कश्मीरी पंडित पर तो फिल्म बनालिया  आपने (कविता)
संजीव खुदशाह 
उन क्षत्रियों पर फिल्म कब बनाओगे जिनकी पूरी कौम को वंश विहीन कर दिया था आपके पूर्वज ने। 
उनकी विधवाओं से बलात्कार कर नई पीढ़ी पैदा की गयी।



उन कायस्थों पर फिल्म कब बनाओगे?
जिन्हें तुमने मनुस्मृति में ब्राह्मणों की अवैध संतान बताया था।
(ब्राह्मण पिता वैश्य माता की संतान कायस्थ(अंबष्ट) होगी मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 8)

उन वैश्यो पर फिल्म कब बनाओगे ?
जिनका प्रतिनिधित्व कब्जा कर बेदखल कर दिया गया।

उन 52% ओबीसी पर फिल्म कब बनाओगे? जिनके 27% आरक्षण पर तुमने न्यायालय से रोक लगवाई है।


उन तेली और कुम्हारों पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिन्हें पुराण में सुबह-सुबह मुंह देखना अशुभ होता है लिख दिया था तुमने। 
(वृहद्धर्म पुराण अध्याय 35 श्लोक 30)

उन लखीमपुर खीरी के किसानों पर फिल्म कब बनाओगे?
जिन्हें तुमने जीप से रौंद डाला था।

उन 20 लाख आदिवासियों पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिन्हें जल, जंगल, जमीन के लिए 
नक्सली कहकर कत्लेआम कर दिया गया।

उस मनीषा वाल्मीकि पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिनके साथ ठाकुर ने बलात्कार किया और प्रशासन ने जबरदस्ती टायर जलाकर 
उसका अंतिम संस्कार कर दिया।

जो 1990 में बहिष्कृत हुए उन पर तो फिल्म बन गई।
उन दलितों पर फिल्म कब बनाओगे जिन्हें धर्म ग्रंथों में सालो से बहिष्कृत कर रखा है तुमने ?

जो भाग गए उन पर तो फिल्म  बना ली आपने।
लेकिन जो डटे रहे आखरी सांस तक, 
उन हिंदुओं पर फिल्म कब बनाओगे?
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आधी आबादी नहीं हूं मैं

आधी आबादी नहीं हूं मैं
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च के लिए विशेष) 


मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं
कन्या भ्रूण हत्या करना और उसे कूड़े में फेंक देना याद है ना तुम्हें।
सती के नाम पर जला देना और देवी बनाकर उसकी पूजा करना याद है ना तुम्हें। 

मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं।
मेरे मुंह पर तेजाब फेंकना और बदचलन करार देना याद है ना तुम्हें।
ट्रेनों में बसों में धीरे से स्पर्श करना फिर बाह पकड़ना याद है ना तुम्हें। 

अभी अभी तो तुमने मुझे जलाया है 
होलिका के नाम पर, भूले ना होगे तुम।
होली के जश्न के मुबारकबाद मेरे कान में 
अभी तक गूंज रहे हैं।
उसके बाद महिला दिवस की बधाई देना 
कम से कम तुम्हें तो नहीं जंचता है। 

घरों में तुलसी की तस्वीर तुमने 
बड़ी शिद्दत से लगायी है।
जिन्होंने मुझे ताड़न के अधिकारी बताया है। 

न्याय के मंदिर में मनु की मूर्ति लगाकर 
बड़े गदगद होगे तुम।
जिन्होंने मुझे इंसान तक का दर्जा देने से इंकार किया है। 

जनसंख्या की रिपोर्ट तो देखी होगी तुमने 
लगातार मेरी आबादी घट रही है।
फिर तुम किस मुंह से मुझे आधी आबादी कहते हो। 

मैं परेशान हूं तुम्हारे डबल स्टैंडर्ड्स से
अच्छा होता कि तुम मुझे मुबारकबाद ही नहीं देते।
मुझे आदत हो गई है तुम्हारे बेनकाब चेहरे को देखने की।
मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं।
संजीव खुदशाह

Kidney can't recover through bricks

ईट के सहारे किडनी फैलियर का इलाज नहीं किया जा सकता | यह टोटकेबाजी है ।


डॉ क्रांती भूषण बनसोडे
डॉ विश्वरूप चौधरी कोई डॉक्टर नही है ।
उसका इतिहास यह है कि वह चूंकि एक अच्छा वक्ता है , तो वह शुरुवात में मोटिवेशनल स्पीकर का काम करता था । बाद में मेमोरी गुरु बन गया । बच्चों की याददाश्त बढ़ाने के नाम पर जबरदस्त ठगी किया । उसके बाद सिंगापुर से फर्जी डिग्री लेकर डाइटीशियन बन गया । लोगों की डाइबिटीज को जड़ से ठीक करने के नाम पर पैसे कमाया ।
अब होता यह है कि हमारे देश की जनता को चमत्कार पर अखंड विश्वास होता है , तथा विज्ञान या एलोपैथी से भयानक डर लगता है । तो इसलिये इस प्रकार के लोगों की दुकानदारी आराम से चलती रहती है । इसके अलावा एक बड़ी बात यह भी है कि चूंकि सत्ता धारी लोगों तथा अफसरों से इनकी सांठगांठ भी होती है , इसलिये इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही भी कोई कर नही सकता है । क्योकि इनकी पहुंच ऊपर तक होती है ।

अब यह किडनी की बीमारी का भी ईलाज बताकर लोगों को गुमराह कर रहा है । इसी की तरह एक और व्यक्ति हैं , जो पानी के टब में लोगों को बिठाकर उनकी डायलिसिस करके किडनी की बीमारी से उनको छुटकारा दिलवाने के दावा करते हैं । वह भी बकवास ही है ।


मेरी समझ से इन सबसे किडनी की समस्या से बिल्कुल भी निजात मिलना संभव नही है ।

सभी मानव के शरीर में दो किडनी होती है । किसी ना किसी वजह से किडनी अपना काम करना बंद कर देती है । जैसे कि डाइबिटीज तथा हाई ब्लड प्रेशर के कारण किडनी अपना काम करना धीरे धीरे इसलिये बन्द कर देती है क्योंकि उसके नेफ्रॉन्स में गड़बड़ी होना शुरू हो जाती है । पहले शुरुवात में किडनी के नेफ्रॉन्स के खराब होने से उसके आंतरिक फिल्टरेशन कम होने लगता है । जिससे हमारे शरीर के खराब तत्व यानी यूरिया एवम क्रिएटिनिन का पेशाब के जरिये निकलना जो  जरूरी होता है , वह कम हो जाता है ।  इस समय दवाओं से ही किडनी का उपचार किया जाता है । कोई भी बीमारी की तरह किडनी की बीमारी और उसकी गड़बड़ी धीरे धीरे शुरू होती है । धीरे धीरे किडनी काम करना बंद कर देती है । जिसे चिकित्सीय भाषा में *"End Stage Renal Disease"* कहते हैं । तब हमें चिकित्सक डायलिसिस की सलाह देते हैं । 

डायलिसिस से यूरिया तथा क्रिएटिनिन को रक्त से छानकर निकाला जाता है । यह एक टेम्पररी काम है । इसलिये सप्ताह में दो बार या कई बार तीन बार भी डायलिसिस करना जरूरी होता है । किसी भी अस्पताल में जाकर मशीन के द्वारा डायलिसिस करने को हीमोडायलिसिस कहा जाता है । इसमें मशीन के द्वारा पूरे शरीर के रक्त को मशीन में लगे फिल्टर से गुजारकर उसमें खराब तत्व तथा अधिक पानी जो शरीर के लिये जरूरी नही होता उसे निकाल दिया जाता है ।
 इसके अलावा पेरिटोनियल डायलिसिस भी एक तरीका है । जिसमें मरीज खुद घर पर ही खुद ही डायलिसिस कर लेता है । इस विधि से पेट में डाइलाइजर को एक तरफ से डालकर दूसरी तरफ से निकला जाता है । इससे भी शरीर के खराब तत्व तथा अधिक पानी निकल जाता है ।

लेकिन यह सब तक तक सही है , जब तक किडनी ट्रांसप्लांट ना किया जा सके । लंबी उम्र तक जीने के लिये किडनी ट्रांसप्लांट ही एक मात्र उपाय होता है ।

 बिस्तर के नीचे ईंट रखकर सिर को नीचे की तरफ झुकाकर तथा पैरों को ऊपर उठा देने से ग्रेविटी के कारण  या  गर्म पानी के टब में बैठाकर कोई डायलिसिस नही होती है । 
यह सब टोटकेबाजी है ।

क्योकि ,
जब तक रक्त से यूरिया और क्रियेटीनीन को नही निकाला जायेगा , तो शरीर के अन्य आंतरिक अंग जैसे लिवर , स्प्लिन , ब्रेन तथा समस्त मांस पेशियों इत्यादि  में खराबी आने लगती है । तथा व्यक्ति की मृत्यु जल्द हो जाती है ।

फिर भी यदि किसी ऐसे मरीज को जिसका गुर्दा काम ना करता हो , और वह डायलिसिस पर ही निर्भर हो वैसा व्यक्ति जिसे इस विधि के द्वारा उसका  ब्लड यूरिया तथा सीरम क्रिएटिनिन नियंत्रण में है , उसकी जब तक पूरी छानबीन ना कर ली जाये , तब तक उसे सही नही माना जा सकता है ।

कई बार फर्जी मरीज बनाकर भी ये तिकडमी लोग सामान्य जनता को बेवकूफ बनाने के लिये ऐसा कार्यक्रम करते हैं । चार छह माह तक इनका कार्यक्रम करके पैसा बनाकर लोगों को ठग कर भाग जाते हैं ।

यदि आपके पास किसी मरीज की जानकारी हो तो उसकी विस्तारित छानबीन करने से हकीकत मालूम हो जायेगी ।

शायद मेरी जानकारी से आपकी शंका का कुछ समाधान हुवा होगा । कृपया बताईये ।
🙏

The arrest of Mr. Nandkumar Baghel periyar of Chhattisgarh's is unconstitutional.

