क्‍या आरक्षण पाने वाले अपने समाज से न्‍याय करते है?

आरक्षण किसके लिए?
क्‍या आरक्षण पाने वाले अपने समाज से न्‍याय करते है?
·         संजीव खुदशाह
मोदी की भाजपा सरकार और आर आर एस ने ज्‍यो ही आरक्षण समीक्षा की बात कही वैसे ही आरक्षण लाभार्थी ( अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछडा वर्ग ) गहरी नींद से जाग उठे। उन्‍हे डॉं अंबेडकर याद आने लगे, समाजिक संगठन याद आने लगा, वे लोग जो समाज के अधिकारों लिए लड़ते है, अम्‍बेडकरी आंदोलन की अलख जगाये हुये है, याद आने लगे। यहां प्रश्‍न यह है की आरक्षण आखिर किसके लिए था। क्‍या आराक्षण इस लिए था की लोग आरक्षण का लाभ लेकर अपने ही समाज को हिकारत की नजर से देखे। आरक्षण का अधिकार देने वाले डॉं अंबेडकर को धिक्‍कारे।
इस बीच खबर आयी की प्रमोशन में आरक्षण भी खत्‍म कर दिया गया। इस उत्‍तरप्रदेश सरकार ने लागू भी कर दिया तत्‍पश्‍चात कई अफसर, कलर्क डिमोट होकर फिर से चपरासी बना दिये गये।। इस से देश भर के आरक्षण लाभार्थियों में मानो भूचाल सा आ गया। इसका प्रभाव देश भर में पडा जो आरक्षण लाभार्थी हर साल वैष्‍णव देवी, सीर्डी आदी में भारी भरकम रकम चढाते थे, अचानक उन्‍हे अंबेडकरी संगठन याद आने लगे। कुछ लाभार्थी नये आरक्षण बचाव संगठन बनाने लगे। फेसबुक वाटसएप में ऐसे आरक्षण बचाव ग्रुप की बाढ सी आ गयी। ये आरक्षण लाभार्थी एकाएक समाज सेवक की भूमिका में आ गये। ये वही आरक्षण लाभार्थी है जिन्‍होने समाज को धोका दिया था।
1          जब अंबेडकर वादी संगठन चंदा मांगने आते थे, उन्‍हे भगा दिया करते थे या उनके लिए 10 रूपये मुश्किल  से निकलता था। वहीं दुर्गा गणेश के चंदा वे हजारों में देते थे।
2          अपने आपको आरक्षित वर्ग का कहने में शर्म महसूस करते थे। और रोज अपने ही समाज को गाली दिया करते थे।
3          मोबाईल पर भजन आदी ब्राम्‍हणवादी रिंगटोन रखते थे ताकि उनके सवर्ण मित्र खुश रहे।
4          अम्‍बेडकर को गाली बकते थे, एवं अपने बच्‍चों को अपनी जाति और उनके बारे में नही बताते थे ।
5          अपनी पत्‍नी से हर हफ्ते ब्राम्‍हणवादी व्रत रखवाते थे ताकि अपने आप को सवर्ण के करीब बताया जा सके।
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प्रश्‍न ये उठता है की क्‍या समाज के ऐसे गद्दारों के लिए आरक्षण की व्‍यवस्‍था डॉं अम्‍बेडकर ने प्रदान की थी। बिल्‍कुल नही डॉं अम्‍बेडकर जीते जी ऐसे लोगो को पहचान गये थे इन्‍ही के लिए उन्‍होने कहा था मुझे मेरे लोगो ने ही धोखा दिया। आईये जाने की बाबा साहब ने आरक्षण की व्‍यवस्‍था क्‍यो‍ की।
1        आरक्षण पाकर व्‍यक्ति अपने समाज का उत्‍थान करे न की सिर्फ अपने परिवार का उत्‍थान करे और समाज से नफरत करे।
2        अपने समाज का गौरवशाली इतिहास को जाने खोज करे, या ऐसा करने वाले व्‍यक्ति को आर्थिक मदद करे। इसकी जानकारी से अपने बच्‍चों को अवगत कराये।
3        समाज को अपने शोषको एवं उद्धारको में फर्क करना बताऐ।
4        समाज को धार्मिक अंधविश्‍वास से मुक्ति दिलाये।
लेकिन आरक्षित वर्ग लाभ लेकर अपने जिम्‍मेदारी से मूह मोड लिया। यहां पर बात सिर्फ आरक्षण लाभार्थी की नही है हर वह मदद जो सरकार द्वारा जातिय आधार पर मिलती है के बारे में है। चाहे व्‍यक्ति व्‍यापार में हो या पढ़ रहा हो हर स्‍तर पर उसे जातिय आधार पर रियायत या सहूलियत मिलती है। ये बाते उन सभी व्‍यक्तियों पर बराबर लागू होती है।
 अभी ये मौकापरस्‍त लाभार्थी अल्‍प समय के लिय जाग गये है। जैसे ही उनका हित सुरक्षित होगा वे फिर सो जायेगे अपने ही समाज को, बाबा साहेब को गाली बकना चालू कर देगे। मेरा प्रस्‍थान बिन्‍दु यहीं है आप सीने में हाथ रख कर कहे की क्‍या वास्‍तव में आरक्षण पाने वालों ने अपने समाज के साथ न्‍याय किया है?

