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This book asking many questions from the perspective of backward class

पुस्तक समीक्षा

पिछड़े वर्ग के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल करती कृति

डा. सुधीर सागर

 

भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों एवं वर्गो में बंटा है। किसी भी समाज का शोधात्मक, विष्लेषणात्मक, खोजपरख अध्ययन एवं मुल्यांकन का उद्देश्य समाजिक उत्थान ही होता है। जातीय एवं वर्गात्मक संरचना के अध्ययन के लिए ऐतीहासिक एवं धार्मिक ग्रन्थों के मूल में जाकर वर्ग की स्थिति की पड़ताल गौण

विषय है। प्राचीनकाल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक विवादास्पद प्रश्न खड़े है या किये जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में एक लम्बी बहस की प्रक्रिया जातीय संरचना एवं वर्ग को लेकर जारी है। समाज एवं सभ्यता के विकास के समांनातर  वर्गो के वर्गीकरण की प्रक्रिया चलती रही हैं जो कि परिस्थिति अनुसार वर्तमान स्थिति को रेखांकित भी करती है।

संजीव खुदशाह की पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग -पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं’’ चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है। पुस्तक में वर्ग की जांच पड़ताल डा. अंबेडकर के वैचारिकी को केन्द्र में रख कर लिखा गया है। जबकि लेखक ने स्वयं लिखा है कि शोध प्रकल्प के रूप में काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। वेद, स्मृति ग्रेथो, इतिहासकारों एवं विचाराको के मान्यताए शामिल है।

पुस्तक मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़ेवर्ग की स्थिति की पड़ताल करती है जिसमें प्रथम अध्याय में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग का वर्गीकरण किया गया है। इस अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग की खोज की शुरूआत मानव उत्पत्तिकाल से करता है। आगे इसकी व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यो से लेकर धार्मिक मान्याताओं तक की गई है। मानव उद्भव, सभयता एवं विकास की प्रक्रियाओं से गुजरते हुये छोटे-छोटे कबीलों, जातीय समुदायों एवं वर्ग के वर्गीकरण के अध्ययन को डा. अम्बेडकर के विचारों के परिप्रेक्ष्य में कर संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। जातीय वर्गीकरण का आधार उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के आधार पर किया गया है। उनके उत्पादक मूल्यों के आधार पर वर्ण व्यवस्था में उन्हे अस्पृश्य एवं स्पृश्य माना गया है। पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण करते वक्त लेखक ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक मान्यता को आधार बनाया। एक प्रश्न हम सभी के सामने है। कौन है ये पिछड़ी जातियॉं ? ‘‘हिन्दु धर्म में से यदि ब्राम्हण, क्षत्रिय एवं वैश्य को निकाल दे तो शेष वर्ण शूद्र को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है। इसमें अतिशूद्र शामिल नही है।’’  (पृष्ठ 22) ‘‘पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर उन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शूद्र भी कहते है ये पिछड़ा वर्ग कहलाती है।’’(पृष्ठ 23)  स्पर्षय एवं अस्पर्शय सन्तान की चर्चा कर लेखक डा. अम्बेडकर व्दारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्णो को मान्यता देते हुए सम्पूर्ण पिछड़े समाज को चौथे वर्ण में रखकर वर्गीकृत करता है।

