जेएनयू में मनाया गया महिषासुर का शहादत दिवस

जेएनयू में मनाया गया महिषासुर का शहादत दिवस



PRESS NOTE, AIBSF



• अगले सप्ताह 'महिषासुर-दुर्गाः एक मिथक का पुनर्पाठ' वि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी
• इतिहास में जेा छल करते रहे उन्हीं को देवत्वऔ का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी उर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें असुर या राक्षस करार दे‍ दिया गया
जेएनयू 30 अक्टू बर 2012 : विवादित विषयों पर बहस की अपनी पुरानी पर
ंपरा को बरकरार रखते हुए जेएनयू के पिछडे समुदाय के छात्रों के संगठन ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट् फोरम (एआईबीएसएफ) के बैनर तले सोमावार (29 अक्टू बर) रात को महिषासुर का शहादत दिवस मनाया गया।
देर रात तक चले इस समारोह में देश भर से आए विद्वानों ने महिषासुर पर अपने विचार रखे. इस अवसर पर प्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाआक द्वारा बनाये गये महिषासुर के तैलचित्र पर माल्यार्पण किया गया.
समारोह को संबोधित करते हुए आदिवासी मामलों की विशेषज्ञ और 'युद्धरत आम आदमी' की संपादक रमणिका गुप्ता ने कहा कि 'इतिहास में जेा छल करते रहे उन्हीं को देवत्वो का तमगा मिल गया है और जिन्होंने अपनी सारी उर्जा समाज सुधार और वंचित तबकों के उत्थान के लिए झोंक दी उन्हें राक्षस करार दे‍ दिया गया. ब्रह्मणवादी पुराणकारों/ इति्हासकारों ने अपने लेखन में इनके प्रति् नफरत का इजहार का भ्रम का वातावरण रच दिया है. आखिर समुद्र मंथन में जो नाग की मुंह की तरफ थे और जिन्हें विष मिला वे राक्षस कैसे हो गए? कामधेनु से लेकर अमृत के घडों को लेकर भाग जाने वाले लोग किस आधार पर देवता हो सकते हैं? ' उन्होंेने कहा कि 'वंचित तबका इन मिथकों का, अगर पुर्नपाठ कर रहा है तो किसी को दिक्कत क्यों हो रही है?'
जेएनयू की प्रो. सोना झरिया मिंज ने कहा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित कहानियों के समानांतर आदिवासी समाज में कई कहानियां प्रचलित हैं. इन कहानियों के नायक तथाकथित असुर या राक्षस कहे जाने वाले लोग ही हैं जिन्हें कलमबद्ध करने की जरूरत है.
प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने कहा कि मिथकों की राजनीति और राजनीति का मिथक पर बहस बहुत जरूरी है. हमारे नायकों को आज भी महिषासुर की भांति बदनाम करने की साजिश चल रही है.
इतिहास-आलोचक ब्रजरंजन मणि ने कहा कि शास्त्रीय मिथकों से कहीं ज्याजदा खतरनाक आधुनिक विद्वानों द्वारा गढे जा रहे मिथक हैं. पौराणिक मिथकों के साथ-साथ हमें आधुनिक मिथकों का भी पुर्नपाठ करना होगा.
मंच का संचालन करते हुए एआईबीएसएफ के अध्यीक्ष जितेंद्र यादव ने कहा कि पिछडा तबका जैसे-जैसे ज्ञान पर अपना अधिकार जमाता जाएगा वैसे-वैसे अपने नायकों को पहचानते जाएगा. महिषासुर की शहादत दिवस इसी कडी में है. संगठन महिषासुर शहादत दिवस को पूरे देश में मनाने के लिए प्रयत्नदशील है.
संगठन के जेएनयू प्रभारी विनय कुमार ने कहा कि अगले सप्तािह 'महिषासुर-दुर्गा:एक मिथक का पुनर्पाठ' वि‍षय पर पुस्तिका जारी की जाएगी, जिसका संपादन अकादमिदक जगत में लोकप्रिय पत्रिका 'फारवर्ड प्रेस' के संपादक प्रमोद रंजन ने किया है। गौरतलब है कि 'फारवर्ड प्रेस' में ही पहली बार वे महत्विपूर्ण शोध प्रका‍शित हुए थे, जिससे यह साबित होता है 'असुर' एक (आदिवासी) जनजाति है, जिसका अस्तित्वत अब भी झारखंड व छत्तीयसगढ में और महिषासुर राक्षस नहीं थे बल्कि इस देश के बहुजन तबके के पराक्रमी राजा थे। उन्हों ने कहा कि पुस्तिका में महिषासुर और असुर जा‍ति के संबंध में हुए नये शोधों को प्रकाशित किया जाएगा तथा इसे विचार-विमर्श के लिए उत्त र भारत की सभी प्रमुख यु‍निवसिटियों में वितरित किया जाएगा।
इस मौके पर 'इन साइट फाउंडेशन' द्वारा महिषासुर पर बनाई गई डाक्युशमेंट्री भी दिखाई गई.
समारोह को एआईबीएसएफ कार्यकर्ता रामएकबाल कुशवाहा, आकाश कुमार, मनीष पटेल, मुकेश भारती, संतोष यादव, श्री भगवान ठाकुर आदि ने भी संबोधित किया.
प्रेषक : विनय कुमार, जेएनयू अध्यक्ष, एआईबीएसएफ, 158, साबरतमी जेएनयू मोबाइल – 9871387326

