दलित चेतना और भंगी समुदाय--संजीव खुदशाह


भारत के दलितों में सफाई कामगारों की बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद ये जाति दलित चेतना से दूर रहीं। यह बात अम्बेडकर वादियों के लिए जितनी दुखदाई है उससे कहीं ज्यादा विस्मयकारक भी कि आखिर क्यू ये जातियां डा. अम्बेडकर के अस्पृश्यता आंदोलन और विचार धारा से नही जुड़ सकीं। यह प्रश्न गम्भीरता से मनन करने के लिए बाध्य करता है की आखिर क्या कारण है कि ये जातियां दलित आंदोलनों से लगभग अछूती रहीं ? इसके अध्ययन को निम्न तीन बिन्दुओं में बांटा जा सकता-
Ø डा. अम्बेडकर के बारे में भ्रमित जानकारी
Ø सामंन्तवादियों से इनकी नजदीकियां
Ø अन्य संभ्रात दलित जातियों व्दारा घृणा।
सामान्यत: इस समुदाय के बुध्दिजीवी एवं नेताओं से बात करने पर (जो परम्परावादी विचार धारा के है) यह शिकायत मिलती है कि डा. अम्बेडकर ने हमारे लिए क्या किया। उन्होने तो सारा कुछ महारों और चमारों के लिए किया। प्रथम दृष्टया देखे तो यह बात सच प्रतित होती है। किन्तु डा. अम्बेडकर के कार्य और संधर्ष का अध्ययन करें तो पाते है कि डा. अम्बेडकर ने सफाई कामगारों के लिए ही नही बनिस्पत सभी दलितों के लिए इतना काम किया है जितना आज तक किसी ने भी नही किया होगा। यदि उनके व्दारा सफाई कामगारों के लिए किये गये कार्य की बात करें तो पाते है की उनका योगदान सराहनीय एवं अमूल्य रहा।
बाबा साहब डा. अम्बेडकर की इच्छा थी की सफाई कामगारों की एक शक्तिशाली देश व्यापी संस्था कायम की जाय जो न केवल सफाई कामगारों की हालत सुधारने का कार्य करे बल्कि उनमें शिक्षा का प्रसार, सामाजिक सुधार शराब, तम्बाकु सिगरेट, बीड़ी और नशों से छुटकारा व फिजूल खर्च अथवा कर्ज से निजात के लिए कुछ काम कर सके। इसी तारतम्य में बाबा साहब ने राजा राम भोले और श्री पी.टी. बोराले को समूचे भारत में सफाई कामगारों की समस्याओं, कठिनाइयों तथा जरूरतों का अध्ययन करने और रिर्पोट पेश करने का काम सौपा। इसी उद्देश्य से उन्होने देश का भ्रमण किया। डॅा.पी.टी. बोराले बाद में सिध्दार्थ कालेज से बतौर प्रिंसिपल रिटायर हुए और साइमोन बंबई में रहते है। श्री भोले हाई कोर्ट में जज रहे बाद में वे लोकसभा के सदस्य थे इनका देहांत हो चुका है। बाबा साहेब डा. अंम्बेडकर ने श्री भोले को १९४५ में अंतराष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस में सफाई कर्मचारियों का प्रतिनीधि बनाकर भेजा था। ताकि वे अंतराष्ट्रीय मंच में सफाई कामगारों की समस्या को उठा सके।
बाबा साहेब डा. अम्बेडकर ने भंगीयों के लिए एक बहुत ही अच्छा काम यह किया कि उन्होने ऐसे कानून जो भंगीयों के शोषण के लिए बनाये गये थे उन्हे समाप्त करवा दिया। जैसे बहुत से नगर निगमों, म्युनिस्पल कारपोरेशन में सफाई काम से मना करने पर दण्ड का प्रावधान था। ये दण्ड आर्थिक एवं शारीरिक दोनो हो सकता था। साथ ही साथ धारा १६५ के तहत उपर अपील करने की भी गुन्जाईश नही थी। एक कानून ऐसा था जिसमें तीन दिन गैर हाजिर हाने पर १५ दिनों तक जेल की सजा हो सकती थी। जब डा. अम्बेडकर कानून मंत्री थे उन्होने समूचे भारत के नगर निगमों आदि से ऐसे कानून समाप्त करने के लिए कदम उठाया था। जिससे सफाई कामगारों का शोषण खत्म हो जाये। आज भी कई नगर निगमों, कैन्टो में , बोर्डो आदि में ऐसे कानून है जिनमें सफाई कामगारों को कड़ी से कड़ी सजा देने के प्रावधान है। परन्तु वोट की राजनीति उन्हे ऐसे कानून का प्रयोग करने से रोकती है। अनुच्छेद १३ में डा. अम्बेडकर व्दारा यह प्रावधान किया गया की जो कानून नये संविधान में दिये गये अधिकारों के विरूध्द है वह वैध नही माने जायेगें।


