There is better employment opportunities for the youth in the field of journalism

पत्रकारिता के क्षेत्र में युवाओं के लिए है, रोजगार के बेहतर अवसर

डॉक्टर धनेश जोशी
12 वीं के बाद छात्रों में अपने भविष्य को लेकर उत्सुकता रहती है कि स्नातक के लिए कौन सा कोर्स चुने जिसमें
नौकरी के ढेर अवसर हो तथा अपना खुद का व्यवसाय करने के भी मौके हो ऐसा कैरियर जिसमें भविष्य में अच्छी आय पद व प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो तथा समाज के लिए कुछ सकारात्मक कार्य किए जा सके.अगर अपने जीवन में कैरियर के साथ देश के विकास में भी अपना योगदान देना चाहते हैं तो आपके लिए पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों में कई ऑप्शंस यह कोर्सेज पूरी तरह से व्यवसायिक कोर्सेज होते हैं इनमें सिखाई गई व्यवसायिक विधाओं को सीखकर निपुण होने वाले छात्रों को नौकरी मिलने की पूरी संभावनाएं होती हैं तथा निपुण विद्यार्थी अगर चाहे तो अपना खुद का व्यवसाय भी कर सकते हैं और दूसरों को नौकरी भी दे सकते हैं इस प्रकार वे देश के आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं 


पत्रकारिता एवं जनसंचार के कोर्स के अंतर्गत मुख्यतः सिखाई जाने वाली 
विधाएं हैं-

• प्रिंट मीडिया न्यूज़पेपर एवं मैगजीन ( NEWS PAPER & MAGZINE)
• इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेडियो और टेलीविजन (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION)
• पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION)
• डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING)
• मल्टीमीडिया ग्राफिक डिजाइनिंग एंड एनिमेशन(MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION)

1. प्रिंट मीडिया (NEWS PAPER & MAGZINE) न्यूजपेपर एंड मैगजीन से संबंधित कोर्सेज करने के बाद छात्रों को रिपोर्टर सब एडिटर कैमरामैन कंटेंट राइटर, प्रूफरीडर इत्यादि की जॉब आसानी से मिल जाती है इसके अलावा अगर आपके पास पैसा है और इच्छाशक्ति है तो आप अपने से खुद का मीडिया पब्लिशिंग हाउस भी शुरू कर सकते हैं और दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

2. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (रेडियो एंड टेलीविजन) (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION) से रिलेटेड कोर्सेज करने के बाद छात्रों को टीवी चैनल एंड रेडियो स्टेशंस में रेडियो एनाउंसर, एंकर, रिपोर्टर, एडिटर, प्रोग्राम प्रोड्यूसर, न्यूजरूम मैनेजर, स्टूडियो इंचार्ज, फोटोग्राफर, वीडियोग्राफर, रेडियो जॉकी इत्यादि की अच्छी जॉब मिल जाती है. अगर आप कुछ बड़ा करना चाहते हैं, और आपके पास प्रोफेशनल्स की एक टीम है और पर्याप्त पैसा है तो आप अपने खुद का टीवी चैनल (यूट्यूब चैनल) या कम्युनिटी रेडियो शुरू करके दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

3. पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION) जनसंचार का एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी कार्पोरेट सेक्टर में बहुत अधिक मांग है. लगभग हर बड़ी कंपनी में पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट या एक जनसंपर्क अधिकारी होता है. जो ऑर्गेनाइजेशन की इमेज बिल्डिंग और कॉरपोरेट कम्युनिकेशन को हैंडल करता है। कार्पोरेट्स अपने स्टॉक होल्डर्स के बीच अपनी पॉजिटिव इमेज बनाने एवं सकारात्मक संचार करने के लिए विभिन्न योजनाएं एवं कैंपेन चलाते हैं इसमें पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एडवरटाइजिंग कैंपेन्स कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत चलने वाली परियोजनाएं सरकारी एवं गैर सरकारी समूहों के साथ संवाद स्थापित करके समाज में अपनी सकारात्मक इमेज को प्रमोट करना करना आदि शामिल है. इस क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध है और स्टार्टअप के इच्छुक छात्रों के लिए खुद के व्यवसाय का एक बेहतरीन मौका है. जहां वे अपने साथ-साथ दूसरों को भी नौकरी दे सकते हैं. 

4. डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING) इंटरनेट की बढ़ती उपलब्धता एवं स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के चलते आजकल यूट्यूबर्स की मांग तेजी से बढ़ी है. यूट्यूब पर क्वालिटी कंटेंट उपलब्ध ना होने के कारण इन दिनों डिजिटल फिल्म मेकिंग का बहुत अधिक स्कोप है. डिजिटल फिल्म मेकिंग को पैसे कमा सकते हैं बल्कि खुद को डिजिटल वर्ल्ड में एक्सपर्ट के रूप में स्थापित कर सकते हैं इस इंडस्ट्री में कैमरामैन, फिल्म डायरेक्टर, वीडियो एडिटर, साउंड रिकॉर्डिस्ट, मार्केटिंग प्रोफेशनल इत्यादि की बहुत मांग है. 

5. मल्टीमीडिया ग्राफिक्स एंड एनीमेशन (MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION) किसी भी कंटेंट को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए आजकल मल्टीमीडिया ग्राफिक एंड एनीमेशंस का इस्तेमाल बहुत होने लगा है. विशेषकर न्यूज़ एजुकेशन म्यूजिक एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में मल्टीमीडिया एंड ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन के विशेषज्ञों की अत्यधिक मांग है. एनीमेटेड मूवीज, कार्टून फिल्म एंड वीडियोज की बढ़ती मांग की वजह से मल्टीमीडिया ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन प्रोफेशनल्स की जबर्दस्त डिमांड है.  

6. डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट (DIGITAL MEDIA MANAGEMENT) इंटरनेट की उपलब्धता और डिजिटल टेक्नोलॉजी में होने वाले नित नए अविष्कारों ने संचार की दुनिया में कई क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं जिसकी वजह से डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट में रोज नए अवसर पैदा हो रहे हैं. जनसंचार के माध्यम अब डिजिटल प्लेटफार्म फेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर, लिंकेडीन, व्हाट्सएप पर उपलब्ध होने की वजह से इस क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों की मांग बहुत बढ़ गई है. इसके अतिरिक्त आजकल सभी ऑर्गेनाइजेशन/बिजनेस हाउस की अपनी वेबसाइट होती है. जिसके लिए डिजिटल मीडिया मैनेजर की सेवाएं लेते हैं. अपना खुद का कारोबार करने के इच्छुक छात्रों के लिए क्षेत्र में अपने व्यवसाय करने के अवसर मौजूद हैं. 

जरूरी योग्यता

मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री के लिए न्यूनतम योग्यता 12वीं अथवा पोस्ट ग्रैजुएट पाठ्यक्रम के लिए पत्रकारिता में स्नातक होना चाहिए। कुछ संस्थानों में पत्रकारिता में एक वर्षीय प्रमाण-पत्र पाठ्यक्रम संचालित किए जाते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए जर्नलिज्म और मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री और पोस्ट ग्रैजुएट डिग्री जरूरी है। लेकिन विशेष प्रशिक्षण या फील्डवर्क और इंटर्नशिप से इस क्षेत्र में बेहतर अवसर बनाए जा सकते हैं।

शुरुआती वेतन और मौका

मास कम्यूनिकेशन में प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद शुरुआती वेतन के तौर पर 12,000 से 25,000 रुपए प्रतिमाह कमाए जा सकते हैं। पांच साल के अनुभव के बाद यह स्तर 50,000 से 1,00,000 रुपए तक पहुंच जाता है। 

         डॉ. धनेश जोशी
         विभागाध्यक्ष 
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई 
   मो. 9425211714

Rakshabandhan and the truth behind it?

रक्षाबंधन और उसके पीछे का सच?

संजीव खुदशाह

पूरे विश्व में भारत को छोड़कर भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता है। क्योंकि रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है। विदेशों में फ्रेंडशिप डे दोस्ती दिवस जैसे बराबरी वाले त्यौहार जरूर मनाए जाते हैं। 
क्यों रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है 

भाई का बहन की रक्षा का व्रत लेने का मतलब होता है कि बहन कमजोर है और भाई मजबूत है। क्या बहन सचमुच इतनी कमजोर है कि उसे अपनी रक्षा के लिए भाई का मुंह ताकना पड़े? क्या बहन इतनी मजबूत नहीं बनाई जा सकती कि वह भाई का रक्षा कर सकें। इसे भाई-बहन के मोहब्बत का त्यौहार है ऐसा सामंतवादी मीडिया दिखाने की कोशिश करता है। लेकिन यहां पर भाई-बहन के प्यार से कोई वास्ता नहीं है। यही बहन भाई से अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हक चाहती है तो भाई उसका दुश्मन हो जाता है। 

इस त्यौहार के बहाने बहुत ही सस्ते में निपटाया जाता है बहनों को। 

रक्षाबंधन के त्यौहार में बहनों को साड़ी कपड़ा या हजार रुपए देकर बहुत ही आसानी से भाइयों के द्वारा बहनों को निपटाया जाता है। अगर यही बहन अपने पिता अपने पूर्वजों की संपत्ति में हक मांगती है। भाई के बराबर अधिकार मांगती है। यही भाई उसे रक्षाबंधन में गालियां बकता है । उसे अपने घर में घुसने नहीं देता है। यह भारत की कड़वी सच्चाई है। लाखों प्रकरण न्यायालय में लंबित है जहां बहने अपने भाइयों से अधिकार मांग रही है और भाई देना नहीं चाहता। 

इस त्यौहार के मूल में क्या है ? कहां से हुआ इस त्यौहार शुरू? इसकी शुरुआत कब हुई? 

रक्षाबंधन बिल्कुल नया त्यौहार है। बमुश्किल 70-80 साल हुए होंगे इस त्यौहार को शुरू हुए। इससे पहले इसी दिन ब्राह्मण अपने जजमानो को रक्षा सूत्र बांधा करते थे। जिसमें बहनों का कोई रोल नहीं होता था। खासतौर पर ब्राह्मण क्षत्रियों एवं वैश्यो को या फिर राजाओं को रक्षा सूत्र बांधकर अपनी रक्षा करने का शपथ लेते थे। और उसके एवज में दान प्राप्त करते थे। आज भी ब्राह्मण इस त्यौहार में लोगों को रक्षा सूत्र बांधते हुए देखे जाते हैं।
ब्राह्मण रक्षा सूत्र बांधते समय इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः | 
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल ||
इसका अर्थ होता है जिस तरह मैं तुम्हारे महान पराक्रमी दानव राजा बलि को इस सूत्र के माध्यम से बांध रहा हूं इसी प्रकार में तुम्हें भी मैं इस सूत्र से बांध रहा हूं मेरी रक्षा करना। 

अब बताइए रक्षाबंधन के दिन पढ़े जाने वाले इस सूत्र इस मंत्र का भाई बहनों से क्या ताल्लुक है। शुरू से रक्षाबंधन के इस त्यौहार का बौद्धिक लोगों ने विरोध करना प्रारंभ किया और इस पर अपने तर्क दिए इन तर्कों से बचने के लिए ब्राह्मणों ने कई और पुराने संदर्भ देने की कोशिश की। 

कृष्ण-द्रौपदी की कथा का प्रचार इसीलिए किया गया।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून की धार बह निकली। यह सब द्रौपदी से नहीं देखा गया और उसने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में बांध दिया फलस्वरूप खून बहना बंद हो गया।  

कुछ समय पश्चात जब दुःशासन ने द्रौपदी की चीरहरण किया तब श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर इस बंधन का उपकार चुकाया। 

इसे रक्षाबंधन से जोड़ का प्रचारित किया जाता है। जबकि आप ही बताइए कि इसमें भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा क्या है?
इस त्यौहार को प्रचारित करने में सबसे बड़ा योगदान फिल्मों का है। शुरुआत में फिल्में इस त्यौहार को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाती है। बाद में टीवी सीरियल इस पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