छत्‍तीसगढ के पेरियार श्री नंदकुमार बघेल की गिरफ्तारी असंवैधानिक


छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति
(छत्तीसगढ़ के सामाजिक, जनवादी, प्रगतिशील और जन संगठनों का संयुक्त मंच)

छत्‍तीसगढ के पेरियार श्री नंदकुमार बघेल की गिरफ्तारी असंवैधानिक

7 सितम्बर 2021

छत्‍तीसगढ के पेरियार के नाम से विख्‍यात 84 वर्षिय श्री

नंदकुमार बघेल की आज गिरफ्तारी हो गई। गौरतलब है कि पिछले दिनों नंदकुमार बघेल ने यूपी में एक स्‍टेटमेंट दिया था जिसे ब्राम्‍हण विरोधी कहा जा रहा है। इसी मामले पर एक ब्राम्‍हण गुट के शिकायत पर उनकी गिरफ्तारी की गई। 

श्री नंदकुमार बघेल ने कहा था *‘’ब्राम्‍हण विदेशी है उन्‍हे गंगा से वोल्‍गा भेजा जाना चाहिए।‘’* यहां पर ब्राम्‍हण को विदेशी कहे जाने पर आपत्‍ती है। अगर ये आपत्‍ती सही है तो *सबसे पहले उन्‍हे जेल भेजा जाना चाहिए जिन ब्राम्‍हणों ने अपने आपको विदेशी होने की बात कही है। जैसे वोल्‍गा से गंगा में महापंडित राहुल सांस्‍कृतियांन, भारत एक खोज में पंडित जवाहर लाल नेहरू, लोकमान्य तिलक आदि आदि।*

ज्ञात हो कि नंद कुमार बघेल को एक वर्ग विशेष के खिलाफ तथाकथित टिप्पणी करने के आरोप में रायपुर पुलिस ने मंगलवार को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया। उन्हें 15 दिनों के लिए ज्यूडिशियल कस्टडी में जेल भेज दिया गया है। अब 21 सितंबर को मामले की अगली सुनवाई होगी।

भारत एक ऐसा देश है जब एक समुदाय विशेष जंतर मंतर दिल्‍ली में संविधान की प्रतियां जलाता है, मनुस्‍मृति को लागू करने के नारे लगाता है तब गिरफ्तारियां नही होती। संविधान के हक-अधिकार, आरक्षण, जाति जनगणना के खिलाफ बोलने या लिखने से गिरफ्तारियां नही होती। लेकिन एक 84 साला बुजुर्ग की गिरफ्तारियां होती है जिन्‍होने उनकी ही बात को दोहराया है।

नंद कुमार बघेल छत्तीसगढ़ में लंबे समय से बहुजन जागृति के संदर्भ में कार्य करते आ रहे है। यह समझने की जरूरत है कि असल परेशानी उन्‍हे इनके भाषण से नही है। शिकायतकर्ताओं की परेशानी है, एक ओबीसी मुख्‍यमंत्री जिन्‍होने ओबीसी आरक्षण हेतु ओबीसी गणना का आदेश दिया है। ताकि ओबीसी के आरक्षण का मार्ग प्रसस्‍त हो सके। उन्‍हे परेशानी है की देश के अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक को जगाने में नंद कुमार बघेल निर्णायक भूमिका में है। भेदभाव पूर्ण ब्राम्‍हणवादी व्यवस्था का वे विरोध करते है, लेकिन कई ब्राम्‍हण उनके शार्गिद है। चंद ब्राम्‍हणों को इसी से परेशानी है की ओबीसी सामाज आज जाग रहा है और जातीय गुलामी को तोड़ने की ओर अग्रसर है। वे आज अपने संवैधानिक हको को  मांग रहे है। इसी बहाने वे ओबीसी मुख्‍यमंत्री को ही निशाना बनाना चाहते है।

वे लोग जो भुपेश बघेल के मुख्‍यमंत्री बनने के पहले से नंदकुमार बघेल को जानते है, उन्‍हे मालूम है कि वे वंचित समुदाय अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक के लिए हमेंशा आवाज उठाते रहे है। उनकी पहचान एक लेखक, किसान नेता एवं ओबीसी-बहुजन नेता के रूप में पहले से है। ऐसी स्थिति में उनकी गिरफ्तारी एक षडयंत्र का हिस्‍सा है। जिसकी हम निंदा करते है। समस्‍त अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक समाज को करनी चाहिए।

विनीत :
डॉक्टर गोल्डी एम जॉर्ज
*छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति*

सहभागी संगठन :

दलित मुक्ति मोर्चा / दलित स्टडी सर्कल / दलित मूवमेंट असोसीएशन / जाति उन्मूलन आंदोलन - छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ पिछड़ा समाज / सामाजिक न्याय मंच छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ महिला अधिकार मंच / महिला मुक्ति मोर्चा, छत्तीसगढ़ / महिला जागृति संगठन / सबला दल / छत्तीसगढ़ बाल श्रमिक संगठन / राष्ट्रीय आदिवासी संगठन / बिरसा अम्बेडकर छात्र संगठन / संयुक्त ट्रेड यूनियन काऊन्सिल / खीस्तीय जन जागरण मंच / यंग मेन्स क्रिश्चयन ऐसोसिऐशन - रायपुर / छत्तीसगढ़ क्रिश्चयन फैलोशिप / मुस्लिम खिदमत संघ / यंग मुस्लिम सोशल वेलफेयर सोसायटी / छत्तीसगढ़ बैतुलमाल फाऊन्डेश / तथागत संदेश परिवार / इंसाफ छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन / छत्तीसगढ़ नागरिक विकास मंच / सिरसा / कसम - छत्तीसगढ़ / अखिल भारतीय समता सैनिक दल - रायपुर

Why Dr. Radhakrishnan's birthday as Teacher's Day?

डा. राधाकृष्णन का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में क्यों?

(कँवल भारती)


यह सवाल हैरान करने वाला है कि डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में क्यों मान्यता दी गई? उनकी किस विशेषता के आधार पर उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस घोषित किया गया? क्या सोचकर उस समय की कांग्रेस सरकार ने राधाकृष्णन का महिमा-मंडन एक शिक्षक के रूप में किया, जबकि वह कूप-मंडूक विचारों के घोर जातिवादी थे? भारत में शिक्षा के विकास में उनका कोई योगदान नहीं थाI अलबत्ता 1948 में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष जरूर बनाया गया था, जिसकी अधिकांश सिफारिशें दकियानूसी और देश को पीछे ले जाने वाली थींI नारी-शिक्षा के बारे में उनकी सिफारिश थी कि ‘स्त्री और पुरुष समान ही होते हैं, पर उनका कार्य-क्षेत्र भिन्न होता हैI अत: स्त्री शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि वह सुमाता और सुगृहिणी बन सकेंI’[1] इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस स्तर के शिक्षक रहे होंगे?

क्या ही दिलचस्प है कि हम जिस आरएसएस और भाजपा पर ब्राह्मणवाद को फैलाने का आरोप लगाते हैं, उसको स्थापित करने का सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाता हैI उसने वेद-उपनिषदों और भारत की वर्णव्यवस्था पर मुग्ध घोर हिन्दुत्ववादी राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में पूरे देश पर थोप दियाI वर्णव्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानने वाला व्यक्ति सार्वजनिक शिक्षा का हिमायती कैसे हो सकता है? भारत में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का श्रेय किसी भी हिन्दू शासक को नहीं जाता, अगर जाता है, तो सिर्फ अंग्रेजों को जाता हैI अगर उन्होंने शिक्षा को सार्वजनिक नहीं बनाया होता, तो क्या जोतिबा फुले को शिक्षा मिलती? उन्होंने अंग्रेजी राज में शिक्षित होकर ही शिक्षा के महत्व को समझा और भारत में बहुजन समाज और स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोलाI इस दृष्टि से यदि भारत में किसी महामानव के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में याद किया जाना चाहिए, तो वह महामानव बहुजन नायक जोतिबा फुले के सिवा कोई नहीं हो सकताI उनका स्थान सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन कैसे ले सकते हैं?

सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को भारत का महान दार्शनिक कहा जाता हैI पर सच यह है कि वह दार्शनिक नहीं, धर्म के व्याख्याता थेI लेकिन बड़े सुनियोजित तरीके से उन्हें आदि शंकराचार्य की दर्शन-परम्परा में अंतिम दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का काम किया गयाI जिस तरह आदि शंकराचार्य ने मनुस्मृति में प्रतिपादित काले कानूनों का समर्थन किया था, उसी तरह सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन भी मनु के जबर्दस्त समर्थक थेI देखिए, वह क्या कहते हैं, ‘मनुस्मृति मूल रूप में एक धर्मशास्त्र है, नैतिक नियमों का एक विधान हैI इसने रिवाजों एवं परम्पराओं को, ऐसे समय में जबकि उनका मूलोच्छेदन हो रहा था, गौरव प्रदान कियाI[2] परम्परागत सिद्धांत को शिथिल कर देने से रूढ़ि और प्रामाण्य का बल भी हल्का पड़ गयाI वह वैदिक यज्ञों को मान्यता देता है और वर्ण (जन्मपरक जाति) को ईश्वर का आदेश मानता हैI अत: एकाग्रमन होकर अध्ययन करना ही ब्राह्मण का तप है, क्षत्रिय के लिए तप है निर्बलों की रक्षा करना, व्यापार, वाणिज्य तथा कृषि वैश्य के लिए तप है और शूद्र के लिए अन्यों की सेवा करना ही तप हैI’[3] वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वाला एक धर्मप्रचारक तो हो सकता है, पर शिक्षक नहीं हो सकताI
इन्हीं सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ’ में वही डींगें मारी हैं, जो आरएसएस मारता है कि ‘हिन्दूसभ्यता कोई अर्वाचीन सभ्यता नहीं हैI उसके ऐतिहासिक साक्ष्य चार हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैंI वह उस समय से आज तक निरंतर गतिमान हैI’[4] बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपनी बहुचर्चित व्याख्यान-पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में इस गर्वोक्ति का जबरदस्त खंडन किया हैI वे कहते हैं, ‘प्रश्न यह नहीं है कि ‘कोई समुदाय बचा रहता है, या मर जाता है, बल्कि प्रश्न यह है कि वह किस स्थिति में बचा हुआ है? बचे रहने के कई स्तर हैं, लेकिन इनमें से सभी समान रूप से सम्मानपूर्ण नहीं हैंI व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी, सिर्फ जीवित रहने और सम्मानपूर्ण तरीके से जीवित रहने के बीच एक खाई हैI युद्ध में लड़ना और गौरवपूर्वक जीना एक तरीका हैI पीछे लौट जाना, आत्मसमर्पण करना और एक कैदी की तरह जीवित रहना—यह भी एक तरीका हैI हिन्दू के लिए इस तथ्य में आश्वासन खोजना बेकार है कि वह और उसके लोग बचे रहे हैंI उसे इस पर विचार करना चाहिए कि इस जीवन का स्तर क्या है? अगर लोग इस पर विचार करे, तो मुझे विश्वास है कि वह अपने बचे रहने पर गर्व करना छोड़ देगाI हिन्दू का जीवन लगातार पराजय का जीवन रहा है और उसे जो चीज सतत जीवन-युक्त लगती है, वह सतत जीवनदायी नहीं है, बल्कि वास्तव में ऐसा जीवन है, जो सतत विनाश-युक्त हैI यह बचे रहने का एक ऐसा तरीका है, जिस पर कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति, जो सत्य को स्वीकार करने से डरता नहीं, शर्मिंदगी महसूस करेगाI’[5]

