Analysis of the Social Status of the Backward Classes

राष्ट्रीय प्रत्रिका 'हंस` जून २०१० अंक पृष्ठ-८६

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण

-रमेश प्रजापति

समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।

आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और  न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं  अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।

पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``

आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।

यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।

आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।

पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई  तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४

धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।

प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।

 

पुस्तक का नाम   आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक      -संजीव खुदशाह

ISBN    -97881899378

मूल्य      -  200.00 रू.

संस्करण  - 2010 पृष्ठ-142

प्रकाशक   -  शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

 

रमेश प्रजापति

डी-८, डी.डी.ए. कालोनी

न्यू जाफराबाद, शाहदरा,

दिल्ली-११००३२

मोबाईल-०९८९१५९२६२५


Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma" The torch of revolution!

तैलिक समाज की गौरव -- "संत मां कर्मा" 
क्रांति की मशाल हैं !

रामलाल साहू (गुप्ता), रायपुर (छत्तीसगढ़)

हमारे तैलिक समाज में अनेकों महानायकों ने जन्म लिया है ।
Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma"  The torch of revolution!

जिन्होंने समाज में होने वाले अन्याय और  अत्याचार का न सिर्फ विरोध किया बल्कि अपने हिम्मत और हौसले से अत्याचारियों को चुनौती भी दी । उनमें "संत मां कर्मा" का नाम प्रमुखता से लिया जाता है ।

ज्ञात इतिहास के अवलोकन से जो ऐतिहासिक जानकारियां छनकर आती हैं । उनसे यह तथ्य उभरकर आता है कि संत मां कर्मा का जन्म झांसी (उत्तरप्रदेश) के एक संपन्न तैलिक परिवार में हुआ था । जो तेल के व्यवसाय के अग्रणी व्यापारी थे । उनका तेल का व्यापार काफी वृहत्त स्तर पर फैला हुआ था ।

संत मां कर्मा बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तेजतर्रार थी । फलस्वरूप पिता के व्यवसाय में भी हाथ बंटाने लगी । परिणामस्वरूप पिताजी का व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी गति से आगे बढ़ने लगा ।

विवाह योग्य होने पर संत मां कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी परिवार में संपन्न हुआ । नरवरगढ़ के तैलिक वर्ग अपने तेल के सफल व्यवसाय के कारण अत्यंत संपन्न अवस्था में थे । उनकी यह संपन्नता मनुवादी और सामंतवादी वर्ग को बहुत अखरती थी ।

नरवरगढ़ की मनुवादी व सामंतवादी वर्ग, तेली जाति के प्रति सदैव कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते थे ।  जिससे तैलिक वर्ग चिंतित होने के साथ सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास भी करता रहा ।

लेकिन हद तो तब हो गई जब मनुवादियों और सामंतवादियों का षड्यंत्र चरम पर पहुंच गया ।

 घटना इस प्रकार है कि एक बार राजा का हाथी बीमार पड़ा । तेली जाति के विरोधी ईर्ष्यालु तत्वों ने राजा के वैद्य के साथ षड्यंत्र करके राजा के कान भरे कि, यदि हाथी को तेल के कुंड में नहलाया जाए, तो हाथी ठीक हो जाएगा । राजा ने चिंतित होकर कहा कि इतना तेल आएगा कहां से ?

जवाब में षड्यंत्री और धूर्त दरबारियों ने कहां की राज्य के तैलिक बहुत संपन्न है । वह आराम से और खुशी-खुशी राजा के हाथी के लिए एक कुंड तेल भर देंगे और इस कार्य से तेली समाज को प्रसन्नता का भी अनुभव होगा । कि हम तैलिक भी किसी रूप में अपने राजा के काम आए ।

इस तरह की उल्टे-सीधे तर्क देकर तैलिक जाति के ईर्ष्यालु और धूर्त दरबारियों ने राजा को रजामंद कर लिया और राजा के नाम से पूरे नगर में तैलिक समाज के नाम एक आदेश प्रसारित करवा दिया कि,