उस समय जितने भी बुध्दिजीवी जो सफाई कामगारों से ताल्लुख रखते थे तथा डा. अम्बेडकर साहब के मुहिम के समर्थक थे ने उनके साथ १९५६ को बौधधर्म ग्रहण कर लिया तथा हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया। ऐ संख्या महार तथा अन्य अछूत जाति के वनिस्पत कम थी क्योकि उस वक्त दलित आंदोलन भंगी बस्तियों में नही पहुच पाया था। खुद नागपूर (जहां दीक्षा ली गई) के सफाई कामगार जिनकी यहां बहुत बड़ी संख्या है इस आंदोलन से अछूते रहे ।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कुछ सामंतवादियों की दृष्टि इस समाज पर पड़ी । गांधीजी ने इन्हे हरिजन का नाम दिया तथा सहानुभूमि दिखाई। सहानुभूति भी ऐसी थी कि इन्हे इस पुश्तैनी कामों के लिए ही प्रेरित करती, वे कहते ''यह पुरूषार्थ का काम है इसे मत छोड़ो । यदि तुम इस जन्म में अपनी जाति का काम ठीक तरह से सेवा भावना से करते हो तो तुम्हारा अगला जन्म उॅंची जाति में हो सकता है।`` उनका ऐसा कहने के पीछे क्या उद्देश्य था, ये एक अलग विषय है किन्तु उनके इस कथन का यह असर हुआ की यह समुदाय कभी इस गंदे पेशे से निजात पाने के बारे में नही सोच सका। तथा मानव मल को सिर पर ढोना ही अपनी नियती (धर्म) समझने लगा। दूसरी ओर इस बारे में डा. अम्बेडकर ने कहा ''एक ब्राम्हण या किसी भी अन्य जाति का व्यक्ति भूखों मरते भी भंगी का काम नही करता। इस गंदे काम को छोड़ देने में ही इज्जत है।`` उन्होने आगे कहा ''हिन्दू कहते है यह गंदे पेशे पुरूषार्थ के काम है। मै कहता हू हमने बहुत पुरूषार्थ का काम कर लिया हम छोड़े देते है अब तुम पुरूषार्थ कमा लो।``
आजादी के बाद गांधी जी कुछ दिनों दिल्ली के एक भंगी मुहल्ले में रहे, लेकिन भंगियों का दिया कुछ भी नही खाते थे। भोजन तो दूर वे दूध फल वैगरह भी नही स्वीकारते थे। वे साथ में एक बकरी भी रखते थे तथा भंगी अनुयाईयों से कहते-'' ये फल दूध इस बकरी को दे दो इससे जो दूध बनेगा मै उसे पी लूगां।`` इस पासंग में पूरा का पूरा दलित समाज आ गया और महात्माजी को सिर आंखो पर बिठाने लगा, उन्हे लगा की उनकी मुक्ति ऐसे ही होगी। किन्तु बाद में परिस्थिति जस की तस रही तथा उची जातियों व्दारा शोषण बढ़ता ही गया, कही वाल्मीकि बस्तियां जलाई जाने लगी, कही इन्हे जाति के नाम पर प्रताड़ित किया जाने लगा, गोहना, झज्जर, चकवाड़ा काण्ड से अब वे परिचित हो गये। तब कही जाकर इन कामगारों का झुकाव दलित चेतना की ओर जाने लगा।
