जाति प्रथा एक राष्ट्रीय समस्‍या

जाति का उन्‍मूलन एक विश्‍लेषण
·         संजीव खुदशाह
पिछले कई दशको से जाति उन्‍मूलन की कोशिश अपनी अपनी तरह से की जाती रही है। कुछ कोशिश बुध्‍द, महावीर, कबीर, रयदास, फूले के काल में हुई थी। लेकिन ये एक प्रयास था। इसका मास्‍टर प्‍लान नही था शायद यही कारण है की जाति की पकड़ ढीली तो हुई, लेकिन जाति का उन्‍मूलन रंज मात्र भी नही हुआ। परंन्‍तु पिछले छ: दसक पहले जाति उन्‍मूलन का खाका (जिसे संकुचित अर्थ में मास्‍टर प्‍लान भी कह सकते है) डॉं अम्‍बेडकर के साहित्‍य में देखने मिलता है।
जैसा कि मान्‍यता गढ़ी गई है की जाति उन्‍मूलन दलितों का काम है क्‍योंकि जाति उत्‍पीड़न उन्‍ही का हुआ है। इस तरह डा. अम्‍बेडकर को दलितों तक सिमित कर दिया गया। सिर्फ दलितों तक नही एक जाति विशेष तक सिमित कर दिया गया। अम्‍बेडकर और जाति वाद एक दूसरे के पर्याय समझे जाति लगे। लेकिन ये एक सच नही था। सच्‍चाई ये है कि अम्‍बेडकर ने सभी मुद्दे पर काम किया, चाहे जाति भेद, लिंग भेद हो या रंग भेद धर्म भेद। आश्‍चर्य है कि उन्‍होने किसी जाति विशेष के लिए कभी काम नही किया। वे एक ओर कानून विद थे तो दूसरी और अर्थशास्‍त्री । वे सामाजिक कार्यकर्ता, शोधकर्ता, साहित्‍यकार तो कभी दार्शनिक की भूमिका में दिखाई पड़ते। मुझे ये बात इसलिए बतानी पड़ रही है क्‍योकि अम्‍बेडकर को और उनके विचार को समझे बिना जाति उन्‍मूलन का मास्‍टर प्‍लान तैयार नही किया जा सकता।
भारत में जाति प्रथा कैसे आई ?
इतिहास की किताबों से ज्ञात होता है कि आर्यो के आने के पूर्व यहां जाति प्राथा नही थी जातियां कबिले के रूप में विद्यमान थी। ये कबिले अपनी पहचान एवं चिन्‍ह कायम रखत थे। आर्य जो केवल तीन वर्ण साथ लेकर आये थे ‘’ब्राम्‍हण क्षत्रिय और वैश्‍य’’ बाद में यहां के कबिलों को शूद्र वर्ण में शामिल करके चौथा वर्ण बनाया गया। इन कबिलों का रिश्‍ता किसी खास पेशे से जुड़ता गया। लेकिन सामाजिक अनुक्रम (ऊंच-नीच) से मुक्‍त था। बाहरी लोगो ने यहां पहले से मौजूद कबिलों को वर्णक्रम में जोड़ कर जातिय स्‍वरूप दिया। इसे धार्मिक अमली जामा महनाकर अनुक्रम से जोड़ दिया गया। ऊंच-नीच आने के कारण ये जातियां अपने अस्‍ति‍त्‍व को बनाये रखने के लिए मजबूर होती रही। हर जाति एक दूसरे से घृणा करती और निची नजर से देखती है।
क्‍यों जरूरी है जाति उन्‍मूलन ?
