वास्तु शास्त्र एक अंधविश्‍वास है





वास्तु शास्त्र भ्रम शास्त्र 



           भ्रामक शास्त्र – लगभग पिछले 20-25 सालों से अपने यहाँ के सुशिक्षित लोगों को प्राचिन भारत के वास्तुशास्त्र के प्रति रूचि पैदा हो चुकी है। सैंकडों सालों से इतिहास बना हुआ यह शास्त्र 80 वें दशक में अपना अस्तित्व फिर से जताने लगा है। वास्तुशास्त्र जब पर्दे के पीछे था तब भी बिल्डींगे बनाते समय इस देश में वास्तुशास्त्र का आधार लिया जाता छा। अब तो वास्तुशास्त्र बहुत लोकप्रिय हो चुका है। जो कोई इस शास्त्र के अनुसार वास्तु का निर्माण करता है, और इस शास्त्र के अनुसार बनी हुई वास्तु में रहता है उसे यश, आरोग्य, सुख, समृध्दि सबकुछ निश्चित प्राप्त होता है ऐसा प्रचार किया जा रहा है।
यह शास्त्र पूरी तरह से विज्ञाननिष्ठ है सा इस शास्त्र का दावा है जिने हमें जाँचकर देखना। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोन का एक महत्वपूर्ण तत्व  है। सही ज्ञान हमें ज्ञानेंद्रिय के द्वारा प्राप्त हो सकता है। इसी तत्व के अनुसार धीरे-धीरे वैज्ञानिक पध्दति निरीक्षण, अन्वेषण, प्रयोग अनुमान – निष्कर्ष जैसी सीढ़ीयों को पार करके सिध्द हो सकती है। ज्ञानप्राप्ती की यह सर्वाधिक विश्वसनीय पध्दति है।
इस पध्दति से पूरा ज्ञान परखा जाता है। उसकी सत्यता और असत्यता तय की जाती है। इसके पश्चात वह विज्ञान बनता है। वास्तुशास्त्र को भी विज्ञान बनने के लिये इस कसौटी को पार करना पड़ता है। इसके बिना वास्तुशास्त्र को विज्ञान मानना गलत है। वैज्ञानिक प्रगति के कारण सब चीजों का लाभ उठाना मगर विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नकारना, हमारा प्राचीन शास्त्र है ऐसा कहकर विज्ञान की कसौटी को न मानते हुए वास्तुशास्त्र को अपनाना यह दोहरापन छोड़ना चाहिए। वास्तुशास्त्र पर भरोसा करना यह व्यक्तिगत बात हो सकती है मगर उसे विज्ञान कहना याने अपने आपको और अन्यों को भी ठगाने जैसी बात है।
आधुनिक जगत मे किसी को भी विज्ञान, उससे प्राप्त सुखसुविधाएँ, उसकी विश्वसनीयता को नकारना असंभव है। वैज्ञानिक होना बहुत सम्मान और प्रतिष्ठा दैनेवाली बात है।  अत: कुछ भी करके वास्तुशास्त्र को वैज्ञानिक धरातल पर सही साबित करने की कोशिश जारी रहती है। यह शास्त्र विज्ञाननिष्ठ नहीं है इतना कह देना पर्याप्त नहीं।  कौनसी परिस्थिति में इसका निर्माण हुआ, उसकी वृध्दि कैसै हुई, उस वक्त का समाज, लोगों के व्यवहार, खान-पान आदि सारी बातों की चर्चा होनी चाहिए। मकान की जरुरत तोउसे शुरु से ही रही है। आदमी को ही नहीं, पंछी, जानवर, कीटक, चींटी सभी सजीवों को रहने के लिए स्थान लगताही है। अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार हर कोई मकान ढूँढता है या स्वयं उसका निर्माण करता है। यह सबकुछ अन्य प्राणी अपनी आवश्यकता के अनुसार सैंकडों सालों से अपना मकान बनाते आये हैं।  मनुष्यने अपनी बुध्दि का इस्तेमाल करके अपना मकान बनाने की कला में अपनी जरुरतों के अनुसार समय समय पर सुधार किये हैं।
प्रांरभ से ही मकान बनाते वक्त सुधार क्ये जाने लगे मकान बनाने का वास्तुशास्त्र केवलमात्र भारत में ही बनाया गया ऐसी बात नहीं। इस प्रकार का शास्त्र बनाना और स्थल-काल, भौगोलिक परिस्थिति, उस इलाके की हवा, वहाँ की संस्कृति, वहाँ पैदा होनोवाली मुसीबतें आदी के कारण महसूस होनेवाली अलग-अलग आवश्यकताओं के अनुसार मकान बनाने में निरंतर सुधार होते रहे। संसार भर में यह सब चलते ही रहता है।   यहाँपर ध्यान में रखने जैसी बात यह है कि आर्य लोगों की टोलियों ने आक्रमण करके वहाँ की संस्कृति को समाप्त करने के बाद भारतीय वास्तुशास्त्र वास्तुशास्त्र का निर्माण किया। वहाँ की संधोक संस्कृति की भाँति अन्य अनेक प्रगतीशील संस्कृतियों का ऐसी टोलियों ने विध्वंस किया है। ऐसे आक्रमणों से कुछ इनी-गिनी संस्कृतियों ने स्वयं को बचाया है।
ऐतिहासिक पहलु –
इस शास्त्र को विज्ञान कहें या नहीं इस बात को तय करने से पहले यह जब निर्माण हुआ उस काल की घटनाएँ और उसके परिणामों की जाँच करनी होगी। वास्तुशास्त्र के प्रवक्ता लोग कहते हैं कि इस शास्त्र का जनम वैदिक काल में हुआ है। ऋगवेद  में इसके  बारे में कुछ सबूत भी मिलते हैं। आर्य लोग भारत में आने से पहले सिंधू नदी के आसपास मूल रहिवासी बढ़िया ढंग से मकान बनाते थे। इन लोगों पर कब्जा करके अपनी सत्ता स्थापित करने हेतु आर्य लोगों को कई पापड बेलने पडे थे। वास्तुशास्त्र उन्हीं कोशिशों में से एक है। इसका मूल है यज्ञवेदी के निर्माण में यज्ञीय परंपरा और यज्ञीय विधि ज्यों ज्यों विस्तृत होते गये त्यों त्यों चातुवर्ण पध्दति मजबूत बनती गयी और  मकान बंधने के कार्य को करते समय गूढ शक्तियों को शांत करना, तृप्त करना और इसके लिए कर्मकान्ड करना शूरु हुआ। ये महाशक्तियाँ गण, गुरु, स्थपति, पुरुष आदि नामों से पहचानी जाती हैं। इसमें वास्तुपुरुष मंडल और वास्तोस्पती इन कल्पनाओं का सृजन हुआ। शुभ-अशुभ, पितर, वास्तुशास्त्र, ब्रम्ह, ईश्वर, स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा जैसी कल्पनाओं का निर्माण इसीमें से हुआ। आर्य लोग आने से पहले सिंधू नदी के इर्दगिर्द बहुत बारीकी से नियोजन करके कुछ महानगर बस गये थे। खोदकाम के बाद इन बातों का पता चला है। वास्तुशास्त्र की वजह से चार वर्णोवली समाज रचना को बनाया गया। आजकाल जो वर्ण और जाति की व्यवस्था को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यह दुष्ट व्यवस्था इतनी टिककर रहने के पीछे वास्तुशास्त्र का बहुत बड़ा हाथ है। निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है।
वैदिक ज्ञान –
वास्तुशास्त्र को मानने वाले कुछ लोग भृगु ऋषि के कुछ श्लोकों का आधार लेकर कहते रहते हैं कि वेदकाल में बहुत प्रगत वास्तुशास्त्र व्यवहार में था। बड़ी बड़ी बिल्डिंगे थी और हवाई जहाज भी थे। किसी अनुसंधान कर्ता ने उनसे एक महत्वपूर्ण सवाल पूछा था। उसका जिक्र यहाँ करनाही होगा। वास्तव में अपने यहाँ प्राचीन काल से ही हवाई जहाज और आज बननेवाले शस्त्रास्त्र थे। जिन बातों को आज खोजा जा रहा है उन सबके भारत के लोगों ने वेदकाल में ही खोज लिया था आजकल जो अनुसंधान हो रहें हैं वह सब पुरातन वैदिक ज्ञान ही तो है। फिर आप मुझे बताइए कि उन्होंनं दो पहियोंवाले वाहनों को भी संशोधन किया था क्या और वे उनका इस्तेमाव करते थे क्या? यहाँपर सवाल यह खड़ा होता है कि मोहेन्जोदारो, हरप्पा आदि स्थानों पर जो उत्खनन हुआ उसमें वेदकाल से पहले भी यहाँपर जो कुछ इस्तेमाल होता था, उनका पता चलता है। वेदकालीन लोग भी विज्ञान और तंत्रज्ञान के क्षेत्र में काफी माहिर थे इस बात का एक भी सबूत क्यों नहीं मिलता? वास्तुशास्त्र में जिन आठ दिशाओं को महत्व पूर्ण समझा जाता है उनसे हवा की दिशा, सौरउर्जा, गुरुत्वाकर्षण  जैसी बातों से मेल खानेवाले कुछ लोगों का गुट बनता है। इनके आधार पर शुभ-अशुभ को जानना, पैसा और सुखशांति मिलेगी या तकलिफें सहनी पड़ेगी, यश पल्ले पडेगा या अपयशयह सबकुछ तय किया जाता है।   मगर इस बारे में कोई भी वैज्ञानिक निष्कर्ष या सबूत प्राप्त करने की कोशिश वास्तुशास्त्र विशारदों को मंजूर नहीं है।
