Omprakash Valmiki's absence

ओमप्रकाश वाल्मीकि का न होना

संजीव खुदशाह

आज चुनाव कार्य की व्यस्तता के बीच देशबंधु के प्रधान संपादक श्री ललित सुरजन जी के माध्यम से यह जानकारी प्राप्त हुई की हिन्दी के मशहूर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि नही रहे। उनका आज यानी 17.11.2013 की सुबह देहरादून के एक अस्पताल मे निधन हो गया। वे 67 साल के थे। इसके बाद शील बोधी, सुन्दरलाल टाँकभौरे सहित कई साथियों के SMS और फोन भी आये। दरअसल ओमप्रकाश


वाल्मीकि केवल लेखक नही थे वे एक दलित दृष्टा भी थे। दलित शब्द  इसलिए यहां प्रयोग करना जरूरी है क्योकि उन्होने प्रगतिशील दृष्टिकोण को ऐसे ढंग से प्रस्तुत किया जहां दलित दृष्टि के बिना प्रगतिशीलता एक रूढी प्रतीत होती है।

वे एक अच्छे कहानीकार के साथ-साथ्‍ा कवि एवं विचारक भी थे। उन्हे विशेष प्रसिध्दि तब प्राप्त हुई जब उनकी आत्मकथा जूठन प्रकाशित हुई। जूठन ने ये बताया की एक भंगी भी इंसान होता है। और उसके सीने में भी दिल धडकता है। जूठन ने साहित्य के हल्को में हलचल मचा दी। लोगो ने एक सफाई वाले की जिन्दगी को करीब से देखा और ये किताब कई भाषाओं में अनुदीत हुई।  

मेरी उनसे मुलाकात तब हुई जब मै अपनी किताब सफाई कामगार समुदाय पर काम कर रहा था। इस हेतु मुझे कुछ साथियों ने उनका नाम सुझाया। मुझे उनका  साक्षात्कार लेना था एवं शोध हेतु उनसे रायसुमारी करनी थी। गौर करने वाली बात ये है कि उस समय मुझे ये नही मालूम था कि वे मशहूर लेखक है। मुझे सिर्फ ये बताया गया कि वे समाजिक कार्यकर्ता है और कुछ लिखते भी है।

जबलपुर स्थित डिफेंस कालोनी के उनके निवास पर मेरी उनसे मुलाकात हुई।  मैने उनसे कुछ प्रश्न पूछे। उन्होने बडी ही विदृवता से जवाब दिया। उन्होने ये भी बताया जैन धर्म में जिन चार लोगो को प्रवेश में मनाही है उनमें से एक भंगी भी है। मैने अपनी किताब में इसका जिक्र भी किया है। उन्होने ये भी बताया की यहां के सफाई कामगार वाल्मीकि की तरह सुदर्शन को मानते है और वे अम्बेडकरी आंदोलन से इत्तेफाक नही रखते है। उन्होने ये भी बताया कि उन्हे उनके ही लोग सभाओं कार्यक्रमों में बुलाने से परहेज रखते है। क्योकि समाजिक नेताओ को लगता है कि उनके आने से सुदर्शन और वाल्मीकि का भ्रम हट जायेगा और उनकी नेतागीरी जाती रहेगी। इस समय उनकी पत्नी चंदाजी शायद बीमार थी।  उन्होन स्वयं चाय बनाकर हमे दिया, मना करने पर भी वे मेहमान नवाजी पर तत्पर थे।

बाद में मेरी किताब सफाई कामगार समुदाय प्रकाशित हो गई। उनसे अक्सर बात होती रहती कभी साहित्यिक कभी निजी बाते होती। हलांकि वे आज नही है फिर भी यह जिक्र करना आवश्यक है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का विवादो से चोली दामन का नाता रहा है। उनपर अक्सर रचनाएं चुराने का आरोप लगता रहा है। धर्मवीर ने “जूठन का लेखक कौन?”  नाम से एक किताब ही लिख डाली। मुकेश मानस की अनूदीत किताब “मै हिन्दू क्यो नही हूं ?“ (लेखक-कांचा इलैया) के अनुवाद चुराने का आरोप उन पर लगा। इसी प्रकार कई और भी विवाद उनसे जुडे रहे। हैरानी की बात ये है कि मेरे साथ भी उनके संबंधो में तब तल्खी आ गई जब वे अपनी नई किताब “सफाई देवता” में मेरे किताब के अंश को बिना उचित संदर्भ देते हुए प्रकाशित कर दिया । मेरे एवं हिन्दी के अन्य लेखको की आपत्ति के बाद, उन्होने गलती स्वीकार कर ली और मामला खत्म हो गया। लेकिन ये बात पूरे साहित्य के हल्को में फैल गई । कई लेखको ने मुझे उन पर कोर्ट केस करने की सलाह दी लेकिन मैने इनकार कर दिया । आपस में लडकर शक्ति जाया करना मुझे गवारा नही था। लेकिन कुछ लोग उपन्यास लेख आदि में इस घटना का जिक्र करते रहे ।

यह बात इसलिए कहना जरूरी है क्योकि मै साफ कर देना चाहता हू कि मैने अपने मन में कभी भी उनके प्रति द्वेष नही रखा। और हमारे संबंध पहले की ही तरह रहे। आज वे नही है यह पीडा ब्यान करने के योग्य नही है। वाल्मीकि समाज आज भी उनकी कृतियों से परिचित नही है, न ही उनका मोल समझता है। यह दर्द ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को हमेशा सताता था। इसी प्रकार दिवंगत हो चुके एडवोकेट भगवान दास, रामरतन जानोरकर और ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिन्दी के पाठक कभी नही भुला पायेगे। उनके लिए सच्ची श्रधाजली तभी होगी जब उनके विचार हर दलित के घर में पहुचे और उनका अनुसरण करे। 

हिंदी में दलित साहित्य के विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उन्होंने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.उन्हे ह़ृदय से विनम्र श्रंध्दांजली।



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