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दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह, मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंने अपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है।


सफाई कामगारों की व्यथा से दूर हिंदी साहित्य

साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। साहित्य मे हमें समाज की प्राचीन एवंनवीन- हर तरह की जानकारी मिलती है। हिंदी साहित्य में उन उपेक्षित औरलाचार लोगों का भी साहित्य है, जिन्हें समाज से केवल दुत्कार,उपेक्षा,तिरस्कार और अस्पृश्यता ही मिली है। ऐसे लोगों के दर्द के दर्पण दलितसाहित्य को हिंदी साहित्य में अपना स्थान बनाने के लिए कई तरह के विरोधोंका सामना करना पड़ा। कई साहित्यकार इसे अलग साहित्य का नाम देने के पक्षमे नहीं थे। परंतु दलित साहित्य ने हर विरोध का सामना करते हुए साहित्यमें अपनी अलग जगह और अस्तित्व बनाया और आज इसे प्रोत्साहन भी मिल रहाहै।…………..सुरेखा पुरुषार्थीपरंतु दलितों में भी एक ऐसा महादलित समाज है, जिसकी वास्तविकता की असलीकहानी से किसी भी लेखक ने समाज को अवगत नहीं कराया। वो महादलित समाज है-सफाई कामगारों का। इस समाज के विषय पर साहित्य में ज्यादा चर्चा नहीं हुईहै। महादलित सफाई कामगार वर्ग, 'जो हजारों साल से नरक का जीवन जीते आयाहै और आज आधुनिकता के युग में भी वही नरक का जीवन जी रहा है।'साहित्यकारों का मानना है की दलित साहित्य की शुरुआत तो प्रेमचंद केकाल से ही हो गई थी। अपने साहित्य मे उन्होंने हमेशा दलितों के दुःख-दर्दका वर्णन किया,जिसका एक उदाहरण उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना- गोदान- है। परंतुप्रेमचंद ने भी अपने साहित्य मे सफाई कामगारों का वर्णन नहीं किया है। एकऔर ऐसे साहित्यकार हैं, जो दलितों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं-अमृतलाल नागर। उन्होंने साहित्य को नाच्यो बहुत गोपाल, बगुले के पंख, आदिजैसी रचनाएं दी है। नागरजी ने अपनी इन दोनों रचनाओ में मेहतर जाति(दलितों की ही एक जाति) को विषय बनाया है। परंतु उन्होंने भी अपनी रचनामें सफाई कर्मी की पीड़ा और व्यथा का वर्णन करने की जगह अपने ही मन केद्वेष को उड़ेल कर रख दिया है। उनके उपन्यास "बगुले के पंख" का नाम हीसफाई कामगार का मजाक उड़ाता जान पड़ता है। बहुत से अन्य साहित्यकारो ने
भी लगभग ऐसा ही किया है।
सफाई कामगार वो लोग हैं, जो सुबह सूरज की किरणों के साथ ही दूसरे लोगोंका मैला अपने सिर पर ढोने के लिए निकल पड़ते हैं। मानव का मानव पर येकैसा जुल्म है, जहा एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का मैला अपने सिर पर ढोने केलिए बाध्य है। सिर पर मैला ढोने वाले इन लोगों का जिक्र तो दलित साहित्यमें मिलता है, पर सफाई कामगारों के तहत वे लोग भी हैं, जो हर रोज कहीं नाकहीं, किसी ना किसी जगह गंदे नाले (सीवर) में सफाई के लिए उतरते हैं।इनकी निर्मम दशा के विषय मे कहीं भी, किसी भी साहित्यकार ने बात तक नहींकी है। साधारण शब्दों में कहें तो समाज के इस वर्ग को साहित्य ने
उपेक्षित रखा है।
दलित साहित्य के तहत संजीव खुदशाह, सुधीर सागर, गुलाब सिंह, सतनाम शाह,मुलख चांद, बब्बन रावत, रामनाथ चंदेलिया तथा और भी कई लोग हैं, जिन्होंनेअपने लेखन में सिर पर मैला ढोने वालों के विषय में चर्चा की है। परंतुसीवर साफ़ करने वाले इन लोगों का जिक्र किसी ने नहीं किया। लेकिन इनमहादलित लोगों की सही हालत और उनकी व्यथा का स्पष्ट वर्णन मैंने हाल हीमें दर्शन रतन रावण जी की पुस्तक 'आंबेडकर से विमुख सफाई कामगार समाज'में पढ़ा है।दर्शन रतन रावण हालांकि लेखक या साहित्यकार नहीं हैं, और उनकी पुस्तकउनका पहला प्रयास भी है, लेकिन अपने इस प्रयास मे ही उन्होंने सफाईकामगार लोगों की जहालत की जिंदगी का इतना सजीव वर्णन किया है कि पाठक केमन में उन पलों की तस्वीर स्पष्ट उभरती है, जब एक सफाई मजदूर सीवर मेउतरता होगा। दर्शन रतन रावण ने केवल उनकी अमानवीय दशा का ही वर्णन नहींकिया है, बल्कि ये भी बताया है की हर वर्ष कितनी बड़ी संख्या मे सीवरसाफ करने वाले सफाई कर्मी बीमारी या सीवर में ही दम घुटने की वजह से मरजाते हैं और सरकार को इसकी कोई खबर तक नहीं होती।यानी आज समाज में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने इन लोगो के दुख दर्द से समाज कोअवगत कराने का बीड़ा उठाया और उनमें दर्शन रतन रावण, हरकिशन संतोषी जैसेलोग शामिल हैं। ये प्रयास केवल कलम और पन्नों तक ही सीमित नहीं है।दर्शनरतन रावण स्वयं इसी जमीन से जुड़े हुए हैं और "आदि धर्म समाज" जैसे संगठनके माध्यम से पूरे भारत मे सफाई कर्मियों के विकास, सांस्कृतिक परिवर्तनएवं सम्मानजनक पहचान के लिए कार्य कर रहे हैं।आज समाज हर वर्ग उन्नति केशिखर पर पहुंच रहा है, पर महादलित वर्ग आज भी वहीं जी रहा जहां सदियोंसे जीता आया है। अब साहित्यकारों को इन लोगो के दर्द को साहित्य में जगहदेकर अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए।
(साभार – सामयिक वार्ता)