प्रथम अध्याय में पिछड़े वर्ग के उद्भव की वृहद चर्चा करने के उपरांत द्वितीय अध्याय को लेखक ने जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दुकरण पर केन्द्रित किया है। शोध के दौरान इन जातियों के ग्रन्थ, स्मरणिका लेखों में उंची जाति होने के दावे को धर्मग्रन्थों को मान्यता देते हुए पिछड़े वर्ग की अवैध सन्तति मानता है। ‘‘भारत में जातीय संरचना इतनी घृणास्पद है कि प्रत्येक जाति अपनी हीन भावना के बोध से नही उबर पाती है। उसे अपने से छोटी जाति को देखकर उतना गुमान नही होता, जितना कि अपने से बड़ी जाति को देखकर क्षोभ(शर्मिन्दगी) होता है। ’’(पृष्ठ 45) उंची जाति होने के दावे एवं कृत्यों के सामाजिक परिणाम क्या हुए यह तथ्य विचारणीय है ? विवादि जातियो में कायस्थ, मराठा, मूमिहार, सूद प्रमुख तौर पर शोध संदर्भ में रहे है। गोत्र क्या है? समाजषास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित टोटम का नाम, पिता का नाम, पूर्वज का नाम एवं नगर या शहर का नाम के स्त्रोतो को वर्णित करते है लेकिन पिछड़े वर्ग के गोत्र अगड़ी जातियों के समान है। जातिगत विवेचना के तहत बुध्द की जाति को खंगालने का प्रयास लेखक ने किया है। गोत्र के आधार पर उच्च वर्ग में शामिल किये जाने पर प्रष्नचिन्ह लगाते है। पिछड़े वर्ग की विकास यात्रा के विभिन्न सोपान महत्वपूर्ण है। आरक्षण व्यवस्था के मुद्दों पर मनुस्मृति को ही आधार बनाते हुऐ सामाजिक संरचना को विश्‍लेषित करते हुऐ लंदन में गोलमेज कान्फ्रेन्स मे हुई घोषणा की चर्चा करते है। इस कांफ्रेस में डा. अम्बेडकर ने दलितों के पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग की। बस यहीं से  जाति आधारित आरक्षण को तोड़ने की नीव पड़ी। यही निर्णय कम्युनल अवार्ड के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट की टीस दलित समुदाय में आज भी मौजूद है। पुस्तक में पुनः उसका जिक्र कर गांधीयन दृष्टिकोण को कटघरे में खड़ा किया गया। आरक्षण भारत में नही अपितु विदेषों में भी है। काका कालेलकर आयोग का गठन, मण्डल आयोग की सिफारिशों की वृहद चर्चा करते हुए आरक्षण से उपजे विवाद पर सवर्णो से कुछ सवाल किये है। जैसे ‘‘क्या ये मैला साफ करने की नौकरी में दलितों के आरक्षण का विरोध कर सकते है? अर्थात् सवर्ण इसमें आरक्षण की मांग क्यों नही करते? दूसरा सवाल देष के तमाम पुरानी एवं प्रसिध्द मंदिरों में पुजारी का पद सिर्फ एक जाति के लिए आरक्षित क्यों है?’’ विचारणीय है। क्या इन प्रश्नों के जवाब कभी मिलेगें? अंधविश्वास, पाखंड, छलप्रपंच के चक्रव्युह में पिछड़ावर्ग न फंसे उसके लिए आहवान करते है। लेखक यह प्रष्न उठाते है। संतकबीर, संतसेन, महात्मा फुले, पेरियार, एवं संतनामदेव जैसे समाज सुधारकों के बावजूद यह वर्ग पिछड़ा क्यों है?

संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुये विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने को आतुर जातियों की भी चर्चा करते है।