उपरोक्त सभी कल्पनाएँ ईश्वर, स्वर्ग, नरक, मुक्ति के साथ जोड़ने के कारण लोग उसपर भरोसा करते हैं। उन्हें वैज्ञानिक कसौटियों पर कसने की आवश्यकता नहीं होते। अपनी प्राचीन संस्कृति का गुणगान करते वक्त हमें दुसरी बातों का ध्यान ही नहीं रहता। विज्ञान की कई श्रेणियाँ हैं – आयुर्वेद, गणित, चरकसंहिता, सुश्रुतसेहिंता और वास्तुशास्त्र  ये सभी शाखाएँ प्राचीन काल में ही प्रगतिपथपर थी वे निरर्थक साबित होती गयी। आयुर्वेद की जैसी शाखाएँ केवल जिंदा ही नहीं रही तो अब तक वो तरक्की कर रही है। उसमें अब भी संशोधन जारी है। वास्तुशास्त्र तो 20 साल तक लोगों को मालूम ही नहीं था। इसका कारण स्पष्ट है। कालनाम में लोगों को इस बात का पता चल गया कि शास्त्र का आधार वैज्ञानिक नहीं है। इसलिए यह पुराना सायन्स कालबाह्य हो गया। उसके बाद पिछले कुछ दशकों में इस पुराने सायन्स के लोगों को दुबारा खोजबीन करनी पड़ी और आधुनिक विज्ञान की चौखट में उसे फिट करना पड़ा।
दिशाओं का प्रभाव –
वास्तुशास्त्र में दिशाओं का प्रभाव काबहुत महत्व होता है। अत:  हवामान के परिणामों का अदांजा ले सकते है। फिर उसका ठीक से इस्तेमाल कर सकते है। मगर आज हम जिस वास्तुशास्त्र के बारे में बेहस करते हैं, उसमें व्यावहारिक उपयोग का विचार न करते हुए लोगों के मन पर जबाव महसूस हो ऐसी गूढ कल्पना और उसका यदि अनादर करें तो जो कुछ भोगना पड़ता है उसके भयानक परिणामों का भी विचार किया जाता है। वास्तुशास्त्र का मुल ग्रंथ यदि पढ़े तो इस बात की सत्यता महसूस होगी। धरती के चुबंक क्षेत्र का और आदमी के भविष्य पर होनेवाले उसके परिणाम का जिक्र चक उसमें नहीं करते। वैसे आम तौर पर वास्तुशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने से कौनसे बुरे परिणाम होंगे यह बात सीधे सादे शब्दों में बतलाई जाती है। आये दिन वास्तुशास्त्र में बच्चों की मौत, दरीद्रता, पूर्ण विनाश जैसी भयानक बातें दर्शायी जाती है। विज्ञान में आदमी की वर्ण या जाति को बिलकुल भी महत्व नहीं होता। वास्तुशास्त्र में तो तत्वों को न मामनेवाले को उसकी जाति या वर्ण के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणाम बतलाये गये हैं। ऐसे सायंस को  विज्ञान कैसे कह सकते है ?
वास्तुशास्त्र की भाँति अन्य कई शास्त्र अपनी सच्चाई को साबित करने हेतु वैज्ञानिक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और लोगों के मन में कई गलतफ़हमियाँ पैदा करते हैं। पढ़ेलिखे बुध्दिमान लोग भी ऐसी वैज्ञानिक संज्ञाओं के शिकार हो जाते हैं। मूल में जिनकी नीवं हो दोषयुक्त और वैज्ञानिक हो उस वास्तुशास्त्र की खामियों की और वे ध्यान नहीं देते। इस भ्रामक शास्त्रों का आधार है आठ दिशाएँ। ये आठ दिशाएँ नॅचरल नहीं होती। उन्हें अपनी सुविधानुसार लोग ही तय करते हैं। हमारा पूर्व दिशा का प्रदेश ब्रम्हदेश के पश्चिम में होता है। ऐसी अनिश्चित दिशाएँ शुभ या अशुभ, अच्छा या बुरा परिणाम कैसे दिखला सकती है ? पृथ्वी तो हमेशा अपने ही इर्दगिर्द पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते रहती है। किसी प्रचंड पहिए पर बैठकर हम लोग घूमते हैं वैसे। वह पहिया घूमते रहने पर हमें अपने आसपास की सभी वस्तुएँ घूमती हुई नजर आती है। प्रत्यक्ष में हम ही घूम रहे होते हैं और आसपास की सभी चीजें स्थिर होती है। ऐसे ही सूर्य  भी हमें पूर्व दिशा की ओर उगा हुआ दिखता है और दिनभर का सफर करके शाम को पश्चिम में अस्त होता हुआ दिखता है। ऐसी स्थिति में दिशाओं को शुभाशुभ, लाभदायक या धोकादायक जैसे विश्लेषण लगाने में कहाँ की समझदारी है? इससे भी मजेदार स्थिति आर्क्टिक एवं अटांर्टिक प्रदेशों में पायी जाती है। इन प्रदेशों में 6 महिने का दिन और 6 महिने की रात होती है। 21 मार्च से 23 सितंबर की कालावधि में आधी रात में आसमान में सूरज दिखाई देता है। फिर यहाँपर आप वास्तुशास्त्र के महान तत्व कैसे लगा पायेंगे?
वास्तु का रहस्य –
वास्तु याने क्या ? इसका सही अर्थ क्या है? संस्कृत भाषा में इस शब्द का अर्थ है – हम रहते हैं वह स्थान याने वास्तू! वास्तुशास्त्र का जब जन्म हुआ था तब नगर-पालिकाएँ नही थी। शहर विकास अधिकारी भी नहीं थे और मकान बनाने का कानून भी नहीं थे। वास्तुशास्त्र के अनुसार रसोईघर वातविमुख दिशामें होना चाहिए और यह बात ठिक भी है क्योंकि रसोईघर में पैदा होनेवाला धुंआ घर में फैलने के स्थानपर हवा के साथ बाहर फेंका जाय। पहले घर में हवा को बाहर फेंकने वाले पंखे नहीं थे। मगर आये दिन ये सुविधाएँ होने के कारण वास्तुपंडित प्राचीन बातों का मजाक उडाते हैं। कारखानों में बॉयलर रुम कहाँ होनी चाहिए इसके बारे में वे सलाह देते हैं क्योंकि रसोईघर में जैसे अग्नि होता है वैसे ही  बॉयलर रुम भी होता है। भारत फोर्ज कंपनी ने बहुत सी पूंजी खर्च करके अपने फ्लॅट की रचना वास्तुशास्त्र के कथनानुसार बदली। ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। मगर वास्तुशास्त्र में एकाध श्लोक में भी बॉयलर और फॅक्टरी का विवेचन नहीं मिलता। तब उनका अस्तित्व था ही नहीं। अब स्थिति बदल चुकी हैं। धुआं नहीं होगा ऐसी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है। फिर हम वास्तुशास्त्र के इन तत्वोंपर कब सक काम करेंगे?
वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी बिल्डिंग का प्रवेशद्वार दक्षिण की ओर होना अशुभ माना जाता है और ऐसा होगा तो विनाश अटला है। किसी बाजारपेठ में रास्ते को दोनों ओर जहाँ दुकान लगे होते हैं वहाँपर आधी दुकानों का प्रवेश दक्षिण दिशा से ही होगा। वे सबके सब दुकानदार असफल होते हैं क्या? वॉशिंग्टन, डी.सी. के व्हाईट हाऊस का प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा की ओर है।  वास्तुनियमों से बिलकुल विरोध में। पर वहाँ रहते है अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष संसार की प्रबल महासत्ता के प्रमुख।
वास्तुशास्त्र के काल में घर के दरवाजे और खिडकियाँ हवा खेलने के लिए सीधी लकीर में होना जरुरी समझा जाता था एक किताब में कहा गया था कि पश्चिम दिशा की तरफ छाया दनेवाले बड़ेबड़े पेड़ होने चाहिए। उस विभाग की कड़ी धूप को रोकने के लिए इनकी आवश्यकता है। पर उत्तर भारत में इसकी जरुरत नहीं होती। द। भारत में सूरज की रोशनी उत्तर की तरफ से आती है। इसलिएँ यहाँ पर यह नियम लागू होता है। वास्तुशास्त्र के सभी ग्रंथ उस इलाके की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखे गए है। मगर आये दिन उन को दिल्ली से कन्याकुमारी तक भी स्थानों पर लागू किया जाता है। एक वास्तुशास्त्र में तो ऐसा कहा गया है कि ब्राम्हणों को घर होने ही नहीं चाहिए। उस काल के हिसाब मे यह बात ठीक होगी भी। पर अब भी हम अंधे बनकर उसे अपनाए क्या ?
