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"Backward Classes in Modern India" researched document of new concepts.

समयांतर अक़्र्तुबर २०१०

पुस्तक समीक्षा

''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।

जयप्रकाश वाल्मीकि

श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक की शुरूआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७) को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत किया है।

चार अध्यायों में समाहित श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों  के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध से स्पष्ट यह  होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)

वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।` (पृष्ठ-३६)

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ २८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में  ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो  की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि

१.    ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी`` अनार्य थे, जिन्हे आर्यो द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।

२.    बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आते थे यही से चातुर्वर्ण  परम्परा की शुरूआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हो।  अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।

 

शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।

१.    यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थी।

२.    आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-

(अ)   आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार नही थे।

(ब)    आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।

(स)   आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।

(द)    दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर, डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार दी गई।

३.    चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)

श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।

अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी।  इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।

पुस्तक लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।

पिछड़े वर्ग की जो जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)

अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में १९७८ को  मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने की अनुशंसा की।

संजीवजी ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।

चाल अध्याय और १४१ पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है। लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।

 

जयप्रकाश वाल्मीकि

१४, वाल्मीकि कालोनी,

द्वारिकापुरी के पास,

शास्त्री नगर,

जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)

 


Ignorant social reformers in Dalit society is more danger

दलित समाज में अज्ञानी समाज सुधारकों से है ज्यादा खतरा

संजीव खुदशाह

आमतौर पर दो प्रकार के डॉक्टर होते हैं। पढ़े-लिखे एमबीबीएस डिग्री धारी डॉक्टर और अशिक्षित झोलाछाप डॉक्टर। मूर्ख या अज्ञानी के लिए यह दोनों डॉक्टर एक समान है। इन्हें इनमें अंतर ढूंढने की क्षमता नहीं होती है। लेकिन झोलाछाप डॉक्टर एक

मरीज के लिए खतरनाक होता है। सर्दी खांसी बुखार तक तो ठीक है। लेकिन किसी गंभीर बीमारी से इलाज कराना अक्सर जान को जोखिम में डालने जैसा होता है। बीमारी या तो बढ़ जाती है या मरीज की मौत हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार दलित समाज में दो प्रकार के समाज सुधारक या सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं। एक वे जिन्हें समाज उत्थान का ज्ञान हैं, अनुभव है, दृष्टि है, लक्ष्य है, तो दूसरी ओर अज्ञानी समाज सुधारक/ सामाजिक कार्यकर्ता जिन्हें ना अनुभव है, ना उन्होंने ठीक से पढ़ाई लिखाई की है, ना ही कुछ सीखना चाहते हैं।

झोलाछाप डॉक्टरों से अज्ञानी समाज सेवक, ज्यादा खतरनाक होता है। झोलाछाप डॉक्टर तो कुछ लोगों का जान को जोखिम में डालता है। लेकिन यदि अज्ञानी समाज सेवक समाज का सिरमौर बन गया तो पूरे समाज का बेड़ा गर्क कर सकता है। पूरे समाज को लक्ष्य से भटका सकता है। कई साल पीछे धकेल सकता है।

आइए इस प्रकार के समाज सेवकों को कुछ उदाहरणों से समझते हैं।

(1)                 ऐसे ही एक समाज सेवक हैं जो डॉक्टर अंबेडकर के भक्त हैं सफाई कामगार समाज से आते हैं और इसी समाज पर केन्द्रित अध्यक्ष पद धारण किए हुए हैं। डॉक्टर अंबेडकर को मानते तो जरूर है। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर की नहीं मानते हैं। बात बात में जय भीम का नारा लगाते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने दलितों के लिए दो बातें कही थी। पहला अपना गंदा पेशा छोड़ दो, दूसरा गंदी बस्ती या शोषणकारी गांव से बाहर निकल जाओ। लेकिन यह महाराज रोज दलितों के लिए सफाई कामगार की स्थाई नौकरी का ज्ञापन देते फिरते हैं। ठेका प्रथा का विरोध करते रहते हैं। गंदे पेशे से मुक्ति तो दूर उस पेशे पर एकाधिकार की वकालत करते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार गंदी बस्तियों से मुक्ति के लिए भी महाशय विरोध करते हैं। ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहे। भले खुद बस्ती से बाहर निवास करते हों। लेकिन इस समाज को एक जगह इकट्ठा रहने पर जोर डालते हैं। ताकि जातीय पहचान और घृणा बरकरार रहे। बस अपनी बात को मनवाने के लिए बात बात पर जय भीम का नारा लगाते रहते हैं। मानो इनसे बड़ा अंबेडकरवादी कोई नहीं। अब आप ही बताइए है ना ये समाज सुधारक जान के दुश्मन ?

