फिर इतना इठलाना किस बात का (कविता)

फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।
संजीव खुदशाह

यही ना वे तुम्हारी तरह अपनी नस्लों पर घमंड नहीं करते।
यही ना तुम्हारी तरह वे दूसरों की नस्ल पर नाक भौव नहीं सिकोड़ते।
कई जंतुओं को खत्म कर दिया तुमने, याद होगा तुम्हें।
कई जंगलों को कंक्रीट में बदल दिया, याद होगा तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।


यही न वे तुम्हारी तरह ऊंच-नीच, भेदभाव को नहीं करते।
तुम्हारी तरह अपनी मादाओं पर अत्याचार करना नहीं जानते।
इंसान-इंसान में नफरत करते हुये, शर्म नहीं आई होगी तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।

यही ना की वे तुम्हारी तरह भूत और भगवान को नहीं मानते
यही ना वे तुम्हारी तरह किसी अंधविश्वास और पाखंड को नहीं मानते.
नहीं बांटते अपनों को किसी ईश्वर के नाम पर।
नहीं चढ़ाते अपनों के बली किसी अंधविश्वास के नाम पर।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।


यही ना वह तुम्हारी तरह अपने बच्चों को पालने का एहसान नहीं बताते।
जन्म देने के एवज में खुद को नहीं पूजवाते।
तुम्हारी तरह अपने बच्चों को बुढ़ापे की लाठी नहीं बताते
परजीवी बन कर उनके अरमानों का गला नहीं घोटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

यही ना वे तुम्हारी तरह धन-संपत्ति का पहाड़ नहीं बनाते हैं।
यही ना उनके बीच नहीं होती, कोई लड़ाई जमीन जायदाद की।

पेड़ों को काटकर, वे पर्यावरण बचाने का ढोंग नहीं करते।

नदी तालाबों को पाटकर, जल पुरुष होने का ढोल नहीं पीटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

Publish on Navbharat 2/10/2022

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