A work giving rise to a new debate on backward class discourse

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग विमर्श के एक नये बहस जन्म देती कृति

            संतोष सोनी

संजीव खुदशाह ने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग, (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऐं) में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति तथा वर्गीकरण पर मानव विकास की वैज्ञानिक अवधारणाओं से लेकर मानव सभ्यताओं के विकास क्रम में वर्ण व्यवस्था एवं इसके इतिहास पर विभिन्न दृष्टिकोण से तथा मान्यताओं व उपलब्ध हिन्दु मुस्लिम एवं इसाई धर्म ग्रंथों के आधार पर प्रकाश


डाला है। इसके लिये ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण, तैत्रिरीय  ब्राम्हण, रामायण तथा विष्णु पुराण आदि के आधार पर शूद्र एवं उसमें सन्निहित अतिषूद्र की विषद व्याख्या की गई है। लेखक ने विभिन्न प्रकार से यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि शूद्र वास्तव में भारत के मूल निवासी थे जिन्हे अनार्य कहा गया एवं आर्यो के व्दारा भारतीय भूभाग में बलात कब्जा कर उन पर शासन करने व उनका दमन करने हेतु षड़यंत्र पूर्वक अपने वर्ग में (वर्ण व्यवस्था मे) शामिल कर शूद्र का दर्जा दिया।

हिन्दू जाति व्यवस्था में पिछड़ा वर्ग के संबंध में लेखक विभिन्न मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट करते है कि स्मृति एवं पुराण इन्हे सवर्ण जातियों की अवैध संतान बताती है तो दूसरी ओर इन्हे दासों नागों से जोड़कर भ्रम उत्पन्न करती है। यदि कुछ विशेष जातियॉं जो नई अथवा विवादित है उन्हे छोड़ दे तो शेष जातियॉ जो शूद्र के अर्न्तगत आती है(जिसमें अछूत एवं आदिम जाति नही है) पिछड़ा वर्ग के अर्न्तगत गिनी जाती है। हिन्दु जाति व्यवस्था में कार्य के आधार पर चार वर्णो की रचना की गई है, जिनमें ब्राम्हण(पुरोहित), क्षत्रिय (सैनिक), वैश्य (व्यापारी), शूद्र (दास) शामिल है किन्तु समाजिक व्यवस्था चलाने के लिए एक और वर्ग की आवश्यकता होती है जो उत्पादक एवं कामगार वर्ग है जैसे कपड़े, कृषि, औजार, आदि मानव उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन करता हो या अनुत्पादक वर्ग की नाई, धोबी आदि हैं । ये दास में शामिल नही है।

मनुस्मृति अध्याय-एक श्लोक क्रमांक 87 से 91 में यह कहा गया है कि ‘इस सृष्टि का पालन करने हेतु इस महान विभूति ने उन सबके लिए अलग-अलग कर्त्तव्य निर्धारित कर दिये है जो (उनके)’ मुख, भुजा, जांघ और पैर से जन्मे है।

‘‘ब्राम्हणों के लिए उसके अध्ययन अध्यापन, यज्ञ करने (दूसरों से पुरोहित के रूप में) यज्ञ कराने दान लेने, और दान देने का आदेश दिया। ’’

‘‘लोगों की रक्षा करने, दान देने, यज्ञ करने, यज्ञ कराने, पढ़ने और वासनामयी वस्तुओं से उदासीन रहने का आदेश क्षत्रियों को दिया है।’’

‘‘मवेशी पालन, दान देने यज्ञ करने, यज्ञ कराने, पढ़ने, व्यापार करने, घन उधार देने तथा खेती का काम करने की जिम्मेदारी वैश्यों को दी गई।’’

‘‘शूद्रों का अन्य तीन जातियों की सेवा करने का विधान है। वह जितनी अधिक उच्च जाति की सेवा करेगा उतना ही अधिक योग्य कहलायेगा।’’

यहां पर यह स्पष्ट नही है कि कृषि व मवेशी पालन को छोड़कर जो वैश्यों के हिस्से में आये अन्य उत्पादन कार्य जैसे कृषि से संबंधित कार्य, औजार, वस्त्र, आभूषण, हथियार आदि उतपादक जातियां कौन से वर्ग में आयेंगी क्योकि इसके बिना समाज का संचालन संभव नही है। आमतौर पर हम इन उत्पादक जातियों को जो आज वर्तमान में विछड़ा वर्ग में आती है शूद्र में गिनते है।

इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए लेखक डॉ0 अम्बेडकर के माध्यम से यह स्पष्ट करता हैं कि ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार पूर्व में हिन्दुओं (आर्यों) में केवल तीन वर्ग था पुरुष सूक्त एक क्षेपक है जो कि बाद में जोड़ा गया एवं शूद्र का एक अलग वर्ण के रूप में उल्लेख नहीं हैं दूसरा साक्ष्य के रूप ब्राह्मण ग्रंथ, शतपथ और तैत्तरीय दोनों ही ग्रंथ केवल तीन ही वर्णों का उल्लेख मिलता है शूद्र की अलग से उत्पत्ति के बारे में वे मौन है।

इस प्रकार ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तरीय ब्राह्मण जो कि आर्यो के प्रारंभिक ग्रंथ है में शूद्र एक पृथक वर्ग नही बल्कि द्वितीय वर्ण का ही एक भाग है एवं वास्तव में चार वर्णों की अवधारणा स्मृतिकाल के ग्रंथों में आई। (पृष्ठ क्र. 25, 26, 27)

मनुस्मृति के अनुसार चार वर्ण जो कि मुख, भुजाओं, जंघाओं एवं पैरों से जन्में है और अन्य ग्रंथों में शूद्र की उत्पत्ति आर्यों की त्रिवर्णीय जाति प्रथा (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) में आवश्यक सोलह संस्कार जिसमें उपनयन संस्कार (जनऊ संस्कार) प्रमुख थे लागू होते थे कालांतर में ब्राह्मण-क्षत्रियों के संर्घष के पश्चात् ब्राह्मणों के द्वारा जिन क्षत्रियों का उपनयन संस्कार बंद कर दिये गये वे शूद्रों में आ गये तथा वे सामजिक दृष्टि से तिरस्कृत हो गये। इस प्रकार शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई। इसमें से अनार्य जो नाग, दानव, असुर, वानर, गंधर्व, किन्नर आदि के नामों से वेदों व पुराणों में पुकारी जाती है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार क्षत्रिय से बने शूद्र - अछूत या अति शूद्र में मिल गई। (पृष्ठ 27)। यहॉ पर कामगार श्रेणी के शूद्र जो कि पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत आते है। स्मृतियों के अनुसार जैसे धोबी, चमार, नर बैसफोड़, लुहार, सिलावट, नाई, रक्षक, तेली, नाविक, भेद, भील, सुवर्णकार, दर्जी, मकान बनाने वाले, सुनी, धनुषधारी ओ ध्वजाधारी ग्राम चाण्डाल कहलाते है। इनका दर्शन, स्पर्श, भाषण, स्नान, भोजन, जप, होम, देवपूजन, के समय निषिद्ध है। यदि ऐसा होता हो तो प्रायश्चित करना पेड़गा।

अतः उस समय उक्त सभी जातियॉ एक अछूत की तरह थी। इसके अलावा एक दुःखद स्थिति और थी स्मृति व पुराण लगभग सभी पिछड़ा वर्ग कामगार जातियों की किसी न किसी सवर्ण जातियों की अवैध सन्तान ठहराते है। उच्चवर्गीय पिता निम्नवर्गीय माता की सन्तान स्पर्षय एवं उच्चवर्गीय माता व निम्नवर्गीय पिता की सन्तान अस्पर्शय कहा गया (पृ. सं. 28 एवं 29 मे स्पर्षय एवं अस्पृर्शय संतानों की सूची दी गई है।)

श्री नवल वियोगी को उद्घृत करते हुए शूद्रों को दो मूल भागों में बांटा गया है। 1. अबहिस्कृत शूद्र - जिसे पिछड़ा वर्ग कहा गया है। 2. बहिस्कृत शूद्र - ये वे जातियॉं थी जो आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके, जिसे आज अति शूद्र या अछूत में गिना जाता हैं। (यहॉ पर पृ. क्र. 39 में दो सूचियॉ दी गई हैं, जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों का वर्गीकरण उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के आधार की गई हैं, एवं स्पष्ट किया गया है कि उत्पादक वर्ग के शूद्रों की श्रेणी अनुत्पादक वर्ग की श्रेणी से सामाजिक दर्जा अधिक श्रेष्ठ थी।)

