View of Dalit Sahitya


दलित साहित्य का नजरिया
  • संजीव खुदशाह
साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा यही रही है कि ''साहित्य वही है जो समाज के यर्थात का चित्रण करे, समाज को समाज के सत्य से परिचित कराये।`` इसीलिए साहित्य को समाज का प्रतिबिन्ब भी कहा जाता है। मेरे दिमाग में यह प्रश्न हमेशा कौंधता था कि दलित साहित्य की स्वीकारोक्ति पर विवाद क्यों? जबकि भारतीय समाज में साहित्य के कई रूप पहले से ही मौजूद है जैसे भक्ति-साहित्य, संत-साहित्य, सूफी-साहित्य, आदि-आदि। साहित्य के स्वयंभू मठाधीश आखिर क्यों दलित साहित्य को साहित्य के रूप में स्वीकारने में कोताही बरत रहे है?
इसके जवाब में मुझे खुशवंत सिंह के एक साक्षात्कार की याद रही है। जिसमें उन्होने कहा था - पंजाब में महिलाओं को हिन्दी पढ़ाने पर जोर दिया जाता है। ताकि वे पंजाबी साहित्य की वैचारिक बाते पढ़ सके तथा उन्हे हिन्दी में गीता प्रेस की ही किताबे लाकर दी जाती जिससे वे पति सेवा एवं चाहर दिवारी को ही अपना संसार समझे। उन्होने आगे कहा -गुरूमुखी इन्हे इतनी ही सिखाई जाती कि वे गुरूग्रंथ साहेब का पाठ कर सके।
दरअसल यही परम्परागत भारतीय साहित्य का सच भी है। यहां पूरा दलित समाज पंजाब की महिलाओं जैसा है, जिन्हे तुलसीदास के इन पक्तियों को पढ़ने की छूट है ''ढोर गवार शूद्र पशु नारी, ये है ताड़न के अधिकारी।`` उस पर भी जुमला ये की यही उत्कृष्ट साहित्य है। आज तक भारतीय साहित्य में साहित्य उसे माना गया जो लिखा गया चाहे वो कामसुत्र ही क्यो हो और लिखने का ठेका उनके हाथो में जिन्होने कभी यर्थात को भोगा ही नही। तभी तो भारतीय साहित्य यर्थात से लंबे समय तक विमुख रहा। यदि कभी किसी ने लिखा भी तो उसे हासिये पर पटक दिया गया। चाहे वो बौध्द हो, रविदास हो या संत कबीर का साहित्य। दलितों को वैचारिक चेतना से दूर रखना एवं जातिय दंभ को भूला पाना ही दलित साहित्य को अस्वीकारने का मुख्य कारण है।
हम इन पूरे परिप्रेक्ष्य पर गौर फरमाये तो देखेगे की साहित्य पर हमेशा राजनीति का प्रभाव रहा है। भारतीय सभ्यता में या संकुचित अर्थो में हिन्दु समाज कहें तो, राजनीति ने कभी इस विकृत सामाजिक ढांचे को बदलने का प्रयास नही किया बृहदत्त के बाद किसी ने ऐसी कोशिश नही की बल्कि इसे पुष्ट ही किया इसलिए जातिगत प्रताड़नाएं बढ़ती गई और एक वर्ग आरामतलब होता गया। लगभग दो हजार साल के गुलामी काल में विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी इसे हिन्दुओं का अन्दुरूनी मामला कहकर छेड़ने से परहेज रखा। शायद यही कारण रहा हो कि सवर्णो को आजादी के लिए आन्दोलन चलाने की जरूरत नही पड़ी। बल्कि इसी वक्त श्रीराम  तुलसी की रामायण में दस्तखत करने के लिए आये जब ये तथाकथित हिन्दु गुलाम ही थे। वो क्या कारण थे जब एक गुलाम (सवर्ण हिन्दु) इस शर्त में गुलामी स्वीकार कर रहा था कि उसके अपने धार्मिक गुलाम (शूद्र) उससे आजाद कराये जाये। इन्ही धार्मिक गुलामों को गुलाम बनाये रखने के लिए जो शक्तियां कलम के रूप में खर्च करनी पड़ी वह भारतीय साहित्य बना। तो इस साहित्य में यर्थात् कहां से आता, आखिर यर्थात की परिभाषा तो हमने पश्चिम से पाई, जिनके उत्कृष्ठ साहित्य के आगे हमारा साहित्य कहीं नही ठहरता। फिर भी हम ये दंभ पाले हुए है कि हमारा साहित्य पुरातन है भले ही दागदार हो।
