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New Document Establishment of Backward classes

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग नई स्थापनाओं का दस्तावेज

राजेश कुमार चौहान

‘‘पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैष्य होने का दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज सन्तान ठहराते है।’’

उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित पुस्तक


‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ से है। लगभग इसी आशय का एक सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है-‘भारत में छोटी से छोटी जाति भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।’ यहां संजीव खुदशाह और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा जातिवादी कहा जायेगा।

अभी तक तमाम स्वीकृतियों के बावजूद दलित लेखन विवादास्पद बना हुआ है। इसे खारिज करने के लिए इस पर तमाम तरह के आरोप लगाये जाते है। लेकिन प्रतिबद्ध दलित लेखकों ने इस सबकी परवाह किये बिना अपना कार्य जारी रखा है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम और जुड़ता है- संजीव खुदशाह। संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि दलित लेखक मात्र आत्मकथाओं और ब्राम्हणवाद के प्रति घृणा के दायरों में ही घिरे हुए नही है, वे अतीत के प्रति घृणा का पोषण ही नही करते हैं अपितु अपने समाज और विष्व के समाजों के अतीत, वर्तमान ओैर भविष्य का तटस्थ भाव से मुल्यांकन भी करते हैं।

संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन पूरी तटस्थता के साथ किया है। यही कारण है कि उनके निष्कर्ष किसी अतिवाद का षिकार नही होते। कहीं-कहीं तो वे निष्कर्ष देने से भी बचते हैं। केवल तथ्य पाठक के समक्ष रख देते हैं, इस सब में वे कितना सचेत हैं, यह पुस्तक की भूमिका से भी पता चलता है- ‘‘मैंने आम भाषा तथा सरल तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी को तथ्य समझने में दिक्कत न हो। जो नई स्थापनाएं तैयार हुई है, उसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिये गये हैं। निर्णय पर ज्यादा जोर नही दिया बल्कि उसे पाठकों पर छोड़ दिया गया है।’’

तथ्यों को इस तरह पाठक के समक्ष रख देना निश्चित रूप से लेखक की वस्तुनिष्ठता का परिचायक है। लेकिन इसी आधार पर कुछ बड़े आलोचक और विमर्श कारों ने पुस्तक का अवमूल्यन भी किया है। उनका कहना है कि पुस्तक में इधर-उधर बिखरे हुए और कुछ पुराने तथ्यों को सिलसिलेवार ढंग से रखा गया है, कोई मौलिक स्थापना नहीं दी गई। पुस्तक में मौलिक स्थापनाएं न होने की शिकायत करने वाले विमर्श कार पुस्तक के संदर्भ में यह गलतफहमी पैदा कर देते है कि पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी ही है, मूल्यांकन का अभाव है। वास्तव में पुस्तक में मूल्यांकन का कोई अभाव नही है, लेखक ने पुस्तक की वस्तुनिष्ठता को बचाये रखने के लिए कहीं-कहीं निर्णय देने से परहेज किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी पुस्तक में कहीं कोई स्थापना नहीं मिलती ।  हॉं इतना जरूर है कि पुस्तक में कोई सनसनीखेज स्थापना नहीं है।

इस पुस्तक के लेखक ने पिछड़ा वर्ग पर कोई टीका टिप्पणी करने के बजाय उसकी वास्तविक स्थिति को समझने समझाने का प्रयास किया है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा मिला।’’ यहॉं यदि लेखक वस्तुनिष्ठता का ध्यान न रखता तो आरोपों की भाषा में टीका टिप्पणी करने की पूरी संभावना बनती है उदाहरणार्थ - कहा जा सकता था कि पिछड़ा वर्ग की जातियॉं सवर्णो की लठैत बनी रही। इन जातियों ने दलितों के साथ मिलकर ब्राम्हणवाद के विरूद्ध कोई लड़ाई नही लड़ी, उल्टे दलितों का उत्पीड़न कियां इनका ब्राम्हणों से संघर्ष स्वयं ब्राम्हण बनने की होड़ में हुआ। लेखक पिछड़ा वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करते समय ऐसी सभी प्रतिक्रियाओं से उपर उठ जाता है। अन्यथा स्वयं लेखक ने भी पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह बरी नही कर दिया है।