कांशीराम के बहाने दिखाई दलित एकजुटता

दैनिक भास्कर भिलाई से प्रकाशित
कांशीराम के बहाने दिखाई दलित एकजुटता


विभिन्न प्रांतों के दलितों को एक करने की मुहिमराज्य में निवास कर रहे अलग-अलग प्रांतों के दलितों को एकजुट करने एक बड़ी मुहिम शुरू हो गई है। दलित मूवमेंट एसोसिएशन के बैनर तले आयोजन किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में एक प्रमुख आयोजन दो दिन पहले सेक्टर-6 के डॉ. अंबेडकर सांस्कृतिक भवन में कांशीराम की पुण्यतिथि पर हुआ। जिसमें भिलाई स्टील प्लांट व अन्य सार्वजनिक कंपनियों के अफसरों सहित भिलाई में निवासरत विभिन्न प्रांतों के दलित प्रतिनिधियों ने अपनी उपस्थिति दी। 
दलितों को एकजुट करने छत्तीसगढ़ स्तर पर विविध आयोजन के लिए 15 विभिन्न संस्थाओं ने मिलकर कैलेंडर तैयार किया है। जिसमें दलितों से जुड़े मुद्दों पर राज्य के विभिन्न शहरों में कार्यक्रम शुरू हुए हैं। इस एकजुटता को आगामी लोकसभा-विधानसभा चुनावों से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। आयोजक भी इससे इंकार नहीं कर रहे हैं। 
आयोजन की श्रृंखला में 'हमारे महापुरुषों की विरासतÓ कार्यक्रम में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक दिवंगत कांशीराम को लोगों ने याद किया और भारतीय समाज व्यवस्था को बदलने के उनके योगदान की सराहना की। मुख्य अतिथि बीएसपी के जीएम एल. उमाकांत ने कहा कि स्व. कांशीराम का उद्देश्य देश के 85 फीसदी जनसंख्या को एकजुट करना था। उन्होंने अपने त्याग और आचरण से इसमें सफलता पाई। अपने संस्मरण सुनाते हुए बीएसपी के विधि अधिकारी टी. दास ने कहा कि जब स्व.कांशीराम ने डॉ. अम्बेडकर की पुस्तक 'एनहिलेशन ऑफ कास्टÓ को 7 बार पढ़ा तो उनका जीवनदर्शन बदल गया। बीएसपी के डीजीएम एफ. आर. जनार्दन ने 1978 के रामनामी मेले में उनकी उपस्थिति को याद करते हुए बताया कि गिरौदपुरी मेले के दौरान कसडोल में रूकने की व्यवस्था न होने पर एक बस कंडक्टर के छोटे से कमरे में 10-15 साथियों के साथ, जमीन पर लेटकर रात गुजारने का मार्मिक वृतांत सुनाया। इस अवसर पर पंजाब नेशनल बैंक में कार्यपालक जी डी राउत ने बताया कि लोगों को जोडऩे के लिए स्व. कांशीराम ने भाईचारा बनाओ कार्यक्रम, जाति तोड़ो-समाज जोड़ो, सफाई कामगार आंदोलन, साइकिल रैली आदि अनेक अभियान चलाए। आदिवासी ओमखास समाज के महासचिव किशोर एक्का, बीएसपी के डीजीएम पी. जयराज, सामाजिक कार्यकर्ता विजय कश्यप, विमला जनार्दन, डा. अकिल धर बैनर्जी और प्रवीण कांबले ने भी संबोधित किया। आयोजन में विनोद वासनिक, नरेंद्र खोबरागढ़े, एन. चिन्ना केशवलू, प्रदीप सोमकुंवर, वासुदेव लाउत्रे, दिवाकर प्रजापति, शीलाताई मोटधरे और अरविंद रामटेके सहित अन्य का योगदान रहा।
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'' निश्चित रूप से राजनीतिक मोर्चे पर दलित एकजुटता हमारा सबसे बड़ा मकसद है। आरक्षण में कटौती और जाति प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली अड़चनें सहित ढेरों ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर जिनके लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा करना जरूरी है। डॉ. अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस पर 6 दिसंबर को हम लोग रायपुर में समूचे प्रदेश से दलित समुदाय को एकजुट करने की तैयारी है। वहां हमारे आंदोलन को नाम भी मिल जाएगा और आगे की मुहिम भी वहीं से शुरू होगी।''
संजीव खुद शाह, आयोजक