हिन्दू जाति का उत्थान एवं पतन‘ के लेखक रजनीकांत शास्त्री को उद्घृत करते हुए लेखक यह स्पष्ट करते है कि उस काल में सभी जातियों में यौन संबंध इस कदर व्याप्त था कि कोई भी सवर्ण, गैर सवर्ण  जाति अपने आप को शुध्द रक्त होने का दावा नही कर सकती थी, (पृ क. 34)। इसी परिप्रेक्ष्य में डा. नवल वियोगी के व्दारा लेखक को भेजे पत्र का विवरण देते हुए लेखक उनके कुछ अंश उल्लेखित करते है कि ‘वास्तव में भारत की सभी आदिवासी जातियां नाग जातियों की संतान है जिनमें तक्षक या टांक वंष प्रमुख है। जिसने अधिकतर राजवंशों को जन्म दिया उन राजवंशों की जनजातियों ने BC, SC , ST तीनों वर्गो को जन्म दिया।’ श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार भारत में जनगणना की विश्वसनीय रिर्पोट 1871-1872 से मिलनी शुरू हुई जिसके अनुसार भारत में ब्रिटिश शासन के अधीन लगभग 18 करोड़ 60 लाख लोग थे जिसमें 11 करोड़ से अधिक लोग जिन्हे मिली-जुली आबादी कहा गया वे मुख्यतया अनार्य लोगों में उत्पन्न हुई जिन्हे जनगणना रिर्पोट में आदिवासी कहा गया था। (पृ.क्र. 35)

पुस्तक में जाति एवं गोत्र पर भी बहुत कुछ लिखा गया है।

स्मृति व पुराणों के आधार पर कोई भी पिछड़ा वर्ग अथवा शूद्र अपने उपर गर्व नही कर सकता क्योंकि वे यदि इन धर्म ग्रन्थों को मान्यता देते है तो उन्हे यह मानना होगा कि वे किसी न किसी सवर्ण की अवैध संतान है यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि सत्ता की शक्ति तथा धन के बल पर किस प्रकार कई जातियां अपने को उच्च वर्णो में स्थापित कर समाज की जाति प्रथा में उंचे पायदान में आने का प्रयास करती रही है। यहां पर बंगाल के सेन वंश तथा मराठों के शासक शिवाजी भोसले के बारे में श्री सच्चिदानंद सिन्हा के हवाले से क्षत्रिय वर्ग के रूप  में प्रतिष्ठा पाने के प्रयास व सामाजिक श्रेष्ठता की आकांक्षा पर प्रकाश डाला गया है (पृ.क्र. 45-48) इसी संदर्भ में बंगाल की कायस्थ जाति व उड़ीसा की उच्च जातियों के बारे में भी नरवंश शास्त्री सर हिरवर्ट होप रिसले के विचार को स्थान दिया गया है एवं कायस्थों की जाति को सवर्ण जाति में से भिन्न मानते है।

आर्य व्यवस्था में ब्राम्हण, क्षत्रिय, एवं वैश्य अर्थात पुजारी, सैन्यकर्मी तथा व्यवसायी को छोड़कर सभी कलाकार, शिल्पकार, लेखक, वेज्ञानिक शूद्र में ही गिने गये जो कि भारत के मूल निवासी थे।

मराठा वंष, सेन वंष, सूद, भूमिहार जो कि स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण कहते रहे इसके लिए अपने गोत्र उच्च वर्णीय होने का तर्क देते रहे। इस बारे में लेखक का मन्तव्य है कि आर्यो में ब्राम्हण या पुरोहित अपने जजमानों को अपना गोत्र धारण करने पर विवश करते थे ताकि उनकी जजमानी बढ़ती जाये कालांतर में इसी गोत्रों को सहारा लेकर विभिन्न वंषों व्दारा स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण प्रमाणित किये जाने का प्रयास किया गया। वस्तुतः पिता या माता का नाम, राजा का नाम, उपाधि गोत्र के रूप में उनकी पहचान होती थी आर्यो व्दारा सप्रयास मिटा दिया गया जो उनकी षड़यंत्र कारी कूटनीति थी एवं पिछड़े वर्ग में हर छोटी जाति दूसरी छोटी जाति से खुद की जाति को श्रेष्ठ बताने की होड़ में संगठित नही हो पाये एवं गुलामी की मानसिकता से उबर नही पाये।

विदेशों में आरक्षण कि स्थितियों, काकाकालेलकर आयोग, मण्डल आयोग की सिफारिषों पर विषद अध्ययन प्रस्तुत किया गया है एवं इस दिषा में कांशीराम जी के राजनैतिक प्रयासों पर प्रकाश डाला गया है साथ ही दलित व पिछड़े मुसलमानों को  जोड़ने के प्रयास को उल्लेखित किया गया है।