राजा के आदेशानुसार राजा के बीमार हाथी के लिए नगर भर के सभी तैलिक व्यापारी तेल के एक निर्धारित कुंड को भरेंगे और यह आदेश सभी तेल व्यापारियों के लिए राजा का अनिवार्य आदेश है ।

सामंतवादियों और मनुवादियों के इस षडयंत्र से तेली समाज अत्यंत आहत और चिंतित हो उठा । दरबारियों के षड्यंत्र के आगे तैलिक समाज को झुकना पड़ा और उन्होंने राजा के आदेश का पालन करते हुए तेल के निर्धारित कुंड को भर भी दिया ।

उसके बाद सभी तैलिकजन गंभीर चिंतन की मुद्रा में आ गए और फिर संत मां कर्मा के नेतृत्व में एक मीटिंग का आयोजन तैलिक समाज ने आयोजित की । जिसमें सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास हुआ कि, अब कोई भी तैलिकजन इस अन्यायी राजा के राज में नहीं रहेगा ।

तत्कालीन परिस्थितियों भी तेली जाति चूंकि एक व्यवसाई और उत्पादक जाति थी । अपने तेल की व्यवसाय के कारण ही तैलिक समाज ने प्रगति और सामाजिक सम्मान के क्षेत्र में एक ऊंचाई प्राप्त की थी ।  उस समय और आज भी हमारी तैलिक जाति आक्रामक भूमिका में नहीं थी । फलस्वरुप वह मनुवादी और सामंतवादी षड्यंत्रकारियों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थी ।

अतएव संत मां कर्मा के नेतृत्व व  सलाह से समस्त तैलिक समाज ने अन्यायी व ईर्ष्यालु राज व्यवस्था नरवरगढ़ को त्यागना ही उचित समझा ।

झांसी चूंकि संत मां कर्मा का मायका था । सो सभी तैलिकजन संत मां कर्मा के नेतृत्व में नरवरगढ़ को छोड़कर झांसी आ बसे ।

झांसी में व्यवस्थित होने के बाद संत मां कर्मा लगभग सभी सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगीं । संत मां कर्मा की सामाजिक प्रतिष्ठा दिनों दिन बढ़ती ही रही ।

कालांतर में काफी समय बाद समाज के बड़े बुजुर्गों ने तीर्थांटन की इच्छा संत मां कर्मा के समक्ष व्यक्त की  । तीर्थांटन हेतु संत मां कर्मा के नेतृत्व में झांसी के अनेकों बड़े-बुजुर्ग तीर्थयात्रा पर निकल पड़े ।

तत्कालीन परिस्थितियों में यातायात का भारी अभाव था । फलस्वरुप सभी तीर्थयात्री न्यूनतम जरूरी सामान के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े  । उस समय सबसे आसान भोजन खिचड़ी ही था । जो एक ही बर्तन में बगैर किसी अन्य परिश्रम से आसानी से बन जाता था ।  चावल-दाल-नमक और न्यूनतम  छोटे-छोटे बर्तन पर्याप्त था । लगभग सभी तीर्थ यात्रियों का आसान और नियमित भोजन ऐसा ही था ।

अनेक दर्शनीय जगहों की यात्रा और तीर्थयात्रा करके संत मां कर्मा अंत में जगन्नाथपुरी पहुंची अपने अन्य सभी सहयोगी तीर्थयात्रियों के साथ ।

जगन्नाथपुरी मंदिर के पुजारी घोर मनुवादी, छुआछूतवादी, ऊंचनीचवादी और भेदभाववादी थे । वे पुजारी सिर्फ ऊंची जातियों को ही मंदिर प्रवेश करने देते थे ।  ब्राम्हण पुजारी पिछड़ी जातियों को मंदिर के अंदर तो क्या ऊपर सीढ़ियां भी चढ़ने नहीं देते थे । बाहर से ही उन्हें पूजा अर्चना का अधिकार था ।


जब यह बात संत मां कर्मा को पता चली तो उन्होंने इसका विरोध किया । पुजारी फिर भी नहीं माने ।  तो संत मां कर्मा ने वहां पधारे सभी पिछड़ी जाति के तीर्थ यात्रियों को इकट्ठा किया और उनके सामने इस भेदभाव के मुद्दे पर गंभीर चर्चा की ।