फिर आया अंग्रेजो का काल इन्होने पूरे भारतीयों को अश्वेत के तौर पर देखा। क्या सवर्ण क्या दलित सभी उसकी नजर में एक समान अश्वेत थे। सबसे पहले उन्हे कर्मचारी के रूप में दलितों से ही सामना हुआ। फिर शैनै-शैनै सवर्ण भी करीब आये। अंग्रेजो का इरादा भारत को स्थाई उपनिवेश बनाने का था। इसलिए उन्होने पूरा इन्फ्रास्टंक्चर सुधारने का निर्णय लिया, स्कूल, कालेज, रेल आदि शुरू करवाये। भारत के दो हजार साल के ज्ञात इतिहास में सर्वप्रथम महान भारत के महान सामाजिक ढांचे को छेड़ने का दुस्साहस अंग्रेजो ने किया। जिन्हाने भारत की कई महान संस्कृति जो एक इन्सान को जानवर से भी बदतर का दर्जा देती थी, को कानून बनाकर निजात दिलाना प्रारंभ किया। जैसे सती प्रथा, कन्या वध प्रथा, मंदिरों में नरबली प्रथा, दास प्रथा, देवदासी प्रथा तथा शूद्रों एवं स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वारा खोलना आदी। बस यही वह कारण था जब भारतीय बुजुर्वा वर्ग दो हजार साल के गुलामी के इतिहास में पहली बार आजादी की जरूरत महसूस करने लगा। क्योकि उसके गुलाम आजाद होने लगे थे। और ये बात हर हाल में उसे बर्दाश्त नही थी। इसी राजनीतिक परिस्थिती में महात्मा फुले ने  ''किसान का चाबुक`` लिखा यह किताब ब्रिटेन की महारानी को समर्पित की गई थी। इससे पहले के साहित्य चाहे वो कबीर हो या रैदास पद या छंदो में अपनी बात कहते थे लेकिन फुले ने ढंके की चोट पर सीधे-सीधे अपनी बाते कहीं और अंग्रेजो की भूरी-भूरी प्रसंशा भी की। मै दलित साहित्य को यर्थात साहित्य मानता  हूँ जो उस राजनैतिक परीस्थिति की पैदावर थी जिसे अंग्रजो ने उपहार स्वरूप दिया था। जिसकी भूमि फूले और अम्बेडकर ने तैयार की। हालाकि अंग्रेजो का सीधा इस मामले में कोई इन्टरेस्ट नही था। वे तो अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहते थे और कार्य में ढृढता एवं स्थायित्व उनका अलंकार था। शायद वे भारत को मदारियों एवं सपेरों के देश की छबी को बदल देना चाहते थे।
मै उस राजनीतिक परिस्थिति की बात कर रहा हैं जो ब्रिटीश काल में लोकतंत्र होते हुए भी लोकतंत्र जैसी थी। जिसमें शूद्रों को अपनी बात कहने का अधिकार था। किसी के कान में पिघला शीशा डालाना आसान नही था। पढ़ाई का सबको अधिकार था। अपने दुख दर्द बोलने लिखने का अधिकार था। बाद में बुजुर्वा वर्ग के प्रतीनिधित्व में चलाये गये आंदोलन तथा द्वितीय विश्वयुध्द के बाद निर्मीत अन्तराष्ट्रीय राजनैतिक परिस्थिती के कारण ब्रिटीश सरकार ने अपना उपनिवेश भारत से हटाने का मन बना लिया और 15 अगस्त 1947 को देश छोड़ दिया। आजादी के बाद तो लोकतंत्र जैसे उपहार में मिल गया। इस बीच बुजुर्वा वर्ग ने फिर आजादी के परवानों के पर काटने की कोशिश की, ये कोशिश आज तक जारी है। चाहे मामला साहित्य का हो या आरक्षण का या शिक्षा के व्यवसायीकरण का सभी जगह  उद्देश्य एक मात्र गुलाम को गुलाम बनाये रखने का है।
लेकिन अब दलित साहित्य सिर्फ साहित्य नही रह गया है। अब एक सशक्त विचारधारा के रूप में प्रगट हुआ है। जो किसी के स्वीकारोक्ति का मोहताज नही है। यह तय है यह साहित्य बलंदी पर पहुचेगा और जन सामान्य की आवाज बनेगा। लेकिन श्रेय लेने की होड़ इतनी शीध्र प्रारंभ हो जायेगी इसका अंदाजा नही था। भय तो सिर्फ इसका है कि कहीं कुमारिल भट्ट (बौध्दों विचारधारा का विभीषण) बनकर कोई इसकी जड़े खोदने भिड़ जाये।