जयभीम यात्रा

जयभीम यात्रा

भारत में सफाई कर्मचारियों ने, एक देश व्यापी यात्रा शुरू की है - भीम यात्रा  एक दर्द और पीड़ा की यात्रा। यह यात्रा देश को और सरकार को यह बताने के की जा रही है की शुष्क शौचालय, नाली और सेप्टिक टैंक में सफाई कामगारों की हत्‍या बंद की जाय । भीम यात्रा 10 दिसंबर 2015 से 30 राज्यों में 500 जिलों में 125 दिनों के लिए देश भर में की जायेगी। हमारे महान नेता एवं उद्धारकर्ता डॉ भीम राव अंबेडकर की 125 वीं जन्म शताब्दी की पूर्व संध्या पर 13 अप्रैल 2016 को दिल्ली में खत्म हो जाएगा। हमारे माननीय सांसद जब जश्‍़न मना रहे होते है तब देश भर में से लाखों सफाई कर्मचारी मरने के लिए सीवर लाईन और मैला ढोने के लिए मजबूर किया जाते है। सफाई कर्मचारियों का जीवन जीने और मौत तक के अधिकारो को छीना जा चुका है।
भीम यात्र क्‍यों ?
1982 के बाद से हम इस हिंसा और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। हम संगठित और एकजुट होकर इस क्रूरता के खिलाफ अभियान चलाया। हम चाहते है की जातिय भेद भाव बंद हो, शुष्क शौचालय चलाने वालों के खिलाफ कार्यवाही हो।
1993 में संसद ने मैला ढोने का कार्य और शुष्क शौचालय (निषेध) अधिनियम 1993  पारित किया इस कानून के अनुसार एक वर्ष की सजा या 2,000 रुपये का जुर्माना या दोनो सजा देने का प्रावधान रखा गया। लेकिन यह कानून लागू नहीं किया गया और 20 वर्षो के दौरान कोई प्रतिबद्धता नही दिखाई दी। सरकार ने इस जघन्य प्रथा को खत्म करने के लिए बहुत से झूठे वादे किए। कुछ नहीं हुआ। हम लगातार सरकार के सर्वेक्षण और योजनाओं के झूठ और पाखंड सामने लाते रहे है । सन 2000 में सरकार केवल 679,000 मैला ढोने वालों की गिनती की, जबकी हम बेतरतीब ढंग से चुने हुये राज्यों और जिलों में 13 लाख से ज्‍यादा मैला ढोने वालो की पहचान की । प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों ने इस शुष्‍क शौचालय को खत्‍म करने की कई बार समय सीमा तय की पहले 1995, उसके बाद 2000, उसके बाद 2003, फिर 2005, फिर 2010 और उसके बाद 2012 ... लकिन कुछ भी नहीं बदला!
2003 में हम सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। सरकार अपनी झूठी राय पर कायम रही । पहले तो मैला ढोने वाले के अस्तित्‍व से ही इनकार किया जाता रहा। जब हमने साक्ष्‍य के तौर पर फोटो आदी पेश किया तो सरकार ने उन स्‍थानों को नष्‍ट करने का झूठा अनुपालन किया।
यह बताना जरूरी है की हमने नागरिक समूह, जन नेताओं के समर्थन 2010 में बस यात्रा किया गया था जिसे समाजिक परिर्वतन यात्रा कहा गया, यह ऐतिहासिक बस यात्रा पूरे देश भर में की गई । जिन महिलाओं और पुरुषों ने मैला ढोने का काम छोड़ा वे इस यात्रा का नेतृत्व किया और एक विशाल जनसभा के साथ दिल्ली में यात्रा समाप्त हुई। इस यात्रा ने राष्‍ट्र का ध्‍यान सफाई कर्मचारियों की समस्‍या ओर दिलाया।
इसके अलावा इन सामाजिक कार्यों से, हम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रालयों, सांविधिक निकायों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को ज्ञापन प्रस्तुत की। ज्ञापन 1993 अधिनियम के कार्यान्वयन और एक पुनर्वास पैकेज के लिए मांग की। एनएसी यात्रा, सामाजिक न्याय के तत्कालीन मंत्री के बाद 31 मार्च 2012 से मैला ढोने का अंत करने के लिए 23 अक्टूबर 2010 को एक प्रस्ताव पारित किया और एक चर्चा के लिए आमंत्रित किया। हम 30 दिसंबर 2010 पर उनसे मुलाकात की और हम इस यात्रा के दौरान एकत्र की गई राष्ट्रव्यापी डेटा प्रस्तुत की। एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण, अधिनियम की