न्याय की कसौटी पर साहित्यीक चोरी

त्रैमासिक पत्रिका, अपेक्षा, नई दिल्ली,    अंक अप्रैल- जून २००८

न्याय की कसौटी पर साहित्यीक चोरी ..........!

*   संजीव खुदशाह

मुझे यह जानकारी देते हुए बेहद दुख हो रहा है कि हमारे ही बीच के ही तथाकथित वरिष्ठ लेखक श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी नई किताब सफाई देवता में ज्यादातर तथ्य एवं स्थापनांए मेरी मौलिक किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` से तोड़-मरोड़ कर अपने नाम से पेश की गयी है।

ज्ञातव्य हो कि इस किताब को लिखने में मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी, जिसमें कई पुस्तको का अध्ययन, विभिन्न स्थानों पर भ्रमण, साक्षात्कार शामिल है। इस कार्य में मुझे लगभग तीन से चार वर्ष लगे। यह किताब राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। इस किताब को वृहद रूप से सराहा गया था। छत्तीसगढ़ में इसे साहित्य का तेजस्वनी सम्मान भी प्राप्त हुआ। साथ ही इस किताब को अमेरिका की वाशिगटन यूनिर्वसिटी लायब्रेरी में ''भारत में भंगी समुदाय अध्ययन`` हेतु शामिल किया गया है। पूर्व में इस विषय पर १९६९, १९७६ तथा १९९४ में तीन अन्य अंग्रेजी किताबों को शामिल किया गया था। २००५ में शामिल हुई यह इस विषय पर पहली हिन्दी भाषा की किताब है। यह समस्त दलितों के साथ हिन्दी भाषा-भाषियों के लिए भी गर्व की बात है। इस जानकारी को यूनीर्वसिटी अपनी आधकारिक वेबसाईट पर प्रकाशित किया है।

