लोकतन्त्र के मुंशी : प्रेमचन्द

लोकतन्त्र के मुंशी : प्रेमचन्द
कॅंवल भारती
(उनके लिएजिनकी नजर में प्रेमचन्द सामन्त के मुंशी हैं)
                किसी उस्ताद शाइर का शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है बहुत मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ प्रेमचन्द हिन्दी जगत के ऐसे ही सितारे थेजिनके होने से स्वयं हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ है। वे लोकतन्त्र के मुंशी थेसामन्त के नहींजैसाकि कुछ दलित चिन्तक मानते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों पर अलग-अलग तरह से और अलग तरीकों से काफी बातें हो चुकी हैं। यहाँ मैं उनके अग्रलेखों और पत्रों के हवाले से उन्हें याद करना चाहूँगा।
                 शुरुआत मैं जयशंकर प्रसाद के नाम उनके एक पत्र से करूंगाजो उन्होंने 24 जनवरी 1930 को लिखा था। प्रसाद जी ने उन्हें अपना उपन्यास कंकाल’ भेजा था। यह पत्र उसी की प्रशंसा में लिखा गया था। उन्होंने लिखा था-
प्रिय प्रसाद जी,
पहले मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं कंकाल’ पर आपको बधाई दूँ ! मैंने इसे आदि से अन्त तक पढ़ा और मुग्ध हो गया। आपसे मेरी जो पुरानी शिकायत थीवह बिल्कुल मिट गई। मैंने एक बार आपकी पुस्तक समुद्रगुप्त’ की आलोचना करते हुए लिखा था कि आपने इसमें गढ़े मुर्दे उखाड़े हैं। इस पर मुझे काफी सजा भी मिली थीपर जो लेखनी वर्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती हैइस तरह दिलों को हिला सकती हैउसेफिर वही बात मेरे मुंह से निकलती हैक्षमा कीजिएपूर्वजों की कीर्ति का भविष्य के निर्माण में भाग होता है और बड़ा भाग होता है,लेकिन हमें तो नये सिरे से दुनिया बनानी है। अपनी किस पुरानी वस्तु पर गर्व करेंवीरता परदान परतप परवीरता क्या थीअपने ही भाईयों का रक्त बहाना। दान क्या थाएकाधिपत्य का नग्न नृत्यऔर तप क्या थावही जिसने आज कम-से-कम 80 लाख बेकारों का बोझ हमारी दरिद्र जनता पर लाद दिया है। अगर 5 रुपए प्रतिमास भी एक साधु की जीविका पर खर्च होतो लगभग 20 करोड़ हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने तप के आदर्श की भेंट हो जाते हैं। किस बात पर गर्व करेंवर्णाश्रम धर्म परजिसने हमारी जड़ खोद डाली?’ (प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्यकमलकिशोर गोयनका, 1988, पृष्ठ 25-26)
                आज देश में आरएसएस-भाजपा की सरकार उसी अतीत पर गर्व करने को राष्ट्रवाद बता रही हैजिस पर प्रेमचन्द सवाल खड़े करते हैं। प्रेमचन्द के समय में 80 लाख बेकारों का बोझ भारत की दरिद्र जनता पर था। आज यह संख्या करोड़ों में हो सकती हैअतिश्योक्ति नहीं कि यह संख्या पचास करोड़ से भी ज्यादा हो। धर्म के नाम पर निठल्लों की इस विशाल संख्या को पूंजीपति और जनता दोनों मिलकर पाल पोस रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूंजीपतियों का धन भी जनता के शोषण से ही इकट्ठा किया हुआ धन है। इस प्रकार आज एक साधु की जीविका पर पुराने तप के आदर्श की भेंट’ चढ़ने वाली गाढ़ी कमाई 50,000 हजार करोड़ से भी अधिक हो सकती है। आप अन्दाजा लगाइए कि मरे से मरा बाबा भी धर्म के नाम पर आज सौ दो सौ करोड़ आसानी से जमा कर लेता है। 1928 में यही बात जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक मदर इंडिया’ में लिखी थी,तो हिन्दुओं ने उस पर चैतरफा हमले किए थेऔर उन्होंने मदर इंडिया’ को साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन की किताब घोषित कर दिया थाजबकि हकीकत में कैथरीन मेयो ने हिन्दू साम्राज्यवाद को नंगा किया था।
