Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma" The torch of revolution!

तैलिक समाज की गौरव -- "संत मां कर्मा" 
क्रांति की मशाल हैं !

रामलाल साहू (गुप्ता), रायपुर (छत्तीसगढ़)

हमारे तैलिक समाज में अनेकों महानायकों ने जन्म लिया है ।
Pride of Tailik Samaj -- "Sant Maa Karma"  The torch of revolution!

जिन्होंने समाज में होने वाले अन्याय और  अत्याचार का न सिर्फ विरोध किया बल्कि अपने हिम्मत और हौसले से अत्याचारियों को चुनौती भी दी । उनमें "संत मां कर्मा" का नाम प्रमुखता से लिया जाता है ।

ज्ञात इतिहास के अवलोकन से जो ऐतिहासिक जानकारियां छनकर आती हैं । उनसे यह तथ्य उभरकर आता है कि संत मां कर्मा का जन्म झांसी (उत्तरप्रदेश) के एक संपन्न तैलिक परिवार में हुआ था । जो तेल के व्यवसाय के अग्रणी व्यापारी थे । उनका तेल का व्यापार काफी वृहत्त स्तर पर फैला हुआ था ।

संत मां कर्मा बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तेजतर्रार थी । फलस्वरूप पिता के व्यवसाय में भी हाथ बंटाने लगी । परिणामस्वरूप पिताजी का व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी गति से आगे बढ़ने लगा ।

विवाह योग्य होने पर संत मां कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी परिवार में संपन्न हुआ । नरवरगढ़ के तैलिक वर्ग अपने तेल के सफल व्यवसाय के कारण अत्यंत संपन्न अवस्था में थे । उनकी यह संपन्नता मनुवादी और सामंतवादी वर्ग को बहुत अखरती थी ।

नरवरगढ़ की मनुवादी व सामंतवादी वर्ग, तेली जाति के प्रति सदैव कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते थे ।  जिससे तैलिक वर्ग चिंतित होने के साथ सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास भी करता रहा ।

लेकिन हद तो तब हो गई जब मनुवादियों और सामंतवादियों का षड्यंत्र चरम पर पहुंच गया ।

 घटना इस प्रकार है कि एक बार राजा का हाथी बीमार पड़ा । तेली जाति के विरोधी ईर्ष्यालु तत्वों ने राजा के वैद्य के साथ षड्यंत्र करके राजा के कान भरे कि, यदि हाथी को तेल के कुंड में नहलाया जाए, तो हाथी ठीक हो जाएगा । राजा ने चिंतित होकर कहा कि इतना तेल आएगा कहां से ?

जवाब में षड्यंत्री और धूर्त दरबारियों ने कहां की राज्य के तैलिक बहुत संपन्न है । वह आराम से और खुशी-खुशी राजा के हाथी के लिए एक कुंड तेल भर देंगे और इस कार्य से तेली समाज को प्रसन्नता का भी अनुभव होगा । कि हम तैलिक भी किसी रूप में अपने राजा के काम आए ।

इस तरह की उल्टे-सीधे तर्क देकर तैलिक जाति के ईर्ष्यालु और धूर्त दरबारियों ने राजा को रजामंद कर लिया और राजा के नाम से पूरे नगर में तैलिक समाज के नाम एक आदेश प्रसारित करवा दिया कि,

राजा के आदेशानुसार राजा के बीमार हाथी के लिए नगर भर के सभी तैलिक व्यापारी तेल के एक निर्धारित कुंड को भरेंगे और यह आदेश सभी तेल व्यापारियों के लिए राजा का अनिवार्य आदेश है ।

सामंतवादियों और मनुवादियों के इस षडयंत्र से तेली समाज अत्यंत आहत और चिंतित हो उठा । दरबारियों के षड्यंत्र के आगे तैलिक समाज को झुकना पड़ा और उन्होंने राजा के आदेश का पालन करते हुए तेल के निर्धारित कुंड को भर भी दिया ।

उसके बाद सभी तैलिकजन गंभीर चिंतन की मुद्रा में आ गए और फिर संत मां कर्मा के नेतृत्व में एक मीटिंग का आयोजन तैलिक समाज ने आयोजित की । जिसमें सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास हुआ कि, अब कोई भी तैलिकजन इस अन्यायी राजा के राज में नहीं रहेगा ।

तत्कालीन परिस्थितियों भी तेली जाति चूंकि एक व्यवसाई और उत्पादक जाति थी । अपने तेल की व्यवसाय के कारण ही तैलिक समाज ने प्रगति और सामाजिक सम्मान के क्षेत्र में एक ऊंचाई प्राप्त की थी ।  उस समय और आज भी हमारी तैलिक जाति आक्रामक भूमिका में नहीं थी । फलस्वरुप वह मनुवादी और सामंतवादी षड्यंत्रकारियों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थी ।

अतएव संत मां कर्मा के नेतृत्व व  सलाह से समस्त तैलिक समाज ने अन्यायी व ईर्ष्यालु राज व्यवस्था नरवरगढ़ को त्यागना ही उचित समझा ।

झांसी चूंकि संत मां कर्मा का मायका था । सो सभी तैलिकजन संत मां कर्मा के नेतृत्व में नरवरगढ़ को छोड़कर झांसी आ बसे ।

झांसी में व्यवस्थित होने के बाद संत मां कर्मा लगभग सभी सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगीं । संत मां कर्मा की सामाजिक प्रतिष्ठा दिनों दिन बढ़ती ही रही ।

कालांतर में काफी समय बाद समाज के बड़े बुजुर्गों ने तीर्थांटन की इच्छा संत मां कर्मा के समक्ष व्यक्त की  । तीर्थांटन हेतु संत मां कर्मा के नेतृत्व में झांसी के अनेकों बड़े-बुजुर्ग तीर्थयात्रा पर निकल पड़े ।

