“Khoob Chand Baghel was not only a dreamer of Chhattisgarh but he was also a great leader of social change.

 "खूब चंद बघेल न सिर्फ छत्तीसगढ़ के स्वप्न दृष्टा थे बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन के महानायक भी थे !"

साहु रामलाल गुप्ता

                खूब चंद बघेल जी का जन्म 19 जुलाई 1900 को छत्तीसगढ़ रायपुर के पास पथरी ग्राम में हुआ था ।

            आप प्रारंभ से ही सामाजिक राजनीतिक जागरूकता से ओतप्रोत थे । अपनी मेडिकल शिक्षा के दौरान आपने पढ़ाई छोड़कर तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और कई बार जेल भी गए । आजादी मिलने के बाद भी आप


अपने जीवन के अंतिम समय तक विभिन्न राजनीतिक मंचों के साथ एवम् सामाजिक क्षेत्र में भी पूरी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति को आपने बनाए रखा ।

                सामाजिक असमानता, छुआछूत, और जाति भेदभाव के विरुद्ध आपने "हरिजन सेवक संघ" के मंत्री के तौर भी पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे ।

"अपमानजनक परंपरा पर करारा प्रहार"

                तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अनुसूचित जाति के लोगों का बाल नाई लोग नहीं काटते थे । इस सामाजिक असमानता के विरुद्ध आपने श्री अनंत राम बर्छिहा (भविष्य में विधायक) के साथ मिलकर एक सशक्त आंदोलन चलाया । जिसमें आपको पर्याप्त सफलता भी मिली । इस आंदोलन के कारण आपको सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा ।

                इस मुद्दे पर अपने नाटक लिखकर जन-जन के बीच जाकर उसका सफल मंचन भी किया । जिसके लिए आपको सराहा भी गया ।

"उपजाति बंधन को तोड़ा"

                    आपने स्वयं उपजाति बंधन तोड़कर अपनी द्वितीय पुत्री की शादी दिल्लीवार कुर्मी समाज में किया । समाज ने पुनः इस मुद्दे को आधार बनाकर आपको सामाजिक बहिष्कृत का दंड दिया । आपने हिम्मत नहीं हारी और आपने अपनी तृतीय पुत्री की शादी भी "काका कालेलकर  आयोग" के सदस्य श्री रामेश्वर पटेल, बिहार (भविष्य में सांसद) से संपन्न कराई । आप सामाजिक रूढ़ियों पर सदैव करारा प्रहार करते रहे ।

"राष्ट्रीय कुर्मी महासम्मेलन"

                आपने अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के दो-दो राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता भी की । प्रथम 1948 कानपुर में और द्वितीय 1966 नागपुर में । आपने राष्ट्रीय अधिवेशन में भारतीय हिंदू समाज में व्याप्त शाखाभेद, उपजातिभेद एवं जाति व्यवस्था के कारण, जो ऊंच-नीच, छुआछूत आदि असमानतावादी व्यवस्था थी । उसे समाज एवं राष्ट्रीय विरोधी करार देते हुए उसे दूर करने का आह्वान किया, ताकि राष्ट्रीय एकजुटता कायम की जा सके ।

                    "राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए आगे आपने कहा कि उपजातियां से भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा । सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राह्मणवादी जाति-पांति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा । वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है । जो समस्त भारतीय समाज को नष्ट कर रहा है ।

"पंक्ति तोड़ो आंदोलन"

                    उसे समय छत्तीसगढ़ में शादी वगैरह के कार्यक्रम में हर जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में भोजन के लिए बैठाया जाता था । जिसे आपने "पंक्ति तोड़ो आंदोलन" चलाकर इस असामाजिक प्रथा को समाप्त करवाया । जो आगे चलकर सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में "मील का पत्थर" साबित हुआ ।

"किसबिन नाचा बंद करवाया"