डा. आंबेडकर का मत था कि जातिव्यवस्था एक राष्ट्रविरोधी संस्था हैऔर भारत का मजदूर राष्ट्रवाद में नहींअन्तरर्राष्ट्रवाद में विश्वास करता है। हम देखते हैं कि यही बात प्रेमचन्द 1933 में रेखांकित कर रहे थे। उन्होंने 27 नवम्बर 1933 के जागरण’ में लिखा था-
राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ हैउसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थीमगर उस घेरे के बाहर जो संसार थाउसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बॅंटा हुआ हैऔर सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगासंसार में शान्ति का होना असम्भव है। जागरूक आत्माएँ संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैंलेकिन राष्ट्रीयता के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।’ (विविध प्रसंग, 2, अमृतराय, 1980, पृष्ठ 333-34)
राष्ट्रवाद के प्रश्न पर दोनों विचारकों में कितनी बड़ी समानता है। डा. आंबेडकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक दुधारी चेतना हैजो एक तरफ अपने धर्मसमुदाय के प्रति भ्रातृत्व की बात करती हैतो दूसरी तरफ अपने से भिन्न समुदायों के प्रति नफरत की भावना रखती है। उन्होंने एक जगह मजदूरों के सन्दर्भ में लिखा है कि राष्ट्रवाद कोई गण्डा-ताबीज नहीं हैजिसे गले में बांधने से उनकी सारी समस्यायें  दूर हो जायेंगी। उन्होंने कहा कि मजदूर राष्ट्रवाद में नहीं अन्तरराष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं।
आज राष्ट्रवाद के नाम पर आरएसएस और भाजपा के आक्रामक हिन्दुत्व का मुकाबला साहित्य में प्रेमचन्द की विरासत को आगे बढ़ाकर ही किया जा सकता है।
जब राष्ट्रवाद का जिक्र आता हैतो पूंजीवाद का जिक्र जरूर आयेगा। क्योंकि राष्ट्रवाद वह बीमारी हैजो अनेक जनविरोधी बीमारियों को दावत देती चलती है। अगर राष्ट्रवाद है,  तो उसके साथ पूंजीवादधर्मवादजातिवाद और अस्मितावाद की बीमारियां स्वयं सक्रिय हो जाती हैं। ये हमजोली बीमारियां हैंजिनका आपस में एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूंजीवाद ने जनता के शोषण का जो साम्राज्य कायम किया हैराष्ट्रवाद धर्म और जाति के हथियारों से उसकी सुरक्षा करता है। डा. आंबेडकर ने पूंजीवाद को दलित वर्गों का शत्रु करार दिया थातो प्रेमचन्द भी इसे अंधा पूंजीवाद कहते हैं, जो गरीबों का दुश्मन है। 6 नवम्बर 1933 के जागरण’ में प्रेमचन्द ने कितना सही लिखा था-
                ‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जायउनकी बला से। कहाबत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा थाजिस पर वह बैठा थायह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा हैजिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रहा है।’ (वहीपृ. 331)
                इसी जगह प्रेमचन्द सेठ पुनपुनवाला और मि. बुल का उदाहरण देकर आगे कहते हैं कि जब किसान निपट मूर्ख थातो उसके लिए काले और गोरे पूंजीपति में कोई अन्तर न था। परजब धीरे-धीरे उसने राजनैतिक ज्ञान सीखाराष्ट्र और जाति जैसे शब्दों से उसका परिचय हुआतो उसने सेठ पुनपुनवाला के वैष्णव तिलक और हिन्दूधर्म के प्रति असीम श्रद्धा और उनके द्वारा बनाए गए धर्मशालों और मन्दिरों को देखकर उन्हें अपना उद्धारक समझा। लेकिन जब पुनपुनवाला की मिलों में उसकी ऊख की खरीद होने लगीजब उनकी आढ़तों में उसका अनाज या सन तौला जाने लगा,तब उसे अनुभव हुआ कि सेठ जी बाहर से जितने बड़े धर्मात्मा और देशभक्त हैंभीतर से उतने ही लुटेरे और बन्धुद्रोही भी हैं और धन और देशप्रेम का यह सारा आडम्बर उन्होंने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रच रक्खा है। वहीं उसे दूसरा अनुभव यह हुआकि मि. बुल इन सेठ पुनपुनवाला से कहीं खरेसच्चे और सज्जन हैं। उनके मिल में उसकी ऊख झटपट तुल जाती हैऔर तुरन्त दाम मिल जाते हैं। उनकी आढ़तों में भी ज्यादा धाँधली नहीं होती।’ (वहीपृ. 332)