 

(2)              ऐसे ही एक और समाज सेवक की आपसे मुलाकात करवाता हूं। यह भाई साहब किसी ऊंचे पद से रिटायर हुए हैं। पद रहने के दौरान तो समाज की किसी व्यक्ति को पहचानते तक ना थे। अब जब बच्चे जवान हो गए शादी-ब्याह, सेटल करने का ख्याल सताने लगा। तो यह लगे समाज सेवा करने। बाबा साहब की एक दो किताबें आधी अधूरी पढ़ ली है। और लगे ज्ञान बांटने। बात बात में समाज को नीचा दिखाने, विरोधियों को ठिकाने लगाना, इनका मुख्य कार्य हो गया है। ऐसे लोग पद के पीछे ऐसे लपकते हैं। जैसे अंगूर के पीछे लोमड़ी  लपकती है। समाज के मुखिया बन जाने के बाद देखिये इनके ठाठ बाट। चंदे का हिसाब ना देना, किसी बड़े नेता की लल्लू चप्पू करना, अपने बच्चों को स्थापित करना, इनका मुख्य उद्देश हो जाता है। अंबेडकरी होने के बावजूद ऐसे लोग मनुवादी होते हैं। अंबेडकर और बुध्‍द  को कहीं ना कहीं चमत्कार, अलौकिकता से जोड़ते हैं। समाज को गुमराह करने में अपना अहम योगदान देते रहते हैं।

(3)              आइए अब मैं एक ऐसे समाज सुधारक से आपका परिचय करवाता हूं। यह भाई साहब सरकारी सेवा से रिटायर हुए है। इनका मकसद है कि समाज गंदे जाति नाम छुटकारा पा जाए। इसके लिए वह नए जाति नाम सुझाते है। रात दिन उसी की माला जपते हैं। उन्हें लगता है कि समाज के जाति का नाम बदलने मात्र से करिश्माई परिवर्तन हो जाएगा। रात दिन सुदर्शन समाज सुदर्शन समाज की जाप करते हैं। कभी बांस कला की बात करते हैं, तो कभी टुकनी सुपा की बात करते हैं। यह पुश्तैनी व्यवसाय को लेकर इतना मोहित हैं। कि कई साल पीछे समाज को ढकने के लिए आमादा हैं। जिस कारण इन्हें सरकारी नौकरी मिली, समानता का अधिकार मिला, इससे इनको कोई वास्ता नहीं। समाज कैसे शिक्षित हो, आगे बढ़े, इससे उनको कोई मतलब नहीं। बस जाति नाम बदल जाए गंदे नामों से छुटकारा मिल जाए।

(4)             अब मैं आपको ऐसे समाज सेवक से मुलाकात करवाता हूं जिनको यह मालूम है कि समाज सेवक करना है। लेकिन यह नहीं मालूम कि करना क्या है? इनको लगता है कि समाज के लोगो को इकट्ठा कर लो, बड़ा सम्मेलन कर लो, भीड़ दिखाकर पार्षद, विधायक आदि का टिकट हासिल कर लो। या किसी अनुसूचित जाति आयोग, सफाई कामगार आयोग में स्थान पा जाऊं। यही इनका मुख्य मकसद होता है। वैसा करने के लिए समाज का बेड़ा गर्क करने में लगे होते हैं। ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि समाज सेवा और राजनीति एक अलग चीज है। यह समाज सेवा का नाम तो लेते हैं। लेकिन वे दरअसल राजनीति करते हैं। इसके कारण समाज भ्रमित रहता है।

तो समाज सेवा के एक्‍सपर्ट डॉक्टर कैसे बने ? आइए जानने की कोशिश करते हैं

पिछले उदाहरणों से आप समझ गए होंगे कि समाज के झोलाछाप समाज सुधारक कितने खतरनाक होते हैं। अब मैं संक्षिप्त में बताऊंगा कि यदि आप एक शिक्षित समाज सेवक बनना चाहते हैं तो क्या करें।

i     अपना लक्ष्य प्लान करें। सबसे पहले समाज को क्या मदद देना चाहते हैं उसे तय करें। लक्ष्य निर्धारित करें। यह मदद आर्थिक है या बौद्धिक है या समय की मदद है। किस अवस्था को समाज की तरक्की आप समझते हैं यह भी निर्धारित करें। यदि आप अंबेडकरवादी हैं तो विज्ञान और तर्क का साथ कभी ना छोड़े। चाहे समाज का विरोध आपको झेलना पड़े।

