"गोडसे के विचारों की प्रयोगशाला पत्रकारिता विश्वविद्यालय"
शिक्षा और शिक्षक समाज के धुरी हैं, परन्तु शिक्षा केवल किसी खास विचार धारा से प्रभावित हो जाए तो शिक्षा और शिक्षक दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है? एक जमाना था, जब राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग राजनीती की बारीकियों को समझने के लिए शिक्षकों के पास जाकर मार्गदर्शन लिया करते थे. गोया कि वे शिक्षक किसी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते रहे. जिसे हम अनेक लेखों एवं धर्मग्रंथों में देख सकते है. बात पत्रकारिता एवं पत्रकारिता शिक्षा की करें, तो चूंकि पत्रकारिता के पास ताकत है, इसलिए राजनीतिक दल भी चाहते हैं कि हर अखबार में, हर चैनल में उनकी विचारधारा वाले पत्रकार हों. किसी भी पत्रकार के लिए किसी ख़ास विचारधारा का अनुयायी होना कोई गलत बात नहीं होती. हाँ, गलत बात तब मानी जाती है, जब वह पत्रकार खबर लिखते हुए अपनी विचारधारा का प्रयोग करता है. शिक्षक भी एक इंसान है. किसी राजनीतिक पार्टी की तरफ उसका झुकाव हो सकता है. आखिर वह भी मतदान करता है. किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देकर आता है. किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना रुझान रखना अलग बात है, और किसी राजनीतिक पार्टी के लिए समर्पित हो जाना और बात है. शिक्षक किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपने रुझान के आधार पर काम करता हुआ दिखे, यह राष्ट्र निर्माण के लिए खतरनाक संकेत है.
ऐसे में शिक्षक अपने रुझान वाली पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता. देखने में आया कि अगर किसी संदर्भ में उनकी पसंद की पार्टी की या उसके किसी नेता की किसी मसले पर आलोचना हो रही हो तो वह तुरंत अपनी टिप्पणी/ लेख से उस तथ्य को नकारने की कोशिश करता है. उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसके रुझान वाली पार्टी के प्रति किसी तरह का आक्षेप न लगे. कई बार वह विद्यार्थियों के सामने ऐसे तर्क ढूंढता है कि अमुक घटना तो दूसरी पार्टियों के समय भी हुई थी. इसका फर्क यह होता है कि अगर किसी पार्टी पर कोई आक्षेप लगता है तो वह शिक्षक ढाल बनकर आने की कोशिश करता है. इन स्थितियों में घटनाओं को मोड़ने, उसके तथ्यों को हल्का करने की कोशिश होती है. किसी विषय पर अपनी राय बनाना, उसके संदर्भ में वाद-विवाद होना, टिप्पणियों के साथ अपने मत को रखना और बात है. लेकिन ढाल की तरह खड़े हो जाना और बात है. इसका नुकसान यह है कि मूल इतिहास को वह गलत तरीके से विद्यार्थियों के समक्ष रखता है और छात्र सही तथ्यों से भटक जाते हैं. इन परिस्थितियों में वह शिक्षक ऐसे तर्क ढूंढता है जिससे विपरीत विचारधारा पर खड़ी पार्टी को दिक्कत हो. इसमें घटनाओ की तह में जाने के बजाय ऐसे तर्क तलाशे जाते हैं, जिससे विपरीत रुझान वाली पार्टी के लिए मुश्किल पैदा हो. तर्क ढूंढना गलत नहीं, लेकिन कई बार बहुत हल्के तर्कों का सहारा लिया जाता है. संघ और बीजेपी की पक्ष-विपक्ष टकराहट वाली घटनाओं को कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर के संदर्भ में देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ के संघ परस्त शिक्षकगण, विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों के माध्यम से संघ एवं बीजेपी के समर्थन में विद्यार्थिओं को जोड़ते रहें है.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटित घटना और पठानकोट की आतंकवादी घटना हर दृष्टि से मानव समाज के खिलाफ हैं. इस घटना को लेकर देश और दुनिया में आलोचना हुई और होना भी चाहिए परन्तु क्या इस घटना के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जबकि वह सत्ता में भी नहीं थी. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संघ समर्थित शिक्षकों के द्वारा आतंकवादी घटना के आड़ में कांग्रेस पार्टी को सरे आम गाली देना और संघ और बीजेपी का समर्थन करना कहाँ तक उचित है. विश्वविद्याल नए ज्ञान और सिद्धांतों का सृजनकर्ता होता है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय गोडसे के विचारों का प्रयोगशाला बन कर रह गया. आम जन पत्रकारिता विश्वविद्यालय को संघ और बीजेपी के आत्मपरिसर के नाम से पुकारने लगे हैं. विश्वविद्यालय में संघ के कार्यकर्ताओं को शोधपीठ में अध्यक्ष के रूप में पुरस्कृत करना संघ के विचार को आगे बढ़ने का ही कार्य था. जिनके चयन में योग्यता सिर्फ संघ के जुड़े होना ही थी. पत्रकारिता विश्वविद्यालय का पठन-पाठन से कोई सरोकार नहीं दिखता. जिसे लेकर प्रख्यात शिक्षाविद प्रोफ़ेसर रमेश अनुपम देशबंधु के सम्पादकीय पृष्ठ में अपनी चिंता जाहिर कर चुके है. छत्तीसगढ़ के प्रख्यात पत्रकार, सामाजिक चिन्तक, सांध्य दैनिक "छत्तीसगढ़" के संपादक श्री सुनील कुमार ने पत्रकरिता विश्वविद्यालय के शिक्षा के दशा और दिशा पर सम्पादकीय लिखी, जो छत्तीसगढ़ के शिक्षा इतिहास में पहली बार हुआ. कुलपति के रूप में नियुक्त कुलपति डॉ.मानसिंह परमार की योग्यता एवं शैक्षणिक अनुभव को लेकर माननीय उच्च न्यायालय, माननीय छत्तीसगढ़ लोक आयोग में मामला लंबित है. कुलपति ने विश्वविद्यालय परिसर को को संघ परिसर में परिवर्तित करने का कार्य किया. टीवी और रेडिओ केंद्र के निर्माण कार्य में हुए भ्रष्टाचार के आधार पर छत्तीसगढ़ शासन ने उन्हें हटाया. इस कदम पर संघ समर्थित शिक्षकों एवं संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा अयोग्य एवं भ्रष्ट कुलपति के समर्थन में सोशल मीडिया एवं दुसरे अभिव्यक्ति के माध्यमों द्वारा बदले की भावना करार देना, किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा है कि समाज के लिए सरकारें एवं लोकतान्त्रिक शिक्षा क्यों जरूरी हैं. सरकार किस प्रकार की है, या उसकी गुणवत्ता का व्यक्ति के जीवन के हर पहलू पर क्या असर होता है. व्यक्ति की भौतिक कुशलता ही नहीं, प्रत्येक आयाम इससे निर्धारित हो सकता है.जैसे उसके आध्यात्मिक विकास का स्तर, वह क्या खाता है, उसका परिवार कितना बड़ा हो सकता है, कौन-सी सूचना उसे मिले तथा कौन-सी नहीं, उसे कैसा काम मिलता है, वह कैसे मनोरंजन का अधिकारी है, वह कैसे आराधना करता है, उसे आराधना करने की इजाजत होनी भी चाहिए या नहीं. दूसरे शब्दों में प्लेटो के अनुसार किसी समाज को बनाने या बिगाडऩे के पीछे सरकार एवं उसकी शिक्षा प्रणाली का बड़ा हाथ होता है. दुनिया में भारत देश एक जीता-जागता उदाहरण है, जहां शिक्षा प्रणाली राजनीति की शिकार है. कभी प्रबंधन के स्तर पर, कभी शिक्षक के स्तर पर, कभी छात्र के स्तर पर और कभी दोनों स्तरों पर. जब संस्थाओं का निर्माण ही विचार धारा के आधार पर होने लगे , तो शिक्षा का भविष्य क्या होगा ?
पत्रकारिता शिक्षा में राजनीति वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति की शिक्षा संघ से पायी हैं. ऐसे में शिक्षक किसी विचारधारा विशेष को बढा़ने की शिक्षा-दीक्षा अपने विद्यार्थियों को प्रदान कर रहें हैं तो निराश और हताश होने की बात हैं. क्योंकि ‘अंधा सुखी जब सबका फूटे’ वह सबकी आंखें फोड़ने का उपक्रम करेगा. उसे सुख चाहिए, अपने तरह का सुख. यही खेल जारी है. तब तक जारी रहेगा, जब तक शिक्षा में राजनीति, राजनीति में अशिक्षा, शिक्षा का व्यवसायीकरण, समाज विहीन शिक्षा जारी रहेगी. अंतत: जब ईमानदारी तथा शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिर जाते हैं, तो उसका स्वरूप सबसे खराब तरह की सरकार का बन जाता है. इसमें अधिक जोर शिक्षा पर दिया गया है, ऐसे में न सिर्फ सरकार के प्रमुख का दार्शनिक और योद्धा होना आवश्यक है, बल्कि शिक्षा का प्रबुद्ध स्वरूप अच्छे जीवन के लिए आवश्यक है.
डॉ. धनेश जोशी
(स्वतंत्र लेखक)
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