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Analysis of the Social Status of the Backward Classes

राष्ट्रीय प्रत्रिका 'हंस` जून २०१० अंक पृष्ठ-८६

पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण

-रमेश प्रजापति

समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक


''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।

आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और  न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं  अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।

पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``

आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।

यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।

आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।

पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई  तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४

धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।

प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।

 

पुस्तक का नाम   आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक      -संजीव खुदशाह

ISBN    -97881899378

मूल्य      -  200.00 रू.

संस्करण  - 2010 पृष्ठ-142

प्रकाशक   -  शिल्पायन 10295, लेन नं.1

वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली -110032  फोन-011-22821174

 

रमेश प्रजापति

डी-८, डी.डी.ए. कालोनी

न्यू जाफराबाद, शाहदरा,

दिल्ली-११००३२

मोबाईल-०९८९१५९२६२५


Cast & class system in India book review

भारत की वर्ण और जाति व्यवस्था.... पुस्तक समीक्षा


शुरुआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर व्याख्यायित मान्यताओं को सम्मिलित किया है। हिंदू, ईसाई (सृष्टि का वर्णन)और इस्लाम (सुरतुल बकरति, आयत् सं. 30 से 37) को भी उद्धृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ों वर्ष के सतत् विकास

का परिणाम है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह एक नई दृष्टि देता है। फिर भी आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग। पुस्तक की शुरुआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नहीं भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नहीं होता।

चूंकि भारत में जातीय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है, इसलिए लेखक श्री संजीव ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिंदूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वानों के मतों को खंगाला और उद्धृत किया है।
चार अध्यायों में समाहित यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए हैं उनकी पहचान कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज का पिछड़ा वर्ग हिंदूधर्म के चौथे वर्ण 'शूद्र' से संबंधित माना जाता है। किंतु खुदशाह के इस शोध प्रबंध से स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारत का पिछड़ा वर्ग मूलरूप से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग हैं। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इनका शूद्रों में समावेश कर लिया गया। लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ने ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यहे तीनों ग्रंथ आर्यों के पहले ग्रंथ हैं और केवल तीन वर्णों की ही पुष्टि करते हैं। (पृष्ठ-26) वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में चार वर्णों का वर्णन है किंतु उक्त दसवें मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया है।

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए खुदशाह ने दोहराया है कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थीं, जो आज हिंदूधर्म की संस्कृति को संजोए हुए हैं। क्योंकि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में अवैध संतान घोषित नहीं किए गए हैं (पृष्ठ-30) वह लिखते हैं—"यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णों की सेवा करने का आदेश दिया है, किंतु इन सेवाओं में ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानि पिछड़े वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है—शूद्र उच्च वर्ग के दास होंगे। यहां दास से संबंध उच्च वर्णों की प्रत्यक्ष सेवा से है। वह आगे लिखते हैं—उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि 1. शूद्र कौन और कैसे में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी में से सूर्यवंशी अनार्य थे, जिन्हें आर्यों द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
2. बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ जिसने इन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इसी संघर्ष के परिणाम से नए वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिसे शूद्र कहा गया। ये ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आते थे। यहीं से चातुर्वर्ण परंपरा की शुरुआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो युद्ध में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हों। अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया।
शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातियां कहां से आईं। यह निम्न बिंदुओं के तहत दिया गया है।
1. यह जातियां आर्यों के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थीं, सिंधु घाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थीं।
2. आर्य हमले के पश्चात इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योंकि
(अ) आर्यों को इनकी आवश्यकता थी क्योंकि आर्यों के पास कामगार नहीं थे।
(ब) आर्य युद्ध, कृषि तथा पशु पालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपुण नहीं थे।
(स) आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योंकि ये जातियां आर्यों का विरोध नहीं करती थीं चूंकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थीं।
(द) दूसरे अन्य राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी असुर, डोम, चांडाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यों का विरोध करती थीं आर्यों द्वारा कोपभाजन का शिकार बनीं तथा अछूत करार दी गईं।
3. चूंकि कामगार अनार्य जाति शूद्रों में गिनी जाने लगीं। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिलकर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-31-32)
अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र हैं, किंतु आर्यों ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ था। एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतिहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थीं। इन्होंने आर्यों की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकि बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थीं, जिन्होंने आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके। विद्वान ऐसा मानते हैं कि ये अनार्यों में शासक जातियों के रूप में थीं। आर्यों के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुईं। इन्हें बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप में स्वीकार किया गया। इन्हें ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है।