 

ii    कुछ वंचित जातियां कैसे तरक्की कर गई इसका अध्ययन करें। उन्होंने क्या त्याग किया ? कैसे शिक्षा पर खर्च किया ? अंबेडकर के निर्देशों का पालन किस प्रकार किया ? यह जानने की कोशिश करें ? इसके लिए आपको अध्‍ययन करना पड़ेगा।

 

iii    पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ाएं, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ें। अंग्रेजी में किताब पढ़ने की कोशिश करें। दलितों के लिए अंग्रेजी सीखना बहुत जरूरी है। यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते तो बहुत सारी चीजें आप नहीं समझ सकते।

 

iv    अपने उद्धारक और शोषणकर्ता में फर्क करना सीखें। यह भी बिना पढ़े नहीं सीख सकते हैं। किताबे तो आपको पढ़नी होगी इसका कोई शॉर्टकट नहीं है।


v    सामाजिक कार्यकर्ता के लिए एक दृष्टि होने बेहद जरूरी है। आपके पास एक वैज्ञानिक तर्कशील जिसे मै अंबेडकर वादी दृष्टि कहता हूँ, बहुत जरूरी है। आप अंधविश्वास के पक्ष में रहना चाहते हैं या विज्ञान के पक्ष में, तय कर लें। समाज को पीछे की ओर ले जाना चाहते हैं या आगे की ओर, यह तय कर लें। समाज को लाभ देना चाहते हैं या खुद लाभ उठाना चाहते हैं। यह भी तय कर ले।


vi    तय करें आप राजनीति करना चाहते हैं या समाज सेवा दोनों में फर्क है।


vii   जिन सिद्धांतों की आप बात करते हैं। उनका पालन आप पहले स्वयं करें। एक मिसाल कायम करें। तभी उन सिद्धांतों की बात आप करें।

कुछ बातों का ध्यान अगर आप देंगे। तो लोग आपके साथ जुड़ेंगे और आप किसी लक्ष्य के साथ आगे बढ़ पाएंगे। उन लोगों का जरूर साथ लें जो जानकार हैं, शिक्षित हैं, लक्ष्य को समझते हैं।

याद रखें अज्ञानी समाज सुधारक, समाज के लिए खासकर दलित और आदिवासी समाज के लिए मानव बम की तरह है। आप एक शिक्षित समाज सुधारक बनने की मिसाल कायम करें। जागरूक करने के लिए जरूरी नहीं है कि आप घर घर जाएं या कोई सम्मेलन करें। सोशल मीडिया के माध्यम से भी आप समाज को जानकारी विश्लेषण और अपना पक्ष बता सकते हैं।

The Big lie of the century -hai preet jahan ki reet sada

सदी का महाझूठ - है प्रीत जहां की रीत सदा

संजीव खुदशाह

भारतीय सिनेमा के कुछ गीतों ने समाज पर अमिट छाप छोड़ी है। कुछ गीतों ने तो लोगो का मार्ग दर्शन भी किया है। इनमें कुछ गीत ऐसे भी रहे है जिन्‍होने समाज पर अमिट छाप तो छोड़ी है लेकिन वे  झूठ के पूलिंदे रहे है, महज भावनाओं से भरे हुये, सच्‍चाई से कोशो दूर।

ऐसा ही एक गीत है है प्रीत जहां की रीत सदा। इस गीत को फिल्‍म पूरब पश्चिम के लिए इंदिवर उर्फ श्‍यामलाल बाबू राय ने 1970 में लिखा था। प्राथमिक शालेय जीवन में यह गीत  इन पंक्तियों के लेखक के मस्तिष्‍क पर गहरे तक प्रभावित किया था। वह महेन्‍द्र कपूर की आवाज में इस गीत को गया करते। उन्‍हे लगता था की इस गीत की लिखी बाते शब्‍दश: सही है। लेकिन जैसे जैसे लेखक बड़ा हुआ उसके अनुभव और ज्ञान में वृध्दि होती गई । सपनों की दुनिया के बजाय जीवन के सच्‍चाइयों का सामना होता गया। वैसे वैसे इस गीत के एक-एक लफ़्ज झूठे साबित होते गये। आज इसी गीत पर बात होगी। पहले आप  गीत की पंक्तियोंको पूरा पढ ले ।

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने

भारत ने मेरे भारत ने

दुनिया को तब गिनती आयी

तारों की भाषा भारत ने

दुनिया को पहले सिखलायी

 

देता ना दशमलव भारत तो

यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था

धरती और चाँद की दूरी का

अंदाज़ लगाना मुश्किल था

 

