(VIKALP) विकल्प: छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष

(VIKALP) विकल्प: छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष : -जीवेश चौबे:
इस दिसम्बर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के 11 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । लगातार तीसरी बार जीतने का शानदार रिकार्ड बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने देश में अपना नाम व मान बढ़ाया है । प्रदेश गठन के पश्चात हुए पहले स्वतंत्र चुनाव में डॉ. रमन सिंह ने पहली बार 2003 में बहुमत प्राप्त किया था । तब लगभग अजेय समझे जाने वाले कांग्रेस के अजीत जोगी को मात देकर डॉ. रमन सिंह ने पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का पद संभाला ,तब से लगातार उन्होंने अपनी सौम्य व संयत छवि से प्रदेश के मतदाताओं को अपने मोह से बांधे रखा है। 2008 एवं पिछले वर्ष 2013 दोनों ही चुनावों में तमाम अटकलों को विराम देते हुए उन्हों जीत का परचम लहराया । इस वर्ष उनकी हैट्रिक को 1 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं । इस पर सुहागा ये कि केन्द में भी भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई है, तो अब जीत की हैट्रिक का जश्न तो बनता है । इसी खुशी को सार्वजनिक रूप से मनाने के बहाने आने वाले निकाय चुनावों में पकड़ बनाने के उद्देश्य से भाजपा के प्रदेश नेतृत्व ने जश्न को वृहत्तर स्तर पर आयोजित किया है । इस कड़ी में दो महत्वपूर्ण आयोजन किए जा रहे हैं । एक राजनैतिक व सांगठिक स्तर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैली एवं दूसरा बौद्धिक वर्ग को संतुष्ठ करने राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक आयोजन, रायपुर साहित्य महोत्सव, इसी कड़ी में पहली बार आयोजित किया जा रहा है । 12 दिसम्बर को अमित शाह की रैली एवं साहित्यिक महोत्सव का आयोजन इसी मायने में महत्वपूर्ण है कि प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है एवं तीसरी बार सत्ता में आने एक वर्ष भी पूर्ण हो रहे हैं । भाजपा की यह उपलब्धि कम नहीं है । ऐसा नहीं है कि भाजपा को यह उपलब्धि कोई थाली में परोसकर मिली हो । इन 11 वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई जिससे लगा कि अब भाजपा के दिन लद गए मगर पार्टी जीतने में कामयाब रही । पिछले कार्यकाल में गर्भाशय कांड से लेकर झीरम घाटी तक की वारदातों ने भाजपा की नींद उड़ा दी थी । मगर कांग्रेस अपेक्षित लाभ उठाने में नाकाम रही । इधर तीसरी बार सत्ता में आई भाजपा के लिये यह एक वर्ष भी काफी दुखदायी रहा है । हाल ही में नसबंदी कांड , फिर नक्सल हमले में जवानों की मौत और फिर नवजात शिशुओं की लगातार मौतों ने सरकार को परेशानियों के साथ साथ सवालों के कटघरे में भी खड़ा कर दिया है । विपक्षी दल कांग्रेस लगातार इन मुद्दों पर सरकार को घेर रहा है मगर आम जनता में किसी तरह न तो कोई जन आंदोलन खड़ा हुआ न ही सामाजिक स्तर पर कोई ठोस विरोध के साथ सामने आया । कुल मिलाकर राजनैतिक विरोध की आड़ में संवेदनशील मद्दे दब कर रह गए। काँग्रेस ने तमाम तरीके अपनाए यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी राय सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किए , मगर आब तक तो कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया । विपक्षी दल कांग्रेस ने इन हादसों को लेकर साहित्य महोत्सव का भी विरोध किया । साहित्यकारों से महोत्सव में शामिल न होने की अपील की इसका आगे क्या असर होगा यह तो समय बताएगा मगर अब तक तो किसी साहित्यकार ने काँग्रेस की अपील को गंभीरता से लिया हो ऐसा लगता नहीं है । विपक्षी दल के नाते कांग्रेस का विरोध भी अपनी जगह ठीक है । यदि भाजपा विपक्ष में होती तो वह भी यही करती । बात साहित्यकारों की करें तो यह बात काफी दुखद भी है कि पूर्व में भी किसी घटना पर कभी भी साहित्यकारों की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती रही । विशेष रूप से छत्तीसगढ में गर्भाशय कांड, झीरम घाटी ,नसबंदी कांड , नवजात शिशुओं की मौत से लेकरअभी या पूर्व में भी नक्सली हमलों में मारे गए जवानों का मामला हो, इन किसी भी हादसों में अंचल के साहित्यिक बौद्धिक हलकों में कोई प्रतिक्रिया दिखलाई नहीं दी । इससे इन आत्मकेन्द्रितों की संवेदनशीलता का अंदाजा लगाया जा सकता है । ऐसे लोगों से अपील करने का क्या तुक? और इसका नतीजा भी कुछ कुछ देखने मिला जब अखबारों में कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कारों में उन्होंने खुलकर कांग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। वैसे यह ठीक भी है कि कांग्रेस के कहने से कोई क्यों चले ? लोग कहने लगे कि अशोक बाजपेयी ने तो दशकों पूर्व कांग्रेस के शासनकाल में भोपाल गैस त्रासदी के ठीक बाद हुए साहित्यिक महोत्सव में कहा था कि मुर्दो के साथ मर नहीं जाते । कल भी साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि महोत्सव है कोई मनोरंजन नहीं जिसका विरोध किया जाय , इतने वरिष्ठ और विद्वान साहित्यकार ने प्रतिक्रिया में कहा तो ठीक ही होगा । विभिन्न मसलों पर अक्सर बौद्धिक साहित्यिक वर्ग सर्द खामोशी ओढ़े रहता है । इक्का दुक्का साहित्यकारों को छोड़ सराकरी प्राश्रय प्राप्त साहित्यकार अक्सर चुप रहकर अपनी रोटियाँ सेकते रहते हैं । एक सतही और चलताऊ सा तर्क दे देते हैं कि हर घटना पर कोई झण्डा उठा लेना, धरना देना या सड़क पर आना तो जरूरी नहीं है ... मुद्दों से कन्नी काट जाने का यह अच्छा बहाना होता है । इस बीच नक्सलियों के हमले में एक बार फिर जवानों की मौत हुई । नक्सल मोर्चे पर सरकार लगातार नाकाम हो रही है । अब तो केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है तो ठीकरा केन्द्र पर मढ़ना भी संभव नहीं हो पा रहा है । केन्द्रिय गृहमंत्री आए और राजधानी से ही लौट गए । बस्तर मुख्यालय जगदलपुर तक जाने की ज़ेहनत नहीं उठाई । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही केन्द्र की उपेक्षा का शिकार रहा है चाहे केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की । इन सब मुद्दों पर हर तरह के विरोध विपक्षी दल करते रहे हैं । यह विपक्ष का कर्म भी है और धर्म भी। मगर हकीकत ये है कि भाजपा विगत 11 वर्षों से लगातार सत्ता में काबिज है और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को फिलहाल किसी भी तरह की कोई गंभीर चुनौती मिलती दिख नहीं रही है । तो सफलता का जश्न भी लाजमी है जो अमित शाह की रैली और रायपुर साहित्य महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । ®®®