पिछड़ेपन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने अंधविश्वास एवं निवारण पर अपने विचार प्रस्तुत किये है साथ ही पिछड़े व अन्य वर्ग से उत्पन्न सुधारवादी संतो व साहित्यकारों जिनमें गौतम बुध्द, संतकबीर, महात्मा फुले, रविदास चमार, चोखा मेला महार, सदन कसाई, नामदेव दर्जी, तथा कन्नड़ साहित्य के बसनेष्वर, अल्लभप्रभु, अक्कमहादेवी, महार संकव्या, विविध स्तर के संत एवं कवि आदि के व्दारा अपने-अपने समय काल में दलित व पिछड़ों के उत्थान के लिये प्रयास किये व जाति भेद पर, बली प्रथा पर, मंदिर प्रवेष हेतु तथा अंधविष्वासों को दूर करने के लिए अपना जीवन लगा दिया। संत नामदेव, गुरूनानक देव, सावता माली, नरहरी सुनार, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार , संत गाडगेबाबा, संत सेनजी नाई, पेरियार ई.वी. रामास्वामी, नारायण गुरू, संत रैदास, अयंकाली आदि के योगदानों का संक्षिप्त विवरण दिया है। विभिन्न पिछड़े जातियों के पौराणिक व विभिन्न विद्वान तथा इतिहास वेत्तओं के  लेखन व साहित्य के माध्यम से उनके प्रारंभ, उत्थान एवं वर्तमान विवरण के रूप में लेखक द्वारा अपना दृष्टिकोण भी सम्माहित किया है। अंत में लेखक व्दारा संपूर्ण स्थान पर अपनी राय रखी है। इन जातियों के उत्थान हेतु अपने सुझाव रखे है।

बड़ी शिद्दत के साथ लिखी गई पुस्तक, अकाट्य प्रमाणों के साथ विद्वानों के विचार भी उल्लेखित किया गया है, जहां कई शास्त्रों, वेदों को खगांलकर प्रमाण जुटाए है। वही अपनी विचारों को भी उल्लेखित किया है।

लेखक व्दारा संपूर्ण दलित व पिछड़ा वर्ग की एतिहासिक व पौराणिक पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी, वर्गीकरण के सभी समुचित संदर्भो तथा सांख्यकीय आधिकरिक विवरणों के साथ सहज व सरल भाषा में सामान्य तथा विशेषकर पिछड़े व दलित वर्ग हेतु एवं शोधपरक पुस्तक प्रस्तुत किया है, जो सभी के लिए उपयोगी व प्रेरणास्पद है। इस पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’’ लेखक द्वारा उल्लेखित ‘‘पिछड़ो को सवर्ण न होने का क्षोभ है तो अस्पृष्य न होने का गुमान भी है।’’ इसी बीच की स्थिति के इर्द-गिर्द पूरी पुस्तक घूमती है। लेखक इन विचारों पर व्यवस्था को बहुत ही करीब से महसूस किया है। पर ये पुस्तक अब एक नए विषय को जन्म देती है कि आखिर पिछड़ा अपने आप को कहां स्थापित करे ? इतिहास बताता है कि सैकड़ो सालो से पिछड़ा हमेशा से उपेक्षित रहा है। तो आखिर कब तक ? इस विषय में बुध्दजीवियों में बहस होनी चाहिए। पुस्तक अच्छी साज-सज्जा के साथ प्रकाशित हुई  है इसमें कोई दो मत नही है। पुस्तक के महत्व के हिसाब से मूल्य ज्यादा प्रतीत नही होता है। सारगर्भित साहित्य के लेखन के लिए श्री संजीव खुदशाह प्रशंसा वा साधुवाद के पात्र है।

 

           

संतोष सोनी

हेमु नगर तोरवा

गुड़ाखु फैक्ट्री के पीछे

बिलासपुर (छत्तीसगढ) 495004

मोबाईल-09981830496

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्कशाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

New Document Establishment of Backward classes

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग नई स्थापनाओं का दस्तावेज

राजेश कुमार चौहान

‘‘पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैष्य होने का दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज सन्तान ठहराते है।’’

उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित पुस्तक


‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ से है। लगभग इसी आशय का एक सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है-‘भारत में छोटी से छोटी जाति भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।’ यहां संजीव खुदशाह और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा जातिवादी कहा जायेगा।

अभी तक तमाम स्वीकृतियों के बावजूद दलित लेखन विवादास्पद बना हुआ है। इसे खारिज करने के लिए इस पर तमाम तरह के आरोप लगाये जाते है। लेकिन प्रतिबद्ध दलित लेखकों ने इस सबकी परवाह किये बिना अपना कार्य जारी रखा है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम और जुड़ता है- संजीव खुदशाह। संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि दलित लेखक मात्र आत्मकथाओं और ब्राम्हणवाद के प्रति घृणा के दायरों में ही घिरे हुए नही है, वे अतीत के प्रति घृणा का पोषण ही नही करते हैं अपितु अपने समाज और विष्व के समाजों के अतीत, वर्तमान ओैर भविष्य का तटस्थ भाव से मुल्यांकन भी करते हैं।