यह हैरान करने वाली बात है कि डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान पर न केवल आरएसएस मुग्ध है, जो हिंदुत्व को एक जीवन-शैली बताते हुए उनके कथन को आधार बनाती है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी 11 दिसम्बर 1995 को आर.वाई. प्रभु बनाम पी.के. कुंडे मामले में यह फैसला देते हुए कि हिन्दूधर्म का मतलब एक जीवन शैली है, और वह एक सहिष्णु धर्म है, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में की गई व्याख्या को ही अपना आधार बनाया थाI जबकि इस मामले में दूसरा पक्ष, जोकि निश्चित रूप से डा. आंबेडकर हैं, उनको पढ़े वगैर हिन्दूधर्म पर कोई निर्णय न निष्पक्ष होगा, और न न्यायसंगतI डा. धर्मवीर[6] ने इस पर सटीक टिप्पणी की थी, ‘लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह लिखते समय इस बात पर विचार नहीं किया, कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने डा. एस. राधाकृष्णन को पुराने ढर्रे का ‘धर्म-प्रचारक’ कहा हैI’[7]

राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ की भूमिका में लिखा है कि ‘सर राधाकृष्णन जैसे पुराने ढर्रे के धर्म-प्रचारक का कहना है- ‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हो, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा हैI’[8] इसके जवाब में राहुल जी ने लिखा है, ‘भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है और धर्म की गुलामी से बदतर और क्या हो सकती है?’[9]
डा. राधाकृष्णन के बारे में यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह महान दार्शनिक थे, जबकि सच यह है कि यह केवल दुष्प्रचार हैI वह एक ऐसे ब्राह्मण लेखक थे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय दर्शन में, और ख़ास तौर से बौद्धदर्शन में वेद-वेदांत को घुसेड़ने का काम किया हैI राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में एक स्थान पर उन्हें ‘हिन्दू लेखक’ की संज्ञा दी हैI उन्होंने लिखा है, कि बुद्ध को ध्यान और प्रार्थना मार्गी तथा परम सत्ता को मानने वाला लिखने की गैर जिम्मवारी धृष्टता सर राधाकृष्णन[10] जैसे हिन्दू लेखक ही कर सकते हैंI[11] डा. आंबेडकर ने भी अपने निबन्ध ‘Krishna and his Gita’[12] में डा. राधाकृष्णन के इस मत का जोरदार खंडन किया है कि गीता बौद्धकाल से पहले की रचना हैI डा. आंबेडकर ने डा. राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखकों को सप्रमाण बताया है कि गीता बौद्धधर्म के ‘काउंटर रेवोलुशन’ में लिखी गई रचना हैI[13]

भारतीय दर्शन में डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान की लीपापोती का विचारोत्तेजक खंडन राहुल सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ में किया हैI वह लिखते हैं, ‘कितने ही लोग—हाँ, भारत के अंग्रेजी शिक्षितों में ही—यह समझने की बहुत भारी गलती करते हैं कि सर राधाकृष्णन जबर्दस्त दार्शनिक हैंI....इसके सबूत के लिए पढ़िए—‘मार पड़ने पर बुद्धि भक्ति (की गोद) में शरण ले सकती है’..राधाकृष्णन यथा नाम तथा गुण भक्तिमार्गी हैंI...शरण लेना कायरों का काम है, उसे जूझ मरना चाहिएI बुद्धि पर मार पड़ रही है, आगे बढ़ने के लिएI जो बुद्धि में अग्रसर है, उस पर मार पड़ती भी नहींI’[14]

राधाकृष्णन के इस कथन पर कि ‘भारत में मानव भगवान की उपज है, और भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सफलता का रहस्य उसका अनुदारात्मक उदारवाद है’, राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हिन्दुओं में से एक-तिहाई को अछूत बनाने में किस तरह सफलता पाई? किस तरह जातिभेद को ब्रह्मा के मुख से निकली व्यवस्था पर आधारित कर जातीय एकता को कभी बनने नहीं दिया?.....यह सब अनुदारात्मक उदारवाद से है और इसलिए कि भारत में मानव भगवान की उपज हैI...यह हम जानते हैं कि सर राधाकृष्णन जैसे भक्तों और दार्शनिकों ने शताब्दियों से भारत की ऐसी रेड़ मारी है, कि वह जिन्दा से मुर्दा ज्यादा हैI’[15]

इसी पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन एक जगह लिखते हैं, ‘सर राधाकृष्णन जैसे लोग भारत में शोषण के पोषण के लिए वही काम कर रहे हैं, जो कि इंग्लैंड में वहां के शासक प्रभु वर्ग के स्वार्थों की रक्षा में सर आर्थर एडिग्टन जैसे वैज्ञानिकों का रहा हैI’[16]
घोर जातिवादी और घोर हिंदूवादी अर्थात ब्राह्मणवादी डा. राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में याद करना किसी तरह से भी न्यायसंगत नहीं हैI

(4/9/2018)
[1] भारतीय शिक्षा का इतिहास, डा. सीताराम जायसवाल, 1981, प्रकाशन केंद्र, सीतापुर रोड, लखनऊ, पृष्ठ 259
[2] यह इशारा बौद्धकाल की ओर हैI इससे स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति बौद्धकाल के बाद की रचना हैI
[3] भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, राजपाल एंड संज, दिल्ली, पृष्ठ 422
[4] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस, खंड 1, 1989, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई, पृष्ठ 66
[5] जाति का विनाश, डा. बाबासाहेब आंबेडकर का प्रसिद्ध व्याख्यान, अनुवादक : राजकिशोर, 2018, फारवर्ड बुक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ 96
[6] डा. धर्मवीर, दलित भारतीयता बनाम न्यायपालिका में द्विज तत्व, 1996, पृष्ठ 6
[7] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1944, भूमिका, पृष्ठ (5), संस्करण 1998 की भूमिका में पृष्ठ (i) हैI किताब महल, इलाहाबादI
[8] डा. राधाकृष्णन, हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी, वाल्यूम I, पेज 2, (नन्दकिशोर गोभिल द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद ‘भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, पृष्ठ 18)
[9] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ (i)
[10] इंडियन फिलोसोफी, वाल्यूम I, फर्स्ट एडिशन, पेज 355
[11] दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ 408
[12] देखिए, डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, चैप्टर 13
[13] वही, पेज 369
[14] राहुल सांकृत्यायन, वैज्ञानिक भौतिकवाद, 1981, लोकभारती इलाहाबाद, पृष्ठ 64-65
[15] वही, पृष्ठ 80-81
[16] वही, पृष्ठ 85

Journalism University, the laboratory of Godse's thoughts

"गोडसे के विचारों की प्रयोगशाला पत्रकारिता विश्वविद्यालय"
Dr Dhanesh Joshi


शिक्षा और शिक्षक समाज के धुरी हैं, परन्तु शिक्षा केवल किसी खास विचार धारा से प्रभावित हो जाए तो शिक्षा और शिक्षक दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है? एक जमाना था, जब राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग राजनीती की बारीकियों को समझने के लिए शिक्षकों के पास जाकर मार्गदर्शन लिया करते थे. गोया कि वे शिक्षक किसी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे. जिसे हम अनेक लेखों एवं धर्मग्रंथों में देख सकते है. बात पत्रकारिता एवं पत्रकारिता शिक्षा की करें, तो चूंकि पत्रकारिता के पास ताकत है, इसलिए राजनीतिक दल भी चाहते हैं कि हर अखबार में, हर चैनल में उनकी विचारधारा वाले पत्रकार हों. किसी भी पत्रकार के लिए किसी ख़ास विचारधारा का अनुयायी होना कोई गलत बात नहीं होती. हाँ, गलत बात तब मानी जाती है, जब वह पत्रकार खबर लिखते हुए अपनी विचारधारा का प्रयोग करता है. शिक्षक भी एक इंसान है. किसी राजनीतिक पार्टी की तरफ उसका झुकाव हो सकता है. आखिर वह भी मतदान करता है. किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देकर आता है. किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना रुझान रखना अलग बात है, और किसी राजनीतिक पार्टी के लिए समर्पित हो जाना और बात है. शिक्षक किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपने रुझान के आधार पर काम करता हुआ दिखे, यह राष्ट्र निर्माण के लिए खतरनाक संकेत है.

