भारत की पहली संविधान सभा का समापन भाषण

भारतीय संविधान के निर्माता भीमराव अंबेडकर ने यह भाषण नवंबर 1949 में नई दिल्ली में दिया था। 300 से ज्यादा सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी।
भारतीय संविधान की प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यह भाषण औपचारिक रूप से अपना कार्य समाप्त करने से एक दिन पहले दिया था। उन्होंने जो चेतावनियां दीं- एक प्रजातंत्र में जन आंदोलनों का स्थान, करिश्माई नेताओं का अंधानुकरण और मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र की सीमाएं- वे आज भी प्रासंगिक हैं।
पेश है भीमराव अंबेडकर का भाषण- 
"महोदय, संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए 9 दिसंबर,1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन हो जाएंगे। इस अवधि के दौरान संविधान सभा की कुल मिलाकर 11 बैठकें हुई हैं। इन 11 सत्रों में से छह उद्देश्य प्रस्ताव पास करने तथा मूलभूत अधिकारों पर, संघीय संविधान पर, संघ की शक्तियों पर, राज्यों के संविधान पर, अल्पसंख्यकों पर,अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों पर बनी समितियों की रिपोर्टों पर विचार करने में व्यतीत हुए। सातवें, आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें सत्र प्रारूप संविधान पर विचार करने के लिए उपयोग किए गए। संविधान सभा के इन 11 सत्रों में 165 दिन कार्य हुआ। इनमें से 114 दिन प्रारूप संविधान के विचारार्थ लगाए गए।

