Program organised for constitution day at Raipur

  दलितों का जितना बड़ा दुशमन ब्राम्हणवाद है उतना बड़ा दुश्मन पूंजीवाद है - प्रोफेसर जितेंद्र प्रेमी

रायपुर वृंदावन भवन में संविधान दिवस पर कार्यक्रम 

 26 नवंबर का दिन संविधान दिवस के रूप में मनाने का पिछले कुछ वर्षों से प्रचलन में आया है । समाज के अलग अलग वर्गों के लोग और राजनीतिक पार्टियाँ एवं सरकारें संविधान दिवस पर विशेष आयोजन करने लगे हैं । कुछ वर्ग या राजनीतिक दल महज़ औपचारिकता या ध्यानाकर्षण के संविधान दिवस मनाने का दिखावा करते हैं, लेकिन समाज का दलित वर्ग शुरुवात से संविधान का सच्चा सम्मान करता आया है और लगातार हर वर्ष शिद्दत से संविधान की रक्षा के लिए कृत संकल्पित रहा है। इसी संकल्प को आगे बढ़ाते हुये देश की प्रतिष्ठित संस्था डीएमए इंडिया और अस्मिता विमर्श ने संविधान दिवस पर संविधान का महत्व विषय पर शहर के चिर परिचित हॉल, वृंदावन हॉल सिविल लाइन में परिचर्चा का आयोजन किया जिसमें शहर के बौद्धिक की प्रमुख हिस्सेदारी थी । यह गौर करने वाली बात है कि समाज को दिशा में बौद्धिक वर्ग की विशेष भागीदारी होती है इसलिए यह परिचर्चा बहुत महत्व की हो जाती है ।

      कार्यक्रम के शुरुवात में डीएमए इंडिया के संयोजक संजीव खुदशाह ने दर्शकों के समक्ष कार्यक्रम का प्रस्तावना रखा । उन्होंने कहा कि दलित समाज के लिए संविधान का बहुत महत्व है। आज संविधान लागू होने के बावजूद दलित समाज पर अत्याचार हो रहा तो अगर संविधान नहीं होता तो दलित समाज की स्थिति क्या होती ? उन्होंने संविधान के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि संविधान में सभी वर्गों को समान रूप से अधिकार दिया गया है। संविधान में उच्च वर्ग को भी वही अधिकार प्राप्त है जो अधिकार समाज के दबे कुचले वर्ग को प्राप्त है।  शेखर नाग ने जन गीत से प्रथम सत्र की शुरुआत की तत्पश्चात अलग वक्ताओं ने विमर्श को आगे बढ़ाया। गांड़ा महासभा के रघुचन्द निहाल ने कहा संविधान के पहले और संविधान के बाद दलित वर्ग के स्थिति में ज़बरदस्त विरोधाभास था । संविधान के पहले दलित वर्ग भयंकर शोषण का शिकार था और संविधान लागू होने के बाद शोषण में उत्तरोत्तर कमी आ रही है । कार्यक्रम में युवा साथी उमेश महिलानी ने कहा कि आज संविधान के दिखावे के आयोजन हो रहे हैं । आज संविधान के साथ पौराणिक पात्रों को जोड़ा जा रहा जबकि संविधान में वैज्ञानिक चिंतन परंपरा की वकालत की गई है । प्रोफ़ेसर आर टंडन ने वर्तमान समय में संविधान पर मंडरा रहे ख़तरे पर चिंता जाहिर की । किस तरह से संविधान को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है । ग़ैर संवैधानिक ढ़ंग से प्रतीकों को स्थापित किया जा रहा है । एक ख़ास विचारधारा बढ़ावा दिया जा रहा है । योग्यता का गला घोंटकर अयोग्य लोगों की अकादमियों में घुसपैठ करवाई जा रही है जो समाज और देश के लिए बहुत घातक है । 

           अगले वक्ता के रूप में अपनी बात रखते हुए देश के प्रसिद्ध वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी निसार अली जी ने क्रांतिकारी शायर आदमी गोंड़वी की मशहूर पंक्ति *हिन्दू या मुस्लिम के अहसेसात को छेड़िये*......से अपने वक्तव्य की शुरुवात की। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये एक और क्रांतिकारी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का मशहूर कलाम ऐ ख़ाक नाशीनो उठ बैठो वो वक़्त करीब आ पहुंचा है .......उल्लेखित किया। उन्होंने आज के ख़ाक नाशीनो की पहचान बताई और संघर्ष के दिन नज़दीक आ गये हैं इस बात की तरफ़ साफ़ इशारा किया। दलित वर्ग की हालत सिर्फ़ और जन संघर्ष से बदलेंगे । 