अंत में यह तय हुआ कि अमुक दिन और अमुक समय सभी पिछड़ी जाति के तीर्थयात्री और दर्शनार्थी अपने इस धार्मिक अधिकार के लिए एक साथ मंदिर प्रवेश करेंगे ।

जब संत मां कर्मा के नेतृत्व में भारी जनसमूह मंदिर प्रवेश करने लगा । तो ब्राम्हण पुजारियों ने सीढ़ी के पास प्रथम द्वार पर ही संत मां कर्मा को बहुत जोर का धक्का दे दिया । यात्रा से थकी मांदी कमजोर संत मां कर्मा का पुजारियों के जोरदार धक्के से वही प्रणांत हो गया ।


जब हालात् पुजारियों के नियंत्रण से बाहर हो गई । तो वे अंदर से कृष्ण की प्रतिमा लाकर संत मां कर्मा के पास रख दिया और यह अफवाह फैला दिया कि भगवान कृष्ण खुद चलकर आकर संत मां कर्मा को दर्शन दे रहे हैं ।

हमारा अज्ञानी समाज एक बार फिर पंडित पुजारियों के झांसे में आ गया ।

हमें संत मां कर्मा के जीवन संघर्ष से दो मुख्य बाते सीखनीं है । प्रथम-- अन्यायी राजा के राज्य को छोड़कर आपने अहिंसात्मक संघर्ष व विरोध का प्रदर्शन सार्वजनिक तौर से किया था ।

द्वितीय-- धार्मिक अधिकार के मुद्दे को लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से पुरजोर विरोध और  संघर्ष का रास्ता अपनाया । भले ही इसके लिए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़ा । लेकिन वे समाज के सम्मान और अधिकार के लिए एक संदेश छोड़ गई है कि अधिकार के लिए संघर्ष में जीवन का बलिदान भी देना पड़े तो हमें संघर्ष पीछे नहीं हटना चाहिए ।


खिचड़ी को संत मां कर्मा के प्रसाद के रूप में प्रचारित किया जाता है । दरअसल तत्कालीन परिस्थितियों में सीमित साधन सुविधा के कारण लगभग सभी तीर्थ यात्री न्यूनतम सामान और न्यूनतम खाद्य पदार्थ के साथ यात्रा करते थे । क्योंकि खिचड़ी सहज और न्यूनतम साधन सुविधा से उपलब्ध हो जाता था । खिचड़ी का कोई धार्मिक आधार नहीं है ।

यह लेख अंतिम नहीं समझा जावे । बल्कि अन्य सामाजिक लेखक भी अपनी लेखनी संत मां कर्मा के जीवनी पर चलाएं और उनके जीवन संघर्ष  से समाज को परिचित कराएं । 

सभी लेखकों के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए । धन्यवाद ।
Ramlal Sahu Gupta Raipur Chhattisgarh


लेखक--
 रामलाल साहू गुप्ता,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
संपर्क मोबाइल 9407764442.

How right, how wrong is it to end Rahul's membership of Parliament with immediate effect.

राहूल कि तत्काल प्रभाव से संसद कि सदस्यता समाप्त करना कितना सही कितना गलत।

संदीप खुदशाह

        गुजरात के सूरत की सेशन कोर्ट ने चार साल पुराने मानहानि केस में राहुल को दोषी पाया था और दो साल

जेल की सजा सुनाई थी। इसके साथ ही कोर्ट ने निजी मुचलके पर राहुल को जमानत देते हुए सजा को 30 दिन के लिए सस्पेंड कर दिया था।

      दरअसल, जनप्रतिनिधि कानून के मुताबिक, अगर सांसदों और विधायकों को किसी भी मामले में 2 साल से ज्यादा की सजा हुई हो तो ऐसे में उनकी सदस्यता (संसद और विधानसभा से) रद्द हो जाती है। इतना ही नहीं सजा की अवधि पूरी करने के बाद छह वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी होते हैं. राहुल को एक दिन पहले ही कोर्ट ने दो साल की सजा सुनाई और दूसरे दिन लोकसभा सचिवालय की तरफ से जारी नोटिफिकेशन में राहुल की संसद सदस्यता रद्द करने की सूचना दे दी गई है।