प्रारूप समिति की बात करें तो वह 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा चुनी गई थी। उसकी पहली बैठक 30 अगस्त को हुई थी। 30 अगस्त से 141 दिनों तक वह प्रारूप संविधान तैयार करने में जुटी रही। प्रारूप समिति द्वारा आधार रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए संवैधानिक सलाहकार द्वारा बनाए गए प्रारूप संविधान में 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियां थीं। प्रारूप समिति द्वारा संविधान सभा को पेश किए गए पहले प्रारूप संविधान में 315 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां थीं। उस पर विचार किए जाने की अवधि के अंत तक प्रारूप संविधान में अनुच्छेदों की संख्या बढ़कर 386 हो गई थी। अपने अंतिम स्वरूप में प्रारूप संविधान में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां हैं। प्रारूप संविधान में कुल मिलाकर लगभग 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए थे। इनमें से कुल मिलाकर 2,473 संशोधन वास्तव में सदन के विचारार्थ प्रस्तुत किए गए।
मैं इन तथ्यों का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि एक समय यह कहा जा रहा था कि अपना काम पूरा करने के लिए सभा ने बहुत लंबा समय लिया है और यह कि वह आराम से कार्य करते हुए सार्वजनिक धन का अपव्यय कर रही है। उसकी तुलना नीरो से की जा रही थी, जो रोम के जलने के समय वंशी बजा रहा था। क्या इस शिकायत का कोई औचित्य है? जरा देखें कि अन्य देशों की संविधान सभाओं ने, जिन्हें उनका संविधान बनाने के लिए नियुक्त किया गया था, कितना समय लिया।
कुछ उदाहरण लें तो अमेरिकन कन्वेंशन ने 25 मई, 1787 को पहली बैठक की और अपना कार्य 17 सितंबर, 1787 अर्थात चार महीनों के भीतर पूरा कर लिया। कनाडा की संविधान सभा की पहली बैठक 10 अक्टूबर, 1864 को हुई और दो वर्ष पांच महीने का समय लेकर मार्च 1867 में संविधान कानून बनकर तैयार हो गया। ऑस्ट्रेलिया की संविधान सभा मार्च 1891 में बैठी और नौ वर्ष लगाने के बाद नौ जुलाई, 1900 को संविधान कानून बन गया। दक्षिण अफ्रीका की सभा की बैठक अक्टूबर 1908 में हुई और एक वर्ष के श्रम के बाद 20 सितंबर, 1909 को संविधान कानून बन गया।
यह सच है कि हमने अमेरिकन या दक्षिण अफ्रीकी सभाओं की तुलना में अधिक समय लिया। परंतु हमने कनाडियन सभा से अधिक समय नहीं लिया और ऑस्ट्रेलियन सभा से तो बहुत ही कम। संविधान-निर्माण में समयावधियों की तुलना करते समय दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। एक तो यह कि अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के संविधान हमारे संविधान के मुकाबले बहुत छोटे आकार के हैं। जैसा मैंने बताया, हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिकी संविधान में केवल 7 अनुच्छेद हैं, जिनमें से पहले चार सब मिलकर 21 धाराओं में विभाजित हैं। कनाडा के संविधान में 147, आस्ट्रेलियाई में 128 और दक्षिण अफ्रीकी में 153 धाराएं हैं।
याद रखने लायक दूसरी बात यह है कि अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के संविधान निर्माताओं को संशोधनों की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। वे जिस रूप में प्रस्तुत किए गए, वैसे ही पास हो गए। इसकी तुलना में इस संविधान सभा को 2,473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विलंब के आरोप मुझे बिलकुल निराधार लगते हैं और इतने दुर्गम कार्य को इतने कम समय में पूरा करने के लिए यह सभा स्वयं को बधाई तक दे सकती है।
प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की गुणवत्ता की बात करें तो नजीरुद्दीन अहमद ने उसकी निंदा करने को अपना फर्ज समझा। उनकी राय में प्रारूप समिति द्वारा किया गया कार्य न तो तारीफ के काबिल है, बल्कि निश्चित रूप से औसत से कम दर्जे का है। प्रारूप समिति के कार्य पर सभी को अपनी राय रखने का अधिकार है और अपनी राय व्यक्त करने के लिए नजीरुद्दीन अहमद का ख्याल है कि प्रारूप समिति के किसी भी सदस्य के मुकाबले उनमें ज्यादा प्रतिभा है। प्रारूप समिति उनके इस दावे की चुनौती नहीं देना चाहती।
इस बात का दूसरा पहलू यह है कि यदि सभा ने उन्हें इस समिति में नियुक्त करने के काबिल समझा होता तो समिति अपने बीच उनकी उपस्थिति का स्वागत करती। यदि संविधान-निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं थी तो निश्चित रूप से इसमें प्रारूप समिति का कोई दोष नहीं है।
प्रारूप समिति के प्रति अपनी नफरत जताने के लिए नजीरुद्दीन ने उसे एक नया नाम दिया। वे उसे 'ड्रिलिंग कमेटी' कहते हैं। निस्संदेह नजीरुद्दीन अपने व्यंग्य पर खुश होंगे। परंतु यह साफ है कि वह नहीं जानते कि बिना कुशलता के बहने और कुशलता के साथ बहने में अंतर है। यदि प्रारूप समिति ड्रिल कर रही थी तो ऐसा कभी नहीं था कि स्थिति पर उसकी पकड़ मजबूत न हो। वह केवल यह सोचकर पानी में कांटा नहीं डाल रही थी कि संयोग से मछली फंस जाए। उसे जाने-पहचाने पानी में लक्षित मछली की तलाश थी। किसी बेहतर चीज की तलाश में रहना प्रवाह में बहना नहीं है।
यद्यपि नजीरुद्दीन ऐसा कहकर प्रारूप समिति की तारीफ करना नहीं चाहते थे, मैं इसे तारीफ के रूप में ही लेता हूं। समिति को जो संशोधन दोषपूर्ण लगे, उन्हें वापस लेने और उनके स्थान पर बेहतर संशोधन प्रस्तावित करने की ईमानदारी और साहस न दिखाया होता तो वह अपना कर्तव्य-पालन न करने और मिथ्याभिमान की दोषी होती। यदि यह एक गलती थी तो मुझे खुशी है कि प्रारूप समिति ने ऐसी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं किया और उन्हें ठीक करने के लिए कदम उठाए।
यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि प्रारूप समिति द्वारा किए गए कार्य की प्रशंसा करने में एक अकेले सदस्य को छोड़कर संविधान सभा के सभी सदस्य एकमत थे। मुझे विश्वास है कि अपने श्रम की इतनी सहज और उदार प्रशंसा से प्रारूप समिति को प्रसन्नता होगी। सभा के सदस्यों और प्रारूप समिति के मेरे सहयोगियों द्वारा मुक्त कंठ से मेरी जो प्रशंसा की गई है, उससे मैं इतना अभिभूत हो गया हूं कि अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं। संविधान सभा में आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था।
मुझे दूर तक यह कल्पना नहीं थी कि मुझे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जाएगा। इसीलिए, उस समय मुझे घोर आश्चर्य हुआ, जब सभा ने मुझे प्रारूप समिति के लिए चुन लिया। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। प्रारूप समिति में मेरे मित्र सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे मुझसे भी बड़े, श्रेष्ठतर और अधिक कुशल व्यक्ति थे। मुझ पर इतना विश्वास रखने, मुझे अपना माध्यम बनाने एवं देश की सेवा का अवसर देने के लिए मैं संविधान सभा और प्रारूप समिति का अनुगृहीत हूं। (करतल-ध्वनि)
जो श्रेय मुझे दिया गया है, वास्तव में उसका हकदार मैं नहीं हूं। वह श्रेय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी.एन. राव को जाता है, जिन्होंने प्रारूप समिति के विचारार्थ संविधान का एक सच्चा प्रारूप तैयार किया। श्रेय का कुछ भाग प्रारूप समिति के सदस्यों को भी जाना चाहिए जिन्होंने, जैसे मैंने कहा, 141 बैठकों में भाग लिया और नए फॉर्मूले बनाने में जिनकी दक्षता तथा विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करके उन्हें समाहित करने की सामथ्र्य के बिना संविधान-निर्माण का कार्य सफलता की सीढिम्यां नहीं चढ़ सकता था।
श्रेय का एक बड़ा भाग संविधान के मुख्य ड्राफ्ट्समैन एस.एन. मुखर्जी को जाना चाहिए। जटिलतम प्रस्तावों को सरलतम व स्पष्टतम कानूनी भाषा में रखने की उनकी सामर्थ्य और उनकी कड़ी मेहनत का जोड़ मिलना मुश्किल है। वह सभा के लिए एक संपदा रहे हैं। उनकी सहायता के बिना संविधान को अंतिम रूप देने में सभा को कई वर्ष और लग जाते। मुझे मुखर्जी के अधीन कार्यरत कर्मचारियों का उल्लेख करना नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि उन्होंने कितनी बड़ी मेहनत की है और कितना समय, कभी-कभी तो आधी रात से भी अधिक समय दिया है। मैं उन सभी के प्रयासों और सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूं। (करतल-ध्वनि)
