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दलित विमर्श : दलित समाज की रचनात्मक चुनौती -- रमेश चंद मीणा

द प‍‍‍ब्लि‍‍क एजेंडा ७ जुलाइ २०१०

दलित विमर्श : दलित समाज की रचनात्मक चुनौती -- रमेश चंद मीणा

रमणिका फाउंडेशन की पत्रिका "युद्धरत आम आदमी' ने अपने विशेषांकों के माध्यम से स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों के सर्जनात्मक और वैचारिक संघर्षों को हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस कड़ी में अभी हाल ही में दो खंडों में प्रकाशित उनका विशेषांक उल्लेखनीय है जो दलितों में भी दलित बाल्मीकि समाज के सृजन और संघर्ष पर आधारित है।

जो लोग/तुम्हें तुम्हारे नाम से नहीं/तुम्हारे काम से पुकारते हैं/जो लोग तुम्हारे बच्चों को/देते हैं मुंह भर गालियां/जो लोग/मनुष्य नहीं समझते तुम्हें/वे लोग/हर सुबह तुम्हारे आने का/इंतजार करते हैं/तुम चाहो तो उनसे/छीन सकते हो/उनकी सुबह।'
-देवांशु पाल : "मल-मूत्र ढोता आदमी'भारतीय संस्कृति में जो भी बाहर से आया, उसे स्वीकार किया गया पर जो अपने समाज के अंग के रूप में जाने-माने गये, उन्हें कुछ नहीं दिया- सिवाय दुत्कारने, अपमानित करने और जलील करने के। जिनके बल पर वे समाज सुचारु रूप से गतिमान रहा है, उन्हें धर्म, दर्शन और आध्यात्म की घुट्टी जन्म से ही पिला-पिला कर "बे्रनवाश' किया गया कि तुम्हारे पूर्व कर्म नीच रहे इसलिए नीच कुल में पैदा हुए हो। इस दर्शन को ठीक से चुनौती नहीं दी जा सकी। चार्वाक और बौद्ध ने प्राचीन और रूढ़ हो चुके धर्म को चुनौती अवश्य दी पर वह अधिक समय तक इनके यंत्र के आगे टिक नहीं सके। गांधी हो या मस्तराम कपूर ये सब उसी व्यवस्था केषड् हिस्से रहे हैं जो उदारता के मुखौटे कहे जा सकते हैं, शायद इसीलिए समाज का एक बड़ा तबका सदियों मल-मूत्र ढोता रहा और कभी बगावत नहीं कर सका।
पहली बार डॉक्टर आंबेडकर के आगमन से भेद-भाव पूर्ण वर्ण व्यवस्था को जबर्दस्त चुनौती मिली है। इसी कड़ी में रमणिका फाउंडेशन से प्रकाशित "युद्धरत आम आदमी' के विशेषांक "सृजन के आइने में मल-मूत्र ढोता भारत' और "मल-मूत्र ढोता भारत:विचार की कसौटी पर' को अनूठा और क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है।
पत्र-पत्रिकाओं के समय-समय पर दलित विशेषांक आये हैं लेकिन "मल-मूत्र ढोता भारत' पर पहल करने वाला यह पहला कदम कहा जायेगा। इस संस्था की दशा ऐसे प्रयास पहले भी किये जाते रहे हैं जिससे आम आदमी अपनी आवाज स्वयं बन सके। पूर्व में भी आदिवासी विशेषांक के माध्यम से मूक आदिवासियों और दलितों की आवाज उठायी जा चुकी है।