समीक्षा के पुनर्वास पैकेज और स्वच्छता के समाधान को संशोधित करने के लिए - इस बैठक के बाद सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय चार कार्यदलों की स्थापना हुई, जो 24 और 25 जनवरी 2011 को राष्ट्रीय परामर्श बुलाई। बजट सत्र की शुरुआत में संसद में अपने भाषण में भारत के राष्ट्रपति मार्च, 2012 में मैला ढोने के निषेध के लिए एक नया विधेयक के लिए मसौदा घोषणा की। भारत सरकार ने 'मैला ढोने वालों के रूप में रोजगार का प्रतिषेध और उनके पुनर्वास अधिनियम 2013' नई पारित कर दिया सितंबर 2013 में और दिसंबर 2013 में सरकार ने अधिसूचना जारी की।
इसके अलावा, 12 साल के लंबे अंतराल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हमारी याचिका क्रमांक 583 सन 2003 परदिनांक 27 मार्च 2014 को निर्णय पारित किया जिसमें सभी राज्य सरकारों के निर्देशन के संघ और संघ शासित प्रदेशों को निहित प्रावधानों पर उचित कार्यवाही एवं क्रियान्‍वयन करने का निर्देश दिया। साथ में मेनहोल सिवर लाईन में सफाई कर्मचारियों की मौत रोकने के लिए भी उचित कदम उठाने को कहा। मौत होने की स्‍थ्‍ाति में में पीडित परिवारों को 10 लाख रूपय का मुआवजा देने का निर्देश दिया। किन्‍तु विगत एक साल में कहीं पर भी इस  अधिनियम तथा सूप्रीम कोर्ट के निर्देश का पालन नही किया गया।
सरकार मैला ढोने वालों के रोजगार का प्रतिषेध और उनके पुनर्वास अधिनियम 2013 और उच्चतम न्यायालय के आदेश को लागू करने में पूरी तरह से लापरवाह है। लोगों की मृत्यु होती है, प्राथमिकी दायर नहीं कर रहे हैं। केवल भारी दबाव और आंदोलन के बाद, प्राथमिकी दर्ज की जाति है वह भी मौत का कारण साधारण बताया जाता है। न ही अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अत्‍याचार अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया जाता है । संविधान के इस स्पष्ट उल्लंघन नाली और सेप्टिक टैंक में सफाई कर्मचारियों का जीवन खत्‍म हो रहा है। सरकार इनके मौत को आमंत्रित कर रही है। हमें एक जुट होकर इन सबके खिलाफ लडना होगा। सभी प्रगतिशील, अंबेडकरवादी एवं समाजिक संगठनों व्‍यक्तियों से निवेदन है की वे  इस यात्रा का हिस्सा बने
" हमारी लडाई धन के लिए नही है न ही सत्‍ता के लिए है हमारी लडाई मानव की स्‍वतंत्रता और व्यक्तित्‍व के उद्धार के लिए है। "डॉ बी आर अंबेडकर
4 जनवरी 2016 को यात्रा छत्‍तीसगढ प्रवेश करेगी कोरबा बिलासपुर होते हुये 5 जनवरी को रायपुर पहुचेगी यहां से ओडिसा के लिए महासमुन्‍द होकर रवाना होगी ।
निवेदक
सफाई कर्मचारी आंदोलन, नई दिल्ली
सहयोगी - दलित मुव्‍हमेन्‍ट ऐसोसियेशन, छत्‍तीसगढ़, रायपुर


आम्बेडकरी आंदोलन का अंर्तद्वंद

आम्बेडकरी आंदोलन का अंर्तद्वंद
(समाजवादी, प्रगतिशील एवं कम्युानिष्ठ  आंदोलन के परिप्रक्ष्यं में)
संजीव खुदशाह
पिछले दिनों जाति उन्मूलन आंदोलन का गठन किया गया। तथ्य है की कम्युनिष्ठ विचारधारा के एक धडे़ ने इसका निर्माण किया है। कामरेड तुहीन ये कहते है कि कम्यु‍निष्ठ ने पूर्व में जाति को कभी समस्यों की तरह नही देखा। वे केवल वर्ग को ही समस्या के रूप में देखते रहे। जो की एक गंभीर भूल थी। हम अब ये भूल को सुधारना चाहते है। वे आगे कहते है की जाति व्ययवस्था को नष्ट किये बिना भारत में समानता का लक्ष्य नही पाया जा सकता ।
जाति उन्मूहलन आंदोलन मूलत: एक गैर-राजनीतिक संगठन है। इसके संस्थापक ये आहवान करते है की सभी आंम्‍बेडकरवाददी, समतावादी, प्रगतिशील व्यक्ति एवं संगठन जो जाति उन्मूलन चाहते है वे इस आंदोलन के सहभागी बने, क्योकि ये केवल राजनीतिक जरूरत नही बल्कि वर्तमान समय की जरूरत भी है।