मासिक पत्रिका  ''प्रकाशन समाचार`` से मुझे जानकारी मिली की श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि की नई किताब सफाई देवता प्रकाशित हुई है। मैने सर्व-प्रथम उसी दिन शाम को श्री वाल्मीकि से फोन पर बात की तथा नई किताब के प्रकाशन पर उन्हे बधाई दी। इसके बाद मैंने प्रकाशक के सचिव को फोन पर इस किताब को भेजने हेतु कहा और यह किताब मुझे मिल गई। मुझे बेहद प्रसन्नता हुई की इस विषय पर एक और किताब का प्रकाशन हुआ है तथा दलित साहित्य और अधिक समृघ्द हो रहा है, लेकिन किताब पढ़ते ही मुझे लगा कि कई तथ्य मेरे किताब से लिये गये है तथा उनका उचित संदर्भ भी नही दिया गया है। मुझे लगा की ऐसा संपादकीय त्रुटिवश भी हो सकता है लेकिन कई पृष्ठो में ऐसी ही स्थिति थी। मुझसे रहा नही गया, दूसरे दिन मैने श्री कवंल भारती जी से इस बाबत् चर्चा की तथा उन्हे उक्त अंशो की फोटो कापी भेजी। और भी कई लेखको को मैने अंश की फोटो कापी दिखायी । तत्पश्चात् मैने एक औपचारिक पत्र दिनांक २९.२.०८ को स्पीड पोस्ट से श्री वाल्मीकिजी को भेजा। उन्होने मुझे दिनांक ३.३.०८ को रात्रि ९.१७ बजे फोन किया तथा यह माना की कुछ स्थानों पर मेरी किताब का सन्दर्भ देने में भूल हो गई है, जिसे अगले संस्करण में सुधार लिया जायेगा। मैंने उन्हे लिखित मे जवाब देने हेतु निवेदन किया। किन्तु आज दिनांक तक उनका न तो कोई खण्डन आया, न ही कोई लिखित में जवाब मुझे मिला।  इसके बाद पुन: दिनांक ८.३.०८ रात्रि ८.३४ बजे उनका फोन आया। उन्होने करीब दस से पन्द्रह मिनट तक मुझसे बात की उनका कहना था कि ''मै तुम्हे अपना छोटा भाई मानता हूॅं, तुम कहो तो अपनी अगली किताब तुम्हारे नाम कर दू। इस लाइन (लेखकीय लाइन से आशय है) में ऐसा तो होता ही रहता है। एक जगह तो तुम्हारा नाम दिया है न मैने। तुम्हे शांत रहना चाहिए।``

मैने इस विषय पर लिखने से पहले बहुत सोच-विचार किया तथा वरिष्ठ लेखकों तथा शोधकर्ताओं से विचार विमर्श भी किया। बड़ी मानसिक उलझनो एवं अंर्तद्वंद से मुझे गुजरना पड़ा। क्योकि मेरे मन मे उनके प्रति आदर ही था, जो मुझे उनके खिलाफ लिखने से रोके रहा । किन्तु मै ऐसा मानता हूॅं, कि समाज की बुराई के खिलाफ कलम उठाने पर ही मुझे समाज में एक स्थान मिला है। इस स्थान का हकदार मै बना रहूं इसके लिए जरूरी है कि समाज की बुराईयों से लड़ता रहूॅ, बिना किसी का चेहरा या कद देखे (आशय पक्षपात से है।)। चाहे इसके लिए मै समाज मे अकेला ही क्यों न कर दिया जाउ। क्योंकि इस प्रवृत्ति को भी मैं एक समाजिक बुराई मानता हूॅ। इसके बाद मैने तय किया कि मुझे मुखर होना ही पड़ेगा, अन्यथा कई मौलिक कृतियां ऐसी ही कुटिलताओं के नीचे दफ्न होकर रह जायेगी।

लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पूरी किताब में कई जगह बिना ''सफाई कामगार समुदाय`` किताब का संदर्भ देते हुए अंश अथवा अंश को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। यह उनकी विद्वता और मौलिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।