सभ्यता जहाँ पहले आयी

पहले जनमी है जहाँ पे कला

अपना भारत जो भारत है

जिसके पीछे संसार चला

संसार चला और आगे बढ़ा

ज्यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया

भगवान करे ये और बढ़े

बढ़ता ही रहे और फूले-फले

मदनपुरी: चुप क्यों हो गये? और सुनाओ

स्‍थाई

है प्रीत जहाँ की रीत सदा

मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 1

काले-गोरे का भेद नहीं

हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और न आता हो हमको

हमें प्यार निभाना आता है

जिसे मान चुकी सारी दुनिया

मैं बात वोही दोहराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 2

जीते हो किसीने देश तो क्या

हमने तो दिलों को जीता है

जहाँ राम अभी तक है नर में

नारी में अभी तक सीता है

इतने पावन हैं लोग जहाँ

मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

अंतरा 3

इतनी ममता नदियों को भी

जहाँ माता कहके बुलाते है

इतना आदर इन्सान तो क्या

पत्थर भी पूजे जातें है

इस धरती पे मैंने जनम लिया

ये सोच के मैं इतराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

क्‍या सच में भार ने जीरो दिया है?

 

 (जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने

भारत ने मेरे भारत ने)

आमतौर पर एक आम पढ़ा लिखा भारतीय यह मानता है कि भारत में शुन्‍य का अविष्‍कार हुआ। कुछ का कहना है कि पांचवी शताब्‍दी में भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने शुन्‍य का प्रयोग पहली बार किया था। यह मान्‍यता सिर्फ भारतीयों की है विश्‍व इससे कोई इत्‍तेफाक नही रखता। ये खुशफहमी भारत में कैसे घर कर गई यह एक अलग

विषय है। लेकिन शून्‍य का अविष्‍कार किसने किया और कब किया आज एक अंधकार की गर्त में छुपा हुआ है।

ऐसी  कथाएं प्रचलित है की पहली बार शून्‍य का अविष्‍कार बाबिल इराक में हुआ दूसरी बार माया सभ्‍यता 1500 इपू के लोगो ने इसका अविष्‍कार किया। ऐसी जानकारी मिलती है कि मेसोपोटामिया के सुमेरियन लेखको (3500 ई पू) स्‍तंभो में अनुपस्थिति को निरूपित करने के लिए रिक्‍त स्थान का उपयोग किया था।

हाल ही में अमेरिकी गणितज्ञ आमिर एक्‍जेल ने सबसे पुराना शून्‍य कंबोडिया में खोजा है। उन्‍होने अपनी किताब (फाईउिग जीरो: ए मैथमेटिशियन ओडिसी टू अनकवर द ओरिजिन आफ नंबर 2015) में दावा करते है की सबसे पुराना शून्‍य भारत में नही बल्कि कम्‍बोडिया में मिला।

यानि ताजा खोज से ये सिध्‍द होता है कि जीरो की खोज भारत में नही हुई।

(दुनिया को तब गिनती आयी)

यह एक बड़ा झूठ है विश्‍व की पुरानी से पुरानी सभ्‍यता सुमेरियन (3500 ई पू) में सिक्‍के और बैकिंग प्रणाली के सबूत मिले है जो की बिना गिनती के सम्‍भव नही है।

 तारों की भाषा भारत ने

दुनिया को पहले सिखलायी

यदि कवि का इशारा ज्‍योतिष विज्ञान से है तो यह एक धूर्त भाषा है। भारत में ज्‍योतिष नक्षत्र  के बहाने लोगो को ठगा जाता है। यदि कवि का इशारा तारो की खोज से है तो  बता दे की अरस्‍तु के बाद गैलिलियों ने नक्षत्र और तारों के बारे में वैज्ञानिक ढंग से बताया। और अपना दूरबीन यंत्र विकसित किया।

यह कहना की तारो की भाषा भारत ने सिखलायी कोरी कपोल बाते है।

दशमलव भारत ने दिया ?

इसका संबंध शून्‍य के अवि‍ष्‍कार से है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।

दशमलव से चांद की दूरी निकाली गई ?

ऐसा लगता है कि कवि इन्‍दीवर का विज्ञान पक्ष काफी कमजोर रहा होगा। दूरी की गणना प्रकाश वर्ष के सिध्‍दान्‍त के माध्‍यम से की गई है जिसका अविष्‍कार यूरोपियों ने किया है।

क्‍या सचमुच सभ्‍यता यहां पहले आई ?