महाबली की हत्या का है यह त्यौहार
ऐसा माना जाता है कि रक्षाबंधन बहुजनों दानवों द्रविड़ो के राजा महाबली को आर्यों द्वारा पराजित किया गया था। उसी खुशी में यह त्यौहार प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के रूप में ब्राह्मणों द्वारा मनाया जाता है। जिसमें बड़ी संख्या में दलित बहुजन भी शामिल होते हैं जिनका राजा महाबली बताया जाता है।

रक्षाबंधन जैसे त्यौहार की जरूरत क्यों पड़ी?
भारत का सामंती वर्ग ईसाइयों के त्यौहारो से प्रभावित रहा है। ईसाइयों की तरह भारत में कोई भी त्यौहार ऐसा नहीं है जिसे सब मिलकर मनाते हैं। इसके लिए जातिवाद आड़े आती थी। इसीलिए रक्षाबंधन जैसे त्यौहार गढ़े गए। ताकि विदेशियों को यह बताया जा सके कि हमारे भीतर मोहब्बत और प्यार को फैलाने वाला त्यौहार है। रक्षाबंधन इसी कड़ी में प्रचारित किया गया। इस त्यौहार को प्रचारित करने में पूंजीवाद का भी बहुत बड़ा योगदान है।

धर्म निरपेक्षता के मायने Means of secularism


भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। धर्म निरपेक्ष का सही मतलब होता है ऐसी सरकार जो किसी धर्म के पक्ष में नहीं है। कुछ लोग धर्म निरपेक्ष का मतलब यह भी निकालते है कि ऐसी सरकार जो सभी धर्म के पक्ष में हो सबको लेकर चलती हो।

पिछले दिनों तमिलनाडु में एक सड़क परियोजना के उद्घाटन में सरकारी अधिकारी ने गलती से सिर्फ ब्राम्‍हण पुजारी को बुला लिया सांसद सैंथिलकुमाल ने पूछा की बाकी धर्म के प्रतिनिधि कहां है । बताना चाहूंगा की तमिलनाडु में सिर्फ एक धर्म के पुजारी से सरकारी योजनाओं में पूजा नहीं कराई जाती, आम तौर पर  पूजा होती ही नहीं है।

दरअसल, तमिलनाडु राज्‍य के धर्मपुरी सीट से लोकसभा सांसद सेंथिलकुमार एक सड़क परियोजना की भूमि पूजा के लिए अपने गृह जिले में पहुंचे थे। यहां पहुंचने पर उन्होंने लोक निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता से पूछा कि क्या उन्हें पता है कि एक सरकारी समारोह को इस तरह से आयोजित नहीं किया जाना चाहिए, जिसमें केवल एक विशेष धर्म की प्रार्थना शामिल हो। उन्होंने अधिकारी से पूछा कि आप ये बात जानते हैं या नहीं। 

इस दौरान मौके पर मौजूद एक भगवा वस्त्र पहने हिंदू पुजारी को देखकर उन्होंने अधिकारी से पूछा कि अन्य धर्मों के प्रतिनिधि कहां है। उन्होंने अधिकारी से कहा कि, "यह क्या है? अन्य धर्म कहां हैं? ईसाई और मुस्लिम कहां हैं? चर्च के फादर, इमाम को आमंत्रित करें, किसी भी धर्म को नहीं मानने वालों को भी आमंत्रित करें। गौरतलब है कि सामाजिक न्याय के प्रतीक पेरियार ईवी रामासामी द्वारा स्थापित एक तर्कवादी संगठन द्रविड़ कड़गम सत्तारूढ़ द्रमुक का मूल निकाय है।

सांसद एस सेंथिलकुमार की डांट के बाद लोक निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता ने सांसद से माफी मांगी। उन्होंने कहा कि  यह शासन का द्रविड़ मॉडल है। सरकार सभी धर्मों के लोगों के लिए है।

ज्ञातव्‍य है कि इसके कुछ दिनों पहले प्रधान मंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने नये संसद भवन में राजकीय चिन्ह अशोक स्तंभ की पूजा सिर्फ ब्राम्‍हण पुजारियों से कराई। जबकि यह देश संविधान से चलता है न कि किसी धर्म के विधान से । कायदे से पूजा नहीं करानी चाहिए थी। यदि करानी पड़ रही है तो भारत में जितने भी धर्म के मानने वाले है उनके पुजारियों से पूजा करानी चाहिए।

यह बताना जरूरी है की संविधान जब निर्माणाधीन था तब इस पर चर्चा हुई जिसमें सभी समाज और स्‍थान के चुने हुये प्रतिनिधि मौजूद थे। ने यह निर्णय लिया था की भारत में एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की जानी चाहिए। ताकि सभी समता समानता एवं सद्भावना से रह सके। बाद में कांग्रेस की सरकार ने संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ दिया। यह संविधान की भावना के हिसाब से एक अच्छा कदम था। इसी तरह यह बात कॉमन हो गई और इसे गंभीरता नहीं लिया गया।

लेकिन तमिलनाडु सांसद डां सेन्थिल कुमार के वीडियो वायरल हो जाने के बाद, यह बात चर्चा में फिर आ गई की भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्‍ट्र है जिसमें सभी धर्मो का समान आदर होना चाहिए। क्योंकि एक आम हिन्दू भी धर्म निरपेक्ष सरकार चाहता है।

 

 

सरकर को धर्म निरपेक्ष क्‍यो होना चाहिए:

भारत एक ऐसा देश है कि जिसमें कई धर्मों, सैकड़ो पंथो को मानने वाले लोग रहते  है। देश को अखण्‍ड बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि सभी धर्म एवं पंथो का बराबर सम्मान किया जाय। यह सम्मान तभी हो सकता है जब आप सरकार और धर्म में दूरियां रखेगें। आप उत्‍तर भारत के सरकारी कार्यलयों में एक खास धर्म के देवी देवता की तस्वीर या पूजा स्‍थल पाते है। जबकि तमिलनाडु सरकार ने पूर्व में भी संविधान के भावना का आदर करते हुये सरकारी कार्यालय में मंदिर मस्जिद या किसी भी पूजा स्‍थल, तस्वीर न लगाने का आदेश जारी किया था। दर असल तमिलनाडु एवं उसकी सरकार पर प्रसिध्‍द तर्कशास्त्री इ वी रामास्‍वामी पेरियार का प्रभाव रहा है। यही कारण है तमिलनाडु देश का सबसे उन्‍नत राज्‍य है।

 

सरकारी धन का दुरूपयोग:

चूकि सरकार को टैक्‍स सभी धर्म पंथ को मानने वाले लोग देते है । इसलिए सरकार को इस टैक्‍स के पैसे को किसी खास धर्म के उपर खर्च करने से बचना चाहिए। यह संविधान के भावना के खिलाफ है। जनता चाहती है उसे सड़क बिजली पानी मिले, गरीबी दूर हो, बेरोजगारी से देश निजात पाये । सरकारी मेडिकल, इंजिनीयरीग कालेज खुले शिक्षा चिकित्सा सस्ती हो। आज भारत के दूर दराज में ऐसे कई गांव है जहां बिजली पानी सड़क अब तक नहीं पहुची है। इन सामरिक चीजों में टैक्स का पैसा खर्च होना चाहिए।

 

संविधान कहता है तर्क शील बनों अंधविश्वास से निजात पाओ:

संविधान की धारा 51 क की उपधारा ज कहती है कि भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाये। लोग तर्क शील बने। धर्म एक निजी मामला है उसे घर एवं पूजा स्थलों तक सीमित होना चाहिए। आज अंधविश्वास के कारण पूरा देश पिछड़े पन का शिकार है । कई मौतें सिर्फ अंधविश्वास के कारण होती है। लोग अपनी मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों के इलाज के लिए आज भी ओझा, बैगा, मौलवी के भरोसे रहते है। इस कारण स्‍वास्‍थ सूचकांक में भारत पिछड़ता जा रहा है। हमें उन यूरोपीय देशों से सीख लेनी चाहिए जिन्होंने धर्म के बजाए वैज्ञानिक विचारधारा एवं तकनीक अपनाया और विकसित देशों में अपना मुकाम बनाए हुए है।

संजीव खुदशाह

जाति अत्याचार के खिलाफ राजधानी रायपुर में होगा नग्न प्रदर्शन

जाति अत्याचार के खिलाफ हम लोग नंगा ( निर्वस्त्र ) होकर राजधानी रायपुर में प्रदर्शन करने जा रहे हैं।
जिस तरीके से आरक्षित वर्ग के जनप्रतिनिधि और पढ़े लिखे अधिकारी कर्मचारी अपने वर्ग के साथ हो रहे अन्याय अत्याचार और प्रशासनिक दमन के खिलाफ मुंह

खोलने के बजाए चुप्पी साध कर पेटखोर रहते हुए आरक्षण का लाभ उठाते रहना चाहते हैं। 
लेकिन अब हमें अत्याचार की घटनाओं को सुनते हुए देखते हुए जीवन यापन करना सहन नहीं हो रहा है, हम नहीं चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी अपने जीवनकाल  में जातिगत प्रताड़ना एवं अत्याचार वाला दिन देखकर धरना प्रदर्शन रैली आंदोलन करता रहे। 
गरिमामय जीवन और समान नागरिक अधिकार के साथ जीने के लिए धरना प्रदर्शन रैली आंदोलन करना अगर हमारे जाति वर्ग के हिस्से में परंपरा बन गया है तो हम इस परंपरा को खत्म करना चाहते हैं।
 हमारी जाति ऐसी है कि पुलिस हमारी सुनती नहीं है, प्रशासन हम पर यकीन करती नहीं है।
हमारे राजनीतिक वोट को बिकाऊ समझा जाता है हमारे समाज के सामाजिक ठेकेदारों को रूपए और पद की लालच देकर वोट प्रभावित किया जाता है पदलोलुपता के वजह से सामाजिक ठेकेदारों की आवाज सत्ता के सामने दबी रहती है और इसलिए सरकार हमारे अस्तित्व को स्वीकार करती नहीं है।
हमारी गिनती जनगणना के समय हिंदू धर्म में गिना जाता है लेकिन जब तक हिंदू के सामने मुस्लिम न हो तब तक हिंदू धर्म हमें अपना मानती नहीं है।
 हमारे वर्ग के ऊपर अत्याचार करने वाले एवं हमारे आरक्षण के खिलाफ खड़ा होते हमने सदैव हिंदू धर्मी को ही देखा है।
जब हमारे लोगों पर कोई हिंदू धर्मी अत्याचार करता है तब कोई दूसरा हिंदू धर्मी को हमारे पक्ष में खड़ा होते कभी नहीं देखा है।
हम भारत का संविधान पर विश्वास करते हुए पुलिस से निवेदन किए, प्रशासन को आवेदन दिए, सरकार से गुहार लगाए और न्यायपालिका से न्याय मिलने की उम्मीद लगाए रहे अफसोस हर जगह से हमें निराशा हाथ लगी।
अब हमें एहसास होने लगा है कि हमें इस भारत देश में दोयम दर्जे के नागरिक समझा जाने लगा है।
जहां हमारे सारे संवैधानिक अधिकार को धीरे-धीरे निलंबित किए जाने लगा है और मनुस्मृति के अनुसार हम पर शासन करने का योजना बनाए जाने लगा है।
मजबूरन अब हमें खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिए  नंगा (निर्वस्त्र) होकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता हो गई है।
आइए शोषित समाज के युवा स्वाभिमानी साथियों हमें बढ़ चढ़कर साथ और सहयोग करें।
हमारा कदम अपने शोषित समाज के स्वाभिमान के लिए है। स्वाभिमान एवं अस्तित्व के खातिर हम अपनी जान की परवाह नहीं करते हैं।
बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर प्रतिमा स्थल रायपुर में नंगरा ( नग्न ) होकर प्रदर्शन करने वालों में
संजीत बर्मन
मनीष गायकवाड़ 
विनय कौशल 
पंकज भास्कर