संजीव खुदशाह ने ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’ पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन पूरी तटस्थता के साथ किया है। यही कारण है कि उनके निष्कर्ष किसी अतिवाद का षिकार नही होते। कहीं-कहीं तो वे निष्कर्ष देने से भी बचते हैं। केवल तथ्य पाठक के समक्ष रख देते हैं, इस सब में वे कितना सचेत हैं, यह पुस्तक की भूमिका से भी पता चलता है- ‘‘मैंने आम भाषा तथा सरल तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी को तथ्य समझने में दिक्कत न हो। जो नई स्थापनाएं तैयार हुई है, उसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिये गये हैं। निर्णय पर ज्यादा जोर नही दिया बल्कि उसे पाठकों पर छोड़ दिया गया है।’’

तथ्यों को इस तरह पाठक के समक्ष रख देना निश्चित रूप से लेखक की वस्तुनिष्ठता का परिचायक है। लेकिन इसी आधार पर कुछ बड़े आलोचक और विमर्श कारों ने पुस्तक का अवमूल्यन भी किया है। उनका कहना है कि पुस्तक में इधर-उधर बिखरे हुए और कुछ पुराने तथ्यों को सिलसिलेवार ढंग से रखा गया है, कोई मौलिक स्थापना नहीं दी गई। पुस्तक में मौलिक स्थापनाएं न होने की शिकायत करने वाले विमर्श कार पुस्तक के संदर्भ में यह गलतफहमी पैदा कर देते है कि पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी ही है, मूल्यांकन का अभाव है। वास्तव में पुस्तक में मूल्यांकन का कोई अभाव नही है, लेखक ने पुस्तक की वस्तुनिष्ठता को बचाये रखने के लिए कहीं-कहीं निर्णय देने से परहेज किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी पुस्तक में कहीं कोई स्थापना नहीं मिलती ।  हॉं इतना जरूर है कि पुस्तक में कोई सनसनीखेज स्थापना नहीं है।

इस पुस्तक के लेखक ने पिछड़ा वर्ग पर कोई टीका टिप्पणी करने के बजाय उसकी वास्तविक स्थिति को समझने समझाने का प्रयास किया है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा मिला।’’ यहॉं यदि लेखक वस्तुनिष्ठता का ध्यान न रखता तो आरोपों की भाषा में टीका टिप्पणी करने की पूरी संभावना बनती है उदाहरणार्थ - कहा जा सकता था कि पिछड़ा वर्ग की जातियॉं सवर्णो की लठैत बनी रही। इन जातियों ने दलितों के साथ मिलकर ब्राम्हणवाद के विरूद्ध कोई लड़ाई नही लड़ी, उल्टे दलितों का उत्पीड़न कियां इनका ब्राम्हणों से संघर्ष स्वयं ब्राम्हण बनने की होड़ में हुआ। लेखक पिछड़ा वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करते समय ऐसी सभी प्रतिक्रियाओं से उपर उठ जाता है। अन्यथा स्वयं लेखक ने भी पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह बरी नही कर दिया है।

लेखक ने पुस्तक के पहले ही अध्याय में मण्डल आयोग लागू होने के समय आरक्षण विरोधियों द्वारा मचाये गये उपद्रव और ऑंखों देखी घटना का जिक्र करते हुए पिछड़ा वर्ग की भूमिका पर सवाल उठाया है। लेखक का मानना है कि पिछड़ा वर्ग में चेतना का अभाव होने के कारण वह अपनी सही भूमिका निश्चित ही नहीं कर पाता और अपने विरोधियों को ही मजबूत करता है। लेखक ने पुस्तक में बार-बार यह प्रश्न भी उठाया है- जबकि पिछड़ा वर्ग से कई समाज सुधारक और क्रांतिकारी सामने आए लेकिन पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ?

लेखक ने ऐसे ही कुछ और प्रश्नों के उत्तर भी पुस्तक के अंतिम अध्याय कें अंतिम खंड (समाधान) में दिये हैं। पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ, इस संदर्भ में लेखक की मान्यता है कि पिछड़ा वर्ग जाति व्यवस्था में अपने जाति-क्रम को लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति में रहा है। उसे एक तरफ ब्राम्हण न हो पाने का हीनता बोध है तो दूसरी तरफ दलित जातियों से उपर होने का श्रेष्ठताबोध उसकी चेतना के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। वह यदि एक तरफ सवर्णों से थप्पड़ खाता है तो दूसरी तरफ दलितों को थप्पड़ लगाकर तुष्टि पा लेता है थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से देने मे वह कतराता रहा और किसी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष नहीं करता।

