काला करिकालन एक शानदार फिल्म Film Review


काला करिकालन - मिथकों से लड़ते, उन्हें उलटते, पलटते, बदलते हुए कथानक पर एक शानदार फिल्म

विश्वास मेश्राम
काला प्रारंभ से अंत तक फ्रेम दर फ्रेम ढेर सारे प्रतिकों के माध्यम से बात करती फिल्म है। अन्य बालीवुड फिल्मों की तरह इसमें प्रेम है, मारधाड़ है, गाने हैं, डांस है, नाटकीयता है फिर भी यह नख से शिख तक स्थापित परंपराओ, मान्यताओं और स्थितियों के खिलाफ अपना अलग संदेश छोड़ती चलती है। काला की खूबी यह है कि यह हमारे
स्मृतियों में बचपन से घुट्टी में पिलायें गये मिथकों से लड़ती है, उन्हें झकझोरती है और बार बार तोड़ती है। यह उनके समानांतर बल्कि ठीक उलटे जनकेन्द्रित विमर्श रखते चलती है।
फिल्म की कहानी धारावी की स्लम बस्ती के लोगों के जीवन की , उनके बनने, मिटने और फिर फिर बनने की कथा है। जहां अंधेरा और दलदल हुआ करता था वह धारावी ।
जातीय भेदभाव के कारण सैकड़ों सालों से जिन्हें शिक्षा, संपत्ति और हथियार रखने से वंचित रखा गया , ऐसे लोग अपने गांव छोड़ कर बेहतर जीवन की तलाश में , आकार लेती बम्बई आए और शहर का कचराखाना इलाके की जमीन को व्यवस्थित कर अपनी बस्ती बसाई, अपने सर पर एक छत का जुगाड़ किया और रहने लगे। दक्षिण भारत से आए इन लोगों में पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की बेहद खूबसूरत झलक है। जबरदस्त आत्मसम्मान - जो उत्तर भारतीय ब्राह्मणी परम्परा के उलट - न किसी के पांव छूता है न किसी को पांव छूने देता है।
तो धारावी की बस्ती में उन्होंने भिमवाड़ा बनाया है । भिमवाड़ा अर्थात डा0 भीमराव आंबेडकर के लोगों के रहने की बस्ती। जहां बुद्ध विहार भी बनाया गया है जो पूरी बस्ती की हर गतिविधि का शक्तिकेंद्र है । वहां की सारी बैठकें , सारे उत्सव, खुशियों से लबरेज़ डांस, संघर्ष के दौर के नुक्कड़ नाटक और असहयोग आंदोलन की हड़ताल भी वहीं से विस्तार पाती है । धारावी बस्ती एक प्रतीक है वास्तविक भारत का और उसकी समकालीन समस्याओं का , जो कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक अवधारणा को बारबार आकृष्ट करती है आईना दिखाते हुए। इसके पहले रमाबाई नगर मुंबई के दलितों के संघर्षों की कहानी आनंद पटवर्धन की टीम द्वारा "जयभीम काम्रेड" फिल्म में भी बहुत जीवंतता और मुखरता के साथ दिखाई जा चुकी है।

नायक रजनीकांत काला है। उसके कपड़ें, उसका चश्मा, उसका छाता, उसकी जीप सब काला है और सांस्कृतिक गुलामी के दौर में स्थापित की गई गोरेपन की उच्चता की भावना को ध्वस्त करने, नेस्तनाबूद करने, चकनाचूर करने का प्रतीक है। वह काला के रुप में द्रविड़ो का, मुलनिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। फिल्म में वह रावण के मिथक की तरह दिखाया गया है और फोनिक्स की तरह भी जो अपनी ही राख से फिर से जी उठता है। विद्वान निर्देशक पा रंजीत फिल्म के अंतिम हिस्से में इसे बहुत खूबसूरती से दर्शाते हैं जब विलेन हरिभाऊ अभयंकर के गुंडे बस्ती में आग लगाते हैं और काला को गोली मारते हैं मगर दूसरे दिन स्लम को तोड़कर कालोनी बनाने भूमिपूजन करने आए विलेन हरिभाऊ को हर जगह काला दिखाई देता है और फिर चारो ओर काला रंग, लाल रंग और नीला रंग छा जाता है जिसके साथ विलेन मारा जाता है । जिन्होंने फिल्म अंत तक देखी उन्हें ठीक अंत के पहले, ढ़ेर सारे रंगों के कोलाज के मध्य भविष्य का आगाज करता जय भीम लिखा नीला परचम लहराता दिखता है ।