       अगले वक्ता के तौर पर आमंत्रित वरिष्ठ दलित बुद्विजीवी साथी देवलाल भारती जी दलित वर्ग के साथ होने वाले साज़िशों को रेखांकित किया । उन्होंने कहा कि किस तरह साज़िशन शासकीय नौकरियों को ख़त्म कर दलित वर्गों के संविधान प्रदत्त हक़ अधिकारों को कुचला जा रहा है। रोस्टर का पालन नहीं किया जा रहा है । 

अगली कड़ी में अपनी बात को मुखरता से रखते हुए प्रोफेसर जितेंद्र प्रेमी ने कहा कि दलितों का जितना बड़ा दुशमन ब्राम्हणवाद है उतना बड़ा दुश्मन पूंजीवाद है । इसलिए दलितों को ब्राम्हणवाद और पूंजीवाद के ख़िलाफ़ बराबर का संघर्ष चलाना होगा । पहले सत्र के अंत में आजक्स के वरिष्ठ साथी लक्ष्मण भारती ने विस्तार से अपनी बात रखा । उन्होंने दलित वर्ग के तथाकथित दोगले जनप्रतिनिधियों के दोगलेपन को बेनक़ाब करते हुए कहा कि चुनाव पूर्व दलित जन प्रतिनिधि किस तरह दलित हितैषी होने का दिखावा करते हैं और चुनावी विजय के बाद किस तरह दलित प्रश्नों पर मौन साध लेते हैं और बुर्जुआ राजनैतिक दल के एजेंट बन दलितों के विरुद्ध ही काम करने लगते हैं ऐसे लोगों से सावधान रहने की आवश्यकता है । भारती जी ने वर्तमान में मताधिकार पर मंडरा रहे बहुत बड़े संकट की तरफ़ लोगों का ध्यान आकृष्ट किया । कार्यक्रम का संचालन शेखर नाग ने किया।

              पहले सत्र के समापन के पश्चात दूसरे सत्र में जाति प्रमाण के निर्माण में कठिनाई और निदान विषय पर डीएमए इंडिया के संयोजक संजीव खुदशाह ने अपने पीपीटी के माध्यम से लोगों को विस्तारपूर्वक बताया। क्रमवार अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि क्यों 1950 के पहले का दस्तावेज़ और कौन कौन से दस्तावेज़ मंगा जाता है । इसके साथ ही जाति प्रमाण की जटिल प्रक्रिया का राज्य सरकार ने अब तक क्या सरलीकरण क्या है वह भी उन्होंने बताया । उनके वक्तव्य से जाति प्रमाण निर्माण की प्रक्रिया संबंधित शंकाओं का अधिकतम समाधान हुआ । इस अंतिम सत्र में इसके पश्चात वरिष्ठ साथी बसंत निकोसे ने भी अपनी बात रखी। इस सत्र में आमंत्रित समाज के वरिष्ठ साथी संजय गजघाटे जी ने भविष्य की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुये दलित समाज को अधिक अधिक से उद्यमी बनने की दिशा में बढ़ने के लिए बल देना होगा क्योंकि धीरे धीरे शासकीय नौकरियाँ कम हो रही है । रोज़गार के साधन सीमित हो रहे हैं इसलिए दलित वर्ग को उद्यमिता विकास की तरफ़ ध्यान देना चाहिए । 

कार्यक्रम में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव पवन सक्सेना, ट्रेड यूनियन से दलीप भगत, जय भीम कल्चरल ग्रुप के सुरेंद्र कोल्हेकर, भारतीय बौद्ध महासभा और समता सैनिक दल से विजय गजघाटे, संदीप खुदशाह, गांडा महासभा से नरेंद्र बाघ, युवा साथी भावेश परमार, बबलू महानंद, उमाशंकर और शहर के अन्य गणमान्य नागरिक उपस्थित थे ।