पुस्तक के अंतिम अध्याय के इसी अंतिम खण्ड(समाधान) में लेखक ने ऐसे प्रष्नों के उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी किया है और अपनी कुछ मौलिक स्थापनाएं भी दी है। अतः जिन बड़े विमर्श कारों को पुस्तक से यह शिकायत है कि इसमें पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी है, वे इस अंतिम अध्याय को जरूर पढ़ें। ऐसे तो पुस्तक के कुल चारों अध्याय ही महत्वपूर्ण हैं। पहला अध्याय पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति और स्थिति से संबंधित है। दूसरे अध्याय में जाति और गोत्र के विवाद को तथ्यों और तर्कों के आलोक में सुलझाने का प्रयास किया है, साथ ही हिन्दूवाद की पोल खोली है।

तीसरे अध्याय में आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए लेखक इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि आरक्षण विरोधी सवर्ण इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वे स्वयं सदियों से आरक्षण पाते आये हैं। सारे हिन्दूग्रन्थ इन सवर्णों को आरक्षण देते हैं। इसके अलावा पूंजी का आरक्षण भी इन्हीं सवर्णों को मिला है। सवर्णों को मिले इस आरक्षण के चलते पैदा हुई सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देना जरूरी हो जाता है। इसी अध्याय में लेखक ने पिछड़ा वर्ग के कुछ संतों और समाज सुधारकों का परिचय भी दिया है।

अंतिम अध्याय में पिछड़ा वर्ग की जातियों का विवेचन उनके पेशों के आधार पर किया है और मंडल कमीशन की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए एक प्रश्नोत्तरी भी ही है। और अंत में कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये है। ये समाधान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लेखक की वस्तुपरकता के साथ-साथ उसकी पक्षधरता भी सुनिश्चित करते हैं। स्पष्ट है कि लेखक ब्राम्हणवाद विरोधी मुहिम और समता मूलक संघर्ष की अगली कतार में है।

पुस्तक का नाम  आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)       

रोजश कुमार चौहान

5बी/16एफ, गली नं.-16, गुरूद्वारा मौहल्ला,

मौजपुर, दिल्ली-110053

मो. 09278210309

 

 

 

लेखक  संजीव खुदशाह

Isbn 97881899378    

मूल्य     200.00 रू.       

संस्करण 2010   पृष्ठ-142           

प्रकाशक

            षिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174 

 


A discussion on the Indian caste system

 पुस्तक समीक्षा

हरिभूमि रविवार 3 जनवरी 2010 रविवार भूमि

भारतीय जाति व्यवस्था पर एक विमर्श

विज्ञान भूषण

हाल मे ही प्रकाशित हुई पुस्तक ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)’ में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, समयानुसार उसके स्वरूप में हुए परिवर्तनों ओर उनकी वर्तमान स्थिति के वर्णन के बहाने भारतीय जाति-व्यवस्था पर भी अनेक दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। विभिन्न मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथो के उध्दरणों की सहायता स लेखक संजीव खुदशाह ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि वास्तव में पिछड़ा वर्ग का जन्म भारतीय वर्ण व्यवस्था में कब और किन परिस्थितियों में हुआ? तत्कालीन समाज में उनकी भुमिका और दशा का प्रामाणिक


वर्णन की स्थितियों पर भी गहन विमर्श प्रस्तुत किया है। सामाजिक समरसता और समभाव के पक्षधर जागरूक बुध्दिजीवियों व्दारा पिछड़े वर्ग के लोगो को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयत्नों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।

विदेशों में आरक्षण की स्थितियों, काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की रिपोर्ट पर भी विस्तृत चर्चा की गई है। इसके साथ ही लेखक ने इस वर्ग के पिछड़ेपन के कारणों को भी उजागर  करने का प्रयास किया है।

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से समाज के निचले तबके में जीवन व्यतीत करने वालों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी को प्रामाणिक आंकड़ो के साथ प्रस्तुत किया है।

यह पुस्तक समाज में पिछड़े वर्ग की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करने की मांग भी करती है, क्योंकि ‘सवर्ण न होने का क्षोभ और अस्पृश्य न होने का गुमान’ जैसी मनःस्थिति में इस वर्ग के लोग सदियों से जीते चले आ रहे है। कहना चाहिए, यह पुस्तक भारतीय जाति व्यवस्था को नए संदर्भो और जरूरतों के अनुसार पुननिर्मित करने के लिए विचारकों को प्रेरित भी करती है।

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्कशाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

This book asking many questions from the perspective of backward class

पुस्तक समीक्षा

पिछड़े वर्ग के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल करती कृति

डा. सुधीर सागर

 

भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों एवं वर्गो में बंटा है। किसी भी समाज का शोधात्मक, विष्लेषणात्मक, खोजपरख अध्ययन एवं मुल्यांकन का उद्देश्य समाजिक उत्थान ही होता है। जातीय एवं वर्गात्मक संरचना के अध्ययन के लिए ऐतीहासिक एवं धार्मिक ग्रन्थों के मूल में जाकर वर्ग की स्थिति की पड़ताल गौण

विषय है। प्राचीनकाल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक विवादास्पद प्रश्न खड़े है या किये जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में एक लम्बी बहस की प्रक्रिया जातीय संरचना एवं वर्ग को लेकर जारी है। समाज एवं सभ्यता के विकास के समांनातर  वर्गो के वर्गीकरण की प्रक्रिया चलती रही हैं जो कि परिस्थिति अनुसार वर्तमान स्थिति को रेखांकित भी करती है।

संजीव खुदशाह की पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग -पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं’’ चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है। पुस्तक में वर्ग की जांच पड़ताल डा. अंबेडकर के वैचारिकी को केन्द्र में रख कर लिखा गया है। जबकि लेखक ने स्वयं लिखा है कि शोध प्रकल्प के रूप में काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। वेद, स्मृति ग्रेथो, इतिहासकारों एवं विचाराको के मान्यताए शामिल है।

पुस्तक मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़ेवर्ग की स्थिति की पड़ताल करती है जिसमें प्रथम अध्याय में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग का वर्गीकरण किया गया है। इस अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग की खोज की शुरूआत मानव उत्पत्तिकाल से करता है। आगे इसकी व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यो से लेकर धार्मिक मान्याताओं तक की गई है। मानव उद्भव, सभयता एवं विकास की प्रक्रियाओं से गुजरते हुये छोटे-छोटे कबीलों, जातीय समुदायों एवं वर्ग के वर्गीकरण के अध्ययन को डा. अम्बेडकर के विचारों के परिप्रेक्ष्य में कर संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। जातीय वर्गीकरण का आधार उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के आधार पर किया गया है। उनके उत्पादक मूल्यों के आधार पर वर्ण व्यवस्था में उन्हे अस्पृश्य एवं स्पृश्य माना गया है। पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण करते वक्त लेखक ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक मान्यता को आधार बनाया। एक प्रश्न हम सभी के सामने है। कौन है ये पिछड़ी जातियॉं ? ‘‘हिन्दु धर्म में से यदि ब्राम्हण, क्षत्रिय एवं वैश्य को निकाल दे तो शेष वर्ण शूद्र को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है। इसमें अतिशूद्र शामिल नही है।’’  (पृष्ठ 22) ‘‘पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर उन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शूद्र भी कहते है ये पिछड़ा वर्ग कहलाती है।’’(पृष्ठ 23)  स्पर्षय एवं अस्पर्शय सन्तान की चर्चा कर लेखक डा. अम्बेडकर व्दारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्णो को मान्यता देते हुए सम्पूर्ण पिछड़े समाज को चौथे वर्ण में रखकर वर्गीकृत करता है।