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गों में बांटा गया है। संजीव ने कामगार पिछड़े वर्ग(शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है—(1) उत्पादक जातियां (2) गैर उत्पादक जातियां। किंतु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियों का समावेश न हो किंतु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनों तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया है। चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो आधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली (साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां हैं। जबकि बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरुदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुत-सी गैर जातियां हैं। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिंदूधर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होंगी। किंतु बाद में उन्होंने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मांतरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर (सफाई कामगार) आदि।

पिछड़े वर्ग की पहचान के बाद भी वह दूसरे अध्याय—'जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिंदूकरण' में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या हैं, उसे पाठकों के सामने रखते हैं। क्योंकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राह्मण होने का दावा करती रही हैं। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए हैं किंतु हम भी लोकजीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे हैं, जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राह्मण बतलाती हैं तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी हैं। आज वे पिछड़े वर्ग की आधिकारिक सूची में दर्ज हैं। जबकि हिंदू स्मृतियां उन्हें वर्णसंकर घोषित करती हैं और इन्हीं वर्ण संकर संतति से विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ बताती हैं।

पिछड़े वर्ग की जो जातियां स्वयं को क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करती हैं, लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। किंतु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नहीं किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी वीरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीत कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची तब ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वह शूद्र हैं। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव-महादेव का कैसे हिंदूकरण करके बिना धर्मांतरण के अनार्यों को हिंदू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस में बुद्ध के क्षत्रिय होने का जो मिथक अब तक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई कि वे शाक्य थे। और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आए। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखें पृष्ठ-71-72)

अध्याय-तीन विकास यात्रा के विभिन्न सोपान में लेखक ने उच्च वर्गों के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि—"जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नहीं था कि दलित वर्गों में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती और उन्हें सूचीबद्ध किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी के अनुसरण में 29 जनवरी 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़े वर्ग आयोग का गठन था। किंतु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाए ब्राह्मणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में 1978 में मंडल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया।'' संजीव ने पिछड़ेवर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है।
लेखक कई ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए लेखक बधाई ।
राजेंद्र प्रसाद ठाकुर 
राष्ट्रीय प्रधान महासचिव 
महामुक्ति संघ

MORE ABOUT THE BOOK ADHUNIK BHARAT ME PICHDA VARG
पुस्तक का नाम

आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग

(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)

लेखक -संजीव खुदशाह
ISBN -97881899378
मूल्य -200.00 रू.
संस्करण -2010 पृष्ठ-142
प्रकाशक - शिल्पायन 10295, लेन नं.1
वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,

दिल्ली-110032 फोन 011-22326078

Dalit literature Year 2011 (Hindi)

Dalit literature Year 2011 (Hindi)
इस वर्ष हंस पत्रिका व्दारा जारी उल्लेखनीय दलित साहित्य २०११ इस प्रकार है।


क़मांक
किताब   
लेखक
अन्य
1
दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक
कंवल भारती

2
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
संजीव खुदशाह

3
धर्म के आरपार
नीलम कुलश्रेष्ठ

4
साहित्य के दलित सरोकार
कृष्ण दत्त पालिवाल

5
नागपाश में स्त्री
गीताश्री

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जनसंख्या समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते
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पत्तो में कैद औरते
शरद सिंह

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दलित मुक्ति संधर्ष और कथा साहित्य
इकरार अहमद


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डंक
रूपनारायण सोनकर

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अंधेरे में कंदील
कुंति

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बस एक बार सोचों
डा. सुधीर सागर

