Personality of the week Rajendra Gaikwad




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लेखक और केंद्रीय जेल अधीक्षक श्री राजेंद्र गायकवाड बता रहे हैं कि किस प्रकार वह साहित्य और जेल के बीच सामंजस्य बैठाते हैं। वह यह भी बताते हैं कि पिछले साल कैदियों ने श्रम करके दो करोड़ रुपया कमाया। इसमें से आधी रकम उन पीड़ितों को दी गई जिन्हें इन कैदियों के द्वारा हानि पहुंचाया गया था। देखिए राजेंद्र गायकवाड़ का यह महत्वपूर्ण वीडियो। https://www.youtube.com/channel/UCvKf... contact.dmaindia@gmail.com Web www.damindia.online

प्रस्तुत है 3 जनवरी 1954को फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को जर्मन भाषा में लिखे आइंस्टीन के खत का हिंदी अनुवाद

आइंस्टीन का ईश्वर के सम्बन्ध में एक खत


3 जनवरी 1954 को आइंस्टीन ने फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को एक खत लिखा, जो आगे चलकर बहुत मशहूर हो गया। दरअसल एरिक ने अपनी नई किताब - Choose Life: The Biblical Call to Revolt 


आइंस्टीन को पढ़ने के लिए भेजी थी,जिसके जवाब में आइंस्टीन ने चिट्ठी में अपने व्यक्तिगत विचार अभिव्यक्त किए थे। ये बात कम ही लोगों को मालूम है कि जन्म से यहूदी आइंस्टीन को इस्राइल से द्वितीय राष्ट्रपति बनने का आमंत्रण मिला था, जिसे उन्होंने एकदम से ठुकरा दिया था,क्योंकि वो यहूदी धर्म की इस बात में यकीन नहीं रखते थे कि - यहूदी ईश्वर की सबसे प्रिय संतानें हैं। ऐसे ही एक दूसरे अवसर पर जब आइंस्टीन येरुशलेम गये थे, तो उन्होंने वहां की प्रसिद्ध 'वेलिंग वॉल' पर कई युवा यहूदियों को प्रार्थना करते,नाक रगड़ते और रोते हुए देखा। ये देखकर आइंस्टीन ने कहा - ये भावुक नौजवान बीते हुए वक्त से दीवानगी की हद तकचिपके हुए हैं, इन्होंने भूतकाल को गले से लगा रखा है, जबकि भविष्य की ओर पीठ कर रखी है। 


प्रस्तुत है 3 जनवरी 1954को फिलॉसफर एरिक गुटकिंड को जर्मन भाषा में लिखे आइंस्टीन के खत का हिंदी अनुवाद -


"....भगवान शब्द मेरे लिए मानवीय कमजोरी की अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ और नहीं। बाईबिल, आदरणीय लेकिन बचकानी कहानियों के संग्रह से ज्यादा कुछ और नहीं है। और इसकी कोई भी व्याख्या, चाहे वो कितनी भी परिष्कृत क्यों न हो, इनके बारे में मेरे विचार नहीं बदल सकती। इनकी व्याख्याएं विविधताओं से भरी हैं और मूल लेखन से इनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे सभी धर्मों की तरह यहूदी धर्म भी बचकाने अंधविश्वास के अवतार से ज्यादा कुछ और नहीं है। यहूदी लोग,जिनमें गर्व के साथ मैं भी शामिल हूं और जिनकी मानसिकता से मैं गहराई से जुड़ा हुआ हूं, उनमें ऐसी कोई विशिष्टता नहीं है जो दूसरे लोगों में न हो। मैं अगर अपने अनुभव की बात करूं तो यहूदी लोग दूसरे लोगों से किसी भी तरह बेहतर नहीं हैं। हालांकि वो सत्ता विहीन हैं, इसलिए संवेदनाएं उनके साथ हैं, अगर इस बात को छोड़ दिया जाए तो मैं उनमें ऐसी कोई खास बात नहीं देखता जो इस धार्मिक धारणा को सही साबित करता हो कि यहूदी लोग ईश्वर की सबसे प्यारी संतानें हैं।