तत्कालीन परिस्थितियों में यातायात का भारी अभाव था । फलस्वरुप सभी तीर्थयात्री न्यूनतम जरूरी सामान के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े  । उस समय सबसे आसान भोजन खिचड़ी ही था । जो एक ही बर्तन में बगैर किसी अन्य परिश्रम से आसानी से बन जाता था ।  चावल-दाल-नमक और न्यूनतम  छोटे-छोटे बर्तन पर्याप्त था । लगभग सभी तीर्थ यात्रियों का आसान और नियमित भोजन ऐसा ही था ।

अनेक दर्शनीय जगहों की यात्रा और तीर्थयात्रा करके संत मां कर्मा अंत में जगन्नाथपुरी पहुंची अपने अन्य सभी सहयोगी तीर्थयात्रियों के साथ ।

जगन्नाथपुरी मंदिर के पुजारी घोर मनुवादी, छुआछूतवादी, ऊंचनीचवादी और भेदभाववादी थे । वे पुजारी सिर्फ ऊंची जातियों को ही मंदिर प्रवेश करने देते थे ।  ब्राम्हण पुजारी पिछड़ी जातियों को मंदिर के अंदर तो क्या ऊपर सीढ़ियां भी चढ़ने नहीं देते थे । बाहर से ही उन्हें पूजा अर्चना का अधिकार था ।


जब यह बात संत मां कर्मा को पता चली तो उन्होंने इसका विरोध किया । पुजारी फिर भी नहीं माने ।  तो संत मां कर्मा ने वहां पधारे सभी पिछड़ी जाति के तीर्थ यात्रियों को इकट्ठा किया और उनके सामने इस भेदभाव के मुद्दे पर गंभीर चर्चा की ।

अंत में यह तय हुआ कि अमुक दिन और अमुक समय सभी पिछड़ी जाति के तीर्थयात्री और दर्शनार्थी अपने इस धार्मिक अधिकार के लिए एक साथ मंदिर प्रवेश करेंगे ।

जब संत मां कर्मा के नेतृत्व में भारी जनसमूह मंदिर प्रवेश करने लगा । तो ब्राम्हण पुजारियों ने सीढ़ी के पास प्रथम द्वार पर ही संत मां कर्मा को बहुत जोर का धक्का दे दिया । यात्रा से थकी मांदी कमजोर संत मां कर्मा का पुजारियों के जोरदार धक्के से वही प्रणांत हो गया ।


जब हालात् पुजारियों के नियंत्रण से बाहर हो गई । तो वे अंदर से कृष्ण की प्रतिमा लाकर संत मां कर्मा के पास रख दिया और यह अफवाह फैला दिया कि भगवान कृष्ण खुद चलकर आकर संत मां कर्मा को दर्शन दे रहे हैं ।

हमारा अज्ञानी समाज एक बार फिर पंडित पुजारियों के झांसे में आ गया ।

हमें संत मां कर्मा के जीवन संघर्ष से दो मुख्य बाते सीखनीं है । प्रथम-- अन्यायी राजा के राज्य को छोड़कर आपने अहिंसात्मक संघर्ष व विरोध का प्रदर्शन सार्वजनिक तौर से किया था ।

द्वितीय-- धार्मिक अधिकार के मुद्दे को लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से पुरजोर विरोध और  संघर्ष का रास्ता अपनाया । भले ही इसके लिए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़ा । लेकिन वे समाज के सम्मान और अधिकार के लिए एक संदेश छोड़ गई है कि अधिकार के लिए संघर्ष में जीवन का बलिदान भी देना पड़े तो हमें संघर्ष पीछे नहीं हटना चाहिए ।


खिचड़ी को संत मां कर्मा के प्रसाद के रूप में प्रचारित किया जाता है । दरअसल तत्कालीन परिस्थितियों में सीमित साधन सुविधा के कारण लगभग सभी तीर्थ यात्री न्यूनतम सामान और न्यूनतम खाद्य पदार्थ के साथ यात्रा करते थे । क्योंकि खिचड़ी सहज और न्यूनतम साधन सुविधा से उपलब्ध हो जाता था । खिचड़ी का कोई धार्मिक आधार नहीं है ।

यह लेख अंतिम नहीं समझा जावे । बल्कि अन्य सामाजिक लेखक भी अपनी लेखनी संत मां कर्मा के जीवनी पर चलाएं और उनके जीवन संघर्ष  से समाज को परिचित कराएं । 

सभी लेखकों के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए । धन्यवाद ।
Ramlal Sahu Gupta Raipur Chhattisgarh


लेखक--
 रामलाल साहू गुप्ता,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
संपर्क मोबाइल 9407764442.

How right, how wrong is it to end Rahul's membership of Parliament with immediate effect.

राहूल कि तत्काल प्रभाव से संसद कि सदस्यता समाप्त करना कितना सही कितना गलत।

संदीप खुदशाह

        गुजरात के सूरत की सेशन कोर्ट ने चार साल पुराने मानहानि केस में राहुल को दोषी पाया था और दो साल

जेल की सजा सुनाई थी। इसके साथ ही कोर्ट ने निजी मुचलके पर राहुल को जमानत देते हुए सजा को 30 दिन के लिए सस्पेंड कर दिया था।

      दरअसल, जनप्रतिनिधि कानून के मुताबिक, अगर सांसदों और विधायकों को किसी भी मामले में 2 साल से ज्यादा की सजा हुई हो तो ऐसे में उनकी सदस्यता (संसद और विधानसभा से) रद्द हो जाती है। इतना ही नहीं सजा की अवधि पूरी करने के बाद छह वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी होते हैं. राहुल को एक दिन पहले ही कोर्ट ने दो साल की सजा सुनाई और दूसरे दिन लोकसभा सचिवालय की तरफ से जारी नोटिफिकेशन में राहुल की संसद सदस्यता रद्द करने की सूचना दे दी गई है।

     दरअसल, जब मजिस्ट्रेट कोर्ट ने उनको सजा दी और उसके साथ 30 दिनों का स्टे भी दिया था कि आप अपील कर सकते हैं। (लेकिन ये सही सही पता नहीं है कि केवल बेल दिया गया है या फिर स्टे भी किया गया था। इसे देखने की जरूरत है) चूंकि, 2013 में लिली थॉमस बनाम इंडिया मामले की सुनवाई के दौरान जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के सेक्शन (8) और सब सेक्शन (4) को चैलेंज किया गया था कि ये असंवैधानिक है। इसके तहत जो है सिटिंग MP और MLA को 3 महीने का समय दिया जाता था कि वो अपील कर सकते थे और इतने दिनों तक उनकी सदस्यता बरकरार रहती थी, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया था. कोर्ट ने कहा था कि अगर 2 साल की सजा होती है तो आपकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म कर दी जाएगी.