यदि यह संविधान सभा भानुमति का कुनबा होती, एक बिना सीमेंट वाला कच्चा फुटपाथ, जिसमें एक काला पत्थर यहां और एक सफेद पत्थर वहां लगा होता और उसमें प्रत्येक सदस्य या गुट अपनी मनमानी करता तो प्रारूप समिति का कार्य बहुत कठिन हो जाता। तब अव्यवस्था के सिवाय कुछ न होता। अव्यवस्था की संभावना सभा के भीतर कांग्रेस पार्टी की उपस्थिति से शून्य हो गई, जिसने उसकी कार्रवाईयों में व्यवस्था और अनुशासन पैदा कर दिया। यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन का ही परिणाम था कि प्रारूप समिति के प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन की नियति के प्रति आश्वस्त होकर उसे सभा में प्रस्तुत कर सकी। इसीलिए सभा में प्रारूप संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।
यदि इस संविधान सभा के सभी सदस्य पार्टी अनुशासन के आगे घुटने टेक देते तो उसकी कार्रवाइयां बहुत फीकी होतीं। अपनी संपूर्ण कठोरता में पार्टी अनुशासन सभा को जीहुजूरियों के जमावड़े में बदल देता। सौभाग्यवश, उसमें विद्रोही थे। वे थे कामत, डॉ. पी.एस. देशमुख, सिधवा, प्रो. सक्सेना और पं. ठाकुरदास भार्गव। इनके साथ मुझे प्रो. के.टी. शाह और पं. हृदयनाथ कुंजरू का भी उल्लेख करना चाहिए। उन्होंने जो बिंदु उठाए, उनमें से अधिकांश विचारात्मक थे।
यह बात कि मैं उनके सुझावों को मानने के लिए तैयार नहीं था, उनके सुझावों की महत्ता को कम नहीं करती और न सभा की कार्रवाइयों को जानदार बनाने में उनके योगदान को कम आंकती है। मैं उनका कृतज्ञ हूं। उनके बिना मुझे संविधान के मूल सिद्धांतों की व्याख्या करने का अवसर न मिला होता, जो संविधान को यंत्रवत् पारित करा लेने से अधिक महत्वपूर्ण था।
और अंत में, राष्ट्रपति महोदय, जिस तरह आपने सभा की कार्रवाई का संचालन किया है, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं। आपने जो सौजन्य और समझ सभा के सदस्यों के प्रति दर्शाई है वे उन लोगों द्वारा कभी भुलाई नहीं जा सकती, जिन्होंने इस सभा की कार्रवाईयों में भाग लिया है। ऐसे अवसर आए थे, जब प्रारूप समिति के संशोधन ऐसे आधारों पर अस्वीकृत किए जाने थे, जो विशुद्ध रूप से तकनीकी प्रकृति के थे। मेरे लिए वे क्षण बहुत आकुलता से भरे थे, इसलिए मैं विशेष रूप से आपका आभारी हूं कि आपने संविधान-निर्माण के कार्य में यांत्रिक विधिवादी रवैया अपनाने की अनुमति नहीं दी।
संविधान का जितना बचाव किया जा सकता था, वह मेरे मित्रों सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर और टी.टी. कृष्णमाचारी द्वारा किया जा चुका है, इसलिए मैं संविधान की खूबियों पर बात नहीं करूंगा। क्योंकि मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों।
एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों - जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।
यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उनके दल किस तरह का आचरण करेंगे? अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या वे संवैधानिक तरीके इस्तेमाल करेंगे या उनके लिए क्रांतिकारी तरीके अपनाएंगे? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल रहेगा। इसलिए जनता और उनके राजनीतिक दलों की संभावित भूमिका को ध्यान में रखे बिना संविधान पर कोई राय व्यक्त करना उपयोगी नहीं है।
संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दलों द्वारा की जा रही है - कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह वास्तव में एक बुरा संविधान है? मैं कहूंगा, नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। सोशलिस्ट दो बातें चाहते हैं। पहली तो वे चाहते हैं कि संविधान यह व्यवस्था करे कि जब वे सत्ता में आएं तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे मुआवजे का भुगतान किए बिना समस्त निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजिकरण कर सकें। सोशलिस्ट जो दूसरी चीज चाहते हैं, वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभत अधिकार असीमित होने चाहिए, ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में असफल रहती है तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे न केवल राज्य की निंदा कर सकें, बल्कि उसे उखाड़ फेंकें।
मुख्य रूप से ये ही वे आधार हैं, जिन पर संविधान की निंदा की जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श स्वरूप है। मैं यह नहीं कहता कि मुआवजे का भुगतान किए बिना निजी संपत्ति अधिगृहीत न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। मैं यह भी नहीं कहता कि मौलिक अधिकार कभी असीमित नहीं हो सकते और उन पर लगाई गई सीमाएं कभी हटाई नहीं जा सकतीं। मैं जो कहता हूं, वह यह है कि संविधान में अंतनिर्हित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं। यदि आप इसे अत्युक्ति समझें तो मैं कहूंगा कि वे संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं। उन्हें संविधान में शामिल करने के लिए प्रारूप समिति को क्यों दोष दिया जाए? मैं तो कहता हूं कि संविधान सभा के सदस्यों को भी क्यों दोष दिया जाए? इस संबंध में महान अमेरिकी राजनेता जेफरसन ने बहुत सारगर्भित विचार व्यक्त किए हैं, कोई भी संविधान-निर्माता जिनकी अनदेखी नहीं कर सकते। एक स्थान पर उन्होंने कहा है -
हम प्रत्येक पीढ़ी को एक निश्चित राष्ट्र मान सकते हैं, जिसे बहुमत की मंशा के द्वारा स्वयं को प्रतिबंधित करने का अधिकार है; परंतु जिस तरह उसे किसी अन्य देश के नागरिकों को प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है, ठीक उसी तरह भावी पीढिम्यों को बांधने का अधिकार भी नहीं है।
एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा है - ''राष्ट्र के उपयोग के लिए जिन संस्थाओं की स्थापना की गई, उन्हें अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए भी उनके संचालन के लिए नियुक्त लोगों के अधिकारों के बारे में भ्रांत धारणाओं के अधीन यह विचार कि उन्हें छेड़ा या बदला नहीं जा सकता, एक निरंकुश राजा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ एक सराहनीय प्रावधान हो सकता है, परंतु राष्ट्र के लिए वह बिल्कुल बेतुका है। फिर भी हमारे अधिवक्ता और धर्मगुरु यह मानकर इस सिद्धांत को लोगों के गले उतारते हैं कि पिछली पीढिम्यों की समझ हमसे कहीं अच्छी थी। उन्हें वे कानून हम पर थोपने का अधिकार था, जिन्हें हम बदल नहीं सकते थे और उसी प्रकार हम भी ऐसे कानून बनाकर उन्हें भावी पीढिम्यों पर थोप सकते हैं, जिन्हें बदलने का उन्हें भी अधिकार नहीं होगा। सारांश यह कि धरती पर मृत व्यक्तियों का हक है, जीवित व्यक्तियों का नहीं।
मैं यह स्वीकार करता हूं कि जो कुछ जेफरसन ने कहा, वह केवल सच ही नहीं, परम सत्य है। इस संबंध में कोई संदेह हो ही नहीं सकता। यदि संविधान सभा ने जेफरसन के उस सिद्धांत से भिन्न रुख अपनाया होता तो वह निश्चित रूप से दोष बल्कि निंदा की भागी होती। परंतु मैं पूछता हूं कि क्या उसने सचमुच ऐसा किया है? इससे बिल्कुल विपरीत। कोई केवल संविधान के संशोधन संबंधी प्रावधान की जांच करें। सभा न केवल कनाडा की तरह संविधान संशोधन संबंधी जनता के अधिकार को नकारने के जरिए या आस्ट्रेलिया की तरह संविधान संशोधन को असाधारण शर्तो की पूर्ति के अधीन बनाकर उस पर अंतिमता और अमोघता की मुहर लगाने से बची है, बल्कि उसने संविधान संशोधन की प्रक्रिया को सरलतम बनाने के प्रावधान भी किए हैं।
मैं संविधान के किसी भी आलोचक को यह साबित करने की चुनौती देता हूं कि भारत में आज बनी हुई स्थितियों जैसी स्थितियों में दुनिया की किसी संविधान सभा ने संविधान संशोधन की इतनी सुगम प्रक्रिया के प्रावधान किए हैं! जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता।
संवैधानिक महत्व का केवल एक बिंदु ऐसा है, जिस पर मैं बात करना चाहूंगा। इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि संविधान में केंद्रीयकरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है और राज्यों की भूमिका नगरपालिकाओं से अधिक नहीं रह गई है। यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण है बल्कि संविधान के अभिप्रायों के प्रति भ्रांत धारणाओं पर आधारित है। जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का सवाल है, उसके मूल सिद्धांत पर ध्यान देना आवश्यक है। संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का विभाजन केंद्र द्वारा बनाए गए किसी कानून के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं संविधान द्वारा किया जाता है। संविधान की व्यवस्था इस प्रकार है। हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शक्तियों के लिए राज्य किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है। इस विषय में केंद्र और राज्य समानाधिकारी हैं।
