In the age of silence, who is the supporter of fascism and how?

चुप्पीयुग में, फासीवाद के समर्थक कौन और कैसे?

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(जन संस्कृति मंच के 16वें राष्ट्रीय सम्मेलन में पढ़ा गया भाषण)
डॉ. भीमराव आम्बेडकर भारत में गैरबराबरी के दो कारण मानते थे
एक मनुवाद तो दूसरा पूंजीवाद। यही दोनों जब सत्ता पक्ष में काबिज़ होकर मनमानी पर उतर आए तो उसे फासीवाद कहना ही उचित हैं। मनुवाद जिसमें वर्णव्यवस्था के आधार पर समाज को जातियों के आधार पर चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) में बांटा गया। जो मेहनती पेशे जैसे- किसानी और मजदूरी के काम धंधे से जुड़े मूलनिवासी कहे जाते थे उनको सबसे निचले तबके में रखकर उनका जातिगत उत्पीड़न सदियों-सदियों किया जाता रहा। दूसरा फासीवाद (फ़ासिज़्म) जिसकी पृष्ठभूमि इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन रही जो मार्च 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़" से ग्रहण किए गए। जो पूरी दुनिया में पूंजी के बल पर अधिनायकवाद से पूरे तंत्र को अपनी जकड़न में समेटकर अपना सपना बुनता है। व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मीडिया और धर्म गुरुओं को ऊंचे दामों पर खरीदकर सत्ता के विजयगान और जातियों का गौरवगान उन्माद के स्तर पर गाया जाता है। इसके इतर सब देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं और इसी आधार पर चलता है सत्ता का दमनचक्र।

इसके जरिए एक तो सरकारी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना है, दूसरा धर्म-जातिभेद आधारित नीति को जिसके परिणाम स्वरूप निचले तबके का दोहरा शोषण कर लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में कर लेता है। इसको हमने 2014 से कलबुर्गी, पंसारे और गौरी लंकेश की निर्मम  हत्याओं के रूप में देखना शुरू कर दिया था जब अवॉर्ड वापसी का दौर चल रहा था ठीक उसी समय कुछ लोग इस अवसर की 'आपदा में अवसर' की तर्ज़ पर सम्मान प्राप्त करने में लगे हुए थे। उनकी पहचान न कर हम उन्हें बधाईयां देने उतर गए थे। 

ये कांवड़ को ढोने वाली उन्मादी भीड़ कभी नहीं समझ पायेंगी अपनी मानसिक गुलामी का कारण, ये भागीदारी के दावेदार बस अपने लिए आर्थिक सुरक्षा की दीवार चाहते हैं जो किसी भी कीमत पर क्यों न मिले। देश, समाज और लोकतंत्र के लिए वोट इनके लिए समझौतों का एक पड़ाव भर है, संविधान में दिए गए समता, बंधुता और न्याय से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। ये वही लोग हैं जो हर युग में अवसर तलाशते रहे हैं। बलात्कार और हत्या इनके लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। इन्हें न्याय और स्वाभिमान से कुछ लेना-देना नहीं। पूंजी इनके सब तालों की चाबी बन गई है। ऐसे ही नहीं कोई गुलामी की देहरी पर बैठता। इसके पीछे यही मानसिकता काम करती है। इन्हें अपनी कीमत के आगे झुकना आता है और अवसर के आगे लपलपाना भी। इन्हें गुलामी के लिए लंबा जीवन चाहिए, स्वाभिमान इनके चरित्र पर फबता नहीं। यही हैं फासीवाद को पोसने वाले लोग, यही तो हथियार हैं सत्ता के हाथों में। इन्हें बस अपनी चुप्पी की कीमत चाहिए। ये सदियों तक मौन साधने के आदि हैं। यही फासीवाद की असल ताक़त है। इनके आंदोलन पूंजी की पोटली के नीचे दबकर दम तोड़ते आए हैं। इन्होंने ही फासीवाद के खिलाफ़ जूझने वालों को नागनाथ और सांपनाथ की संज्ञा देकर, जाति के बल पर जनांदोलन को कुचला है। इन्हें बेरोजगारी, महंगाई और अन्याय में रतिभर भी रुचि नहीं लेकिन बातें इन्हीं की करते दिखाई पड़ेंगे ताकि बहुजनों को झांसे में लिया जा सके। यह इनकी, बकरी दिखाकर सिंह पछाड़ने की पुरानी तरकीब है। हमने हाथी को गणेश में तब्दील होते हुए भी देखा है, यही नव ब्राह्मणवाद को जन्म देने वाली मानसिकता है। हमें इस असल दुश्मन की ओर अपनी तर्जनी को कसकर उठाने की ज़रूरत है। ये समय खुलकर बोलने का है लिहाज़ इन पर पर्दा डालने का काम करता है।