आजकल वास्तुशास्त्र के द्वारा जो बात स्पष्ट नहीं की जाती क्योंकि सेंकड़ों साल पहले वास्तुशास्त्र के कई वास्तुशास्त्र रुप थे। उनके लेखक भी कई थे – वराहमिहीर, भृमु,मनुसार, मयमत वगैरा। हर एक का अलग ग्रंथ, स्वतंत्र स्पष्टिकरण और खुद के प्रांत की आबोहवा, सामाजिक नियम, उपलब्ध साहित्य इन सबका विचार करके बनाये गए मकान एक जैसे होना असंभव है। हर एक ने अपने सुविधा के अनुसार नियम बनाये थे।
पानी पश्चिम दिशा की ओर रखा हो तो  वास्तुशास्त्र के अनुसार दुर्भाग्य का कारण होता है। मुबंई में तो अरबी समुद्र पश्चिम दिशा की ओर है और मुबंई तो हमारे देश का प्रमुख व्यापारी शहर है। वहाँ कितनी बड़ी आर्थिक बातें दिनरात चलते रहती है। फिर कैसा आया दुर्भाग्य ? आजकल के वास्तुपंडित कहते हैं कि  मुबंई में शहर को समुद्र में मिट्टी भरकर बनायी गयी जमीन पर बसाया गया है इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम वहाँ पर लागू नहीं होते। मगर पूरा मुबंई शहर ऐसी जमीन पर नहीं बसा है। फिर इस सवाल का क्या जवाब होगा ?
अपने यहाँ का इतिहास देखना होगा। हमारे मराठी शासक पेशवेजी ने सुखसमृध्दि प्राप्त हो इसके लिए उत्तर दिशा की ओर मुख हो ऐसे दरवाजे बनवाए। पुना का शनिवारवाडा लिजिए। उसका बड़ा सा प्रवेशद्वार उत्तर दिशा की ओर है। फिर भी वे मुसीबतों से हैरान हो गए थे। कर्ज के बोझ से लद गए थे।
वास्तुशास्त्र की एक किताब में लिखा है कि पूर्व दिशा की ओर से बहनेवाली नदियाँ ही उस प्रदेश को सुजलां सुफलां बना सकती है। उस जमानें में कुछ खास इलाकों में ऐसा हो गया होगा मगर यह संसारभर का नियम नहीं हो सकता। भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल इन राज्यों में पूर्व दिशा की ओर बहनेवाली नदियाँ है ही नहीं। परंतु इन राज्यो में समुध्दि नहीं है ऐसा नहीं कह सकते। तिरूपति का मंदिर वहाँ की वास्तू के कारण बहुत धनवान है। अन्य मंदिर उनकी वास्तु की वजह से गरीब हैं। भगवान भी इस वास्तू के लफड़े से छूट नहीं पाते।
और एक सवाल पैदा होता है। वास्तु के प्रति इतना प्यार अभी क्यो उमड़कर आया है। यह सवाल सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरुप का है। उसके चार कारण हो सकते हैं।  वे हैं – अपनी असफलताओं का कारण वास्तू को बताना। कई लोग रातभर में अमीर हो जाते हैं। फिर वे किसी वास्तुपंडित को पापविमोचन करने हेतु, प्राप्त धन से भगवान को भी हिस्सा लेने के लिए बुला लेते हैं। भगवान भी बहुत जल्द उनकी पुकार सुन लेते हैं। ऐसी अंधश्रध्दाएँ कभी  कभी बीमारियों की तरह फैल जाती हैं।एखाद मंत्री ऐसी ही कुछ बातों के लिए वास्तुशास्त्रज्ञ से मिलता है और फिर उसके पीछे अन्य लोग भी उसी राह से लगते हैं।
इन सारी बातों का दुष्परिणाम मकान बनाने वाले बेपारियों को भुगतने पड़ते हैं।  आधुनिक वास्तुतज्ञ अलग-अलग 50 विषयों का पांच साल तक भरसक अध्ययन करते हैं इतना परिश्रम करने के बाद प्राप्त ज्ञान को कुछ लोग क्षणभर में फालतू करार देते हैं। उसमें से कई लोगों को कॉलम, लिटेंल, बीम इनके बीच का फर्क भी मालूम नहीं होता। फिर भी पूरा निर्माण कार्य और पूरे शहर की रचना के बारे में वे सलाह देते रहते हैं। लोग भी उनकी बातें मानते हैं। मेरे यहाँ कई आर्किटेक्ट विद्यार्थी निराश होकर आते हैं और अपने वास्तुशास्त्री के बारें में शिकायत करते हैं। मकान का निर्माण का परफेक्ट नक्शा बनाने के बाद हमारे ग्राहक किसी वास्तुविद को ले आते हैं। यह ज्ञानी हमें कई सुधार सुझाता है जो मकान को विद्रूप बना दैते है और ऐसे सुधार करना उस ग्राहक के हित में नहीं होते।
किसी वास्तुविद ने देवेगौडाजी से कहा “आपके घर में प्रवेश करने हेतु दो सीढियाँ है इसलिए आप पूरे पाँच साल तक शासन नहीं कर पायेंगे।  आर्किटेक्ट ने एक आयडिया की।  प्रवेशद्वार के पास एक गढ्ढा खोदा और वहाँ एक फर्श बिठाकर नाममात्र की क सिढी बनायी। तीन सिढ़ीयाँ हो जाने से अब सभी खुश हो गए। मगर इस तिसरी सीढ़ी को भी देवेगौड़ाजी को पाँच साल तक टिका पाना संभव नहीं रहा।
एन. टी. रामारावजी को सलाह दी गई थी कि उनके सेक्रेटरिएट की उत्तर दिशा में कुछ मीटर का एक खुला पॅसेज होना चाहिए। वहाँ पर बहुत सा धन खर्च करके वहाँ की  झोपडियाँ हटाई गई और रामारावजी के लिए उत्तर दिशा में बड़ासा प्रवेशद्वार बना। गया। मगर दुर्भाग्य से जल्द ही उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटाया गया और साक महीनों के बाद ही वे स्वर्गवासी हो गए। वास्तुशास्त्र के अनुसार परिर्वतन करने के लिए जनता के करोड़ो रुपये मंत्री गण अपनी इच्छाके अनुसार खर्च करते रहते है। उनके विरोध में न्यायलय में जनहितयाचिका पेश करनी चाहिए।दुःख की बात यह है कि इन वास्तुशास्त्र विदों पर किसी तरह की बंदी नहीं और कोई भी कानून उनपर लागू नहीं होता। उनके ये सभी कार्य ग्राहक सुरक्षा कानू  के अंतर्गत लाने चाहिए। समाचारपत्र, टिव्ही और अन्य मिडियावालों को सजग रहकर उनकी प्रशंसा करना बंद करना चाहिए। वास्तुशास्त्र के मूल ग्रंथ में कहा गया है कि भोंदू लोगों के द्वारा ऐसा व्यवसाय किया जाय तो उन्हें कड़ी सजा देनी चाहिए। इस मामलें में व्स्तुपंडितों का क्या कहना है ?
ख्रिस्टोफर रेन ने एक चर्च बनवाया। उसके भीतर एक भी खंबा नहीं था। वह चर्च ढह जाएगा ऐसा भय सबको हो रहा था मगर ख्रिस्टोफर ने दावे के साथ कहा कि वह एकदम पक्का बना है और सौ साल तक जरुर टिकेगा। लोगों का भय खत्म करने हेतु अंत में उसने एक खंबा भीतार खड़ा किया। मगर यह खंबा छत तक पहुँच ही नहीं सका छह इंच जानबूझकर छत के नीचे रखा था। इस खंबे से छत को नहीं मगर लोगों की मानसिकता को सहार मिल रहा था।
“और एक दुर्भाग्य की बात यह है कि आये दिन ख्रिश्चन और मुस्लीम लोग भी वास्तुशास्त्र के भंवरे में फंस चुके है।  इस लहर के विरोध में लड़ रहा हूँ।  मुझे अब स्वयं-सेवकों की मदद चाहिए।  इस संदर्भ में मेडिकल रेमेडीज एक्ट 1910  वास्तुशास्त्र के व्यवसाय लिए बन जाना चाहिए। वास्तुशास्त्र के जानकार लोगों ने अपना मत लिखित रूप में सूचित करना चाहिए।  इस विषय की अंधश्रध्दाओं पर रोकथाम लगाने के लिए महाराष्ट्र अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति के जैसी समितियाँ बननी चाहिए ”
आर. व्ही. कोल्हटकर
डेक्कन हेरॉल्ड से साभार
http://mahaanis.com/wp-content/uploads/2016/09/Presentation1-1.jpg 
महाराष्ट्र अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति  –