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नरक की सफाई
के.एस. तूफान

DALIT LITERATURE PART- 7

अमीचन्द्र शर्माश्री वाल्मीकि प्रकाश१००/-
सं. एस.एस. गौतमरविदास ने कहा : ऐसा चाहू राज मैं१०/-
(अनु.) सं. एस.एस. गौतमपेरियार ने कहा १०/-
(अनु.) सं. एस.एस. गौतममहात्मा फूले ने कहा : विद्या बिन मति गई १०/-
नारायणा गुरू१०/-
एन. एस. सुमनप्रणाम मेरे उद्दारक३९/-
माता प्रसादभारत में सामाजिक परिवर्तन के पेरणा श्रोत१८०/-
एन.एस. 'सुमन`प्रणाम मेरे उद्धारक३५/-
मोहन दास नैमिश्रायस्वतंत्राता संग्राम के दलित क्रांतिकारी१५०/-
डॉ. जुगल किशोरभारत के अग्रणी समाज सुधारक३५०/-
एम. आर. विजयीदलित दस्तावेज१५०/-
एम. सी. कमलदलित संघर्ष के महानायक१९५/-
डॉ. जुगल किशोर/रायमानव अधिकार आंदोलन के महान भारतीय यौद्धा१००/-
देवेन्द्र कुमार वैसन्तरीभारत के सामाजिक क्रांतिकारी१५०/-
डॉ. इग्नारिया टोप्पोबिरसा मुंडा : झारखण्ड आंदोलन के महानायक२००/-
कुमार सुरेश सिंहबिरसा मुंडा और उनका काल३००/-
मा. कांशीराम चमचा युग१००/-
डॉ. विवेक कुमारबहुजन समाज पार्टी एवं संरचनात्मक परिवर्तन५०/-
मोहनदास नैमिश्रायबहुजन पार्टी२००/-
स. अनुज कुमारबहुजन नायक : कांशीराम के अविस्मरणीय भाषण१००/-
डॉ. कुसुम मेघवालभारतीय राजनीति के आलोड़नकर्ता कांशीराम१००/-
कमलकांत सिंहविश्व की महान वीरांगना कु. मायावती१२५/-
अशोक गजभियेअतुलनीय महिला मायावती२५०/-
एच. एल. दुसाधसामाजिक परिवर्तन और बी. एस. पी१५०/-
कंवल भारतीमायावती और दलित आंदोलन१५०/-
संकलनबहुजन नायक मा. कांशीराम साहब के भाषण भाग-१ व ३९५/-
एस. एस. गौतमबहुजन नायक मा. कांशीराम साहब स्मृति ग्रंथ३००/-
K. VeeramaniPeriyar : Is There a God45/-
G. AloysisPeriyar on Islam20/-
Dhananjay KeerMahatma Jyoti Rao Phule300/-
J. Govindrao PhuleCollected Works of Phule: vol.III52/-
N.G. PawarMahatma Jyoti Rao Phule400/-
Shukdev SinghThe Bijak of Kabir225/-
Darshan SinghA Study of Bhakta Ravidas110/-
R. Chandra/K.ChanchreekSant Ravidas & His Contemporaries400/-
G.N.DasCouplets from Kabir 95/-
Vivek KumarDalit Assertion & Bahujan Samaj Party50/-
Dr. V.D. ChandanshiveKanshi Ram The Crusader50/-
Vivek KumarDalit Assertion & Bahujan Samaj Party50/-
Dr. V.D. ChandanshiveKanshi Ram The Crusader50/-
Sudha PaiDalit Assertion & the Unfinished290/-
Democratic Revolution : BSP in U.P.
Dr. Vivek KumarDalit Leadership in India650/-
Christope JafferloteIndia's Silent Revolution in North India695/-
Manohar AteyThe Editorials of Kanshi Ram 150/-
Collected Works of Periyar (2vols)300/-
M.D. Gopalkrishnan Garland to Periyar45/-
K. Veeramani Periyar on Religion45/-
K. Veeramani Periyar on Women Right45/-
M.D. Gopalkrishnan Periyar: The Father of Tamil Race40/-
K. Veeramani Gods of Ingersole: Periyar 45/-
K. Veeramani Periyar : Is There a God45/-
G. Aloysis Periyar on Islam20/-
W.M. Callewaeri The Millennium of Kabir Vani950/-
Shukdev Singh The Bijak of Kabir225/-
Darshan Singh A Study of Bhakta Ravidas110/-
R. Chandra/K.Chanchreek Sant Ravidas & His Contemporaries400/-
G.N.Das Couplets from Kabor 95/-
संत रविदास का विचार दर्शन
एम. आर. बिखानीश्री गुरू रविदास : पतित उद्धारक२५०/-
गुरनाम सिंह मुक्तसरकहि रविदास चमारा२००/-
डॉ. महेश प्रसाद अहिरवारश्रमण परंपरा और गुरू रैदास ५०/-,१००/-
स. मीरा गौतमगुरू रविदास : वाणी एवं महत्व४५०/-
डॉ. सुकदेव सिंहरैदास वाणी ९५/-,३२५/-
श्याम सिंहसंत रैदास की मूल विचारधारा६०/-
डॉ. मीरा गौतमसंत रविदास की निर्गुण भक्ति२००/-
आचार्य रजनीशसत-भाषे रैदास५०/-
आचार्य रजनीशऐसी भक्ति करे रैदास४०/-
वीरेन्द्र पाण्डेयसंत रविदास४१/-
डॉ. एन. सिंहरैदास ग्रन्थावली३५०/-
स. गोविन्द रजनीशरैदास रचनावली२००/-
डॉ. रमेशचन्द्ररैदास समग्र२००/-
माता प्रसादसंत शिरोमणि गुरू रविदास२००/-
डॉ. रमेशचन्द्र संत रैदास : वाणी और विचार२००/-
स. डॉ. धर्मपाल सिंहलसंत गुरू रविदास ग्रंथावली१२५/-