फासीवाद जिसमें एक रंग, एक धर्म और एक व्यक्ति के सिद्धांत का डंका पीटा जाता है विविधता का यहां कोई स्थान नहीं, लोकमत व हितों की कोई गुंजाइश नहीं, अभिव्यक्ति जहां देशद्रोह कहकर लताड़ी जाती है, भ्रष्टाचार जहां का मूलव्यवहार है, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जहां सिर्फ राजनीति के हंटर से हांके जाते हों, सच को जहां साम, दाम, दण्ड, भेद से नियंत्रित किया जाता हों, जहां धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर, मनुष्यता को दाव पर लगाकर, झूठ का प्रत्यारोपण किया जाता हो, रोजगार जहां सत्ता स्तुति का गान बन जाता हो, लालच और अवसर जहां चाटुकारिता को बढ़ावा देती हो, योग्यता जहां अपराध बना दी जाती हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज फासीवाद को दलितों के कंधों पर ढोया जा रहा है और दलित नेता इसको आपदा में अवसर की तरह लेकर चुप्पी साधे सबकुछ होते देख रहें हैं। पूंजी उनका ध्येय बन चुका है जिसके आधार पर वे बराबरी की कल्पना कर रहे हैं। जो आर्थिक आज़ादी के उलट महत्वकांक्षाओं की रस्सी पर चल रही है। यह आगे निकलने की होड़, समझौतों के बाज़ार में सरेआम बिकाऊ बनकर अपनी कीमत लगा रहे हैं। जब हाथरस की घटना हुई वे चुप रहे, लखिमपुर खीरी की घटनाओं पर वे चुप रहे, अल्पसंख्यकों पर ढाए गए अत्याचारों पर वे चुप रहे, वे चुप रहे संविधान की अवहेलना होने पर भी। इसके बदले में फासीवादी सत्ता की राह में फूल बरसाते रहे। उन्होंने मनुवाद के परशु को भी अपने हाथ में उठाया, उन्होंने सत्ता की चाभी के हासिल में आंबेडकरी सिद्धांतों को पीकदान दिखाए और जो जागे हुए हैं उनके पथ जेलों तक प्रशस्त करने में चुप्पी से समर्थन किया, उसके समर्थन को कमज़ोर व मनोबल को जातिगत समीकरण से प्रभावित किया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के समय में भी ऐसे अवसरवादी उन्हें यह कहकर छोड़कर भाग खड़े हुए थे कि ब्राह्मणों का साथ हमें नागवारा है। लेकिन बाबा साहब ने ऐसे लोगों की परवाह नहीं की और वे अपने अभियान में शामिल हुए सभी साथियों का स्वागत किया और अपने आंदोलनों को आगे बढ़ाते रहे। यही नहीं उन्होंने अंतर्जातीय विवाह कर यह साबित भी किया था। 