दलित एवं पिछडा वर्ग  साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, प्रगतिशील विचारक. कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक और पत्रकार. पिछङा वर्ग पर इनकी किताब "आधुनिक भारत में पिछङा वर्ग(पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं) काफी चर्चित रही।"
पता इस प्रकार है:-

संजीव खुदशाह
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संत थामस स्कूल के पास
कबीर नगररायपुर (छग)
पिन-492099
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Buddha Vishnu ke Avtar Nahi Hai.

बुध्द पूर्णीमा पर विशेष
बुद्ध की जाति पर प्रश्न ?
· संजीव खुदशाह
पिछड़ा वर्ग के अध्ययन से बुद्ध की जाति पर पुनर्विचार करना लाजमी है, क्योंकि इस जाति के आधार पर ही बुद्ध को ब्राम्हणों द्वारा विष्णु के दसवें अवतार के रूप में प्रतिस्थापित किया गया । इसी प्रतिस्थापना के खेल में बुद्ध की सारी उपलब्धियों पर पानी फेर दिया गया, क्योंकि इस स्थापना से बुद्धिजम का सीधे संविलियन हिन्दुइज्म में ही जाता है । वास्तव में यह कोशिश हिन्दुवादियों द्वारा बुद्धिवादियों के पचाने की है । इस कोशिश के पीछे आम जनता में १पिछड़ा वर्ग१ अपनी प्रभुता कायम रखना रहा है । इसके एक मनतव्य यह भी रहा है कि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक छोटी से शाखा प्रतीत हो तथा बुद्ध धर्म के प्रति आकर्षण खत्म हो जाये । ब्राम्हणवाद इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी रहा ।

वास्तव में अब बुद्ध का जाति पर पुनर्विचार किये जाने की नितांत आवश्यकता है । इस बात के प्रमाण अवश्य मिले हैं कि शाक्य जाति के थे, लेकिन ये जाति शूद्रों में शुमार होती थी । बुद्ध को क्षत्रिय कहने का सबसे बड़ा कारण उनका शासक का पुत्र होना है, जबकि शासक किसी भी जाति का हो सकता था । ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं जिनमें यह तथ्य उभरकर आता है कि निचली जाति का व्यक्ति शासक बनने पर अपनी वंशवाली में सुधार कर क्षत्रिय जाति में स्थापित हो जाता है । ऐसे कृत्यों के ताजा उदाहरणों में महाराष्टं के शिवाजी तथा बंगाल के सेन वंश को लिया जा सकता है ।
इस आधार पर बुद्ध को शाक्य शूद्र वंश का कहने में कोई जल्दबाजी नहीं होगी, बल्कि कई जगह बुद्ध द्वारा ब्राम्हण के साथ वार्तालाप में शाक्यों का पक्ष लेते हुए विवरण दिया गया है, लेकिन बुद्धकाल में शाक्यों की जाति प्रतिष्ठि थी, ऐसा विवरण भी मिलता है ।
पहला प्रश्न यह उठता है कि बुद्ध हिन्दु थे या नहीं, तो उसका यह जवाब प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह किया जा सकता है कि वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये, बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई, साधारण भाषा में कहंे तो हिन्दुओं से मिल गए । चूंकि वे शासक वर्ग के थे अनचाहे ही क्षत्रिय होने का दर्जा पा गये, किन्तु महात्मा बुद्ध अपने कई उपदेशों में शाक्य होने का वर्णन करते हैं तथा शाक्यों का भरपूर पक्षपात करने की चेष्टा करते हैं । इससे यह अनुमान होता है कि उस समय शाक्य एवं ब्राम्हण में वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति थी और बुद्ध धर्म का फैलना यह सिद्ध करता है कि शाक्यों ने अथवा बुद्ध ने हिन्दूवाद को जबरदस्त शिकस्त दी थी । गौरतलब तथ्य यह है कि बुद्ध ने कभी अपने-आपको क्षत्रिय नहीं कहा । बुद्ध और ब्राम्हण के वार्तालाप में एक जगह ब्राम्हण ने शाक्य को नीच शूद्र जाति बताया । इस पर अम्बष्ट माणवक का उनर ध्यान देने योग्य है-''श्रवण गौतम दुष्ट हैं । हे गौतम ! शाक्य जाति चण्ड है । है गौतम ! शाक्य जाति शूद्र है । हे गौतम ! शाक्य जाति बकवादी है । इभ्य समान होने से शाक्य जाति ब्राम्हणों का सत्कार नहीं करते, ब्राम्हणों का मान नहीं करते, गुरूकार नहीं करते, ब्राम्हणों की पूजा नहीं करते ।``
इस बात से इस संभावना को और बल मिलता है कि ब्राम्हणों ने शाक्यों को इसी संघर्ष के कारण शूद्र में ढकेल दिया गया । बुद्ध काल में वे बुद्ध को शूद्र कहते रहे, बाद में लगभग १००० साल बाद स्मृति काल में अचानक ब्राम्हणों ने बुद्ध को क्षत्रिय बना लिया, क्यांेकि क्षत्रिय वर्ग ब्राम्हण का अनुगामी था । बुद्ध को क्षत्रिय बताने के दो फायदे थे -
१ उन्हें शूद्र से सीधे क्षत्रिय में पदोन्नत करने पर बुद्धवाद पर हिन्दुवाद लादा जा सकता था तथा तमाम आम जनता १पिछड़ा वर्ग१ जो बुद्धिष्ठ थी, को बिना अनुष्ठान के ही हिन्दू में तब्दील किया जा सकता था ।
२ यदि उन्हें शूद्र की संज्ञा दी जाती तो वे शूद्रों के स्थाई एवं अकाट्य भगवान बन जाते । उन्हें शूद्रों से अलग नहीं किया जा सकता और पूरी जनता हिन्दू धर्म से अलग मानी जाती ।