शेखर नाग

Janmejay Sona get PhD on Manual Scavenging

 

एडवोकेट जन्मेजय सोना को पीएचडी

(PhD सफाई कामगारों के राेेेेेजगार और पूर्नवास पर केन्‍द्रीत) 

छत्‍तीसगढ़ की राजधानी रायपुर शहर निवासी। पेशे से वकालत करने वाले जन्मेजय सोना को विधि संकाय में पीएचडी की उपाधि मिली। उन्होंने पंडित रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय रायपुर विधि अध्ययन शाला के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर बेनुधर रौतिया के अधीन हाथ से मैला उठाने वाले सफाई कर्मचारियों के सामाजिक व आर्थिक उद्धार हेतु बनी कानून का छत्तीसगढ़ राज्य में पालन किए जाने संबंधी सामाजिक व कानूनी अध्ययन के ऊपर शोध किया था। उनके पीएचडी का विषय ''कंप्लायंस ऑफ द प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्कैवेंजर एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013- ए सोशल लीगल स्टडी विद स्पेशल रेफरेंस टू द स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़'' था।

Cast Certificate ke liye Document 1950 ka kaise prapt kare SC ST Jati Praman patra जाति प्रमाण पत्र

 

जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को काफी परेशानी उठाना पड़ता है खासतौर पर जब उनके पास 1950 के दस्तावेज नहीं होते हैं तो उनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पाता है और वे लोग आरक्षण जैसे लाभ से वंचित हो जाते हैं। आइए इस वीडियो में जानते हैं कि कैसे सेंट्रल गवर्नमेंट के और स्टेट गवर्नमेंट के आदेश का पालन करते हुए आप अपना प्रमाण पत्र बना सकते हैं। इस वीडियो में यह भी जानिए कि आखिर क्यों 1950 के दस्तावेज मांगे जाते हैं।

नव बौद्धों को दिवाली, होली त्यौहार मनाना चाहिए ? Neo Buddhism must celebrate Indian festival

Debate on Valmiki community on the pretext of this book इस पुस्‍तक के बहाने वाल्‍मीकि कौम पर बहस

 

इस पुस्‍तक के बहाने वाल्‍मीकि कौम पर बहस

संजीव खुदशाह 

यह किताब वाल्मीकि कौम मूलनिवासी एक दस्तावेज की दृष्टिकोण’2021 जिसके लेखक शंबूक अनमोल है,  भगवान दास की किताब मैं भंगी हूं समेत अन्य किताब को केंद्रित करके आलोचनात्मक दृष्टिकोण से लिखी गई है। इसमें लेखक का कहना है कि भगवान दास ने अपनी किताबों में वाल्मीकि शब्द का प्रयोग जाति के रूप में 1925 के बाद में किया जाने लगा लिखा है। इसके कारण लोगों में यह भ्रम फैल गया की वाल्मीकि जाति जो कि पहले चूहड़ा नाम से जानी जाती थी। उन्हें सिर्फ हिंदू बनाए रखने के लिए वाल्मीकि नाम जाति से जोड़ा गया। जबकि यह सच्चाई नहीं थी। सच यह है कि वाल्मीकि नाम पहले से इस जाति के साथ में जुड़ा हुआ है। लेखक यहां पर तथ्य देते हैं कि 1883 मे भी जाति के रूप में वाल्मीकि शब्द का प्रयोग होता है। वे इसके लिए 1881 की जनगणना का हवाला देते हैं। तथा भगवान दास को एक साजिश कर्ता के रूप में पेश करते हैं। वे कहते हैं कि चूहड़ा को भगवान वाल्मीकि से अलग करने के लिए ऐसा किया गया और एडवोकेट भगवान दास के इस झूठ को आगे संजीव खुदशाह सफाई कामगार समुदाय में ओमप्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता में और सुशीला टांकभंवरे ने अपनी किताब में इसे तथ्य के रूप में पेश किया।