क्‍या मामला है?

साल 2019 का ये मामला 'मोदी सरनेम' को लेकर राहुल गांधी की एक टिप्पणी से जुड़ा हुआ है जिसमें उन्होंने नीरव मोदी, ललित मोदी और अन्य का नाम लेते हुए कहा था, "कैसे सभी चोरों का सरनेम मोदी है?"
 
क्या है कानून ?

●जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8(3) के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो वह अयोग्य हो जाएगा। जेल से रिहा होने के छह साल बाद तक वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए अयोग्य रहेगा।

● इसकी उपधारा 8(4) में प्रावधान है कि दोषी ठहराए जाने के तीन माह तक किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य करार नहीं दिया जा सकता है। और दोषी ठहराए गए सांसद या विधायक ने कोर्ट के निर्णय को इन दौरान यदि ऊपरी अदालत में चुनौती दी है तो वहां मामले की सुनवाई पूरी होने तक उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है।


sandeep khudshah

The novel 'Channa Tum Ugiho' is the story of women's struggle - Prof. Chandrakala Tripathi

उपन्यास ‘चन्ना तुम उगिहो’ स्त्री संघर्ष की कहानी हैं- प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी 


भिलाई- श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में आज हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्य प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी अपने उपन्यास ‘चन्ना तुम उगिहो’ के एक अंश का पाठ किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सदानंद शाही ने उन्हें गुलदस्ता और स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। उपन्यास पाठ के दौरान उन्होंने बताया कि यह उपन्यास स्त्री के जीवन संघर्ष की कहानी को प्रस्ततु करता है। रूपा नाम की स्त्री कैसे संघर्षों को पार करते हुए इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ऊपर उठ जाती हैं? यह एक ऐसी स्त्री है जो मरती नहीं हैं, बल्कि जीवन संघर्षों को पार कर जाती हैं। उपन्यास के संदर्भ में विश्वविद्यालय के कुलपति एवं हिंदी जगत के वरिष्ठ रचनाकार प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में हर स्त्री बंधी हुई नज़र आती हैं। उसे इस व्यवस्था से केवल उतनी ही छूट मिली है, जितनी पुरुष उसे बर्दास्त कर पाता है। लेकिन जैसे ही स्त्री अपने सपने को संजोने का प्रयास करती हैं, वैसे ही उस पर तरह तरह की मर्यादाएं थोप दी जाती हैं। इस कार्यक्रम के दौरान विभिन्न विभागों के विभागाध्यक्ष, सहायक प्राध्यापक एवं बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहें। इस अवसर पर प्रो. वशिष्ट नारायण त्रिपाठी, वरिष्ठ रचनाकार पुष्पा तिवारी, कथाकार कैलाश एवं डॉ. अल्पना त्रिपाठी की गरिमामयी उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव ने किया।

76% reservation:- This step of Baghel government will always be remembered

76% आरक्षण:- बघेल सरकार का यह कदम सदा याद रखा जाएगा

संजीव खुदशाह

भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। एक ओर धार्मिक ग्रंथों ने ऊपर के 3 वर्गों के लिए सारे अधिकार आरक्षित कर दिए। वहीं दूसरी ओर नीचे के आखिरी वर्ण शूद्र को सारे अधिकार से वंचित कर दिया। शूद्र जो आज एससी एसटी ओबीसी में गिना जाता है, कई सालों से उपेक्षित और प्रताड़ित रहा है। यह मांग हमेशा से होती रही है कि आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार मिले और यह अधिकार उसकी संख्या बल के हिसाब से हो। यानी जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम सबके पूर्वजों ने मिलकर संविधान की रचना की, जिसमें शोषित और पीड़ित लोगों को आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। कुछ लोग समझते हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन अभियान का हिस्सा है। जबकि यह गलत है। आरक्षण दरअसल शैक्षणिक, सामाजिक रूप से पिछड़े, सताए हुए लोगों को दिए जाने का प्रावधान संविधान में किया गया है। इसी के तहत आरक्षण दिया जाता रहा है। लेकिन सवर्ण आरक्षण इस सिद्धांत के विपरीत आर्थिक आधार पर दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 76% आरक्षण का जो विधेयक पास किया है। जिसमें अनुसूचित जन जाति को 32% अनुसूचित जाति को 13%  अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% सवर्णों को 4% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। यह निर्णय ऐतिहासिक है, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह निर्णय केवल चुनावी या राजनीतिक नहीं है। उन हजारों वर्षों से दबे, कुचले , पिछड़े लोगों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने का जो प्रयास किया गया है। वह सराहनीय है । हालांकि यहां पर पिछड़ा वर्ग को उनकी जनसंख्या से काफी कम आरक्षण दिया जा रहा है। बावजूद इसके यह एक महत्वपूर्ण कदम है। जिस का स्वागत किया जाना चाहिए।

अब तक सरकारी सेवाओं से लेकर राजनीति, व्यापार, प्रोफेशनल केवल ऊची जातियों के ही देखे जाते थे। बाकी जातियों के लोग चतुर्थ श्रेणी का काम करके ही अपना काम चलाते थे। भले ही उनकी योग्यता कहीं अधिक रही हो । यह लोग धार्मिक दृष्टिकोण से भी निम्न माने जाते रहे हैं। इस कारण इनमें मानसिक विकास बाधित होता रहा। क्योंकि अगर आप किसी को लगातार निम्न या ताड़न के अधिकारी कहते रहेंगे । तो वह व्यक्ति अपने आप को कुछ समय बाद वैसा ही मानने लगता है।