ऩोट :- प्रदर्शन करने वाले साथियों की संख्या बढ़ सकती है।
प्रदर्शन की संभावित तिथी 18/07/2022 
दिन सोमवार 
स्थान बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर प्रतिमा स्थल (कलेक्टर आफिस के सामने) रायपुर छत्तीसगढ़। 

#DalitLivesMatter 
#JusticeForGangaPrasadMarkande

शंकराचार्य यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थापना दिवस की रही धूम

 शंकराचार्य यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थापना दिवस की रही धूम 


भिलाई। श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई द्वारा दिनांक-09/06/ 2022 को अपना द्वितीय स्थापना दिवस का कार्यक्रम मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री आई. पी. मिश्रा, कुलाधिपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई रहें। अति विशिष्ट अतिथि के रूप में श्रीमती जया मिश्रा, महानिदेशक एवं विशिष्ट अतिथि श्री पी. के. मिश्रा, कुलसचिव, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई की गरिमामयी उपस्थिति रहीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. (डॉ.) एल.एस. निगम, कुलपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई ने किया। कार्यक्रम में स्वागत व्यक्तव्य श्री पी. के. मिश्रा, कुलसचिव ने दिया। उन्होंने यूनिवर्सिटी के दुसरे स्थापना दिवस पर यूनिवर्सिटी परिवार को बधाई देते हुए छात्रों से कहा कि यूनिवर्सिटी का लक्ष्य एक्सिलेंस इन एजुकेशन प्रदान करने हेतु निरंतर प्रयासरत है। उन्होंने कहा कि इंडस्ट्री में हर रोज नए-नए बदलाव हो रहे हैं, जिसके लिए अपने आप को अपडेट रखना जरूरी है। एक स्टूडेंट्स के लिए जितना जरूरी किताबें पढ़ना है उतना ही जरूरी इंडस्ट्री पर नजर रखना भी है। कार्यक्रम के इस अवसर पर कुलाधिपति श्री आई.पी. मिश्रा जी ने ऑनलाइन माध्यम से अपने उद्बोधन में कहा कि यूनिवर्सिटी ने अपने नाम की अनुरूपता को स्थापना दिवस पर हुए कार्यक्रम में साकार करने का कार्य किया है । तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति में किसी भी नाम का मतलब बिना अर्थ के नहीं होता। नाम के पीछे कुछ ऐसा छुपा रहता है जो उसकी सार्थकता को प्रमाणित करता है। यूनिवर्सिटी श्री शंकराचार्य जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सार्थक करने का पूरा-पूरा प्रयास कर रही है। साथ ही उन्होंने छत्तीसगढ़ शासन का धन्यवाद देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ में शिक्षा के लिए बेहतर वातावरण प्रदान कर रही है उनके सार्थक सहयोग से हम मध्यभारत का गुणवत्तापूर्ण यूनिवर्सिटी संचालित कर पा रहें हैं। विशिष्ट अतिथि श्रीमती जया मिश्रा ने अपने भाषण में कहा कि यूनिवर्सिटी बरगद के वृक्ष की तरह होती है जिसकी हर एक शाखा नए वृक्ष का रूप ले लेने में सक्षम होती है। साथ ही उन्होंने कहा कि समाज उन्नयन के हर क्षेत्र में श्री शंकराचार्य यूनिवर्सिटी अगुवा के रूप में कार्य करें जिससे विश्व बंधुत्व जैसी उदात्त भावनाओं की उपजाऊ भूमि के रूप में स्थापित हो सकें। स्थापना दिवस को गरिमा प्रदान करते हुए महानिदेशक श्रीमती जया मिश्रा ने प्रावीण्य सूची में आने वाले छात्रों के लिए छात्रवृति की घोषणा की। 

जीवन में सफलता तभी मिलेगी, जब आपका लक्ष्य निर्धारित हो। इसके अभाव में आपकी सारी मेहनत बेकार है। स्थापना दिवस पर अध्यक्षीय उद्बोधन में उपस्थित छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए प्रो. निगम ने यह बातें कही। उन्होंने कहा कि यदि लक्ष्य क्लीयरिटी के साथ तय नहीं हो, तो फिर किसी भी मिशन की तैयारी का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि आप जिम्मेवारी के साथ आगे बढ़ेंगे, तो सिर्फ समाज ही नहीं पूरी कायनात आपके सहयोग के लिए आगे आ जाएगी। लेकिन बिना प्रयास किए आप सिर्फ यह सोचकर बैठे रहेंगे कि लोग स्वत: मदद करेंगे, तो आप इंतजार करते रह जाएंगे और गाड़ी छूट जाएगी। डिग्री व विद्वता दोनों में काफी फर्क है। विद्वान बनने के लिए अच्छी पुस्तकों का गहन अध्ययन जरूरी है। उन्होंने बताया कि श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई केवल शिक्षा पर ही केंद्रित नहीं है बल्कि यह 360 डिग्री के तरीके से काम करता है। यह आपके अन्दर सभी तरह के नेतृत्व, टीम वर्क, दृढ़ संकल्प, लचीलापन, आत्मविश्वास, सम्मान इत्यादि जैसे व्यक्तिगत गुणों का विकास करने का काम करता है ताकि आप एक बहुमुखी व्यक्ति के रूप में विकास कर सकें। कुलपति महोदय ने कहा कि हम समय के अनुरूप अध्ययन के साथ-साथ खेल, लेखन, कला, नृत्य, संगीत आदि जैसे अन्य क्षेत्रों को भी बराबरी का दर्जा देने का प्रयास कर रहे हैं, साथ ही हमारा लक्ष्य एक समग्र शिक्षण वातावरण बनाने पर केंद्रित है।

 इस अवसर पर श्री विनय पीताम्बरन, उप-कुलसचिव ने यूनिवर्सिटी के दो वर्षों के शानदार उपलब्धियों को विद्यार्थियों एवं उपस्थित अतिथियों के समक्ष रखा। कार्यक्रम में विभिन्न विभागों के सत्र-2020-21 एवं 2021-22 में प्रावीण्य सूची में उत्तीर्ण 120 छात्र-छात्राओं एवं विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में सफल 30 छात्र-छात्राओं को को प्रशस्ति प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया गया। 

तत्पश्चात विद्यार्थियों द्वारा रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी गई, जिसमें शानदार एकल गायन अमनदीप, अखिल एवं विनय पीताम्बरन, उपकुलसचिव ने गया । एकल नृत्य भूमिका त्रिपाठी प्रियांशु कुर्रे आस्था त्रिपाठी, कृष्णा बहेती एवं मनजोत द्वारा प्रस्तुति दी गई। युगल नृत्य आस्था त्रिपाठी, कृष्णा बहेती ने किया वही समूह नृत्य पत्रकारिता एवं जनसंचार के छात्रों राखी भंडारी एवं उनके समूह द्वारा छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध गीत “डरा लोर गे हे रे” पर दिया गया एवं अभिनय नुक्कड़ क्लब के सदस्यों ने “मोबाईल प्रयोग के बढ़ते खतरे” पर अपनी उत्कृष्ट अभिनय की प्रस्तुति दी साथ ही तुलसी ने मोनो एक्ट व रागिनी ने वीर रस की कविता प्रस्तुत की. कार्यक्रम का संचालन आरुषी जायसवाल बीटेक कंप्यूटर साइंस द्वितीय सेमेस्टर एवं इशिता बिस्वास, बीबीए द्वितीय सेमेस्टर द्वारा एवं आभार प्रदर्शन प्रो.(डॉ.) शिल्पी देवांगन, अकादमिक समन्वयक ने किया गया। स्थापना दिवस के गरिमामयी क्षण पर गणमान्य नागरिकों, विद्यार्थियों, प्राध्यापकों, कर्मचारियों एवं अधिकारीयों की उपस्थिति रही।
विनय पीताम्बरन
उप-कुलसचिव

Light of Asia Lord Gautam Buddha

 बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

भगवान बुद्ध यानी एशिया का प्रकाश

संजीव खुदशाह

बुद्ध को एशिया का प्रकाश यानी Light of Asia कहा जाता है। जापान, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया, चीन, वियतनाम, ताइवान, तिब्बत, भूटान, कंबोडिया, हांगकांग, मंगोलिया, थाईलैंड, मकाउ, वर्मा, लागोस और श्रीलंका की गिनती बुद्धिस्ट देशों में होती है। वैसे तो बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ था। लेकिन बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर परिनिर्वाण तक पूरा जीवन भारत के भू भाग में ही बीता। बावजूद इसके भारत में बुद्ध को पूरी तरह भुला दिया गया था। आज भी भारत के लगभग सभी भागों में खुदाई के दौरान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त होती रहती है। इसी प्रकार सम्राट अशोक को भी पूरी तरह भुला दिया गया था 1838 में जब अशोक स्तंभ को पढ़ा गया तब ज्ञात हुआ कि कोई अशोक नाम का सम्राट भी यहां हुआ करता था। हालांकि जनमानस में बुध और अशोक बसे हुए हैं। अशोक के लगाए पेड़ उन्हीं के नाम से आज भी जाने जाते हैं।

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प्रसंगवश यह बताना जरूरी है कि वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी वन में इसवी सन से 563 वर्ष पूर्व हुआ था। उनकी माता महामाया देवी जब अपने नैहर देवदह जा रही थी तो कपिलवस्तु और देवदह के बीच लुंबिनी वन हुआ करता था। इसी वन में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ और वह बोधिसत्व कहलाए। मान्‍यता है कि इसी दिन यानी वैशाख पूर्णिमा के दिन 483 ईसा पूर्व 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ।

शोध बताते हैं कि दुनिया में सर्वाधिक प्रवचन बुद्ध के ही रहे हैं। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने जितना कहा और जितना समझाया उतना किसी और ने नहीं। धरती पर अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ जो बुद्ध के बराबर कह गया। सैकड़ों ग्रंथ है जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य कि उनमें कहीं भी दोहराव नहीं है। 35 की उम्र के बाद बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय और धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो कुछ भी कहा वह त्रिपिटक में संकलित है। त्रिपिटक अर्थात तीन पिटक- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के एक अंश धम्मपद को पढ़ने का ज्यादा प्रचलन है। इसके अलावा बौद्ध जातक कथाएं विश्व प्रसिद्ध हैं।

आज हम जितना उनके बारे में जानते हैं। पूरी जानकारी का केवल 20% है। बौद्ध साहित्य जो त्रिपिटक के रूप में था। काफी पहले नष्ट हो गया। अच्छी बात यह थी कि यह साहित्य पाली से तिब्बती भाषा में अनूदित हो चुका था। राहुल सांकृत्यायन ने इसे हिंदी भाषा में अनुवाद करके उपलब्ध कराया। कट्टरपंथियों ने नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय पर हमले किये उसे जलाया, 3 महीने तक किताबे जलती रही।  न जाने कितनी बहुमूल्य किताबें, कीमती जानकारियां रही होगी , सब राख में तब्दील हो गई।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बुद्ध के पीछे सारी दुनिया पागल थी। उस बुद्ध को उसी के जन्म और कार्यस्‍थली में लगभग भुला दिया गया। ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे विभिन्न मत है जिसकी चर्चा यहां गैर जरूरी है।

गौतम बुद्ध को लाइट ऑफ एशिया के नाम से पुकारने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है उनके विचार, उनकी शिक्षाएं। वे दुख का कारण और उसका निवारण बताते हैं। गृहस्थों के लिए जीवन जीने की पद्धति बताते हैं जिसे पंचशील कहा जाता है। वे दुनिया के पहले ऐसे विचारक हैं जो यह कहते हैं कि अपना दीपक खुद बनोयानी अत्त दीपो भव। वे कहते हैं कि कोई बात इसलिए नहीं मानो कि कोई बड़ा व्यक्ति कह रहा है या किसी पवित्र ग्रंथ में लिखा है या मैं कह रहा हूं। इस बात का स्वयं मूल्यांकन करो और खुद अनुभव करो तभी वह बात को मानो। यही वे पहलू थे जिसके कारण बुद्ध सर्वत्र स्वीकार किये गये।