रा‍ष्ट्रीय परिप्रेक्षय में भी देखे तो जाति व्‍यवस्‍था एक भयंकर समस्या  के रूप में खड़ी दिखती है जो भारत के विकास, उत्थान के लिए एक बाधा है। ये भारत की सामाजिक एकता में बाधाकार्ता तो है ही, साथ साथ आपसी कटुता बढ़ाने का भी एक साधन है। आजकल राजनीतिक दल ऐसी कटुता को हवा देकर मतो का धुवीकरण करते है।
रायपुर छत्तीसगढ. में जाति उन्मूदलन आंदोलन के तृतीय अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। ग़ौरतलब है की जाति उन्मूलन आंदोलन की रायपुर इकाई का बागडोर आम्बेडकर वादियों ने थामा हुआ है। और वे मुस्तैदी से इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबध्द है। दरअसल इस सम्मेलन के बाद कुछ आम्बेडकर वादियों के बीच बहस चल पड़ी है। वे कहते है की यह कम्युनिष्टों का एक छल है। कम्युानिष्ट  अब हांसिये पर है और वे अम्बेडकर और जाति के मुद्दे को भुनाना चाहते है। जाति उन्मूलन जैसे मुद्दों को उठाकर पीडि़त वर्ग को आकर्षित करना उनका मकसद है ताकि सत्‍ता में ब्जाह किया जा सके। उसी प्रकार एक साथी कहते है कि दलित आंदोलन के दो प्रकार के शत्रु है एक प्रत्यक्ष शत्रु दुसरा अप्रत्यक्ष(छुपे हुये) शत्रु वे कहते है कांग्रेस और कम्युंनिष्ट छीपे शत्रु है और भाजपा प्रत्यक्ष शत्रु, यदि मुझे इनमें से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मै भाजपा को चुनूगां। वे इसके पीछे तर्क देते है की प्रत्यक्ष शत्रु से अप्रत्यक्ष शत्रु ज्यादा खतरनाक होता है।
कुछ का कहना है कम्युनिष्टपार्टियों में शीर्ष नेतृत्वु हमेशा सवर्णो के हाथ रहा है और वे कम्यु‍निष्ट  आंदोलन में अवर्ण वर्ग के कार्यकर्ताओं को दरी उठाने तक सीमित कर रखा है। वे अपनी पार्टी में उसी प्रकार पिछड़ी जाति‍ के कार्यकर्ताओं का शोषण करते है जिस प्रकार भाजपा आदी अन्यअ बड़ी पार्टियों में होता है। अत: दोनो में फर्क नही है।
यह बहस दो मुख्यह प्रश्नों को जन्मे देती है।
1. क्या जाति उन्मूलन और आंबेडकर केवल आंबेडकरवादियों के मुद्दे है?
2. क्या आंम्बेडकरवादियों में भी एक ऐसा वर्ग है जो येन केन प्रकारेण फासीवादियों दक्षिण पंथी पार्टियों की मदद के लिए आतुर है?
पिछले तीन सालों में हुये घटना क्रम पर गौर करे तो पाते है की आंबेडकरवाद में भी फासीवाद और कट्टरवाद का ग्राफ़ बढ़ा है। जिस त्याग बलिदान के लिए, तर्क और सहिष्णुता के लिए आंबेडकरवाद जाना जाता है। उसे तथाकथित कुछ छदृम आम्बेडकरवादियों नेनेताओं ने लांछित करने में कोई कसर नही छोड़ा। चाहे मामला उदित राज का हो या रामदास आठ वाले का या रामविलास पासवान या मायावती या अजय सोनकर शास्त्री । सभी ने अम्बेडकरवाद को अपने पैरो तले कुचला है। और वे इसे जायज़ ठहराने के लिए बेतुके तर्क देने, कट्टरवाद बढ़ाने में कोई कसर नही छोड़ते है। वे जान बूझ कर ऐसे कदम उठाते है की प्रगतिशील शक्तियां कमजोर हो जाये। मैने देखा है दलित आंदोलन से जुडे नेता या आंदोलनकारी हमेशा कांग्रेस की ही बुराई करते है इनका लक्ष्य उनके वे लोग जो परंपरागत तौर पर कांग्रेस में वोट देते है। उनकी बातों से प्रभावित होकर ये लोग कांग्रेस को तो वोट नही देते न ही उन अंबेडकर वादियों को वोट देते है। ये वोट सीधे दक्षिण पंथी पार्टी को जाता है। यानी वे किसी न किसी रूप में दक्षिण पंथी पार्टियों को मदद पहुचाते है। आज आम्बेडकर मिशन अलग थलग पड़ चुका है। जिस अंबेडकर मिशन के बदौलत बहुजन समाज पार्टी और आर पी आई खड़ी हुई थी। आज इन पार्टीयों का हस्र किसी से छि‍पा नही है। अब समय है की आम्‍बेडकर मिशन में नई जान फूका जाय वे अपने दोस्त् और दुश्‍मन की सही पहचान करे। उनके कदम से किसे फायदा हो रहा है किसे नुकसान, उसके दूरगामी परिणामों का विश्लेषण किया करे। साथ ही ऐसे छदम मौकापरस्त, विचारक और नेताओं की पहचान भी करना होगा जो दीमक की तरह आम्बेडकर मिशन को खोखला करने में तुले हुये है।