आजादी के पूर्व सफाई कामगारों ने बड़ी भारी मात्रा इसाई धर्म स्वीकार किया तथा उचे-उचे पदों पर जाने लगे। साथ ही गंदे कामों को करने से भी इनकार कर दिया तो सामन्तवादियों के कान खड़े हो गये उन्होने मेहत्तर को मेहत्तर बनाए रखने के लिएं बड़ी मश्क्कत की उन्होने प्रचार किया तुम हिन्दु हो ये काम तुम्हारा धर्म है तुम्हे ऐ काम नही छोड़ना चाहिए। उन्होने हरियाण-पंजाब के लालबेगीयों (सफाई कामगारों का एक वर्ग) को गोमांस न खाने के लिए राजी किया। तथा अपने खर्चे से लाल बेग के बौध्द स्तूपों की तरह ढाई ईट से बने ''थानो`` की जगह मंदिर बनाये जाने लगे। इनके बीच मुफ्त में रामायण वितरीत कि जाने लगी एवं नियमित पाठ की प्रेरणा दि जाने लगी। होशियार पुर के एक ब्राम्हण व्दारा लिखी आरती 'ओम जय जगदीश हरे` गाई जाने लगी। इसी हिन्दूकरण को मजबूती देने के लिए पंजाब के श्री अमीचंद शर्मा ने एक पुस्तक 'वाल्मीकि प्रकाश` लिखी जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि भंगी या चूहड़ा वाल्मीकि वंशज नही अनुयायी है। पुस्तक को इन लोगों के बीच बांटा गया। इस काम में गांधी जी का पूरा आर्शीवाद मिला।
इसी तर्ज में उत्तर भारत, मध्यभारत महाराष्ट्र तथा बंगाल के सफाई कामगारो ने भी अपने अपने संत खोज निकाले उनके इस कामों में सामंतवादीयों ने पूरा साथ दिया। इस प्रकार मांतग ऋषि के नाम पर मांतग समाज, सुदर्शन ऋषि के नाम पर सुदर्शन समाज, चरक ऋषि के नाम पर चरक समाज, धानुक मुनि के नाम पर धानुक समाज, देवक डोम के नाम पर देवक समाज का निर्माण होता गया यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। वाल्मीकियों की तरह ये भी अपने-अपने चयनित संत की जयंती बड़े धूम धाम से मनाते है, और खूब धन और समय खर्च करते है। जो शक्तियां इन्हे अपने शिक्षा-दीक्षा तथा सामाजिक बुराई को दूर करने में खर्च करनी चाहिऐ थी ये लोग व्यर्थ कर्म काण्डो मे खर्च कर रहे है।
चूकि भारत में प्रत्येक जाति दूसरी जाति के प्रति अछूत सा व्यवहार करती है। सम्भवत: ऐसे गुणो सुसज्जीत अम्बेडकरवादी कुछ अगड़ी अछूत जातियों ने भी भंगी को उसी सामंतवादी नजरिये से देखा। जहां वे एक ओर सवर्णो पर समानता का दबाव बना रहे थे वही दूसरी ओर वे भंगीयो से वही रूखा व्यवहार करने में कोई गूरेज नही कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ भंगी अछूतों में अछूत हो गये। कई भंगी समुदाय के बुध्दजीवी दलित आंदोलन में शामिल हुए किन्तु अन्य अगड़े अछूत जातियों के जातिगत प्रश्न पर उन्हे भी बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता, इस तरह वे भी ज्यादा समय तक आंदोलन की मुख्यधारा में नही ठहर पाये। आम कामगारों की बात क्या करे।