फारवर्ड प्रेस में छापा और दुर्गा महिषासुर प्रसंग

क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा?
संजीव खुदशाह
विगत 9 अक्टूबर 2014 को दिल्ली स्थित फारवर्ड प्रेस के कार्यालय में छापा पङा । यह छापा किसी दलित बहुजन पत्रिका के कार्यालय में पङने वाला पहला छापा है। इसके पहले भी कुछ पत्रिकाओं में छापे पङे थे लेकिन ये पत्रिकाये दलित बहुजन विचारधारा से प्रेरित नही थी। मै आपको बताना चाहूगां की भारत में अब तक सैकङो दलित बहुजन या अंबेडकरवादी पत्रिकाएँ निकलती है जिनमें अब तक कभी छापे नही पङे। फारर्वड प्रेस एक ऐसी पत्रिका है जो बहुजनवादी दृष्टिकोण से बैकवर्ड को जगाने का बीड़ा उठाये हुये है। हलांक‍ि फारवर्ड प्रेस ने अपने आपको अंबेडकरवादी पत्रिका होने की कभी घोषणा नही की किंतु उनके विचार प्रकोष्ट के महापुरुषों में अंबेडकर का स्थान प्रमुख है।
विगत तीन सालों से इस पत्रिका के अक्टूबर माह का अंक दुर्गा-महिषासुर पर केन्द्रित आ रहा है। इस माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है कि महिषासुर और दुर्गा की लड़ाई आर्य और अनार्य की लड़ाई है। महिषासुर एक पशु पालक जाति का व्यक्ति और मूल निवासी है जिसे आर्य दुर्गा के माध्यम से छल के द्वारा हत्या करवा देते है। इसी प्रकार फारवर्ड प्रेस  देश भर में होने वाले महिषासुर शहादत दिवस कार्यक्रम को प्रमुखता से प्रकाशित कर रहा है। प्रेस की रपट से ज्ञात होता है कि जे एन यू दिल्ली सहित देश के कुछ नाम चीन विश्वविद्यालय में दशहरे के दिन महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है।
फारवर्ड प्रेस में छापे और गिरफ़्तारी से प्रश्न खड़ा होता है कि क्या फारवर्ड प्रेस अकेली वह पत्रिका है जो इस मुद्दे को उठा रही है। जबकि सच यह है कि यह मुद्दा नया नही हैमहात्मा ज्योतिबा फुले अपने साहित्य में  बलीराजाप्रहलाद और महिषासुर के मुद्दाे को पहले ही उठा चुके है। वे बलीराजा को भारत का मूल निवासी राजा करार देते है। इस लिहाज से कार्यवाही फूले के उपर होनी चाहिए या उनकी उन किताबों परजो इस तरह के संदेश देती है। लेकिन फारवर्ड प्रेस पर दमन की कार्यवाही के पीछे मंशा कुछ और थीऐसा प्रतीत होता है। सबसे पहला कारण है फारवर्ड प्रेस भारतीय मूल के किसी ईसाई संपादक के द्वारा संचालित किया जा रहा हैदूसरा कारण है दलित बहुजन आंदोलन को लेकर चलने वाली यह पत्रिका व्यवसाय‍िक तौर पर अपने पैर जमा चुकी है। 10,000 से अधिक संख्या में छपने वाली यह पत्रिका अंग्रेजी हिन्दी दोनो भाषा में प्रकाशित होती है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग नये अंक का बेसब्री से इंतजार करते है और यह पत्रिका हांथो हाथ बिक जाती है। ये दोनो कारण किसी भी सामंतवादी विचारधारा के व्यक्ति के लिए संकट बन सकते है। खासकर उनके लिए जो हिन्दू राष्ट्र के पैरो कार है। मुझे लगता है किसी ऐसे ही पूर्वाग्रही व्यक्ति के इशारों में ये कार्यवाही करवाई की गई। इस दौरान कुछ ऐसे मौक़ापरस्त लेखकों के लेख पढने को मिले जिसमें फारवर्ड प्रेस को दोषी ठहराते हुए दुर्गा को स्त्री विमर्श की ऊचाई पर बिठाया गया।
क्या डा अंबेडकर पौराणिक मिथको को बहुजन नायक बनाने के पक्ष में थे मै यहां पर यह जानकारी देना आवश्यक समझता हूँ की डाँ भीम राव अंबेडकर महात्मा फूले को अपना गुरू मानते थे। किंतु वे पौराणिक नायकों को बहुजन नायक बनाने पर जोर नही देते थे। वे मानते थे की इससे बहुजन भ्रमित हो जायेगे। इसलिए अंबेडकर वादियों के नायक बुद्धकबीरफुले एवं स्वयं अंबेडकर रहे है। ग़ौरतलब है की फारवर्ड प्रेस ने महिषासुर के मुद्दे को उठा कर खासतौर पर ओबीसी समुदाय के बीच अपना ध्यान खींचा है।
आज से 40 या 50 साल पहले दुर्गा पूजा उत्सव केवल बंगाल या उसके आसपास के क्षेत्रों में मनाया जाता था। अब यह पूरे देश में खासकर उत्तर भारत में बडे ही धूम धाम से मनाया जाता है। लेकिन विगत कुछ सालों से यह उत्सव हिन्दूत्व के प्रतीक के रूप में उभरता गया। किसी जाति (राक्षस या तथाकथित पशु पालक) विशेष की हत्या के प्रतीक के रूप में यह उत्सव पूरे विश्व में सिर्फ यहीं मनाया जाता है। ये भारत जैसे देश का एक दुखद पहलू है की जिसके पास जश्न के कोई और विकल्प नही रह गये है हम ऐसे मिथको पर जश्न मनाने को मजबूर है जो किसी की हत्या पर आधारित है। लानत है ऐसी संस्कृति पर। कल फूले ने ऐसा प्रश्न खड़ा किया था आज फारवर्ड प्रेस ने कियापरसों कोई और किसी मुद्दे पर प्रश्न खड़ा करेगा। आखिर कब तक और किस किस को गिरफ़्तार करेगी सरकार। अभी तो और भी मिथक नायकों के बारे में सवाल खड़े होने बाकी है जैसे रावणहिरण्याकश्यपसुग्रीव बालीएकलव्य,संबूकबलीराजा आदि आदि।
धार्मिक भावना भङकाये जाने का भ्रम-ज्यादातर ऐसे मुआमलो में यह आरोप लगाना आसान होता है कि ऐसे साहित्यों से धार्मिक भावनाएं आहत हुई। इसलिए जप्ती और गिरफ़्तारी क‍ि कार्यवाही की गई। मेरा कहना है यदि धार्मिक किताबों से किसी की भावनाएं यदि आहत होती हो तो किसकी गिरफ़्तारी होनी चाहिए ? यदि ऐसे किताबों का पठन पाठन हो तो किस पर कार्यवाही होनी चाहिए। तुलसी दास के रामायण में शूद्र गवांर ढोल पशु नारी ये है ताडन के अधिकारी में पूरे स्त्री एवं शूद्र वर्ग की भावनाएं आहत हुई और रोज हो रही है। मनु स्मृति में छोटी-छोटी ओबीसी जातियों को अवैध संतान बताया गया है। क्या इससे उनकी भावनाएं आहत नही होती? क्या कभी उनकी आहत भावनाओं को न्याय मिलेगा? भारत की न्याय व्यवस्था पर यह प्रश्न हमेशा भारी पडेगा।
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Review of Kancha Ilaiah’s “Why I am not a Hindu”