वही पर डॉं आम्बेडकर और कम्यु्निष्ट के बीच सबंध को कमतर आंकना एक भूल होगी। कम्युनिष्टो के जमीन और मजदूर आंदोलन को, समता आंदोलन में उनके योगदानो को याद करना होगा। इन सभी में डॉं आम्‍बेडकर का जर्बजस्त समर्थन रहा है। दरअसल वक्त आ गया है की आम्बेडकरवादी समस्या को बड़े फलक पर देखे। समता आंदोलन के अन्य  विकल्प को शंका की नजर से न देखे क्यो कि अम्बेडकर आंदोलन अपने लक्ष्य से आज भी कोशो दूर है। उसे अपनी जमीनी हकीकत को समझना होगा। ऐसे बहस को बढ़ावा देकर कही अंजाने या जाने में फासीवादियों की मदद तो नही पहुंचाई जा रही है।
इस विमर्श का एक अन्य  पहलू यह भी हे की जिस नजरिये से ये अंबेडकरवादी कम्युरनिष्टो  को देखते है उसी प्रकार छोटी अतिदलित, महादलित (आंबेडकरवाद से महरूम) जातियां भी अंबेडकर वादियों को उसी दृष्टिकोण से देखती हे। वे भी अंबेडकर वादियों के उनके साथ हुये कड़ुवे अनुभव साझा करती है। शंका की निगाह से देखती है। मै इसे आम्बेडकरवादियों की हार के रूप में देखता हूँ। पहले तो ये की वे समस्त  दलित जातियों में ही आम्‍बेडकर मिशन को पहुचाने में नाकाम रही है दूसरा अन्य समतावादी, प्रगतिशील संगठनों में आम्‍बेडकर के महत्व को बताने की कोशिश नही की गई। इसका परिणाम यह हुआ की अम्बेयडकर की विचार धारा चार-पांच दलित जातियों में सिमट कर रह गया। उनका मिशन भी इन्ही जातियों में घूमता रहा। जबकि इनका ये फर्ज था की वे अन्य दलित जातियेां की बस्तियों में जाते उनके दुख दर्ज साझा करते, अम्बे्डकर के मिशन से उन्हे् जोड़ते। लेकिन ऐसा नही हुआ। उल्टे‍ इन अतिदलित जातियों को दलित कैन वास से ही भुला दिया। फलस्वरूप ये उपेक्षित दलित जातियां दक्षिण पंथी एवं फासीवादियों के चंगुल में चली गई। अति दलित या महादलित जातियों के रूप में अपना अलग अस्तित्वं खेाजने लगी।
जाति उन्मूलन को भी वृहद दृष्टि कोण से देखने की आवश्यकता है। सभी  प्रकार के अंधविश्वास, सभी प्रकार के भेद को मिटाने की आवश्यकता है। जाति उन्मूलन का मकसद ये नही होना चाहिए की एक दमनकारी व्यकवस्था को खत्म  करके नई दमन कारी व्यलवस्था को शुरू करना। इसलिए अंधविश्वास, रूढीवाद, पुरूष सत्तात्मक मौहोल के रहते अर्तजाति विवाह जाति टूटने का एक सुखद भ्रम तैयार करती है। दरअसल हमें अर्तजाति विवाह को जाति उन्मूमलन का प्रतीक या सोपान मानने की गलती नही करनी चाहिए।
मेरे इस लेख का मकसद किसी व्यक्ति विशेष या संस्था विशेष को कोसना नही है न ही किसी पार्टी या विचारधारा विशेष का पक्ष लेना है। मै चाहता हूँ अम्बे्डकर मिशन आत्म विशेलषण करे की क्या उसे अपने इतिहास के सीख लेने की जरूरत है? क्या  वह अपने हितैशी और विरोधी में फर्क करने का पहल कर सकता है? इस मिशन को यह भी विचार करना होगा की जिस कट्टरता के विरोध में तैयार हुआ कही उसी कट्टरता की ओर तो नही जा रहा है? आज जरूरत है की समान विचारधारा के लोग एक साथ अपना कार्य करे। एक दूसरे के मुद्दे को समझने का प्रयास करे। क्यो कि कहीं न कहीं समान विचारधारा के साथियों का लक्ष्य  एक ही है। ये अपने लक्ष्य  तक नही पहुँच पाया इसका कारण है समान विचारधारा वालों का आपसी अंर्तद्वद। आपसी अंतद्वंद का मतलब है आप अपने मिशन के प्रति समर्पित नही है।


देश को गुलाब कोठारी जैसे छद्म प्रगतिशील से आज़ाद होना पड़ेगा

चीरफाड़/शव परीक्षा