यह समस्या कठिन है कि ऐसे संविधान को केंद्रवादी कैसे कहा जा सकता है। यह संभव है कि संविधान किसी अन्य संघीय संविधान के मुकाबले विधायी और कार्यपालक प्राधिकार के उपयोग के विषय में केंद्र के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र निर्धारित करता हो। यह भी संभव है कि अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी गई हो, राज्यों को नहीं। परंतु ये व्यवस्थाएं संघवाद का मर्म नहीं है। जैसा मैंने कहा, संघवाद का प्रमुख लक्षण केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का संविधान द्वारा किया गया विभाजन है। यह सिद्धांत हमारे संविधान में सन्निहित है। इस संबंध में कोई भूल नहीं हो सकती। इसलिए, यह कल्पना गलत होगा कि राज्यों को केंद्र के अधीन रखा गया है। केंद्र अपनी ओर से इस विभाजन की सीमा-रेखा को परिवर्तित नहीं कर सकता और न न्यायपालिका ऐसा कर सकती है। क्योंकि, जैसा बहुत सटीक रूप से कहा गया है-
''अदालतें मामूली हेर-फेर कर सकती हैं, प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं। वे पूर्व व्याख्याओं को नए तर्को का स्वरूप दे सकती हैं, नए दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकती हैं, वे सीमांत मामलों में विभाजक रेखा को थोड़ा खिसका सकती हैं, परंतु ऐसे अवरोध हैं, जिन्हें वे पार नहीं कर सकती, शक्तियों का सुनिश्चित निर्धारण है, जिन्हें वे पुनरावंटित नहीं कर सकतीं। वे वर्तमान शक्तियों का क्षेत्र बढ़ा सकती हैं, परंतु एक प्राधिकारी को स्पष्ट रूप से प्रदान की गई शक्तियों को किसी अन्य प्राधिकारी को हस्तांतरित नहीं कर सकतीं।''  इसलिए, संघवाद को कमजोर बनाने का पहला आरोप स्वीकार्य नहीं है।
दूसरा आरोप यह है कि केंद्र को ऐसी शक्तियां प्रदान की गई हैं, जो राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण करती हैं। यह आरोप स्वीकार किया जाना चाहिए। परंतु केंद्र की शक्तियों को राज्य की शक्तियों से ऊपर रखने वाले प्रावधानों के लिए संविधान की निंदा करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। पहली यह कि इस तरह की अभिभावी शक्तियां संविधान के सामान्य स्वरूप का अंग नहीं हैं। उनका उपयोग और प्रचालन स्पष्ट रूप से आपातकालीन स्थितियों तक सीमित किया गया है।
ध्यान में रखने योग्य दूसरी बात है- आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए क्या हम केंद्र को अभिभावी शक्तियां देने से बच सकते हैं? जो लोग आपातकालीन स्थितियों में भी केंद्र को ऐसी अभिभावी शक्तियां दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं वे इस विषय के मूल में छिपी समस्या से ठीक से अवगत प्रतीत नहीं होते। इस समस्या का सुविख्यात पत्रिका  'द राउंड टेबल' के दिसंबर 1935 के अंक में एक लेखक द्वारा इतनी स्पष्टता से बचाव किया गया है कि मैं उसमें से यह उद्धरण देने के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हूं। लेखक कहते हैं-
''राजनीतिक प्रणालियां इस प्रश्न पर अवलंबित अधिकारों और कर्तव्यों का एक मिश्रण हैं कि एक नागरिक किस व्यक्ति या किस प्राधिकारी के प्रति निष्ठावान् रहे। सामान्य क्रियाकलापों में यह प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि सुचारु रूप से अपना कार्य करता है और एक व्यक्ति अमुक मामलों में एक प्राधिकारी और अन्य मामलों में किसी अन्य प्राधिकारी के आदेश का पालन करता हुआ अपने काम निपटाता है। परंतु एक आपातकालीन स्थिति में प्रतिद्वंद्वी दावे पेश किए जा सकते हैं और ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अंतिम प्राधिकारी के प्रति निष्ठा अविभाज्य है। निष्ठा का मुद्दा अंतत: संविधियों की न्यायिक व्याख्याओं से निर्णीत नहीं किया जा सकता। कानून को तथ्यों से समीचीन होना चाहिए, अन्यथा वह प्रभावी नहीं होगा। यदि सारी प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं को एक तरफ कर दिया जाए तो निरा प्रश्न यह होगा कि कौन सा प्राधिकारी एक नागरिक की अवशिष्ट निष्ठा का हकदार है। वह केंद्र है या संविधान राज्य?''
इस समस्या का समाधान इस सवाल, जो कि समस्या का मर्म है, के उत्तर पर निर्भर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकांश लोगों की राय में एक आपातकालीन स्थिति में नागरिक को अवशिष्ट निष्ठा अंगभूत राज्यों के बजाय केंद्र को निर्देशित होनी चाहिए, क्योंकि वह केंद्र ही है, जो सामूहिक उद्देश्य और संपूर्ण देश के सामान्य हितों के लिए कार्य कर सकता है।
एक आपातकालीन स्थिति में केंद्र की अभिभावी शक्तियां प्रदान करने का यही औचित्य है। वैसे भी, इन आपातकालीन शक्तियों से अंगभूत राज्यों पर कौन सा दायित्व थोपा गया है कि एक आपातकालीन स्थिति में उन्हें अपने स्थानीय हितों के साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र के हितों और मतों का भी ध्यान रखना चाहिए- इससे अधिक कुछ नहीं। केवल वही लोग, जो इस समस्या को समझे नहीं हैं, उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं।
यहां पर मैं अपनी बात समाप्त कर देता, परंतु हमारे देश के भविष्य के बारे में मेरा मन इतना परिपूर्ण है कि मैं महसूस करता हूं, उस पर अपने कुछ विचारों को आपके सामने रखने के लिए इस अवसर का उपयोग करूं। 26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। (करतल ध्वनि) उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है।
 यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है, बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण ऐसा हुआ है।
सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैन्य अधिकारियों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के दलालों से रिश्वत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कोई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे।
जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। सन् 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे।
क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह वह विचार है, जो मुझे चिंता से भर देता है। इस तथ्य का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे? मैं नहीं जानता। परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। (करतल ध्वनि)
26 जनवरी, 1950 को भारत इस अर्थ में एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। यही विचार मेरे मन में आता है। उसके प्रजातांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है।
यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- क्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित है।
सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा।
भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।
प्रजातंत्र को केवल बाह्य स्वरूप में ही नहीं बल्कि वास्तव में बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मेरी समझ से, हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए। इसका अर्थ है, हमें क्रांति का खूनी रास्ता छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग और सत्याग्रह के तरीके छोड़ने होंगे। जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का कोई संवैधानिक उपाय न बचा हो, तब असंवैधानिक उपाय उचित जान पड़ते हैं। परंतु जहां संवैधानिक उपाय खुले हों, वहां इन असंवैधानिक उपायों का कोई औचित्य नहीं है। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही अच्छा है।
दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।
तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।"
(प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित और रुद्रांक्षु मुखर्जी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारत के महान भाषण' से साभार।)