ऐसे में शिक्षक अपने रुझान वाली पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता. देखने में आया कि अगर किसी संदर्भ में उनकी पसंद की पार्टी की या उसके किसी नेता की किसी मसले पर आलोचना हो रही हो तो वह तुरंत अपनी टिप्पणी/ लेख से उस तथ्य को नकारने की कोशिश करता है. उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसके रुझान वाली पार्टी के प्रति किसी तरह का आक्षेप न लगे. कई बार वह विद्यार्थियों के सामने ऐसे तर्क ढूंढता है कि अमुक घटना तो दूसरी पार्टियों के समय भी हुई थी. इसका फर्क यह होता है कि अगर किसी पार्टी पर कोई आक्षेप लगता है तो वह शिक्षक ढाल बनकर आने की कोशिश करता है. इन स्थितियों में घटनाओं को मोड़ने, उसके तथ्यों को हल्का करने की कोशिश होती है. किसी विषय पर अपनी राय बनाना, उसके संदर्भ में वाद-विवाद होना, टिप्पणियों के साथ अपने मत को रखना और बात है. लेकिन ढाल की तरह खड़े हो जाना और बात है. इसका नुकसान यह है कि मूल इतिहास को वह गलत तरीके से विद्यार्थियों के समक्ष रखता है और छात्र सही तथ्यों से भटक जाते हैं. इन परिस्थितियों में वह शिक्षक ऐसे तर्क ढूंढता है जिससे विपरीत विचारधारा पर खड़ी पार्टी को दिक्कत हो. इसमें घटनाओ की तह में जाने के बजाय ऐसे तर्क तलाशे जाते हैं, जिससे विपरीत रुझान वाली पार्टी के लिए मुश्किल पैदा हो. तर्क ढूंढना गलत नहीं, लेकिन कई बार बहुत हल्के तर्कों का सहारा लिया जाता है. संघ और बीजेपी की पक्ष-विपक्ष टकराहट वाली घटनाओं को कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर के संदर्भ में देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ के संघ परस्त शिक्षकगण, विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों के माध्यम से संघ एवं बीजेपी के समर्थन में विद्यार्थिओं को  जोड़ते रहें है. 
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटित घटना और पठानकोट की आतंकवादी घटना हर दृष्टि से मानव समाज के खिलाफ हैं. इस घटना को लेकर देश और दुनिया में आलोचना हुई और होना भी चाहिए परन्तु क्या इस घटना के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जबकि वह सत्ता में भी नहीं थी. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संघ समर्थित शिक्षकों के द्वारा आतंकवादी घटना के आड़ में कांग्रेस पार्टी को सरे आम गाली देना और संघ और बीजेपी का समर्थन करना कहाँ तक उचित है. विश्वविद्याल नए ज्ञान और सिद्धांतों का सृजनकर्ता होता है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय गोडसे के विचारों का प्रयोगशाला बन कर रह गया. आम जन पत्रकारिता विश्वविद्यालय को संघ और बीजेपी के आत्मपरिसर के नाम से पुकारने लगे हैं. विश्वविद्यालय में संघ के कार्यकर्ताओं को शोधपीठ में अध्यक्ष के रूप में पुरस्कृत करना संघ के विचार को आगे बढ़ने का ही कार्य था. जिनके चयन में योग्यता सिर्फ संघ के जुड़े होना ही थी. पत्रकारिता विश्वविद्यालय का पठन-पाठन से कोई सरोकार नहीं दिखता. जिसे लेकर प्रख्यात शिक्षाविद प्रोफ़ेसर रमेश अनुपम देशबंधु के सम्पादकीय पृष्ठ में अपनी चिंता जाहिर कर चुके है. छत्तीसगढ़ के प्रख्यात पत्रकार, सामाजिक चिन्तक,  सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ़" के संपादक श्री सुनील कुमार ने पत्रकरिता विश्वविद्यालय के शिक्षा के दशा और दिशा पर सम्पादकीय लिखी, जो छत्तीसगढ़ के शिक्षा इतिहास में पहली बार हुआ. कुलपति के रूप में नियुक्त कुलपति डॉ.मानसिंह परमार की योग्यता एवं शैक्षणिक अनुभव को लेकर माननीय उच्च न्यायालय, माननीय छत्तीसगढ़ लोक आयोग में मामला लंबित है. कुलपति ने विश्वविद्यालय परिसर को को संघ परिसर में परिवर्तित करने का कार्य किया. टीवी और रेडिओ केंद्र के निर्माण कार्य में हुए भ्रष्टाचार के आधार पर छत्तीसगढ़ शासन ने उन्हें हटाया. इस कदम पर संघ समर्थित शिक्षकों एवं संघ के कार्यकर्ताओं  द्वारा अयोग्य एवं भ्रष्ट कुलपति के समर्थन में  सोशल मीडिया एवं दुसरे अभिव्यक्ति के माध्यमों द्वारा बदले की भावना करार देना, किसी भी तरह से  उचित नहीं ठहराया जा सकता. प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा है कि समाज के लिए सरकारें एवं लोकतान्त्रिक शिक्षा क्यों जरूरी हैं. सरकार किस प्रकार की है, या उसकी गुणवत्ता का व्यक्ति के जीवन के हर पहलू पर क्या असर होता है. व्यक्ति की भौतिक कुशलता ही नहीं, प्रत्येक आयाम इससे निर्धारित हो सकता है.जैसे उसके आध्यात्मिक विकास का स्तर, वह क्या खाता है, उसका परिवार कितना बड़ा हो सकता है, कौन-सी सूचना उसे मिले तथा कौन-सी नहीं, उसे कैसा काम मिलता है, वह कैसे मनोरंजन का अधिकारी है, वह कैसे आराधना करता है, उसे आराधना करने की इजाजत होनी भी चाहिए या नहीं. दूसरे शब्दों में प्लेटो के अनुसार किसी समाज को बनाने या बिगाडऩे के पीछे सरकार एवं उसकी शिक्षा प्रणाली का बड़ा हाथ होता है. दुनिया में भारत देश एक जीता-जागता उदाहरण है, जहां शिक्षा प्रणाली राजनीति की शिकार है. कभी प्रबंधन के  स्तर पर, कभी शिक्षक के  स्तर पर, कभी छात्र के  स्तर पर और कभी दोनों स्तरों पर. जब संस्थाओं का निर्माण ही विचार धारा के  आधार पर होने लगे , तो शिक्षा का भविष्य क्या होगा ?

पत्रकारिता शिक्षा में राजनीति वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति की शिक्षा संघ से पायी हैं. ऐसे में शिक्षक किसी विचारधारा विशेष को बढा़ने की शिक्षा-दीक्षा अपने विद्यार्थियों को प्रदान कर रहें हैं तो निराश और हताश होने की बात हैं. क्योंकि ‘अंधा सुखी जब सबका फूटे’ वह सबकी आंखें फोड़ने का उपक्रम करेगा. उसे सुख चाहिए, अपने तरह का सुख. यही खेल जारी है. तब तक जारी रहेगा, जब तक शिक्षा में राजनीति, राजनीति में अशिक्षा, शिक्षा का व्यवसायीकरण, समाज विहीन शिक्षा जारी रहेगी. अंतत: जब ईमानदारी तथा शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिर जाते हैं, तो उसका स्वरूप सबसे खराब तरह की सरकार का बन जाता है. इसमें अधिक जोर शिक्षा पर दिया गया है, ऐसे में न सिर्फ सरकार के प्रमुख का दार्शनिक और योद्धा होना आवश्यक है, बल्कि शिक्षा का प्रबुद्ध स्वरूप  अच्छे जीवन के लिए आवश्यक है.

डॉ. धनेश जोशी
(स्वतंत्र लेखक)

Know the difference between your exploiter and your savior

अपने शोषक और उद्धारक में फर्क जानो 




जो  डोमार अपनी जाति का इतिहास नही जानते। वे अपने पूर्वजो के साथ हुये दमन को भूल गये, वे भूल गये की यही सवर्ण हिन्दू  लोग उनके पूर्वजो के सीने में गडगा लगाने के लिए बाध्यत करते थे, वे भूल गये ये वे ही लोग है जो आज भी अपने मंदिरो में प्रवेश नही देना चाहते। यह वही हिंदू हैं जिन्होंने हमारे पूर्वजों को सफाई पेशा, मैला उठाने जैसे घृणित पेशा को करने के लिए मजबूर किया। 

डोमार जाति का कभी गौरवशाली इतिहास रहा है और आर्यो के आने के पहले वह इस देश के शासक थे। लेकिन इन्होंने डोमारो का दमन किया और मैला प्रथा से जोड़ दिया। हमें फिर इस देश का शासक बनना है।
आज से 50 साल पहले तक डोमारो में जो गैर ब्राह्मणी सभ्यता थी संस्कृति थी अपने देवी देवता थे। जो कि किसी भी हिंदू ग्रंथों में नहीं पाए जाते उन्हें डोमारो ने भुला दिया। 
ये वे लोग है जो नही जानते की डोमार सहित सभी दलित जाति को किस कारण अनुसूचित जाति में जोडा गया। वे दस बिन्दु जिसके कारण उन्हे  अनुसूचित जाति या अछूत जाति में जोडा गया। उनमें से प्रमुख है उनका हिन्दु न होना। डोमार सहित सभी दलित जाति न कभी हिन्दू थी न कभी  हिन्दू हो सकती है। आप भले हिन्दू  अपने आप को मानो लेकिन सवर्ण हिन्दू कभी भी आपको हिन्दू नही मानते है. न ही आपको मंदिर में प्रवेश देते है। पिछले हफ्ते ही मंदिर प्रवेश के प्रयास में सवर्णो ने ऐसे दलितो पर लात घूसे बरसाये थे। ऐसी खबरें लगातार मीडिया में आते रहती है।
जिन डोमारो को अपने हिंदू होने का भ्रम है वह किसी मेन रोड में अपने जातीय पहचान के साथ दुकान खोलें और देखे कितने हिंदू उनसे सामान खरीदते हैं हिंदू होने का भ्रम खत्म हो जाएगा । आज भी मनीषा वाल्मीकि से लेकर मध्य प्रदेश शिवपुरी मे डोमार समाज की दो बच्चियों की निर्मम हत्या किसने की  यह जान जाओगे तो पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। 

ऐसे में कट्टर हिन्दूु समर्थक दो प्रकार के लोग ही बचे है 
1. जिन्हे अपने इतिहास का ज्ञान नही है। 
2. जिन्हे आर आर एस ने हिन्दु धर्म प्रचार के लिए पैसे दिये है या पद पुरस्कार देने का लालच दिया है। 

आईये अब ये भी जान ले वे कौन सी 10 कसौटी थी जिन आधारो पर डोमारो को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया। ये दस कसौटी या बिन्दु 1930 के जनगणना के दौरान तैयार की गई, आज भी गजेटियर में इसके दस्ताावेज मौजूद है।  
1.    जो ब्राम्हण की प्रधानता नही मानतें।
2.    जो किसी ब्राम्हण अथवा अन्य किसी माने हुए हिन्दु गुरू से मन्त्र नही लेते।
3.    जो वेदों को प्रमाण नही मानते।
4.    जो हिन्दु-देवताओं को नही पूजते।
5.    जिनका अच्छे ब्राम्हण पौरोहित्य नही करते।
6.    जो कोई ब्राम्हण पुरोहित नही रखते।
7.    जो हिन्दु मंदिर के भीतर नही जा सकते।
8.    जो अस्पृष्य नही है अथवा निर्धारित सीमा के भीतर आ जाने से अपवित्रता  का कारण होते है।
9.    जो अपने मुर्दो को गाड़ते है।
10.    जो गोमांस खाते है और गौ का किसी प्रकार से आदर नही करते।
इसीलिए अपने शोषणकर्ता और उद्धारकर्ता में फर्क जानो। आज जो समता समानता और तमाम प्रकार के सुविधाएं संविधान से मिल रही है वह सिर्फ बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की बदौलत है। इसे बचा कर रखो और उनके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करो। जिन जातियों ने बाबा साहब के संघर्ष वाले पथ को अपनाया है वह आज कहां से कहां पहुंच गई। लेकिन हमारा समाज आज भी वहीं है। 
बड़ों को प्रणाम, बराबर वालों को प्यार और अपने से छोटे को आशीर्वाद मिले।
जय भीम
संजीव खुदशाह 

Who is jhola chap Doctors?