यहां बताना जरूरी है कि इसके पहले भी भूपेश बघेल की सरकार ने ओबीसी को 27% आरक्षण देने का आदेश पारित किया था। लेकिन कुछ जातिवादी सवर्णों ने हाई कोर्ट पर मुकदमा दायर कर दिया।  यह आदेश टिक नहीं पाया। हाई कोर्ट ने कहा कि इसके लिए जनगणना का डाटा पेश करें। छत्तीसगढ़ की सरकार ने क्वांटिफिएबल डाटा तैयार किया और उस आधार पर 76% आरक्षण देने का निर्णय लिया।  वह ऐसा विधेयक पास करने में सफल हो गए।

शूद्र जातियों के पिछड़ेपन का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि आज भी उन्हें नहीं मालूम है कि सरकार

Deshbandhu 6 dec 2022

उन्हें क्या बेनिफिट देने जा रही है। भारतीय समाज का 85% हिस्सा शोषण अंधकार अशिक्षा में जी रहा है। उसकी नासमझी का आलम यह है कि उसे अपने हको का इल्म नहीं है।

50% आरक्षण सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने 50% आरक्षण की सीमा तय की थी। लेकिन केंद्र सरकार के 10% सवर्ण आरक्षण ने इस बंधन को तोड़ दिया। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना मुहर लगाया । इस बंधन के टूटने के बाद सबसे पहले झारखंड की सरकार ने अपने यहां आरक्षण की सीमा को बढ़ाया। हालांकि इसके पहले तमिलनाडु की सरकार विधेयक पास करके कई साल पहले से 50% से ज्यादा आरक्षण अपने राज्य में दे रही है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल की सरकार का यह निर्णय बेहद महत्वपूर्ण है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है की धार्मिक रूप से नीच करार दिए जाने वाली जातियों को, उसके साथ साथ सवर्ण जातियों को भी उनके जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण दिया जाएगा। बावजूद इसके 24% क्षेत्र अनारक्षित होगा। जिसमें किसी भी समुदाय के लोग प्रतियोगिता कर सकेंगे।

यहां पर यह बताना जरूरी है की ओबीसी (यानी अन्य पिछड़ा वर्ग जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों के साथ अल्पसंख्यक वर्ग के पिछड़े भी शामिल हैं) को मंडल आयोग ने 52% आरक्षण देने की सिफारिश की थी। इस लिहाज से आज भी जो आरक्षण 27% पिछड़ों को दिया जा रहा है यह उनकी जनसंख्या के मुताबिक बेहद कम है। पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक, सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थान में बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्य पालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया में इनकी जनसंख्या नगण्य हैं । उस लिहाज से 27% आरक्षण महत्वपूर्ण है। आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने से ओबीसी की आरक्षण की लिमिट भी भविष्य में बढ़ेगी ऐसा हम मान सकते हैं। जिस प्रकार मंडल आयोग को लागू करने में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने महत्वपूर्ण कदम उठाया था । ठीक उसी प्रकार भूपेश बघेल के इस कदम का भी स्वागत किया जाना चाहिए और उन तमाम दबे कुचले लोगों को उत्सव मनाना चाहिए। अपनी बेड़ियों के खोले जाने के उपलक्ष में।


Founder of Chattishgarhi cinema Manu Nayak

छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक

संजीव खुदशाह

पिछले दिनों प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता निर्देशक मनु नायक को राज्य का प्रतिष्ठित सम्मान किशोर साहू से सम्मानित किया गया। यह सम्मान सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए दिया जाता है। मैं यहां बताना चाहूंगा की मनु नायक ने छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म कही देबे संदेश का निर्माण और निर्देशन किया था। यह फिल्म उस वक्त बनी जिस समय फिल्मी दुनिया में जाना किसी सपनों की दुनिया में जाना जैसे था।

publish on navbharat Chattishgarh cinema k janak 
मनु नायक बताते हैं की वे एक गरीब परिवार से ताल्‍लुक रखते थे। वह छत्तीसगढ़ में रायपुर जिले के एक गांव कुरा के निवासी थे। बचपन से उन्हें नाटक में भाग लेने का बड़ा शौक था और वे फिल्मी दुनिया मुंबई में अपना भाग्य आजमाना चाहते थे। पैसे नहीं थे मुंबई जाने के लिए। इसीलिए वह 1955 में हाफ टिकट लेकर जो उस समय ₹12 का था, मुंबई  पहुंचे, लेकिन टीटी ने उन्हें पकड़ लिया। बाद में स्टूडेंट समझ कर उन्हें छोड़ भी दिया। वे चार-पांच दिन रहे और फिर लौट कर आ गए। कुछ दिनों बाद फिर गए और वहां की फिल्म कंपनी अनुपम मित्र में नौकरी करने लगे।

वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और ईमानदारी के बल पर कंपनी में एक खास जगह बना लेते हैं। उन्हें कंपनी का वित्त विभाग संभालने के लिए दे दिया जाता है और वह उस समय के तमाम बड़े कलाकार हीरो, हीरोइन ,पार्श्व गायक, संगीतकारों को पेमेंट किया करते थे। इससे उनकी इन सब कलाकारों से पहचान हो गई। एक व्यक्तिगत रिश्ता कायम हो गया। इनका मुंबई से रायपुर आना जाना चलता रहा। उनके भीतर एक कलाकार भी था जो उन्हें मुंबई तक खींच लाया था। बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था और उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित कर रहा था।