संविधान निर्माता को साक्षी मानकर बंध गए विवाह के अटूट बंधन में

जांजगीर-चांपा। जिला मुख्यालय जांजगीर में आज 23 नवंबर को हुई अनूठी शादी लोगों के बीच चर्चा का विषय रही। यहां पुराना न्यायालय के सामने अंबेडकर प्रतिमा के समक्ष सरखों की एक युवती और भांठापारा जांजगीर के युवक ने संविधान निर्माता की प्रतिमा को साक्षी मानकर ब्याह रचा ली।
गुरुवार 23 नवंबर को भाठापारा जांजगीर निवासी रवि सिंह रत्नाकर पिता पुनऊराम सूर्यवंशी उम्र 22 वर्ष  और सरखों की किरण सूर्यवंशी पिता दिलीप सूर्यवंशी उम्र 18 वर्ष अपनी परिजन के साथ पुराना जिला न्यायालय के सामने स्थित अंबेडकर प्रतिमा के पास पहंुचे। यहां उन्होंने एक-दूसरे को जय माला पहनाया। तत्पश्चात रवि ने किरण की मांग में सिंदूर भरा और शादी की रस्म अदायगी पूरी की। इसके बाद दोनों ने  नोटरी के समक्ष शपथ पत्र तैयार करके विधिवत शादी के बंधन में बंधने की कानूनी प्रकि्रया भी पूरी की। अंबेडकर  प्रतिमा के समक्ष इस शादी को लेकर आज पूरे दिन चर्चा होती रही।

Indian Politics and Patanjali vs Colgate

भारतीय राजनीति और पतंजलि वर्सेस कोलगेट
सचिन कुमार खुदशाह
यदि भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को समझना होपक्ष और विपक्ष की पार्टियों की स्थिति को समझना होतो पतंजलि और कोलगेट कंपनियों के विज्ञापन के बारे में जानना उससे पहले जरूरी है क्योंकि यदि आप इनके बारे में जान जाएंगे तो आपको भारतीय राजनीति के परिदृश्य के बारे में जानकारी आसानी से मिल पाएगी।
जैसा की आपको मालूम है पतंजलि एक टूथपेस्ट निकाल रहा है ‘दंत कांति’ जिस का विज्ञापन बड़े जोर शोर से किया जा रहा है। इसमें वह आयुर्वेदिक शक्ति को प्रमुख रुप से प्रचार कर रहे हैं। और विदेशी केमिकल वाले टूथपेस्‍ट से खबरदार रहने की सहाल दे रहे है। अब आप इसे भारतीय जनता पार्टी मान ले थोड़ी देर के लिए।
दूसरी ओर कोलगेट अपने एक नये प्रकार का टूथपेस्ट उत्‍पादित किया है। जिसका नाम दिया है ‘वेद शक्ति’, और इसे बड़े जोर शोर से इसे पतंजलि टूथपेस्ट के विरुद्ध उतारकर प्रचार किया जा रहा है। आपसे विपक्षी पार्टी के रूप में देख सकते हैं। कांग्रेस पार्टी भी मान लेगे तो गलत न होगा।
इस दोनों प्रोडक्ट में एक खास बात कॉमन है। वह यह की दोनों प्रोडक्ट अपने आप को स्‍वदेशी के नाम पर हिंदुत्व के रूप में दिखाना चाहती है। पतंजलि यह बताना चाहती हैं कि उनका प्रोडक्ट शुद्ध रुप से भारतीय है जिसे मैं खुले शब्दों में कहें तो हिंदुत्ववादी है। वह इसी का आड़ लेकर आयुर्वेद को प्रचार करते हैं कि आयुर्वेद सारे विज्ञान का जड़ है। दरअसल इन का मकसद आयुर्वेद का प्रचार करना या हिंदुत्व का प्रचार करना नहीं है। इनका मकसद है हिंदुत्व की आड़ में अपने प्रोडक्ट को बेचकर बड़ा मुनाफा कमाना है। ऐसा पहले भी विदेशी कम्‍पनियां करती रही है ये कोई नई बात नही है।
कोलगेट थोड़ा पीछे ही सही वह भी साफ्ट हिंदुत्व को लपकने की कोशिश में है। हांलाकि वह टूथपेस्‍ट निर्माताओं में सबसे पुरानी एवं बड़े ग्राहको वाली कम्‍पनी रही है। दरअसल वह अपने नए प्रोडक्ट के माध्यम से पतंजलि द्वारा लगाए जा रहे विदेशी के आरोप को झूठलाना चाहती है। इसी कड़ी में उन्होंने अपना जो नया टूथपेस्ट का उत्पादन क्या है। उसका नाम रखा है ‘वेद शक्ति’। कोलगेट को यह भ्रम है कि ऐसे ग्राहक जो कट्टर हिंदुत्व वादी विचारधारा के हैं। वह उनके प्रोडक्ट को हाथों- हाथ लेंगे और कॉलगेट मार्केट में अपने उत्‍पाद को बनाये रखने में कामयाब हो पाएगा। जब की यह कोलगेट का एक बहुत ही बड़ा भ्रर्म है।
क्योंकि हिंदुत्व को लुभाने के लिए पहले ही पतंजलि अपने प्रोडक्ट निकाल रही हैं। और वे पहले से ही उनसे प्रोडक्‍ट खरीद रहे हैं। कोलगेट अपने वेद शक्ति टूथपेस्‍ट के माध्यम से उन्हें नहीं लुभा सकती। बावजूद इसके कोलगेट ऐसे प्रोडक्ट निकालती है। तो इसके दो कारण हो सकते हैं पहला कोलगेट अपने विदेशी होने की छवि को सुधारना चाहती हैं दूसरा वह आयुर्वेद के नाम पर अपने प्रोडक्ट को जिंदा रखना चाहती हैं।
जबकि चाहिए यह था कि कोलगेट नए वैज्ञानिक तथ्यों के साथ मार्केट में उतरती और यह बताती की नए-नए इजाद के आधार पर उनका टूथपेस्ट क्यों ज्यादा उपयोगी है तो उसकी पहुंच कहीं बड़े ग्राहकों तक होती और वह पतंजलि के ग्राहकों को भी अपनी ओर खींच सकती थी। लेकिन कोलगेट के इस विज्ञापन को देखने के बाद उस पर बड़ी दया आती है। कोलगेट यहां एक मासूम बेवकूफ की तरह दिखती है और ऐसा लगता है कि उसके पास और कोई और चारा नहीं है। बिल्कुल दिमागी दिवालियापन की तरह। भारतीय उपभोक्ताओं की भी बड़ी परेशानी है क्योंकि उसके पास कोई ऑप्शन नहीं है। पतंजली का मकसद दंत कांति‍ के माध्‍यम से कोलगेट के ग्राहक को अपनी ओर खीचना। जबकि कोलगेट बचाव की मुद्रा में है। मान लिजीये ग्राहक के लिये ये दो ही विकल्‍प हो तो मजबूरी में कहें या स्वाभाविक तौर पर लोग पतंजलि के टूथपेस्ट की ओर ही आकर्षित होंगे और हो रहे हैं। या फिर कोई दूसरा विकल्‍प ढूंढेगे।
दरअसल आज के भारतीय राजनीति की यही स्थिति है एक भारतीय जनता पार्टी है जो उग्र हिंदुत्व को बढ़ा रहे है तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी है जो कि साफ्ट हिंदुत्व को आगे बढ़ा रही है। ऐसी स्थिति में आम भारतीय वोटरों के पास चुनने के लिए दो ही ऑप्शन है और निश्चित तौर पर कहे या प्राकृतिक तौर पर हिंदूवाद को पसंद करने वाले लोग भाजपा को ही पसंद करेंगे। याने कांग्रेस पार्टी का सॉफ्ट हिंदुत्व के आधार पर सफाया होना निश्चित है। अथवा लोग नये आप्‍सन की तलाश करे्गे।
जबकि हो ना यह था कि कांग्रेस एक प्रगतिशील, गैर सांप्रदायिक वैज्ञानिक विचारधारा वाली पार्टी के रुप में सामने आती लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। यही कारण है। ऐसी स्थिति में कम्‍युनिष्‍ट एवं अंबेडकरवादी पार्टियां अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है। यदि यह दोनों विचारधाराएं भी सांप्रदायिकता के राह पर चलेंगी तो उनका भी यही हश्र होना निश्‍चित है।
इन नई विचारधाराओं के सामने चुनौती इस बात की होगी कि वह किस प्रकार प्रगतिशील वैज्ञानिक गैर सांप्रदायिक विचारधारा को लेकर आगे बढ़ सके क्योंकि भारत की आम जनता को दो वक्त की रोटी, रहने को घर और शांत वातावरण चाहिये। चाहे वह किसी भी धर्म व संप्रदाय को मानने वाला हो। लेकिन भारत की जनता की मजबूरी यह है कि उसके पास दूसरा मजबूत ऑप्शन नहीं है। मुझे लगता है कि भारत का विपक्ष कम से कम कोलगेट की तरह नहीं चलेगा न ही अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय देगा मैं आशान्वि‍त हूं।