देश को गुलाब कोठारी जैसे छद्म प्रगतिशील से आज़ाद होना पड़ेगा
संजीव खुदशाह
दैनिक पत्रिका दिनांक 30 अगस्‍त 2015 को प्रकाशित लेख ‘’आरक्षण से अब आज़ाद हो देश’’ जिसके लेखक है श्री गुलाब कोठारी की प्रतिक्रिया में लिखी गई है। ग़ौरतलब है की यह लेख पत्रिका की जैकेट स्‍टोरी (मुख्‍य पेपर के मुख्‍य पत्र पर) के रूप में प्रकाशित हुआ था।
 इस लेख को प्रारंभ करने के पहले बता दू की श्री  गुलाब कोठारी एक व्‍यवसायी है वे पत्रिका (पूर्व में इसका नाम राजस्‍थान पत्रिका था) के मालिक एवं प्रधान संपादक है। वे जैन धर्म से ताल्‍लुख रखते है इस लिहाज से वे अल्‍पसंख्‍यक की श्रेणी में आते है।
विवादित लेख का मुख्‍य शीर्षक है जातियों के आंदोलन की नई रणनीति हमें भी जोड़ों या खत्‍म करो जातिगत आरक्षण व्‍यवस्‍थाश्री गुलाब कोठारी को  आरक्षण से आपत्‍ती है वे कहते है अच्‍छी योग्‍यता वाले युवा सरकारी नौकरी से परहेज क्‍यो करने लग गये? उनका पलायन  भी होने लगेगा तो सरकार और देश के पास सिवाए ‘’ब्रेन ड्रेन’’ का रोना रोने के क्‍या रह जायेगा? फिर आरक्षित वर्ग में भी सभी को इसका लाभ भी नही मिल पा रहा है।
श्री कोठारी जी यहां एक औसत दर्जे के ब्राम्‍हण वादियों की भाषा बोल रहे है। शायद उन्‍हे  नही मालूम की आई ए एस की परीक्षा में अधिक अंक पाने वाले आरक्षित प्रत्‍यासी को नौकरी नही मिल पाती क्‍योकि ओरल में सामान्‍य वर्ग को ज्‍यादा अंक दे दिये जाते है। वो सिर्फ इसलिए की आरक्षित वर्ग को कमतर आंका जा सके। यदि सवर्ण ब्रेन ड्रेन नही है तो बताएं सर्वणों ने आज तक कौन सा अविष्‍कार किया है सिवाए ऊँच नीच छुआ छूत के। आरक्षित वर्ग में किसको लाभ मिल रहा है किसे नही। इसकी चिन्‍ता आपको क्‍यो हाने लगी कोठारी जी ? आपकी छाती में सौंप इसलिए लोट रहा है न कि एक पिछड़ा दलित तरक्‍की कर रहा है।
गुलाब कोठारी का दुख है की आरक्षण विरोध में कौन साथ देगा आरक्षण वाले तो आधे है।
कोठारी जी मनु का आरक्षण पाकर प्रधान संपादक तो आप बन गये लेकिन सिर्फ लिखते रहे, पढ़ने की जहमत आपने नही उठाई मै यहां बतादू की SC ST OBC &  MINORITY मिलाकर आरक्षित वर्ग 85% होते है वर्तमान जनगणना के आधार पर। भले ही इन्‍हे आज 50% आरक्षण मिल रहा हो। लेकिन आप तो आरक्षित वर्ग को ही 50% बता रहे हो।
कोठारी जी लिखते है कि जो काम 700 सालों से मुगल नही कर पाये, 200 सालों से अंग्रेज नही कर पाये वही उजाड़ मात्र पांच मिनट में पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह कर गये। यह कांटा कोई बौध्दिक तर्क से निकलने वाला कांटा नही है। देश बांटने का इतना सहज उपक्रम शायद इतिहास में अन्‍यत्र नही होगा। आरक्षण
कोठारी जी मनु ने 6,500 जातियों में बाँटा उनके धंधे भी आरक्षित किये तो आपको देश बटने का खतरा नही हुआ। लेकिन वर्तमान आरक्षण से देश बटने का खतरा दिख रहा है आपको। आपका दर्द ये है कि अंगरेज़ों के पूर्व लगभग 1700 वर्ष तक किसी आंक्रांताओं ने जाति प्रथा को नही छेड़ा इसलिए आप उन आंक्रांताओं के ग़ुलाम बनने के लिए तैयार थे, उनसे खुश थे। क्‍योकि आपके ग़ुलाम आपकी पकड़ में थे। लेकिन अँग्रेज़ काल में ही आपकी पकड़ ढीली पड़ने लगी जब साइमन कमीशन का कम्‍युनल एवार्ड आया जो अनुसूचित जाति और जनजाति आरक्षण का आधार बना बाद में मण्‍डल कमीशन आया जो पिछड़ा वर्ग आरक्षण का आधार बना। इसे आप देश को बांटने का आधार बता रहे है। मुझे तरस आता है आपकी बुध्‍दी पर और साथ-साथ आप ये धमकी भी देते है की ये कांटा बौध्दिक तर्क से नही निकलने वाला। याद रखिये कोठारी साहब आज भी अनारक्षित वर्ग भारत में सिर्फ 14.5% ही है तो क्‍या आप 85% आरक्षित वर्ग पर तलवार चलाऐंगे ?