पृष्ठ क्रमांक-५० ( सफाई देवता ) में वे लिखते हैं-

''डॉ. विमल कीर्ति की भी इसी तरह की मान्यता है कि सुपच सुदर्शन ऋषि और कोई नही सुदर्शन नाम के बौध्द श्रमण थे। नागपुर के आसपास अनेक लोग (भंगी समाज)`` सुदर्शन को अपना गुरू मानते है। पालि भाषा के अनेक ग्रन्थों में सुदर्शन नामक एक बौध्द भिक्षु का जिक्र आता है।``

यह तथ्य डॉ विमल कीर्ति से मेरी बातचीत के दौरान सामने आया था जिसे मैने अपनी किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` में पृ. क्र. ७६ में लिया था।

''४. इसी सन्दर्भ मंे डा. विमल कीर्ति, जो नागपुर विश्वविद्यालय में पालि भाषा के प्रमुख है, ने अपनी मुलाकात के दौरान बताया कि सुपक्ष सुदर्शन ऋषि कोई और नही बल्कि बौध्द धर्म के श्रमण श्री सुदर्शन (पाली ग्रन्थों में श्रमण सुदर्शन नामक एक बौध्द भिक्षु का विवरण मिलता है।) रहे होगें। जिन्हे पिछड़ी जाति के लोग आज अपना गुरू मानते है। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि समस्त पिछड़ी जाति बौध्द नही होगी। इसके विरोध के कारण ही उन्हे नीच करार दिया गया होगा।``

इसी प्रकार पृष्ठ क्रमांक ५७ ( सफाई देवता ) में १९१० की जनगणना के कमिश्नर की रिपोर्ट में अछूतों के लक्षण बताए गए है।

''१. जो ब्राम्हणो की प्रधानता नही मानते।

२. जो किसी ब्राम्हण अथवा अन्य किसी माने हुए गुरू से मन्त्र नही लेते

३. जो वेदों को प्रमाण नही मानते

४. जो हिन्दू देवी-देवताओं को नही पूजते

५. जो हिन्दू मन्दिरों में नही जा सकते है।``

इन पर करीब १२ लक्षणो पर गहन विवेचना मेरी किताब में प्रस्तुत की गई है जिसके अंश तोड-मरोड़ कर यहां प्रस्तुत किये गये है। ठीक इसी प्रकार पृ.क्र. ७९( सफाई देवता) में लिखा गया है

''छिटकी-बुंदकी के आधार पर इनकी शादी-विवाह तय होते है। छिटकी-बुदकी में इनके मूल निवास और देवी-देवताओं की जानकारी मिलती है। छिटकी-बुंदकी न मिलने से रिश्ते नही बनते। इनमें 'जसगीत` गाने की एक विशिष्ट शैली पाई जाती है।``

किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` (देखे पृ.क्र.-९५) के पृ.क्र. ११० में छिटकी बुंदकी पर पूरा का पूरा एक उपअध्याय है उसी में से उक्त अंश को तोड़-मरोड़ कर उदधृत किया गया है। छिटकी बुंदकी पर मेरे व्दारा विवेचना की गई है तथा निष्कर्ष निकाले है, उसी निष्कर्ष को उपर लिख दिया गया है। इसी प्रकार नाभाजी का जिक्र पृष्ठ क्रमांक १३३ ( सफाई देवता ) में दिया गया है, जिसका संदर्भ पहली बार किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` में आया था।