सचिन कुमार खुदशाह
बिलासपुर

09907714746

Why Vegetarianism Is Anti-national

क्यों शाकाहारवाद राष्‍ट्र विरोधी है?
लेखक कांचा इलैया
अनुवाद संजीव खुदशाह
"मनुष्य भेड़ जैसा शुद्ध शाकाहारी नहीं होता हैं, न ही वे बाघों जैसे शुद्ध मांसाहारी होता हैं। उन्हें दोनों खाद्य खाने की जरूरत है। "- मेरे गांव के एक किसान, पापायपथ, वारंगल जिला, तेलंगाना
जब मैंने अपने कुछ भाषणों और लेखों में कहता रहा हूँ की जिस प्रकार का शाकाहारवाद का द़  संघ परिवार, भारतीय जनता पार्टी  की राज्य सरकारें, हिंदू पुजारी के अलावा केंद्रीय नेतृत्व पेश कर  रहा है वह गलत है सचमुच यह राष्‍ट्र विरोधी है।  मैं इस सवाल को कुछ गहराई में यहां लेना चाहता हूं। मेरे विचार में, यह प्रश्न हमारे आर्थिक विकास और आधुनिक प्रतिस्पर्धी राष्ट्र-निर्माण और मानवशक्ति विकास से काफी निकटता से संबंधित है।
 किसी भी देश के आर्थिक विकास में लोगों की खाद्य संस्कृति से बहुत महत्‍व होता है और खाद्य पदार्थों के उत्पादन और वितरण से संबंधित होता है ताकि लोगों में विशेषकर उत्पादक जनता में एक स्वस्थ शरीर और रचनात्मक मन निर्माण हो सके। वैश्वीकृत वैज्ञानिक रूप से प्रतिस्पर्धी दुनिया में, देश के युवा बच्चों को उन्हें उच्च प्रोटीन आहार देकर तैयार किया जाना चाहिए, जब वे मां के गर्भ में होते हैं, और जब उनका जन्म जन्म के बाद शुरू होता है। छह-सात वर्षों के विकास के शुरुआती चरण में बच्चों के लिए एक मनोवैज्ञानिक मन ही उनकी मानसिक क्षमताओं को जीवनभर तय करने वाला होता है। आखिरकार, मानव मन एक कंप्यूटर में सॉफ्टवेयर की तरह है। किसी भी राष्ट्र की ताकत उस सॉफ्टवेयर की कल्पनाशील क्षमता पर निर्भर करती है। एक राष्ट्र की ताकत युवाओं के ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है, भौतिक ऊर्जा से अधिक जो "योगा विद्यालय" के बारे में बात कर रहे है।
 स्वाभाविक रूप से अमीर अच्छी तरह से खाकर अपने बच्चों को अच्छी तरह से भोजन कराते हैं भले ही वे शाकाहारी होते हैं। जाति और अस्पृश्यता के देश में उच्च जातियों के पास बेहतर आर्थिक सुविधायें है और उनके पास बच्चों को बहुत अच्छी तरह से खिलाने के लिए सांस्कृतिक पूंजी भी है। उदाहरण के लिए, भारत में ज्यादातर ब्राह्मण,बानीया और जैन (जो भी बानीय हैं) कई प्रकार के शाकाहारी करी, कई प्रकार के दाल आइटम, घी, पर्याप्त चावल या चपाती, फल, करी, दही सेवन करते हैं। वे अपने बच्चों को बहुत से मक्खन, घी, फलों, आइस क्रीम, फलों के सलाद और इतने पर खिलाती हैं। अहार के विशेषज्ञों का कहना है कि वे नियमित अंतराल पर भी अपने बच्चों को अधिक संख्या में खिलवा सकते हैं। यहां तक ​​कि अगर वे अंडे, मांस, बीफ,  का उपयोग नही भी करते है तो उनके शरीर और दिमाग की वृद्धि में ज्‍यादा फर्क नही पडता है।  जबकि एक युवा को एक हाई प्रोटीन मांस युक्‍त भेजन की आवश्‍यकता होती हैं।
यदि गरीब के पास शाकाहारी प्रोटीन भोजन उपलब्ध नहीं है तो एक गरीब मां, गर्भ में बच्चे को कैसे खिला सकती है? सस्ता मांस भोजन का एकमात्र सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जो गरीब स्तनपान कराने वाली मां गांवों में है और बाद में कुछ पोषण-युक्त वाले भोजन बच्चों को खिलाने के लिए केवल सस्ते मांस के भोजन से संभव है गांव की खाद्य अर्थव्यवस्था अब भी सब्जी बाजार पर निर्भर नहीं है। यह आस-पास से एकत्र हुए मांस और फल के भोजन पर निर्भर है। केवल शहरी क्षेत्रों के आसपास शाकाहरी सब्‍ज‍ी का उत्पादन हो रहा है। लेकिन दूर के गांव में अब भी केवल मांस आधारित अर्थव्यवस्थाएं हैं, खासकर दक्षिण और पूर्वी भारत में। उत्तर और पश्चिम भारतीय गरीब जनता भारी कुपोषण के दबाव में हैं, क्योंकि वे गांधीवादी, आर्य समाजवादी और आरएसएस के शाकाहारी अभियानों के प्रभाव में शाकाहारी बनकर बड़े होते हैं।
 तमिल ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने दक्षिण भारतीय खाद्य संस्कृति को काफी नुकसान पहुंचाया है क्योंकि वे पेरियार आंदोलन के बाद पूरे देश में फैले हुए हैं। वे सबसे प्रबल शाकाहारी सांस्कृतिक कट्टरपंथी हैं जब मैं एमएस में एक दिन रहा तो मुझे आश्चर्य हुआ। स्वामीनाथन, सबसे प्रतिष्ठित कृषि वैज्ञानिक, चेन्नई में फाउंडेशन गेस्ट हाउस में कहा कि वे अपने कैंटीन में सिर्फ शाकाहारी भोजन सर्व करते हैं। उनकी व्यक्तिगत और जातिगत पसंद सार्वजनिक सरकारी संस्‍था में थोपा हुआ है। उनकी अध्यक्षता में नवध्यान्य विद्यालय, केवल शाकाहार का प्रचार कर रहा है। उन्होंने अंधविश्वास, मूर्ति पूजा और ब्राह्मणवाद के देश में इन अभियानों के प्रभाव का अध्ययन नहीं किया। अब आरएसएस ने केवल दलित बृहत्तर जन मस्तिष्क और शरीर के विकास को नियंत्रित करने के लिए शक्ति से एक बड़े पैमाने पर शाकाहारी अभियान चलाया है। ऐसा लगता है जैसे कमजोर दिमाग और इन गरीब जाति समुदायों की लचर व्‍यवस्‍था  उनके राष्ट्रवाद के लिए आवश्यक है।
वे पूरे राष्ट्र पर अपने प्रचार के आर्थिक प्रभाव का अध्ययन नहीं करते हैं। उन्हें यह भी एहसास नहीं है कि शाकाहारी भोजन संस्कृति पहले प्राचीन भारत में जैनों द्वारा शुरू की गई थी और अब चुनावों से ब्राह्मणों और बानियां (गैर-जैन बानिया) शाकाहारियों में बन गए हैं। मूल रूप से संघ परिवार एक शाकाहारी परिवार था; अब यह चाहता है कि पूरे देश शाकाहारी हो।
काफी सावधानी से, भाजपा-नियंत्रित राज्य भी शाकाहार का प्रचार कर रहे हैं। देश जानता है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री निचली जाति के बच्‍चो को अण्‍डे से दूर किया है। प्रधान मंत्री से अपने सभी मुख्यमंत्रियों को पार्टी नेताओं के साथ, शाकाहारी नहीं बल्कि पूरे राज्य मशीनरी को शाकाहारी होने का संदेश देते है। दिल्ली में किसी भी सरकारी कार्यक्रम में लोगों को शाकाहार का सामना करना पड़ता है। वे कोई भी भोजन पसंद के अनुसार नही कर सकते । यह संदेश पूरे देश में मजबूती के साथ दिया जा रहा है कि सभी को शाकाहारी हो जाना चाहिए।
 मीडिया के प्रचार के कारण बहुत सी पिछड़ी ग्रामीण जातियां भी शाकाहार में विश्वास करने लगी हैं। चीनी, जापानी और यूरो-अमेरिकन खाद्य संस्कृतियों की तुलना में हिन्दू खाद्य संस्कृति की भूमिका को समझना चाहिए। उनकी आर्थिक ताकत और बौद्धिक शक्ति में भारत किसी भी अविष्‍कारी  ज्ञान से मेल नहीं खा सकता है। हमें यह भी देखना चाहिए कि हमारे गांव की अर्थव्यवस्था अब भी अपनी खाद्य सांस्कृतिक व्यवस्था से बंधे हैं, जो की बहुत ताकतवार सकारात्मक वैश्विक मूल्‍य है। नया शाकाहारी अभियान से उस सांस्कृतिक शक्ति के नष्ट होने की संभावना है।
 उदाहरण के लिए, जब में एक बच्चा था मैं तेलंगाना राज्य के वारंगल जिले के जंगल क्षेत्र गांव, हमारे माता पिता कुछ शाम कुछ  मासाहार का प्रबंधन कर सकते थे। मछलियां, खरगोश, विभिन्न प्रकार के पक्षी, चिकन, और भेड़-बकरियां मांस हमारे दैनिक भोजन थे। ज्वार या चावल के खाद्य पदार्थों के साथ दूध, दही मक्खन का दूध भी हमारे आहार का हिस्सा था। हम सिर्फ बरसात के मौसम में सब्जियां प्राप्त करते थे और हमारे परिवारों में बूढ़े व्यक्ति बहुत दुखी होते थे जब एक सब्ज़ी करी पकायी जाती थी। दलित परिवारों में ज्वार के साथ मुख्य खाद्य पदार्थ, चावल, बीफ़, बैल था दूसरे शब्दों में, गांव की खाद्य अर्थव्यवस्था मांस और दूध पर निर्भर थी, लेकिन शाकाहार नहीं था। इस स्थिति में बहुत कुछ नहीं बदला है। लेकिन नया शाकाहारी अभियान उस संस्कृति पर अस्वास्थ्यकर और असभ्य रूप से हमला कर रहा है जैसे कि केवल ब्राह्मणवाद जानता है कि सभ्यता का क्या मतलब है? यह सांस्कृतिक मुद्दों के लिए एक अभिमानी दृष्टिकोण है।
राष्‍ट्रीय शाकाहारवाद शूद्र, एससी / एसटी / ओबीसी के पूरे मनोवैज्ञानिक माहौल को प्रभावित कर रहा है, जो भाजपा के सत्ता में आने से पहले सांस्कृतिक विश्वास के साथ भोजन खा रहे थे। कांग्रेस शासन के दौरान गाय-वध पर प्रतिबंध कुल शाकाहार का एक सांस्कृतिक अवक्रम नहीं हुआ। मांसाहारवाद, मधुमक्खीवाद, मछुआरों और इतने पर सामूहिक संस्कृति का हिस्सा थे। ऐसा प्रतीत होता है कि तथाकथित कांग्रेस-विमुक्त भारत केवल शाकाहारी भारत होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके नेटवर्क मीडिया में शाकाहारी राष्ट्रीयता दिवस की महानता के बारे में प्रचार कर रहे हैं। अब ब्राह्मणिक तथाकथित सांस्कृतिक टीवी चैनलों ने यह कहने के लिए एक अभियान चलाया है कि मांस, बीफ और मछली खाने वाले लोगों को असभ्य व्यक्ति हैं ब्राह्मण समाजशास्त्रियों ने झूठी सिद्धांतों को फैलाया कि मासाहार प्रदूषित खाद्य संस्कृति के रूप में जाना जाता है और शाकाहार को शुद्ध खाद्य संस्कृति के रूप में जाना जाता है। यह एक बेतुका सिद्धांत है लेकिन वे इसे स्कूलों और विश्वविद्यालयों में भी पढ़ना जारी रखे हुये हैं।
इस प्रकार की खाद्य सांस्कृतिक प्रतिकृति हमारे राष्ट्रीय विकास के लिए बहुत गंभीर निहितार्थ हैं। मवेशी और पक्षी खेती के लिए काफी महत्वपूर्ण होते है। इस सांस्कृतिक आंदोलन के नेता वास्‍तव में वे लोग हैं जो कभी भी भोजन उत्पादन या पशु पालन गतिविधियों में शामिल नहीं हुए हैं। ब्राह्मणवादी शाकाहारी भोजन सांस्कृती को भारत में इस्लामी और ईसाई मासा‍हारी संस्कृतियों के मुकाबले उतारा जा रहा है। हिंदू आध्यात्मिक प्रणाली इस सांस्कृतिक अभियान का एक हिस्सा है। शाकाहारी पुरोहित समुदाय, जो कभी भी मवेशी, पक्षी और पशु अर्थव्यवस्था में शामिल नहीं था, उन्‍होने गौ रक्षा का अभियान शुरू किया; अब यह पूर् शाकाहारी राष्ट्रवाद के लिए विस्तारित किया जा रहा है। सत्तारूढ़ शासन भारतीय संस्कृति के रूप में उस संस्कृति को प्रोजेक्ट करने का प्रयास कर रहा है। यह लंबे समय तक देश की मानसिक और शारीरिक वृद्धि को कमजोर करेगा।
आर्थिक जीवन शक्ति
कई किसान, जिनके साथ मैं बात करता था, का मानना ​​था कि केवल शाकाहारी भोजन के साथ वे "खेतों में अपने कामकाजी ऊर्जा को नहीं बनाए रख सकते"। एक किसान ने कहा कि '' कम से कम दो हफ्ते में हमें मांस या मछली खाने की ज़रूरत है। जिस दिन हम पर्याप्त मांस खाते हैं और जिस दिन हम अपने भोजन को कुछ सब्जियों के साथ खाते हैं, उस दिन हम अपने स्वयं के कार्यशील ऊर्जा से महसूस करते हैं। यह उन लोगों के लिए ठीक हो सकता है जो घर पर बैठते हैं या शाकाहारी होने के लिए कुछ व्यवसाय करते हैं। लेकिन हमारे जैसे कड़ी मेहनतकश लोगों के लिए मांस खाने की आवश्यकता है। "
उनके पास एक अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक आयाम भी है। जब तक कोई जानवर या पक्षी एक आर्थिक लाभ देने वाला जानवर या पक्षी नहीं है, वे उन्हें बनाए नहीं रख सकते। एक व्यक्ति ने कहा: "यहां तक ​​कि अगर चिकन एक खाद्य पक्षी नहीं है, तो हम भी उसे खिलाने और बनाए रखने में सक्षम नहीं हैं।" गाय संरक्षण या किसी भी अन्य पशु संरक्षण के प्रति इस तरह के किसानों के प्रति उत्तरदायित्व मान्य है क्योंकि सिर्फ श्रमिक मूल्य या भोजन मूल्य संभव नहीं है।
 किसी भी राष्ट्रवादी का तर्क, लोगों की मानसिक और शारीरिक ऊर्जा में सुधार के आधार पर होना चाहिए। राष्ट्रवाद लोगो को शारीरिक और बौद्धिक क्षेत्रों से कमजोर नहीं करना चाहिए। यह एक झूठी राष्ट्रवादी तर्क है जो विभिन्न क्षेत्रों में लोगों की मौजूदा क्षमता को समझ में नहीं पाता है। राष्ट्रवाद भावनाओं पर निर्भर नहीं होना चाहिए।
 यह देश जो मध्य पूर्वी और यूरोपीय लोगों द्वारा पराजित होकार गुलाम हो गया था। अब इस प्रकार की झूठी खाद्य सांस्कृतिक सिद्धांतों और अनावश्यक प्रथाओं के साथ वे इस देश को बाहर के देशो के सामने अधिक ऊर्जावान, अधिक कल्पनाशील और अधिक रचनात्मक शक्तियों के आगे आत्मसमर्पण करना चाहते हैं। राष्ट्र को इस मुद्दे पर किसी अन्य मुद्दे से ज्यादा गंभीरता से बहस करना चाहिए।
प्रोफेसर कंच इलिया शेफर्ड, सामाजिक बहिष्कार और समावेशी नीति के अध्ययन केंद्र के निदेशक हैं, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, गचीबोली, हैदराबाद।