By Ranbir Singh

Kancha Ilaiah is professor and head of the department of political science at Osmania University , Hyderabad . He is perhaps best known for writing Why I am not a Hindu in 2007. Anyone approaching this work with the prior knowledge of Bertrand Russell (Why I am not a Christian) and Ibn Warraq (Why I am not a Muslim) would certainly have their expectations dashed. In a truly appalling collection of half-truths, lack of methodical research and racial myths, Ilaiah’s book has the dubious distinction of making Hitler’s Mein Kampf look like a literary masterpiece in comparison. Ilaiah shares much else with Hitler, notably his obsession with race and inventing racial categories where they do not even exist. To say in his defence that Ilaiah is inspired by the oppression of Dalits in India would be equivalent to justifying National Socialism and the Third Reich on the basis that the Versailles Treaty was after all rather unfair to Germany .

In page after page this appalling writer spews venom against anything Hindu. If one needs to find a prime example of a dysfunctional illiterate elite who replaced white colonial masters in a Third World kleptocracy, Kancha Ilaiah would certainly be hard to beat. For him Hinduism is basically spiritual fascism. Yet Ilaiah is hardly averse in being ideologically associated with the “f” word himself. His attack on the “Baniya economy” bares unhealthy semblance to the Nazi obsession with Jewish banking houses such as Rothschild holding the German volk to ransom. In discussing Hindu deities Ilaiah echoes the music of Richard Wagner in his addiction to the idea of an Aryan race, even if it as the comic book strip bad guys in his rewriting of Indian history to fit into a racist mould. All Hindu gods have suppression of Dalits as their purpose. Brahma is a light-brown Aryan, Vishnu is blue because apparently this was the colour of the mixed race Kshatriyas, while Shiva is dark because he resembles a “tribal” in order to delude the indigenous pre-Aryan inhabitants of India . The Ramayana is some primeval race war in which the Aryans suppressed the Dravidian south. In a twist to classic anti-Semitic motifs Brahmins control all India ’s political parties, including the Communists. Replace “Brahmin” with “Jew” and Ilaiah could be rendering a speech written by Sir Oswald Mosley in the 1930s. Most incredibly, yet like so many of his remarks which lack any solid basis, cremation was a Brahminist plot to hide the mass genocide of India’s indigenous Shudras.

The contrast between Hinduism on the one hand and Christianity, Islam and Buddhism on the other is explained by the former having “an inborn spiritual fascist” character while the other three possess “basic character of spiritual democracy”. By this stage we should be alleviated of any doubts that Ilaiah has not rewritten world history in manner befitting Himmler’s SS research institute known as Das Ahnenerbe which traversed the corners of the earth to find the origins of the Aryan race. In the end the Nazi ‘scholars’ came back with recordings of Finnish folk music and plaster casts of Tibetan faces which serious academia even then laughed off.

In summary Why I am Not a Hindu is a wasted opportunity at dissecting the world’s oldest surviving culture. In a free society we should not take offence at our beliefs being criticised. That is the hallmark of a healthy vibrant democracy. Censorship and banning is the character of totalitarianism. Yet academic standards must not be allowed to drop in allowing hate ideologies to stifle the very liberal ideas which allow for democracy in the first place.


Read the rest and full article at the original source:http://www.hinduhumanrights.info/review-of-kancha-ilaiahs-why-i-am-not-a-hindu/


जाति प्रमाण के लिये 1950 के कागज ज़रुरी नहीं


छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाणपत्र के लिये अब 1950 के दस्तावेजों की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है. राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की बैठक में यह फैसला किया गया. बैठक में फैसला लिया गया कि अब अगर किसी आवेदक के पास वर्ष 1950 के पहले का राजस्व अथवा अन्य अभिलेख नहीं है तो, ग्राम सभा के अनुमोदन और प्रस्ताव के आधार पर आवेदक को जाति प्रमाण पत्र जारी किया जा सकता है. इस संबंध में उससे यह शपथ पत्र लिया जा सकता है कि यदि वह गलत पाया जाएगा तो सारी जिम्मेदारी जाति प्रमाण पत्र प्राप्तकर्ता की होगी.


प्रमाणपत्र के निर्देश के लिए यहां क्लिक करे

छत्तीसगढ राज्य के लिए

1. यदि आपके पास 1950 के दस्तावेज नही है तो जाति प्रमाण पत्र के लिए निर्देश
2. सक्षम अधिकारियों के संबंध में निर्देश

मध्यप्रदेश राज्य के लिए
1. जाति प्रमाण पत्र के लिए निर्देश
2. जाति प्रमाण पत्र के लिए नियम

”सुदर्शन समाज की आम्बेडकरी आंदोलन में भागीदारी और दलित मित्र राम रतन जानोरकर”

प्रेस विज्ञप्ति




8 जून 2014 को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के खचाखच भरे वंन्दावन भवन, सिवील लाईन में दलित मुव्हमेन्ट ऐसोसियेशन कि ओर से एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी ”सुदर्शन समाज की आम्बेडकरी आंदोलन में भागीदारी और दलित मित्र राम रतन जानोरकर” विषय पर केंद्रित था। मुख्य वक्ता श्री सुनील चौहान मुंबई, श्री हरीश जानोरकर और उमेश पिंपरे नागपुर, श्री भरत लाल छडिले एवं राजकुमार समुंद्रे बिलासपुर, श्री विश्वास मेश्राम भिलाई और श्री जय गोविंद बेरिहा रायपुर थे।



