दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह, मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंने अपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है।


सफाई कामगारों की व्यथा से दूर हिंदी साहित्य

साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। साहित्य मे हमें समाज की प्राचीन एवंनवीन- हर तरह की जानकारी मिलती है। हिंदी साहित्य में उन उपेक्षित औरलाचार लोगों का भी साहित्य है, जिन्हें समाज से केवल दुत्कार,उपेक्षा,तिरस्कार और अस्पृश्यता ही मिली है। ऐसे लोगों के दर्द के दर्पण दलितसाहित्य को हिंदी साहित्य में अपना स्थान बनाने के लिए कई तरह के विरोधोंका सामना करना पड़ा। कई साहित्यकार इसे अलग साहित्य का नाम देने के पक्षमे नहीं थे। परंतु दलित साहित्य ने हर विरोध का सामना करते हुए साहित्यमें अपनी अलग जगह और अस्तित्व बनाया और आज इसे प्रोत्साहन भी मिल रहाहै।…………..सुरेखा पुरुषार्थीपरंतु दलितों में भी एक ऐसा महादलित समाज है, जिसकी वास्तविकता की असलीकहानी से किसी भी लेखक ने समाज को अवगत नहीं कराया। वो महादलित समाज है-सफाई कामगारों का। इस समाज के विषय पर साहित्य में ज्यादा चर्चा नहीं हुईहै। महादलित सफाई कामगार वर्ग, 'जो हजारों साल से नरक का जीवन जीते आयाहै और आज आधुनिकता के युग में भी वही नरक का जीवन जी रहा है।'साहित्यकारों का मानना है की दलित साहित्य की शुरुआत तो प्रेमचंद केकाल से ही हो गई थी। अपने साहित्य मे उन्होंने हमेशा दलितों के दुःख-दर्दका वर्णन किया,जिसका एक उदाहरण उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना- गोदान- है। परंतुप्रेमचंद ने भी अपने साहित्य मे सफाई कामगारों का वर्णन नहीं किया है। एकऔर ऐसे साहित्यकार हैं, जो दलितों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं-अमृतलाल नागर। उन्होंने साहित्य को नाच्यो बहुत गोपाल, बगुले के पंख, आदिजैसी रचनाएं दी है। नागरजी ने अपनी इन दोनों रचनाओ में मेहतर जाति(दलितों की ही एक जाति) को विषय बनाया है। परंतु उन्होंने भी अपनी रचनामें सफाई कर्मी की पीड़ा और व्यथा का वर्णन करने की जगह अपने ही मन केद्वेष को उड़ेल कर रख दिया है। उनके उपन्यास "बगुले के पंख" का नाम हीसफाई कामगार का मजाक उड़ाता जान पड़ता है। बहुत से अन्य साहित्यकारो ने
भी लगभग ऐसा ही किया है।
सफाई कामगार वो लोग हैं, जो सुबह सूरज की किरणों के साथ ही दूसरे लोगोंका मैला अपने सिर पर ढोने के लिए निकल पड़ते हैं। मानव का मानव पर येकैसा जुल्म है, जहा एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का मैला अपने सिर पर ढोने केलिए बाध्य है। सिर पर मैला ढोने वाले इन लोगों का जिक्र तो दलित साहित्यमें मिलता है, पर सफाई कामगारों के तहत वे लोग भी हैं, जो हर रोज कहीं नाकहीं, किसी ना किसी जगह गंदे नाले (सीवर) में सफाई के लिए उतरते हैं।इनकी निर्मम दशा के विषय मे कहीं भी, किसी भी साहित्यकार ने बात तक नहींकी है। साधारण शब्दों में कहें तो समाज के इस वर्ग को साहित्य ने
उपेक्षित रखा है।
दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह, सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह,मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंनेअपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है। परंतुसीवर साफ़ करने वाले इन लोगों का जिक्र किसी ने नहीं किया। लेकिन इनमहादलित लोगों की सही हालत और उनकी व्यथा का स्पष्ट वर्णन मैंने हाल हीमें दर्शन रतन रावण जी की पुस्तक 'आंबेडकर से विमुख सफाई कामगार समाज'में पढ़ा है।दर्शन रतन रावण हालांकि लेखक या साहित्यकार नहीं हैं, और उनकी पुस्तकउनका पहला प्रयास भी है, लेकिन अपने इस प्रयास मे ही उन्होंने सफाईकामगार लोगों की जहालत की जिंदगी का इतना सजीव वर्णन किया है कि पाठक केमन में उन पलों की तस्वीर स्पष्ट उभरती है, जब एक सफाई मजदूर सीवर मेउतरता होगा। दर्शन रतन रावण ने केवल उनकी अमानवीय दशा का ही वर्णन नहींकिया है, बल्कि ये भी बताया है की हर वर्ष कितनी बड़ी संख्या मे सीवरसाफ करने वाले सफाई कर्मी बीमारी या सीवर में ही दम घुटने की वजह से मरजाते हैं और सरकार को इसकी कोई खबर तक नहीं होती।यानी आज समाज में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने इन लोगो के दुख दर्द से समाज कोअवगत कराने का बीड़ा उठाया और उनमें दर्शन रतन रावण, हरकिशन संतोषी जैसेलोग शामिल हैं। ये प्रयास केवल कलम और पन्नों तक ही सीमित नहीं है।दर्शनरतन रावण स्वयं इसी जमीन से जुड़े हुए हैं और "आदि धर्म समाज" जैसे संगठनके माध्यम से पूरे भारत मे सफाई कर्मियों के विकास, सांस्कृतिक परिवर्तनएवं सम्मानजनक पहचान के लिए कार्य कर रहे हैं।आज समाज हर वर्ग उन्नति केशिखर पर पहुंच रहा है, पर महादलित वर्ग आज भी वहीं जी रहा जहां सदियोंसे जीता आया है। अब साहित्यकारों को इन लोगो के दर्द को साहित्य में जगहदेकर अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए।
(साभार – सामयिक वार्ता)

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