कही देबे संदेश फिल्म बनाने की कहानी

डीएमए इंडिया को दिये गये साक्षात्‍कार के दौरान मनु नायक बताते हैं कि जब वह रायपुर में रहा करते थे। तब उनसे एक दलित यानी सतनामी समाज के लड़के से दोस्ती हो गई थी । वह उनका एक करीबी दोस्त बन गया। कभी वह घर आता तो मां उतने क्षेत्र को जितने एरिया में दोस्‍त खड़ा होता था या बैठता था। उस जगह को गोबर से लीप देती थी। यानि उस वक्‍त छुआ-छूत, जाति-प्रथा चरम पर थी । इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती। लेकिन वह कह नहीं पाते। जब फिल्म बनाने की बारी आई तो उन्होंने इस तरह की घटनाओं को याद करते हुए एक रोमेंटीक कहानी तैयार की जो ग्रामीण सामाजिक परिवेश पर आधारित था। जिसमें हीरो दलित परिवार से और हीरोइन ब्राह्मण परिवार से आती थी। इस फिल्म को बनाने में उन्‍हे बहुत मेहनत करना पड़ा । पहले सारे गीत रिकॉर्ड करवाए गए। जिसमें मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर, महेन्‍द्र कपूर , मन्‍ना डे जैसे बड़े गायकों से गवाया गया। बाद में यह गीत काफी हिट हुए। पैसे की कमी थी इसीलिए सेट में शूटिंग नहीं की जा सकती थी। उन्होंने पूरी फिल्म की शूटिंग के लिए छत्तीसगढ़ के ही पलारी गांव का चयन किया । नवंबर दिसंबर ठंड के महीने में उन्होंने इसकी शूटिंग पूरी की। महीनों मुंबई के टेक्नीशियन कलाकार पलारी में जमे रहे।

यहां पर मनु नायक एक फिल्म निर्माता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वह सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्म का निर्माण नहीं करते हैं। बल्कि समानांतर सिनेमा की तरह वह समाज की सच्चाई जातिवाद छुआ छूत को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म के माध्यम से वे सागर सरहदी, श्याम बेनेगल, बसु भट्टाचार्य जैसे बड़े निर्देशकों की सूची में जगह बना लेते हैं।

फिल्‍म को लेकर विवाद

वे बताते हैं कि जब 1965 में फिल्म कहि देबे संदेश रिलीज हुई तो कुछ कट्टरपंथियो को फिल्म के कथानक को लेकर आपत्ति हुई। वे फिल्म को बैन करने की मांग करने लगते है। फिल्म रिलीज होने से पहले काफी चर्चित हो चुकी होती है। मनु नायक इस फिल्म को टैक्स फ्री करवाने लिए एड़ी चोटी एक कर देते हैं। फिल्म टैक्स फ्री होते ही बैन करने का विवाद समाप्त हो जाता है। इस फिल्म को जनता का बहुत प्यार मिला। समीक्षकों और लेखकों द्वारा इसे काफी सराहा गया। क्योंकि यह छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म थी । यह माना जाता है कि यह फिल्म तकनीकी दृष्टिकोण से कमजोर होगी। लेकिन जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो पाते है कि उस जमाने की उच्च तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थी। बेजोड़ संगीत, मजबूत पटकथा, सधे हुए निर्देशन के आधार पर यह एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित होती है।भले ही यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट है । लेकिन दर्शकों पर पूरा प्रभाव छोड़ती है।

86 वर्षिय मनु नायक कहते हैं कि इस फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट उनके पास नहीं है। जो प्रिंट यूट्यूब पर अपलोड की गई है उसकी क्वालिटी बेहद खराब है । वह इसकी प्रिंट को लेकर चिंतित है। यह कोशिश की जानी चाहिए कि छत्तीसगढ़ी भाषा में पहली फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट प्राप्त की जाए और उसका डिजिटलाइजेशन करके छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों में दिखाई जाए। ताकि लोगो को फूहड़ फिल्मों से मुक्ति मिल सके और स्थानीय कलाकारों को मार्गदर्शन। तब कहीं जाकर मनु नायक का सही सम्मान हो सकेगा। यह तारीफें काबिल है कि उन्हें सरकार के द्वारा किशोर साहू सम्मान दिया गया लेकिन उनका कद इस सम्मान से भी कहीं ऊंचा है। हिंदी फिल्म दुनिया में छत्तीसगढ़ के तीन कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। (किशोर साहू, हबीब तनवीर) उनमें से एक मनु नायक भी हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा को एक सलाम तो बनता है।


In the age of silence, who is the supporter of fascism and how?

चुप्पीयुग में, फासीवाद के समर्थक कौन और कैसे?

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(जन संस्कृति मंच के 16वें राष्ट्रीय सम्मेलन में पढ़ा गया भाषण)
डॉ. भीमराव आम्बेडकर भारत में गैरबराबरी के दो कारण मानते थे
एक मनुवाद तो दूसरा पूंजीवाद। यही दोनों जब सत्ता पक्ष में काबिज़ होकर मनमानी पर उतर आए तो उसे फासीवाद कहना ही उचित हैं। मनुवाद जिसमें वर्णव्यवस्था के आधार पर समाज को जातियों के आधार पर चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) में बांटा गया। जो मेहनती पेशे जैसे- किसानी और मजदूरी के काम धंधे से जुड़े मूलनिवासी कहे जाते थे उनको सबसे निचले तबके में रखकर उनका जातिगत उत्पीड़न सदियों-सदियों किया जाता रहा। दूसरा फासीवाद (फ़ासिज़्म) जिसकी पृष्ठभूमि इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन रही जो मार्च 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़" से ग्रहण किए गए। जो पूरी दुनिया में पूंजी के बल पर अधिनायकवाद से पूरे तंत्र को अपनी जकड़न में समेटकर अपना सपना बुनता है। व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मीडिया और धर्म गुरुओं को ऊंचे दामों पर खरीदकर सत्ता के विजयगान और जातियों का गौरवगान उन्माद के स्तर पर गाया जाता है। इसके इतर सब देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं और इसी आधार पर चलता है सत्ता का दमनचक्र।

इसके जरिए एक तो सरकारी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना है, दूसरा धर्म-जातिभेद आधारित नीति को जिसके परिणाम स्वरूप निचले तबके का दोहरा शोषण कर लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में कर लेता है। इसको हमने 2014 से कलबुर्गी, पंसारे और गौरी लंकेश की निर्मम  हत्याओं के रूप में देखना शुरू कर दिया था जब अवॉर्ड वापसी का दौर चल रहा था ठीक उसी समय कुछ लोग इस अवसर की 'आपदा में अवसर' की तर्ज़ पर सम्मान प्राप्त करने में लगे हुए थे। उनकी पहचान न कर हम उन्हें बधाईयां देने उतर गए थे। 