''सफाई कामगार समुदाय`` पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक १३७ में विभिन्न राज्यों के सफाई कामगारों के जातियों के नाम दिये गये थे। इसी सूची को थोड़ा बहुत संशोधित करते हुए श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि व्दारा अपनी किताब ( सफाई देवता ) पृष्ठ क्रमांक १४७ में प्रस्तुत किया गया है। उनका यह कृत्य साहित्यिक अथवा प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर एक ओछा कार्य है। उनसे अपेक्षा थी कि वे  बताते कि ये सारे तथ्य उन्होने कहां से उठाएं है। शायद इससे उनका मान और बढ़ जाता। वे यह भी बताते कि डॉ. विमल कीर्ति से सुदर्शन ऋ़षि के बौध्द श्रमण होने का तथ्य उन्होने कहां से लिया है। शायद वे जगह-जगह पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` का जिक्र करने में शर्मिदगी महसूस कर रहे होंगे। अथवा वे फासीवादियों की तरह दूसरों की उपलब्धियों को चट कर जाना चाहते है। इस प्रकार कई जगह पर मेरी किताब से निकाले निष्कर्ष को बहुत ही आसानी से इस किताब में लिया गया है। शायद वे किताब के शुरू में आयी कापी-राईट की चेतावनी को पढ़ना भूल गये।

पूरे किताब में श्री ओम प्रकाश वाल्मीकि व्दारा मेरी अथवा किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` का जिक्र किये जाने से बचने की कोशिश स्पष्ट नजर आती है। केवल एक जगह पृष्ठ क्रमांक ७६ ( सफाई देवता ) में संजीव खुदशाह का जिक्र किया गया है, वह भी एक साक्षात्कार की रिर्पोटिंग के सम्बन्ध में। वैसे तो पूरी की पूरी किताब पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` की छाया से उबर नही पाई है।

एक वरिष्ठ साहित्यकार व्दारा ऐसा किया जाना उनके साहित्यक बौने पन की निशानी है। आज जब दलित आंदोलन तेजी से आगे बढ़ रहा है, ऐसे वक्त में श्रेय लेने की होड़ में कुछ लोग ऐसा कृत्य भी करेंगें यह अकल्पनीय था। बेहतर होता प्रतियोगिता एवं ईर्ष्या की भावना से उपर उठकर वे एक मौलिक कृति को अंजाम देते, जो सामाज को रास्ता दिखाने के काम आती।

 

 

 

दलित साहित्य-दलित चेतना व हिन्दी साहित्य पर विचार गोष्ठी

दलित चेतना व हिन्दी साहित्य पर विचार गोष्ठी

पिछले दिनों मायाराम सुरजन फाउण्डेशन द्वारा ''दलित चेतना एवं हिंदी साहित्य`` विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। युवा दलित लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता संजीव खुदशाह ने इस विषय पर विस्तार पूर्वक आलेख प्रस्तुत किया जिस पर उन्होने कहा की दलितों में आई सामाजिक चेतना एवं दलित चेतना में जमीन आसमान का फर्क है। अच्छे साफ कपड़े पहनना, विलासिता के वस्तु का संचय करना उच्च पदो में पहुचने का दंभ भरना समाजिक चेतना है किन्तु दलित चेतना इन सबसे परे अपने इतिहास को पहचानना, अपने शोषको की संस्कृति का तिरस्कार करना एवं डा. आम्बेडकर की विचार धारा का पालन करना है। श्री संजीव खुदशाह यह मानते है कि दलित साहित्य के केवल विचारात्क साहित्य का सृजन गैर दलित कर सकते है लेकिन वे सृजनात्मक साहित्य का सृजन वे नही कर सकते क्योकि यह वही लिख सकता है जिसने उस दंश को भोगा है। युवा विचारक तुहीन देब ने कार्यक्रम आयोजन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला।