लेखक इस किताब में यह भी बताते हैं कि लालबेग शब्द उर्दू लिपि के कारण आया। उर्दू में बाल्मीकि और लालबेग शब्द एक जैसे ही लिखे जाते हैं। किसी लेखक ने उर्दू में वाल्‍मीकि लिखा तो दूसरे ने इसे लालबेग पढ़ लिया। लेखक मैं भंगी हूं किताब के हवाले से लिखते है कि  यह भी हो सकता है कि वाल्मीकि किसी निचली जाति से संबंधित रहे हो और शायद इसी कारण एक ब्राह्मण कवि‍ (तुलसीदास) को दोबारा रामकथा लिखनी पड़ी (पृष्ठ 28) यहां पर यह बताना आवश्यक है कि हिंदू धर्म ग्रंथो में वाल्मीकि को ब्रह्मा के मानस पुत्र प्रचेता का पुत्र बताया गया है। 

इस किताब की प्रस्तावना में दर्शन रत्न रावण के द्वारा  पेरियार को ब्राह्मण बताया गया और यह कहा गया है कि वह ब्राह्मण है इसके बावजूद दलित लेखकों ने उन्हें स्वीकार किया।(पृष्ठ 10) लेकिन वाल्मीकि एक नीची जाति के हैं इसके बावजूद दलित और नव बौद्ध इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं। यह एक दोगलापन है। इस किताब में लेखक अनमोल , दर्शन रत्न रावण आधास प्रमुख से पूरी तरह प्रभावित दिखते है। इसी पृष्‍ठ में दर्शन रावण डॉं अंबेडकर के हवाले से लिखते है कि इस विशाल क्षेत्र के लोग जब तक तुलसी दास की जगह वाल्‍मीकि को नहीं लाएंगे वे पिछड़े और अज्ञानी ही बने रहेगे।

किताब से यह तथ्य तो सामने निकल कर आता है कि वाल्मीकि शब्द का प्रयोग जाति के रूप में 1925 के भी पहले किया जाता रहा है जो कि भगवान दास द्वारा दिए गए तथ्य के विपरीत है। यानी भगवान दास से यहां पर तथ्य को पेश करने में त्रुटि हुई है और इसी त्रुटि को आगे के लेखकों ने  तथ्य के रूप में पेश किया है। लेखक यहां पर यह बात भी कहते हैं कि एडवोकेट भगवान दास ने मैं भंगी हूं किताब, दलित जाति में होने वाले आरक्षण वर्गीकरण के खिलाफ लिखी है। जिस समय (1976) वे यह किताब लिख रहे थे उसी समय पंजाब और हरियाणा में आरक्षण वर्गीकरण की मुहिम चल रही थी और वाल्मीकि जाति को अलग से आरक्षण दिया गया।

यहां पर इस किताब को पढ़ने के बाद दो-तीन प्रश्न खड़े होते हैं 

(1) यह की लेखक वाल्मीकि ऋषि को वाल्मीकि जाति का सिद्ध करके क्या साबित करना चाहता है?

जिनको आज वाल्मीकि जाति के नाम से जाना जाता है इन्हें चूहड़ा कहकर पुकारा जाता था। यह अपमानजनक नाम से बचने के लिए हो सकता है कि लोग दूसरे नाम की तलाश में वाल्मीकि नाम को अपनाएं होंगे। 18वी 19वीं सदी में ऐसी बहुत सारी जातियों का जिक्र मिलता है जिन्होंने अपने नए नाम को तलाशा और उसे अपनाया। जैसे बंगाल में चांडाल जाति के दलितों ने नमो शूद्र नाम अपनाया। चमार से रविदास, जाटव बने कहीं पर सतनामी रामनामी सूर्यवंशी बने। 

(2) लेखक शंबूक अनमोल एक तरफ तो अपने आप को अंबेडकरवादी बताते हैं दूसरी तरफ वह आदि हिंदू वाल्मीकि बने रहने के लिए अपने समाज को मजबूर करते हैं यह कैसे संभव है

(3) अपने इस किताब में लेखक कहीं पर भी वाल्मीकियों को गंदे पेशे से छुटकारा देने वाली कोई बात नहीं करते। क्यों पूरे देश में वाल्मीकि समाज का मतलब है गंदे पेशे को अपनाने वाला व्यक्ति माना जाता है। यदि वाल्मीकि बड़ा लेखक था उन्होंने रामायण लिखी तो उनके वंशज गटर साफ करने वाले कैसे बन गए? इसका जवाब उन्होंने इस किताब में नहीं दिया है?