इस संगोष्ठी का कुशलता पूर्वक संचालन श्री शुभ्रांशु हरपाल जीने किया। सर्वप्रथम श्री संजीव खुदशाह जो दलित मुव्हमेंट एसोसियेशन के राज्य संयोजक है, ने ऐसोसियेशन के क्रियाकलापों का परिचय दिया कि किस प्रकार यह ऐसोसियेशन छोटी-छोटी गुमनाम दलित जातियों जैसे डोम,डोमार, हेला, मखियार, लालबेगी एवं खटीक के बीच कार्य कर रही है एवं उनमें दलित आंदोलन का प्रचार कर रही है। उन्होने यह भी बताया की ”सुदर्शन समाज की आम्बेडकरी आंदोलन में भागीदारी और दलित मित्र राम रतन जानोरकर” विषय पर परिचर्चा करने की जरूरत क्यो है? उन्होने बताया की डोम डुमार हेला मखियार आदि जातियों ने मिल कर सन् 1965 के आसपास वाल्मीकि समाज की तर्ज पर एक नया गुरू खोज निकाला और सुदर्शन समाज का गठन किया! इस कारण यह समाज आज आंबेडकरी आंदोलन से दूर है। प्रमुख वक्ता -श्री सुनील चौहान ने बताया की किस प्रकार डाँ आम्बेडकर अपने दलित पिछड़े समाज के उत्थान के लिए समर्पित थे की वे अपनी पत्नि और बच्चो को समय नही दे पाते थे। और उनकी पत्नी रमाबाई को कष्ट में जिंदगी बिताना पडा कुपोषण के कारण उनके बच्चों की असमय मौत हो गई। हमें रमाबाई के त्याग को कम करके नह देखना चाहिए। उनके मदद के कारण ही




डॉ आम्बेडकर समाज के लिए कुछ कर सके। श्री भरत छडिले ने बाबासाहेब के द्वारा बनाये कानून हिन्दू कोड बिल पर प्रकाश डालते हुऐ कहा यह कोड बिल सभी के पक्ष में है सिवाय ब्राम्हण के। जय गोविंद बेरिहा ने सुदर्शन समाज में व्याप्त बुराई पर चर्चा की। राजकुमार समुंद्रे ने बताया कि किस प्रकार दलित मुव्हमेंट के प्रयासों सुदर्शन समाज में अंबेडकरी आंदोलन का प्रसार हो रहा है। नागपुर के श्री हरीश जानोरकर ने अपने वक्त्वय में पूर्व महापौर नागपुर स्व- राम रतन जानोरकर के जिंदगी के संस्मरण को साझा वे कहते है मेरे समाज का महापौर ऐसा है जो पूरी जिंदगी टीन से बने घर में रहता है। जहां एक पार्षद लक्जरी गाड़ियों में घूमते है। वही श्री उमेश पिंपरे ने नागपुर विकास समिति नागपुर के क्रिया कलापों पर चर्चा की और बताया की वे किस प्रकार नागपूर एवं पूरे विदर्भ में सुदर्शन वाल्मीकि समाज के आंबेडकरी आंदोलन का प्रचार प्रसार कर रहे है और लोगो में शिक्षा का प्रसार कर रहे है।


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री विश्वास मेश्राम ने कहा बाबासाहेब की सोच बहुत व्यापक थी उनके बारे में व्यापक दायरे में सोचने कि आवश्यकता है। उन्होने कहा संजीव खुदशाह और उनकी डी एम ए की टीम बधाई की पात्र है कि 47 सेंटीग्रेड तापमान पर काम करके लोगो को इस कार्यक्रम में भाग लेने हेतु प्रेरित किया। उन्होने कहा आज का दिल सार्थक हुआ। कई नई जानकारियों से आज वास्ता हुआ। आज जरूरत है सभी दबी कुचली जातियों एक हो जाये न की अपनी अपनी लडाई अलग अलग लडे। तभी बाबा साहेब का सपना सच हो सकता है। वे पूरी मानव जाति को एक होते देखना चाहते थे।


इस प्रकार धन्यवाद ज्ञापन करते हुए श्री संजीव खुदशाह ने सभी को चाय हेतु आंमंत्रित किया।


भवदीय

(सचिन खुदशाह)
प्रचार प्रभारी
दलित मुव्हमेन्ट ऐसोसियेशन
छत्तीसगढ़ इकाई
मोबाईल 09907714746

संगोष्ठि विषय - सुदर्शन समाज का आंबेडकर आंदोलन में भागीदारी और दलित मित्र रामरतन जानोरकर

आप सादर आमंत्रित है।
वक्ता- सुनील चौहान(मुम्बई), कुलदीप सिंह (दिल्ली) विमल बैस, उमेश पिंपरे, हरीश जानोरकर,(नागपूर) विश्वास मेश्राम, भरत लाल छडिले, राजकुमार समुन्द्रे, जय गोविंद बेरिया।

स्त्री चेतना और गुलाबी गैंग



• संजीव खुदशाह

आज जब शहर की पढी लिखी महिलाएं अपना वक्त किटी पार्टी, बीसी पार्टी, रेव पार्टी और विभिन्न धार्मिक आयोजनों में बिताती है। तो वे इस भ्रम में जीती है की वे अतिआधुनिक और विकसित हो चुकी है। वे खुले विचार की है। लेकिन जब गुलाबी गैंग जैसे संगठनों के क्रिया कलापो से सामना होता है तो पता चलता है की वास्तविक स्त्री चेतना क्या है। ऐसी महिलाओं के लिए ये एक सीख लेकर आती है गुलाबी गैंग (फिल्म नही) जिसका जन्म बुदेलखंड बांदा के बीहडो में हुआ।

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर फेसबुक के एक मित्र ने मुझे एक स्टेटस टैग किया जिससे मै बहुत प्रभावित हुआ। उसका मसला कुछ इस तरह था “अंतराष्ट्रीय महिला दिवस स्पा डिस्काउंट, ब्युटीपार्लर, मात्रत्व, स्त्रीत्व के लिए नही मनाया जाता बल्कि इतिहास में इन सब के विरूद्ध हुए संघर्ष को याद करने के लिए मनाया जाता है।“ कितना अंतर है वास्तविक महिला चेतना और उसके भ्रम में। पुरूष को खुश करने की तैयारी में दिन के 24 में से 22 घंटे खर्च करने वाली महिला क्या वास्तविक महिला चेतना से बा वास्ता है। आज की धार्मिक, व्यावसायिक एवं मीडिया व्यवस्था ने स्त्री चेतना को सुंदर, अतिसुंदर, नरम, कोमल नाम के डिब्बे में बंद कर दिया है। आज की आधुनिक चेतन शील स्त्री वही मानी जाती है जो ज्यादा से ज्यादा समय ब्युटीपार्लर में देती है। महिला संगठन में पुरूष के खिलाफ लंबे भाषण दे सकती है।