लेखक ने पुस्तक के पहले ही अध्याय में मण्डल आयोग लागू होने के समय आरक्षण विरोधियों द्वारा मचाये गये उपद्रव और ऑंखों देखी घटना का जिक्र करते हुए पिछड़ा वर्ग की भूमिका पर सवाल उठाया है। लेखक का मानना है कि पिछड़ा वर्ग में चेतना का अभाव होने के कारण वह अपनी सही भूमिका निश्चित ही नहीं कर पाता और अपने विरोधियों को ही मजबूत करता है। लेखक ने पुस्तक में बार-बार यह प्रश्न भी उठाया है- जबकि पिछड़ा वर्ग से कई समाज सुधारक और क्रांतिकारी सामने आए लेकिन पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ?

लेखक ने ऐसे ही कुछ और प्रश्नों के उत्तर भी पुस्तक के अंतिम अध्याय कें अंतिम खंड (समाधान) में दिये हैं। पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ, इस संदर्भ में लेखक की मान्यता है कि पिछड़ा वर्ग जाति व्यवस्था में अपने जाति-क्रम को लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति में रहा है। उसे एक तरफ ब्राम्हण न हो पाने का हीनता बोध है तो दूसरी तरफ दलित जातियों से उपर होने का श्रेष्ठताबोध उसकी चेतना के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। वह यदि एक तरफ सवर्णों से थप्पड़ खाता है तो दूसरी तरफ दलितों को थप्पड़ लगाकर तुष्टि पा लेता है थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से देने मे वह कतराता रहा और किसी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष नहीं करता।

पुस्तक के अंतिम अध्याय के इसी अंतिम खण्ड(समाधान) में लेखक ने ऐसे प्रष्नों के उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी किया है और अपनी कुछ मौलिक स्थापनाएं भी दी है। अतः जिन बड़े विमर्श कारों को पुस्तक से यह शिकायत है कि इसमें पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी है, वे इस अंतिम अध्याय को जरूर पढ़ें। ऐसे तो पुस्तक के कुल चारों अध्याय ही महत्वपूर्ण हैं। पहला अध्याय पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति और स्थिति से संबंधित है। दूसरे अध्याय में जाति और गोत्र के विवाद को तथ्यों और तर्कों के आलोक में सुलझाने का प्रयास किया है, साथ ही हिन्दूवाद की पोल खोली है।

तीसरे अध्याय में आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए लेखक इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि आरक्षण विरोधी सवर्ण इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वे स्वयं सदियों से आरक्षण पाते आये हैं। सारे हिन्दूग्रन्थ इन सवर्णों को आरक्षण देते हैं। इसके अलावा पूंजी का आरक्षण भी इन्हीं सवर्णों को मिला है। सवर्णों को मिले इस आरक्षण के चलते पैदा हुई सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देना जरूरी हो जाता है। इसी अध्याय में लेखक ने पिछड़ा वर्ग के कुछ संतों और समाज सुधारकों का परिचय भी दिया है।

अंतिम अध्याय में पिछड़ा वर्ग की जातियों का विवेचन उनके पेशों के आधार पर किया है और मंडल कमीशन की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए एक प्रश्नोत्तरी भी ही है। और अंत में कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये है। ये समाधान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लेखक की वस्तुपरकता के साथ-साथ उसकी पक्षधरता भी सुनिश्चित करते हैं। स्पष्ट है कि लेखक ब्राम्हणवाद विरोधी मुहिम और समता मूलक संघर्ष की अगली कतार में है।

पुस्तक का नाम  आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)       

रोजश कुमार चौहान

5बी/16एफ, गली नं.-16, गुरूद्वारा मौहल्ला,

मौजपुर, दिल्ली-110053

मो. 09278210309

 

 

 

लेखक  संजीव खुदशाह

Isbn 97881899378    

मूल्य     200.00 रू.       