समस्या यही है कि अपने आप जब तक आत्म परीक्षण नहीं करेंगे। अपनी गलतियों को डायग्नोज नहीं करेंगे। तब तक उसका इलाज संभव नहीं है। वाल्मीकि समाज आज अपनी गलतियों को समझ रहा है। इसलिए आगे बढ़ रहा है। लेकिन लगता है कि लेखक अपने समाज को पीछे की तरफ ले जाना चाहते हैं। वे समाज को अंबेडकरवाद के बजाय धर्म की अफीम में सुलाना चाहते हैं। ताकि वे इसी प्रकार गटर साफ करते रहें और वाल्मीकि की जै का उद्घोष करते रहें। यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि भगवान वाल्मीकि ने अपने समाज के लिए क्या किया? क्यों उन्होंने अपने समाज को मैला ढोने जैसी निकृष्ट व्यवस्था दी और उससे बाहर निकलने नहीं दिया। अगर भगवान वाल्मीकि ने रामायण की रचना की है तो उनके वंशज कैसे मैला ढोने वाले बन गए? इसका जवाब ढूंढना होगा। यह भी सोचना होगा कि मैला ढोने वाली व्यवस्था से किसने बाहर निकाला और कौन है जो की इस समाज का उद्धारक है।

अपनी सामाजिक राजनीति के तहत कुछ ऐसे लोग हैं जो की वाल्मीकि को वाल्मीकि बनाए रखना चाहते हैं वह नहीं चाहते हैं कि लोग पढ़ें, आगे बढ़े और ऊंचे मुकाम पर पहुंचे, अपना गंदा पेशा छोड़ें। अगर आप एडवोकेट भगवान दास की इस तथ्यात्मक गलती को उजागर कर भी देते हैं तो आपको बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि भगवान दास का मुख्य उद्देश्य यही था कि किस प्रकार से यह कौम गंदे पेशे से छुटकारा लेकर आगे बढ़े। अपने शोषकों और उद्धारकों में फर्क जान पाए। यही मकसद ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजीव खुदशाह और सुशीला टांकभंवरे का भी था और है। जिनकी आलोचना इस किताब में की गई है।

अनमोल संबूक कि यह बात चलो मान भी लें की चूहड़ा जाति को वाल्मीकि नाम 1925 में नहीं बल्कि 1881 के पहले मिला था। यह भी मान लें की वाल्मीकि ऋषि कोई मिथक पात्र नहीं ऐतिहासिक है। इसके बावजूद क्या होना है? आखिर इससे किसको फायदा होने वाला है? क्या इससे वाल्‍मीकि समाज में क्रांति आ जायेगी? अपने शोषकों और उद्धारको में फर्क जानने के लिए इतना ही काफी है? गलीज और गंदे पेशे में छुटकारा क्या इतने से ही मिल जाएगा। वर्षो से वाल्‍म‍ीकि जाति नाम और आराधना के बावजूद, यह


समाज मैला ढोने वाले पेशे से बाहर क्‍यो नहीं निकल सका? आखिर क्‍यो डॉं अंबेडकर के आने के बाद ही इस समाज को स्वच्छ पेशे अपनाने का अधिकार मिला। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जानते थे कि दलित समाज को गंदे पेशे में बनाए रखने के लिए इन ऋषि, मुनि, बाबा, पीर, फकीर नामक बेड़िया मजबूती से जकड़ी हुई है। इसलिए बाबा साहब ने इन बेड़ियों को तोड़ने की बात कही और बौद्ध धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। आज जरूरत है कि हम वाल्मीकि, सुदर्शन, सुपच, गोगा पीर, लालबेग जैसी बेड़ियों को तोड़े और बाबा साहब के दिखाएं मार्ग पर चलें। तभी इस समाज की मुक्ति संभव होगी।

 

जानिए माता-पिता और बुजुर्गो के क्या-क्या अधिकार हैं। Know what rights parents and elders have.

 

जानिए माता-पिता और बुजुर्गो के क्या-क्या अधिकार हैं।

इस कानून से क्या अब वृद्ध आश्रम बंद हो जाएंगे?