सामान्य तौर पर मैं इसे काफी दुखदायी पाता हूं कि एक तरह आप विशिष्ट होने का दावा करते हैं, और दूसरी ओर आप गर्व के बनावटी दोहरे आवरणों के बीच बचने और छिपने की कोशिश करते हैं। इनमें पहला आवरण बाहरी है जिसमें आप एक व्यक्ति होते हैं, जबकि दूसरा आवरण आंतरिक है जिसमें आप यहूदी हो जाते हैं। अब मैं खुले तौर पर कहता हूं कि जहां तक बौद्धिक प्रतिबद्धता का सवाल है, हमारे विचार नहीं मिलते, लेकिन मानवीय व्यवहार की मूलभूत बातों पर हमारे विचार एक-दूसरे के काफी करीब हैं। इसलिए मैं समझता हूं कि अगर हम वास्तविक मुद्दों की बात करें तो हम एक-दूसरे को कहीं बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।"


एक दोस्ताना शुक्रिया और शुभकामनाओं के साथ


आपका

ए.आइंस्टीन

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आखिर क्यों हार गई त्रिपुरा की माणिक सरकार

त्रिपुरा के चुनाव नतीजो के निहितार्थ और आदिवासी प्रश्न
विद्या भूषण रावत 
March 6, 2018 विद्या भूषण रावत त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से खबरे आ रही है के संघी कार्यकर्ताओ ने लेनिन की मूर्ति को बड़ी बेशर्मी से गिरा दिया है. वहा के संघी राज्यपाल तथागत राय को इसमें कोई गलत नहीं दिखा वो कहते है के यह भी एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुए सरकार की इच्छा है और उसका सम्मान होना चाहिए हालंकि अभी सरकार बनी नहीं है. वैसे खबरे आ रही है के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे है और कई लोग अपने घरो से भी नहीं निकल पा रहे है. ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक है. क्या यह भविष्य का संकेत है के अगले पांच साल केंद्र की तर्ज पर कोई काम नहीं होगा केवल पिछली सरकार की बुराइया और उसके समर्थको पर हमला होता रहेगा . नयी सरकार को चाहिए के वह अपने अजेंडे पर चले और सकारात्मक कार्य करे नहीं तो उत्तर पूर्व में भयावह स्थिति हो सकती है. खैर इन चुनावो के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है लेकिन पहले नतीजों की समीक्षा कर ली जाए बाकी प्रश्नों पर बाद में आया जाएगा. ६० सदस्यीय विधान सभा में ५९ में मतदान हुआ था और भाजपा को ४३% वोट मिले और माकपा को ४२.७% वोट प्राप्त हुए. लेकिन बराबर वोट प्रतिशत के बावजूद भाजपा को ३५ सीटे और भाकपा को मात्र १९ सीटें मिली जो वर्तमान चुनाव प्रणाली की खामियों को दर्शाता है. हकीकत ये है अगर देश में आनुपातिक चुनाव प्रणाली लागू होती तो दोनों पार्टियों को लगभग बराबर सीटे मिलती क्योंकि उनका वोट शेयर लगभग बराबर है.  हमारे जैसे बहुत से लोग पिछले एक दशक से भारतीय चुनाव प्रणाली में परिवर्तन की बात कर रहे है लेकिन ताकत पार्टिया उसका समर्थन नहीं करती क्योकी वर्तमान प्रणाली एक अल्पमत आधारित हा जो विपक्षियो के मतों को विभाजित कर बनती है और इसमें माफिया, मनी और मीडिया की बड़ी भूमिका है. तीनो के रोल अलग अलग है लेकिन मिलकर काम कर रहे है ताकि देश में एक पार्टी का राज्य कायम हो सके. वैसे कम्युनिज्म के नाम पर दुनिया भर में ऐसा हुआ है लेकिन ब्राह्मणवादी संघी तंत्र ये सब ‘पारदर्शी’ और ‘लोकंतांत्रिक’ तरीके से करेगा और त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में जो हुआ है वो उस तंत्र की कार्यशैली का प्रतीक है जिनका असली स्वरुप हमें अगले चुनावो में दिखाई देगा. त्रिपुरा की हार से बहुत लोग सदमे में है. बहुत लोग कह रहे है के मानिक सरकार जैसे इमानदार आदमी को हरा कर त्रिपुरा ने गलत संकेत दिए है और ये भी के भारत में ईमानदार व्यक्ति राजनीति में नहीं रह सकते. मेरे हिसाब से ये उत्तर पूर्व की राजनीती का सरलीकरण है. अगर लोग ईमानदार व्यक्ति को नहीं चाहते तो मानक सरकार इतने वर्षो तक मुख्यमंत्री कैसे रहते ? ईमानदार होना और असरदार होने में बहुत फर्क है. मानक सरकार की सी पी एम् ने केरल और बंगाल से भिन्न कोई कार्य नहीं किया और त्रिपुरा की कम्युनिस्ट पार्टी भी बंगाली सवर्णों की डोमेन कायम रखने वाली पार्टी बनी रही और त्रिपुरा और उत्तरपूर्व की भौगौलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को कभी भी अपनी राजनीती में नहीं ला पायी लिहाजा एक बड़े वर्ग की पार्टी बन कर रह गयी. सी पी एम् को देखना पड़ेगा के आज २५ वर्षो के राज के बावजूद भी वह कभी भी वहा की जनजातियो का दिल नहीं जीत पायी. आखिर ऐसा क्यों ? अभी लगातार त्रिपुरा में जनजातीय संघटनो के साथियो के संपर्क में हूँ और वो बता रहे के वामपंथियों को हराना इसलिए जरुरी था क्योंकि उन्होंने आदिवासी हको को ख़त्म करने के प्रयास किये. आखिर त्रिपुरा जैसे राज्य में जहाँ १९०१ में आदिवासियों की जनसँख्या ५८% थी वह १९८१ तक २८% रह गयी हालाँकि अभी के आंकड़े ये कह रहे है के यह ३१% है. अनुसूचित जातियों की आबादी १७% और पिछड़ी जातियों की आबादी २४%. सभी को अगर जोड़ दे तो ७२% आबादी देश के सबसे सीमान्त तबको है लेकिन संसाधनों पर इनकी भागीदारी कहा है ? त्रिपुरा में दलितों और आदिवासियों के आरक्षण की वो ही हालात है जैसे बंगाल और केरल में और त्रिपुरा सरकार उनकी संख्या २४% बताती है लेकिन उनके आरक्षण को लागु करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए. त्रिपुरा देश के उन राज्यों में है जहा मंडल आधार पर आरक्षण लागू नहीं है. आखिर इसका दोषी कौन ? सत्ता पर बंगाली भद्रलोक का कब्ज़ा है और अगर वह के दबे कुचले लोग अपना हिस्सा मांग रहे है तो किसका दोष ? हमें बताया जा रहा है के त्रिपुरा में ओबीसी आरक्षण इसलिए लागू नहीं किया गया क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजातियो के आरक्षण से ही ४८% कोटा जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने ५०% की लिमिट लगाई हुई है इसलिए उससे आगे नहीं बढ़ा जा सकता. पहली बात यह के क्या वाकई में त्रिपुरा सरकार के हर लेवल पर आदिवासियों की संख्या ३१% और दलितों की १७% है. क्या दलित आदिवासियों की भागीदारी बनाये रखने के लिए त्रिपुरा की सरकार ने कोई कोशिश की या ये डाटा केवल दिखाने का है. सभी जानते है के ओबीसी आबादी सत्ता के ढांचे से बाहर है और क्या त्रिपुरा सरकार का ये कर्त्तव्य नहीं था का उनको सत्ता में भागीदारी देने के प्रयास करती और सुप्रीम कोर्ट में ये बात रखती आखिर तमिलनाडु और कर्नाटक में भी तो