     दरअसल, जब मजिस्ट्रेट कोर्ट ने उनको सजा दी और उसके साथ 30 दिनों का स्टे भी दिया था कि आप अपील कर सकते हैं। (लेकिन ये सही सही पता नहीं है कि केवल बेल दिया गया है या फिर स्टे भी किया गया था। इसे देखने की जरूरत है) चूंकि, 2013 में लिली थॉमस बनाम इंडिया मामले की सुनवाई के दौरान जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के सेक्शन (8) और सब सेक्शन (4) को चैलेंज किया गया था कि ये असंवैधानिक है। इसके तहत जो है सिटिंग MP और MLA को 3 महीने का समय दिया जाता था कि वो अपील कर सकते थे और इतने दिनों तक उनकी सदस्यता बरकरार रहती थी, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया था. कोर्ट ने कहा था कि अगर 2 साल की सजा होती है तो आपकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म कर दी जाएगी.

क्‍या मामला है?

साल 2019 का ये मामला 'मोदी सरनेम' को लेकर राहुल गांधी की एक टिप्पणी से जुड़ा हुआ है जिसमें उन्होंने नीरव मोदी, ललित मोदी और अन्य का नाम लेते हुए कहा था, "कैसे सभी चोरों का सरनेम मोदी है?"
 
क्या है कानून ?

●जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8(3) के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो वह अयोग्य हो जाएगा। जेल से रिहा होने के छह साल बाद तक वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए अयोग्य रहेगा।

● इसकी उपधारा 8(4) में प्रावधान है कि दोषी ठहराए जाने के तीन माह तक किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता है। और दोषी ठहराए गए सांसद या विधायक ने कोर्ट के निर्णय को इन दौरान यदि ऊपरी अदालत में चुनौती दी है तो वहां मामले की सुनवाई पूरी होने तक उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है।


sandeep khudshah

The novel 'Channa Tum Ugiho' is the story of women's struggle - Prof. Chandrakala Tripathi

उपन्यास ‘चन्ना तुम उगिहो’ स्त्री संघर्ष की कहानी हैं- प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी 


भिलाई- श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में आज हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्य प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी अपने उपन्यास ‘चन्ना तुम उगिहो’ के एक अंश का पाठ किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सदानंद शाही ने उन्हें गुलदस्ता और स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। उपन्यास पाठ के दौरान उन्होंने बताया कि यह उपन्यास स्त्री के जीवन संघर्ष की कहानी को प्रस्ततु करता है। रूपा नाम की स्त्री कैसे संघर्षों को पार करते हुए इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ऊपर उठ जाती हैं? यह एक ऐसी स्त्री है जो मरती नहीं हैं, बल्कि जीवन संघर्षों को पार कर जाती हैं। उपन्यास के संदर्भ में विश्वविद्यालय के कुलपति एवं हिंदी जगत के वरिष्ठ रचनाकार प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में हर स्त्री बंधी हुई नज़र आती हैं। उसे इस व्यवस्था से केवल उतनी ही छूट मिली है, जितनी पुरुष उसे बर्दास्त कर पाता है। लेकिन जैसे ही स्त्री अपने सपने को संजोने का प्रयास करती हैं, वैसे ही उस पर तरह तरह की मर्यादाएं थोप दी जाती हैं। इस कार्यक्रम के दौरान विभिन्न विभागों के विभागाध्यक्ष, सहायक प्राध्यापक एवं बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहें। इस अवसर पर प्रो. वशिष्ट नारायण त्रिपाठी, वरिष्ठ रचनाकार पुष्पा तिवारी, कथाकार कैलाश एवं डॉ. अल्पना त्रिपाठी की गरिमामयी उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव ने किया।