                सम्पत्ति के सवाल पर डा. आंबेडकर संसाधनोंशिक्षाउद्योग और भूमि के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में थे और सम्पत्ति पर निजी मालिकाना हक के खिलाफ थे। क्या ही अद्भुत है कि प्रेमचन्द इस सवाल पर इसी मत के थे। वे सम्पत्तिविहीन समाज के निर्माण के पक्ष में एक जगह लिखते हैं-
सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिकआत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैंउसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिएगेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैंदूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसक यन्त्र क्यों बनाते हैं वेश्याएँ क्यों बनती हैंऔर डाके क्यों पड़ते हैं इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगाजब तक सम्पत्ति-व्यक्तिवाद का अन्त न होगासंसार को शान्ति न मिलेगी।’ (वहीपृ. 335)
                प्रेमचन्द ने अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत को निजी सम्पत्तिवाद पर आधारित पूंजीवाद नहींबल्कि समाजवादी व्यवस्था चाहिए। जातिधर्म और सम्पत्ति के पिस्सुओं से साधारण जनता की मुक्ति केवल वर्ग और जाति विहीन समाज के निर्माण से ही हो सकती है।
धर्म भी सम्पत्तिवाद के ही अन्तर्गत आता है। और मन्दिर इसके शुरु से ही प्रतीक रहे हें। लेकिन मैं यहाँ  दलितों के मन्दिर-प्रवेश के मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ, जो आज भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि इस मुद्दे पर दलित उतने सक्रिय नहीं हें जितने कुछ सुधारवादी हिन्दू संगठन इसे जिन्दा रखे हुए हैं। यह मुद्दा शायद एक सदी से भी ज्यादा पुराना हो चुका है। 1930 में डा.आंबेडकर ने इस समस्या पर हिन्दुओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए नासिक में मन्दिर-प्रवेश का आन्दोलन किया थाजिसमें सनानती हिन्दुओं ने लाठी-डण्डों से हमला किया था। प्रेमचन्द भी शायद कर्मभूमि’ में मन्दिर-प्रवेश के ऐसे ही परिणाम को दिखा चुके हैं। अभी कुछ महीने पहले आरएसएस काडर के भाजपा सांसद तरुण विजय भी देहरादून में दलितों को मन्दिर में प्रवेश कराने में अपना सिर फुड़वा चुके हैं। स्पष्ट है कि आज भी बहुत से मन्दिरों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डा. आंबेडकर ने अपने नासिक आन्दोलन के समय ही साफ कर दिया था कि दलितों की समस्या मन्दिर-प्रवेश की नहीं हैबल्कि उनकी समस्या सामाजिक और आर्थिक है। हिन्दी साहित्य में साहस से इस बात को कहने वाले लेखक प्रेमचन्द हैं। उन्होंने जागरण’ के 26 दिसम्बर 1932 के अंक में इस समस्या को गम्भीरता से उठाया था। उन्होंने लिखा था-
हरिजनों की समस्या मन्दिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर हैं। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फी सदी रोजाना मन्दिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फी सदी न कहकर अगर पांच फी हजार कहा जाएतो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मन्दिर-प्रवेश को कोई महत्व नहीं देते।....असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते हैंतो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिएनौकरियां देने में उनकें साथ थोड़ी सी रियायत करनी चाहिए। हमारे जमीदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हैं। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन देकरउनसे बेगार लेना बन्द करकेउनसे सज्जनता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या को आप ही हल करेगापर हिन्दू जाति अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती।’ (वहीपृ. 455)