शाक्य कौन थे ?
श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय जी अपने अध्ययन लोकायत में बुद्ध को एक जनजाति समाज का बताते है और तथ्य देते हैं ।
१. बुद्ध स्वयं शाक्य थे । यह याद रखना आवश्यक है कि उस समय शाक्य जनजातीय चरण में थे, यद्यपि विकास के काफी उच्च स्तर तक पहुंच चुके थे। कुछ अगे्रज विद्वान भी इस तथ्य को नहीं पकड़ पाए ।
आगे श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय जी लिखते हैं कि ''शाक्य जनजाति के अंदर संभवत: कई कबीले 'गोत्र' थे । स्वयं बुद्ध गौतम ''गोत्र'' से थे । ऐसा कहा गया है कि यह ब्राम्हण कबीला था जो प्राचीन इसी १ऋषि१ गौतम के वंशज होने का दावा करते थे किन्तु इसका प्रमाण बहुत मामूली है । हमेंे कहीं भी यह नहीं मिलता कि शाक्य स्वयं को ब्राम्हण कहते हों। दूसरी और कई ऐसे कबीले हैं, जो इस आधार पर बुद्ध के अवशेषों के कुछ भाग पर अपना दावा करते हैं कि बुद्ध की भांति वे भी खनिय थे । १यह खनिय का अर्थ योद्धा है१
इस प्रकार देवीप्रसाद जी शाक्य में जनजातीय होने के तथ्य देते हैं ।