काले धन पर लगाम के नाम पर मुद्रा परिवर्तन-कितना सही कितना गलत एक विश्‍लेषण

काले धन पर लगाम के नाम पर मुद्रा परिवर्तन-कितना सही कितना गलत एक विश्‍लेषण
संजीव खुदशाह
आज सुबह घरों में काम करने वाली एक महिला ने बताया की 500 और 1000 रूपए के नोट बंद हो गये है। वो काफी परेशान लग रही थी, उसने आगे बताया की इस रविवार उसकी बी सी खुली थी जिसके 12000 रूपए(500 और 1000 नोट में) उसे मिले है। लेकिन आज ही मुहल्‍ले के किराना दुकान वाले ने 500 नोट के बदले किराना देने से इनकार कर दिया, वो बच्‍चे के दूध के लिए भटक रही थी। मै इस खबर से हतप्रद हो गया सहसा मुझे यकीन नही हुआ लेकिन न्यूज़पेपर की हेड लाईन से उसके बातों पर यकीन होगया।
मैने कहा की तुम बैंक में पैसे बदल सकती हो बहुत आसान है। तो उसने बताया की उसका बैंक में एकाउंट ही नही है। दर असल यह समस्‍या लगभग हर मध्‍यम, निम्‍न मध्‍यम परिवार की है।
मैं बताना चाहूँगा की 500 एवं 1000 रूपये के नोट आज 9 नवंबर 2016 की बीती रात से अवैध(बंद) कर दिये गये है। उनकी जगह 500 तथा 2000 के  नये नोट जारी किये गये है। इसके पीछे आर बी आई का तर्क है जो आज के अधिकृत विज्ञापन में विस्‍तृत रूप से सामने आया है। वे इस प्रकार है
1 काले धन पर लगाम, 2 भ्रष्‍टाचार पर लगाम 3 जाली नोट पर रोक 4 आतंकवाद का वित्‍तपोषण पर नकेल आदि
सरकार के इस फैसले पर चारों ओर से प्रतिक्रिया आ रही है कुछ इसे साहसी कदम बता रहे है तो कूछ लोग केवल सनसनी पैदा करने वाला कदम बता रहे है। कुछ लोग ड़ॉ अंबेडकर के हवाले से भी इस तर्क का समर्थन कर रहे है।
डॉं अंबेडकर ने नही कहा की 10 वर्ष में नोट बदलने से भ्रष्‍टाचार में कमी आयेगी
हालांकि प्रख्‍यात अ‍र्थशास्‍त्री एवं आर बी आई के जनक डॉं अंबेडकर के हवाले से ये खबर फैलाई जा रही है की वे प्रति 10 वर्ष में नोट बदले जाने के पक्ष में है। उनके निम्‍न उद्हरण जो उनकी प्रसिध्‍द किताब  (रूपए की समस्‍या) Problem of Rupee से लिया गया है
‘And as the Government chose to have legal-tender notes, the Legislature in its turn insisted on their being of higher denomination. At first it adhered to notes of Rs. 20 as the lowest denomination/n, though it later on yielded to bring it down to 10, which was the lowest limit it could tolerate in 1861. Not till ten years after that, did the legislature consent to the issue of Rs. 5 notes, and that, too, only when the Government had promised to give extra legal facilities for their encashment. [f1][f20]
यह उध्‍दहरण इस किताब में सर रिचर्ड टेम्‍पल के हवाले से लिया गया है इसका हिन्‍दी अनुवाद इस प्रकार है।
‘’सर्व प्रथम विधान मण्‍डल ने कम से कम मूल्‍य वर्ग के रूपए में 20 रूपए के नोट को जारी करने का बल दिया। परंतु बाद में वह इस मूल्‍य वर्ग को घटाकर दस रूपय के नोटो पर सहमत हो गई और यह बाद तक विघानमण्‍डल ने 5 रूपय के नोटो के जारी किये जाने की अनुमति नही दी और यह अनुमति तभी दी गई जब सरकार ने उनके भुनाने के लिए अतिरिक्‍त सुविधाएँ देने का वचन दिया’’
वाल्‍यूम 12 पृष्‍ठ 57 रूपये की समस्‍या उद्धव और समाधान
द्वारा बाबासाहेब डां अंबेडकर सम्‍पूर्ण वाडमय