 कौन है झोलाछाप डॉक्टर ? 

डॉक्टर के बी बनसोडे

पिछले दिनों में बीजेपी सरकार ने आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सीधे एलोपैथी पोस्ट ग्रेजुएशन कराने की तथा उसके बाद उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सकों को भी विभिन्न प्रकार की सर्जरी करने की अनुमति दिये जाने की बात की थी । 


जिसके अनुसार आयर्वेदिक चिकित्सक भी कई प्रकार की आंख , नाक , कान , गले के अलावा अनेक प्रकार की जनरल सर्जरी की ट्रेनिग देकर उन्हें लाइसेंस देने को कहा था ।


इस मुद्दे के खिलाफ देश भर के एलोपैथी चिकित्सक तथा उनकी संस्था आईएमए ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया था ।

उनके अनुसार कोई स्पेशलिस्ट ENT , Ophthalmic या General Surgeon बनाने के लिये पहले MBBS की पढ़ाई करवाई जाती है । जिसमें विद्यार्थी को विशेषज्ञ बनने के पहले सभी विषयों का ज्ञान गहराई से पढ़ाया जाता है । 

वैसी शिक्षा आयुर्वेद में नही पढ़ाई या सिखाई  जाती है ।

इसके अलावा एलोपैथी का भी कोई एक विशेषज्ञ किसी भी अन्य फील्ड में  काम नही कर सकता है । क्योकि उसकी विशेषज्ञता अलग क्षेत्र में है । जैसे कि कोई हड्डी रोग विशेषज्ञ नेत्र रोग विशेषज्ञ का काम नही कर सकता है ।

उसी तरह कोई महिला रोग विशेषज्ञ ENT का काम नही कर सकता है ..... इसी तरह सभी विषय के विशेषज्ञ का अपना फील्ड होता है ।


अब यदि आयुर्वेदिक चिकित्सक को ट्रेनिग देकर भी सर्जरी करवाना है , तो उसके लिये उसे उसके शुरुवात से आयुर्वेदिक विषयों को छोड़ना पड़ेगा । जैसे उनका फार्मेकोलॉजी , पैथोलॉजी वगैरह को त्यागना पड़ेगा ।

और तब वह एलोपैथी के अनुसार सभी विषयों को पढ़कर तथा सीखकर ही विशेषज्ञ बन सकता है ।


*अब सरकार अपनी समझदारी या अज्ञानता का परिचय ना देकर इस जरूरी मापदंड को खारिज करके किसी को भी विशेषज्ञ बनाने की जिद को छोड़ देना ही सही होगा , अन्यथा यह कोशिश वास्तव में जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना है ।*


फिलहाल तो वह मुद्दा अभी कोरोना के बाद से ठंडे बस्ते में है ।

अब आप झोला छाप चिकित्सकों को मान्यता देने की बात करते हैं , तो फिर झाड़फूंक वाले बाबाओं , बैगा गुनिया , तांत्रिक बाबा , हस्तरेखा विशेषज्ञ , तथा ग्रह दशा शांत करने वालों शनिदेव को शांत करने वाले लोगों तथा वास्तु शास्त्र के लोगों को भी फ्रंट लाईन वर्कर का दर्जा क्यों नही दे देना चाहिये ?? आखिरकार वह भी तो जनता की तकलीफ के उपचार में ही हजारों सालों से निर्बाध अपना काम करके जनता को उनके कष्ट से *??* राहत पहुंचाते ही हैं ।


गोबर तथा गोमूत्र से उपचार करने वालों को भी कोरोना से बचाने वाले फ्रंट लाईन वारियर कहने में क्या समस्या है ??

आजकल सोशल मीडिया में भी अनेक लोग विभिन्न प्रकार के उपचार से लोगों का ज्ञानवर्धन कर रहे है , तो उन्हें भी फ्रंट लाईन वारियर का खिताब मिलना ही चाहिये ???


*अब देश को आधुनिकता की बुराइयों से बचाकर वापस 5000 साल पीछे ले जाने वाले सभी बातों का समर्थन हमें क्यों नही करना चाहिये ??*


अवश्य करना चाहिये ।


वैसे भी शहरी लोग , आधुनिक लोग पश्चिमी सभ्यता वाले लोग तो केवल हम सब भारतीय तथा पवित्र लोगों को बर्बाद कर रहे हैं । तो इसलिये फिर हमे वापस जंगली जीवन , शिकारी जीवन को सही मान लेना ही बुद्धिमानी है । 

कृषि में भी आधुनिक विज्ञान का सहारा लेना बंद करना चाहिये ।

देशभर के सभी लोगों को मोटरसाइकिल कार , मोबाईल वगैरह आधुनिक विज्ञान द्वारा निर्मित सब आविष्कारों का प्रयोग करना  बन्द करना चाहिये ।

सभी बड़े अस्पताल जिसमें आधुनिक ईलाज होता है , उन्हें बन्द कर देना चाहिये ।


*और सबसे बड़ी बात आधुनिक युग की पढ़ाई लिखाई( शिक्षा )  भी खत्म किया जाना चाहिये ।*

सभी फैक्ट्रियों को तत्काल बन्द करना चाहिये ।जिसमे कपड़े वगैरह समस्त आधुनिक वस्तुओं का उत्पादन होता है तथा जिसका हम रोजमर्रा के जीवन में लगातार उपयोग करते हैं ।


दरअसल कुछ लोग अपने अधूरे ज्ञान को जस्टिफाई करना चाहते हैं । इसलिये अपने देश की जनता को सबसे अच्छा ज्ञान ( शिक्षा ) देने के विरोध में अज्ञानता को सही साबित करने में लगे रहते हैं ।


इसी सिलसिले में हमे इसे देखना होगा ।

झोलाछाप चिकित्सक कोई कैसे बनता है ??

  कोई एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति , जो किसी मेडिकल शॉप में काम करते करते तथा , किसी अन्य चिकित्सक के साथ काम करते करते उसे कुछ दवाओं के बार में कुछ ज्ञान हासिल कर लेता है या उसको दवाओं की कुछ सामान्य जानकारी मिल जाती है कि , किस तरह की तकलीफ (लक्षण) में कौन सी दवा काम करती है ।

एक दो इंजेक्शन की जानकारी लेकर वह लोगों का इलाज शुरू कर देता है । 

जब ऐसे आधे - अधूरे या कम जानकार व्यक्ति के ईलाज से कुछ लोगों को छोटी मोटी बीमारियों में आराम मिल जाता है , तो आम जनता उसे चिकित्सक मान लेती है । जनता को भी उसके बेहद अल्प ज्ञान से ही जब राहत मिल जाती है , तो वह दूर शहर के किसी बड़े चिकित्सक के पास जाकर अपना समय तथा पैसा बचाने में ही अपनी समझदारी समझता है ।

इस तरह के झोला छाप चिकित्सकों को सरकार वैसे तो कोई मान्यता नही देती है , लेकिन अघोषित तौर पर इनका कारोबार अत्यंत व्यवस्थित रूप से फल फूल रहा है । इन झोला छाप चिकित्सकों के कारण बड़े बड़े कॉरपोरेट अस्पताल भी अपनी कमाई में इजाफा करते है । इसलिये वे भी उन्हें एक प्रकार से प्रश्रय ही देते हैं ।


अब यदि हम इस समस्या के निदान की बात भी कर लें तो बेहतर होगा ।

झोलाछाप चिकित्सक यदि कहें कि ग्रामीण जन जीवन के अच्छे मित्र हैं , और इसलिये वे आराम से कार्यरत रहते भी हैं ।

आम जनता को सरकार से कोई सहूलियत भी नही मिलती , तो वे झोलाछाप चिकित्सकों के शरणागत होने को मजबूर भी हैं ।

भारत की सरकार ने आजादी के बाद से अब तक गांव गांव में शिक्षा , स्वास्थ्य एवम अन्य समस्त मूलभूत सुविधा प्रदान करने में असफल रही है ।

कहने को मिनी पीएचसी , सीएचसी एवम जिला अस्पताल खोले हुवे है , लेकिन उसमें  से अधिकांश जगहों पर ना चिकित्सक हैं और ना पैरामेडिकल स्टॉफ और ना दवाइयाँ या एडमिशन की सहूलियत ।

ऐसी स्तिथि में झोलाछाप ही ग्रामीण जनता के लिये मददगार है ।

अब यदि इस सिस्टम को ठीक करना है , तो सरकार को फिलहाल एक काम करना चाहिये । वह ये कि जितने भी झोलाछाप चिकित्सक हैं , उनकी पहचान करके उन्हें पहली बार , लगभग एक साल की ट्रेनिग देकर , कुछ निश्चित बीमरियों के उपचार के लिये लाइसेंस दे देना चाहिये । फिर कुछ निश्चित दवाओं का किट उपलब्ध करवाना चाहिये एवम उनकी सेलरी निर्धारित करके ग्रामपंचायत से दिलवाई जानी चाहिये ।

हालाकि सरकार ने आशा दीदी इत्यादि को इसके लिये नियुक्त किया है , लेकिन उतना ही पर्याप्त नही है ।

प्रत्येक झोलाछाप चिकित्सक को उसके बाद प्रतिवर्ष 15 दिनों की ट्रेनिंग देना चाहिये , जिससे वह समय समय पर अपडेट होते रहें ।