विज्ञापन के रूप में किन्हे बढावा दिया जाता है? विज्ञापन में वास्तविक नायिकाये कहां है कल्पना चावला, मलाला, उर्मिला सिरोम, किरन बेदी कहीं नजर नही आती। नजर आती है तो सिर्फ सनी लियोन सहित वे फिल्मी अभिनेत्रियां जिन्होंने स्त्री चेतना को कमजोर ही किया है। दुखद तथ्य है कि सरकारी विज्ञापन भी इसी राह पर चलते है।

हाल ही में रिलीज हुई मूवी गुलाब गैंग इन दिनों काफी चर्चा में है। इस फिल्म के बहाने मै इस गैंग पर चर्चा करने का मजबूर हुआ। गुलाबी गैंग के जन्म की कहानी कुछ इस प्रकार है--

गुलाबी गैंग की संस्थापक सदस्य संपत पाल का जन्म वर्ष 1960 में बांदा के बैसकी गांव के एक पिछड़े परिवार में हुआ। 12 साल की उम्र में एक सब्ज़ी बेचने वाले से शादी हो गई थी। शादी के चार साल बाद गौना होने के बाद संपत अपने ससुराल चित्र कूट ज़िले के रौलीपुर-कल्याणपुर आ गई थी।

उनका सामाजिक सफ़र तब शुरु हुआ जब उन्होंने गांव के एक दलित परिवार को अपने घर से पानी पीने के लिए दिया, जिस कारण उन्हें गांव से निकाल दिया गया, लेकिन संपत कमज़ोर नहीं पड़ी और गांव छोड़ परिवार के साथ बांदा के कैरी गांव में आ बसी।

संपत कहती है, क़रीब दस साल पहले जब उन्होंने अपने पड़ोस में रहने वाली एक महिला के साथ उसके पति को मार-पीट करते हुए देखा तो उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की और तब उस व्यक्ति ने इसे अपना पारिवारिक मामला बता कर उन्हें बीच-बचाव करने से रोक दिया था।

इस घटना के बाद संपत ने पांच महिलाओं को एकजुट कर उस व्यक्ति को खेतों में पीट डाला और यहीं से उनके 'गुलाबी गैंग' की नींव रखी गई। गुलाबी गैंग ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, जहां कहीं भी उन्होंने किसी तरह की ज़्यादती होते देखी तो वहां दल-बल के साथ पहुंच गईं और ग़रीबों, औरतों, पिछड़ों, पीड़ितों, बेरोज़गारों के लिए लड़ाई लड़नी शुरु कर दी.

स्थानीय लोग कहते हैं,''संपत ना तो कभी पुलिस-प्रशासन के सामने झुकीं ना ही उन्होंने कभी इलाक़े के दस्यु सरगनाओं के आगे हथियार डाले.'' वर्ष 2006 में संपत एक बार फिर चर्चा में आईं जब उन्होंने दुराचार के एक मामले में अतर्रा के तत्कालीन थानाध्यक्ष को बंधक बना लिया था। मऊ थाने में अवैध खनन के आरोप में पकड़े गए मज़दूरों को छोड़ने की मांग को लेकर तहसील परिसर में धरने पर बैठी गुलाबी गैंग की महिलाओं पर जब पुलिस ने बल प्रयोग किया तब गुलाबी गैंग की महिलाओं ने एसडीएम और सीओ को दौड़ा-दौड़ा कर ना सिर्फ मारा बल्कि उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया। इन घटनाओं के बाद राज्य के पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने गुलाबी गैंग को नक्सली संगठन करार देते हुए संपत पाल सहित कई महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन तब तक संपत काफ़ी आगे निकल चुकीं थी।

गुलाबी साड़ी पहनने वाली महिलाओं का गुलाबी गैंग, यूपी की सपा सरकार के खिलाफ बुंदेलखंड में एक अनोखा महिला आंदोलन चला रहा है। इस गैंग में 10 हजार से ज्यादा महिलाएं हैं। ये महिलाएं अपने साथ डंडा और रस्सी लेकर चलती हैं।

बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में फैला हुआ बेहद पिछड़ा और अपेक्षित अंचल है। पिछले 5 सालों से यहां भयंकर सूखा पड़ रहा है। बड़ी तादाद में यहां किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। रोजी-रोटी की तलाश में गांवों से सामूहिक पलायन हो रहा है। इस पृष्ठभूमि में गुलाबी गैंग का जन्म हुआ। गैंग की कमांडर संपत देवी कहती हैं कि बुंदेलखंड के सात जन पदों झांसी, बांदा, चित्रकूट, महोबा, ललितपुर, हमीरपुर और जालौन के गाँवों में किसानों और खेत मज़दूरों की हालत बहुत बुरी है। उस पर दुर्भाग्य यह है कि केंद्र सरकार की सामाजिक सुरक्षा के तहत चलाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं का लाभ यूपी की राज्य सरकार आम आदमियों तक नहीं पहुंचने दे रही।

आज जहां गांधी गिरी अन्नागिरी फेल हो रही है, वहीं गुलाबी गैंग की महिलाओं के काम करने का तरीका बड़ा ही मौलिक और अनोखा है। मगर वास्तविक जीवन में कठिन संघर्ष करने वाले इस गुलाबी गैंग का नाम अभी बुंदेलखंड के बाहर कम ही जाना जाता है। 

महिला उत्पीड़न, दहेज़ प्रथा, बाल विवाह, जैसे कई मोर्चों के साथ भ्रष्टाचार से लड़ रहे गुलाबी गैंग को कई बार पुलिस के दमन का भी मुकाबला करना पड़ा है। गुलाबी गैंग जब किसी बड़े अधिकारी के खिलाफ आंदोलन चलाता है तो पुलिस हर गुलाबी साड़ी वाली महिला की गिरफ्तारी में जुट जाती है। ऐसे में इलाके की महिलाएं गुलाबी साड़ी पहनने से बचने लगती हैं। वहीं दूसरा पहलू यह है कि जब किसी महिला का किसी सरकारी दफ्तर में कोई काम अटका होता है तो वह गुलाबी साड़ी पहनकर दफ्तर चली जाती है और उसका काम हो जाता है।