संजीव खुदशाह 

 मैं एक गांव से गुजर रहा था। तब मैंने देखा कि एक व्यक्ति बुजुर्ग महिला को लकड़ी से पीट रहा है मुझसे रहा नहीं गया। मैंने वहां जाकर मना किया और पूछा कि तुम इसे क्यों उसको मार रहे हो। तो वह महिला रोने लगी और कहने लगी कि यह मेरा बेटा है मुझे खाना नहीं देता है दो-दो दिन मैं भूखी रहती हूं और जब मैं कुछ मांगती हूं तो मुझे लकड़ी से मारता है। उस महिला के शरीर के कई स्थानों से खून बह रहा था। मैंने उसे मना किया कि तुम ऐसी मार पिटाई नहीं कर सकते मैं तुम्हारे खिलाफ थाने में रिपोर्ट करूंगा। तो उसका बेटा नहीं माना और कहने लगा की आपको ज्यादा प्यार आ रहा है तो मेरी मां को खुद अपने घर ले जाओ।

यह कहानी हर चार बुजुर्ग में से एक की कहानी है। हो सकता है कि यह शारीरिक प्रताड़ना ना होकर मानसिक प्रताड़ना हो या प्रताड़ना का कोई और रूप हो। लेकिन आज के बुजुर्ग ऐसी प्रताड़ना से गुजर रहे हैं जो उनके अपने उनके साथ करते हैं। जैसे-जैसे एकल परिवार और भूमि अर्थव्यवस्था पर आधारित संयुक्त परिवार की व्यवस्था खत्म होते जा रही है। वैसे-वैसे घर के वृद्धों का महत्व भी कम होता जा रहा है। जाहिर है महत्व कम होने के कारण घर में निवास करने वाले वृद्धों  को इग्नोर किया जाता है। उन्हें वह मान सम्मान नहीं दिया जाता है जिसके वे हकदार है।

दुख की बात यह है ऐसे समय जब राष्ट्रवाद संस्कृति वाद चरम पर है। उस समय जब माता-पिता को भगवान माना जा रहा है ऐसे समय वृद्ध आश्रम की संख्या भी बढ़ती जा रही है। आखिर क्यों एक व्यक्ति पशुओं को भगवान (माता-पिता) मान रहा है अपने घरों में स्थान दे रहा है। लेकिन अपने वृद्धों को नजर अंदाज कर रहा है। घर से निकाल रहा है। अत्याचार कर रहा है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब हमें ढूंढना होगा कि आखिर क्यों वृद्ध आश्रम की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है?

आज के समय में ऐसे कानून सरकार ने बनाए हैं जो की वृद्धों के अधिकारों को सुरक्षित करते हैं ऐसा ही एक कानूनमाता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम, 2007’ पारित किया गया। बाद में कुछ संशोधनों के साथ माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम (संशोधन) विधेयक 2019 पारित किया गया।

वर्तमान में एकल परिवारों एवं संयुक्त परिवार दोनो में वरिष्ठ नागरिकों के प्रति उपेक्षा बढ़ी है। वरिष्ठ नागरिकों की अवहेलना उनके प्रति अपराध, उनके शोषण तथा परित्याग आदि के मामले में बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो 2018 में जारी रिपोर्ट के अनुसार वरिष्ठ नागरिकों के प्रति अपराध में 13.7% की वृद्धि हुई है। इसमें ज्यादातर अपराध उनके अपने करते हैं।

 आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आजकल के वृद्धो की क्या समस्याएं हैं।


एकाकीं पन - आज जब बच्‍चो को अपने नौकरी या व्‍यवसाय के कारण बाहर जाना पड़ता है तो घर के बुजुर्गो को अकेला रहेने के लिए मजबूर होना पड़ता है।


स्‍वास्‍थ -    वृद्धावस्था अपने आप में एक बीमारी भी है और इलाज काफी महंगे हैं ऐसी स्थिति में जब बुजुर्गों के उत्तराधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं तो वृद्धावस्था में चिकित्सा सुविधा मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। वृद्ध जनों के लिए बने हुए बुनियादी सुविधाएं जैसे भोजन, स्वास्थ्य, घर तथा अन्य आवश्यकताओं की अनुपलब्धता उनके मानव अधिकारों का हनन करता है। 

 

आर्थिक समस्‍या- बुजुर्ग जब हांथ पांव से लाचार हो जाते है तो वे कुछ काम नही कर पाते वे स्‍वालंबी नही रह जाते जिसके कारण उन्‍हे रूपये पैसों के लिए अपने उत्तराधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ता।