दुनिया के अन्य धर्मों की तरह बुद्ध उपासना की कोई एक पद्धति या रिवाज या कोई ड्रेस कोड अथवा कोई रूमानी आदेश नहीं है। जिससे यह तय हो की आप बुद्धिस्ट हो। सिर्फ बुद्ध के विचारों को मानना जरूरी है। जिसे सम्यक विचार कहते हैं। यही कारण है संसार के सारे बुद्धिस्ट की उपासना पद्धति अलग-अलग है। जापान के बुद्ध वहां की संस्कृति में रचे बसे हैं। ठीक उसी प्रकार चीन के बुद्ध वहां की संस्कृति में समाये है। बुद्ध को मानने के लिए संस्कृति को बदलने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सभी जगहों में पंचशील अष्टशील पाली भाषा में ही स्मरण किए जाते हैं।

भगवान बुद्ध कहते हैं कि जीवन ऐसे जियो जैसे वीणा के तार। वीणा के तारों को इतना ढीला ना रखो कि उसकी ध्वनि बेसुरी लगे और इतना ना कसो कि उसकी ध्वनि कानों में चुभे। वीणा के तारों को ऐसे एडजस्ट करो कि उससे मधुर संगीत की उत्पत्ति हो। लोगों को खुशी मिले। यानी जीवन को वीणा के तारो की तरह जीने की बात बुद्ध कहते हैं।

दुनिया का ऐसा कोई हिस्सा नहीं बचा था जहां बौद्ध भिक्षुओं के कदम न पड़े हों। दुनिया भर के हर इलाके से खुदाई में भगवान बुद्ध की प्रतिमा निकलती है। दुनिया की सर्वाधिक प्रतिमाओं का रिकॉर्ड भी बुद्ध के नाम दर्ज है। बुत परस्ती शब्द की उत्पत्ति ही बुद्ध शब्द से हुई है। बुद्ध के ध्यान और ज्ञान पर बहुत से मुल्कों में शोध जारी है

पश्चिम देशो के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक बुद्ध को पिछले कुछ वर्षों से बड़ी ही गंभीरता से ले रहे हैं। चीन, जापान, श्रीलंका और भारत सहित दुनिया के अनेक बौद्ध राष्ट्रों के बौद्ध मठों में पश्चिमी जगत की तादाद बढ़ी है। वे बुद्ध के बारे मे और जानना चाहते है। वे उन रहस्यों से पर्दा उठाना चाहते है की किन कारणो से बुद्ध को भारत से भुला दिये गये। वे क्या कारण है कि सारे विश्व में अपने विचार का परचम लहराने वाले बुद्ध के अनुयायी भारत से गायब हो गये। भगवान बुद्ध की खोज अभी भी जारी है।

नवभारत संडे कवर स्‍टोरी में 15 मई 2022 को प्रकाशित

कश्मीरी पंडित पर तो फिल्म बनालिया  आपने (कविता)
संजीव खुदशाह 
उन क्षत्रियों पर फिल्म कब बनाओगे जिनकी पूरी कौम को वंश विहीन कर दिया था आपके पूर्वज ने। 
उनकी विधवाओं से बलात्कार कर नई पीढ़ी पैदा की गयी।



उन कायस्थों पर फिल्म कब बनाओगे?
जिन्हें तुमने मनुस्मृति में ब्राह्मणों की अवैध संतान बताया था।
(ब्राह्मण पिता वैश्य माता की संतान कायस्थ(अंबष्ट) होगी मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 8)

उन वैश्यो पर फिल्म कब बनाओगे ?
जिनका प्रतिनिधित्व कब्जा कर बेदखल कर दिया गया।

उन 52% ओबीसी पर फिल्म कब बनाओगे? जिनके 27% आरक्षण पर तुमने न्यायालय से रोक लगवाई है।


उन तेली और कुम्हारों पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिन्हें पुराण में सुबह-सुबह मुंह देखना अशुभ होता है लिख दिया था तुमने। 
(वृहद्धर्म पुराण अध्याय 35 श्लोक 30)

उन लखीमपुर खीरी के किसानों पर फिल्म कब बनाओगे?
जिन्हें तुमने जीप से रौंद डाला था।

उन 20 लाख आदिवासियों पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिन्हें जल, जंगल, जमीन के लिए 
नक्सली कहकर कत्लेआम कर दिया गया।

उस मनीषा वाल्मीकि पर फिल्म कब बनाओगे? 
जिनके साथ ठाकुर ने बलात्कार किया और प्रशासन ने जबरदस्ती टायर जलाकर 
उसका अंतिम संस्कार कर दिया।

जो 1990 में बहिष्कृत हुए उन पर तो फिल्म बन गई।
उन दलितों पर फिल्म कब बनाओगे जिन्हें धर्म ग्रंथों में सालो से बहिष्कृत कर रखा है तुमने ?

जो भाग गए उन पर तो फिल्म  बना ली आपने।
लेकिन जो डटे रहे आखरी सांस तक, 
उन हिंदुओं पर फिल्म कब बनाओगे?
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आधी आबादी नहीं हूं मैं

आधी आबादी नहीं हूं मैं
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च के लिए विशेष) 


मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं
कन्या भ्रूण हत्या करना और उसे कूड़े में फेंक देना याद है ना तुम्हें।
सती के नाम पर जला देना और देवी बनाकर उसकी पूजा करना याद है ना तुम्हें। 

मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं।
मेरे मुंह पर तेजाब फेंकना और बदचलन करार देना याद है ना तुम्हें।
ट्रेनों में बसों में धीरे से स्पर्श करना फिर बाह पकड़ना याद है ना तुम्हें। 

अभी अभी तो तुमने मुझे जलाया है 
होलिका के नाम पर, भूले ना होगे तुम।
होली के जश्न के मुबारकबाद मेरे कान में 
अभी तक गूंज रहे हैं।
उसके बाद महिला दिवस की बधाई देना 
कम से कम तुम्हें तो नहीं जंचता है। 

घरों में तुलसी की तस्वीर तुमने 
बड़ी शिद्दत से लगायी है।
जिन्होंने मुझे ताड़न के अधिकारी बताया है। 

न्याय के मंदिर में मनु की मूर्ति लगाकर 
बड़े गदगद होगे तुम।
जिन्होंने मुझे इंसान तक का दर्जा देने से इंकार किया है। 

जनसंख्या की रिपोर्ट तो देखी होगी तुमने 
लगातार मेरी आबादी घट रही है।
फिर तुम किस मुंह से मुझे आधी आबादी कहते हो। 

मैं परेशान हूं तुम्हारे डबल स्टैंडर्ड्स से
अच्छा होता कि तुम मुझे मुबारकबाद ही नहीं देते।
मुझे आदत हो गई है तुम्हारे बेनकाब चेहरे को देखने की।
मत प्रचारित करो कि मैं आधी आबादी हूं।
संजीव खुदशाह

Kidney can't recover through bricks

ईट के सहारे किडनी फैलियर का इलाज नहीं किया जा सकता | यह टोटकेबाजी है ।


डॉ क्रांती भूषण बनसोडे
डॉ विश्वरूप चौधरी कोई डॉक्टर नही है ।
उसका इतिहास यह है कि वह चूंकि एक अच्छा वक्ता है , तो वह शुरुवात में मोटिवेशनल स्पीकर का काम करता था । बाद में मेमोरी गुरु बन गया । बच्चों की याददाश्त बढ़ाने के नाम पर जबरदस्त ठगी किया । उसके बाद सिंगापुर से फर्जी डिग्री लेकर डाइटीशियन बन गया । लोगों की डाइबिटीज को जड़ से ठीक करने के नाम पर पैसे कमाया ।
अब होता यह है कि हमारे देश की जनता को चमत्कार पर अखंड विश्वास होता है , तथा विज्ञान या एलोपैथी से भयानक डर लगता है । तो इसलिये इस प्रकार के लोगों की दुकानदारी आराम से चलती रहती है । इसके अलावा एक बड़ी बात यह भी है कि चूंकि सत्ता धारी लोगों तथा अफसरों से इनकी सांठगांठ भी होती है , इसलिये इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही भी कोई कर नही सकता है । क्योकि इनकी पहुंच ऊपर तक होती है ।

अब यह किडनी की बीमारी का भी ईलाज बताकर लोगों को गुमराह कर रहा है । इसी की तरह एक और व्यक्ति हैं , जो पानी के टब में लोगों को बिठाकर उनकी डायलिसिस करके किडनी की बीमारी से उनको छुटकारा दिलवाने के दावा करते हैं । वह भी बकवास ही है ।


मेरी समझ से इन सबसे किडनी की समस्या से बिल्कुल भी निजात मिलना संभव नही है ।

सभी मानव के शरीर में दो किडनी होती है । किसी ना किसी वजह से किडनी अपना काम करना बंद कर देती है । जैसे कि डाइबिटीज तथा हाई ब्लड प्रेशर के कारण किडनी अपना काम करना धीरे धीरे इसलिये बन्द कर देती है क्योंकि उसके नेफ्रॉन्स में गड़बड़ी होना शुरू हो जाती है । पहले शुरुवात में किडनी के नेफ्रॉन्स के खराब होने से उसके आंतरिक फिल्टरेशन कम होने लगता है । जिससे हमारे शरीर के खराब तत्व यानी यूरिया एवम क्रिएटिनिन का पेशाब के जरिये निकलना जो  जरूरी होता है , वह कम हो जाता है ।  इस समय दवाओं से ही किडनी का उपचार किया जाता है । कोई भी बीमारी की तरह किडनी की बीमारी और उसकी गड़बड़ी धीरे धीरे शुरू होती है । धीरे धीरे किडनी काम करना बंद कर देती है । जिसे चिकित्सीय भाषा में *"End Stage Renal Disease"* कहते हैं । तब हमें चिकित्सक डायलिसिस की सलाह देते हैं । 

डायलिसिस से यूरिया तथा क्रिएटिनिन को रक्त से छानकर निकाला जाता है । यह एक टेम्पररी काम है । इसलिये सप्ताह में दो बार या कई बार तीन बार भी डायलिसिस करना जरूरी होता है । किसी भी अस्पताल में जाकर मशीन के द्वारा डायलिसिस करने को हीमोडायलिसिस कहा जाता है । इसमें मशीन के द्वारा पूरे शरीर के रक्त को मशीन में लगे फिल्टर से गुजारकर उसमें खराब तत्व तथा अधिक पानी जो शरीर के लिये जरूरी नही होता उसे निकाल दिया जाता है ।
 इसके अलावा पेरिटोनियल डायलिसिस भी एक तरीका है । जिसमें मरीज खुद घर पर ही खुद ही डायलिसिस कर लेता है । इस विधि से पेट में डाइलाइजर को एक तरफ से डालकर दूसरी तरफ से निकला जाता है । इससे भी शरीर के खराब तत्व तथा अधिक पानी निकल जाता है ।

लेकिन यह सब तक तक सही है , जब तक किडनी ट्रांसप्लांट ना किया जा सके । लंबी उम्र तक जीने के लिये किडनी ट्रांसप्लांट ही एक मात्र उपाय होता है ।

 बिस्तर के नीचे ईंट रखकर सिर को नीचे की तरफ झुकाकर तथा पैरों को ऊपर उठा देने से ग्रेविटी के कारण  या  गर्म पानी के टब में बैठाकर कोई डायलिसिस नही होती है । 
यह सब टोटकेबाजी है ।

क्योकि ,
जब तक रक्त से यूरिया और क्रियेटीनीन को नही निकाला जायेगा , तो शरीर के अन्य आंतरिक अंग जैसे लिवर , स्प्लिन , ब्रेन तथा समस्त मांस पेशियों इत्यादि  में खराबी आने लगती है । तथा व्यक्ति की मृत्यु जल्द हो जाती है ।

फिर भी यदि किसी ऐसे मरीज को जिसका गुर्दा काम ना करता हो , और वह डायलिसिस पर ही निर्भर हो वैसा व्यक्ति जिसे इस विधि के द्वारा उसका  ब्लड यूरिया तथा सीरम क्रिएटिनिन नियंत्रण में है , उसकी जब तक पूरी छानबीन ना कर ली जाये , तब तक उसे सही नही माना जा सकता है ।

कई बार फर्जी मरीज बनाकर भी ये तिकडमी लोग सामान्य जनता को बेवकूफ बनाने के लिये ऐसा कार्यक्रम करते हैं । चार छह माह तक इनका कार्यक्रम करके पैसा बनाकर लोगों को ठग कर भाग जाते हैं ।

यदि आपके पास किसी मरीज की जानकारी हो तो उसकी विस्तारित छानबीन करने से हकीकत मालूम हो जायेगी ।

शायद मेरी जानकारी से आपकी शंका का कुछ समाधान हुवा होगा । कृपया बताईये ।
🙏

The arrest of Mr. Nandkumar Baghel periyar of Chhattisgarh's is unconstitutional.