गुलाबी गैंग का धरना-प्रदर्शन का अपना तरीका है। गैंग की मेंबर काम न करने वाले अधिकारी के दफ्तर में घुस जाती है और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेती हैं। पहले एक-दो घंटे चुपचाप बैठी रहती हैं। अगर तब भी वह काम नहीं करता है, तो फिर उसके टेबल पर तब तक मुक्के बरसाए जाते हैं, जब तक कि वह हाथ जोड़कर माफी नहीं मांगने लगता। दफ्तर के बाहर उनका स्टाइल यह होता है कि अधिकारी को गाड़ी से उतार कर पैदल चलवाया जाता है।

वर्ष 2011 में अंतरराष्ट्रीय 'द गार्जियन' पत्रिका ने गुलाबी गैंग की कमांडर संपत पाल को दुनिया की सौ प्रभावशाली प्रेरक महिलाओं की सूची में शामिल किया, कई संस्थाओं ने गैंग पर डॉक्यूमेंटरी फिल्में तक बना डाली. गुलाब गैंग की नेत्रियों ने फ्रांस की ओह पत्रिका में जगह बनाई, और अंतरराष्ट्रीय महिला संगठनों द्वारा आयोजित महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम में भाग लेने पेरिस और इटली भी जा चुकी है।

मीडिया की सुर्खियों मे आने के बाद गुलाबी गैंग किसी षड.यंत्र का शिकार हो गई। उसकी जङे कमजोर हुई है। लेकिन बुंदेलखण्ड में इनकी सक्रियता आज भी देखी जा सकती है। आज शहरी शिक्षित महिलाओं को इन अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं से सीखने की जरूरत है। गुलाबी गैंग भले ही उन रीति रिवाज़ों, धार्मिक क्रिया कलापों को तोड़ने का कभी प्रयास नही करती जो स्त्री के सम्मान के विरूद्ध है। लेकिन उनकी एक जुटता और साहस क़ाबिले तारीफ है।

ये चुनौती आज महिला संगठनों के सामने सीना ताने खड़ी है कि क्या कभी स्त्री उन धार्मिक रीति रिवाजों के विरूद्ध खड़ी हो सकेगी जो उसे हलाला, इद्दत की मुद्दत के लिए बाध्य करती तो कभी ढोर गवार का दर्जा देती ? क्या कभी उन बंधनों को तोङ सकेगी जो उसे एक दान की वस्तु समझते है ? क्या कभी ऐसे ग्रंन्थों की होली जलायेगी जो उसे नरक का द्वार कहती, सती प्रथा, कन्या वध प्रथा, भ्रूण हत्या करने को उकसाती ? क्या ऐसे नायकों की पूजा करने से मना करेगी जो गर्भवती स्त्री को घर से निकालना आदर्श समझता हो ? अक्सर ऐसा देखा जाता है। स्त्री उन्ही कुरितियों की जङे सींचती आई है जो उसे बेङियों में जकङती है। दरअसल स्त्रियों की पहली लङाई अपने आप से है।

मेरा मानना है स्त्री चेतना सही मायने में तब शिखर पर पहुँचेगी जब वह इन चुनौतियों के विरूद्ध खड़ी होकर संघर्ष करेगी। क्योंकि यही स्त्री शोषण की जन्म स्थली है।

A landmark judgment in fight to eradicate manual scavenging

PRESS RELEASE

Date: 27th March 2014

A landmark judgment in fight to eradicate manual scavenging

New Delhi.

Safai Karmachari Andolan welcomes historic judgment of Supreme Court on eradication of inhuman practice of manual scavenging. In its judgment today Supreme Court has deprecated the continuance of manual scavenging in the country in blatant violation of Article 17 of the Constitution of India by which, "untouchability is abolished and its practice in any form is forbidden". The court was emphatic about the duty cast on all sates and union territories "to fully implement (the Law) and to take action against the violators. In a significant endorsement of concerns raised by Safai Karmachari Andolan, the Supreme Court directed the government to, "Identify the families of all persons who have died in sewerage work (manholes, septic tanks) since 1993 and award compensation of Rs.10 lakhs for each such death to the family members depending on them". The judgment has been given by Supreme Court Bench headed by Chief Justice P Sathasivam.

The court has been categorical that, "If the practice of manual scavenging has to be brought to a close and also to prevent future generations from the inhuman practice of manual scavenging, rehabilitation of manual scavengers will need to include:-

(a) Sewer deaths – entering sewer lines without safety gears should be made a crime even in emergency situations. For each such death, compensation of Rs. 10 lakhs should be given to the family of the deceased.

(b) Railways– should take time bound strategy to end manual scavenging on the tracks.

(c) Persons released from manual scavenging should not have to cross hurdles to receive what is their legitimate due under the law.

(d) Provide support for dignified livelihood to safai karamchari women in accordance with their choice of livelihood schemes.

Court also said that rehabilitation must be based on the principles of justice and transformation. The court also directed the Indian Railways, which is the largest employer of manual scavengers in the country, to take time bound strategy to end manual scavenging on the tracks.

National convenor of Safai Karamchari Andolan Bezwada Wilson said that,this is a victory of manual scavengers who have been fighting across the country for their liberation against the denial of central and various state governments repeatedly. The court acknowledged the significance of the data provided by the petitioner Safai Karmachari Andolan in its 12 years legal battle demonstrating, "that the practice of manual scavenging continues unabated. Dry latrines continue to exist notwithstanding the fact that the 1993 Act was in force for nearly two decades. States have acted in denial of the 1993 Act and the constitutional mandate to abolish untouchability."

Safai Karmachari Andolan, who has been spearheading the movement to end this obnoxious practice of manual scavenging across the country from last thirty years, said that the judgment has been huge armor in our fight and we are not going to rest until this judgment is fully implemented in letter and spirit across the country. The mission of Safai Karmachari Andolan is not to sleep until the last manual scavenger is liberated and rehabilitated with a dignified profession.


-- 
Bezwada Wilson 
National Convenor
Safai Karmchari Andolan,
36 / 13 Ground Floor, East Patel Nagar
New Delhi - 110 008
Mob - 09311234793 , Ph-01125863166
www.safaikarmchariandolan.org
e-mail skandolan@gmail.com

भाड़ में जाये ऐसे दलित नेता !