 

संपत्ति -    जब उत्‍तराधिकारी बुजूर्ग से रूपये पैसे, जमीन जायजाद, संपत्ति का बटवारा कर लेते है तो बुजुर्ग उनके लिए बोझ बन जाते है। बच्‍चे जिम्‍मेदारी से बचने लगते है। संपत्ति हाथ से चले जाने के कारण वे असहाय हो जाते है।

 

उत्‍पीड़न -  बुजुर्गो को अपने घरो में उपेक्षा, उत्‍पीड़न, अपमान, शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना झेलना पड़ता है। जिसके कारण वे स्‍वयं वृध्‍दा आश्रम जाने के लिए राजी हो जाते है।

 

इस कानून में वृद्ध लोगों के लिए क्या अधिकार सुरक्षित हैं।

यदि कोई बुजुर्ग अपनी उत्तराधिकारियों से पीड़ित है या उनके उत्तराधिकारी उनका ध्यान नहीं रखते हैं। उनका भरण पोषण नहीं करते हैं। तो उस बुजुर्ग को अधिकार है कि वह अपने पास के थाने या कलेक्टर या भरण-पोषण अधिकरण ऑफिस में जाकर आवेदन कर सकते हैं।

यहां पर बुजुर्ग का मतलब है

माता-पिता, दादा दादी, नाना नानी सास ससुर इसमें सौतेले माता-पिता भी शामिल है।

यहां पर उत्तराधिकारी से मतलब है

पुत्र-पुत्री, गोद लिया पुत्र-पुत्री, बहु-दामाद, नाती-पोताइसमें सौतेले या जैविक उत्तराधिकारी सभी शामिल है।

यदि कोई बुजुर्ग प्रताडि़त दिखे तो आप कैसे मदद कर सकते है?

इसकी शिकायत आप पास के थाने या कलेक्टर या भरण-पोषण अधिकरण (Maintenance Tribunal) में करे। बुजुर्ग स्‍वयं इसकी शिकायत कर सकता है। यदि कोई बुजुर्ग अपनी प्रताड़ना को लेकर शिकायत करता है तो इस अधिनियम के अंतर्गत उत्तराधिकारी को भरण पोषण रूपये 10000 या उससे अधिक प्रति माह दिए जाने का आदेश दिया जा सकता है। ऐसा नहीं करने पर 6 महीने की सजा और जुर्माना दोनों भुगतना पड़ सकता है। इस अधिनियम में वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को त्यागने पर 3 महीने की कैद दिया ₹5000 का जुर्माना हो सकता है और कैद 6 महीने तक बढ़ाई जा सकती है।

विधेयक में यह भी प्रावधान है कि अगर बच्चे या संबंधी भरण पोषण के आदेश का अनुपालन नहीं करते हैं तो अधिकरण देय राशि की वसूली के लिए वारंट जारी कर सकता है। इसके साथ ही जुर्माना न चुकाने की स्थिति में एक महीने की कैद या जब तक जुर्माना नहीं चुकाया जाता तब तक की कैद हो सकती है। इस अधिनियम में हर जिले में एक भरण पोषण अधिकारी तथा देखभाल गृह की स्थापना किए जाने का भी निर्देश है। जिसमें उनके स्वास्थ्य की देखभाल और अन्य सुविधाएं मुहैया करायी जायेगी।  

जैसा कि अन्य कानून के प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं की गई है। लेकिन  माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम (संशोधन) विधेयक 2019 के प्रचार प्रसार में कमी दिखाई पड़ती है। इसका सही ढंग से प्रचार प्रसार हो ताकि बच्चे अपनी जिम्मेदारियों को समझें और उसे पूरा करें। बुजुर्ग भी अपने अधिकारों को जाने और उसका उपयोग करें। हम एक ऐसी देश  में निवास करते हैं जहां पर ईश्वर से बढ़कर मां-बाप  बुजुर्गो को स्थान दिया गया है। तो हमारी जिम्मेदारी हो जाती है कि हम अपने बुजुर्गों का सम्मान करें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, उन्हें प्यार करें और उन्‍हे उनका वह हक दे जिसके वे हकदार है।