ये कांवड़ को ढोने वाली उन्मादी भीड़ कभी नहीं समझ पायेंगी अपनी मानसिक गुलामी का कारण, ये भागीदारी के दावेदार बस अपने लिए आर्थिक सुरक्षा की दीवार चाहते हैं जो किसी भी कीमत पर क्यों न मिले। देश, समाज और लोकतंत्र के लिए वोट इनके लिए समझौतों का एक पड़ाव भर है, संविधान में दिए गए समता, बंधुता और न्याय से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। ये वही लोग हैं जो हर युग में अवसर तलाशते रहे हैं। बलात्कार और हत्या इनके लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। इन्हें न्याय और स्वाभिमान से कुछ लेना-देना नहीं। पूंजी इनके सब तालों की चाबी बन गई है। ऐसे ही नहीं कोई गुलामी की देहरी पर बैठता। इसके पीछे यही मानसिकता काम करती है। इन्हें अपनी कीमत के आगे झुकना आता है और अवसर के आगे लपलपाना भी। इन्हें गुलामी के लिए लंबा जीवन चाहिए, स्वाभिमान इनके चरित्र पर फबता नहीं। यही हैं फासीवाद को पोसने वाले लोग, यही तो हथियार हैं सत्ता के हाथों में। इन्हें बस अपनी चुप्पी की कीमत चाहिए। ये सदियों तक मौन साधने के आदि हैं। यही फासीवाद की असल ताक़त है। इनके आंदोलन पूंजी की पोटली के नीचे दबकर दम तोड़ते आए हैं। इन्होंने ही फासीवाद के खिलाफ़ जूझने वालों को नागनाथ और सांपनाथ की संज्ञा देकर, जाति के बल पर जनांदोलन को कुचला है। इन्हें बेरोजगारी, महंगाई और अन्याय में रतिभर भी रुचि नहीं लेकिन बातें इन्हीं की करते दिखाई पड़ेंगे ताकि बहुजनों को झांसे में लिया जा सके। यह इनकी, बकरी दिखाकर सिंह पछाड़ने की पुरानी तरकीब है। हमने हाथी को गणेश में तब्दील होते हुए भी देखा है, यही नव ब्राह्मणवाद को जन्म देने वाली मानसिकता है। हमें इस असल दुश्मन की ओर अपनी तर्जनी को कसकर उठाने की ज़रूरत है। ये समय खुलकर बोलने का है लिहाज़ इन पर पर्दा डालने का काम करता है।

फासीवाद जिसमें एक रंग, एक धर्म और एक व्यक्ति के सिद्धांत का डंका पीटा जाता है विविधता का यहां कोई स्थान नहीं, लोकमत व हितों की कोई गुंजाइश नहीं, अभिव्यक्ति जहां देशद्रोह कहकर लताड़ी जाती है, भ्रष्टाचार जहां का मूलव्यवहार है, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जहां सिर्फ राजनीति के हंटर से हांके जाते हों, सच को जहां साम, दाम, दण्ड, भेद से नियंत्रित किया जाता हों, जहां धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर, मनुष्यता को दाव पर लगाकर, झूठ का प्रत्यारोपण किया जाता हो, रोजगार जहां सत्ता स्तुति का गान बन जाता हो, लालच और अवसर जहां चाटुकारिता को बढ़ावा देती हो, योग्यता जहां अपराध बना दी जाती हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज फासीवाद को दलितों के कंधों पर ढोया जा रहा है और दलित नेता इसको आपदा में अवसर की तरह लेकर चुप्पी साधे सबकुछ होते देख रहें हैं। पूंजी उनका ध्येय बन चुका है जिसके आधार पर वे बराबरी की कल्पना कर रहे हैं। जो आर्थिक आज़ादी के उलट महत्वकांक्षाओं की रस्सी पर चल रही है। यह आगे निकलने की होड़, समझौतों के बाज़ार में सरेआम बिकाऊ बनकर अपनी कीमत लगा रहे हैं। जब हाथरस की घटना हुई वे चुप रहे, लखिमपुर खीरी की घटनाओं पर वे चुप रहे, अल्पसंख्यकों पर ढाए गए अत्याचारों पर वे चुप रहे, वे चुप रहे संविधान की अवहेलना होने पर भी। इसके बदले में फासीवादी सत्ता की राह में फूल बरसाते रहे। उन्होंने मनुवाद के परशु को भी अपने हाथ में उठाया, उन्होंने सत्ता की चाभी के हासिल में आंबेडकरी सिद्धांतों को पीकदान दिखाए और जो जागे हुए हैं उनके पथ जेलों तक प्रशस्त करने में चुप्पी से समर्थन किया, उसके समर्थन को कमज़ोर व मनोबल को जातिगत समीकरण से प्रभावित किया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के समय में भी ऐसे अवसरवादी उन्हें यह कहकर छोड़कर भाग खड़े हुए थे कि ब्राह्मणों का साथ हमें नागवारा है। लेकिन बाबा साहब ने ऐसे लोगों की परवाह नहीं की और वे अपने अभियान में शामिल हुए सभी साथियों का स्वागत किया और अपने आंदोलनों को आगे बढ़ाते रहे। यही नहीं उन्होंने अंतर्जातीय विवाह कर यह साबित भी किया था। 

अभी हाल ही में साल भर किसान आंदोलन के चलते लगभग 800 किसानों की शहादत हुई, सरकार उन्हें खालिस्तानी, आतंकी और आंदोलनजीवी कहती रही, कोरोना के दौरान गंगा में लाशें तैरती रही सरकार निष्क्रिय रही। आंकड़े प्रस्तुत करने में हलक सूक गए थे। जामिया, जेएनयू, एएमयू के छात्रों को बेरहमी से पीटा गया, ये हमारे से छुपी हुई घटनाएं नहीं है। शहीनबाग के आंदोलन को भाड़े पर चलाया गया साबित करने की कोशिश भी हम देख चुके हैं। दलितों की निष्क्रियता बता रही है कि आरएसएस और भाजपा दलित नेताओं और  बुद्धिजीवियों को  साधने में कामयाब हो गई है। क्योंकि अब लोग हाथरस की घटना को भी भुलाकर पद प्रतिष्ठा के मद में चूर होकर झूम रहे हैं। जिस सरकार ने दलित समाज की बेटी मनीषा की लाश तक परिवार को अंतिम संस्कार के लिए नहीं दी गई आज उन्हीं के गुणगान में सोशल मीडिया में यही समाज उनके साथ मिलकर आज़ादी का अमृत महोउत्सव मना रहे हैं।