                हालांकि प्रेमचन्द के ये विचार हिन्दुओं से अपील के रूप में हैंपर फिर भी उन्होंने मन्दिर-प्रवेश की अपेक्षा दलितों के आर्थिक उत्थान का पक्ष लिया था। आज 2016 में भी दलितों की बहुसंख्यक आबादी जीविका के सम्मानित साधनों से वंचित है। ताजा उदाहरण देखना होतो गुजरात के ऊना तालुका के उन दलित परिवारों का हाल देख लीजिएजिनके चार युवकों को इसी 11 जुलाई को गोरक्षकों ने बांधकर लोहे की राडों से मारा था। उनके पास गन्दे पेशे के सिवा कोई जीविका नहीं है और इस गन्दे पेशे से भी वे एक दिन में 150 रुपए ही कमा पाते हैं। अभी परिमल दाभी की एक रिपोर्ट 24 जुलाई के इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी हैजिसमें वह लिखते हैं कि उस गाँव में दो मन्दिर हैं-रामजी मन्दिर और स्वामीनारायण मन्दिर,और दोनों में ही दलितों का प्रवेश वर्जित है। परिमल लिखते हैं कि गाँव में मन्दिर को लेकर कोई तनाव नहीं हैक्योंकि गाँव के दलित मन्दिर का नियम तोड़ने की कभी कोशिश ही नहीं करते।
                स्वतन्त्र भारत में जनता के शोषण पर राजाओं और नवाबों की तरह ऐश करने वालों में पूंजीपतिभ्रष्ट राजनेता और धर्मगुरु हैंजिनके कारनामे अखबारों में आते रहते हैं। प्रेमचन्द के जमाने में किसानों के नेता जमींदार थेऔर वे ऐसा नेता थे कि किसान-जनता का खून चूस लेते थे। प्रेमचन्द ने अपने अग्र लेखों में इन जमीदारों को खूब उधेड़ा है। एक लेख का जिक्र करना चाहूँगा। यू.पी. कौंसिल में 1934 में होम मेम्बर ने एक बिल पेश किया थाजिसमें बकाया लगान पर 12 प्रतिशत की बजाए 6 प्रतिशत ब्याज की और लगान न देने पर किसान को चार साल तक बेदखल न करने की व्यवस्था की गई थी। जमींदारों ने इस बिल का विरोध किया। इस पर प्रेमचन्द ने 26 फरवरी 1934 के जागरण में लिखा कि कौंसिल में तो बहुमत जमींदारों का है और सरकार सदैव उनकी रक्षा करती रहती है। किसानों की गरीबी पर किसी को तरस नहीं आता। जमीदार उन पर यों ही लगान नहीं छोड़ देते। मार-धाड़कुरकी-सरसरी सब कुछ करके तब चुप होते हैं। जब इतने पर भी काश्तकार लगान पूरा नहीं अदा कर सकतातो वह9 फी सदी सूद कहाँ से देगा?’ आगे वे जमींदारों के लिए और भी कड़ी भाषा में लिखते हैं-
इन भले आदमियों को यह नहीं सूझता कि उन्हें 45 फी सदी का जो नफा होता हैवह तो मानो मुफ्त ही है। वह कोई परिश्रम नहीं करते,पसीना नहीं बहातेकेवल दो-चार शहने रखकर रुपए वसूल कर लेते हैं और बैठे मौज उड़ाते हैं। उनके मुकाबले में किसानों की क्या दशा हैएक लाख किसानों को खड़ा कर दीजिए। शायद ही किसी की देह पर साबित कपड़े निकलें। जमींदारों पर भी कर्ज इसलिए है कि वह आमदनी से ज्यादा खर्च करते हैं। काश्तकार इसलिए तबाह है कि उसकी खेती में न काफी उपज हैन जिसका अच्छा दाम है और उस पर एक न एक दैवी बाधा सदैव उसके पीछे पड़ी रहती है। मगर यहाँ  तो अपना पेट अफरना चाहिएकोई भूखा मरता होतो मरे।’ (वहीपृ. 508-09) 
                मगर आज एक सदी बाद भी भारत के किसान आत्महत्या कर रहे हैंतो प्रेमचन्द के ये शब्द आज के सरकार में बैठे नेताओं पर भी लागू होते हैं-यहाँ तो अपना पेट अफरना चाहिएकोई मरता हो तो मरे।
                प्रेमचन्द की कलम हर शोषण और अन्याय के विरोध में उठी इसमें सन्देह नहीं।
(25 जुलाई 2016 ) 