काला फिल्म स्लम बस्तियों के लोगों से अपने हकों अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्षों का आह्वान करती है । वह स्पष्ट संदेश देती है कि अपने अधिकार, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ना ही होगा । एक तरफ वह बुद्धिजीवी वामपंथियों को केवल किताबी ज्ञान के आधार पर क्रांति करना छोड़कर जमीन से जुड़ने के लिए ललकारती है तो दूसरी ओर वंचितों को उनकी ताकत बताती है कि भले ही हमारे पास धन जायजाद, महल अटारी, व्यापार उद्योग नहीं, यह शरीर ही हमारी ताकत है । यह अनायास नहीं है कि नायक अपने बेटे का नाम लेनिन रखता है और बुनियादी समझ के बिना किए जा रहे उसके रूमानी संघर्षों पर बेटे की खिंचाई करता है।
जैसा कि पहले कहा, काला प्रतीकों की फिल्म है। हरिभाऊ के द्वारा बस्ती में आग लगवाना लंका जलवाने का प्रतीक है और वह सोचता है कि इससे बस्ती वासी टूट जाएंगे तभी काला लोगों को एकजूट कर श्रमशक्ति के असहयोग का काल देता है जिसके बाद सारे अंधेरी वासी और उनके रिश्तेदार अपना सारा काम बंद कर देते हैं । कन्ट्रास्ट देखिये कि एक संभ्रांत नवयौवना टैक्सी चालकों के न मिलने से लोकल ट्रेन में जाने की मजबूरी पर नाक भौ सिकोड़ती है और धारावी वासियों को भलाबुरा कहती है वहीं बाम्बे स्टाक एक्सचेंज की पृष्ठभूमि में एक सफेदपोश उद्योगपति प्रतिदिन दस लाख के नुकसान का रोना रोते हुए हड़तालियों को गालियां देता है जबकि बस्तीवासी काला के साथ अपने अस्तित्व को बचाने लड़ रहे होते हैं।
काला फिल्म सांप्रदायिक ताकतों के षड्यंत्रों को भी भलीभांति उजागर करती है। वह बताती है कि किस प्रकार एक वर्गविशेष सर्वहारा की एकता को तोड़ने के लिए दंगे फैलाने के लिए अपने भाड़े के टट्टुओं का इस्तेमाल करता है लेकिन अगर दलितों-मुसलमानों के बीच परस्पर संवाद और सौहार्द है तो वे असफल होते रहेंगे। इस दृश्य को देखते हुए भीष्म साहनी अपनी तमश के साथ अनायास जहन में उभरने लगते हैं।
काला में डायलॉग तो सशक्त हैं ही, प्रतीकों का जबरदस्त इस्तेमाल कर पा रंजीत अपने संदेश देते हैं।
विलेन हरिभाऊ अभयंकर गोरा है, उसे देख तिलक की आर्कटिक सागर से आये आर्यों की थ्योरी याद आ जाती है। उसके कपड़ें झक्क सफेद, उसका मकान व्हाइट हाउस, उसके गुंडे श्वेत वस्त्रधारी तथाकथित अभिजात्य संस्कृति के प्रतीक लेकिन उसका काम ठीक उलट -भू माफिया, हत्यारा, दंगा फसाद भड़काने वाला, राजनैतिक दल का कंट्रोलर यानि कि समानांतर सत्ता का केंद्र ।हरिभाऊ की ताकत पैसा, गुंडई और राजनैतिक पहुंच है तो काला की ताकत उसके लोग हैं ।
हरिभाऊ अपने बंगले में रामकथा करवाते हैं तो काला के बेडरूम में आनंद नीलकंठन की रावण और उसके लोगों पर केन्द्रित "असुर" पुस्तक पर पा रंजीत कैमरा फोकस करते हैं। हरिभाऊ पैर छुवाते हैं तो काला, हरिभाऊ की पोती को पैर छूने से स्पष्ट मना करते हुए आदमी-आदमी के एक समान होने का, समता और समानता का संदेश देते हैं । पूरी फिल्म में ये सभी अंतर बार बार नजर के सामने आते हुए वर्गभेद और जातिभेद को स्पष्ट करते चलते हैं।