यदि कवि का इशारा सभ्‍यता यानि अच्‍छे चाल चलन से है तो आप इसका अंदाजा यहां के जेलों में बंद धर्म गुरूओं से कर सकते है। यदि कवि का इशारा मानव सभ्‍यता से है तो कार्बन डेटिंग के अनुसार सबसे पुरानी सम्‍यता सुमेर 3500 इसा पूर्व सम्‍यता को माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्‍यता 2300 इ पू क माना  जाता है।

क्‍या कला का जन्‍म यहां पहली बार हुआ ?

कवि किस कला का जन्‍म पहली बार हुआ ये नही बता रहे है। शायद उनका इतिहास बोध कमजोर रहा होगा। जब सभ्‍यता में आप पीछे थे तो कला में आगे कैसे हो सकते है।

भारत के पीछे संसार चला ?

आखिर किस मामले में संसार भारत के पीछे चल रहा है। कवि बताने से परहेज कर रहे है। जबकि ज्ञात इतिहास में भारत ही यूरोपिय देशो के पीछे पीछे चल रहा है । यदि अध्‍यात्‍म में आगे चल रहा है तो प्राचीन काल से लेकर अब तक यहां के आध्‍यात्‍मीक गुरूओं के ऊपर हत्‍या से लेकर रेप तक के आरोप क्‍यो लगे है।

स्‍थाई

है प्रीत जहाँ की रीत सदा

मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

mob linching india

प्रश्‍न यह है क्‍या सच मुच प्रीत इस देश की रीत है? महामारी करोना लाकडाऊन जैसी स्थिति में कोरंटाईन में ब्राम्‍हण दलितों के हाथों का बना खाने खाने से इनकार कर रहे है। हजारों कन्‍या भ्रूण जन्‍म से पहले मार दी जाती है। बहुऐ दहेज की बली चढा दी जाती है। दलितों आदिवासियों पिछड़ा वर्ग और मुसलमानों की माब लिंचिंग आम बात है। क्‍या कवि इसी प्रीत की बात कर रहे है।

अंतरा 1

काले-गोरे का भेद नहीं

हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और न आता हो हमको

हमें प्यार निभाना आता है

पहले अंतरे को पढने के बाद ये प्रश्‍न उठता है कि क्‍या भारत में सचमुच कोई भेद भाव नही है। जाति भेद, माब लिचिग, छुआ छूत के रहते हर दिल से नाता की बात करना आप जनता को बेवकूफ बनाना है। ये बात तो सही है कि कुछ और आपको नही आता है। पर प्‍यार निभाना भी नही आता है। जातिय और धार्मिक नफरत सिखाने वाले लोग कहते है कि हमे प्‍यार निभाना आता है।

अंतरा 2

जीते हो किसीने देश तो क्या

हमने तो दिलों को जीता है

जहाँ राम अभी तक है नर में

नारी में अभी तक सीता है

इतने पावन हैं लोग जहाँ

मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ

इस अंतरे में भी सिवाय लफाजी के कुछ और नही है। ये बात तो सही है कि भारत ने किसी देश को नही जीता है। लेकिन दिलो को जीतने वाली बात झूठी है। एकलव्‍य का अंगूठा काटने वाले दिल को कैसे जीत सकते है।  शूद्र (पिछडा वर्ग) के संबूक का वध करने वाले राम पूरे देश का आदर्श कैसे हो सकते है। उसी प्रकार अग्नि परिक्षा देने वाली सीता पूरे भारत की नारी की आदर्श नही हो सकती। अब आप ही बताईये की जहां के लोग बात बात में नफरत, छुआ छूत, ऊंच नीच बरतते हो वह पावन कैसे कहला सकते है। वह आज से नही प्रचीन काल से, धर्म ग्रन्‍थो में भी यही छुआ छूत ऊच नीच नफरत भरी हुई है।

अंतरा 3

इतनी ममता नदियों को भी

जहाँ माता कहके बुलाते है

इतना आदर इन्सान तो क्या

पत्थर भी पूजे जातें है

ये बात तो सही है यहां नदियों को माता कहा जाता है। लेकिन ममता की बात झूठी है पूरे मल मूत्र, गंदगी, शव आदि इसी नदियों में बहाकर गंदगी फैलाई जाती है। माता तो यहां गाय को भी कहा जाता है लेकिन सगी माता उपेक्षा का शिकार होकर वृध्‍दा आश्रम में अंतिम समय बिताती है। यह बात तो सही है कि यहां पत्‍थर ही पूजे जाते है मनुष्‍य को आदर तो क्‍या स्‍पर्श के योग्‍य भी नही समझा जाता है।