सरकार सबको सही एवम वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित करने के लिये मुफ्त शिक्षा दे । सभी प्राइवेट शिक्षा संस्थान बन्द किये जाने चाहिये , तथा सभी जगह एक तरह की शिक्षा दी जानी चाहिये । स्टेट बोर्ड , या केंद्रीय बोर्ड ( (ICSE &CBSE) वगैरह बन्द करके समान शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिये । कुछ राज्य अपनी मातृभाषा में शिक्षा देना चाहते हैं , तो उसके लिये यह सुविधा गई जानी चाहिये । शिक्षा हासिल करने का मकसद ज्ञान हासिल करना होना चाहिये , ना की  डिग्रीधारी बनकर केवल नौकरी हासिल करने की मानसिकता से बच्चों को तथा जनता को मुक्त किया जाना चाहिये । 

सबको रोजगार प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिये ।

यही सब समानता चूंकि विकसित देशों में लगभग 150 साल पहले ही अपना ली थी , जिनके चलते आज वे विकसित समाज हैं । और हम अभी भी अविकसित समाज और दुनिया के पिछड़े तथा गरीब देश में एक देश है ।

इसमें भी हमें अपनी अज्ञानता पर गर्व करना छोड़कर वास्तविक उन्नति की दिशा में अपनी सोच विकसित करना जरूरी है ।

धन्यवाद ।

May Bhangi hu by Bhagwan Das

''मैं भंगी हूं '' आज भी प्रासंगिक

संस्मरण
संजीव खुदशाह
सन् 1983-84 के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था।
Writer may bhangi hun

समाज के सक्रिय कार्यकर्ताओं की बैठक में, मैं भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील हैं ये जानकारी बाद में हुई) हैं, जो समाज के लिए भी काम कर रहे हैं। मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुई, किन्तु यादा जानकारी नहीं मिल सकी । इस दौरान मैंने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, मुझे किताबें लाकर देते थे और मैं उन्हें पढ़कर वापिस कर देता था । उन्होंने अमृतलाल नागर की '' नाच्यो बहुत गोपाला'' उपन्यास लाकर दी परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मैं पूरा न पढ़ सका । पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाएं थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मैं मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी। इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी '' मै भंगी हूं'' इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़  डाली। मन झकझोर देने वाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थी, इसलिए इस किताब को मैं खरीद नहीं पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।
मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नहीं थी कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैं, जिनके बारे में मैंने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुध्दि जीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, जिन्होंने मैं भंगी हूं किताब की रचना की है। मैंने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखी, जिसमें मैं भंगी हूं की प्रशंसा की थी।
अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मैं स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई । नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। मैं नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे। उन्होंने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर  पूछा कि -
'' तुम क्या करना चाहते हो..?  ''
''मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।''  मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपायेगें। मेरा उत्साहवर्धन करेगें।
''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुंच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगा, तभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो। ऐसी उल्टी धारा तो मैने कही नही देखी।'' -उन्होने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया । 1998 में मुझे शासकीय नौकरी मिली, इसी बीच मैं सुदर्शन समाज, वाल्मीकि समाज के कार्य-मों में एक दर्शक की भांति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मैं इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया , मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई। अब सुदर्शन ऋषि, वाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन है? पढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता है, मुझे विश्वास हो गया। मैने अपनी चर्चित पुस्तक %%सफाई कामगार समुदायक्वक्व पर काम करना प्रारंभ किया । कई किताबों, लाइब्रेरियों की खाक छानी बुध्दिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवानदास जी से हुई। मैने पहले उनसे फोन पर बात की, उन्होने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वाले, उची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे है। मैने उन्हे बताया कि मै उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी । अभी मै इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी । मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया । उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मै ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे । उनका व्यवहार, उनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी। वे कह रहे थे लिखने-विखने मे मत पड़ो और खूब पढ़ो । उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई । मैने उनको नोट किया। ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थी । उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगे, इनसे किताब के पैसे जमा करा लो । मैने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका । यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी । उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछा, लेकिन वे टाल गये । शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें। मै लौट आया ।
इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। 2005 को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन 2007 को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया। दिल्ली में हुए इस कार्यम में एड. भगवानदास जी भी आये थे। मैने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में %%मै भंगी हूंक्वक्व किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नही था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।
जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे। आज मै अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला। स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा-
संजीव खुदशाहजी, आप ही हैं न..?''
'' जी हां'' -मैंने कहा हां ।
'' मैंने आपकी किताब देखी, बहुत ही अच्छी लिखी है आपने । इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।''  - उन्होंने कहा ।
इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा - '' आदरणीय इस किताब में आपका भी जि है। मैंने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।''
वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थे, साथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे।
आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध है, वह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)। फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते है कि मैं भागवतशरण उपध्याय की '' खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर'' पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं'' आज भी प्रासंगिक है।
http://www.sanjeevkhudshah.blogspot.com/

Please take care for this point in corona period Dr. Bansode

करोना काल में इन बातों का ध्यान रखें डॉ बनसोडे
(करोना काल में डॉक्टर बनसोडे बता रहे हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। पढ़िए उनकी यह जरूरी सलाह। संपादक, डीएमए इंडिया ऑनलाइन)
प्रिय साथियों , 

 कुछ बातों का ध्यान रखें ।
(1) किसी भी स्तिथि में अपने बॉडी टेम्परेचर को नॉर्मल मेंटेन रखें । अनेक प्रकार के बैक्टीरियल , वाईरल एवम पैरासाइटिक इंफेक्शन में बुखार आता है । अक्सर बुखार की दवा जैसे पैरासिटामोल वगैरह से बुखार उतर जाता है । लेकिन कई बार इंफेक्शन की तीव्रता के कारण बुखार नही उतर पाता है । तब हमें बुखार को बाहरी जतन/उपाय से बुखार कम करना जरूरी होता है । इसलिये यदि बुखार 100°f से अधिक हो तो , पूरे शरीर के कपड़े हटाकर मरीज को किसी गीले कपड़े से तब तक पोछते रहें , जब तक कि बुखार 100°f तक ना आ जाये । इससे शरीर की आंतरिक क्रिया गड़बड़ नही होती है । प्रमुख रूप से डिहाइड्रेशन (शरीर का पानी कम हो जाना ), तथा अनेक तत्व जैसे सोडियम , पोटेशियम , इत्यादि अनेक तत्व जिसकी शरीर की आंतरिक कार्य प्रणाली में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है , वह सामान्य तथा स्थिर रहती है । उन तत्वों की कमीं या अधिकता भी नुकसान पहुंचाती है । जिसे मेडिकल टर्मिनोलॉजी में इलेक्ट्रोलाइट इमबेलेन्स कहते है , उससे बचा जा सकता है । 

 (2) गर्मी के कारण हमारे शरीर का पानी कम हो जाता है , इसके लिये चौबीस घंटे सामान्य स्तिथि में ज्यादा से ज्यादा पानी या अन्य तरल पदार्थ जैसे मट्ठा , लस्सी फलों का रस इत्यादि पीना चाहिये । *इस क्राइसिस के समय जब गले का इंफेक्शन होने की जरा भी सम्भावना है तब कोल्ड ड्रिंक्स या आइसक्रीम जैसी अत्यधिक ठंडी वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिये । 

 (3) चुकी अभी कोरोना बीमारी अत्यधिक प्रचलन में है इसलिये घर पर ही पकाया खाना बेहतर होगा । होटल/ ढाबे /नुक्कड़ के ठेले वाली वस्तुओं या किसी सार्वजनिक स्थलों में यानी शादी ब्याह में पकाये खाने को ना खायें। कारण यह है कि जितनी साफ सफाई से हम अपने घर पर खुद ही कोई खाना खाते हैं , तो उसके कारण हमारा पाचन तंत्र ठीक से कम करता है । बाहर के वस्तुओं से पाचन तंत्र के खराब होने की संभावना होती है । पाचन तंत्र की गड़बड़ी के कारण भी हमारे शरीर में आवश्यक न्यूट्रिएंट्स की कमी हो जाती है । जो हमारे शरीर की समस्त प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकती है । 

 (4) किसी भी बीमारी का उपचार खुद करने का एक व्यापक प्रचलन हमारे देश में हजारों सालों से है । इसी कारण लोग बिना चिकित्सक की सलाह से किसी भी मेडिकल स्टोर्स से दवा खरीद कर खाते हैं ।जो मूलतः गलत है । दवा बेचने वाला मात्र फार्मासिस्ट होता , जिसे दवा की ही मात्र जानकारी होती है । जबकि बीमारी के उदगम से लेकर उसके सम्पूर्ण विस्तार की विस्तृत जानकारी चिकित्सक को होती है । इसलिये मेरा कहना है कि कोई भी दवा बिना किसी चिकित्सक के सलाह ना खरीदें । *वर्तमान समय में यही गड़बड़ी हो रही है । लोग बिना अधिक जानकारी खुद मेडिकल स्टोर्स से दवा लेकर खा रहे हैं ।, जिसका नुकसान अब यह हो रहा है कि बीमारी के बढ़ने के बाद आगे के उपचार के लिये उन्हें अस्पताल में भी सम्हालना मुश्किल हो रहा है । *जिसे चिकित्सकीय भाषा में ड्रग डिपेंडेंस /ड्रग इन्टॉलरन्स / ड्रग रेसिस्टेन्स कहा जाता है ।* 

 (5) कभी भी किसी एक चिकित्सक से ही अपना उपचार करवायें । एक साथ अनेक चिकित्सक की सलाह से आप मुश्किल तथा भ्रमित होकर अपना नुकसान कर सकते हैं । इसलिये होमिओपेथी / आयुर्वेद या एलोपैथी की खिचड़ी मत पकाईये । *इसे हम मिक्सोपेथी कहते हैं , जो नुकसानदेय है । सभी थेरेपी अलग अलग है , तथा सभी थेरेपी की दवाओं से यदि फायदा होता है , तो नुकसान की संभावना भी होती है । यानी सभी थेरेपी की दवा का एक्शन तथा रियेक्शन होना स्वाभाविक होता है । अतः यह गड़बड़ ना करें ।* यह सब एक सामान्य जानकारी है जिसे हमें प्राथमिक उपचार पद्धति के अनुसार देखना चाहिये । 

 धन्यवाद ।

 डॉ के बी बंसोड़े (अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्साधिकारी )

Ignorant social reformers in Dalit society is more danger

दलित समाज में अज्ञानी समाज सुधारकों से है ज्यादा खतरा

संजीव खुदशाह

आमतौर पर दो प्रकार के डॉक्टर होते हैं। पढ़े-लिखे एमबीबीएस डिग्री धारी डॉक्टर और अशिक्षित झोलाछाप डॉक्टर। मूर्ख या अज्ञानी के लिए यह दोनों डॉक्टर एक समान है। इन्हें इनमें अंतर ढूंढने की क्षमता नहीं होती है। लेकिन झोलाछाप डॉक्टर एक