‎"पिंड दान" एक ब्राम्हणी पाखंड...

‎"पिंड दान" एक ब्राम्हणी पाखंड...
इन दिनों हिन्दू धर्म के अनुसार श्राद्ध या पितृपक्ष का महिना चल रहा है, इस महीने में हिन्दू कोई भी शुभ काम नहीं करते हैं शादी -व्याह करना , कपडे -गहने खरीदना आदि अशुभ माना जाता है. लोग अपने मरे हुए पूर्वजो (पितरो ) का आवाहन करते हैं , पिंडदान, तिलांजलि, दान और सिर्फ ब्राह्मणों को भोजन करवाना आदि कर्मकांड किये जाते हैं. पर क्या सच में श्राद्ध मरे हुए पितरो का ही किया जाता है? कहीं ऐसा तो नहीं की ब्राम्हण (जिसे सबसे ज्यादा फायदा होता है जैसे - भोजन , दान आदि ) ने श्राद्ध में मृत पितरो को पूजने का चलन अपने लाभ के लिए चलाया हो ?क्यों की मृत लोग तो भोजन और दान लेने तो आएंगे नहीं ....चलिए श्राद्ध का सच जानते हैं. श्राद्ध का अर्थ है सत्य का धारण करना अथवा जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए ..श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर, विद्वान, अतिथि, माता-पिता, गुरु आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है. श्राद्ध जीवित माता-पिता, आचार्य ,गुरु आदि पुरूषों का ही हो सकता है. मृतकों का नहीं. मृतकों का श्राद्ध तो पौराणिकों की लीला है..वैदिक युग में तो मृतक श्राद्ध का नाम भी नहीं था. मृतक के लिए बर्तन देने चाहिएँ और वे वहाँ पहुँच जाएँगे, मृतक का श्राद्ध होना चाहिए तथा इस प्रकार होना चाहिए और वहाँ पहुँच जाएगा ऐसा किसी भी वेदमंत्र में विधान नहीं है. पितर शब्द "पा रक्षेण" धातु से बनता है, अतः पितर का अर्थ पालक, पोषक, रक्षक तथा पिता होता है..जीवित माता-पिता ही रक्षण और पालन-पोषण कर सकते है.मरा हुआ दूसरों की रक्षा तो क्या करेगा उससे अपनी रक्षा भी नहीं हो सकती, अतः मृतकों को पितर मानना मिथ्या तथा भ्रममूलक और ढोंग, पाखंड है.

अब विचारणीय बात है यह है कि पितरों को भोजन किस प्रकार मिलेगा, भोजन वहाँ पहुँचता है या पितर लोग यहाँ करने आते है..यदि कहो कि वहीँ पहुँचता है तो प्रत्यक्ष के विरुद्ध है. क्योंकि तृप्ति सिर्फ ब्राह्मण की होती है.यदि भोजन पितरों को पहुँच जाता तब तो वह सैकड़ो घरों में भोजन कर सकता था. मान लो भोजन वहाँ जाता है तब प्रश्न यह है कि वही सामान पहुँचता है जो पंडित ब्राम्हणों को खिलाया जाता है या पितर जिस योनि में हो उसके अनुरूप मिलता है. यदि वही सामान मिलता हो और पितर चींटी हो तो दबकर मर जायेगी और यदि पितर हाथी हो तो उसको क्या असर होगा? यदि योनि के अनुसार मिलता है तब यदि पितर मर कर सूअर बन गया हो तो क्या उसको विष्ठा के रूप में भोजन मिलेगा? यह कितना अन्याय और अत्याचार है कि ब्राह्मणों को खीर और पूरी खिलानी पड़ती है और उसके बदले मिलता है मल. इस सिद्धांत के अनुसार श्राद्ध करने वालो को चाहिए कि ब्राह्मणों को कभी घास, कभी मांस, कभी कंकर-पत्थर आदि खिलाये क्योंकि चकोर का वही भोजन है. योनियाँ अनेक है और प्रत्येक का भोजन भिन्न-भिन्न होता है, अतः बदल-बदलकर खाना खिलाना चाहिए, क्योंकि पता नहीं पितर किस योनि में है.