                    उस समय जाति विशेष में अपने ही परिवार की बहन बेटियों से नाच-गाना आदि खुलेआम करवाया जाता था । इस तथाकथित "किसबिन नाच" को आपने कठिन प्रयास से बंद करवाया । आपने समाज से बेरोजगारी दूर करने के लिए "ग्राम उद्योग संघ" की भी स्थापना की । आपने गांव-गांव में विभिन्न प्रकार के ग्रामीण उद्योगों की स्थापना की । इस अभियान में तेल पेराई उद्योग , घानी निर्माण, हथकरघा, धान कुटाई, साबुन आदि के उद्योग स्थापित किए एवं मार्केटिंग भी करवाए ।

"शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास"

                सन् 1958 -59 में आपने सिलियरी में जनता हाई स्कूल की स्थापना की । जिससे ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को भी शिक्षा का अवसर मिला । आज वही स्कूल "खूबचंद बघेल शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय" के नाम से जाना जाता है ।

"विभिन्न सामाजिक राजनीतिक कार्य"

                सन् 1931 से 1969 तक आप आजीवन सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष में पूरी तनमयता के साथ मशगूल रहे । सन्  1946 की अंतरिम सरकार में अपने संसदीय सचिव का दायित्व भी संभाला था ।

                आप आप रवि शंकर शुक्ल की जन विरोधी नीतियों से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश जी के समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए । सन 52 और 57 में आप विधायक भी निर्वाचित हुए । सन् 54 के बाद अपने समाजवादी आंदोलन की बागडोर भी छत्तीसगढ़ में संभाली । समाजवादी आंदोलन में आपके प्रमुख साथी ठाकुर प्यारेलाल सिंह, विश्वनाथ यादव एवं तामस्कर जी एडवोकेट रहे, ये सभी गांधीवादी थे ।

"जनहित के मुद्दों पर संघर्ष से आप कभी भी पीछे नहीं रहे"

                    आप आप जनहित के मुद्दे पर सदैव संघर्षरत रहे । चाहे छुई-खदान तहसील का गोली चालान कांड रहा हो या 1961 में आदिवासियों पर लोहांडीगुड़ा में गोली चालन कांड रहा हो या तकाबी के माध्यम से किसानों को लूटने का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने सरकारी षडयंत्र के विरुद्ध खुलकर पूरी ताकत से अपनी आवाज उठाई ।

                   कैलाश नाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व काल में भी आप जनहित के मुद्दे पर सदैव सरकार से टकराते रहे। चाहे सायना बांध घपला कांड हो या 1961 में धान निर्यात पर प्रतिबंध का मुद्दा रहा हो । इन सभी मुद्दों पर आपने बृजलाल वर्मा एवम् हरि प्रेम बघेल आदि के सहयोग से "धान सत्याग्रह आंदोलन" चलाया ।

"बस्तर का बहुचर्चित कांड"

                   1966 में आदिवासी राजा एवम् बस्तर नरेश प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित 300 आदिवासी जनों की हत्या के विरोध में अपने द्वारिका प्रसाद मिश्र से खुला विरोध व्यक्त किया था ।

"किसानों को उनका हक दिलवाया"

                    भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना के समय जिन किसानों की जमीन गई थी । उन्हें अनिवार्य रूप से नौकरी न देने पर आपने आंदोलन चलाकर किसानों को उनका हक दिलाया । इसी तरह हीराकुंड  बांध, रायगढ़ में भी किसानों को उनका हक दिलाने तक आपने संघर्ष किया ।

"छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना एवम् उनका संघर्ष"

                सन 1946 में ही आपने कांग्रेस की बैठक में छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव की चर्चा की थी । छत्तीसगढ़ के विकास के मुद्दे को लेकर अपने सन् 1948 में शुक्ला मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दे दिया था ।

                छत्तीसगढ़ के मुद्दों को लेकर "क्षुब्ध छत्तीसगढ़" शीर्षक से लेख लिखकर "राष्ट्र बंधु" पेपर में छपवाया भी था । जिसमें छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का मुद्दा मजबूती के साथ आपने उठाया था ।

                उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ के सोए स्वाभिमान को जगाना, एवं उसके गौरव गरिमा को उजागर करना, उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त कराना ही उनका लक्ष्य है ।

                 वे विभिन्न सभाओं एवं बैठकों एवं लेखों के माध्यम से छत्तीसगढ़ की अस्मिता और उसके मुद्दे को उठाते रहे ।

                1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रूप देने के लिए जुझारू एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन राजनांदगांव में आयोजित भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन भी किया गया । सम्मेलन में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव भी पारित किया गया ।

                25 सितंबर 1967 को रायपुर में छत्तीसगढ़ महासभा को पुनर्गठित किया गया । सर्वसम्मत से छत्तीसगढ़ महासभा का नाम बदलकर "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" स्वीकार किया गया । परसराम यदु,  रेशमलाल जांगड़े, हरि ठाकुर, रामाधार चंद्रवंशी आदि सामाजिक राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं ने आपकी आवाज को अपनी भी आवाज दी । इस लक्ष्य में आपको बृजलाल वर्मा एवं राजा नरेश चंद्र सिंह का भी समर्थन एवं सहयोग मिला ।

                इस आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से घबराकर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था ।

"छत्तीसगढ़िया के मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण"

रवि शंकर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति को अपने छत्तीसगढ़िया की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए बताया था कि, 

                "जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है और छत्तीसगढ़ के मान सम्मान को अपना मान सम्मान समझता है एवम् छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढ़ी है, चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत या जाति का हो ।"

                    आजादी मिलने के बाद ही उन्हें तत्कालीन सरकार के रवैए से छत्तीसगढ़ की उपेक्षा का एहसास हो गया था । उन्होंने देखा कि शासक वर्ग छत्तीसगढ़ के शोषक वर्ग को सहयोग के साथ बढ़ावा भी दे रहा है एवं छत्तीसगढ़ की शोषित पीड़ित जनता को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया है ।

                वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर आपके बारे में लिखते हैं कि, प्रचारतंत्र का स्वतंत्र जाल न होने के कारण डॉक्टर बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया जिसके कि वे हकदार थे ।"

                1965 में भीषण अकाल के समय "टाइम्स पत्रिका" की अमेरिकी महिला पत्रकार लिखती हैं कि, मेरे दो घंटे तक डॉक्टर बघेल का साक्षात्कार लेने के बाद, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में भी ऐसे जुझारू कर्मठ नेतृत्व हो सकते हैं, इस बात पर मुझे आश्चर्य हुआ ।

                22 फरवरी 1969 को आप अपनी विशाल सामाजिक, राजनीतिक विरासत छोड़कर हम सबसे विदा हो गए ।

                छत्तीसगढ़ सरकार आज प्रतिवर्ष 2 लाख का पुरस्कार अपने छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र डॉक्टर खूबचंद बघेल के नाम पर प्रदान करती है ।

                सच तो यह है कि आज अर्द्ध शताब्दी के बाद भी समाज के इस संघर्षशील, त्यागी, जागरूक, समाज समर्पित व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । उन्हें सिर्फ "छत्तीसगढ़ का स्वप्न दृष्टा" कहना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा । वह एक ओर जहां समर्पित व्यक्तित्व के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, वहीं इन दोनों अलंकरणों से हटकर आप सर्वप्रथम "सामाजिक न्याय को प्रतिबद्ध एक सामाजिक योद्धा" भी थे, जो इनकी वास्तविक विरासत मनाई जानी चाहिए ।

                आपके यशस्वी पौत्र चार्टर्ड अकाउंटेंट  विष्णु दत्त बघेल जी आपके आंदोलन और संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तरह से संकल्पित है एवं उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने में आप सतत प्रयासरत भी हैं ।


लेखक-

साहु रामलाल गुप्ता,

मोबाइल 94077 64442.

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