समझना होगा कि दलित और मुसलमान इस देश में क्यों इन पिछले आठ सालों में अनापेक्षित करार देकर इसलिए सड़कों पर मारे दिए जा रहे हैं या जेलों में भर दिए जा रहे हैं क्योंकि वे यह दावा कर रहे हैं कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें भी अभिव्यक्ति का अधिकार है वरना गौतम नौलखा, सिद्धीकी कप्पन, हन्नी बाबू, साजिद गुल, शरजील ईमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, मरीन हैदर, सैबाबा, उमर खालिद और आनंद तेलतुमड़े जैसे अनेक मुखर नागरिकों को जेल नहीं भेजा गया होता। दलित-मुस्लिम एकता और जनांदोलन से जुड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा। उनके खिलाफ न्याय धार्मिक उन्मादी भीड़ और पुलिस के हाथों का हथकंडा बन गया। दूसरी तरफ नुपुर शर्मा अभी भी क्यों कानून की गिरफ्त में नहीं आ पाई? मुस्लिमों के खिलाफ दलितों को लगातार हिंदू होने पर गर्व करवाया जा रहा है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि दलितों के प्रतिनिधि भी आंबेडकर की लीक से हट गए हैं। और अपनी महत्वकाक्षाओं के आगे नतमस्तक होकर संविधान की उद्देशिका की धज्जियां उड़ते हुए देख रहे हैं। संविधान के साथ खिलवाड़ देश का हर एक नागरिक देख रहा है और सवाल पूछ रहा है कि क्या एक गांधी - आंबेडकर का भारत है? क्यों आज आज़ादी के 75 सालों बाद भी जाति-धर्म का उन्माद बलबलाता दिखाई पड़ रहा हैं यह लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगा है।



- हीरालाल राजस्थानी
  संरक्षक, दलित लेखक संघ (दिल्ली)
  07 अक्टूबर 2022

Indigenous Agriculture History of Diwali

 

दीवाली का कृषि‍ मूलनिवासी इतिहास

संजीव खुदशाह

अब तक दुनिया में जितने भी त्यौहार हुये है उनका जन्म उनके स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहा है। चाहे आप यूरोप के क्रिसमस की बात करे या अरब के ईद की या फिर भारत के किसी भी पारंपरिक त्यौहार की बात करे सभी स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहे है। भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में दीवाली का प्रमुख स्थान रहा ।

दीवाली के किड़े

1978 के दौरान जब मेरी उम्र 5 साल की थी तब दीवाली के दिन अपने पिता से प्रश्न कर बैठा "यह दीपावली त्यौहार क्यों मनाते हैं?" मुझे याद है पिता ने सहज रूप से इसका जवाब दिया "बेटा दीवाली के आसपास धान की फसल या तो पकने की होती है या पक जाती है। इस समय यह दीवाली के कीड़े[1] जिससे माहूर भी कहते हैं। धान की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दीप जलाने का फैसला किया। ताकि ज्यादा से ज्यादा कीड़े मारे जाएं और धान की फसल को कीड़े से बचाया जा सके। इसीलिए दीवाली मनाई जाती है।" ये जानकारी उन्हें कहां से मिली ये मालूम नहीं लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से ये बात कही। दरअसल ज्यादातर त्यौहार पूर्णिमा में मनाए जाते हैं लेकिन दीवाली ही एक ऐसा त्यौहार है जो कि अमावस में मनाया जाता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि ज्यादा से ज्यादा कीट दिए तक आकर्षित किए जा सके। यह तभी होगा जब रात अंधेरी होगी।

मुझे याद है जब उस समय हमारे घरों में दीवाली मनाई जाती थी। तब लाई बताशो के सामने दीप जलाकर तथा धान की झालर[2] से घर सजा कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम वनवास से लौटने की कथा से अनभिज्ञ थे। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान के खेतों से घिरा हुआ था। आसपास धान की खेती के कारण दीवाली के समय धान के कीड़े जीना मुहाल कर देते थे। दिन भर तो ठीक रहता। लेकिन जैसे ही शाम ढलती, यह कीड़े उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। यह पके हुए खानों में गिरते । काफी परेशानी होती इन कीड़ों से। हम इसे दीवाली के कीड़े कहा करते थे। ये बताना यहां पर महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ में दीवाली त्योहार को देवारी नाम से संबोधित किया जाता है।

मेरा बाल मन यही समझता था कि यह कीड़े भी दीवाली मनाने आते हैं या लोगों को याद दिलाने आते हैं कि अब दीवाली मनाने का वक्त आ गया है। धान की खेती से इसका कोई संबंध है यह बात बाद में समझ में आई। छत्तीसगढ़ के गांव में दीवाली का उत्सव मनाया जाता है । इसमें आज भी लाई बताशे एवं स्थानीय पकवान की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती। धर आंगन को गोबर, छूई[3] एवं गेरु[4] से लीपा पोता जाता है। वे आज भी लक्ष्मी पूजा या राम वनवास की कथा से परिचित नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि दीवाली समेत ज्यादातर त्यौहार कृषि एवं उसकी परंपरा पर आधारित है। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने मनगढ़ंत कहानियां रच कर इन त्योहारों को धर्म से जोड़ दिया।

 हमारे देश में दशहरा त्यौहार खरीफ फसल की बुवाई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा कार्यक्रम में राम रावण का नामो-निशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत के दशहरे में लोग राम रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं वह भी राम रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं। यानी दशहरे का  त्यौहार कृषि आधारित है ना कि धर्म पर आधारित, यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे। इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू बौद्ध जैन धर्म के लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रवि फसल की बुवाई के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है। इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है।

यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था। उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मुहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है। भारत में रवि फसल की खुशी में होली मनाई जाती है। लेकिन धार्मिक लोगों ने इन प्राकृतिक त्यौहारों को अपना बताने लगे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। इन्हीं त्यौहारों के बहाने तत्कालीन विरोधियों को भी निशाना बनाया गया। जैसे रावण, होलिका, बली राजा आदि आदि।

जानिये अन्य राज्यों में दिवाली का त्यौहार कैसे मनाया जाता है?

