Sant Ravidas's thoughts are relevant even today

 मन चंगा तो कठौती में गंगा- संत कवि रविदास

संजीव खुदशाह

भारतीय समाज मे संत रविदास का स्थान विशेष है वे भक्ति काल के कवि होने के बावजूद उनके पदो में प्रगतिशीलता और समता छाप स्‍पष्ट झलकती है। उनके जन्म स्थान दिनांक उम्र आदि के बारे विद्वानों में

विरोधा भाष रहा है। किंतु ज्यादातर विद्वान मानते है कि सन 1398 ईसा में उनका जन्म हुआ था तथा उनके दोहे से ज्ञात होता है कि वे एक दलित समुदाय से ताल्लुक रखते है।

जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।

नीच से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविरास चमारा।।

-- रैदास जी की बानी

वे एक मुख्यु धारा के संत कवि थे जिनका सीधा समाज से सरोकार था किंतु साहित्यिक मठाधीश उन्हे  निर्गुण धारा के कवियों में वर्गीकृत करते है। शायद इसलिये की वे समकालीन कवियों रसखान, सूरदास, तुलसीदास की भांती सिर्फ भक्ति में ही डूबकर रचनाएं नही करते थे। वे कबीर की तरह समाज की रूढि़यों पर भी चोट करते रहे। वे संत कवि होने के बावजूद समाज को मार्गदर्शन देने का काम करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि संत रविदास बनारस के निवासी थे लेकिन जीते जी उनकी ख्याति‍ पूरे भारत में थी। उनके शिष्‍य और अनुयायी पूरे भारत में मिलते है चाहे पंजाब हो, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या दक्षिण में महाराष्ट्र  और आंध्रप्रदेश । ऐतिहासिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि संत रविदास के जीवन काल के दौरान 

देश में सिकंदर लोधी का शासन था एवं भारत में ऊंच-नीच, धार्मिक पाखण्ड का बोल-बाला था। वे तीक्ष्ण बुध्दि के थे उनकी गजब की तर्क शक्ति थी। उनके जीवन की कुछ घटनाओं, किवदंतियों को पढ़कर ज्ञात होता है कि वे अपनी वाकपटुता और बुध्दि से विरोधियों को लाजवाब कर देते थे।

एक समय ऐसा था जब संत बनने के लिए किसी को गुरू बनाना जरूरी था। चित्तौड़ की रानी मीरा को तत्कालीन संतो ने शिष्या बनाने से इनकार कर दिया क्योकि वे एक स्त्री  थी। वह भी राज परिवार की़। धार्मिक परंपरा के अ़नुसाऱ ये उचित नही माना जाता था। लेकिन संत रविदास ने इस रूढ़ी को तोड़ते हुए मीरा के अनुनय विनय  को स्वीकार करते हुये अपनी शिष्‍या बनाया। मीरा के पदों में रैयदास का जिक्र कई स्थानों में मिलता है। रविदास की रचनाएं- नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिर्पोट के अनुसार उनकी रचनाएं विभिन्न हस्तालिखित ग्रन्थों के रूप मे मिली है ---1. रैदास की बानी, 2. रैदास जी की साखी, 3.रैदास के पद, 4.प्रहलाद लीला। ग़ौरतलब है कि सिक्खो के पवित्र धर्म ग्रन्थ ‘’गुरूग्रंथ साहेब’’ में संत रविदास के 40 पद संग्रहीत है।

रैदास की वाणी मानव भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का संतोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।

संत रविदास जाति भेद, ऊंच-नीच, रंग-भेद, लिंग-भेद, पितृसत्ता को सारहीन एवं निरर्थक बताते थे। वे परस्पार मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश देते थे।

वर्णाश्राम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

सन्देशह-ग्रन्थि खण्ड न-निपन, बानि विमुल रैदास की।।

 इस पद में वे कहते है की मनुष्य मनुष्य‍ से तब तक नही जुड पायेगा जब तक की जाति रहेगी।

 जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

 वे हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।

तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

 हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

 

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।  इस प्रकार उनके मुख से प्रसिध्द  दोहे का जन्म् हुआ ।

- मन चंगा तो कठौती* में गंगा।

*कठौती- चमड़ा साफ करने का बर्तन।

आज भी प्रासंगिक है संत रविदास के विचार Publish on Navbharat 30 Jan 2018

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