76% reservation:- This step of Baghel government will always be remembered

76% आरक्षण:- बघेल सरकार का यह कदम सदा याद रखा जाएगा

संजीव खुदशाह

भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। एक ओर धार्मिक ग्रंथों ने ऊपर के 3 वर्गों के लिए सारे अधिकार आरक्षित कर दिए। वहीं दूसरी ओर नीचे के आखिरी वर्ण शूद्र को सारे अधिकार से वंचित कर दिया। शूद्र जो आज एससी एसटी ओबीसी में गिना जाता है, कई सालों से उपेक्षित और प्रताड़ित रहा है। यह मांग हमेशा से होती रही है कि आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार मिले और यह अधिकार उसकी संख्या बल के हिसाब से हो। यानी जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम सबके पूर्वजों ने मिलकर संविधान की रचना की, जिसमें शोषित और पीड़ित लोगों को आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। कुछ लोग समझते हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन अभियान का हिस्सा है। जबकि यह गलत है। आरक्षण दरअसल शैक्षणिक, सामाजिक रूप से पिछड़े, सताए हुए लोगों को दिए जाने का प्रावधान संविधान में किया गया है। इसी के तहत आरक्षण दिया जाता रहा है। लेकिन सवर्ण आरक्षण इस सिद्धांत के विपरीत आर्थिक आधार पर दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 76% आरक्षण का जो विधेयक पास किया है। जिसमें अनुसूचित जन जाति को 32% अनुसूचित जाति को 13%  अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% सवर्णों को 4% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। यह निर्णय ऐतिहासिक है, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह निर्णय केवल चुनावी या राजनीतिक नहीं है। उन हजारों वर्षों से दबे, कुचले , पिछड़े लोगों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने का जो प्रयास किया गया है। वह सराहनीय है । हालांकि यहां पर पिछड़ा वर्ग को उनकी जनसंख्या से काफी कम आरक्षण दिया जा रहा है। बावजूद इसके यह एक महत्वपूर्ण कदम है। जिस का स्वागत किया जाना चाहिए।

अब तक सरकारी सेवाओं से लेकर राजनीति, व्यापार, प्रोफेशनल केवल ऊची जातियों के ही देखे जाते थे। बाकी जातियों के लोग चतुर्थ श्रेणी का काम करके ही अपना काम चलाते थे। भले ही उनकी योग्यता कहीं अधिक रही हो । यह लोग धार्मिक दृष्टिकोण से भी निम्न माने जाते रहे हैं। इस कारण इनमें मानसिक विकास बाधित होता रहा। क्योंकि अगर आप किसी को लगातार निम्न या ताड़न के अधिकारी कहते रहेंगे । तो वह व्यक्ति अपने आप को कुछ समय बाद वैसा ही मानने लगता है।

यहां बताना जरूरी है कि इसके पहले भी भूपेश बघेल की सरकार ने ओबीसी को 27% आरक्षण देने का आदेश पारित किया था। लेकिन कुछ जातिवादी सवर्णों ने हाई कोर्ट पर मुकदमा दायर कर दिया।  यह आदेश टिक नहीं पाया। हाई कोर्ट ने कहा कि इसके लिए जनगणना का डाटा पेश करें। छत्तीसगढ़ की सरकार ने क्वांटिफिएबल डाटा तैयार किया और उस आधार पर 76% आरक्षण देने का निर्णय लिया।  वह ऐसा विधेयक पास करने में सफल हो गए।

शूद्र जातियों के पिछड़ेपन का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि आज भी उन्हें नहीं मालूम है कि सरकार

Deshbandhu 6 dec 2022

उन्हें क्या बेनिफिट देने जा रही है। भारतीय समाज का 85% हिस्सा शोषण अंधकार अशिक्षा में जी रहा है। उसकी नासमझी का आलम यह है कि उसे अपने हको का इल्म नहीं है।

50% आरक्षण सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने 50% आरक्षण की सीमा तय की थी। लेकिन केंद्र सरकार के 10% सवर्ण आरक्षण ने इस बंधन को तोड़ दिया। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना मुहर लगाया । इस बंधन के टूटने के बाद सबसे पहले झारखंड की सरकार ने अपने यहां आरक्षण की सीमा को बढ़ाया। हालांकि इसके पहले तमिलनाडु की सरकार विधेयक पास करके कई साल पहले से 50% से ज्यादा आरक्षण अपने राज्य में दे रही है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल की सरकार का यह निर्णय बेहद महत्वपूर्ण है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है की धार्मिक रूप से नीच करार दिए जाने वाली जातियों को, उसके साथ साथ सवर्ण जातियों को भी उनके जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण दिया जाएगा। बावजूद इसके 24% क्षेत्र अनारक्षित होगा। जिसमें किसी भी समुदाय के लोग प्रतियोगिता कर सकेंगे।