 पुस्तक के अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की स्थिति की जांच पड़ताल करते हुये पुनः जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण का विस्तृत विवरण देते है। लेखक समतामूलक समाज की पक्षधरता को पुस्तक रेखांकित अवश्य ही करता है। पिछड़ावर्ग में सम्मिलित जातियों की आधिकारिक सूची सूचनात्मक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुऐ धर्म ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित करते है। लेखक ने आर्यो की वर्ण व्यवस्था से बाहर की कामगार जातियों को अनार्य माना है। पिछड़े वर्ग की समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन बड़ी ही सर्तकता पूर्वक किया है। सहज, सरल भाषा में पिछड़े वर्ग के संदर्भ में शोध को पाठको के समक्ष रखते है। पिछड़े वर्ग की स्थिति की जांच पड़ताल करते वक्त कुछ अनछुए पक्ष जैसे शिक्षा, राजनीति एवं आर्थिक विषय  रह गये है। किसी भी समाज की सुदढृता सामाजिक संरचना पर निर्भर करता है। यदि कुछ मुद्दों  को नजरअंदाज कर दे तो पुस्तक पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति एवं जातिगत जांच पड़ताल पर आधारीत है। आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक में लेखक ने बहुत परिश्रम लगन से शोध कार्य किया। खोजपूर्ण पुस्तक में सभी तथ्यों या विमर्ष पर चर्चा किया जाना संभव नही हो सकता है लेकिन लेखकीय तटस्थता के फलस्वरूप यह पुस्तक संजीव खुदशाह की अंर्तराष्ट्रीय स्पर पर चर्चित कृति ‘‘सफाई कामगार समुदाय’’ की अगली कड़ी के रूप में हम सभी के सामने आई है। पुस्तक पठनीय है जो पिछड़े वर्ग के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल खड़ी करती है। ऐतीहासिक एवं धार्मिक पृष्ठों को खंगालते हुए संजीव खुदशाह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ यह पुस्तक प्रस्तुत करते है। युवा समाज शास्त्री संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है।

      डा. सुधीर सागर

पता-1221, सेक्टर 21 डी.

फरीदाबाद- 121001 (हरियाणा)

मोबाईल-09911837487

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174   

 


investigation of backward class

पुस्तक समीक्षा

पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल

जीवेश प्रभाकर

भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों में बटां हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्धेश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक


कि वर्णो के वर्गीकरण क प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्गीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आंधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णेत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ती से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग``। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक से स्पष्ट रूप से कहा गया है (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकाताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।

लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से  स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भो में वेद, स्मृति ग्रंथो से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल है।

मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है असमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभीक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हे पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।

प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति व्दारा निर्धारित विभिन्न वर्णो के अन्तरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों व्दारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए है। इस अध्याय में सदर्भो का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णो द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे नीहित स्वार्थ व समाज पर उच्चवर्ण का दबदवा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है।

उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल १८५७ के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्धेश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्धेश्य से सवर्णो के साथ साथ पिछड़े वर्गो में भी जातिय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल में लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजो ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातिय आधार पर बांटने पर यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ो की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप से पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्पूण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बार फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।

संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते है। यहां लेखक १९३१ में अंग्रेजों द्वारार जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नही उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते है। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा १८७२ में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर हे कि ये आयोग स्वतंत्र भारत में गाठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ है। लेखक की किताब भी उन्ही लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत है। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्धाटित करता है।

भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लम्बे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखीं । मण्डल अयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूवात की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिर्वतन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठा या सामाजिक व्यवस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक नही रही। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरूषों का जिक्र किया है।

अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में  शामिल जातियों की पड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधीकृत रूप में पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मो एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते है। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है।

संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के है। इस बात का उल्लेख दो कारणों से  आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नही होते जबकि हाल के वर्षो में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद लेखक ने इस पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीयता की लगभग अनदेखी की गई है। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नही देखी जा सकती।

आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक के लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय`` काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती हैं। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नही हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` लम्बे समय के अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

 

पुस्तक का नाम आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक            -संजीव खुदशाह

ISBN            -97881899378

मूल्य             -200.00 रू.