"मल-मूत्र ढोता भारत' किसी भी सामान्य समझ रखने वाले आदमी के लिए शर्म की बात है। लोकतंत्र की आधी सदी के बाद भी अगर ऐसी अमानवीय प्रथा इस देश में चल रही है तो यह न केवल एक समुदाय के लिए अपितु पूरे देश के लिए शर्मनाक है। कोई समुदाय अपनी मर्जी के किसी दूसरे समुदाय का मल-मूत्र ढोता रहे, बिना किसी ना-नुकर के- यह समझ से परे तो है ही, साथ-ही-साथ समाज विशेष की क्रूरता, अमानवीयता को सामने भी लाता है। जाहिर है समाज की विसंगति को प्रगट करने वाला साहित्य परंपरागत साहित्य की जद से बाहर ही रहा है।शिक्षा और संपत्ति,दोनों ही समाज के नियंताओं के वर्चस्व में रहे हैं। परिवर्तनकारी शिक्षा और संपत्ति से दलितों को बाहर रखा गया है। "सृजन के आइने में मल-मूत्र ढोता भारत' में साहित्य की न केवल हर उस विधा को लिया गया है, जिसमें भंगी का जीवन, स्पंदित, मुखरित और चित्रित हुआ है, अपितु देश की मुख्य भाषाओं में जहां भी दलित साहित्य रचा जा रहा है, सभी का सफल संयोजन किया गया है।
दलित साहित्य में जातीय प्रताड़ना, दंश और शोषण की अंतहीन कहानी रही हैं, जो आत्मकथाओं में कई रूपों में उभर कर आती है। भगवान दास की "मैं भंगी हूं', ओमप्रकाश वाल्मीकि की "जूठन', सुशीला टाकभौरे की "शिकंजे का दर्द' सूरजपाल चौहान की "तिरस्कृत' जैसी आत्मकथाओं में मैला ढोते समाज की कड़वी सच्चाई बयां होती है।
दलित कवि के तेवर तीखे हैं, भाषा अनगढ़ और कर्णकटु है पर लगता है जैसे हर शब्द जवाब मांग रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि हो या मलखान सिंह या नये कवि राज वाल्मीकि भाषा और विषय वस्तु में समानता देखी जा सकती है। जब से उसने कलम पकड़ी है तब तबसे कुछ ऐसे ही फूटते हैं- "जब भी देखता हूं मैं/झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी/कनस्तर किसी हाथ में/मेरी रगों में/दहकने लगते हैं/यातनाओं के कई हजार वर्ष।' (पृष्ठ 123) भंगी, मेहतर और भी कई नाम दिये किसने दिये? और क्यों दिये? देव कुमार सही सवाल करते हैं- "चांडाल था/श्वपच था/अन्त्यज था/फिर भी मैं ही डोम बना। मुझे अपना नाम रखने का भी हक नहीं मिला।' (पृष्ठ 127)
अछूत शब्द को लेकर एक वर्ग द्वारा नाक भों सिकोड़ी जाती रही है, तो दूसरी तरफ इससे आहत होने वाला वर्ग ही ऐसा सवाल कर सकता है- "आखिर उस एक अछूत शब्द में/ऐसा क्या था जो आकाश से टपका नहीं/जमीन से उगा नहीं/मेरे चेहरे पर भी लिखा नहीं था/मगर वह उसे लगातार पढ़ रहा था।' (पृष्ठ 128) अछूत शब्द, शब्दभर नहीं है। इस शब्द की पीड़ा, जहालत और कोढ़ को जीती है मेहतर जाती। उसे भी जीवन जीने का पूरा हक होते हुए भी नहीं दिया गया। क्या कहते हैं उनके धर्म ग्रंथ, पुराण और दर्शन। जिनमें लिखा है इस जाति को हमेशा बिना किसी बगावत और विद्रोह के खपते रहने का। सूरजपाल चौहान का तर्क है- "तुम कहते हो बहुत गर्व से/कि बसती है/गांवों में आत्मा भारत की/तुम आओ सिर्फ चंद रोज के लिए/उसी स्वर्ग की भंगी बस्ती में।' (न्यौता-135) वे हमेशा जिस स्वर्ग में रहते रहे हैं वह भी इस वर्ग की मेहनत और परिश्रम से बना है।