यहां पर यह बताना जरूरी है की ओबीसी (यानी अन्य पिछड़ा वर्ग जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों के साथ अल्पसंख्यक वर्ग के पिछड़े भी शामिल हैं) को मंडल आयोग ने 52% आरक्षण देने की सिफारिश की थी। इस लिहाज से आज भी जो आरक्षण 27% पिछड़ों को दिया जा रहा है यह उनकी जनसंख्या के मुताबिक बेहद कम है। पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक, सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थान में बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्य पालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया में इनकी जनसंख्या नगण्य हैं । उस लिहाज से 27% आरक्षण महत्वपूर्ण है। आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने से ओबीसी की आरक्षण की लिमिट भी भविष्य में बढ़ेगी ऐसा हम मान सकते हैं। जिस प्रकार मंडल आयोग को लागू करने में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने महत्वपूर्ण कदम उठाया था । ठीक उसी प्रकार भूपेश बघेल के इस कदम का भी स्वागत किया जाना चाहिए और उन तमाम दबे कुचले लोगों को उत्सव मनाना चाहिए। अपनी बेड़ियों के खोले जाने के उपलक्ष में।


Founder of Chattishgarhi cinema Manu Nayak

छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक

संजीव खुदशाह

पिछले दिनों प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता निर्देशक मनु नायक को राज्य का प्रतिष्ठित सम्मान किशोर साहू से सम्मानित किया गया। यह सम्मान सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए दिया जाता है। मैं यहां बताना चाहूंगा की मनु नायक ने छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म कही देबे संदेश का निर्माण और निर्देशन किया था। यह फिल्म उस वक्त बनी जिस समय फिल्मी दुनिया में जाना किसी सपनों की दुनिया में जाना जैसे था।

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मनु नायक बताते हैं की वे एक गरीब परिवार से ताल्‍लुक रखते थे। वह छत्तीसगढ़ में रायपुर जिले के एक गांव कुरा के निवासी थे। बचपन से उन्हें नाटक में भाग लेने का बड़ा शौक था और वे फिल्मी दुनिया मुंबई में अपना भाग्य आजमाना चाहते थे। पैसे नहीं थे मुंबई जाने के लिए। इसीलिए वह 1955 में हाफ टिकट लेकर जो उस समय ₹12 का था, मुंबई  पहुंचे, लेकिन टीटी ने उन्हें पकड़ लिया। बाद में स्टूडेंट समझ कर उन्हें छोड़ भी दिया। वे चार-पांच दिन रहे और फिर लौट कर आ गए। कुछ दिनों बाद फिर गए और वहां की फिल्म कंपनी अनुपम मित्र में नौकरी करने लगे।

वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और ईमानदारी के बल पर कंपनी में एक खास जगह बना लेते हैं। उन्हें कंपनी का वित्त विभाग संभालने के लिए दे दिया जाता है और वह उस समय के तमाम बड़े कलाकार हीरो, हीरोइन ,पार्श्व गायक, संगीतकारों को पेमेंट किया करते थे। इससे उनकी इन सब कलाकारों से पहचान हो गई। एक व्यक्तिगत रिश्ता कायम हो गया। इनका मुंबई से रायपुर आना जाना चलता रहा। उनके भीतर एक कलाकार भी था जो उन्हें मुंबई तक खींच लाया था। बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था और उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित कर रहा था।