प्रथम अध्याय में पिछड़े वर्ग के उद्भव की वृहद चर्चा करने के उपरांत द्वितीय अध्याय को लेखक ने जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दुकरण पर केन्द्रित किया है। शोध के दौरान इन जातियों के ग्रन्थ, स्मरणिका लेखों में उंची जाति होने के दावे को धर्मग्रन्थों को मान्यता देते हुए पिछड़े वर्ग की अवैध सन्तति मानता है। ‘‘भारत में जातीय संरचना इतनी घृणास्पद है कि प्रत्येक जाति अपनी हीन भावना के बोध से नही उबर पाती है। उसे अपने से छोटी जाति को देखकर उतना गुमान नही होता, जितना कि अपने से बड़ी जाति को देखकर क्षोभ(शर्मिन्दगी) होता है। ’’(पृष्ठ 45) उंची जाति होने के दावे एवं कृत्यों के सामाजिक परिणाम क्या हुए यह तथ्य विचारणीय है ? विवादि जातियो में कायस्थ, मराठा, मूमिहार, सूद प्रमुख तौर पर शोध संदर्भ में रहे है। गोत्र क्या है? समाजषास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित टोटम का नाम, पिता का नाम, पूर्वज का नाम एवं नगर या शहर का नाम के स्त्रोतो को वर्णित करते है लेकिन पिछड़े वर्ग के गोत्र अगड़ी जातियों के समान है। जातिगत विवेचना के तहत बुध्द की जाति को खंगालने का प्रयास लेखक ने किया है। गोत्र के आधार पर उच्च वर्ग में शामिल किये जाने पर प्रष्नचिन्ह लगाते है। पिछड़े वर्ग की विकास यात्रा के विभिन्न सोपान महत्वपूर्ण है। आरक्षण व्यवस्था के मुद्दों पर मनुस्मृति को ही आधार बनाते हुऐ सामाजिक संरचना को विश्‍लेषित करते हुऐ लंदन में गोलमेज कान्फ्रेन्स मे हुई घोषणा की चर्चा करते है। इस कांफ्रेस में डा. अम्बेडकर ने दलितों के पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग की। बस यहीं से  जाति आधारित आरक्षण को तोड़ने की नीव पड़ी। यही निर्णय कम्युनल अवार्ड के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट की टीस दलित समुदाय में आज भी मौजूद है। पुस्तक में पुनः उसका जिक्र कर गांधीयन दृष्टिकोण को कटघरे में खड़ा किया गया। आरक्षण भारत में नही अपितु विदेषों में भी है। काका कालेलकर आयोग का गठन, मण्डल आयोग की सिफारिशों की वृहद चर्चा करते हुए आरक्षण से उपजे विवाद पर सवर्णो से कुछ सवाल किये है। जैसे ‘‘क्या ये मैला साफ करने की नौकरी में दलितों के आरक्षण का विरोध कर सकते है? अर्थात् सवर्ण इसमें आरक्षण की मांग क्यों नही करते? दूसरा सवाल देष के तमाम पुरानी एवं प्रसिध्द मंदिरों में पुजारी का पद सिर्फ एक जाति के लिए आरक्षित क्यों है?’’ विचारणीय है। क्या इन प्रश्नों के जवाब कभी मिलेगें? अंधविश्वास, पाखंड, छलप्रपंच के चक्रव्युह में पिछड़ावर्ग न फंसे उसके लिए आहवान करते है। लेखक यह प्रष्न उठाते है। संतकबीर, संतसेन, महात्मा फुले, पेरियार, एवं संतनामदेव जैसे समाज सुधारकों के बावजूद यह वर्ग पिछड़ा क्यों है?

संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुये विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने को आतुर जातियों की भी चर्चा करते है।

 पुस्तक के अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की स्थिति की जांच पड़ताल करते हुये पुनः जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण का विस्तृत विवरण देते है। लेखक समतामूलक समाज की पक्षधरता को पुस्तक रेखांकित अवश्य ही करता है। पिछड़ावर्ग में सम्मिलित जातियों की आधिकारिक सूची सूचनात्मक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुऐ धर्म ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित करते है। लेखक ने आर्यो की वर्ण व्यवस्था से बाहर की कामगार जातियों को अनार्य माना है। पिछड़े वर्ग की समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन बड़ी ही सर्तकता पूर्वक किया है। सहज, सरल भाषा में पिछड़े वर्ग के संदर्भ में शोध को पाठको के समक्ष रखते है। पिछड़े वर्ग की स्थिति की जांच पड़ताल करते वक्त कुछ अनछुए पक्ष जैसे शिक्षा, राजनीति एवं आर्थिक विषय  रह गये है। किसी भी समाज की सुदढृता सामाजिक संरचना पर निर्भर करता है। यदि कुछ मुद्दों  को नजरअंदाज कर दे तो पुस्तक पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति एवं जातिगत जांच पड़ताल पर आधारीत है। आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक में लेखक ने बहुत परिश्रम लगन से शोध कार्य किया। खोजपूर्ण पुस्तक में सभी तथ्यों या विमर्ष पर चर्चा किया जाना संभव नही हो सकता है लेकिन लेखकीय तटस्थता के फलस्वरूप यह पुस्तक संजीव खुदशाह की अंर्तराष्ट्रीय स्पर पर चर्चित कृति ‘‘सफाई कामगार समुदाय’’ की अगली कड़ी के रूप में हम सभी के सामने आई है। पुस्तक पठनीय है जो पिछड़े वर्ग के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल खड़ी करती है। ऐतीहासिक एवं धार्मिक पृष्ठों को खंगालते हुए संजीव खुदशाह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ यह पुस्तक प्रस्तुत करते है। युवा समाज शास्त्री संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है।

      डा. सुधीर सागर

पता-1221, सेक्टर 21 डी.

फरीदाबाद- 121001 (हरियाणा)

मोबाईल-09911837487

 पुस्तक का नाम    आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रहमिथक एवं वास्तविकताएं)   

लेखक   संजीव खुदशाह   

ISBN               97881899378 

मूल्य      200.00 रू.       

संस्करण 2010    पृष्ठ-142

प्रकाशक

शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174