मलखान सिंह की "सुनो ब्राह्मण', ब्राह्मणवाद को चुनौती देती चर्चित कविता है। "मुझे गुस्सा आता है' कविता में उनको संबोधित करते हैं, जो "सबके-सब आदमी के आभूषण है /हम जैसे गुलामों के नहीं/मेरी बात मानों/अपने वंश के हित में/आदमी बनने का ख्वाब छोड़ दो/और चुप्प रहो।' (पृष्ठ 149) द्वारका भारती तो यही आह्वान कर रहे हैं कि कविता में बदलाव की बात आनी ही चाहिए- "मुझे शिद्दत से इंतजार है/आपकी उस कविता का/और उसके अंदर खौलते/ज्वालामुखी का।' नीरव पटेल दलितों की एकता की कामना में बाबा को याद रखने और उनके अनुसार चलने की हिदायत देते हुए लिखते हैं-"तुम भूल गये कबीर दादा को/तुम भूल गये रैदास दादा को/इतनी जल्दी भूल गये बाबा की बात/अपने बाबा की वसीयत/तुम फिर से पढ़ो/और आज के बाद कभी मतपूछो/कि मैं बड़ा कि मेरा भाई।'
कथा साहित्य में भी असमानता, विषमता और जातीय दंश की तपन महसूस की जा सकती है। बाबूराव बागुल की "विद्रोह' में पुरानी और नयी पीढ़ी की टकराहट और द्वंद्व "बीच बहस में' कहानी की याद दिला जाती है। फर्क है तो इतना कि पिता वाल्मीकि परंपरा निभा रहा है, तो बेटा अंबेडकरी विद्रोह- जो मैला ढोने की नौकरी से साफ इंकार करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की "शव यात्र' बल्हार महा दलितों की ऐसी कहानी है, जो समाज का मैला और शव ढोते हुए अपने आपको शव में तब्दील कर देते हैं। यह कहानी दलितों में व्याप्त जाति के सच को बेरहमी से उजागर करती है। भगवान दास की "शूद्र का श्राप' में कथित धर्मावतारों के ढोंग को उजागर कर दलित चेतना को जगाने का प्रयास किया गया है। जिसमें क्षत्रिय राम भी ब्राह्मणों की चालों को नहीं समझ पाते हैं और शूद्र शंबूक का वध इसलिए करवा देते हैं कि वह उनके स्वर्ग में प्रवेश करने का दुःसाहस करता है।
पूनम तुषामड़ की "गंगा', सविता चड्डा की "बिब्बो' और पुन्नीसिंह की "हारे को हरि नाम' में मेहतर समाज की स्थिति को कलात्मकता से यंत्र उजागर किया गया है।
वाल्मीकि शब्द इनसे क्यों जोड़ा गया? इस शब्द से जुड़े षड् का खुलासा होता है तो अंधविश्वास का कोहरा छटता है। वाल्मीकि शब्द से जुड़कर हालांकि अधिकांश दलित गौरवान्वित होते रहे हैं। रमेश भंगी इस "शब्द प्रपंच' की तह तक जाते हैं और घोषणा करते हैं कि वाल्मीकि कहलाने/बनने से कोई बदलाव नहीं आ जाता, यह शब्द भी वहीं गंध देता है जो भंगी से आती है। रामायण के रचयिता से अपने आपको जोड़ लेने से "कुछ विद्वान यह कह सकते हैं कि भंगी कहने में हिकारत और जहालत का बोध होता है जबकि वाल्मीकि कहने में भंगीपन का बोध नहीं होता। भंगी को संस्कारित कर वाल्मीकि बना दिया गया।' (रमेश भंगी शब्द प्रपंच पृष्ठ 77) भंगी एक ऐसी पहचान है जो लाख छुपाने पर भी नहीं छुपती। इसलिए रमेश भंगी घोषणा के साथ इस शब्द से न केवल जुड़ते है अपितु भंगी में छुपी मार्शलिटी की पहचान करते हैं। "भंगी से वाल्मीकि होने का अर्थ है, अपने पूर्वजों के दर्द से नाता तोड़ना। वाल्मीकि की चादर ओड़ लेने भर से नफरत नहीं रुक सकती।'