सरकारों ने ५०% की सीमा को लांघा है और इससे कही भी मेरिट प्रभावित नहीं होती . क्या त्रिपुरा की वामपंथी सरकार ने कभी इन प्रश्नों को कोई महत्व दिया ? त्रिपुरा के जनजातीय लोग अपनी स्वायत्ता और अस्मिता को बचाने का संघर्ष कर रहे है. उनका साफ़ मानना है के उनके प्राकृतिक संशाधनो को चालाकी से उनके नियंत्रण से बाहर किया जा रहा है और त्रिपुरा में बाहर से आये लोगो के कारण उनके अल्पसंख्यक होने का खतरा है. दिल्ली में हम सब लोग देश के सारी समसयाओ को हिन्दू मुस्लिमान के चश्मे से देखते है लेकिन उत्तर पूर्व के मसले में इन सबके बावजूद अन्य बाते भी है जिनको समझना जरुरी है. बांग्लादेश से आ रहे शर्णार्थियो का मसला स्थानीय स्तर पर है और भाजपा ने उसको और हवा दी है लेकिन ये कहना के कोई मसला ही नहीं है झूठ है. उत्तरपूर्व में अनेक जनजातिया है और उनके अपने अंतर्विरोध भी है इसलिए उनको समझना जरुरी भी है और उनके हल के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करने होंगे लेकिन ये बात जरुर है के उत्तर पूर्व की स्वायत्ता के नाम पर भी दमदार लोगो का बर्चस्व कभी न कभी तो विरोध और विर्दोह झेलेगा ही. भाजपा ने बहुत चालाकी इन अंतर्द्वंदो को देखा और सत्ता के लिए वो सब तिकडम की जिनका वो विरोध करने का दावा करती रही है. इन अंतर्द्वंदो को उत्तर भारतीय राष्ट्रवाद के चश्मे से देखना आग से खेलना होगा . त्रिपुरा में वन अधिकार कानून के तहत भी आदिवासियों को लाभ नहीं हुआ. वह अभी भी सवाल कर रहे है के ये कानून क्या वाकई में उनके लिए बना है या नहीं ? शिक्षा और नौकरियों में दलित आदिवासियों की स्थिति तो नगण्य है और तकनीक तौर पर ओबीसी आरक्षण भी नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक त्रिपुरा में अभी भी चतुर्थ वेतन आयोग के अनुसार ही वेतन दिया जा रहा है जबकि देश भर में अभी ७ वे वेतन आयोग की बातो के आधार पर बात चल रही है. सरकारी कर्मचारियों का असंतोष भी सरकार के विरुद्ध काम किया. और ये भी सही है के २५ वर्षो तक भी एक पार्टी की सत्ता नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर विपक्ष नहीं है तो वो ताकते हावी होंगी ही जो नकारात्मकता के बहाने पे अपने अजेंडा थोपना चाहती है. वैसे त्रिपुरा और उत्तर पूर्व में भाजपा का अजेंडा बहुत पहले से चल रहा है और वो खतरनाक भी है. तथागत राय को बिना सोचे समझे वहा नहीं भेजा गया था और वह राज्यपाल बन्ने के शुरू से ही बेहद ही घटिया दर्जे की राजनीती कर रहे है और अपने पद की गरिमा के विरुद्ध काम किये जा रहे थे लेकिन उनका काम ही था के वह संघ के लिए माहौल बनाए और उसके कार्यकर्ताओं को अपना सुरक्षा कवच पहनाये. पहले भाजपा ने लोगो से बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियो को वापस भेजने की बात की लेकिन अब भारतीय नागरिकता कानून १९५५ में संशोधन कर संघ के शिष्यों ने इसका भी संप्रदायीकरण कर दिया है और उसका पूरा चुनावी फायदा लिया गया. भाजपा अब कह रही है बांग्लादेश से आने वाले हिन्दुओ को तो वो नागरिकता देगी लेकिन मुसलमानों को नहीं. इसके दुसरे मायने भी है, अब बाहर से आने वाला गैर क़ानूनी हिन्दू भी