कहते है श्राद्ध करने वाले का पिता पेट में बैठ कर, दादा बाँई कोख में बैठकर, परदादा दाँई कोख में बैठ कर और खाने वाला पीठ में बैठ कर भोजन करता है.
पौराणिकों, ब्राम्हणों... ! यह भोजन करने का क्या तरीका है? पहले पितर खाते है या ब्राह्मण? झूठा कौन खाता है? क्या पितर ब्राह्मण के मल और खून का भोजन करते है? एक बात और पितर शरीर सहित आते है या बिना शरीर के? यदि शरीर के साथ आते है तो पेट में उतनी जगह नहीं कि सब उसमे बैठ जाएँ और साथ ही आते किसी ने देखा भी नहीं अतः शरीर को छोड़ कर ही आते होंगे. पितरों के आने-जाने में ,भोजन परोसने में तथा खाने आदि में समय तो लगता ही है, अतः पितर वहाँ जो शरीर छोड़ कर आये है उसे भस्म कर दिया जाएगा,इस प्रकार सृष्टि बहुत जल्दी नष्ट हो जायेगी. मनुष्यों की आयु दो-तीन मास से अधिक नहीं होगी, जब क्वार का महिना आएगा तभी मृत्यु हो जायेगी, अतः श्राद्ध कदापि नहीं करना चाहिए.

इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि श्राद्ध जीवित माता -पिता का ही हो सकता है.. दयानंद सरस्वती का भी यही अटल सिद्धांत है..मृतक श्राद्ध अवैदिक और अशास्त्रीय है..यह तर्क से सिद्ध नहीं होता..यह स्वार्थी, टकापंथी और पौराणिकोंका ब्राम्हणों का मायाजाल है......................