आप सभी को ज्ञात है कि हम आज आधुनिक विज्ञान की दैनिक वस्‍तुए रोजमर्रा में प्रयोग करते है। एक सुई से लेकर हवाई जाहज तक। इनमें से किसी भी चिजों का अविष्‍कार भारत में नही हुआ। इसी प्रकार संसार के 500 चोटी के विश्‍वविद्यालय में भारत का एक भी विश्‍वविद्यालय शामिल नही हो सका। जानते है इसका कारण क्‍या है, इसका कारण है भारत में लोग अविष्‍कार करके गौरांवित नही होते, वे गौरांवित होते है अपनी जाति से। इसलिए लोग अविष्‍कार कररने के बजाय अपनी अपनी जाति गौरव बढ़ाने, उसे पुष्ट करने में लगे रहते है। और  अविष्‍कार नही होगा तो विश्‍वविद्यालय नाम के रहेगे, सिर्फ अंधविश्‍वास के केन्‍द्र। विद्यार्थी परिक्षा पास होने के लिए पढ़ाई के बजाय भगवान की मनौती पर ज्‍यादा विश्‍वास करते है। जाति प्रथा ने भारत का आर्थिक, मानसिक और नैतिक विकास रोके रखा है। इसलिए यदि भारत को शिखर में देखना है तो  जाति का उन्‍मूलन जरूरी है।
वे लोग जो जाति प्रथा को किसी धर्म विशेष(हिन्‍दू) की समस्‍या समझते है वे एक बड़ा भूल करते है। दरअसल यह एक राष्ट्रिय समस्‍या है। जिसने भारत को आज भी कई शताब्दियों पीछे रोके रखा है। वे चंद लोग जो जाति प्रथा से लाभांवित है जाति को समस्‍या नही मानते है। वे इसे एक संस्‍कृति का नाम देकर उन्‍मूलन का विरोध करते है। जब आप इसके उन्‍मूलन की बात करते है तो आपको इसे राष्‍ट्रीय समस्‍या के रूप में देखना होगा। तभी इसका हल निकाला जा सकता है।
जाति उन्‍मूलन किसका होना है ?
ज्‍यादातर ये माना जाता रहा है कि जाति उन्‍मूलन दबी कुचली जाति का होना चाहिए। इसे इन जातियों के संसाधनात्‍मक उत्‍थान से जोड़ कर देखा जाता रहा है। दूसरी मान्‍यता ये भी की जो जाति, जाति प्रथा से पीडि़त है उसे ही उन्‍मूलन के लिए प्रयास करना चाहिए। दरअसल ये एक सफेद झूठ है जिस प्रकार एक ऊंची जाति का व्‍यक्ति जाति को बचाये रखने का प्रयास करता है। ठीक उसी प्राकार निची जाति का व्‍यक्ति भी अपनी जातिय पहचान को बनाये रखने के प्रयासरत रहता है। यहां बात विचारधारा की है।
अत: जाति उन्‍मूलन नीचे पैदान की  जाति के लिए जितनी जरूरी है उतनी जरूरी ऊंचे पैदान की जाति के लिए भी जरूरी है। चूकि अन्‍य धर्म में भी धर्मातरण की ईकाई जाति रही है(‍जाति सहित धर्मांतरण)। इसलिए बौध्‍द सहित हिन्‍दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्‍ख, जैन धर्म में भी जाति प्रथा चरम पर है। यह सोचना की सिर्फ हिन्‍दू धर्म में ही जाति प्रथा की बुराई है तो ये गलत होगा। सभी धर्मो में मौजूद जातियों के उन्‍मूलन की आवश्‍यकता है। लेकिन केन्‍द्र में हिन्‍दू धर्म को रखना होगो।
जाति का उन्‍मूलन कैसे हो ?