गौर तलब है कि इस संदर्भ को डॉं अंबेडकर के नाम पर समाचार पत्र पत्रिकाओं सोशल मीडिया में प्रसारित किया जा रहा है। ऐसा करने के पीछे क्‍या मकसद है ये एक षड्यंत्र है या अज्ञानता यह एक जांच का विषय है। जबकि उक्‍त उदाहरण को ध्‍यान से पढेगे तो आप पायेंगे की इसमें कुछ और बात लिखी गई, 10 वर्ष में मुद्रा बदले जाने संबंध में यहां कोई बात नही की गई है।
यहां यह बताना जरूरी है की सरकार ने एक अच्‍छे मकसद से मुद्रा परिवर्तन का कदम उठाया है लेकिन नाम न बताने की शर्त पर एक व्‍यवसायी बताते हे कि विगत 5-6 दिनों से भारी मात्रा में कुछ धनिको द्वारा बैंक में धन जमा कराया जा रहा था। आशंका है की सरकार के इस निर्णय की भनक कुछ धनकुबेरो को लग गई थी।
क्‍या काले धन पर लगाम लगेगा?
जैसा की आर बी आई ने कालाधन, जाली नोट, आतंकवाद पर रोक लगाने की बात कही है। चूकि बड़े नोट बंद नही हुये है इसलिए इन समस्‍याओं पर क्षणिक असर तो पड़ेगा लेकिन बाद में समस्‍या जस की तस रहेगी। क्‍योकि काले धन का कैश ट्रांजेक्‍सन आसान होता है।
आईये जाने की काला धन कहां जमा है किन पर कार्यवाही की जरूरत है
1) भूमि पति- कालाधन का सबसे आसान निवेश है ज़मीन खरिदी। भारत में भूमि सीलिगं एक्‍ट लागू है यानि कोई भी व्‍यकित 10 एकड़ से ज्‍यादा सिंचित भूमि नही रख सकता। लेकिन इस नियम को या तो सीथील कर दिया गया या इसकी धज्‍जीयां उड़ा दी गई । आज एक ओर एक व्‍यक्ति के पास सर छिपा ने को न छत है न जमीन, तो दूसरी एक एक व्‍यक्ति के पास 100 से 1000 एकड़ भूमि के मालिकों की संख्‍या लगातार बढती जा रही है। आजादी के बाद काले धन का सबसे ज्‍यादा निवेश भूमि में हुआ है। अत: सीलिंग अधिनियम को और मजबूत बनाने की जरूरत है साथ ही जरूरत है उसे कड़ाई से लागू करवाने की।
2) स्‍वर्ण खरीदी- डॉं अंबेडकर अपनी किताब रूपये की समस्‍या में बताते है की सोवियत रूस समेत कुछ विकसित देश में स्‍वर्ण की खरीदी की सीमा बांधी गई है। भारत में काला धन निवेश की दूसरी सबसे पसंदीदा जगह स्‍वर्ण खरिदी है। अत: स्‍वर्ण खरीदी पर अंकुश लगाया जाना चाहिए तथा पूर्व में घरो में जमा सोना का घोषणा पत्र लिया जाना चाहिए।
3) राजनीतिक पार्टियो को चंदा- चूकि राजनीति पार्टी को दिया जाने वाला चंदा आर टी आई के अंतर्गत नही आता इसलिए यहां निवेश अत्‍यंत अच्‍छा माना जाता है बडे अद्यौगिक घराने वे इसके सहारे संविधान में संशोधन अपने व्‍यसायीक लाभ को बढाने के लिए करते रहे है।
4) धार्मिक स्‍थल को दिया जाने वाला धन- भारत एक धार्मिक देश है लोग अपनी आत्‍म संतुष्टि के लिए चंदा देते है ते वहीं गुप्‍त धन के रूप में काला धन भी खूब दिया जाता है। उसी प्रकार काला धन को सफेद बानने का गोरख धधा भी किया जाता है। पिछले दिनो ऐसा ही मामलो सामने आया एक संत काला धन को सफेद करने का समाचार मीडिया मे सुर्खियों में था।
5)शेयर एवं महंगी चल संपत्ति- इसके बाद कालाधन का निवेश शेयर बाजार तथा महँगी चल सम्‍पत्ति में किया जा रहा है।
यदि वास्‍तव में कालेधन/ आतंकवाद/ जाली नोट में अंकुश लगाना है तो इन 5 बिन्‍दुओ पर गौर करना आवश्‍यक है। क्‍याकि काला धन की खपत की गुन्‍जाईश जिस देश में ज्‍यादा होगी वहां भ्रष्‍टाचार/ आतंकवाद/ जाली नोट का बजार फलेगा फूलेगा।
अत: सबसे पहले आज़ादी के बाद काला धन जमा कररने वाले लागो पर कड्री कार्यवाही किया जाना चाहिए तभी भविष्‍य में लोग इससे बाज आयेगे। मुद्रा बदलने की प्रक्रिया को काला धन पर प्रहार के रूप में देखा जाना उचित नही है क्‍योकि 1946 और 1978 में भी इस प्रकार मुद्रा की वापसी या परिवर्तन हुआ था किन्‍तु काला धन पर कितना अं‍कुश लगा ये बात किसी से छि‍पी नही है।
बहर हाल सरकार के फैसले का स्‍वागत है देखना है कि इन पांच बिन्‍दुओ पर कठोर कदम कब उठाया जायेगा या मुद्रा (वापसी) परिवर्तन ग़रीबों की परेशानी का सबब बनकर रह जायेगा।
 [f1]For such extra facilities, and measures adopted to materialise them, Cf. the interesting speech of the Hon. Sir Richard Temple on the Paper Currency Bill dated January 13, 1871, S.L.C.P., Vol. X, pp. 22-25