गांधी और दलित प्रश्न

(भारतीय भाषा परिषद में दिया गया व्याख्यान का अंश)
गांधी और दलित प्रश्न
            संजीव खुदशाह
यह सर्वविदीत है कि महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पोषक थे। इसके पीछे वे तर्क देते थे कि यह व्यवस्था विश्व के अधिकांश उन्नत समाजो में देखने मिलती है। वे जाति भेद को वर्ण भेद से अलग मानते थे। वे मानते है कि ''वर्ण व्यवस्था में उंच नीच की भेद वृत्ति नही है।``[1]  वे मनु की तरह वर्गो को उच्च और निम्न बड़ा या छोटा नही मानते है।
गांधीजी के हरिजन उत्थान मुद्दे पर निम्न चार बिन्दुओं को उदघृत किया जाता है जो इस प्रकार है-
१.  पुना पैक्ट जिसमें उन्होने यरवदा जेल में अनशन किया था।
२. अपनी पत्रिका का नाम हरिजन (गांधीजी का अंग्रेजी साप्ताहिक विचार पत्र) रखना।
३. साबरमती आश्रम में अछुत जातियों को शामिल करना।
४. दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन प्रवास करना।
यहां पर हमें गांधीजी के व्दारा समय समय पर किये गये इन कार्यो की एतिहासिकसामाजिक एवं राजनीतिक पहलूओं पर चर्चा करेगें साथ-साथ अपना ध्यान इस ओर भी आकृष्ट करेगे की इस मुद्दे पर उनके विचार क्या थे तथा व्यवहारिक धरातल पर उनके विचार क्या प्रभाव छोड़ते है।
वैसे गांधी के परिप्रेक्ष्य में दलित (यहां हरिजन कहना उचित होगा) के विषय में चर्चा करना एक गैर जरूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा  समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि नगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नही थे।
एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है- ''वर्ण व्यवस्था का सिध्दान्त ही जीवन निर्वाह तथा लोक मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नही मिला तो व्यक्ति उस काम को कार सकता है। बर्शते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करेउसे वह निष्काम भाव सेसेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।`` [2]
यानि जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम मनोरंजन के लिए करें (व्यवसाय के रूप में नही)। इसी प्रकार गाय चराने का पुश्तैनी कार्य करने वाले चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैंलेकिन पूजा से लाभ नही प्राप्त कर सकते । जाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नही चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अत: यहां गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह बंदिश केवल निम्न जातियों के लिए तय की गई ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और अराम तलब तथा उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहां स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।
कहीं-कहीं पर गांधीजी के विचार साफ-साफ बुजुर्वावर्ग को सुरक्षित करने हेतु रखे गये मालूम होते है-गांधीजी के समाज में विश्वविद्यालय का प्रोफेसरगांव का मुन्शीबड़ा सेनापतिछोटा सिपाहीमजदूर और भंगी सब एक से खानदानी माने जायेगे। सबकी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति समान होगी इससे प्रतिष्ठा या आय वृध्दि के लिए धन्ध छोड़कर दूसरा धन्धा करने का प्रलोभन नही रहेगा।[3]
यानि प्रोफेसर और भंगी दोनों खानदानी माने जायेगें। क्यो माने जायेगे कैसे माने जायेगे ये स्पष्ट नही है। लेकिन धन्धा बदलने की पावंदी गांधी स्पष्ट लगाते है। जो आज के दौर में प्रासंगिक बिल्कुल भी नही है। पहले भी नही था। गांधी के करीबी एवं फाईनेन्सर टाटा लुहार तो नही थे लेकिन लुहार का काम (व्यवसाय) करते थे। ऐसे ही कई उनके करीबी थे जो गैरजातिगत पेशा अपनाए हुए थे। गांधी अपनी आत्मकथा में खुद को एक पंन्सेरी बताते है लेकिन सियासत करते थे।
यहां पाठको का ध्यान आकृष्ठ कराना चाहूगां कि गांधीजी ये मानते थे कि गवांर का बेटा गवांर और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे ''मनुष्य अपने पूर्वजो की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह खास गुण लेकर ही पैदा होता है।`` [4]
गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते है। लेकिन एक मेहतर को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नही देते है। वे कहते है कि -अपनी संतानों के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति मेहतर है तथा आधुनिक औषधि विज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति एक चमार किन्तु हम उनके कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है।[5]  गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते है।
वे एक स्थान पर लिखते है कि ब्राम्हण वंश का पुत्र ब्राम्हण ही होगाकिन्तु बड़े होने पर उससे ब्रामहण जैसे गुण नही है तो उसे ब्राम्हण नही कहा जा सकेगा। वह ब्राम्हणत्व से च्युत हो जायेगादूसरी ओर ब्राम्हण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्राम्हण माना जायेगा यद्यपि वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नही करेगा। [6] यानि कोई भी गैर ब्राम्हण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे।
गांधीजी के इन आदर्शो के विपक्ष में डा. अम्बेडकर आपत्ति दर्ज कराते है कि जाति-पांति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदो से भरे बर्तन के समान है। अपने  गुणो के आधार पर कायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की  इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।
ज्यादातर यह माना जाता है कि १९३२ के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा पोशी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। ज्यादातर साथी पूना पैक्ट के बारे में अवगत है। दरअसल स्वतंत्रता पूर्व डा.अम्बेडकर की सलाह पर अंग्रेज प्रधान मंत्री रैम्जले मैक्डोनल्ड ने १७ अगस्त १९३२ में '`कम्युनल अवार्ड`` के अंतर्गत दलितों को दोहरे वोट का अधिकार दिया था। जिसके व्दारा दलितों को यह अधिकार प्राप्त होना था कि आरक्षित स्थानों पर केवल वे ही अपनी पसंद के व्यक्ति को वोट देकर चुन सकते थे तथा समान्य सीटों पर भी वे अन्य जातियों के प्रत्याशियों को वोट देकर अपनी ताकत दिखा सकते थे। गांधीजी इस प्रस्ताव के विरूध्द थे उन्होने यह तर्क दिया कि इससे हरिजन हिन्दुओं से अलग हो जायेगे। उन्होने लगभग ३० दिनों का आमरण अनशन किया। घोर दबाव में दलितों के मसिहा डा.अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलित अपने अधिकार से वंचित हो गये। इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।