देश मे दलित बहुजन मिशन के दो मजबूत स्तम्भ अचानक ढह गये, एक का मलबा भाजपा मुख्यालय में गिरा तो दूसरे का एनडीए में, मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, मिट्टी जैसे मिट्टी में जा कर मिल जाती है, ठीक वैसे ही सत्ता पिपासु कुर्सी लिप्सुओं से जा मिले। वैसे भी इन दिनों भाजपा में दलित नेता थोक के भाव जा रहे है, राम नाम की लूट मची हुई है, उदित राज (रामराज), रामदास अठावले, रामविलास पासवान जैसे तथाकथित बड़े दलित नेता और फिर मुझ जैसे सैकड़ों छुटभैय्ये, सब लाइन लगाये खड़े है कि कब मौका मिले तो सत्ता की बहती गंगा में डूबकी लगा कर पवित्र हो लें।

एक तरफ पूंजीवादी ताकतों से धर्मान्ध ताकतें गठजोड़ कर रही है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की शक्तियां साम्प्रदायिक ताकतों से मेलमिलाप में लगी हुई है, नीली क्रान्ति के पक्षधरों ने आजकल भगवा धारण कर लिया है, रात दिन मनुवाद को कोसने वाले 'जयभीम' के उदघोषक अब 'जय सियाराम' का जयघोष करेंगे। इसे सत्ता की भूख कहे या समझौता अथवा राजनीतिक समझदारी या शरणागत हो जाना ?


आरपीआई के अठावले से तो यही उम्मीद थी, वैसे भी बाबा साहब के वंशजो ने बाबा की जितनी दुर्गत की, उतनी तो शायद उनके विरोधियों ने भी नहीं की होगी, सत्ता के लिये जीभ बाहर निकालकर लार टपकाने वाले दलित नेताओं ने महाराष्ट्र के मजबूत दलित आन्दोलन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और हर चुनाव में उसे बेच खाते है। अठावले जैसे बिकाऊ नेता कभी एनसीपी, कभी शिव सेना तो कभी बीजेपी के साथ चले जाते है, इन जैसे नेताओं के कमीनेपन की तो बात ही छोडि़ये, जब क्रान्तिकारी कवि नामदेव ढसाल जैसे दलित पैंथर ही भीम शक्ति को शिवशक्ति में विलीन करने जा खपे तो अठावले फठावले को तो जाना ही है।


रही बात खुद को आधुनिक अम्बेडकर समझ बैठै उतर भारत के बिकाऊ दलित लीडरों की, तो वे भी कोई बहुत ज्यादा भरोसेमंद कभी नहीं रहे, लोककथाओं के महानायक का सा दर्जा प्राप्त कर चुके प्रचण्ड अम्बेडकरवादी बुद्ध प्रिय मौर्य पहले ही सत्ता के लालच में गिर कर गेरूआ धारण करके अपनी ऐसी तेसी करा चुके है, फिर उनकी हालत ऐसी हुई कि धोबी के प्राणी से भी गये बीते हो गये, अब पासवान फिर से पींगे बढाने चले है एनडीए से। इन्हें रह रह कर आत्मज्ञान हो जाता है, सत्ता की मछली है बिन सत्ता रहा नहीं जाता, तड़फ रहे थे, अब इलहाम हो गया कि नरेन्द्र मोदी सत्तासीन हो जायेंगे, सो भड़वागिरी करने चले गये वहाँ, आखिर अपने नीलनैत्र पुत्ररतन चिराग पासवान का भविष्य जो बनाना है, पासवान जी, जिन बच्चों का बाप आप जैसा जुगाड़ू नेता नहीं, उनके भविष्य का क्या होगा ? अरे दलित समाज ने तो आप को माई बाप मान रखा था, फिर सिर्फ अपने ही बच्चे की इतनी चिन्ता क्यों ? बाकी दलित बच्चों की क्यों नहीं ? फिर जिस वजह से वर्ष 2002 में आप एनडीए का डूबता जहाज छोड़ भागे, उसकी वजह बने मोदी क्या अब पवित्र हो गये ? क्या हुआ गुजरात की कत्लो गारत का, जिसके बारे में आप जगह-जगह बात करते रहते थे। दंगो के दाग धुल गये या ये दाग भी अब अच्छे लगने लगे ? लानत है आपकी सत्ता की लालसा को, इतिहास में दलित आन्दोलन के गद्दारों का जब भी जिक्र चले तो आप वहाँ रामविलास के नाते नहीं भोग विलास के नाते शोभायमान रहे, हमारी तो यही शुभेच्छा आपको।


एक थे रामराज, तेजतर्रार दलित अधिकारी, आईआरएस की सम्मानित नौकरी, बामसेफ की तर्ज पर एससी एसटी अधिकारी कर्मचारी वर्ग का कन्फैडरेशन बनाया, उसके चेयरमेन बने, आरक्षण को बचाने की लड़ाई के योद्धा बने, देश के दलित बहुजन समाज ने इतना नवाजा कि नौकरी छोटी दिखाई पड़ने लगी, त्यागपत्रित हुये, इण्डियन जस्टिस पार्टी बनाई, रात दिन पानी पी पी कर मायावती को कोसने का काम करने लगे, हिन्दुओं के कथित अन्याय अत्याचार भेदभाव से तंग आकर बुद्धिस्ट हुये, रामराज नाम हिन्दू टाइप का लगा तो सिर मुण्डवा कर उदितराज हो गये। सदा आक्रोशी, चिर उदास जैसी छवि वाले उदितराज भी स्वयं को इस जमाने का अम्बेडकर मानने की गलतफहमी के शिकार हो गये, ये भी थे तो जुगाड़ ही, पर बड़े त्यागी बने फिरते , इन्हें लगता था कि एक न एक दिन सामाजिक क्रांति कर देंगे, राजनीतिक क्रान्ति ले आयेंगे, देश दुनिया को बदल देंगे, मगर कर नहीं पाये, उम्र निरन्तर ढलने लगी, लगने लगा कि और तो कुछ बदलेगा नहीं खुद ही बदल लो, सो पार्टी बदल ली और आज वे भी भाजपा के हो लिये।