छत्‍तीसगढ के पेरियार श्री नंदकुमार बघेल की गिरफ्तारी असंवैधानिक


छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति
(छत्तीसगढ़ के सामाजिक, जनवादी, प्रगतिशील और जन संगठनों का संयुक्त मंच)

छत्‍तीसगढ के पेरियार श्री नंदकुमार बघेल की गिरफ्तारी असंवैधानिक

7 सितम्बर 2021

छत्‍तीसगढ के पेरियार के नाम से विख्‍यात 84 वर्षिय श्री

नंदकुमार बघेल की आज गिरफ्तारी हो गई। गौरतलब है कि पिछले दिनों नंदकुमार बघेल ने यूपी में एक स्‍टेटमेंट दिया था जिसे ब्राम्‍हण विरोधी कहा जा रहा है। इसी मामले पर एक ब्राम्‍हण गुट के शिकायत पर उनकी गिरफ्तारी की गई। 

श्री नंदकुमार बघेल ने कहा था *‘’ब्राम्‍हण विदेशी है उन्‍हे गंगा से वोल्‍गा भेजा जाना चाहिए।‘’* यहां पर ब्राम्‍हण को विदेशी कहे जाने पर आपत्‍ती है। अगर ये आपत्‍ती सही है तो *सबसे पहले उन्‍हे जेल भेजा जाना चाहिए जिन ब्राम्‍हणों ने अपने आपको विदेशी होने की बात कही है। जैसे वोल्‍गा से गंगा में महापंडित राहुल सांस्‍कृतियांन, भारत एक खोज में पंडित जवाहर लाल नेहरू, लोकमान्य तिलक आदि आदि।*

ज्ञात हो कि नंद कुमार बघेल को एक वर्ग विशेष के खिलाफ तथाकथित टिप्पणी करने के आरोप में रायपुर पुलिस ने मंगलवार को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया। उन्हें 15 दिनों के लिए ज्यूडिशियल कस्टडी में जेल भेज दिया गया है। अब 21 सितंबर को मामले की अगली सुनवाई होगी।

भारत एक ऐसा देश है जब एक समुदाय विशेष जंतर मंतर दिल्‍ली में संविधान की प्रतियां जलाता है, मनुस्‍मृति को लागू करने के नारे लगाता है तब गिरफ्तारियां नही होती। संविधान के हक-अधिकार, आरक्षण, जाति जनगणना के खिलाफ बोलने या लिखने से गिरफ्तारियां नही होती। लेकिन एक 84 साला बुजुर्ग की गिरफ्तारियां होती है जिन्‍होने उनकी ही बात को दोहराया है।

नंद कुमार बघेल छत्तीसगढ़ में लंबे समय से बहुजन जागृति के संदर्भ में कार्य करते आ रहे है। यह समझने की जरूरत है कि असल परेशानी उन्‍हे इनके भाषण से नही है। शिकायतकर्ताओं की परेशानी है, एक ओबीसी मुख्‍यमंत्री जिन्‍होने ओबीसी आरक्षण हेतु ओबीसी गणना का आदेश दिया है। ताकि ओबीसी के आरक्षण का मार्ग प्रसस्‍त हो सके। उन्‍हे परेशानी है की देश के अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक को जगाने में नंद कुमार बघेल निर्णायक भूमिका में है। भेदभाव पूर्ण ब्राम्‍हणवादी व्यवस्था का वे विरोध करते है, लेकिन कई ब्राम्‍हण उनके शार्गिद है। चंद ब्राम्‍हणों को इसी से परेशानी है की ओबीसी सामाज आज जाग रहा है और जातीय गुलामी को तोड़ने की ओर अग्रसर है। वे आज अपने संवैधानिक हको को  मांग रहे है। इसी बहाने वे ओबीसी मुख्‍यमंत्री को ही निशाना बनाना चाहते है।

वे लोग जो भुपेश बघेल के मुख्‍यमंत्री बनने के पहले से नंदकुमार बघेल को जानते है, उन्‍हे मालूम है कि वे वंचित समुदाय अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक के लिए हमेंशा आवाज उठाते रहे है। उनकी पहचान एक लेखक, किसान नेता एवं ओबीसी-बहुजन नेता के रूप में पहले से है। ऐसी स्थिति में उनकी गिरफ्तारी एक षडयंत्र का हिस्‍सा है। जिसकी हम निंदा करते है। समस्‍त अजा अजजा ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक समाज को करनी चाहिए।

विनीत :
डॉक्टर गोल्डी एम जॉर्ज
*छत्तीसगढ़ नागरिक संयुक्त संघर्ष समिति*

सहभागी संगठन :

दलित मुक्ति मोर्चा / दलित स्टडी सर्कल / दलित मूवमेंट असोसीएशन / जाति उन्मूलन आंदोलन - छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ पिछड़ा समाज / सामाजिक न्याय मंच छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ महिला अधिकार मंच / महिला मुक्ति मोर्चा, छत्तीसगढ़ / महिला जागृति संगठन / सबला दल / छत्तीसगढ़ बाल श्रमिक संगठन / राष्ट्रीय आदिवासी संगठन / बिरसा अम्बेडकर छात्र संगठन / संयुक्त ट्रेड यूनियन काऊन्सिल / खीस्तीय जन जागरण मंच / यंग मेन्स क्रिश्चयन ऐसोसिऐशन - रायपुर / छत्तीसगढ़ क्रिश्चयन फैलोशिप / मुस्लिम खिदमत संघ / यंग मुस्लिम सोशल वेलफेयर सोसायटी / छत्तीसगढ़ बैतुलमाल फाऊन्डेश / तथागत संदेश परिवार / इंसाफ छत्तीसगढ़ / छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन / छत्तीसगढ़ नागरिक विकास मंच / सिरसा / कसम - छत्तीसगढ़ / अखिल भारतीय समता सैनिक दल - रायपुर

Why Dr. Radhakrishnan's birthday as Teacher's Day?

डा. राधाकृष्णन का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में क्यों?

(कँवल भारती)


यह सवाल हैरान करने वाला है कि डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में क्यों मान्यता दी गई? उनकी किस विशेषता के आधार पर उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस घोषित किया गया? क्या सोचकर उस समय की कांग्रेस सरकार ने राधाकृष्णन का महिमा-मंडन एक शिक्षक के रूप में किया, जबकि वह कूप-मंडूक विचारों के घोर जातिवादी थे? भारत में शिक्षा के विकास में उनका कोई योगदान नहीं थाI अलबत्ता 1948 में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष जरूर बनाया गया था, जिसकी अधिकांश सिफारिशें दकियानूसी और देश को पीछे ले जाने वाली थींI नारी-शिक्षा के बारे में उनकी सिफारिश थी कि ‘स्त्री और पुरुष समान ही होते हैं, पर उनका कार्य-क्षेत्र भिन्न होता हैI अत: स्त्री शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि वह सुमाता और सुगृहिणी बन सकेंI’[1] इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस स्तर के शिक्षक रहे होंगे?

क्या ही दिलचस्प है कि हम जिस आरएसएस और भाजपा पर ब्राह्मणवाद को फैलाने का आरोप लगाते हैं, उसको स्थापित करने का सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाता हैI उसने वेद-उपनिषदों और भारत की वर्णव्यवस्था पर मुग्ध घोर हिन्दुत्ववादी राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में पूरे देश पर थोप दियाI वर्णव्यवस्था को आदर्श व्यवस्था मानने वाला व्यक्ति सार्वजनिक शिक्षा का हिमायती कैसे हो सकता है? भारत में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का श्रेय किसी भी हिन्दू शासक को नहीं जाता, अगर जाता है, तो सिर्फ अंग्रेजों को जाता हैI अगर उन्होंने शिक्षा को सार्वजनिक नहीं बनाया होता, तो क्या जोतिबा फुले को शिक्षा मिलती? उन्होंने अंग्रेजी राज में शिक्षित होकर ही शिक्षा के महत्व को समझा और भारत में बहुजन समाज और स्त्रियों के लिए पहला स्कूल खोलाI इस दृष्टि से यदि भारत में किसी महामानव के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में याद किया जाना चाहिए, तो वह महामानव बहुजन नायक जोतिबा फुले के सिवा कोई नहीं हो सकताI उनका स्थान सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन कैसे ले सकते हैं?

सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को भारत का महान दार्शनिक कहा जाता हैI पर सच यह है कि वह दार्शनिक नहीं, धर्म के व्याख्याता थेI लेकिन बड़े सुनियोजित तरीके से उन्हें आदि शंकराचार्य की दर्शन-परम्परा में अंतिम दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का काम किया गयाI जिस तरह आदि शंकराचार्य ने मनुस्मृति में प्रतिपादित काले कानूनों का समर्थन किया था, उसी तरह सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन भी मनु के जबर्दस्त समर्थक थेI देखिए, वह क्या कहते हैं, ‘मनुस्मृति मूल रूप में एक धर्मशास्त्र है, नैतिक नियमों का एक विधान हैI इसने रिवाजों एवं परम्पराओं को, ऐसे समय में जबकि उनका मूलोच्छेदन हो रहा था, गौरव प्रदान कियाI[2] परम्परागत सिद्धांत को शिथिल कर देने से रूढ़ि और प्रामाण्य का बल भी हल्का पड़ गयाI वह वैदिक यज्ञों को मान्यता देता है और वर्ण (जन्मपरक जाति) को ईश्वर का आदेश मानता हैI अत: एकाग्रमन होकर अध्ययन करना ही ब्राह्मण का तप है, क्षत्रिय के लिए तप है निर्बलों की रक्षा करना, व्यापार, वाणिज्य तथा कृषि वैश्य के लिए तप है और शूद्र के लिए अन्यों की सेवा करना ही तप हैI’[3] वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वाला एक धर्मप्रचारक तो हो सकता है, पर शिक्षक नहीं हो सकताI
इन्हीं सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ’ में वही डींगें मारी हैं, जो आरएसएस मारता है कि ‘हिन्दूसभ्यता कोई अर्वाचीन सभ्यता नहीं हैI उसके ऐतिहासिक साक्ष्य चार हजार वर्ष से ज्यादा पुराने हैंI वह उस समय से आज तक निरंतर गतिमान हैI’[4] बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपनी बहुचर्चित व्याख्यान-पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में इस गर्वोक्ति का जबरदस्त खंडन किया हैI वे कहते हैं, ‘प्रश्न यह नहीं है कि ‘कोई समुदाय बचा रहता है, या मर जाता है, बल्कि प्रश्न यह है कि वह किस स्थिति में बचा हुआ है? बचे रहने के कई स्तर हैं, लेकिन इनमें से सभी समान रूप से सम्मानपूर्ण नहीं हैंI व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी, सिर्फ जीवित रहने और सम्मानपूर्ण तरीके से जीवित रहने के बीच एक खाई हैI युद्ध में लड़ना और गौरवपूर्वक जीना एक तरीका हैI पीछे लौट जाना, आत्मसमर्पण करना और एक कैदी की तरह जीवित रहना—यह भी एक तरीका हैI हिन्दू के लिए इस तथ्य में आश्वासन खोजना बेकार है कि वह और उसके लोग बचे रहे हैंI उसे इस पर विचार करना चाहिए कि इस जीवन का स्तर क्या है? अगर लोग इस पर विचार करे, तो मुझे विश्वास है कि वह अपने बचे रहने पर गर्व करना छोड़ देगाI हिन्दू का जीवन लगातार पराजय का जीवन रहा है और उसे जो चीज सतत जीवन-युक्त लगती है, वह सतत जीवनदायी नहीं है, बल्कि वास्तव में ऐसा जीवन है, जो सतत विनाश-युक्त हैI यह बचे रहने का एक ऐसा तरीका है, जिस पर कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति, जो सत्य को स्वीकार करने से डरता नहीं, शर्मिंदगी महसूस करेगाI’[5]