मरीज के लिए खतरनाक होता है। सर्दी खांसी बुखार तक तो ठीक है। लेकिन किसी गंभीर बीमारी से इलाज कराना अक्सर जान को जोखिम में डालने जैसा होता है। बीमारी या तो बढ़ जाती है या मरीज की मौत हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार दलित समाज में दो प्रकार के समाज सुधारक या सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। एक वे जिन्हें समाज उत्थान का ज्ञान हैं, अनुभव है, दृष्टि है, लक्ष्य है, तो दूसरी ओर अज्ञानी समाज सुधारक/ सामाजिक कार्यकर्ता जिन्हें ना अनुभव है, ना उन्होंने ठीक से पढ़ाई लिखाई की है, ना ही कुछ सीखना चाहते हैं।

झोलाछाप डॉक्टरों से अज्ञानी समाज सेवक, ज्यादा खतरनाक होता है। झोलाछाप डॉक्टर तो कुछ लोगों का जान को जोखिम में डालता है। लेकिन यदि अज्ञानी समाज सेवक समाज का सिरमौर बन गया तो पूरे समाज का बेड़ा गर्क कर सकता है। पूरे समाज को लक्ष्य से भटका सकता है। कई साल पीछे धकेल सकता है।

आइए इस प्रकार के समाज सेवकों को कुछ उदाहरणों से समझते हैं।

(1)                 ऐसे ही एक समाज सेवक हैं जो डॉक्टर अंबेडकर के भक्त हैं सफाई कामगार समाज से आते हैं और इसी समाज पर केन्द्रित अध्यक्ष पद धारण किए हुए हैं। डॉक्टर अंबेडकर को मानते तो जरूर है। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर की नहीं मानते हैं। बात बात में जय भीम का नारा लगाते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने दलितों के लिए दो बातें कही थी। पहला अपना गंदा पेशा छोड़ दो, दूसरा गंदी बस्ती या शोषणकारी गांव से बाहर निकल जाओ। लेकिन यह महाराज रोज दलितों के लिए सफाई कामगार की स्थाई नौकरी का ज्ञापन देते फिरते हैं। ठेका प्रथा का विरोध करते रहते हैं। गंदे पेशे से मुक्ति तो दूर उस पेशे पर एकाधिकार की वकालत करते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार गंदी बस्तियों से मुक्ति के लिए भी महाशय विरोध करते हैं। ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहे। भले खुद बस्ती से बाहर निवास करते हों। लेकिन इस समाज को एक जगह इकट्ठा रहने पर जोर डालते हैं। ताकि जातीय पहचान और घृणा बरकरार रहे। बस अपनी बात को मनवाने के लिए बात बात पर जय भीम का नारा लगाते रहते हैं। मानो इनसे बड़ा अंबेडकरवादी कोई नहीं। अब आप ही बताइए है ना ये समाज सुधारक जान के दुश्मन ?

 

(2)              ऐसे ही एक और समाज सेवक की आपसे मुलाकात करवाता हूं। यह भाई साहब किसी ऊंचे पद से रिटायर हुए हैं। पद रहने के दौरान तो समाज की किसी व्यक्ति को पहचानते तक ना थे। अब जब बच्चे जवान हो गए शादी-ब्याह, सेटल करने का ख्याल सताने लगा। तो यह लगे समाज सेवा करने। बाबा साहब की एक दो किताबें आधी अधूरी पढ़ ली है। और लगे ज्ञान बांटने। बात बात में समाज को नीचा दिखाने, विरोधियों को ठिकाने लगाना, इनका मुख्य कार्य हो गया है। ऐसे लोग पद के पीछे ऐसे लपकते हैं। जैसे अंगूर के पीछे लोमड़ी  लपकती है। समाज के मुखिया बन जाने के बाद देखिये इनके ठाठ बाट। चंदे का हिसाब ना देना, किसी बड़े नेता की लल्लू चप्पू करना, अपने बच्चों को स्थापित करना, इनका मुख्य उद्देश हो जाता है। अंबेडकरी होने के बावजूद ऐसे लोग मनुवादी होते हैं। अंबेडकर और बुध्‍द  को कहीं ना कहीं चमत्कार, अलौकिकता से जोड़ते हैं। समाज को गुमराह करने में अपना अहम योगदान देते रहते हैं।

(3)              आइए अब मैं एक ऐसे समाज सुधारक से आपका परिचय करवाता हूं। यह भाई साहब सरकारी सेवा से रिटायर हुए है। इनका मकसद है कि समाज गंदे जाति नाम छुटकारा पा जाए। इसके लिए वह नए जाति नाम सुझाते है। रात दिन उसी की माला जपते हैं। उन्हें लगता है कि समाज के जाति का नाम बदलने मात्र से करिश्माई परिवर्तन हो जाएगा। रात दिन सुदर्शन समाज सुदर्शन समाज की जाप करते हैं। कभी बांस कला की बात करते हैं, तो कभी टुकनी सुपा की बात करते हैं। यह पुश्तैनी व्यवसाय को लेकर इतना मोहित हैं। कि कई साल पीछे समाज को ढकने के लिए आमादा हैं। जिस कारण इन्हें सरकारी नौकरी मिली, समानता का अधिकार मिला, इससे इनको कोई वास्ता नहीं। समाज कैसे शिक्षित हो, आगे बढ़े, इससे उनको कोई मतलब नहीं। बस जाति नाम बदल जाए गंदे नामों से छुटकारा मिल जाए।

(4)             अब मैं आपको ऐसे समाज सेवक से मुलाकात करवाता हूं जिनको यह मालूम है कि समाज सेवक करना है। लेकिन यह नहीं मालूम कि करना क्या है? इनको लगता है कि समाज के लोगो को इकट्ठा कर लो, बड़ा सम्मेलन कर लो, भीड़ दिखाकर पार्षद, विधायक आदि का टिकट हासिल कर लो। या किसी अनुसूचित जाति आयोग, सफाई कामगार आयोग में स्थान पा जाऊं। यही इनका मुख्य मकसद होता है। वैसा करने के लिए समाज का बेड़ा गर्क करने में लगे होते हैं। ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि समाज सेवा और राजनीति एक अलग चीज है। यह समाज सेवा का नाम तो लेते हैं। लेकिन वे दरअसल राजनीति करते हैं। इसके कारण समाज भ्रमित रहता है।

तो समाज सेवा के एक्‍सपर्ट डॉक्टर कैसे बने ? आइए जानने की कोशिश करते हैं

पिछले उदाहरणों से आप समझ गए होंगे कि समाज के झोलाछाप समाज सुधारक कितने खतरनाक होते हैं। अब मैं संक्षिप्त में बताऊंगा कि यदि आप एक शिक्षित समाज सेवक बनना चाहते हैं तो क्या करें।

i     अपना लक्ष्य प्लान करें। सबसे पहले समाज को क्या मदद देना चाहते हैं उसे तय करें। लक्ष्य निर्धारित करें। यह मदद आर्थिक है या बौद्धिक है या समय की मदद है। किस अवस्था को समाज की तरक्की आप समझते हैं यह भी निर्धारित करें। यदि आप अंबेडकरवादी हैं तो विज्ञान और तर्क का साथ कभी ना छोड़े। चाहे समाज का विरोध आपको झेलना पड़े।

 

ii    कुछ वंचित जातियां कैसे तरक्की कर गई इसका अध्ययन करें। उन्होंने क्या त्याग किया ? कैसे शिक्षा पर खर्च किया ? अंबेडकर के निर्देशों का पालन किस प्रकार किया ? यह जानने की कोशिश करें ? इसके लिए आपको अध्‍ययन करना पड़ेगा।

 

iii    पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ाएं, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ें। अंग्रेजी में किताब पढ़ने की कोशिश करें। दलितों के लिए अंग्रेजी सीखना बहुत जरूरी है। यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते तो बहुत सारी चीजें आप नहीं समझ सकते।

 

iv    अपने उद्धारक और शोषणकर्ता में फर्क करना सीखें। यह भी बिना पढ़े नहीं सीख सकते हैं। किताबे तो आपको पढ़नी होगी इसका कोई शॉर्टकट नहीं है।


v    सामाजिक कार्यकर्ता के लिए एक दृष्टि होने बेहद जरूरी है। आपके पास एक वैज्ञानिक तर्कशील जिसे मै अंबेडकर वादी दृष्टि कहता हूँ, बहुत जरूरी है। आप अंधविश्वास के पक्ष में रहना चाहते हैं या विज्ञान के पक्ष में, तय कर लें। समाज को पीछे की ओर ले जाना चाहते हैं या आगे की ओर, यह तय कर लें। समाज को लाभ देना चाहते हैं या खुद लाभ उठाना चाहते हैं। यह भी तय कर ले।


vi    तय करें आप राजनीति करना चाहते हैं या समाज सेवा दोनों में फर्क है।


vii   जिन सिद्धांतों की आप बात करते हैं। उनका पालन आप पहले स्वयं करें। एक मिसाल कायम करें। तभी उन सिद्धांतों की बात आप करें।

कुछ बातों का ध्यान अगर आप देंगे। तो लोग आपके साथ जुड़ेंगे और आप किसी लक्ष्य के साथ आगे बढ़ पाएंगे। उन लोगों का जरूर साथ लें जो जानकार हैं, शिक्षित हैं, लक्ष्य को समझते हैं।

याद रखें अज्ञानी समाज सुधारक, समाज के लिए खासकर दलित और आदिवासी समाज के लिए मानव बम की तरह है। आप एक शिक्षित समाज सुधारक बनने की मिसाल कायम करें। जागरूक करने के लिए जरूरी नहीं है कि आप घर घर जाएं या कोई सम्मेलन करें। सोशल मीडिया के माध्यम से भी आप समाज को जानकारी विश्लेषण और अपना पक्ष बता सकते हैं।

The Big lie of the century -hai preet jahan ki reet sada

सदी का महाझूठ - है प्रीत जहां की रीत सदा

संजीव खुदशाह

भारतीय सिनेमा के कुछ गीतों ने समाज पर अमिट छाप छोड़ी है। कुछ गीतों ने तो लोगो का मार्ग दर्शन भी किया है। इनमें कुछ गीत ऐसे भी रहे है जिन्‍होने समाज पर अमिट छाप तो छोड़ी है लेकिन वे  झूठ के पूलिंदे रहे है, महज भावनाओं से भरे हुये, सच्‍चाई से कोशो दूर।