संस्करण 2010   पृष्ठ-142           

प्रकाशक

            षिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174 

 


A discussion on the Indian caste system

 पुस्तक समीक्षा

हरिभूमि रविवार 3 जनवरी 2010 रविवार भूमि

भारतीय जाति व्यवस्था पर एक विमर्श

विज्ञान भूषण

हाल मे ही प्रकाशित हुई पुस्तक ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)’ में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, समयानुसार उसके स्वरूप में हुए परिवर्तनों ओर उनकी वर्तमान स्थिति के वर्णन के बहाने भारतीय जाति-व्यवस्था पर भी अनेक दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। विभिन्न मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथो के उध्दरणों की सहायता स लेखक संजीव खुदशाह ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि वास्तव में पिछड़ा वर्ग का जन्म भारतीय वर्ण व्यवस्था में कब और किन परिस्थितियों में हुआ? तत्कालीन समाज में उनकी भुमिका और दशा का प्रामाणिक


वर्णन की स्थितियों पर भी गहन विमर्श प्रस्तुत किया है। सामाजिक समरसता और समभाव के पक्षधर जागरूक बुध्दिजीवियों व्दारा पिछड़े वर्ग के लोगो को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयत्नों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।

विदेशों में आरक्षण की स्थितियों, काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की रिपोर्ट पर भी विस्तृत चर्चा की गई है। इसके साथ ही लेखक ने इस वर्ग के पिछड़ेपन के कारणों को भी उजागर  करने का प्रयास किया है।

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से समाज के निचले तबके में जीवन व्यतीत करने वालों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी को प्रामाणिक आंकड़ो के साथ प्रस्तुत किया है।

यह पुस्तक समाज में पिछड़े वर्ग की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करने की मांग भी करती है, क्योंकि ‘सवर्ण न होने का क्षोभ और अस्पृश्य न होने का गुमान’ जैसी मनःस्थिति में इस वर्ग के लोग सदियों से जीते चले आ रहे है। कहना चाहिए, यह पुस्तक भारतीय जाति व्यवस्था को नए संदर्भो और जरूरतों के अनुसार पुननिर्मित करने के लिए विचारकों को प्रेरित भी करती है।

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्कशाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

very weak book

एक बेहद कमजोर एवं लचर किताब

अनंत विजय

 

पिछले कुछ महीनों से ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों और भारतीय मीडिया में हो रही कवरेज से एक बार फिर से नस्लभेद पर एक बहस छिड़ गई है। कुछ विद्वान दलित विचारकों ने नस्लभेद को जातिवाद से जोड़कर पूरी बहस को एक नई दिशा में मोड़ने की कोशिश की है। उनका तर्क है कि भारत में भी लंबे समय से ऊंची जाति के लोग निचली जातियों पर हमले करते रहे हैं। इन दलीलों के बाद एक सवाल शिद्दत के साथ खड़ा हो गया है कि क्या जातिवाद और नस्लवाद एक ऐसी अवधारणा है जो जैविक, आनुवांशिकता और शारीरिक बनावट के आधार पर तय होता है जबकि जातिवाद तो सिर्फ एक सामाजिक अवधारणा है, इसका कोई आधार नहीं है। पोट्रैट ऑफ व्हाइट रैसिज्म में डेविड विलमैन ने भी लिखा है कि नस्लभेद एक सांस्कृतिक मान्यता है जो जातीय अल्पसंख्यकों की सामाजिक स्थित की वजह से गोरे लोगों को समाज में उच्च स्थान प्रदान करती है।

 