यह हैरान करने वाली बात है कि डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान पर न केवल आरएसएस मुग्ध है, जो हिंदुत्व को एक जीवन-शैली बताते हुए उनके कथन को आधार बनाती है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी 11 दिसम्बर 1995 को आर.वाई. प्रभु बनाम पी.के. कुंडे मामले में यह फैसला देते हुए कि हिन्दूधर्म का मतलब एक जीवन शैली है, और वह एक सहिष्णु धर्म है, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ में की गई व्याख्या को ही अपना आधार बनाया थाI जबकि इस मामले में दूसरा पक्ष, जोकि निश्चित रूप से डा. आंबेडकर हैं, उनको पढ़े वगैर हिन्दूधर्म पर कोई निर्णय न निष्पक्ष होगा, और न न्यायसंगतI डा. धर्मवीर[6] ने इस पर सटीक टिप्पणी की थी, ‘लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह लिखते समय इस बात पर विचार नहीं किया, कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने डा. एस. राधाकृष्णन को पुराने ढर्रे का ‘धर्म-प्रचारक’ कहा हैI’[7]

राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ की भूमिका में लिखा है कि ‘सर राधाकृष्णन जैसे पुराने ढर्रे के धर्म-प्रचारक का कहना है- ‘प्राचीन भारत में दर्शन किसी भी दूसरी साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न हो, सदा एक स्वतंत्र स्थान रखता रहा हैI’[8] इसके जवाब में राहुल जी ने लिखा है, ‘भारतीय दर्शन साइंस या कला का लग्गू-भग्गू न रहा हो, किन्तु धर्म का लग्गू-भग्गू तो वह सदा से चला आता है और धर्म की गुलामी से बदतर और क्या हो सकती है?’[9]
डा. राधाकृष्णन के बारे में यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह महान दार्शनिक थे, जबकि सच यह है कि यह केवल दुष्प्रचार हैI वह एक ऐसे ब्राह्मण लेखक थे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय दर्शन में, और ख़ास तौर से बौद्धदर्शन में वेद-वेदांत को घुसेड़ने का काम किया हैI राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में एक स्थान पर उन्हें ‘हिन्दू लेखक’ की संज्ञा दी हैI उन्होंने लिखा है, कि बुद्ध को ध्यान और प्रार्थना मार्गी तथा परम सत्ता को मानने वाला लिखने की गैर जिम्मवारी धृष्टता सर राधाकृष्णन[10] जैसे हिन्दू लेखक ही कर सकते हैंI[11] डा. आंबेडकर ने भी अपने निबन्ध ‘Krishna and his Gita’[12] में डा. राधाकृष्णन के इस मत का जोरदार खंडन किया है कि गीता बौद्धकाल से पहले की रचना हैI डा. आंबेडकर ने डा. राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखकों को सप्रमाण बताया है कि गीता बौद्धधर्म के ‘काउंटर रेवोलुशन’ में लिखी गई रचना हैI[13]

भारतीय दर्शन में डा. राधाकृष्णन के हिन्दू ज्ञान की लीपापोती का विचारोत्तेजक खंडन राहुल सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ में किया हैI वह लिखते हैं, ‘कितने ही लोग—हाँ, भारत के अंग्रेजी शिक्षितों में ही—यह समझने की बहुत भारी गलती करते हैं कि सर राधाकृष्णन जबर्दस्त दार्शनिक हैंI....इसके सबूत के लिए पढ़िए—‘मार पड़ने पर बुद्धि भक्ति (की गोद) में शरण ले सकती है’..राधाकृष्णन यथा नाम तथा गुण भक्तिमार्गी हैंI...शरण लेना कायरों का काम है, उसे जूझ मरना चाहिएI बुद्धि पर मार पड़ रही है, आगे बढ़ने के लिएI जो बुद्धि में अग्रसर है, उस पर मार पड़ती भी नहींI’[14]

राधाकृष्णन के इस कथन पर कि ‘भारत में मानव भगवान की उपज है, और भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सफलता का रहस्य उसका अनुदारात्मक उदारवाद है’, राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हिन्दुओं में से एक-तिहाई को अछूत बनाने में किस तरह सफलता पाई? किस तरह जातिभेद को ब्रह्मा के मुख से निकली व्यवस्था पर आधारित कर जातीय एकता को कभी बनने नहीं दिया?.....यह सब अनुदारात्मक उदारवाद से है और इसलिए कि भारत में मानव भगवान की उपज हैI...यह हम जानते हैं कि सर राधाकृष्णन जैसे भक्तों और दार्शनिकों ने शताब्दियों से भारत की ऐसी रेड़ मारी है, कि वह जिन्दा से मुर्दा ज्यादा हैI’[15]

इसी पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन एक जगह लिखते हैं, ‘सर राधाकृष्णन जैसे लोग भारत में शोषण के पोषण के लिए वही काम कर रहे हैं, जो कि इंग्लैंड में वहां के शासक प्रभु वर्ग के स्वार्थों की रक्षा में सर आर्थर एडिग्टन जैसे वैज्ञानिकों का रहा हैI’[16]
घोर जातिवादी और घोर हिंदूवादी अर्थात ब्राह्मणवादी डा. राधाकृष्णन को शिक्षक के रूप में याद करना किसी तरह से भी न्यायसंगत नहीं हैI

(4/9/2018)
[1] भारतीय शिक्षा का इतिहास, डा. सीताराम जायसवाल, 1981, प्रकाशन केंद्र, सीतापुर रोड, लखनऊ, पृष्ठ 259
[2] यह इशारा बौद्धकाल की ओर हैI इससे स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति बौद्धकाल के बाद की रचना हैI
[3] भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, राजपाल एंड संज, दिल्ली, पृष्ठ 422
[4] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस, खंड 1, 1989, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई, पृष्ठ 66
[5] जाति का विनाश, डा. बाबासाहेब आंबेडकर का प्रसिद्ध व्याख्यान, अनुवादक : राजकिशोर, 2018, फारवर्ड बुक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ 96
[6] डा. धर्मवीर, दलित भारतीयता बनाम न्यायपालिका में द्विज तत्व, 1996, पृष्ठ 6
[7] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1944, भूमिका, पृष्ठ (5), संस्करण 1998 की भूमिका में पृष्ठ (i) हैI किताब महल, इलाहाबादI
[8] डा. राधाकृष्णन, हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी, वाल्यूम I, पेज 2, (नन्दकिशोर गोभिल द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद ‘भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, पृष्ठ 18)
[9] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ (i)
[10] इंडियन फिलोसोफी, वाल्यूम I, फर्स्ट एडिशन, पेज 355
[11] दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ 408
[12] देखिए, डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, चैप्टर 13
[13] वही, पेज 369
[14] राहुल सांकृत्यायन, वैज्ञानिक भौतिकवाद, 1981, लोकभारती इलाहाबाद, पृष्ठ 64-65
[15] वही, पृष्ठ 80-81
[16] वही, पृष्ठ 85

Journalism University, the laboratory of Godse's thoughts

"गोडसे के विचारों की प्रयोगशाला पत्रकारिता विश्वविद्यालय"
Dr Dhanesh Joshi


शिक्षा और शिक्षक समाज के धुरी हैं, परन्तु शिक्षा केवल किसी खास विचार धारा से प्रभावित हो जाए तो शिक्षा और शिक्षक दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है? एक जमाना था, जब राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग राजनीती की बारीकियों को समझने के लिए शिक्षकों के पास जाकर मार्गदर्शन लिया करते थे. गोया कि वे शिक्षक किसी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे. जिसे हम अनेक लेखों एवं धर्मग्रंथों में देख सकते है. बात पत्रकारिता एवं पत्रकारिता शिक्षा की करें, तो चूंकि पत्रकारिता के पास ताकत है, इसलिए राजनीतिक दल भी चाहते हैं कि हर अखबार में, हर चैनल में उनकी विचारधारा वाले पत्रकार हों. किसी भी पत्रकार के लिए किसी ख़ास विचारधारा का अनुयायी होना कोई गलत बात नहीं होती. हाँ, गलत बात तब मानी जाती है, जब वह पत्रकार खबर लिखते हुए अपनी विचारधारा का प्रयोग करता है. शिक्षक भी एक इंसान है. किसी राजनीतिक पार्टी की तरफ उसका झुकाव हो सकता है. आखिर वह भी मतदान करता है. किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देकर आता है. किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना रुझान रखना अलग बात है, और किसी राजनीतिक पार्टी के लिए समर्पित हो जाना और बात है. शिक्षक किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपने रुझान के आधार पर काम करता हुआ दिखे, यह राष्ट्र निर्माण के लिए खतरनाक संकेत है.