गुजरात- गुजरात में नमक व्यवसाय अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है इसलिए वहां के कृषक नमक को साक्षात धन का प्रतीक मानकर दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है।

राजस्थान- में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात धन का आगमन माना जाता है।

उत्तरांचल- के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं

हिमाचल- प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।

मध्य प्रदेश- मध्‍यप्रदेश के बघेलखण्‍ड क्षेत्र में इस दिन खास तौर पर लाई बताशे के साथ ग्‍वालन की पूजा की जाती थी। इसी प्रकार मालवा क्षेत्र के मुस्लिम दीवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते है । इस अंचल में मुस्लिम समाज द्वारा दीपावली पर्व मनाए जाने की परम्परा आज भी कायम है।

उड़ीसा - उड़ीसा निवासी सुधांशु हरपाल कहते हैं कि उड़ीसा के ग्रामीण अंचल में दिवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता ना ही इस प्रकार के किसी त्योहार मनाने की परंपरा है। लेकिन यहां पर एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके आसपास मनाया जाता है। जिसका नाम नुआखाई है । इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने के हिसाब से अलग-अलग होता है।

आइए अब जाने की कोशिश करते हैं कि इस भारत के इंडिजिनियस आदि त्यौहार को या मूल निवासी त्यौहार को मनाने के लिए विभिन्न धर्म क्या दावे करते हैं?

हिंदू धर्म- इस धर्म में यह दावा किया जाता है कि राम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात इसी दिन अयोध्या लौटे थे । इसीलिए अयोध्या वासी दीपों से उनका स्वागत किया। गौर तलब है की वाल्मीकि रामायण एवं तुलसी रचित रामचरित मानस में ऐसे किसी त्यौहार का जिक्र नहीं मिलता है। उसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि समुद्र मंथन पश्चात इस दिन लक्ष्मी और कुबेर प्रकट हुए थे । इसीलिए यह त्यौहार मनाया जाता है। इसी प्रकार कृष्ण से जुड़ी भी कई कथाएं इस त्यौहार की पीछे जोड़ी जाती है। वेदों और पुराणों में इस तरह के त्यौहार का कोई जिक्र नहीं है।

बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म के अनुयाई द्वारा भी दावा किया जाता है कि यह त्यौहार बौद्धों का है। भगवान बुध ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद इसी दिन अपने निवास कपिल वस्तु गए थे। इसलिए लोगों ने उनका दीपों से स्वागत किया था। यह दावा भी किया जाता है कि इसी दिन सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों में दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था। एक बौद्ध विद्वान का दावा है कि जिस प्रकार वैदिको[5] ने उनके याने बौद्धों के बौद्ध विहार को मंदिर एवं बुध मूर्तियों को देवी देवताओं में बदल दिया। इसी प्रकार इस बौद्ध त्यौहार को काल्पनिक कहानियों के सहारे हिंदू त्यौहार में बदल दिया गया। जबकि दीप और दीप जलाने की परंपरा बौद्धों ने शुरू की है। ‘’अप्पो दीपो भव’’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो की बात सबसे पहले  भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई थी।

जैन धर्म- जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के साथ जो अंतर ज्योति सदा के लिए बुझ गई । उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक में दीप जलाए गए और दीपावली की परंपरा शुरू हुई।

सिख धर्म- सिख धर्म के अनुयायियों का दावा है कि इसी दिन 1618 को सिखों के छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। इस खुशी में सिख समुदाय प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली को मनाते हैं।

मुस्लिम धर्म- जैसा कि पूर्व में बताया गया है। मध्य प्रदेश के मालवा के मुस्लिम इस त्यौहार को जश्ने चिराग के रूप में मनाते हैं। ऐसी जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह भी अपने महलों में इस त्यौहार को शान से मनाते थे और किलों में रोशनी की जाती थी।

अब प्रश्‍न ये उठता है कि ऐसा क्या कारण है कि दीवाली त्यौहार पर लगभग सभी स्थानीय धर्मों द्वारा अपना दावा पेश किया जाता है?

इसका कारण यह है कि दीपावली या दीवाली एक आदि या भारत के मूल वासियों का कृषि आधारित त्यौहार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मानव जीवन किसी त्यौहार के बिना अकल्पनीय है। यह खरीफ फसल पकने की खुशी का त्यौहार है इसे बड़े पैमाने मे तब से मनाया जाता रहा होगा जब से इन धर्मों का  अस्तित्व नहीं था। हम यह कह सकते है कि दीवाली जैसे त्यौहार का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना कृषि का इतिहास। भारत में पनपे किसी भी धर्म के लिए बहुत कठिन रहा होगा की वे इन परंपरागत त्यौहारों को नजरंदाज कर दे। इसलिए सभी धर्मों ने दीवाली पर अपना-अपना दावा पेश किया। वैसे भी धर्म के प्रचार के लिए ये परंपरागत त्यौहार बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आसान जरिया होते है।



[1] एक खास प्रकार के हरे रंग के कीट पतंगे जो धान की बालियों के आकार के होते है।

[2] धान से बनी हुई कलात्मक झालर जिसे स्थानीय भाषा में चिरई चुगनी भी कहा जाता है।

[3] एक प्रकार की मिट्टी जो सफेद रंग की होती है।

[4] एक प्रकार की मिट्टी जो लाल रंग की होती है।

[5] हिन्‍दूओं या ब्राहणो