संत रैदास और वाल्मीकि ये दोनों जातियों के इष्ट देव की तरह माने गये हैं। विवाद वाल्मीकि को लेकर रहा है। रत्नाकर डाकू या बांबी से बने वाल्मीकि यदि भंगी ही थे तो संस्कृत के प्रकांड विद्वान कैसे हुए? मूलचंद सोनकर इस शब्द को लेकर सही बहस छेड़ते हैं कि जो व्यक्ति ठीक से राम नहीं बोल सकता, वह यकायक संस्कृत का विद्वान कैसे बन सकता है? अपनी रामायण में दलित चेतना के वाहक शंबूक, दलित शौर्य के प्रतीक बालि की हत्या करने वाले राम का जीवन चरित्र लिखने वाला वाल्मीकि, मैला ढोने वाली जातियों का आदि पुरुष कैसे हो सकता है' इसे संयोग ही कहेंगे कि एक तरफ हिंदू महासभा ब्राह्मण वाल्मीकि को भंगियों का पूर्वज बता रही थी तो दूसरी तरफ गांधी उनके घृणित पेशे को ब्राह्मणों के पेशे के समक्ष महान घोषित कर रहे थे। भूतकाल के स्वर्गिक भाव लोक में रहना हिंदू संस्कृति का शगल रहा है। वे आदिकाल को सर्वगुण संपन्न बताते हैं तो हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को स्वर्ण युग से नवाजते रहे हैं। रमेश भंगी का मानना है कि वाल्मीकि के नाम से दलित अपने इतिहास को कदापि नहीं ढूंढ़ पायेंगे। मुंशी एन.एल. खोब्रागड़े भंगी जाति का मूल पुरुष वाल्मीकि के होने पर-प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
आजादी के छह दशक बाद भी भंगी जाति में परिवर्तन क्यों नहीं आसका? ये दलितों में भी दलित बने हुए हैं तो निश्चित ही इसके कारण रहे हैं? साक्षात्कारों के हवाले से पता चलता है कि वर्णव्यवस्था में विश्वास का होना ही एक मात्र ऐसा कारण रहा है जिसके चलते यह तबका पशुवत जीवन जीता रहा है। संजीव खुदशाह इस जाति को अपने पेशे से मोह और विकल्प के न होने को, सुशीला टाकभौरे हिंदू आडंबरों और विश्वास से चिपके रहने को इसका कारण मानती हैं। हिंदू धार्मिक आस्थाएं और विश्वास इनकी समझ और सोच को जड़ बना देते हैं, बाकी काम ब्राह्मणवाद के प्रचारक गुमराह करके कर देते हैं।
विशेषांक के आकर्षण हैं- दस्तावेजी पत्र। अमृतलाल नागर से के.एस.तूफान का पत्र व्यवहार और सुशीला टाकभौरे की चिट्टी बापू के नाम। बापू सर्वसम्मत देश के राष्ट्रपिता रहे हैं। वे जिनको दलित अंबेडकर से भी अधिक मानते रहे हैं। मस्तराम कपूर मानते हैं-"सफाई कार्य से संबंधित जातियां आंबेडकर से अधिक गांधी से जुड़ी रही हैं।' ऐसे महात्मा जिन्हें दलित अपना मानते हुए, वर्णव्यवस्था से चिपके रहते हैं। उनको संबोधित करता हुआ पत्र है-"तुमने भी तो बापू हमें वर्णाश्रम का पालन कर सेवा करने की सीख दी थी न, और कर्म करने का उपदेश भी कृष्ण की तरह दिया था। और बापू जिन बातों को हम अछूत वर्ग के बड़े-बूढ़े नहीं जान पाते थे, उन्हें समय-समय पर प्रवचनों, धर्म चर्चाओं और लोक कथाओं के रूप में ऊंची जात वाले समझा दिया करते थे। बापू! हिंदू धर्म की रक्षा का एक ही उपाय था कि अछूत सदा ही अपनी स्थिति में अनभिज्ञ रहे, प्रगति की बातें न सोचें।' (मल-मूत्र... विचार की कसौटी पर- 348) गांधी के चिंतन में दलितों, हरिजनों के लिए दया भाव और अपने धर्म की रक्षा छुपी हुई थी। इसलिए दलित हो या महादलित इनके बदलाव का एक ही उपाय है वह यह कि बाबा के शब्दों में शिक्षित बनों। संजीव खुदशाह जैसा आत्मविश्वास सैकड़ों दलितों में भी आ सका तो यह शर्मनाक कृत्य हर सूरत में 2010 तक ही खत्म हो सकता है।

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