'दलित' शब्द के इस्तेमाल पर रोक

'दलितशब्द के इस्तेमाल पर रोक
संजीव खुदशाह
दलित शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है. फिर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने

भी इस शब्द को अपने भाषणों में प्रयोग किया.
प्रोफेसर विवेक कुमार बताते हैं कि "1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था. दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी."
संविधान में दलित शब्द नहीं है न ही दलित शब्द को ले करके कोई स्वीकृति या प्रतिबंध है। लेकिन 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने आधिकारिक दस्तावेज़ों में दलित शब्द का इस्तेमाल न करें।
उल्‍लेखनीय है कि केरल की कम्युनिष्‍ट सरकार ने हरिजन और दलित शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। राज्य एसटी/एससी आयोग की सिफारिश का हवाला देते हुए सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने इस संबंध में सर्कुलर जारी किया है। आधिकारिक कार्यों और प्रचार-प्रसार में दोनों शब्दों का इस्तेमाल नहीं करने की अपील सभी विभागों से की गई है।
इन शब्दों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर विभिन्न सरकारी महकमों में चल रही बहस के बीच यह सर्कुलर आया है। इसमें दलित/हरिजन शब्दों की जगह एससी/एसटी शब्द का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया है। हालांकि इस मामले में अंतिम आदेश लोगों से बात करने के बाद ही आएगा।
राज्य एसटी/एससी आयोग के अध्यक्ष जस्टिस पीएन विजय कुमार के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया है कि इन शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की सिफारिश आयोग ने उन सामाजिक भेदभाव को खत्म करने के लिए की थी जो आज भी कई जगहों पर हो रहे हैं। लेकिनदलित आंदोलनकारियों को सरकार का यह फैसला रास नहीं आ रहा है। वे इसे दलित राजनीति के उभार को रोकने की कोशिश बता रहे हैं।
दलित कार्यकर्ता अजय कुमार ने बताया कि वे सरकार के इस कदम को स्वीकार नहीं कर सकते। दलित संबोधन उन्हें अपमान जनक नहीं लगताक्योंकि यह उन्हें एक सामाजिक-राजनीतिक पहचान देता है। उन्होंने कहा कि यह फैसला ऐसे वक्त में किया गया है जब राज्य में दलित आंदोलन तेजी से आगे बढ़ रहा है।
प्रसंगवश यह बताना बेहद आवश्यक है कि एक कट्टरवादी संगठन के कार्यकर्ता प्रेम कुमार सिंह ने इसके पहले से दिल्ली हाई कोर्ट में एक अपील लगाई हुई है कि मीडिया में दलित शब्द का प्रयोग नहीं किया जाए इससे दलित हिंदुओं से अलग दिखाई पड़ते हैं और ऊंच-नीच को बढ़ावा मिलता है. दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी अपील को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है। यदि हाईकोर्ट द्वारा दलित शब्द पर प्रतिबंध का आदेश दिया जाता है तोदलित शब्द को रिप्लेस करने के लिए एक नए शब्द को खोजना पड़ेगा। क्योंकि वर्तमान में दलित जैसे व्यापक शब्द के लिए कोई दूसरा शब्द जो सर्व स्वीकृत हो नहीं है।
गौरतलब है कि दलित शब्द का सर्वप्रथम व्यापक रूप से प्रयोग महाराष्ट्र से चालू हुआ खासकर दलित पैंथर ने दलित आंदोलन को काफी तेजी से बढ़ाया। अभी भले ही दलित शब्द का प्रयोग कुछ राज्यों में नही पहुंच पाया है। लेकिन पूरे देश में दलित शब्द धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है।
वर्तमान में दलित साहित्य पर कई किताबें लिखी जा चुकी है और दलित साहित्य के नाम से ही किताबें बिकती हैं बहुत सारे लेखक दलित लेखक के नाम से ही जाने जाते हैं। दलित के नाम पर कई सारे संस्थाएं बनी हुई है जो जमीनी तौर पर काम कर रही हैं। दलितो की व्‍यवसायीक संस्‍था डिक्‍की का कार्य किसी से छिपा नही है। इन सभी को अपने लिए नया नाम खोजना होगा। कुछ लोग मूल निवासी शब्द की सलाह देते हैं। लेकिन दलित लेखक इस शब्द को नहीं स्वीकार करते हैं उनका कहना है कि मूल निवासी शब्द वंशवाद एवं स्थानीयता के भेदभाव को बढ़ाता है जोकि अंबेडकरवादी विचारधारा के विरुद्ध है। सा‍थ ही यह शब्‍द दलित शब्‍द की तरह तरह शोषण, दमन, विद्रोह, आंदोलन को परिभाषित नही करता है।
मेरे दृष्टिकोण में वांम पंथी सरकार का यह सामंतवादी कदम निंदनीय है। वह दलित आंदोलन के साथ-साथ अंबेडकरी आंदोलन को भी कुचलना चाहती है। केरल सरकार यह कदम निंदनीय और अशोभनीय है | इस पर तुरंत कड़ा विरोध होना चाहिए | खासतौर से दलित नेताओं ,दलित साहित्यकारो और प्रगतिशील संस्थानों को इसके विरोध में मुखर होना चाहिए |
फेसबुक में श्री सूरज बड़त्‍या कहते है ‘केरल वामपंथी सरकार का दिवाली तोहफ़ा ...दलित शब्द के इस्तेमाल पर सरकारी प्रतिबंध... अब दलित साहित्य .. लेखन .. आंदोलन ..विमर्श सब केरल के बाहर .... ब्राह्मणवादी वामपंथी नज़रों में तो ये सब वैसे भी साम्राज्यवादी साजिश का ही परिणाम है ...सामाजिक न्याय की अस्मितावादी धड़कने अब वहाँ सुनाई नहीँ देंगी.. ये प्रतिरोधी स्वरों को दबाना है ..... प्रगतिशील वामपंथी साथियों आओ इसका विरोध करें’
फेसबुक पर ही श्री नामदेव लिखते है ‘केरल सरकार द्वारा दलित शब्द को निषेध करने का निर्णय एकतरफा ही नहीं है बल्कि दलित विरोधी भी है | यह घोर निंदनीय है | हम यह जानते हैं कि दलित शब्द हजारों वर्षों की उत्पीड़न के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से निकला है और जो अछूत समाज की अस्मिता, संस्कृति तथा प्रतिष्ठा का सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हो चूका है | राजनीति, साहित्य, विमर्श, फिल्म इत्यादि प्रमुख सामाजिक तंत्रों में *दलित* शब्द रूढ़ हो चूका है | 60 वर्षों से महाराष्ट्र में और 40 वर्षों से हिंदी क्षेत्रों में दलित साहित्य ने अपनी वैश्विक पहचान बनाई है | देश के लगभग अधिकांश विश्वविद्यालयों में इसका अध्यापन, अध्ययन और शोध जारी है | दलित लेखक, दलित नेता, दलित कलाकार, दलित विमर्श सब सहस्तित्व में शामिल हैं | ऐसे में केरल की वामपंथी सरकार द्वारा दलित शब्द को खारिज करना स्पष्ट तौर पर दलित समाज को नकारना ही है | यह भी सच है कि आज भी अधिकांश नकली सवर्ण वामपंथी जातिवाद को नकारते ही हैं | उनकी एकांगी आयातित वर्गीय अवधारणा में दलितों की पीड़ा लगभग लुप्त ही रही है | जबकि प्रगतिशील दलित चिंतक मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद को भारतीय मनुवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद की जातिवादी मानसिकता और अन्याय से ,मिलकर लड़ने पर जोर देते आ रहे हैं |
संजीव खुदशाह दलित एवं पिछड़ा वर्ग  साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरप्रगतिशील विचारक. कविकथाकारसमीक्षकआलोचक और पत्रकार.