लेकिन संजीव खुदशाह की आगामी दिनों में प्रकाशित होनेवाली किताबμआधुनिक भारत में पिछड़ा वर्गμपूर्वग्रह, मिथक और  वास्तविकताएँμमें आंद्रे बेते की उपरोक्त अवधारणा को निगेट किया गया है। संजीव की ये किताब शिल्पायन, दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। लेखक का दावा है कि इसमें जाति उत्पत्ति के संबंध में कुछ धर्मग्रंथों के संदर्भ लिए गए हैं, उनके श्लोकों का विवरण दिया गया है...प्रत्येक जाति दूसरी जाति से ऊंची अथवा नीची है। समानता के लिए यहां कोई स्थान नहीं है...मेरा अध्ययन परिणाम यह बतलाता है कि नस्लवादी, वंशवादी और टोटम परंपरा पर ही वर्तमान जाति-प्रथा आधारित है। लेखक के इन दावों पर अगर हम गंभीरता से विचार करें और इस विषय पर पूर्व प्रकाशित लेखों और पुस्तकों का संदर्भ लें और उसे संजीव के शोध परिणाम के बरक्स रखें तो संजीव के तर्क और स्थापनाएं थोड़ी कमजोर प्रतीत होती हैं। ये तो माना जा सकता है कि भारतीय समाज मूलतः जाति व्यवस्था पर आधारित है लेकिन यहां हमें जाति व्यवस्था और नस्लभेद का फर्क देखना पड़ेगा। जिस तरह आंद्रे बेते और अन्य समाज शास्त्रिायों ने इन दोनों अवधारणाओं को परिभाषित किया है वो ज्यादा तार्किक और वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में विवादित जातियों और रक्त के सम्मिश्रण पर विस्तार से लिखा गया है। विवादित जातियों में लेखक ने कायस्थ, मराठा, भूमिहार और सूद को शामिल किया है और उनकी उत्पत्ति के बारे में लेखों और पुराने धर्मग्रंथों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयत्न किया है। लेकिन यहां भी तर्क बेहद लचर और कमजोर हैं। इस पूरे शोध प्रबंध में लेखक ने श्रमपूर्वक सामग्री तो जुटाई है लेकिन उसे विश्लेषित कर एक तार्किक और वैज्ञानिक निष्कर्ष तक पहुंचाने में नाकाम रहे हैं। लेखक को जाति व्यवस्था पर लिखने के पहले एक नजर प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा की पुस्तकμशूद्रों का इतिहास जरूर देखना या पढ़ना चाहिए था।

 

321-बी, शिप्रा सनसिटी, इंदिरापुरम, गाजियाबाद

(उ.प्र.)-201014 मो. 9871697248

  

अधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग/ संजीव खुदशाह/

शिल्पायन, 10295, लेन नं. 1, वैस्ट गोरखपार्क,

शाहदरा, दिल्ली-32/ संभावित प्रकाशन माह:

सितंबर, 2009


"Backward Classes in Modern India" researched document of new concepts.

समयांतर अक़्र्तुबर २०१०

पुस्तक समीक्षा

''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।

जयप्रकाश वाल्मीकि

श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक की शुरूआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७) को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत किया है।

चार अध्यायों में समाहित श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों  के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध से स्पष्ट यह  होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)

वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।` (पृष्ठ-३६)

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ २८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में  ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो  की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि

१.    ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी`` अनार्य थे, जिन्हे आर्यो द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।

२.    बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आते थे यही से चातुर्वर्ण  परम्परा की शुरूआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हो।  अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।

 

शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।

१.    यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थी।

२.    आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-

(अ)   आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार नही थे।

(ब)    आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।

(स)   आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।

(द)    दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर, डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार दी गई।

३.    चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)

श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।

अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी।  इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।

पुस्तक लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।

पिछड़े वर्ग की जो जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)

अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में १९७८ को  मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने की अनुशंसा की।

संजीवजी ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।

चाल अध्याय और १४१ पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है। लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।

 

जयप्रकाश वाल्मीकि

१४, वाल्मीकि कालोनी,

द्वारिकापुरी के पास,

शास्त्री नगर,

जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)

 


Analysis of the Social Status of the Backward Classes

राष्ट्रीय प्रत्रिका 'हंस` जून २०१० अंक पृष्ठ-८६

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण

-रमेश प्रजापति

समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।

आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और  न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं  अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।

पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``

आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।

यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।

आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।

पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई  तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४

धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।

प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।

 

पुस्तक का नाम   आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक      -संजीव खुदशाह

ISBN    -97881899378

मूल्य      -  200.00 रू.

संस्करण  - 2010 पृष्ठ-142

प्रकाशक   -  शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

 

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