लोकतन्त्र के मुंशी : प्रेमचन्द

लोकतन्त्र के मुंशी : प्रेमचन्द
कॅंवल भारती
(उनके लिएजिनकी नजर में प्रेमचन्द सामन्त के मुंशी हैं)
                किसी उस्ताद शाइर का शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है बहुत मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ प्रेमचन्द हिन्दी जगत के ऐसे ही सितारे थेजिनके होने से स्वयं हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ है। वे लोकतन्त्र के मुंशी थेसामन्त के नहींजैसाकि कुछ दलित चिन्तक मानते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों पर अलग-अलग तरह से और अलग तरीकों से काफी बातें हो चुकी हैं। यहाँ मैं उनके अग्रलेखों और पत्रों के हवाले से उन्हें याद करना चाहूँगा।
                 शुरुआत मैं जयशंकर प्रसाद के नाम उनके एक पत्र से करूंगाजो उन्होंने 24 जनवरी 1930 को लिखा था। प्रसाद जी ने उन्हें अपना उपन्यास कंकाल’ भेजा था। यह पत्र उसी की प्रशंसा में लिखा गया था। उन्होंने लिखा था-
प्रिय प्रसाद जी,
पहले मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं कंकाल’ पर आपको बधाई दूँ ! मैंने इसे आदि से अन्त तक पढ़ा और मुग्ध हो गया। आपसे मेरी जो पुरानी शिकायत थीवह बिल्कुल मिट गई। मैंने एक बार आपकी पुस्तक समुद्रगुप्त’ की आलोचना करते हुए लिखा था कि आपने इसमें गढ़े मुर्दे उखाड़े हैं। इस पर मुझे काफी सजा भी मिली थीपर जो लेखनी वर्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती हैइस तरह दिलों को हिला सकती हैउसेफिर वही बात मेरे मुंह से निकलती हैक्षमा कीजिएपूर्वजों की कीर्ति का भविष्य के निर्माण में भाग होता है और बड़ा भाग होता है,लेकिन हमें तो नये सिरे से दुनिया बनानी है। अपनी किस पुरानी वस्तु पर गर्व करेंवीरता परदान परतप परवीरता क्या थीअपने ही भाईयों का रक्त बहाना। दान क्या थाएकाधिपत्य का नग्न नृत्यऔर तप क्या थावही जिसने आज कम-से-कम 80 लाख बेकारों का बोझ हमारी दरिद्र जनता पर लाद दिया है। अगर 5 रुपए प्रतिमास भी एक साधु की जीविका पर खर्च होतो लगभग 20 करोड़ हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने तप के आदर्श की भेंट हो जाते हैं। किस बात पर गर्व करेंवर्णाश्रम धर्म परजिसने हमारी जड़ खोद डाली?’ (प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्यकमलकिशोर गोयनका, 1988, पृष्ठ 25-26)
                आज देश में आरएसएस-भाजपा की सरकार उसी अतीत पर गर्व करने को राष्ट्रवाद बता रही हैजिस पर प्रेमचन्द सवाल खड़े करते हैं। प्रेमचन्द के समय में 80 लाख बेकारों का बोझ भारत की दरिद्र जनता पर था। आज यह संख्या करोड़ों में हो सकती हैअतिश्योक्ति नहीं कि यह संख्या पचास करोड़ से भी ज्यादा हो। धर्म के नाम पर निठल्लों की इस विशाल संख्या को पूंजीपति और जनता दोनों मिलकर पाल पोस रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूंजीपतियों का धन भी जनता के शोषण से ही इकट्ठा किया हुआ धन है। इस प्रकार आज एक साधु की जीविका पर पुराने तप के आदर्श की भेंट’ चढ़ने वाली गाढ़ी कमाई 50,000 हजार करोड़ से भी अधिक हो सकती है। आप अन्दाजा लगाइए कि मरे से मरा बाबा भी धर्म के नाम पर आज सौ दो सौ करोड़ आसानी से जमा कर लेता है। 1928 में यही बात जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक मदर इंडिया’ में लिखी थी,तो हिन्दुओं ने उस पर चैतरफा हमले किए थेऔर उन्होंने मदर इंडिया’ को साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन की किताब घोषित कर दिया थाजबकि हकीकत में कैथरीन मेयो ने हिन्दू साम्राज्यवाद को नंगा किया था।
डा. आंबेडकर का मत था कि जातिव्यवस्था एक राष्ट्रविरोधी संस्था हैऔर भारत का मजदूर राष्ट्रवाद में नहींअन्तरर्राष्ट्रवाद में विश्वास करता है। हम देखते हैं कि यही बात प्रेमचन्द 1933 में रेखांकित कर रहे थे। उन्होंने 27 नवम्बर 1933 के जागरण’ में लिखा था-
राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ हैउसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थीमगर उस घेरे के बाहर जो संसार थाउसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बॅंटा हुआ हैऔर सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगासंसार में शान्ति का होना असम्भव है। जागरूक आत्माएँ संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैंलेकिन राष्ट्रीयता के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।’ (विविध प्रसंग, 2, अमृतराय, 1980, पृष्ठ 333-34)
राष्ट्रवाद के प्रश्न पर दोनों विचारकों में कितनी बड़ी समानता है। डा. आंबेडकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक दुधारी चेतना हैजो एक तरफ अपने धर्मसमुदाय के प्रति भ्रातृत्व की बात करती हैतो दूसरी तरफ अपने से भिन्न समुदायों के प्रति नफरत की भावना रखती है। उन्होंने एक जगह मजदूरों के सन्दर्भ में लिखा है कि राष्ट्रवाद कोई गण्डा-ताबीज नहीं हैजिसे गले में बांधने से उनकी सारी समस्यायें  दूर हो जायेंगी। उन्होंने कहा कि मजदूर राष्ट्रवाद में नहीं अन्तरराष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं।
आज राष्ट्रवाद के नाम पर आरएसएस और भाजपा के आक्रामक हिन्दुत्व का मुकाबला साहित्य में प्रेमचन्द की विरासत को आगे बढ़ाकर ही किया जा सकता है।
जब राष्ट्रवाद का जिक्र आता हैतो पूंजीवाद का जिक्र जरूर आयेगा। क्योंकि राष्ट्रवाद वह बीमारी हैजो अनेक जनविरोधी बीमारियों को दावत देती चलती है। अगर राष्ट्रवाद है,  तो उसके साथ पूंजीवादधर्मवादजातिवाद और अस्मितावाद की बीमारियां स्वयं सक्रिय हो जाती हैं। ये हमजोली बीमारियां हैंजिनका आपस में एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूंजीवाद ने जनता के शोषण का जो साम्राज्य कायम किया हैराष्ट्रवाद धर्म और जाति के हथियारों से उसकी सुरक्षा करता है। डा. आंबेडकर ने पूंजीवाद को दलित वर्गों का शत्रु करार दिया थातो प्रेमचन्द भी इसे अंधा पूंजीवाद कहते हैं, जो गरीबों का दुश्मन है। 6 नवम्बर 1933 के जागरण’ में प्रेमचन्द ने कितना सही लिखा था-
                ‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जायउनकी बला से। कहाबत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा थाजिस पर वह बैठा थायह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा हैजिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रहा है।’ (वहीपृ. 331)
                इसी जगह प्रेमचन्द सेठ पुनपुनवाला और मि. बुल का उदाहरण देकर आगे कहते हैं कि जब किसान निपट मूर्ख थातो उसके लिए काले और गोरे पूंजीपति में कोई अन्तर न था। परजब धीरे-धीरे उसने राजनैतिक ज्ञान सीखाराष्ट्र और जाति जैसे शब्दों से उसका परिचय हुआतो उसने सेठ पुनपुनवाला के वैष्णव तिलक और हिन्दूधर्म के प्रति असीम श्रद्धा और उनके द्वारा बनाए गए धर्मशालों और मन्दिरों को देखकर उन्हें अपना उद्धारक समझा। लेकिन जब पुनपुनवाला की मिलों में उसकी ऊख की खरीद होने लगीजब उनकी आढ़तों में उसका अनाज या सन तौला जाने लगा,तब उसे अनुभव हुआ कि सेठ जी बाहर से जितने बड़े धर्मात्मा और देशभक्त हैंभीतर से उतने ही लुटेरे और बन्धुद्रोही भी हैं और धन और देशप्रेम का यह सारा आडम्बर उन्होंने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रच रक्खा है। वहीं उसे दूसरा अनुभव यह हुआकि मि. बुल इन सेठ पुनपुनवाला से कहीं खरेसच्चे और सज्जन हैं। उनके मिल में उसकी ऊख झटपट तुल जाती हैऔर तुरन्त दाम मिल जाते हैं। उनकी आढ़तों में भी ज्यादा धाँधली नहीं होती।’ (वहीपृ. 332)
                सम्पत्ति के सवाल पर डा. आंबेडकर संसाधनोंशिक्षाउद्योग और भूमि के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में थे और सम्पत्ति पर निजी मालिकाना हक के खिलाफ थे। क्या ही अद्भुत है कि प्रेमचन्द इस सवाल पर इसी मत के थे। वे सम्पत्तिविहीन समाज के निर्माण के पक्ष में एक जगह लिखते हैं-
सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिकआत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैंउसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिएगेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैंदूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसक यन्त्र क्यों बनाते हैं वेश्याएँ क्यों बनती हैंऔर डाके क्यों पड़ते हैं इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगाजब तक सम्पत्ति-व्यक्तिवाद का अन्त न होगासंसार को शान्ति न मिलेगी।’ (वहीपृ. 335)
                प्रेमचन्द ने अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत को निजी सम्पत्तिवाद पर आधारित पूंजीवाद नहींबल्कि समाजवादी व्यवस्था चाहिए। जातिधर्म और सम्पत्ति के पिस्सुओं से साधारण जनता की मुक्ति केवल वर्ग और जाति विहीन समाज के निर्माण से ही हो सकती है।
धर्म भी सम्पत्तिवाद के ही अन्तर्गत आता है। और मन्दिर इसके शुरु से ही प्रतीक रहे हें। लेकिन मैं यहाँ  दलितों के मन्दिर-प्रवेश के मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ, जो आज भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि इस मुद्दे पर दलित उतने सक्रिय नहीं हें जितने कुछ सुधारवादी हिन्दू संगठन इसे जिन्दा रखे हुए हैं। यह मुद्दा शायद एक सदी से भी ज्यादा पुराना हो चुका है। 1930 में डा.आंबेडकर ने इस समस्या पर हिन्दुओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए नासिक में मन्दिर-प्रवेश का आन्दोलन किया थाजिसमें सनानती हिन्दुओं ने लाठी-डण्डों से हमला किया था। प्रेमचन्द भी शायद कर्मभूमि’ में मन्दिर-प्रवेश के ऐसे ही परिणाम को दिखा चुके हैं। अभी कुछ महीने पहले आरएसएस काडर के भाजपा सांसद तरुण विजय भी देहरादून में दलितों को मन्दिर में प्रवेश कराने में अपना सिर फुड़वा चुके हैं। स्पष्ट है कि आज भी बहुत से मन्दिरों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। डा. आंबेडकर ने अपने नासिक आन्दोलन के समय ही साफ कर दिया था कि दलितों की समस्या मन्दिर-प्रवेश की नहीं हैबल्कि उनकी समस्या सामाजिक और आर्थिक है। हिन्दी साहित्य में साहस से इस बात को कहने वाले लेखक प्रेमचन्द हैं। उन्होंने जागरण’ के 26 दिसम्बर 1932 के अंक में इस समस्या को गम्भीरता से उठाया था। उन्होंने लिखा था-
हरिजनों की समस्या मन्दिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर हैं। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फी सदी रोजाना मन्दिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फी सदी न कहकर अगर पांच फी हजार कहा जाएतो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मन्दिर-प्रवेश को कोई महत्व नहीं देते।....असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते हैंतो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिएनौकरियां देने में उनकें साथ थोड़ी सी रियायत करनी चाहिए। हमारे जमीदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हैं। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन देकरउनसे बेगार लेना बन्द करकेउनसे सज्जनता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या को आप ही हल करेगापर हिन्दू जाति अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती।’ (वहीपृ. 455)
                हालांकि प्रेमचन्द के ये विचार हिन्दुओं से अपील के रूप में हैंपर फिर भी उन्होंने मन्दिर-प्रवेश की अपेक्षा दलितों के आर्थिक उत्थान का पक्ष लिया था। आज 2016 में भी दलितों की बहुसंख्यक आबादी जीविका के सम्मानित साधनों से वंचित है। ताजा उदाहरण देखना होतो गुजरात के ऊना तालुका के उन दलित परिवारों का हाल देख लीजिएजिनके चार युवकों को इसी 11 जुलाई को गोरक्षकों ने बांधकर लोहे की राडों से मारा था। उनके पास गन्दे पेशे के सिवा कोई जीविका नहीं है और इस गन्दे पेशे से भी वे एक दिन में 150 रुपए ही कमा पाते हैं। अभी परिमल दाभी की एक रिपोर्ट 24 जुलाई के इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी हैजिसमें वह लिखते हैं कि उस गाँव में दो मन्दिर हैं-रामजी मन्दिर और स्वामीनारायण मन्दिर,और दोनों में ही दलितों का प्रवेश वर्जित है। परिमल लिखते हैं कि गाँव में मन्दिर को लेकर कोई तनाव नहीं हैक्योंकि गाँव के दलित मन्दिर का नियम तोड़ने की कभी कोशिश ही नहीं करते।
                स्वतन्त्र भारत में जनता के शोषण पर राजाओं और नवाबों की तरह ऐश करने वालों में पूंजीपतिभ्रष्ट राजनेता और धर्मगुरु हैंजिनके कारनामे अखबारों में आते रहते हैं। प्रेमचन्द के जमाने में किसानों के नेता जमींदार थेऔर वे ऐसा नेता थे कि किसान-जनता का खून चूस लेते थे। प्रेमचन्द ने अपने अग्र लेखों में इन जमीदारों को खूब उधेड़ा है। एक लेख का जिक्र करना चाहूँगा। यू.पी. कौंसिल में 1934 में होम मेम्बर ने एक बिल पेश किया थाजिसमें बकाया लगान पर 12 प्रतिशत की बजाए 6 प्रतिशत ब्याज की और लगान न देने पर किसान को चार साल तक बेदखल न करने की व्यवस्था की गई थी। जमींदारों ने इस बिल का विरोध किया। इस पर प्रेमचन्द ने 26 फरवरी 1934 के जागरण में लिखा कि कौंसिल में तो बहुमत जमींदारों का है और सरकार सदैव उनकी रक्षा करती रहती है। किसानों की गरीबी पर किसी को तरस नहीं आता। जमीदार उन पर यों ही लगान नहीं छोड़ देते। मार-धाड़कुरकी-सरसरी सब कुछ करके तब चुप होते हैं। जब इतने पर भी काश्तकार लगान पूरा नहीं अदा कर सकतातो वह9 फी सदी सूद कहाँ से देगा?’ आगे वे जमींदारों के लिए और भी कड़ी भाषा में लिखते हैं-
इन भले आदमियों को यह नहीं सूझता कि उन्हें 45 फी सदी का जो नफा होता हैवह तो मानो मुफ्त ही है। वह कोई परिश्रम नहीं करते,पसीना नहीं बहातेकेवल दो-चार शहने रखकर रुपए वसूल कर लेते हैं और बैठे मौज उड़ाते हैं। उनके मुकाबले में किसानों की क्या दशा हैएक लाख किसानों को खड़ा कर दीजिए। शायद ही किसी की देह पर साबित कपड़े निकलें। जमींदारों पर भी कर्ज इसलिए है कि वह आमदनी से ज्यादा खर्च करते हैं। काश्तकार इसलिए तबाह है कि उसकी खेती में न काफी उपज हैन जिसका अच्छा दाम है और उस पर एक न एक दैवी बाधा सदैव उसके पीछे पड़ी रहती है। मगर यहाँ  तो अपना पेट अफरना चाहिएकोई भूखा मरता होतो मरे।’ (वहीपृ. 508-09) 
                मगर आज एक सदी बाद भी भारत के किसान आत्महत्या कर रहे हैंतो प्रेमचन्द के ये शब्द आज के सरकार में बैठे नेताओं पर भी लागू होते हैं-यहाँ तो अपना पेट अफरना चाहिएकोई मरता हो तो मरे।
                प्रेमचन्द की कलम हर शोषण और अन्याय के विरोध में उठी इसमें सन्देह नहीं।
(25 जुलाई 2016 ) 