ऐसा ही एक गीत है है प्रीत जहां की रीत सदा। इस गीत को फिल्‍म पूरब पश्चिम के लिए इंदिवर उर्फ श्‍यामलाल बाबू राय ने 1970 में लिखा था। प्राथमिक शालेय जीवन में यह गीत  इन पंक्तियों के लेखक के मस्तिष्‍क पर गहरे तक प्रभावित किया था। वह महेन्‍द्र कपूर की आवाज में इस गीत को गया करते। उन्‍हे लगता था की इस गीत की लिखी बाते शब्‍दश: सही है। लेकिन जैसे जैसे लेखक बड़ा हुआ उसके अनुभव और ज्ञान में वृध्दि होती गई । सपनों की दुनिया के बजाय जीवन के सच्‍चाइयों का सामना होता गया। वैसे वैसे इस गीत के एक-एक लफ़्ज झूठे साबित होते गये। आज इसी गीत पर बात होगी। पहले आप  गीत की पंक्तियोंको पूरा पढ ले ।

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने

भारत ने मेरे भारत ने

दुनिया को तब गिनती आयी

तारों की भाषा भारत ने

दुनिया को पहले सिखलायी

 

देता ना दशमलव भारत तो

यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था

धरती और चाँद की दूरी का

अंदाज़ लगाना मुश्किल था

 

सभ्यता जहाँ पहले आयी

पहले जनमी है जहाँ पे कला

अपना भारत जो भारत है

जिसके पीछे संसार चला

संसार चला और आगे बढ़ा

ज्यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया

भगवान करे ये और बढ़े

बढ़ता ही रहे और फूले-फले

मदनपुरी: चुप क्यों हो गये? और सुनाओ

स्‍थाई

है प्रीत जहाँ की रीत सदा

मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 1

काले-गोरे का भेद नहीं

हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और न आता हो हमको

हमें प्यार निभाना आता है

जिसे मान चुकी सारी दुनिया

मैं बात वोही दोहराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 2

जीते हो किसीने देश तो क्या

हमने तो दिलों को जीता है

जहाँ राम अभी तक है नर में

नारी में अभी तक सीता है

इतने पावन हैं लोग जहाँ

मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 3

इतनी ममता नदियों को भी

जहाँ माता कहके बुलाते है

इतना आदर इन्सान तो क्या

पत्थर भी पूजे जातें है

इस धरती पे मैंने जनम लिया

ये सोच के मैं इतराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

क्‍या सच में भार ने जीरो दिया है?

 

 (जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने

भारत ने मेरे भारत ने)

आमतौर पर एक आम पढ़ा लिखा भारतीय यह मानता है कि भारत में शुन्‍य का अविष्‍कार हुआ। कुछ का कहना है कि पांचवी शताब्‍दी में भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने शुन्‍य का प्रयोग पहली बार किया था। यह मान्‍यता सिर्फ भारतीयों की है विश्‍व इससे कोई इत्‍तेफाक नही रखता। ये खुशफहमी भारत में कैसे घर कर गई यह एक अलग

विषय है। लेकिन शून्‍य का अविष्‍कार किसने किया और कब किया आज एक अंधकार की गर्त में छुपा हुआ है।

ऐसी  कथाएं प्रचलित है की पहली बार शून्‍य का अविष्‍कार बाबिल इराक में हुआ दूसरी बार माया सभ्‍यता 1500 इपू के लोगो ने इसका अविष्‍कार किया। ऐसी जानकारी मिलती है कि मेसोपोटामिया के सुमेरियन लेखको (3500 ई पू) स्‍तंभो में अनुपस्थिति को निरूपित करने के लिए रिक्‍त स्थान का उपयोग किया था।

हाल ही में अमेरिकी गणितज्ञ आमिर एक्‍जेल ने सबसे पुराना शून्‍य कंबोडिया में खोजा है। उन्‍होने अपनी किताब (फाईउिग जीरो: ए मैथमेटिशियन ओडिसी टू अनकवर द ओरिजिन आफ नंबर 2015) में दावा करते है की सबसे पुराना शून्‍य भारत में नही बल्कि कम्‍बोडिया में मिला।

यानि ताजा खोज से ये सिध्‍द होता है कि जीरो की खोज भारत में नही हुई।

(दुनिया को तब गिनती आयी)

यह एक बड़ा झूठ है विश्‍व की पुरानी से पुरानी सभ्‍यता सुमेरियन (3500 ई पू) में सिक्‍के और बैकिंग प्रणाली के सबूत मिले है जो की बिना गिनती के सम्‍भव नही है।

 तारों की भाषा भारत ने

दुनिया को पहले सिखलायी

यदि कवि का इशारा ज्‍योतिष विज्ञान से है तो यह एक धूर्त भाषा है। भारत में ज्‍योतिष नक्षत्र  के बहाने लोगो को ठगा जाता है। यदि कवि का इशारा तारो की खोज से है तो  बता दे की अरस्‍तु के बाद गैलिलियों ने नक्षत्र और तारों के बारे में वैज्ञानिक ढंग से बताया। और अपना दूरबीन यंत्र विकसित किया।

यह कहना की तारो की भाषा भारत ने सिखलायी कोरी कपोल बाते है।

दशमलव भारत ने दिया ?

इसका संबंध शून्‍य के अवि‍ष्‍कार से है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।

दशमलव से चांद की दूरी निकाली गई ?

ऐसा लगता है कि कवि इन्‍दीवर का विज्ञान पक्ष काफी कमजोर रहा होगा। दूरी की गणना प्रकाश वर्ष के सिध्‍दान्‍त के माध्‍यम से की गई है जिसका अविष्‍कार यूरोपियों ने किया है।

क्‍या सचमुच सभ्‍यता यहां पहले आई ?

यदि कवि का इशारा सभ्‍यता यानि अच्‍छे चाल चलन से है तो आप इसका अंदाजा यहां के जेलों में बंद धर्म गुरूओं से कर सकते है। यदि कवि का इशारा मानव सभ्‍यता से है तो कार्बन डेटिंग के अनुसार सबसे पुरानी सम्‍यता सुमेर 3500 इसा पूर्व सम्‍यता को माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्‍यता 2300 इ पू क माना  जाता है।

क्‍या कला का जन्‍म यहां पहली बार हुआ ?

कवि किस कला का जन्‍म पहली बार हुआ ये नही बता रहे है। शायद उनका इतिहास बोध कमजोर रहा होगा। जब सभ्‍यता में आप पीछे थे तो कला में आगे कैसे हो सकते है।

भारत के पीछे संसार चला ?

आखिर किस मामले में संसार भारत के पीछे चल रहा है। कवि बताने से परहेज कर रहे है। जबकि ज्ञात इतिहास में भारत ही यूरोपिय देशो के पीछे पीछे चल रहा है । यदि अध्‍यात्‍म में आगे चल रहा है तो प्राचीन काल से लेकर अब तक यहां के आध्‍यात्‍मीक गुरूओं के ऊपर हत्‍या से लेकर रेप तक के आरोप क्‍यो लगे है।

स्‍थाई

है प्रीत जहाँ की रीत सदा

मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

mob linching india

प्रश्‍न यह है क्‍या सच मुच प्रीत इस देश की रीत है? महामारी करोना लाकडाऊन जैसी स्थिति में कोरंटाईन में ब्राम्‍हण दलितों के हाथों का बना खाने खाने से इनकार कर रहे है। हजारों कन्‍या भ्रूण जन्‍म से पहले मार दी जाती है। बहुऐ दहेज की बली चढा दी जाती है। दलितों आदिवासियों पिछड़ा वर्ग और मुसलमानों की माब लिंचिंग आम बात है। क्‍या कवि इसी प्रीत की बात कर रहे है।

अंतरा 1

काले-गोरे का भेद नहीं

हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और न आता हो हमको

हमें प्यार निभाना आता है

पहले अंतरे को पढने के बाद ये प्रश्‍न उठता है कि क्‍या भारत में सचमुच कोई भेद भाव नही है। जाति भेद, माब लिचिग, छुआ छूत के रहते हर दिल से नाता की बात करना आप जनता को बेवकूफ बनाना है। ये बात तो सही है कि कुछ और आपको नही आता है। पर प्‍यार निभाना भी नही आता है। जातिय और धार्मिक नफरत सिखाने वाले लोग कहते है कि हमे प्‍यार निभाना आता है।

अंतरा 2

जीते हो किसीने देश तो क्या

हमने तो दिलों को जीता है

जहाँ राम अभी तक है नर में

नारी में अभी तक सीता है

इतने पावन हैं लोग जहाँ

मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ

इस अंतरे में भी सिवाय लफाजी के कुछ और नही है। ये बात तो सही है कि भारत ने किसी देश को नही जीता है। लेकिन दिलो को जीतने वाली बात झूठी है। एकलव्‍य का अंगूठा काटने वाले दिल को कैसे जीत सकते है।  शूद्र (पिछडा वर्ग) के संबूक का वध करने वाले राम पूरे देश का आदर्श कैसे हो सकते है। उसी प्रकार अग्नि परिक्षा देने वाली सीता पूरे भारत की नारी की आदर्श नही हो सकती। अब आप ही बताईये की जहां के लोग बात बात में नफरत, छुआ छूत, ऊंच नीच बरतते हो वह पावन कैसे कहला सकते है। वह आज से नही प्रचीन काल से, धर्म ग्रन्‍थो में भी यही छुआ छूत ऊच नीच नफरत भरी हुई है।

अंतरा 3

इतनी ममता नदियों को भी

जहाँ माता कहके बुलाते है

इतना आदर इन्सान तो क्या

पत्थर भी पूजे जातें है

ये बात तो सही है यहां नदियों को माता कहा जाता है। लेकिन ममता की बात झूठी है पूरे मल मूत्र, गंदगी, शव आदि इसी नदियों में बहाकर गंदगी फैलाई जाती है। माता तो यहां गाय को भी कहा जाता है लेकिन सगी माता उपेक्षा का शिकार होकर वृध्‍दा आश्रम में अंतिम समय बिताती है। यह बात तो सही है कि यहां पत्‍थर ही पूजे जाते है मनुष्‍य को आदर तो क्‍या स्‍पर्श के योग्‍य भी नही समझा जाता है।