कही देबे संदेश फिल्म बनाने की कहानी

डीएमए इंडिया को दिये गये साक्षात्‍कार के दौरान मनु नायक बताते हैं कि जब वह रायपुर में रहा करते थे। तब उनसे एक दलित यानी सतनामी समाज के लड़के से दोस्ती हो गई थी । वह उनका एक करीबी दोस्त बन गया। कभी वह घर आता तो मां उतने क्षेत्र को जितने एरिया में दोस्‍त खड़ा होता था या बैठता था। उस जगह को गोबर से लीप देती थी। यानि उस वक्‍त छुआ-छूत, जाति-प्रथा चरम पर थी । इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती। लेकिन वह कह नहीं पाते। जब फिल्म बनाने की बारी आई तो उन्होंने इस तरह की घटनाओं को याद करते हुए एक रोमेंटीक कहानी तैयार की जो ग्रामीण सामाजिक परिवेश पर आधारित था। जिसमें हीरो दलित परिवार से और हीरोइन ब्राह्मण परिवार से आती थी। इस फिल्म को बनाने में उन्‍हे बहुत मेहनत करना पड़ा । पहले सारे गीत रिकॉर्ड करवाए गए। जिसमें मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर, महेन्‍द्र कपूर , मन्‍ना डे जैसे बड़े गायकों से गवाया गया। बाद में यह गीत काफी हिट हुए। पैसे की कमी थी इसीलिए सेट में शूटिंग नहीं की जा सकती थी। उन्होंने पूरी फिल्म की शूटिंग के लिए छत्तीसगढ़ के ही पलारी गांव का चयन किया । नवंबर दिसंबर ठंड के महीने में उन्होंने इसकी शूटिंग पूरी की। महीनों मुंबई के टेक्नीशियन कलाकार पलारी में जमे रहे।

यहां पर मनु नायक एक फिल्म निर्माता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वह सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्म का निर्माण नहीं करते हैं। बल्कि समानांतर सिनेमा की तरह वह समाज की सच्चाई जातिवाद छुआ छूत को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म के माध्यम से वे सागर सरहदी, श्याम बेनेगल, बसु भट्टाचार्य जैसे बड़े निर्देशकों की सूची में जगह बना लेते हैं।

फिल्‍म को लेकर विवाद

वे बताते हैं कि जब 1965 में फिल्म कहि देबे संदेश रिलीज हुई तो कुछ कट्टरपंथियो को फिल्म के कथानक को लेकर आपत्ति हुई। वे फिल्म को बैन करने की मांग करने लगते है। फिल्म रिलीज होने से पहले काफी चर्चित हो चुकी होती है। मनु नायक इस फिल्म को टैक्स फ्री करवाने लिए एड़ी चोटी एक कर देते हैं। फिल्म टैक्स फ्री होते ही बैन करने का विवाद समाप्त हो जाता है। इस फिल्म को जनता का बहुत प्यार मिला। समीक्षकों और लेखकों द्वारा इसे काफी सराहा गया। क्योंकि यह छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म थी । यह माना जाता है कि यह फिल्म तकनीकी दृष्टिकोण से कमजोर होगी। लेकिन जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो पाते है कि उस जमाने की उच्च तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थी। बेजोड़ संगीत, मजबूत पटकथा, सधे हुए निर्देशन के आधार पर यह एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित होती है।भले ही यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट है । लेकिन दर्शकों पर पूरा प्रभाव छोड़ती है।

86 वर्षिय मनु नायक कहते हैं कि इस फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट उनके पास नहीं है। जो प्रिंट यूट्यूब पर अपलोड की गई है उसकी क्वालिटी बेहद खराब है । वह इसकी प्रिंट को लेकर चिंतित है। यह कोशिश की जानी चाहिए कि छत्तीसगढ़ी भाषा में पहली फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट प्राप्त की जाए और उसका डिजिटलाइजेशन करके छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों में दिखाई जाए। ताकि लोगो को फूहड़ फिल्मों से मुक्ति मिल सके और स्थानीय कलाकारों को मार्गदर्शन। तब कहीं जाकर मनु नायक का सही सम्मान हो सकेगा। यह तारीफें काबिल है कि उन्हें सरकार के द्वारा किशोर साहू सम्मान दिया गया लेकिन उनका कद इस सम्मान से भी कहीं ऊंचा है। हिंदी फिल्म दुनिया में छत्तीसगढ़ के तीन कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। (किशोर साहू, हबीब तनवीर) उनमें से एक मनु नायक भी हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा को एक सलाम तो बनता है।