अत्याचार में दलित और मुसलमान एक समान !

अत्याचार में दलित और मुसलमान एक समान !
देश के निर्माण, विकास और जारी अत्याचार के खिलाफ दलित और मुसलमानों को एक मंच पर आना चाहिए

मुसलमानों की  जमातों और नेताओं की ओर से यह बात बहुत पहले से कही जाती रही है कि मुसलमानों की आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तारियों के संबंध का आधारसही नहीं हैं। बड़ी संख्या में मुसलमान आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार हैं  लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे है जो क़यास पर गिरफ्तार हुए हैं या उनके खिलाफ  सबूत और साक्ष्य की कमी पाई जाती है। इसके बावजूद न इन बातों पर कान धरा गया और न ही गिरफ्तारी में किसी कदर कमी महसूस आईबल्कि यह सिलसिला आज भी ज़ोर-शोर से जारी है।  हाल ही में इस तरह के उदाहरण हमारे सामने मौजूद है जिसमें बाबरी मस्जिद ब्लास्ट मामले में आरोपी नसीरुद्दीन अहमदजिन्होंने 23 साल जयपुर जेल में काटे और फिर उन्हें बरी कर दिया गयामोहम्मद आमिर का भी कुछ ऐसा ही मामला है। 14 साल जेल में काटने के बाद उनके ऊपर लगे 19  में से 17 आरोपों में उन्हें निर्दोष पाया गया। आमिर को दिल्लीरोहतकपानीपत और गाजियाबाद में करीब 10महीनों के अंतर से अलग-अलग जगहों पर 20 कम नुकसान पहुंचाने वाले  बम प्लांट करने के आरोप में जेल में रखा गया था।