ऐसे में शिक्षक अपने रुझान वाली पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता. देखने में आया कि अगर किसी संदर्भ में उनकी पसंद की पार्टी की या उसके किसी नेता की किसी मसले पर आलोचना हो रही हो तो वह तुरंत अपनी टिप्पणी/ लेख से उस तथ्य को नकारने की कोशिश करता है. उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसके रुझान वाली पार्टी के प्रति किसी तरह का आक्षेप न लगे. कई बार वह विद्यार्थियों के सामने ऐसे तर्क ढूंढता है कि अमुक घटना तो दूसरी पार्टियों के समय भी हुई थी. इसका फर्क यह होता है कि अगर किसी पार्टी पर कोई आक्षेप लगता है तो वह शिक्षक ढाल बनकर आने की कोशिश करता है. इन स्थितियों में घटनाओं को मोड़ने, उसके तथ्यों को हल्का करने की कोशिश होती है. किसी विषय पर अपनी राय बनाना, उसके संदर्भ में वाद-विवाद होना, टिप्पणियों के साथ अपने मत को रखना और बात है. लेकिन ढाल की तरह खड़े हो जाना और बात है. इसका नुकसान यह है कि मूल इतिहास को वह गलत तरीके से विद्यार्थियों के समक्ष रखता है और छात्र सही तथ्यों से भटक जाते हैं. इन परिस्थितियों में वह शिक्षक ऐसे तर्क ढूंढता है जिससे विपरीत विचारधारा पर खड़ी पार्टी को दिक्कत हो. इसमें घटनाओ की तह में जाने के बजाय ऐसे तर्क तलाशे जाते हैं, जिससे विपरीत रुझान वाली पार्टी के लिए मुश्किल पैदा हो. तर्क ढूंढना गलत नहीं, लेकिन कई बार बहुत हल्के तर्कों का सहारा लिया जाता है. संघ और बीजेपी की पक्ष-विपक्ष टकराहट वाली घटनाओं को कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर के संदर्भ में देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ के संघ परस्त शिक्षकगण, विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों के माध्यम से संघ एवं बीजेपी के समर्थन में विद्यार्थिओं को  जोड़ते रहें है. 
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटित घटना और पठानकोट की आतंकवादी घटना हर दृष्टि से मानव समाज के खिलाफ हैं. इस घटना को लेकर देश और दुनिया में आलोचना हुई और होना भी चाहिए परन्तु क्या इस घटना के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जबकि वह सत्ता में भी नहीं थी. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संघ समर्थित शिक्षकों के द्वारा आतंकवादी घटना के आड़ में कांग्रेस पार्टी को सरे आम गाली देना और संघ और बीजेपी का समर्थन करना कहाँ तक उचित है. विश्वविद्याल नए ज्ञान और सिद्धांतों का सृजनकर्ता होता है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय गोडसे के विचारों का प्रयोगशाला बन कर रह गया. आम जन पत्रकारिता विश्वविद्यालय को संघ और बीजेपी के आत्मपरिसर के नाम से पुकारने लगे हैं. विश्वविद्यालय में संघ के कार्यकर्ताओं को शोधपीठ में अध्यक्ष के रूप में पुरस्कृत करना संघ के विचार को आगे बढ़ने का ही कार्य था. जिनके चयन में योग्यता सिर्फ संघ के जुड़े होना ही थी. पत्रकारिता विश्वविद्यालय का पठन-पाठन से कोई सरोकार नहीं दिखता. जिसे लेकर प्रख्यात शिक्षाविद प्रोफ़ेसर रमेश अनुपम देशबंधु के सम्पादकीय पृष्ठ में अपनी चिंता जाहिर कर चुके है. छत्तीसगढ़ के प्रख्यात पत्रकार, सामाजिक चिन्तक,  सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ़" के संपादक श्री सुनील कुमार ने पत्रकरिता विश्वविद्यालय के शिक्षा के दशा और दिशा पर सम्पादकीय लिखी, जो छत्तीसगढ़ के शिक्षा इतिहास में पहली बार हुआ. कुलपति के रूप में नियुक्त कुलपति डॉ.मानसिंह परमार की योग्यता एवं शैक्षणिक अनुभव को लेकर माननीय उच्च न्यायालय, माननीय छत्तीसगढ़ लोक आयोग में मामला लंबित है. कुलपति ने विश्वविद्यालय परिसर को को संघ परिसर में परिवर्तित करने का कार्य किया. टीवी और रेडिओ केंद्र के निर्माण कार्य में हुए भ्रष्टाचार के आधार पर छत्तीसगढ़ शासन ने उन्हें हटाया. इस कदम पर संघ समर्थित शिक्षकों एवं संघ के कार्यकर्ताओं  द्वारा अयोग्य एवं भ्रष्ट कुलपति के समर्थन में  सोशल मीडिया एवं दुसरे अभिव्यक्ति के माध्यमों द्वारा बदले की भावना करार देना, किसी भी तरह से  उचित नहीं ठहराया जा सकता. प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा है कि समाज के लिए सरकारें एवं लोकतान्त्रिक शिक्षा क्यों जरूरी हैं. सरकार किस प्रकार की है, या उसकी गुणवत्ता का व्यक्ति के जीवन के हर पहलू पर क्या असर होता है. व्यक्ति की भौतिक कुशलता ही नहीं, प्रत्येक आयाम इससे निर्धारित हो सकता है.जैसे उसके आध्यात्मिक विकास का स्तर, वह क्या खाता है, उसका परिवार कितना बड़ा हो सकता है, कौन-सी सूचना उसे मिले तथा कौन-सी नहीं, उसे कैसा काम मिलता है, वह कैसे मनोरंजन का अधिकारी है, वह कैसे आराधना करता है, उसे आराधना करने की इजाजत होनी भी चाहिए या नहीं. दूसरे शब्दों में प्लेटो के अनुसार किसी समाज को बनाने या बिगाडऩे के पीछे सरकार एवं उसकी शिक्षा प्रणाली का बड़ा हाथ होता है. दुनिया में भारत देश एक जीता-जागता उदाहरण है, जहां शिक्षा प्रणाली राजनीति की शिकार है. कभी प्रबंधन के  स्तर पर, कभी शिक्षक के  स्तर पर, कभी छात्र के  स्तर पर और कभी दोनों स्तरों पर. जब संस्थाओं का निर्माण ही विचार धारा के  आधार पर होने लगे , तो शिक्षा का भविष्य क्या होगा ?

पत्रकारिता शिक्षा में राजनीति वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति की शिक्षा संघ से पायी हैं. ऐसे में शिक्षक किसी विचारधारा विशेष को बढा़ने की शिक्षा-दीक्षा अपने विद्यार्थियों को प्रदान कर रहें हैं तो निराश और हताश होने की बात हैं. क्योंकि ‘अंधा सुखी जब सबका फूटे’ वह सबकी आंखें फोड़ने का उपक्रम करेगा. उसे सुख चाहिए, अपने तरह का सुख. यही खेल जारी है. तब तक जारी रहेगा, जब तक शिक्षा में राजनीति, राजनीति में अशिक्षा, शिक्षा का व्यवसायीकरण, समाज विहीन शिक्षा जारी रहेगी. अंतत: जब ईमानदारी तथा शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिर जाते हैं, तो उसका स्वरूप सबसे खराब तरह की सरकार का बन जाता है. इसमें अधिक जोर शिक्षा पर दिया गया है, ऐसे में न सिर्फ सरकार के प्रमुख का दार्शनिक और योद्धा होना आवश्यक है, बल्कि शिक्षा का प्रबुद्ध स्वरूप  अच्छे जीवन के लिए आवश्यक है.

डॉ. धनेश जोशी
(स्वतंत्र लेखक)

Know the difference between your exploiter and your savior

अपने शोषक और उद्धारक में फर्क जानो 




जो  डोमार अपनी जाति का इतिहास नही जानते। वे अपने पूर्वजो के साथ हुये दमन को भूल गये, वे भूल गये की यही सवर्ण हिन्दू  लोग उनके पूर्वजो के सीने में गडगा लगाने के लिए बाध्यत करते थे, वे भूल गये ये वे ही लोग है जो आज भी अपने मंदिरो में प्रवेश नही देना चाहते। यह वही हिंदू हैं जिन्होंने हमारे पूर्वजों को सफाई पेशा, मैला उठाने जैसे घृणित पेशा को करने के लिए मजबूर किया। 

डोमार जाति का कभी गौरवशाली इतिहास रहा है और आर्यो के आने के पहले वह इस देश के शासक थे। लेकिन इन्होंने डोमारो का दमन किया और मैला प्रथा से जोड़ दिया। हमें फिर इस देश का शासक बनना है।
आज से 50 साल पहले तक डोमारो में जो गैर ब्राह्मणी सभ्यता थी संस्कृति थी अपने देवी देवता थे। जो कि किसी भी हिंदू ग्रंथों में नहीं पाए जाते उन्हें डोमारो ने भुला दिया। 
ये वे लोग है जो नही जानते की डोमार सहित सभी दलित जाति को किस कारण अनुसूचित जाति में जोडा गया। वे दस बिन्दु जिसके कारण उन्हे  अनुसूचित जाति या अछूत जाति में जोडा गया। उनमें से प्रमुख है उनका हिन्दु न होना। डोमार सहित सभी दलित जाति न कभी हिन्दू थी न कभी  हिन्दू हो सकती है। आप भले हिन्दू  अपने आप को मानो लेकिन सवर्ण हिन्दू कभी भी आपको हिन्दू नही मानते है. न ही आपको मंदिर में प्रवेश देते है। पिछले हफ्ते ही मंदिर प्रवेश के प्रयास में सवर्णो ने ऐसे दलितो पर लात घूसे बरसाये थे। ऐसी खबरें लगातार मीडिया में आते रहती है।
जिन डोमारो को अपने हिंदू होने का भ्रम है वह किसी मेन रोड में अपने जातीय पहचान के साथ दुकान खोलें और देखे कितने हिंदू उनसे सामान खरीदते हैं हिंदू होने का भ्रम खत्म हो जाएगा । आज भी मनीषा वाल्मीकि से लेकर मध्य प्रदेश शिवपुरी मे डोमार समाज की दो बच्चियों की निर्मम हत्या किसने की  यह जान जाओगे तो पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। 

ऐसे में कट्टर हिन्दूु समर्थक दो प्रकार के लोग ही बचे है 
1. जिन्हे अपने इतिहास का ज्ञान नही है। 
2. जिन्हे आर आर एस ने हिन्दु धर्म प्रचार के लिए पैसे दिये है या पद पुरस्कार देने का लालच दिया है। 

आईये अब ये भी जान ले वे कौन सी 10 कसौटी थी जिन आधारो पर डोमारो को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया। ये दस कसौटी या बिन्दु 1930 के जनगणना के दौरान तैयार की गई, आज भी गजेटियर में इसके दस्ताावेज मौजूद है।  
1.    जो ब्राम्हण की प्रधानता नही मानतें।
2.    जो किसी ब्राम्हण अथवा अन्य किसी माने हुए हिन्दु गुरू से मन्त्र नही लेते।
3.    जो वेदों को प्रमाण नही मानते।
4.    जो हिन्दु-देवताओं को नही पूजते।
5.    जिनका अच्छे ब्राम्हण पौरोहित्य नही करते।
6.    जो कोई ब्राम्हण पुरोहित नही रखते।
7.    जो हिन्दु मंदिर के भीतर नही जा सकते।
8.    जो अस्पृष्य नही है अथवा निर्धारित सीमा के भीतर आ जाने से अपवित्रता  का कारण होते है।
9.    जो अपने मुर्दो को गाड़ते है।
10.    जो गोमांस खाते है और गौ का किसी प्रकार से आदर नही करते।
इसीलिए अपने शोषणकर्ता और उद्धारकर्ता में फर्क जानो। आज जो समता समानता और तमाम प्रकार के सुविधाएं संविधान से मिल रही है वह सिर्फ बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की बदौलत है। इसे बचा कर रखो और उनके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करो। जिन जातियों ने बाबा साहब के संघर्ष वाले पथ को अपनाया है वह आज कहां से कहां पहुंच गई। लेकिन हमारा समाज आज भी वहीं है। 
बड़ों को प्रणाम, बराबर वालों को प्यार और अपने से छोटे को आशीर्वाद मिले।
जय भीम
संजीव खुदशाह 

Who is jhola chap Doctors?

 कौन है झोलाछाप डॉक्टर ? 

डॉक्टर के बी बनसोडे

पिछले दिनों में बीजेपी सरकार ने आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सीधे एलोपैथी पोस्ट ग्रेजुएशन कराने की तथा उसके बाद उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सकों को भी विभिन्न प्रकार की सर्जरी करने की अनुमति दिये जाने की बात की थी । 


जिसके अनुसार आयर्वेदिक चिकित्सक भी कई प्रकार की आंख , नाक , कान , गले के अलावा अनेक प्रकार की जनरल सर्जरी की ट्रेनिग देकर उन्हें लाइसेंस देने को कहा था ।


इस मुद्दे के खिलाफ देश भर के एलोपैथी चिकित्सक तथा उनकी संस्था आईएमए ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया था ।

उनके अनुसार कोई स्पेशलिस्ट ENT , Ophthalmic या General Surgeon बनाने के लिये पहले MBBS की पढ़ाई करवाई जाती है । जिसमें विद्यार्थी को विशेषज्ञ बनने के पहले सभी विषयों का ज्ञान गहराई से पढ़ाया जाता है । 

वैसी शिक्षा आयुर्वेद में नही पढ़ाई या सिखाई  जाती है ।

इसके अलावा एलोपैथी का भी कोई एक विशेषज्ञ किसी भी अन्य फील्ड में  काम नही कर सकता है । क्योकि उसकी विशेषज्ञता अलग क्षेत्र में है । जैसे कि कोई हड्डी रोग विशेषज्ञ नेत्र रोग विशेषज्ञ का काम नही कर सकता है ।

उसी तरह कोई महिला रोग विशेषज्ञ ENT का काम नही कर सकता है ..... इसी तरह सभी विषय के विशेषज्ञ का अपना फील्ड होता है ।


अब यदि आयुर्वेदिक चिकित्सक को ट्रेनिग देकर भी सर्जरी करवाना है , तो उसके लिये उसे उसके शुरुवात से आयुर्वेदिक विषयों को छोड़ना पड़ेगा । जैसे उनका फार्मेकोलॉजी , पैथोलॉजी वगैरह को त्यागना पड़ेगा ।

और तब वह एलोपैथी के अनुसार सभी विषयों को पढ़कर तथा सीखकर ही विशेषज्ञ बन सकता है ।


*अब सरकार अपनी समझदारी या अज्ञानता का परिचय ना देकर इस जरूरी मापदंड को खारिज करके किसी को भी विशेषज्ञ बनाने की जिद को छोड़ देना ही सही होगा , अन्यथा यह कोशिश वास्तव में जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना है ।*


फिलहाल तो वह मुद्दा अभी कोरोना के बाद से ठंडे बस्ते में है ।

अब आप झोला छाप चिकित्सकों को मान्यता देने की बात करते हैं , तो फिर झाड़फूंक वाले बाबाओं , बैगा गुनिया , तांत्रिक बाबा , हस्तरेखा विशेषज्ञ , तथा ग्रह दशा शांत करने वालों शनिदेव को शांत करने वाले लोगों तथा वास्तु शास्त्र के लोगों को भी फ्रंट लाईन वर्कर का दर्जा क्यों नही दे देना चाहिये ?? आखिरकार वह भी तो जनता की तकलीफ के उपचार में ही हजारों सालों से निर्बाध अपना काम करके जनता को उनके कष्ट से *??* राहत पहुंचाते ही हैं ।


गोबर तथा गोमूत्र से उपचार करने वालों को भी कोरोना से बचाने वाले फ्रंट लाईन वारियर कहने में क्या समस्या है ??