हॉं ये बात सही कि अब ये बाते आप बौध्दिक तर्क से नही जीत सकते क्‍योकि आरक्षित वर्ग पढ़ लिख कर तर्क करना सीख गया है। आपके बेतुके तर्क का माकूल जबाब दे सकता है।
गुलाब कोठारी आरक्षण के विरोध में कुछ आंकड़े पेश करते है वे लिखते है ‘’देश को नुकसान हो रहा है अध्‍ययन के अनुसार नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने वाले पिछड़े छात्रों को फायदा तो हुआ पर यही निवेश अगर सामान्‍य छात्रों पर किया जाता तो देश को अधिक लाभ होता।
कोठारी जी ये अध्‍ययन कहां ओर किस ऐजेन्‍सी ने कराए है यदि ये बताने की जहमत उठाते तो अच्‍छा रहता।  आप ये बताई ये- वर्षो से मरीज़ के पेट में कैची तौलिया छोड़ने वाले डाक्‍टर किस वर्ग के है। जितने आई ए एस घोटाले में फसे है किस वर्ग के है?
आज 15% सामान्‍य वर्ग के लिए 50% आरक्षण लागू है। जबकि संख्‍या के मुताबिक 15% सामान्‍य वर्ग के लिए सिर्फ 15% ही भागीदारी होनी चाहिए लेकिन कोठारी जी 50% से मन नही भरता वे तो पूरा 100% चाहिए वो भी 15% के लिए।
वे एक गुमनाम तथाकथित दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद के हवाले से लिखते है कि सम्‍पन्‍न तबके को ही आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। पता नही ये कौन व्‍यक्ति है उन्‍हे ये तक नही मालूम पूरे आरक्षण का आज भी आधा प्रतिशत पद खाली रह जाता है। जिसे बैकलाग से भरने की कोशिश की जाती है। जो बाद में उपयुक्‍त उम्‍मीदवार नही है बता कर सामान्‍य वर्ग से भर दिया जाता है।
गुलाब कोठारी के लिए राह, अब आसान नही है  कई दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्‍पसंख्‍यक वर्ग एवं पूरा आरक्षित वर्ग उनके विरूद्ध कानूनी कार्यवाही का मन बना रहा है। साथ ही उनके समाचार पत्र पत्रिकाको पूरे देश में बहिस्‍कार की योजना बना रहा है। ताकि कोई ऐसा दुस्‍साहस न कर सके।
दर असल पूरे विश्व में वंचित समुदाय को आरक्षण देकर आगे बढाना कोई नई बात नही है। विकसित देश इसी सहारे आज विकसित हो पाये है। हमारे देश की तरह विदेशों में भी राज तंत्रसामंती तंत्र और पादरी पूरोहित तंत्र का खात्मा करने के लिए तथा वंचित वर्ग के अधिकार हड़पने का सिलसिला खत्म  करने के लिए आरक्षण जैसी सुविधाऐं दी गई हे। अमेरिका में इसे लिंडन जान्सवन के समय एफर्मेटिव एक्स न के नाम से प्रक्रिया शुरू की गई। तब जाकर अमेरिका महाशक्ति बन सका। इसी प्रकार फ्रांस में डिप्रेस्ड क्लास के नाम से तो कनाडा और यूरोप में अलग अलग नाम से यह आरक्षण व्यवस्था लागू की गई। लेकिन इसके पीछे वही सिद्धांत है जो हमारे यहां आरक्षण व्यवस्था  के लि‍ए है। कुछ देशों में ‘’ तरजीही नि‍युक्तियां ’’ नाम से तो कहीं ‘’रिवर्स डिस्क्रमनेशन ’’ के नाम पर आरक्षण लागू कर देश को तरक्की  पर लाने की कोशिश हो रही है। बात यही तक नही रूकती बडी बडी मल्टी नेशनल कम्पनियां प्रतिवर्ष अपने कर्मचारियों का एक कम्युनल रिर्पोट भी  प्रकाशित करती है कि किस जाति या समुदाय का व्यक्ति कितनी संख्या में किस पद पर कार्यरत है। फेसबुक सहित कई कम्पनियाँ ऐसी रिर्पोट पेश करती रही है। ताकि भाई भतिजा वादबैक डोर एन्ट्री‍ पर रोक लगे तथा जिसकी जितनी संख्या उसकी उतनी भागी दारी के सिद्धांत पर संतुलन बनाया जा सके। ये विदेशी कम्पनियाँ ऐसा करने में गर्वाविंत महसूस करती है।

इस लेख मे संविधान का मज़ाक उड़ाया गया