लेकिन जिस तरह केंद्र सरकार के कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे होने का अलीगढ़ में जश्न मनाते हुए आयोजित विकास पर्व’ में कहा की, ‘आतंक के झूठे आरोपों के आधार  मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार रना चिंता का विषय है। और हमइसमें बदलाव लाने के बारे में सोच रहे है। लॉ कमिशन इन मामलों की कानूनी प्रक्रिया में बदलाव लाने के लिए रिपोर्ट तैयार कर रहा है। सुप्रीमकोर्ट के जज के नेतृत्व में यह रिपोर्ट तैयार की जा रही है। इसके साथ ही कई कानू विशेषज्ञ भी रिपोर्ट को बनाने में मदद कर रहे हैं।’ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल मुसलमान बल्कि देश की जनता और सरकार में मौजूद लोग भी इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैंफिर भी जो कदम बहुत पहले उठाया जाना था वह अभी तक केवल विचार तक ही सीमित है। कानून मंत्री ने यह बात उसक्त की जब उनसे मुस्लिम युवाओं पर आतंके के झूठे आरोप लगाए जाने और उनकी रिहाई के बाद उनके ामने आने वाली समस्याओं के बारेमें सवाल किया गया। इससे पहले िछले सप्ताह गृहमंत्री राजनाथ िंह ने भी यह मुद्दा उठाया था। उन्होंने सरकार ने आतंक संबंधित मामलों कोलेकर अपने दृष्टिकोण को बदला है। साथ ही उन्होंने पुलिस को सलाह दी थी कि इन मालमों को डील करते हुए विवेक से काम किया जानाचाहिए। कानून मंत्री की बात बहुत अच्छी है और हम इसका स्वागत करते हैंफिर भी मुसलमानों को लेकर भाजपा और आरएसएस की जो नीतियां अब तक सामने आती रही हैं उससे नहीं लगता कि वह इस मामले में गंभीर हैं और कोई बड़ा कदम उठा सकेंगे। लेकिन समय से पहले किसी बात को नकारना भी सही नहीं हैइसलिए मान लेते हैं कि जो कहा गया है वह जल्द ही पूरा भी किया जाएगा।

दूसरी ओर यह खबर भी आजकल खूब आम हो रही है की भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह किसी अतिपिछड़े गिरिजाबिन्द के घर खाना खा रहे हैं। वह ऐसा क्यों कर रहे हैं यह पूछने वाला तो कोई नहीं है। हां यह जरूर कहा जा रहा है कि जिस तरह कांग्रेस के राहुल गांधी दलित के घर खाना खाने पहुंच जाते हैं वैसे ही अमित शाह क्यों नहीं पहुँच सकते और वैसे भी इस मामले को ज़्यादह  गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है क्यूंकि इस तरह के दृश्य  तो आम तौर पर उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव से पहले नज़र ही आते रहे हैं। मज़ाक़ उड़ने वालों ने राहुल गांधी के दलित के घर खान खाने का उस वक़त भी मज़ाक़ उड़ाया और मज़ाक़ उड़ाने वाले इस वक़त भी मज़ाक़ उड़ाएंगे। लेकिन  बीजेपी को ख़ुद से एक सवाल करना चाहिए कि वह राहुल गांधी के एक असफल आइडिया की नक़ल क्यों करना चाहती है?

वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार अपने एक लेख ‘दोष समरथ का और समरस भोजन दलित के घर?’ में लिखते हैं की वैसे भाजपा की तरफ से मीडिया को भेजे गए आमंत्रण पत्र में गिरिजाबिन्द को दलित बताया गया है जबकि बिन्द अति पिछड़े हैं। बनारस से उनके सहयोगी अजय सिंह ने उन्हें बताया कि बिन्द और राजभर कई साल से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं। बिन्द मत्स्य पालन से जुड़े होते हैं और खानपान में मांसाहारी होते हैं। पत्रिका डॉट कॉम के डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी ने जब प्रदेश अध्यक्ष मौर्या जी से पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि गिरिजाबिन्द दलित नहीं है। हमारे सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि गिरिजाबिन्द पहले अपना दल में थे। फिर समाजवादी पार्टी से जुड़े और अब भाजपा से जुड़े हैं लेकिन भाजपा के नेता कहते हैं कि वे पार्टी के समर्थक हैं।


दूसरी तरफ यह भी हक़ीक़त है कि भारत में दलितों को मंदिरों में पूजा पाठ करने तक की इजाज़त नहीं हैउनके मंदिर अलग होते हैं और दूसरी जातियों के मंदिर अलग अमित शाह और राहुल गांधी से यह सवाल भी जरूर पूछना चाहिए की दलितों को देश के तमाम मंदिरों में दाखले की इजाज़त कब और कैसे मिलेगी और इस संबंध में  पार्टी और उनका नज़रिया है क्यों की सही बात यही है की अमित शाह हों या राहुल गांधीइनका या इन जैसे दूसरे नेताओं का किसी दलित के घर खाना खा लेना कोई ख़ास बात नहीं हैक्यों कह यह राजनीतिक लोग हैं और इनके हर कर्म के पीछे राजनीति होती है इसलिए देश में बदलाव तब तब ही आ सकता है  जब की  कांग्रेस और भाजपा के तमाम लोग देश के हर गाँव और हर घर में ऐसे ही उदाहरण पेश करेंऔर जो काम आज तक नहीं हो सकाइसकी उम्मीद आगे किन आधारों पर रखी जा सकती हैयह बात इसलिए भी कही जा रही है कि अभी कुछ ही दिन पहले की घटना है कि मंदिर में पुजारी दलितों के आने पर रोक लगाते हैं तो दूसरी ओर  दलित मंदिर प्रवेश कर इस परंपरा को तोड़ते हैं। लेकिन इस सब में उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद तरुण विजय पर देहरादून के पास चकराता में हमला होता है और जमकर पिटाई होती है। हमले और पिटाई की वजह सिर्फ यह थी की वो देहरादून के पोखरी क्षेत्र के एक प्राचीन शिव मंदिर में दलितों के एक समूह को प्रवेश कराने के लिए साथ गए थे

भारत के दलित और मुसलमान जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं और समाज जिस तरह उनकी अनदेखी करता आया हैइन  परिस्थितियों मेंसमाधान के दो चरण सामने आते हैं। एक: समाधान के लिए सामान्य मुद्दों पर उन्हें एकजुट होना चाहिएदो: साहस और उत्साह के साथ अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाते रहना चाहिए। क्योंकि अत्याचार से मुक्ति चुप्पी के रूप में कभी नहीं प्राप्त हो सकती। ख़ामोशी मृत्यु से ताबीर कि जाती हैऔर जीवित क़ौमों व समूहों  की पहचान है कि वह कानून का पास व लिहाज़ रखते हुए और शांति के साथ  न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए हमेशा सक्रिय रहते हैं। वहीं यह बात भी रखना चाहिए कि अगर अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की पहचान मिट गई या मिटा दी गई तो फिर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला होगा। इन परिस्थितियों में न देश में शांति  स्थापित होगीन विकास की मंज़िलें तय होंगीन देश आगे बढ़ेगा और न ही दुनिया में हमारी कोई हैसियत होगी।


मोहम्मद आसिफ इकबाल दिल्ली में रहते हैं और एक स्वतंत्र लेखक हैं, उनसे maiqbaldelhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है


मोहम्मद आसिफ इकबाल
E-8, अबुल फज़ल एन्क्लेव,
जामिया नगर, नई दिल्ली 25