काला मिडिल क्लास मानसिकता के प्रभाव में आकर धारावी बस्ती छोड़कर जाने का मन बनाते अपने बेटे बहू को डांटते हैं और अपनी जमीन से जुड़े रहने का संदेश देते हैं । काला की पत्नी के रुप में सेल्वी की स्क्रिप्ट भी बहुत सशक्त बनाई गई है । एक पूरे घर को बांधकर रखने वाली गृहिणी, पति के साथ आत्मसम्मान से लबरेज़ , उसके विचारों की साथी, बदले की आग में धधकते हुए काला की व्यक्तिगत लड़ाई को सामाजिक लड़ाई में तब्दील करने वाली ।
फिल्म में एक पढ़ी लिखी मुस्लिम महिला के रूप में जरीना का रोल भी बहुत अहम है। वह एक एनजीओ चलाती है । अफ्रीकन देशों में स्लम बस्तियों का सुधार कर धारावी को सुधारने लौटी है । सिंगल मदर है जिसकी बेटी का नाम कायरा ( ग्रीक भाषा में काला ) है। मूलतः धारावी में ही पली बढ़ी । काला की मंगेतर । ठीक शादी के दिन हरिभाऊ की गुंडागर्दी में काला और उसके परिजनों की हत्याएं दिखाई गई है जिसके बाद दोनों अलग हो जाते हैं । काला तड़ीपार तो जरीना किसी मिशनरी के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका । तो वह धारावी को सुधारने के लिए आर्किटेक्ट ( टाउन प्लानर ) से प्लान तैयार करवाती है । इस प्लान का काला और उसके साथी विरोध करते हैं कि इसे धारावी की जनता की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जाएं न कि किसी बिल्डर के मुनाफा कमाने के लिए। शुरुआत में वह काला के विरोध को समझ नहीं पाती मगर बाद में बिल्डर की सच्चाई और गुंडागर्दी को देखकर वह अंधेरी की जनता के साथ आ खड़ी होती है और अंतिम जीत तक वह काला और उसके साथियों के साथ होती है।
फिल्म में जातियां नहीं दिखाई गई है मगर जातिय वर्ग बहुत स्पष्ट दिखते हैं।
शुरुआत में ही ओबीसी-दलित एकता के प्रतीक के रूप में धोबीघाट को तोड़ने से बचाने का संघर्ष है।
फिल्म के अधिकतर कलाकार तमिल हैं। सभी ने अपनी भूमिकाएं बेहतरीन ढ़ंग से निभाई हैं । रजनीकांत नोडाउट सुपरस्टार हैं और हर फ्रेम में अपनी छाप छोड़ी है। हरिभाऊ अभयंकर के नेगेटिव रोल के साथ नानापाटेकर ने पूरा न्याय किया है और एक मंजे हुए अभिनय का परिचय दिया है। उन्हें शाबाश नाना कहना लाजिमी है। हुमा कुरैशी ने भी जरीना की भूमिका बखूबी निभाई है। सभी कलाकारों को सौ सौ सलाम ।
P रंजीत की कल्पनाशीलता और उसका विजन निस्संदेह काबिलेतारीफ है जिसमें वह काला फिल्म और उसका नायक काला करिकालन से समग्रता में बुद्ध के बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिए जीने और मरने का संदेश देने में कामयाब रहे हैं। काला फिल्म शुरुआत से अंत तक हिंसा से भरी है फिर भी यह हिंसा की व्यर्थता को रेखांकित करती है और दलित-वंचित मूलनिवासीजन को आत्मसम्मान से जीने, एकजूट होकर अपनी ताकत से अपनी जमीन और अपना अस्तित्व बचाने तथा बेहतर जीवन स्थितियां हासिल करने की जबरदस्त अपील करती है।

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