Prescriptions against proscription

Prescriptions against proscription

In closed communities, social boycott is akin to living death. Activists and citizens in different states are rallying for the passage of laws that could change this primeval practice. Sonia Sarkar reports
  • LEGALLY BLIND: A khap panchayat in progress in Hissar, Haryana. Khaps are notorious for their regressive diktats; Pic: Getty images
Umesh Rudrap was boycotted by members of the Telugu Modelvar Parit community, which he belongs to, for marrying a Buddhist woman. That was in 1991. Umesh, who is from Pune and drives a taxi for a living, had to wait for almost three decades before he could give a fitting rebuttal.
This year in July, armed with the newly introduced law against social boycott - the Maharashtra Prohibition of People from Social Boycott (Prevention Prohibition and Redressal) Act - Umesh lodged cases against 17 committee members of the Telugu Modelvar Parit Samaj. The 2016 Act, which got presidential assent this July, forbids social boycott in the name of caste, community, religion, rituals or customs.
The Samaj, which is really a caste panchayat, had for all these years barred Umesh from participating in any social function organised by the community and had even issued a diktat forbidding community members from interacting with him.
"He was treated like a criminal," says Kutpelli Chandra Ram, secretary of the Public Concern for Governance Trust, a Pune-based organisation that is helping Umesh and 24 others fight for their rights. If proven guilty, the accused will face a three-year jail term and could also be fined Rs 1 lakh.
Social boycott is a tool used by "influential" members within communities to punish anyone who does not conform to their rules. It is a rampant practice, not just in Maharashtra but also in states such as Chhattisgarh, Odisha, Assam, Bengal, Uttar Pradesh, Haryana and Rajasthan.
In Chhattisgarh, social activists say, at least 250 such cases have been listed with the Caste Annihilation Movement, a Delhi-based people's group, over the last three years. The reasons could be anything from marrying outside one's caste or community, as in Umesh's case, to not following the diktats of community elders or for raising one's voice against orthodox beliefs.
Tejram Sahu is an electrician from Beltukri, a village in east Chhattisgarh. In 2010, when his uncle died, he did not shave his head. He also refused to invite the community for the mrityu bhoj or funeral meal. Consequently, Tejram's entire family was boycotted. Even the local barbers and grocers were told to withhold their services. Says Tejram, "We had approached the state human rights commission, but the officials didn't do anything."
In another instance, a woman from Magarlod village of Chhattisgarh's Dhamtari district committed suicide after her family was socially boycotted for her illness.
Sanjeev Khudshah, national convener of the Caste Annihilation Movement, which fights against caste discrimination in Chhattisgarh too, says, "They [the boycotted] are not allowed to use hand pumps or ponds in villages, they cannot procure rations from local grocery shops, their children cannot go to school, and sometimes, a hefty fine is imposed and when they fail to pay, more punishment awaits them..."
The Chhattisgarh government is in the process of drafting a law to deal with these social evils, but nothing has been finalised so far.
Activists associated with the campaign against social boycott have been garnering support for a similar law in Haryana and Uttar Pradesh, wherekhap panchayats reign supreme and are known to give orders to rape and kill for not following norms laid down by the community. In 2010, a khap leader of Karoda village in Haryana was awarded life sentence for killing a young couple, Manoj and Babli. The panchayat had opposed their marriage in 2007 because they belonged to the same " gotra" or clan and therefore the match was considered incestuous and non-permissible.
But rules vary depending on geography and community. In Uttar Pradesh, there have been many cases where khap panchayats have socially boycotted families whose children married into different communities. In 2015, two Dalit women from Baghpat approached the Supreme Court alleging that the khap panchayat had ordered that they be raped and paraded naked in their villages because their brother reportedly eloped with a woman from a higher Jat caste.
In states such as Odisha, Jharkhand and Assam, social boycott assumes another terrible shape in the form of witch-hunting. "Villagers label a woman a witch, blame her for natural calamities, even health hazards, and throw her out of the village or stone her to death. Her family members, especially her children, are targeted too," says Bhubaneswar-based advocate Sashiprava Bindhani, who co-drafted the Odisha Prevention of Witch-Hunting Act, passed in 2013.
Assam, which has witnessed more than 400 cases of witch-hunting in the last five years, enacted the Assam Witch Hunting (Prohibition, Prevention and Protection) Act in 2015. Both Acts provide for more effective measures to prevent and protect persons from witch-hunts, but witness protection is something both states are still grappling with.
The Maharashtra Act, too, has no provision for witness protection. Neither does it deal with issues related to compensation and rehabilitation of victims. Activists feel even the quantum of punishment is not enough of a deterrent. "We had proposed a jail term of up to seven years and a minimum fine of Rs 5 lakh. On many occasions, caste panchayats impose a fine of Rs 2-3 lakh on victims of social boycott," says Nashik-based Krishna Chandgude, state secretary of Maharashtra Andhashraddha Nirmoolan Samiti. In fact, it was the Samiti that spearheaded the campaign to declare social boycott a crime.
There is not much awareness about the law among police officials either, says Krishna. When Umesh and others wanted to lodge a complaint, allegedly, there were efforts by police to discourage them from filing it. Instead, police asked them to prove that they had been ostracised.
In Chhattisgarh, activists have been trying shake things up, strong opposition notwithstanding. Yuvraj Sinha, president of the Raipur chapter of Jaiswal Samaj, an OBC community, says, "A law to deal with social boycott will end the age-old traditions. Nobody will follow the rules, nobody will marry within the community or follow the customs of the community related to births and deaths. The younger generation will lose respect for the elders of the community if criminal cases are filed so easily."
The argument over what is tradition and what's effete about it goes on.
Courtesy  The telegraph news paper  8 October 2017

इस संसार में जितने भी त्यौहार है वह वहां की खेती किसानी उपज मौसम पर आधारित है।


संजीव खुदशाह की वाल से.
भारत में दशहरा खरीफ फसल की बुआई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। जिसमें अपने स्थानीय देवताओं का जुलूस निकाला जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा कार्यक्रम में राम रावण का नामोनिशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत के दशहरे में लोग राम रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं वह भी राम रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं। यानी दशहरे का  त्यौहार कृषि आधारित है है ना कि धर्म पर आधारित। यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे. इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू बौद्ध जैन धर्म के लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रवि फसल की बुवाई के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है। इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है।

भारत में दीवाली त्योहार भी बड़े जोर शोर से मनाया जाता है। इसके पृष्ठभूमि में कृषि है। इस समय खरीफ फसल पकने की स्थिति में होती है खासकर धान की फसल । और बारीक माहूर कीट जिसे स्थानीय भाषा में दिवाली के कीड़े भी कहते हैं। फसल की ओर जाने लगते हैं। इस समय तमाम लोग दीप जलाकर इन कीड़ों को आकर्षित करते हैं ताकि वे कीट मर जाएं। फसल काटने के पहले या उसके आसपास यह त्योहार मनाया जाता है। इसके पीछे फसल की कीटों से सुरक्षा और फसल पकने की खुशी निहित है । जिसे बाद में धर्म से जोड़ दिया गया।

यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था। उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मोहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है। भारत में रवि फसल की खुशी में होली मनाई जाती है। लेकिन यह धार्मिक ठेकेदारों की मजबूरी कहें या उनका शातिराना चाल कि वह एक नेचुरल त्यौहार को धर्म से जोड़ने लगे, और इन त्यौहारों को अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। जिससे वह त्यौहार खुशी का नहीं बल्कि आपसी द्वेष का कारण बनता गया। इसीलिए अपने स्थानीय ढंग से इन त्योहारों को मनाना चाहिए और इसकी खुशी को आपस में बांटना चाहिए।
बिना द्वेष बिना नफरत के सिर्फ मोहब्बत के साथ।
संजीव खुदशाह की वाल से साभार