इस अवसर पर लेखक एवं समीक्षक डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ने कहा की सवर्ण लेखक के द्वारा दलित साहित्य पर लिखी गई रचनाओं को सिरे से नकार देने के मै पक्ष में नही हूं अमृतलाल नागर, प्रेमचंद, नागार्जुन, हृदेयश जैसे लेखको ने इसी तरह की रचनाए लिखी है। उन्होने कई पौराणिक उदाहरण भी प्रस्तुत किये। दूरदर्शन के केन्द्र निदेशक टी.एस. गगन ने अपने उदबोधन में कहा की संजीव खुदशाह ने एक ज्वलंत विषय पर गंभीर बहस का मौका दिया है, उनके तर्क,  उनकी सहमती-असहमती पूर्वागह से परे है। वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन ने कहा की इसी फाउण्डेशन से संजीव खुदशाह की पहली किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` का  लोकार्पण किया गया था आज वे दूसरी बार इस मंच पर अतीथि के रूप में आमंत्रित है। आज दलित साहित्य अपनी सहमती असहमती के बीच से गुजर रहा है ऐसे वक्त कई दलित लेखक रंजनापूर्ण साहित्य का लेखन कर रहे है ऐसे दौर में संजीव खुदशाह जैसे दलित लेखक समग्र दृष्टिकोण से लिख रहे है ये एक अच्छी बात है। विख्यात समाज चिंतक डॉ. डी.के.मारोठिया ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की एवं दलित चेतना को रेखांकित करते हुए अपना उद्बोधन दिया। सामाजिक कार्यकर्ता एवं अधिवक्ता एम.बी.चौरपगार ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये। कार्यक्रम में गुलाब सिंह, गिरीश पंकज सदस्य साहित्य आकादमी, प्रदीप आचार्य , श्रीमति कौशल्यादेवी खुदशाह, शाबाना आजमी, सोनम, मोतिलाल धर्मकार, कैलाश खरे आदि बड़ी संख्या में प्रबुध्दजन उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन फाउण्डेशन के सचिव राजेन्द्र चांडक ने किया।

प्रस्तुति
सचिन कुमार

Dalit literature Year 2011 (Hindi)

Dalit literature Year 2011 (Hindi)
इस वर्ष हंस पत्रिका व्दारा जारी उल्लेखनीय दलित साहित्य २०११ इस प्रकार है।


क़मांक
किताब   
लेखक
अन्य
1
दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक
कंवल भारती

2
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
संजीव खुदशाह

3
धर्म के आरपार
नीलम कुलश्रेष्ठ

4
साहित्य के दलित सरोकार
कृष्ण दत्त पालिवाल

5
नागपाश में स्त्री
गीताश्री

6
जनसंख्या समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते
रवीन्द्र पाठक