वे लिखते है की स्‍वतंत्रता के बाद हमारे ही प्रतिनिधियों ने हमारे ज्ञान की जमकर धज्जियाँ उड़ाई। संविधान को धर्म निरपेक्ष कहकर हमारी संस्‍कृति के साथ भौड़ा मज़ाक ही किया । शासन में धर्म का प्रवेश वर्जित हो गया। हमारी संस्‍कृति का आधार आश्रम व्‍यवस्‍था तथा इसी के साथ वर्ण व्‍यवस्‍था रही है।
आश्‍चर्य है कि आखिर किस बल पर कोठारी जी संविधान के विरूद्ध ऐसी बाते लिखते है। उनके विरूद्ध देश द्रोह का मुकदमा दायर हो सकता है। उनकी न्‍यूज पेपर पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। दरअसल उनका असली  दर्द यही है की संविधान को धर्म निरपेक्ष नही रखा जाना था। इसे हिन्‍दू धर्म से जोड़ा जाना था। ताकि पिछड़ा को पिछड़ा दलित को दलित और अल्‍पसंख्‍यक को और अल्‍पसंख्‍यक रखा जा सके। उन्‍हे वर्णाश्रम जाति व्‍यवस्‍था  जिन्‍हे वे अपनी महान संस्‍कृति मान रहे है, टूटने का भय सता रहा है।
वे आगे लिखते है संविधान में आरक्षण का जो विष बीज बोया गया था वह अब वट वृक्ष बनकर पनपने लगा है।
ये वाक्‍य संविधान के विरूद्ध घोर अपमान जनक है। आरक्षण के विरोध में अपना एक तर्क हो सकता है लेकिन सीधे सीधे संविधान को नीचा दिखाने का प्रयास आजद भारत में पहली बार इस तरह पढ़ने मिला। यह एक प्रकार से देश द्रेाह का मामला है।
कोठारी जी सीधे-सीधे ये क्‍यो नही कहते मै संविधान को नही मानता। आप कहते है संविधान में आरक्षण का विष बोया गया। आपको मालूम भी है आरक्षण क्‍यो मिला। कोठारी जी लिखने के साथ थोड़ा पढ़ने की जहमत उठाते तो बेहतर होता। मै आपको बता दू की आरक्षित वर्ग को आरक्षण किसी एहसान के तले नही मिला है। आज़ादी के पहले सायमन कमीशन ने अंबेडकर के सिफारिश पर दलित आदिवासी के लिए कम्‍युनल एर्वाड की घोषणा की थी। यानि दलितों को पृथक निर्वाचन/ प्रतिनिधीत्‍व समेत विशेष सुविधाएं। लेकिन गांधी ने इसका विरोध किया वे अनशन में बैठ गये, उनका तर्क था की ये सुविधाएँ इन्‍हे नही मिलनी चाहिए इससे हिन्‍दू धर्म हिस्‍सो में बट जायेगा। ये हिन्‍दू धर्म का अंदरूनी मामला हे मिलकर सुलझायेगे। अंबेडकर पर गांधी के अंनशन तुड़वाने का चौतरफा दबाव बढने लगा। दबाव में आकर दलित समुदाय ने जो समझौता गांधी के साथ किया वह पूना पैक्‍ट कहलाया। आज भी  दलित  इस समझौते को भी अपनी हार के रूप में याद करते, वे कहते है यदि समझौता नही होता तो हम अपने मालिक खुद होते, आरक्षण जैसे भीख की हमे जरूरत ही नही पड़ती। आज़ादी के बाद यही समझौता आरक्षण, स्‍कालरशिप जैसी सुविधाओं के रूप में संविधान में शामिल हुआ। तो अब बताई ये आरक्षण लेकर आरक्षित वर्ग एहसान कर रहे है या देकर आप ?
और हॉं यह भी बताना जरूरी है की कुछ अशिक्षित लोग ये तर्क देते है की आरक्षण केवल 10 वर्षो के लिए लागू है इसे बढाया जाना गलत है तो मै यह जानकारी दे दू की राजनीति में लागू आरक्षण के बारे में से कानून है न की सरकारी नौकरी में।
और हॉं वास्‍तविक आरक्षण के जनक मनुकी मूर्ति जो रास्‍थान हाईकोर्ट के परिसर में लगाई गई है उससे तो आपको कोई आपत्‍ती नही है न। वह आरक्षण जो 2200 साल से लागू है उसमें तो आपको कोई संशोधन की जरूरत नही महसूस नही होती है न ?
बेहतर होता श्री गुलाब कोठारी राजस्‍थान की जरूरी समस्‍या जैसे खाप पंचायत, कन्‍या वध प्रथा पर लिखते। वे इस पर भी लिखते की राजस्‍थान में महिला पुरूष के अनुपात का अंतर क्‍यो‍ है? क्‍यो राजस्थान की गिनती पिछड़े राज्‍यो में होती है ? लेकिन दुर्भाग्‍य है कि उन्‍हे ये कोई समस्‍या नही दिखती। लेकिन सौभाग्‍य उनका है जिन्‍होने उनके इस लेख से एक जुट होने और संघर्ष करने की प्रेरणा मिल रही है।