आजकल सोशल मीडिया में भी अनेक लोग विभिन्न प्रकार के उपचार से लोगों का ज्ञानवर्धन कर रहे है , तो उन्हें भी फ्रंट लाईन वारियर का खिताब मिलना ही चाहिये ???


*अब देश को आधुनिकता की बुराइयों से बचाकर वापस 5000 साल पीछे ले जाने वाले सभी बातों का समर्थन हमें क्यों नही करना चाहिये ??*


अवश्य करना चाहिये ।


वैसे भी शहरी लोग , आधुनिक लोग पश्चिमी सभ्यता वाले लोग तो केवल हम सब भारतीय तथा पवित्र लोगों को बर्बाद कर रहे हैं । तो इसलिये फिर हमे वापस जंगली जीवन , शिकारी जीवन को सही मान लेना ही बुद्धिमानी है । 

कृषि में भी आधुनिक विज्ञान का सहारा लेना बंद करना चाहिये ।

देशभर के सभी लोगों को मोटरसाइकिल कार , मोबाईल वगैरह आधुनिक विज्ञान द्वारा निर्मित सब आविष्कारों का प्रयोग करना  बन्द करना चाहिये ।

सभी बड़े अस्पताल जिसमें आधुनिक ईलाज होता है , उन्हें बन्द कर देना चाहिये ।


*और सबसे बड़ी बात आधुनिक युग की पढ़ाई लिखाई( शिक्षा )  भी खत्म किया जाना चाहिये ।*

सभी फैक्ट्रियों को तत्काल बन्द करना चाहिये ।जिसमे कपड़े वगैरह समस्त आधुनिक वस्तुओं का उत्पादन होता है तथा जिसका हम रोजमर्रा के जीवन में लगातार उपयोग करते हैं ।


दरअसल कुछ लोग अपने अधूरे ज्ञान को जस्टिफाई करना चाहते हैं । इसलिये अपने देश की जनता को सबसे अच्छा ज्ञान ( शिक्षा ) देने के विरोध में अज्ञानता को सही साबित करने में लगे रहते हैं ।


इसी सिलसिले में हमे इसे देखना होगा ।

झोलाछाप चिकित्सक कोई कैसे बनता है ??

  कोई एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति , जो किसी मेडिकल शॉप में काम करते करते तथा , किसी अन्य चिकित्सक के साथ काम करते करते उसे कुछ दवाओं के बार में कुछ ज्ञान हासिल कर लेता है या उसको दवाओं की कुछ सामान्य जानकारी मिल जाती है कि , किस तरह की तकलीफ (लक्षण) में कौन सी दवा काम करती है ।

एक दो इंजेक्शन की जानकारी लेकर वह लोगों का इलाज शुरू कर देता है । 

जब ऐसे आधे - अधूरे या कम जानकार व्यक्ति के ईलाज से कुछ लोगों को छोटी मोटी बीमारियों में आराम मिल जाता है , तो आम जनता उसे चिकित्सक मान लेती है । जनता को भी उसके बेहद अल्प ज्ञान से ही जब राहत मिल जाती है , तो वह दूर शहर के किसी बड़े चिकित्सक के पास जाकर अपना समय तथा पैसा बचाने में ही अपनी समझदारी समझता है ।

इस तरह के झोला छाप चिकित्सकों को सरकार वैसे तो कोई मान्यता नही देती है , लेकिन अघोषित तौर पर इनका कारोबार अत्यंत व्यवस्थित रूप से फल फूल रहा है । इन झोला छाप चिकित्सकों के कारण बड़े बड़े कॉरपोरेट अस्पताल भी अपनी कमाई में इजाफा करते है । इसलिये वे भी उन्हें एक प्रकार से प्रश्रय ही देते हैं ।


अब यदि हम इस समस्या के निदान की बात भी कर लें तो बेहतर होगा ।

झोलाछाप चिकित्सक यदि कहें कि ग्रामीण जन जीवन के अच्छे मित्र हैं , और इसलिये वे आराम से कार्यरत रहते भी हैं ।

आम जनता को सरकार से कोई सहूलियत भी नही मिलती , तो वे झोलाछाप चिकित्सकों के शरणागत होने को मजबूर भी हैं ।

भारत की सरकार ने आजादी के बाद से अब तक गांव गांव में शिक्षा , स्वास्थ्य एवम अन्य समस्त मूलभूत सुविधा प्रदान करने में असफल रही है ।

कहने को मिनी पीएचसी , सीएचसी एवम जिला अस्पताल खोले हुवे है , लेकिन उसमें  से अधिकांश जगहों पर ना चिकित्सक हैं और ना पैरामेडिकल स्टॉफ और ना दवाइयाँ या एडमिशन की सहूलियत ।

ऐसी स्तिथि में झोलाछाप ही ग्रामीण जनता के लिये मददगार है ।

अब यदि इस सिस्टम को ठीक करना है , तो सरकार को फिलहाल एक काम करना चाहिये । वह ये कि जितने भी झोलाछाप चिकित्सक हैं , उनकी पहचान करके उन्हें पहली बार , लगभग एक साल की ट्रेनिग देकर , कुछ निश्चित बीमरियों के उपचार के लिये लाइसेंस दे देना चाहिये । फिर कुछ निश्चित दवाओं का किट उपलब्ध करवाना चाहिये एवम उनकी सेलरी निर्धारित करके ग्रामपंचायत से दिलवाई जानी चाहिये ।

हालाकि सरकार ने आशा दीदी इत्यादि को इसके लिये नियुक्त किया है , लेकिन उतना ही पर्याप्त नही है ।

प्रत्येक झोलाछाप चिकित्सक को उसके बाद प्रतिवर्ष 15 दिनों की ट्रेनिंग देना चाहिये , जिससे वह समय समय पर अपडेट होते रहें ।


सरकार सबको सही एवम वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित करने के लिये मुफ्त शिक्षा दे । सभी प्राइवेट शिक्षा संस्थान बन्द किये जाने चाहिये , तथा सभी जगह एक तरह की शिक्षा दी जानी चाहिये । स्टेट बोर्ड , या केंद्रीय बोर्ड ( (ICSE &CBSE) वगैरह बन्द करके समान शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिये । कुछ राज्य अपनी मातृभाषा में शिक्षा देना चाहते हैं , तो उसके लिये यह सुविधा गई जानी चाहिये । शिक्षा हासिल करने का मकसद ज्ञान हासिल करना होना चाहिये , ना की  डिग्रीधारी बनकर केवल नौकरी हासिल करने की मानसिकता से बच्चों को तथा जनता को मुक्त किया जाना चाहिये । 

सबको रोजगार प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिये ।

यही सब समानता चूंकि विकसित देशों में लगभग 150 साल पहले ही अपना ली थी , जिनके चलते आज वे विकसित समाज हैं । और हम अभी भी अविकसित समाज और दुनिया के पिछड़े तथा गरीब देश में एक देश है ।

इसमें भी हमें अपनी अज्ञानता पर गर्व करना छोड़कर वास्तविक उन्नति की दिशा में अपनी सोच विकसित करना जरूरी है ।

धन्यवाद ।

May Bhangi hu by Bhagwan Das

''मैं भंगी हूं '' आज भी प्रासंगिक

संस्मरण
संजीव खुदशाह
सन् 1983-84 के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था।
Writer may bhangi hun

समाज के सक्रिय कार्यकर्ताओं की बैठक में, मैं भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील हैं ये जानकारी बाद में हुई) हैं, जो समाज के लिए भी काम कर रहे हैं। मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुई, किन्तु यादा जानकारी नहीं मिल सकी । इस दौरान मैंने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, मुझे किताबें लाकर देते थे और मैं उन्हें पढ़कर वापिस कर देता था । उन्होंने अमृतलाल नागर की '' नाच्यो बहुत गोपाला'' उपन्यास लाकर दी परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मैं पूरा न पढ़ सका । पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाएं थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मैं मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी। इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी '' मै भंगी हूं'' इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़  डाली। मन झकझोर देने वाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थी, इसलिए इस किताब को मैं खरीद नहीं पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।
मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नहीं थी कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैं, जिनके बारे में मैंने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुध्दि जीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, जिन्होंने मैं भंगी हूं किताब की रचना की है। मैंने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखी, जिसमें मैं भंगी हूं की प्रशंसा की थी।
अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मैं स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई । नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। मैं नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे। उन्होंने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर  पूछा कि -
'' तुम क्या करना चाहते हो..?  ''
''मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।''  मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपायेगें। मेरा उत्साहवर्धन करेगें।
''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुंच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगा, तभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो। ऐसी उल्टी धारा तो मैने कही नही देखी।'' -उन्होने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया । 1998 में मुझे शासकीय नौकरी मिली, इसी बीच मैं सुदर्शन समाज, वाल्मीकि समाज के कार्य-मों में एक दर्शक की भांति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मैं इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया , मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई। अब सुदर्शन ऋषि, वाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन है? पढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता है, मुझे विश्वास हो गया। मैने अपनी चर्चित पुस्तक %%सफाई कामगार समुदायक्वक्व पर काम करना प्रारंभ किया । कई किताबों, लाइब्रेरियों की खाक छानी बुध्दिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवानदास जी से हुई। मैने पहले उनसे फोन पर बात की, उन्होने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वाले, उची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे है। मैने उन्हे बताया कि मै उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी । अभी मै इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी । मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया । उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मै ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे । उनका व्यवहार, उनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी। वे कह रहे थे लिखने-विखने मे मत पड़ो और खूब पढ़ो । उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई । मैने उनको नोट किया। ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थी । उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगे, इनसे किताब के पैसे जमा करा लो । मैने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका । यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी । उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछा, लेकिन वे टाल गये । शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें। मै लौट आया ।
इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। 2005 को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन 2007 को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया। दिल्ली में हुए इस कार्यम में एड. भगवानदास जी भी आये थे। मैने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में %%मै भंगी हूंक्वक्व किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नही था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।
जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे। आज मै अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला। स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा-
संजीव खुदशाहजी, आप ही हैं न..?''
'' जी हां'' -मैंने कहा हां ।
'' मैंने आपकी किताब देखी, बहुत ही अच्छी लिखी है आपने । इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।''  - उन्होंने कहा ।
इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा - '' आदरणीय इस किताब में आपका भी जि है। मैंने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।''
वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थे, साथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे।
आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध है, वह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)। फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते है कि मैं भागवतशरण उपध्याय की '' खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर'' पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं'' आज भी प्रासंगिक है।
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