7
पत्तो में कैद औरते
शरद सिंह

8
दलित मुक्ति संधर्ष और कथा साहित्य
इकरार अहमद


अन्य किताबे जिनका भी उल्लेख किया जाना चाहिए

9
डंक
रूपनारायण सोनकर

10
अंधेरे में कंदील
कुंति

11
बस एक बार सोचों
डा. सुधीर सागर

12
नरक की सफाई
के.एस. तूफान

View of Dalit Sahitya


दलित साहित्य का नजरिया
  • संजीव खुदशाह
साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा यही रही है कि ''साहित्य वही है जो समाज के यर्थात का चित्रण करे, समाज को समाज के सत्य से परिचित कराये।`` इसीलिए साहित्य को समाज का प्रतिबिन्ब भी कहा जाता है। मेरे दिमाग में यह प्रश्न हमेशा कौंधता था कि दलित साहित्य की स्वीकारोक्ति पर विवाद क्यों? जबकि भारतीय समाज में साहित्य के कई रूप पहले से ही मौजूद है जैसे भक्ति-साहित्य, संत-साहित्य, सूफी-साहित्य, आदि-आदि। साहित्य के स्वयंभू मठाधीश आखिर क्यों दलित साहित्य को साहित्य के रूप में स्वीकारने में कोताही बरत रहे है?
इसके जवाब में मुझे खुशवंत सिंह के एक साक्षात्कार की याद रही है। जिसमें उन्होने कहा था - पंजाब में महिलाओं को हिन्दी पढ़ाने पर जोर दिया जाता है। ताकि वे पंजाबी साहित्य की वैचारिक बाते पढ़ सके तथा उन्हे हिन्दी में गीता प्रेस की ही किताबे लाकर दी जाती जिससे वे पति सेवा एवं चाहर दिवारी को ही अपना संसार समझे। उन्होने आगे कहा -गुरूमुखी इन्हे इतनी ही सिखाई जाती कि वे गुरूग्रंथ साहेब का पाठ कर सके।
दरअसल यही परम्परागत भारतीय साहित्य का सच भी है। यहां पूरा दलित समाज पंजाब की महिलाओं जैसा है, जिन्हे तुलसीदास के इन पक्तियों को पढ़ने की छूट है ''ढोर गवार शूद्र पशु नारी, ये है ताड़न के अधिकारी।`` उस पर भी जुमला ये की यही उत्कृष्ट साहित्य है। आज तक भारतीय साहित्य में साहित्य उसे माना गया जो लिखा गया चाहे वो कामसुत्र ही क्यो हो और लिखने का ठेका उनके हाथो में जिन्होने कभी यर्थात को भोगा ही नही। तभी तो भारतीय साहित्य यर्थात से लंबे समय तक विमुख रहा। यदि कभी किसी ने लिखा भी तो उसे हासिये पर पटक दिया गया। चाहे वो बौध्द हो, रविदास हो या संत कबीर का साहित्य। दलितों को वैचारिक चेतना से दूर रखना एवं जातिय दंभ को भूला पाना ही दलित साहित्य को अस्वीकारने का मुख्य कारण है।
हम इन पूरे परिप्रेक्ष्य पर गौर फरमाये तो देखेगे की साहित्य पर हमेशा राजनीति का प्रभाव रहा है। भारतीय सभ्यता में या संकुचित अर्थो में हिन्दु समाज कहें तो, राजनीति ने कभी इस विकृत सामाजिक ढांचे को बदलने का प्रयास नही किया बृहदत्त के बाद किसी ने ऐसी कोशिश नही की बल्कि इसे पुष्ट ही किया इसलिए जातिगत प्रताड़नाएं बढ़ती गई और एक वर्ग आरामतलब होता गया। लगभग दो हजार साल के गुलामी काल में विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी इसे हिन्दुओं का अन्दुरूनी मामला कहकर छेड़ने से परहेज रखा। शायद यही कारण रहा हो कि सवर्णो को आजादी के लिए आन्दोलन चलाने की जरूरत नही पड़ी। बल्कि इसी वक्त श्रीराम  तुलसी की रामायण में दस्तखत करने के लिए आये जब ये तथाकथित हिन्दु गुलाम ही थे। वो क्या कारण थे जब एक गुलाम (सवर्ण हिन्दु) इस शर्त में गुलामी स्वीकार कर रहा था कि उसके अपने धार्मिक गुलाम (शूद्र) उससे आजाद कराये जाये। इन्ही धार्मिक गुलामों को गुलाम बनाये रखने के लिए जो शक्तियां कलम के रूप में खर्च करनी पड़ी वह भारतीय साहित्य बना। तो इस साहित्य में यर्थात् कहां से आता, आखिर यर्थात की परिभाषा तो हमने पश्चिम से पाई, जिनके उत्कृष्ठ साहित्य के आगे हमारा साहित्य कहीं नही ठहरता। फिर भी हम ये दंभ पाले हुए है कि हमारा साहित्य पुरातन है भले ही दागदार हो।