माननीय डाॅ. उदित राज के चेले-चपाटे सोशल मीडिया पर उनके भाजपा की शरण में जाने के कदम को एक महान अवसर, राजनीतिक बुद्धिमता और उचित वक्त पर उठाया गया उचित कदम साबित करने की कोशिशो में लगे हुये है। कोई कह रहा है - वो वाजपेयी ही थे जिन्होेंने संविधान में दलितों के हित में 81, 82, 83 वां संशोधन किया था, तो कोई दावा कर रहा है कि अब राज साहब भाजपा के राज में प्रौन्नति में आरक्षण, निजी क्षैत्र में आरक्षण जैसे कई वरदान दलितों को दिलाने में सक्षम हो जायेंगे, कोई तो उनके इस कदम की आलोचना करने वालों से यह भी कह रहा है कि उदितराज की पहली पंसद तो बसपा थी, वे एक साल से अपनी पंसद का इजहार कुमारी मायावती तक पंहुचाने में लगे थे लेकिन उसने सुनी नहीं, बसपा ने महान अवसर खो दिया वर्ना ऐसा महान दलित नेता भाजपा जैसी पार्टी में भला क्यों जाता ? एक ने तो यहाँ तक कहा कि आज भी मायावती से सतीश मिश्रा वाली जगह दिलवा दो, नियुक्ति पत्र ला दो, कहीं नहीं जायेंगे उदित राज ! अरे भाई, सत्ता की इतनी ही भूख है तो कहीं भी जाये, हमारी बला से भाड़ में जाये उदित राज! क्या फरक पड़ेगा अम्बेडकरी मिशन को ? बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार तथा अम्बेडकर का मिशन तो एक विचार है, एक दर्शन है, एक कारवां हैं, अविरल धारा है, लोग आयेंगे, जायेंगे, नेता लूटेंगे, टूंटेंगे, बिकेंगे, पद और प्रतिष्ठा के लिये अपने अपने जुगाड़ बिठायेंगे, परेशानी सिर्फ इतनी सी है कि रामराज से उदितराज बने इस भगौड़े दलित लीडर को क्या नाम दे , उदित राज या राम राज्य की ओर बढ़ता रामराज अथवा भाजपाई उदित राम ! एक प्रश्न यह भी है कि बहन मायावती के धुरविरोधी रहे उदित राज और रामविलास पासवान सरीखे नेता भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन कर रहे हैं अगर चुनाव बाद गठबंधन में बहनजी भी इधर आ गई तो एक ही घाट पर पानी पियोगे प्यारों या फिर भाग छूटोगे ?


इतिहास गवाह है कि बाबा साहब की विचारधारा से विश्वासघात करने वाले मिशनद्रोही तथा कौम के गद्दारों को कभी भी दलित बहुजन मूल निवासी समुदाय ने माफ नहीं किया। दया पंवार हो या नामदेव ढसाल, संघप्रिय गौतम, बुद्धप्रिय मौर्य अथवा अब रामदास अठावले, रामविलास पासवान तथा उदित राज जैसे नेता, इस चमचायुग में ये चाहे कुर्सी के खातिर संघम् (आरएसएस) शरणम् हो जाये, हिन्दुत्व की विषमकारी और आक्रान्त राजनीति के तलुवे चाटे मगर दलित बहुजन समाज बिना निराश हुये अपने आदर्श बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में आगे बढ़ेगा, उसे अपने समाज के बिकाऊ नेताओं के 'भगवा' धारण करने का कोई अफसोस नहीं होगा, अफसोस तो इन्हीं को करना है, रोना तो इन्ही नेताओं को है। हाँ, यह दलित समाज के साथ धोखा जरूर है, मगर काला दिन नहीं, दोस्तों वैसे भी मोदी की गोदी में जा बैठे गद्दार और भड़वे नेताओं के बूते कभी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन सफलता नहीं प्राप्त करता, ये लोग अन्दर ही अन्दर हमारे मिशन को खत्म कर रहे थे, अच्छा हुआ कि अब ये खुलकर हमारे वर्ग शत्रुओं के साथ जा मिलें। हमें सिर्फ ऐसे छद्म मनुवादियों से बचना है ताकि बाबा साहब का कारवां निरन्तर आगे बढ़ सके और बढ़ता ही रहे ..... !

-भँवर मेघवंशी 
(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नो पर राजस्थान में सक्रिय है तथा स्वतंत्र पत्रकार है)

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EXECUTION OF SHUMBH, NISHUMBH & MAHISHASUR
Demons ( Asurs) by Hindu mythology:
1.) Mahishasur: the king of Purliya Distt.of West Bengal & Mysore (Karnatka) ( todays Yadav caste),
2.) Prachanda: the king of upper Himalya (Nepal) ( today Maoist),
3.) Chamar: The king of Asur (Shiva) North India ( Today Dalit),
4.) Mahahanu:शिव। (. तक्षक जाति का एक प्रकार का साँप), Shiva's people/follower,
5.) Dahan: The demon of Sambalpur distt. Haryana( Today's Jat ),
6.) Vikataksha: Chief of the Asuras, in the reign of king Bali.Non-Aryans, (Today non-Brahamins)
7.) Mahamauli: Barbarian ( outsider of the Aryavarta),Non-Aryans Today Non-Brahamins
8.) Shumbh and Nishumbh: The kings of Vindyachal mountain in Madhya Predesh ( todays Dalit & backwords in Vindhyachal distt) 
The demons named Shumbh and Nishumbh had received boons from Brahma according to which no deity, demon or Man could kill him. Shumbh and Nishumbh became excessively arrogant and started tormenting the deities. All the deities including Lord Vishnu went to Lord Shiva and requested for his help. Lord Shiva assured them that both the demons would be killed at the opportune time. The deities were satisfied and returned back to their respective abodes. Parvati was of dark complexion. She thought that Shiva would be more affectionate towards her if she somehow discarded her dark skin. She eventually discarded her dark skin at a place and it instantly got transformed into 'Kali Kaushiki'. She then did an austere penance at Vindhyachal mountain. At that time, Shumbh and Nishumbh lived there. When both the demons saw goddess Kali Kaushiki her divine beauty infatuated them. But Goddess Kali Kaushiki ultimately killed both of them.
Mahishasur--the demon sent a female messenger to convince Parvati into marrying him. The female messenger disguised herself as a female hermit and tried to impress all the three goddess who were keeping surveillance by praising the glory of Mahishasur--
Goddess Chamunda (Durga) severed the heads of 'Chand' and 'Mund' with her chakra. Mahishasur was enraged and he attacked goddess Durga. Some other demons like Prachanda, Chamar, Mahamauli, Mahahanu, Ugravaktra, Vikataksha and Dahan also came forward to help him but each one of them was killed by goddess Durga. Now, Mahishasur's anger crossed all limits and he menacingly ran towards goddess Durga. A severe battle was fought between both of them. When Mahishasur realized that the goddess was dominating the battle, he started changing his guises frequently. He tried to dodge goddess Durga by transforming his appearance into that of a boar. But, goddess Durga kept on chasing him. Then, Mahishasur became a lion. This way he kept on changing his appearances frequently to avoid getting killed by goddess Durga. Once he transformed himself into a buffalo but goddess Durga attacked him.
This way, Mahishasur was forced to change his appearance frequently on account of relentless attack by goddess Durga. Ultimately Durga killed him. Goddess Durga picked up his severed head and danced in joy. The deities were relieved at the death of Mahishasur.
Ref.:- http://www.bharatadesam.com/spiritual/skanda_purana.php