पूना पैक्ट के संदर्भ में यरवदा जेल में हुए इस अनशन में गांधीजी जीत तो गये लेकिन उन्होने दलितों की समस्या को काफी करीब से देखा एवं महसूस किया। शायद उनके अंदर जलती हुई पश्चाताप का नतीजा ही रहा होगा कि उन्होने अपनी हरिजन सेवक नाम की हिन्दी साप्ताहिक विचार पत्रिका प्रारंभ १९३२ की तथा काफी सारे लेख अस्पृश्यता पर केन्द्रित करते हुए लिखां उन्होने अपने आश्रम में पैखाने सफाई हेतु लगे भंगी को हटा कर पारी-पारी सभी को पैखाने सफाई कराने के निर्देश दिये। जिस पर उनका उनकी पत्नी से तकरार भी हुई।
ऐसा कहा जाता है कि महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होने ''हरिजन`` शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही  इस्तेमाल करना शुरू किया था। दूसरा वाक्या अकसर सुनाया और बार-बार दोहराया जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि-''यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूंगा।`` अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति पे्रम को साबित करने के लिए सुनाते है।
एक दलील और भी दी जाती है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएं उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी वही यहां उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूगां। [7]
यानि गांधीजी खुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन १२ जनवरी सन १९३४ में वे लिखते है-''एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।`` यानि गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वकालत करते नजर आते है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रसिध्द अधिकारी कर्नल सलीमन ने अपनी पुस्तक "RAMBLINGS IN OUDH" सफाई कर्मचारियों की १८३४ की हड़तालों का जिक्र किया है। इस पुस्तक से जाहिर है कि सफाई कर्मचारियों की हड़ताल से वे परेशान थे। परन्तु गांधीजी जो सिविल नाफरमानीहड़तालो और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थेभंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे। [8]
१९४५ में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारो का समर्थन कर हड़ताल जल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे किन्तु उन्होने उल्टे अंग्रेज सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है।
''सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के खिलाफ मेरी राय वही है जो १८९७ में थी जब मै डरबर (द.अफ्रीका) में था। वहां एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिएमैने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।`` [9]
इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है-
''विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमजोरी की निशानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नही छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीके उपलब्ध है।`` यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मागांधी की दृष्टी में अवैध है।
गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमानब्राम्हण या शूद्र नही होगाबल्कि उसकी महचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृश्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूंढना जरूर कहा जाएगा कि जब जक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरा की आशा नही की जा सकती। अत: वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है।
इस व्यवस्था के औचित्य के लिए शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करना उचित नही। अम्बेडकर ने कहा-शास्त्रों के आदेशो के कारण ही हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन बना हुआ है जिसने हिन्दुओं में उंच-नीच की भावना उत्पन्न की हैजो अस्पृश्यता का मूल कारण है। स्पष्ट है आधुनिक युग में वर्ण विभाजन के आधार पर हिन्दू समाज का संगठन उचित प्रतीत नही होता।
डा.अंबेडकर इस बारे में आगे कहते है- ''हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार पर पुन: संगठित करना चाहिए जो स्वतंत्रतासमता और बन्धुता के सिध्दान्त को स्वीकार करता हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की अलंध्यता तभी नष्ट की जा सकती हैजब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।``
आखिर में यही कहा जा सकता है कि दलित संदर्भ में गांधी के विचार प्रासंगिता की कसौटी पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े करते है। बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में कस कर देखते। तथा सभी को उच्च कोटि के व्यवसाय अपनाने की आज्ञा देते। समाज में उच्च कोटी तथा निम्न कोटी के व्यवसाय दोनो की जरूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आजादी गांधी क्यों नही देतेंक्यो उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष  लेते हैआखिर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही हैं । इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है।

[1] महात्मा गांधी यंग इन्डीया 29/12/1920
[2] पृष्ठ क्रमांक 122, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[3] पृष्ठ क्रमांक 123, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[4] पृष्ठ क्रमांक 126, गांधी-सामाजिक राजनेतिक परिर्वतन लेखक डा.हरिष कुमार प्रकाषक-अर्जुन पब्ल्षििंग हाउस नई दिल्ली-2
[5] पृष्ठ क्रमांक 102, महात्मा- तेन्दुलकर जी.डी. भाग-पब्लिीकेषन डिवीजन भारत सरकार नई दिल्ली
[6] महात्मा गांधी यंग इन्डिया 17 जुलाई 1925
[7] पृष्ठ क्र. 27 बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां लेखक भगवान दास प्र. दलित टुडे प्रकाषन लखनउ 226016
[8] पृष्ठ क्र. 31 बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां लेखक भगवान दास प्र. दलित टुडे प्रकाषन लखनउ 226016
[9] Removal of Untouchability by M.K.Gandhi Harijan 21-4-46