भगवान बुद्ध का जन्म ५६७ ई.पू. तथा निर्वाण ४८७ ई.पू. माना जाता है । पिता का नाम शुद्दोधन और माता का नाम महामाया था । शुद्धोधन कपिलवस्तु गण के राजा थे । वे शाक्य जाति के इक्ष्वाकु वंश में थे । डॉ. बुद्ध प्रकाश कहते हैं कि यक्षु शब्द अक्वासा, अक्कका, यकाकू, यक्यू व इक्ष्वाकु का बदला हुआ रूप है । इनका सम्बन्ध उन हाइकसोस से हो सकता है जो सेमिटिक लोग थे जिनहोंने १७५० ई.पू. में मिश्र पर आक्रमण किया था । ये लोग मूल रूप से भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लम्बे सिर वाले द्रविड़ लोग थे अर्थात बुद्ध आर्य नहीं थे । अनार्यो की तरह शाक्यों में गणतंत्र गणसंघ व्यवस्था थी । शाक्यगण वज्जीसंघ का एक घटकगण था । इसी प्रकार शाक्यों मेंे मातृप्रधान परिवार व्यवस्था थी ।``
श्री नवल वियोगी संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि ''शाक्य बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्वाकुओं की संतति से था । उनके धार्मिक जीवन के प्रारंभ में उन्हें नागराजा मुचलिंदा की शरण व सुरक्षा प्राप्त थी । जीवन पर्यंत नागों के साथ मित्रता के संबंध रहे और मुत्यु के समय के नाग राजाओं ने उनके अस्थि अवशेषों में से अपना हिस्सा मांगा और प्राप्त करने पर उन पर स्तूपों का निर्माण किया ।
डॉ नवल वियोगी अपनी इस बात के समर्थन में आगे कहते हैं कि -''बुद्ध धर्म तथा असुर नागों की संतानों में निकटता के क्या संबंध थे, इसके प्रमाण अमरावती व सांची के महास्तूपों के मूर्तियों तथा उभरे हुए चित्रों में मिलते हैं । इन महास्तूपों में हमें नागलोक, भगवान बुद्ध तथा उनके चिन्हों का सम्मान अथवा पूजा करते हुए दिखाई पड़ते हैं ।`` - - - इनमें से कुछ में बुद्ध के सिरों को फैले हुए सात नागफनों की सुरक्षा में देखा जाता है । यह नागफन नाग राजाओं की मुख्य पहचान है । ऐसा लगता है अवश्य ही बुद्ध व नाग जातियों में कोई खून का संबंध था ।``

अत: उपर्युक्त अध्ययन से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं ।

१. बुद्ध को क्षत्रिय कहने के पीछे केवल एक ही दावा है कि वो राजा की संतान है। यह एक बहुत ही हल्का दावा है ।
२. बुध़्द द्वारा कई जगह शाक्य का पक्ष लेते हुए ब्राम्हणों से विवाद करना तथा ब्राम्हणों द्वारा शाक्यों को नीचा दिखाने की कोशिश यह सिद्ध करती है कि शाक्य निश्चित रूप से वर्ण व्यवस्था से बाहर की जाति थी, क्योंकि शाक्यों के क्षत्रिय होने पर ब्राम्हणों द्वारा नीचा दिखाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
३. श्री देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का तर्क कि शाक्य जनजातीय थे, बिना ठोस तथ्य के स्वीकार योग्य नहीं है, किन्तु ब्राम्हण नहीं है । 'गौतम` गोत्र के आधार पर उनके तर्क स्वीकार योग्य हैं । यदि थोड़ी देर के लिये श्री देवीप्रसाद चट्टोपध्याय का जनजातीय वाला तर्क स्वीकार कर लिया जाये तो श्री नवल वियोगी के द्वारा अनार्य होने के लिए दिये गये तथ्य उन्हें अनार्य तो सिद्ध करती है, किन्तु 'जनजातीय` होने पर अभी और पुष्टि की अपेक्षा है ।
४. अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर इस नतीजे पर पहु!चा जा सकता है कि बुद्ध आर्य नहीं थे, न ही क्षत्रिय थे, किन्तु बुद्ध के नागवंशी संतति होने के स्पष्ट प्रमाण भी नहीं मिलते हैं ।
५. डॉ. बुद्ध प्रकाश द्वारा प्रस्तुत तर्क कि` बुद्ध अनार्य है, स्वीकार योग्य है, क्योंकि अनार्य की विशेषता थी -
१. गणतंत्र व्यवस्था २. मातृप्रधान परिवार ३. द्रविड़ की तरह लम्बे सिर की बनावट ४. बुद्ध का संबंध सूर्यवंश तथा इक्ष्काकुआंे से था, जो कि अनार्य वंश से सम्बन्धित थे ।
अत: इस निष्कर्ष की पुष्टि देती है कि बुद्ध भारत के मूलवासी अनार्य की संतान थे ।

इतिहास से ऐसा ज्ञात होता है कि बौद्ध शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुद्ध की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हें विष्णु का दसवां अवतार भी इसी काल में बनाया गया । यह प्रव्यिा बौद्धों का हिन्दुकरण कहलाती है

टीप:-इस लेख को प्रकाशित किया जा सकता है बशर्ते इसके स्त्रोत का उल्लेख अवश्य करते हुऐ हमें सूचीत करे।
संजीव खुदशाह
३९/३५० गणेश नगर,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
पिन-४९५००४
मो.०९८२७४९७१७३
पुस्तक अंश -आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं)
लेखक- संजीव खुदशाह