जाति उन्‍मूलन के कई उपाय है इसे हम मुख्‍य रूप से दो भागों में बांट सकते है।
1 परंपरागत तरिका
(क) अर्तजातिय विवाह- आजादी के बाद एक ही वर्ग में आने के कारण जाति के बाहर शादि का प्रचलन बढ़ा है जैसे डाक्‍टर, आई ऐ एस आदि आदि। लेकिन जाति प्रथा एक इन्‍च भी पीछे नही खिसकी। उसी प्रकार अर्तजातिय प्रेम विवाह जाति टूटने का सुखद भ्रम तैयार करती है प्रेम विवाह करने वाले अपने आपको जाति उन्‍मूलन का अगवा सिध्‍द करने के लिए तुल जाते है जबकि सच्‍चाई ये है कि सिर्फ महिला की जाति बदलती है कहीं-कहीं तो पुरूष की जाति बदल जाति है। बाद में अगली पीढ़ी मानों अपनी गलती को सुधारते हुए अपनी जाति(पिता की जाति) में विवाह कर लेते है। आज प्रेम विवाह की संख्‍या बढ़ी जरूर है लेकिन जाति वहीं की वही है। मेरा मानना है कि जब अंर्तजातिय अरेंज मैरिज(जिसमें दोनो जातियों एवं परिवारों की रजामंदी हो) होना प्रारंभ हो जायेगा तब ये माना जा सकेगा की जाति उन्‍मूलन हो रहा है।
(ख) अर्तजातिय भोज का आयोजन-आज से छ: दशक पहले अर्तजातिय भोज एक स्‍वप्‍न था। बाद में कुछ सुधार हुऐ और विभिन्‍न अवसरों में इस प्रकार के भोज का आयोजन किया जाने लगा। लोग वहां अपनी जाति के साथ आते और चले जाते। आज ऐसे भोज शहरों में हर मौके पर होते है। लेकिन जाति है कि नही जाती। यह प्रयास भी विफल ही माना गया।
(ग) धर्मशास्त्रों को डायनामाईट से उड़ा दिया जाय- कुछ विचारको ने इस प्रकार के विचार भी रखे। हलांकि यह बात सही है कि धर्म शास्‍त्र जाति प्रथा को धार्मिक मान्‍यता प्रदान करते है। जाति प्रथा को खाद पानी इन्‍ही वेद पुराणों धर्म शास्‍त्रों से मिलती है।  और हर दुख सुख का जातिय हल बता दिया जाता जैसे- इस जन्‍म में अपनी जाति के पेशे को अच्‍छे से करोगे तो, अगला जन्‍म उच्‍चे कुल में होगा। अत: धर्म शास्‍त्रों को यदि डायनामाईट से उड़ा दिया जायेगा तो जो बुराई इन शास्त्रों के कारण लोगो की मासिकता में बसी हुई है उसका क्‍या होगो? इसलिए धर्म शास्‍त्रों के प्रतिरोध के साथ-साथ लोगो के मन से इन धर्मशास्‍त्रों को निकालना होगा।
2  जाति उन्‍मूलन के नये  तरिके
जाति उन्‍मूलन के पहले यह जाना आवश्‍यक है कि जाति किन आधारो पर टिकी हुई है। जब हमे जाति को खड़ा करने के आधार मिल जायेगे तो हमें उन आधारों पर चोंट करना होगा तभी जाति का उन्‍मूलन हो सकेगा।
जाति इन तीन आधारो पर टिकी हुई है
1.    अंधविश्‍वास- कुल गौरव, पुरुष सत्‍ता, कुल गुरू परंपरा, पूर्वजन्‍म आदि ये वे मान्‍यताएं है जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नही है सभी या तो अहम पर टिकी है या संस्‍कृति के नाम पर लेकिन ये है अंधविश्‍वास।। अज्ञानता- ऐसी परंपरा या रूढ़ी जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नही है लेकिन आधुनिक विज्ञान की गलत व्‍याख्‍या से सही सिध्‍द करने की चेष्‍टा की जा‍ती है। जैसे ऊंच नीच को मानना, शुभ अशुभ का विचार करना, काल्‍पनिक विपत्ति को दूर करने के अनुष्‍ठान करना आदि। विज्ञान और धर्म में घाल मेल- विज्ञान और धर्म में घाल मेल करके यह सिध्‍द करने की कोशिश की जाती है कि धर्म इस अविस्‍कार या ज्ञान से पहले से ही बावास्‍ता था। धर्म विज्ञान से ऊपर है ताकि धर्म में मौजूद ऊच नीच का कोई विरोध न कर सके। 