भारत की नागरिकता ले लेगा लेकिन देश में ईमानदारी से रह रहा मुस्लिम नागरिक हमेशा दवाब में रहेगा और उसको संघी सेना बंगलादेशी कह कर प्रताड़ित करती रहेगी. त्रिपुरा के चुनावो की इस पृष्ठभूमि को हम नहीं नकार सकते . सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है के भाजपा को छोड़ अन्य राष्ट्रिय पार्टियों ने इसमें कुछ नहीं किया. कांग्रेस ने शर्मनाक तौर पर विपक्ष का पूरा स्पेस संघ को सौंप दिया और नतीजा ये हुआ जो आज हम भुगत रहे है. वामपंथियों और अन्य दलों ने उत्तर पूर्व की हालातो पर कोई विशेष धयान नहीं दिया जिसके नतीजे में संघी प्रोपगंडा सफल हो गया . उत्तर पूर्व के संवेदनाओं को समझने की जरुरत है और उस पर हम दिल्ली की बहस न थोपे. जरुरत इस बात की भी है के तथाकथित राष्ट्रीय पार्टिया स्थानीय भावनाओं को समझे, सार्थक बहस चलाये और मुद्दों को छिपाने की कोशिश ने करें. त्रिपुरा का पूरा प्रश्न आदिवासियों के मुद्दों को किनारे करके बहस नहीं किया जा सकता. ये हकीकत है के बांग्लादेश में चकमा आदिवासियों के प्रति बेहद ही ख़राब रवैय्या चल रहा है. गत वर्ष एक अन्तराष्ट्रीय सम्मेल्लन में मेरी मुलाकात बांग्लादेश के चटगाँव क्षेत्र में कार्य कर रहे एक चकमा कार्यकर्ता से हुई जिसने वहा की सेना और इस्लामिक उग्रपंथियो द्वारा उन पर हमले की दास्तान सुनाई. वो इंटरव्यू प्रकाशित भी हुआ लेकिन उस साथी ने सुरक्षा कारणों से अपना नाम बदल देने की शर्त पर मुझे इतना विस्तृत इंटरव्यू दिया. कहने का आशय यह के अब समय आ गया है जब भारत, बांग्लादेश, मयन्मार, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और श्रीलंका गंभीरता से एक दूसरे के साथ बैठे और इन प्रश्नों पर विचार करें. जरुरत इस बात की है के हम अपने अपने देशो में धार्मिक, भाषाई अल्प संख्यको को पूर्ण सुरक्षा दे और उनकी समस्याओं को अपने देश के अन्दर की राजनीती में न लपेटे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो ये सभी लोगो के नाम पर अलग अलग देशो में बहुलतावादी राजनीती चलेगी और जिन लोगो की किसी भी देश में राजनितिक पैठ नहीं होगी वे फिर अपना अलग रास्ता तय करेंगे . त्रिपुरा में चुनाव के नतीजो से एक बात साफ़ है के तथाकथित राजनैतिक दल अभी भी ब्रह्मवादी मुख्यधारा की राजनीती में लगे जिसके फलस्वरूप हासिये में रह रहे लोगो के प्रश्न हमेशा हासिये पर ही रह जाते है और ताकतवर जातीय अपने राजनैतिक समीकरण बदल देते है. त्रिपुरा में कुछ नहीं हुआ केवल ताकतवर लोगो ने अपने को बचाने के लिए नए तेवर अपना लिए है और लाल की जगह अब  गेरुआ ओढ़ लिया है. देखना यह है के दलित आदिवासियों-पिछडो की 72% आबादी वाले त्रिपुरा को अभी  अपना मुख्यमंत्री बनाने में और सम्मानपूर्वक राजनैतिक भागीदारी करने के लिए.क्तिने और वर्षो का इंतज़ार करना पड़ेगा . क्या संघ देश की राजनीती को ध्यान में रखते हुए कोई आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने का दांव खेलेगा या एक बंगाली भद्रलोक की जगह में उसी बिरादरी का दूसरा नेता थोप कर ‘ताकतवर’ लोगो को खुश करेगा ताकि त्रिपुरा के सहारे बंगाल के माहौल को भी गरमाया जा सके ?