है. राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की बैठक में यह फैसला किया गया. बैठक में फैसला लिया गया कि अब अगर किसी आवेदक के पास वर्ष 1950 के पहले का राजस्व अथवा अन्य अभिलेख नहीं है तो, ग्राम सभा के अनुमोदन और प्रस्ताव के आधार पर आवेदक को जाति प्रमाण पत्र जारी किया जा सकता है. इस संबंध में उससे यह शपथ पत्र लिया जा सकता है कि यदि वह गलत पाया जाएगा तो सारी जिम्मेदारी जाति प्रमाण पत्र प्राप्तकर्ता की होगी.


प्रमाणपत्र के निर्देश के लिए यहां क्लिक करे

छत्तीसगढ राज्य के लिए

1. यदि आपके पास 1950 के दस्तावेज नही है तो जाति प्रमाण पत्र के लिए निर्देश
2. सक्षम अधिकारियों के संबंध में निर्देश

मध्यप्रदेश राज्य के लिए
1. जाति प्रमाण पत्र के लिए निर्देश
2. जाति प्रमाण पत्र के लिए नियम