इस मामले में दलितोत्थान के केंन्द्र कहे जाने वाले नागपूर का जिक्र करना प्रासंगिक है। यहां दलित आंदोलन में महार जाति के लोगो ने आपार सफलता अर्जित की है। यही पर डा.अम्बेडकर ने काम किया है तथा धर्म परिर्वतन जैसा बड़ा आंदोलन यही छेड़ा था। बावजूद इसके नागपूर के कतिपय भंगी जाति के लोगों को नजरअंदाज कर दे तो इन भंगी जाति के लोगों में अम्बेडकर के आन्दोलन का जूं तक नही रेंगता उल्टे वे यदा कदा यह कहते देखे जाते है कि, वे तो महार थे उन्होने महारों के लिए किया हमारे लिए क्या किया। किन्तु इसका दुखद पहलु यह है कि यह समाज डा.अम्बेडकर के व्दारा प्रदत्त सुविधा जैसे समानता का अधिकार तथा आरक्षण का अधिकार का भरपूर उपयोग करता है। इससे भी ज्यादा सोचनीय तथ्य यह है कि ऐसा सिर्फ अनपढ़ लोग ही नही करते बल्कि पढ़े लिखे तथा उची पदो में आने वाले लोग भी ऐसा ही करते पाये जाते है।
इस आन्दोलन में रूकावट डालने वाली वे ताकते बीच-बीच में सक्रिय हो जाति है जो इन्हे संस्कृति के नाम पर, अंधविश्वास के नाम पर, दूसरे जन्म के नाम पर गुमराह करती रहती है। साथ ही इन्हे अपने बारे में, भविष्य के बारे में तथा अपने अस्तित्व के बारे में सोचने के संबध्ंा में कमजोर ही बनाती है। निश्चय ही इसका कारण इन जातियों में चेतना की कमी से है। वे अभी भी शोषक एवं उद्धारक में फर्क नही कर पा रहे है। इसके लिए इस समुदाय के व्यक्तियों मे अध्ययन की प्रवृत्ति पैदा हेानी जरूरी है क्योकि बिना अध्ययन के ज्ञान आना संभव नही है और अध्ययन के बाद ही अपने अस्तित्व के प्रति चेतनाशील हुआ जा सकता है, वैसे भी बिना ज्ञान के किसी क्रांतिकारी परिर्वतन की आशा नही की जा सकती। दलित आंन्दोलन को उनके घरों तक ले जाने की आवश्यकता है इस मामले में इस आन्दोलन को कुछ सफलता मिली है। कुछ दलित संगठनो, जिन्होने इस समाज के कई दलित विचारधारा वाले कार्यकार्ताओं का हूजूम तैयार किया है। जो इस समाज की जागृति के लिए काम कर रहे है। अब इस समाज के चेतनाशील दलित युवकों की यह जिम्मेदारी है की वे अपने समुदाय को दलित आंदोलन की मुख्य धारा में लायंे तथा इस प्राचीन भारत की प्राचीन सभ्यता की 'सिर पर मैला ढोने' वाली संस्कृति से उन्हे निजात दिलायें तथा दलित चेतना की इस मुहीम में इन्हे शामिल करें। तभी दलित आंदोलन के इतिहास में सफाई कामगारों के विकास की ये मुहीम रेखाकित की जा सकेगी।


2 comments:

  1. Dear sanjeev ji
    your article dalit chetna aur bhangi samuday is realy very good.you pl tell me about the book narak safai written by sharma it is how much usefull for dalit and bhangi cast .
    your wellwisher
    g. chandra
    chandragirish17@yahoo.com

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  2. Dear G. Chandraji

    Nice to read your comments on my article. I know the book name "Narak Safai" by arun thakur md. khadag but i don't know about that book written by sharma. When i read this book then i will give any comment about it.

    thanks

    sanjeev khudshah

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