2.    झूठे स्‍वर्णिम अतित की पूजा- आज ये जाति प्रथा का मुख्‍य आधार है। 2000 साल की गुलामी का इतिहास होने के बावजूद। पुराण काल(काल्‍पनिक काल) को स्‍वर्णिम इतिहास बताया जाता है जिसका कोई एतिहासिक साक्ष्‍य नही है इस स्‍वर्णिम भूत काल की बातों में मुख्‍य रूप से यही बाते कही जाती है की जाति प्रथा ही उस स्‍वर्णिम भूत का मुख्‍य आधार था। सब सुखी थे। इसलिए जाति प्रथा का विरोध मत करना नही तो वह स्‍वर्णिम भूतकाल फिर से नही आयेगा।
3.    लिंग भेद (महिलाओं का दम)- सभी जातियां ये मानती है कि उनकी जाति की इज्‍जत उनके घर की स्त्रियों में होती है। स्‍त्री की इज्‍जत गई(आशय यौन संबंध से है) तो उस परिवार की जाति की इज्‍जत गई। मानों जाति की इज्‍जत उनकी महिलाओं की योनी में होती है। इसलिए जब किसी जाति को नीचा दिखाने की बात आती है तो महिलाओं की आबरू से खेला जाता है, उनकी हत्‍या की जाति है। छोटी दलित या पिछड़े वर्ग के लोग तरक्‍की करते है तो दबंग जाति के लोग नीचा दिखाने की नियत उनकी महिलाओं से बलात्‍कार करते है ताकि उस जाति की इज्‍जत को छोटा कर दिया जाय।
इसी इज्‍जत के बहाने बेटी को अपनी ही बिरादरी में ब्‍याहना पड़ता है क्‍योंकि अन्‍य जाति में ब्‍याहने का मतलब इज्‍जत जाना। इसलिए बाप को अपनी ही बिरादरी में अयोग्‍य जात बिरादरी के लड़को से बेटी की शादी करनी पड़ती वो भी  रिश्‍वत (दहेज) देकर।
गौरतलब है की स्त्रियों का दमन यहां तक नही रूकता वह कन्‍या वध, सती प्रथा, आजीवन विधवा शोषण तक जारी रहता है। उद्देश्‍य एक मात्र जाति की योनी का है। यानि जाति प्रथा का मतलब स्त्रियों का शोषण है। यह जाल स्त्रियों को घेरने के लिए है। पर इसी जाति प्रथा में प्ररूष आजाद है।
अब आवश्‍यकता है इन तीन आधार जिस पर जाति प्रथा टिकी हुई पर चोट किया जाय। साथ-साथ इन बिन्‍दुओं पर भी गौर करना होगा।
1.         इर जाति के प्रगतिशील व्‍यक्तियों को इस मुहिम का हिस्‍सा बनाया जाय। यानि सबसे पहले इस मुहिम में जाति का उन्‍मूलन किया जाय। जिस प्रकार ब्राम्‍हण वादी होने के लिए ब्राम्‍हण होना जरूरी नही है। । उसी प्रकार प्रगतिशील वादी होना भी किसी  जाति विशेष की बपौती नही है। इन्‍ही प्रगतिशील व्‍यक्तियों की जरूरत है जो हर रूढ़ी को तोड़ने के लिए तैयार हो।
2.         पारंपरिक या पु‍श्‍तैनी काम का ब‍हिस्‍कार किया जाय।
3.         अंर्तधार्मिक एवं जातिय विवाह को प्रोत्‍साहन संरक्षण दिया जाय।
4.         सामाजिक धरोहरों में से अनावश्‍यक चिजों को हटाकर काम की चिजों का प्रयोग किया जाय।
5.         धार्मिक अंध विश्‍वास से लोगो को परिचित कराया जाय।
6.         यदि धर्म को जिन्‍दा रखना है तो धार्मिक क्रियाकालापों में जातिगत श्रेष्‍ठता को आधार नही माना जाय।
7.         भूमि का समान वितरण हो तथा आर्थिक प्रगति की ओर बढना होगा।
8.         सरकारी दस्‍तावेज में जाति के कालम को विलोपित किया जाय।
       सामाजिक दायरे से बाहर निकलना होगा
1. जाति उन्‍मूलन सिर्फ सामाजिक सुधार का हिस्‍सा नही बल्कि राजनीतिक विचार धारा के मुख्‍य ऐजेण्‍डे में शामिल किया जाना होगा।
2. यदि आवश्‍यक हो तो धर्म के प्रतीनिधी से भी बात होनी चाहिए क्‍योंकि जब बात करेगे तो बात बनेगी।


अन्‍य लेख पढने के लिए यहां लाग आन करे  www.sanjeevkhudshah.com
published at deshbandhu news paper

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