अत्याचार में दलित और मुसलमान एक समान !

अत्याचार में दलित और मुसलमान एक समान !
देश के निर्माण, विकास और जारी अत्याचार के खिलाफ दलित और मुसलमानों को एक मंच पर आना चाहिए

मुसलमानों की  जमातों और नेताओं की ओर से यह बात बहुत पहले से कही जाती रही है कि मुसलमानों की आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तारियों के संबंध का आधारसही नहीं हैं। बड़ी संख्या में मुसलमान आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार हैं  लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे है जो क़यास पर गिरफ्तार हुए हैं या उनके खिलाफ  सबूत और साक्ष्य की कमी पाई जाती है। इसके बावजूद न इन बातों पर कान धरा गया और न ही गिरफ्तारी में किसी कदर कमी महसूस आईबल्कि यह सिलसिला आज भी ज़ोर-शोर से जारी है।  हाल ही में इस तरह के उदाहरण हमारे सामने मौजूद है जिसमें बाबरी मस्जिद ब्लास्ट मामले में आरोपी नसीरुद्दीन अहमदजिन्होंने 23 साल जयपुर जेल में काटे और फिर उन्हें बरी कर दिया गयामोहम्मद आमिर का भी कुछ ऐसा ही मामला है। 14 साल जेल में काटने के बाद उनके ऊपर लगे 19  में से 17 आरोपों में उन्हें निर्दोष पाया गया। आमिर को दिल्लीरोहतकपानीपत और गाजियाबाद में करीब 10महीनों के अंतर से अलग-अलग जगहों पर 20 कम नुकसान पहुंचाने वाले  बम प्लांट करने के आरोप में जेल में रखा गया था।


लेकिन जिस तरह केंद्र सरकार के कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे होने का अलीगढ़ में जश्न मनाते हुए आयोजित विकास पर्व’ में कहा की, ‘आतंक के झूठे आरोपों के आधार  मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार रना चिंता का विषय है। और हमइसमें बदलाव लाने के बारे में सोच रहे है। लॉ कमिशन इन मामलों की कानूनी प्रक्रिया में बदलाव लाने के लिए रिपोर्ट तैयार कर रहा है। सुप्रीमकोर्ट के जज के नेतृत्व में यह रिपोर्ट तैयार की जा रही है। इसके साथ ही कई कानू विशेषज्ञ भी रिपोर्ट को बनाने में मदद कर रहे हैं।’ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल मुसलमान बल्कि देश की जनता और सरकार में मौजूद लोग भी इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैंफिर भी जो कदम बहुत पहले उठाया जाना था वह अभी तक केवल विचार तक ही सीमित है। कानून मंत्री ने यह बात उसक्त की जब उनसे मुस्लिम युवाओं पर आतंके के झूठे आरोप लगाए जाने और उनकी रिहाई के बाद उनके ामने आने वाली समस्याओं के बारेमें सवाल किया गया। इससे पहले िछले सप्ताह गृहमंत्री राजनाथ िंह ने भी यह मुद्दा उठाया था। उन्होंने सरकार ने आतंक संबंधित मामलों कोलेकर अपने दृष्टिकोण को बदला है। साथ ही उन्होंने पुलिस को सलाह दी थी कि इन मालमों को डील करते हुए विवेक से काम किया जानाचाहिए। कानून मंत्री की बात बहुत अच्छी है और हम इसका स्वागत करते हैंफिर भी मुसलमानों को लेकर भाजपा और आरएसएस की जो नीतियां अब तक सामने आती रही हैं उससे नहीं लगता कि वह इस मामले में गंभीर हैं और कोई बड़ा कदम उठा सकेंगे। लेकिन समय से पहले किसी बात को नकारना भी सही नहीं हैइसलिए मान लेते हैं कि जो कहा गया है वह जल्द ही पूरा भी किया जाएगा।

दूसरी ओर यह खबर भी आजकल खूब आम हो रही है की भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह किसी अतिपिछड़े गिरिजाबिन्द के घर खाना खा रहे हैं। वह ऐसा क्यों कर रहे हैं यह पूछने वाला तो कोई नहीं है। हां यह जरूर कहा जा रहा है कि जिस तरह कांग्रेस के राहुल गांधी दलित के घर खाना खाने पहुंच जाते हैं वैसे ही अमित शाह क्यों नहीं पहुँच सकते और वैसे भी इस मामले को ज़्यादह  गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है क्यूंकि इस तरह के दृश्य  तो आम तौर पर उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव से पहले नज़र ही आते रहे हैं। मज़ाक़ उड़ने वालों ने राहुल गांधी के दलित के घर खान खाने का उस वक़त भी मज़ाक़ उड़ाया और मज़ाक़ उड़ाने वाले इस वक़त भी मज़ाक़ उड़ाएंगे। लेकिन  बीजेपी को ख़ुद से एक सवाल करना चाहिए कि वह राहुल गांधी के एक असफल आइडिया की नक़ल क्यों करना चाहती है?

वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार अपने एक लेख ‘दोष समरथ का और समरस भोजन दलित के घर?’ में लिखते हैं की वैसे भाजपा की तरफ से मीडिया को भेजे गए आमंत्रण पत्र में गिरिजाबिन्द को दलित बताया गया है जबकि बिन्द अति पिछड़े हैं। बनारस से उनके सहयोगी अजय सिंह ने उन्हें बताया कि बिन्द और राजभर कई साल से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं। बिन्द मत्स्य पालन से जुड़े होते हैं और खानपान में मांसाहारी होते हैं। पत्रिका डॉट कॉम के डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी ने जब प्रदेश अध्यक्ष मौर्या जी से पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि गिरिजाबिन्द दलित नहीं है। हमारे सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि गिरिजाबिन्द पहले अपना दल में थे। फिर समाजवादी पार्टी से जुड़े और अब भाजपा से जुड़े हैं लेकिन भाजपा के नेता कहते हैं कि वे पार्टी के समर्थक हैं।


दूसरी तरफ यह भी हक़ीक़त है कि भारत में दलितों को मंदिरों में पूजा पाठ करने तक की इजाज़त नहीं हैउनके मंदिर अलग होते हैं और दूसरी जातियों के मंदिर अलग अमित शाह और राहुल गांधी से यह सवाल भी जरूर पूछना चाहिए की दलितों को देश के तमाम मंदिरों में दाखले की इजाज़त कब और कैसे मिलेगी और इस संबंध में  पार्टी और उनका नज़रिया है क्यों की सही बात यही है की अमित शाह हों या राहुल गांधीइनका या इन जैसे दूसरे नेताओं का किसी दलित के घर खाना खा लेना कोई ख़ास बात नहीं हैक्यों कह यह राजनीतिक लोग हैं और इनके हर कर्म के पीछे राजनीति होती है इसलिए देश में बदलाव तब तब ही आ सकता है  जब की  कांग्रेस और भाजपा के तमाम लोग देश के हर गाँव और हर घर में ऐसे ही उदाहरण पेश करेंऔर जो काम आज तक नहीं हो सकाइसकी उम्मीद आगे किन आधारों पर रखी जा सकती हैयह बात इसलिए भी कही जा रही है कि अभी कुछ ही दिन पहले की घटना है कि मंदिर में पुजारी दलितों के आने पर रोक लगाते हैं तो दूसरी ओर  दलित मंदिर प्रवेश कर इस परंपरा को तोड़ते हैं। लेकिन इस सब में उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद तरुण विजय पर देहरादून के पास चकराता में हमला होता है और जमकर पिटाई होती है। हमले और पिटाई की वजह सिर्फ यह थी की वो देहरादून के पोखरी क्षेत्र के एक प्राचीन शिव मंदिर में दलितों के एक समूह को प्रवेश कराने के लिए साथ गए थे

भारत के दलित और मुसलमान जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं और समाज जिस तरह उनकी अनदेखी करता आया हैइन  परिस्थितियों मेंसमाधान के दो चरण सामने आते हैं। एक: समाधान के लिए सामान्य मुद्दों पर उन्हें एकजुट होना चाहिएदो: साहस और उत्साह के साथ अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाते रहना चाहिए। क्योंकि अत्याचार से मुक्ति चुप्पी के रूप में कभी नहीं प्राप्त हो सकती। ख़ामोशी मृत्यु से ताबीर कि जाती हैऔर जीवित क़ौमों व समूहों  की पहचान है कि वह कानून का पास व लिहाज़ रखते हुए और शांति के साथ  न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए हमेशा सक्रिय रहते हैं। वहीं यह बात भी रखना चाहिए कि अगर अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की पहचान मिट गई या मिटा दी गई तो फिर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला होगा। इन परिस्थितियों में न देश में शांति  स्थापित होगीन विकास की मंज़िलें तय होंगीन देश आगे बढ़ेगा और न ही दुनिया में हमारी कोई हैसियत होगी।


मोहम्मद आसिफ इकबाल दिल्ली में रहते हैं और एक स्वतंत्र लेखक हैं, उनसे maiqbaldelhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है


मोहम्मद आसिफ इकबाल
E-8, अबुल फज़ल एन्क्लेव,
जामिया नगर, नई दिल्ली 25