संस्करण        -2010   पृष्ठ-142

प्रकाशक         -     शिल्पायन 10295, लेन नं.1

                    वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

                    दिल्ली-110032  फोन-011-22821174

 

 

जीवेश प्रभाकर

रोहिणीपुरम-२

डगनीया रायपुर छत्तीसगढ़

492001

मो. 09425506574

 

 

 


पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` का लोकार्पण



पिछड़ा वर्ग के पास कोई फिलास्फर नहीं है : राजेन्द्र यादव
आज दिनांक ०९/०१/२०१० को साहित्य अकादेमी सभागार में रमणिका फाउंडेशन एवं शिल्पायन प्रकाशन द्वारा आयोजित लोकार्पण समारोह में संजीव खुदशाह द्वारा लिखित पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार एवं 'हंस` पत्रिका के संपादक श्री राजेन्द्र यादव ने किया। मुख्य अतिथि श्री राजेन्द्र यादव ने अपने वक्तव्य में कहा कि चार पांच ऐसी जातियां हैं जो कि न दलित हैं न पिछड़ी हैं। जिन्हें त्रिशंकु जातियां भी कह सकते हैं। इन जातियों के पास कोई फिलोस्फर नहीं है, जबकि दलितों के पास डॉ. अम्बेडकर तथा फूले हैं। उन्होंने आगे कहा कि जातिवाद की जड़ता परिवार में निहित है। भारतीय समाज का पारिवारिक ढांचा इतना मजबूत है कि टूटता ही नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर हम लोग जो भी क्रांतिकारी चर्चा कर लें, लेकिन परिवार को हम बदल नहीं सकते। इसलिए हम परिवार से कटे लोग हैं। समाज के परिवर्तन के लिए परिवार की सोच में परिवर्तन लाना होगा। उन्होंने विश्लेषणात्मक शोधात्मक एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित पुस्तक की भूरि-भूरि प्रशंसा की। 


 कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवयित्री एवं युद्धरत आम आदमी की सम्पादक सुश्री रमणिका गुप्ता ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ये सुखद बात है कि आधुनिक भारत में पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल लेखक संजीव खुदशाह ने अंबेडकरवादी दृष्टिकोण से की है। विडंबना ये है कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज भी आज तक अपनी जाति नहीं छोड़ पाया है, तो हम अनपढ़ समाज से इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैं, जो सदियों से जाति की गुलामी को ढोता आ रहा है। समाजशास्त्रा के इस विषय पर ये पुस्तक लिखकर श्री संजीव खुदशाह ने गंभीर बहस का एक अच्छा मौका दिया है।

कार्यक्रम के आरंभ में पुस्तक पर समीक्षात्मक आलेख का पाठ श्री रमेश प्रजापति ने किया। तदोपरांत वरिष्ठ आलोचक एवं समाज सेवी श्री मस्तराम कपूर ने अपने वक्तव्य में कहा पिछड़े वर्ग की समस्या पर चर्चा करने से पूर्व पिछड़ा वर्ग को परिभाषित करना आवश्यक है। जातीय आधार पर जनगणना कराने से इनकी वास्तविक  स्थिति  का ज्ञान हो सकता है, लेकिन नेहरू ने इसे होने नहीं दिया। विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ आलोचक श्री मैनेजर पाण्डेय ने अपने वक्तव्य में कहा जातिवाद देश के अतीत से भी जुड़ा है और देश के भविष्य से भी। उन्होंने लेखक से तथा उपस्थित सभी साहित्यकारों से आह्न किया कि जाति-व्यवस्था का केवल विश्लेषण न कर वे जाति व्यवस्था के विरोध में हुए आंदोलनों का जिक्र करते हुए, जाति-व्यवस्था के विरोध में लिखें। पुस्तक के लेखक संजीव खुदशाह ने अपने लेखकीय वक्तव्य में कहा कि ऐसा नहीं कि पिछड़े वर्ग के पास फिलोस्फर नहीं थे। फुले एवं पेरियार पिछड़ी जाति के लेखक थे लेकिन पिछड़ों ने उन्हें न मानकर दलितों ने माना। कार्यक्रम का संचालन रमणिका फाउंडेशन के मीडिया प्रभारी श्री सुधीर सागर द्वारा किया गया।
 

प्रस्तुति : सुधीर सागर
मीडिया प्रभारी, रमणिका फाउंडेशन
ए-२२१, ग्राउंड फ्लोर, डिफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली-२४