फिर आया अंग्रेजो का काल इन्होने पूरे भारतीयों को अश्वेत के तौर पर देखा। क्या सवर्ण क्या दलित सभी उसकी नजर में एक समान अश्वेत थे। सबसे पहले उन्हे कर्मचारी के रूप में दलितों से ही सामना हुआ। फिर शैनै-शैनै सवर्ण भी करीब आये। अंग्रेजो का इरादा भारत को स्थाई उपनिवेश बनाने का था। इसलिए उन्होने पूरा इन्फ्रास्टंक्चर सुधारने का निर्णय लिया, स्कूल, कालेज, रेल आदि शुरू करवाये। भारत के दो हजार साल के ज्ञात इतिहास में सर्वप्रथम महान भारत के महान सामाजिक ढांचे को छेड़ने का दुस्साहस अंग्रेजो ने किया। जिन्हाने भारत की कई महान संस्कृति जो एक इन्सान को जानवर से भी बदतर का दर्जा देती थी, को कानून बनाकर निजात दिलाना प्रारंभ किया। जैसे सती प्रथा, कन्या वध प्रथा, मंदिरों में नरबली प्रथा, दास प्रथा, देवदासी प्रथा तथा शूद्रों एवं स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वारा खोलना आदी। बस यही वह कारण था जब भारतीय बुजुर्वा वर्ग दो हजार साल के गुलामी के इतिहास में पहली बार आजादी की जरूरत महसूस करने लगा। क्योकि उसके गुलाम आजाद होने लगे थे। और ये बात हर हाल में उसे बर्दाश्त नही थी। इसी राजनीतिक परिस्थिती में महात्मा फुले ने  ''किसान का चाबुक`` लिखा यह किताब ब्रिटेन की महारानी को समर्पित की गई थी। इससे पहले के साहित्य चाहे वो कबीर हो या रैदास पद या छंदो में अपनी बात कहते थे लेकिन फुले ने ढंके की चोट पर सीधे-सीधे अपनी बाते कहीं और अंग्रेजो की भूरी-भूरी प्रसंशा भी की। मै दलित साहित्य को यर्थात साहित्य मानता  हूँ जो उस राजनैतिक परीस्थिति की पैदावर थी जिसे अंग्रजो ने उपहार स्वरूप दिया था। जिसकी भूमि फूले और अम्बेडकर ने तैयार की। हालाकि अंग्रेजो का सीधा इस मामले में कोई इन्टरेस्ट नही था। वे तो अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहते थे और कार्य में ढृढता एवं स्थायित्व उनका अलंकार था। शायद वे भारत को मदारियों एवं सपेरों के देश की छबी को बदल देना चाहते थे।
मै उस राजनीतिक परिस्थिति की बात कर रहा हैं जो ब्रिटीश काल में लोकतंत्र होते हुए भी लोकतंत्र जैसी थी। जिसमें शूद्रों को अपनी बात कहने का अधिकार था। किसी के कान में पिघला शीशा डालाना आसान नही था। पढ़ाई का सबको अधिकार था। अपने दुख दर्द बोलने लिखने का अधिकार था। बाद में बुजुर्वा वर्ग के प्रतीनिधित्व में चलाये गये आंदोलन तथा द्वितीय विश्वयुध्द के बाद निर्मीत अन्तराष्ट्रीय राजनैतिक परिस्थिती के कारण ब्रिटीश सरकार ने अपना उपनिवेश भारत से हटाने का मन बना लिया और 15 अगस्त 1947 को देश छोड़ दिया। आजादी के बाद तो लोकतंत्र जैसे उपहार में मिल गया। इस बीच बुजुर्वा वर्ग ने फिर आजादी के परवानों के पर काटने की कोशिश की, ये कोशिश आज तक जारी है। चाहे मामला साहित्य का हो या आरक्षण का या शिक्षा के व्यवसायीकरण का सभी जगह  उद्देश्य एक मात्र गुलाम को गुलाम बनाये रखने का है।
लेकिन अब दलित साहित्य सिर्फ साहित्य नही रह गया है। अब एक सशक्त विचारधारा के रूप में प्रगट हुआ है। जो किसी के स्वीकारोक्ति का मोहताज नही है। यह तय है यह साहित्य बलंदी पर पहुचेगा और जन सामान्य की आवाज बनेगा। लेकिन श्रेय लेने की होड़ इतनी शीध्र प्रारंभ हो जायेगी इसका अंदाजा नही था। भय तो सिर्फ इसका है कि कहीं कुमारिल भट्ट (बौध्दों विचारधारा का विभीषण) बनकर कोई इसकी जड़े खोदने भिड़ जाये।


दलित एवं पिछडा वर्ग  साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, प्रगतिशील विचारक. कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक और पत्रकार. पिछङा वर्ग पर इनकी किताब "आधुनिक भारत में पिछङा वर्ग(पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं) काफी चर्चित रही।"
पता इस प्रकार है:-

संजीव खुदशाह
एम-II/156 फेस-1
संत थामस स्कूल के पास
कबीर नगररायपुर (छग)
पिन-492099
09977082331
sanjeevkhudshah@gmail.com