अभी हाल ही में साल भर किसान आंदोलन के चलते लगभग 800 किसानों की शहादत हुई, सरकार उन्हें खालिस्तानी, आतंकी और आंदोलनजीवी कहती रही, कोरोना के दौरान गंगा में लाशें तैरती रही सरकार निष्क्रिय रही। आंकड़े प्रस्तुत करने में हलक सूक गए थे। जामिया, जेएनयू, एएमयू के छात्रों को बेरहमी से पीटा गया, ये हमारे से छुपी हुई घटनाएं नहीं है। शहीनबाग के आंदोलन को भाड़े पर चलाया गया साबित करने की कोशिश भी हम देख चुके हैं। दलितों की निष्क्रियता बता रही है कि आरएसएस और भाजपा दलित नेताओं और  बुद्धिजीवियों को  साधने में कामयाब हो गई है। क्योंकि अब लोग हाथरस की घटना को भी भुलाकर पद प्रतिष्ठा के मद में चूर होकर झूम रहे हैं। जिस सरकार ने दलित समाज की बेटी मनीषा की लाश तक परिवार को अंतिम संस्कार के लिए नहीं दी गई आज उन्हीं के गुणगान में सोशल मीडिया में यही समाज उनके साथ मिलकर आज़ादी का अमृत महोउत्सव मना रहे हैं।

समझना होगा कि दलित और मुसलमान इस देश में क्यों इन पिछले आठ सालों में अनापेक्षित करार देकर इसलिए सड़कों पर मारे दिए जा रहे हैं या जेलों में भर दिए जा रहे हैं क्योंकि वे यह दावा कर रहे हैं कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें भी अभिव्यक्ति का अधिकार है वरना गौतम नौलखा, सिद्धीकी कप्पन, हन्नी बाबू, साजिद गुल, शरजील ईमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, मरीन हैदर, सैबाबा, उमर खालिद और आनंद तेलतुमड़े जैसे अनेक मुखर नागरिकों को जेल नहीं भेजा गया होता। दलित-मुस्लिम एकता और जनांदोलन से जुड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा। उनके खिलाफ न्याय धार्मिक उन्मादी भीड़ और पुलिस के हाथों का हथकंडा बन गया। दूसरी तरफ नुपुर शर्मा अभी भी क्यों कानून की गिरफ्त में नहीं आ पाई? मुस्लिमों के खिलाफ दलितों को लगातार हिंदू होने पर गर्व करवाया जा रहा है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि दलितों के प्रतिनिधि भी आंबेडकर की लीक से हट गए हैं। और अपनी महत्वकाक्षाओं के आगे नतमस्तक होकर संविधान की उद्देशिका की धज्जियां उड़ते हुए देख रहे हैं। संविधान के साथ खिलवाड़ देश का हर एक नागरिक देख रहा है और सवाल पूछ रहा है कि क्या एक गांधी - आंबेडकर का भारत है? क्यों आज आज़ादी के 75 सालों बाद भी जाति-धर्म का उन्माद बलबलाता दिखाई पड़ रहा हैं यह लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगा है।



- हीरालाल राजस्थानी
  संरक्षक, दलित लेखक संघ (दिल्ली)
  07 अक्टूबर 2022

Indigenous Agriculture History of Diwali

 

दीवाली का कृषि‍ मूलनिवासी इतिहास

संजीव खुदशाह

अब तक दुनिया में जितने भी त्यौहार हुये है उनका जन्म उनके स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहा है। चाहे आप यूरोप के क्रिसमस की बात करे या अरब के ईद की या फिर भारत के किसी भी पारंपरिक त्यौहार की बात करे सभी स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहे है। भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में दीवाली का प्रमुख स्थान रहा ।

दीवाली के किड़े

1978 के दौरान जब मेरी उम्र 5 साल की थी तब दीवाली के दिन अपने पिता से प्रश्न कर बैठा "यह दीपावली त्यौहार क्यों मनाते हैं?" मुझे याद है पिता ने सहज रूप से इसका जवाब दिया "बेटा दीवाली के आसपास धान की फसल या तो पकने की होती है या पक जाती है। इस समय यह दीवाली के कीड़े[1] जिससे माहूर भी कहते हैं। धान की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दीप जलाने का फैसला किया। ताकि ज्यादा से ज्यादा कीड़े मारे जाएं और धान की फसल को कीड़े से बचाया जा सके। इसीलिए दीवाली मनाई जाती है।" ये जानकारी उन्हें कहां से मिली ये मालूम नहीं लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से ये बात कही। दरअसल ज्यादातर त्यौहार पूर्णिमा में मनाए जाते हैं लेकिन दीवाली ही एक ऐसा त्यौहार है जो कि अमावस में मनाया जाता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि ज्यादा से ज्यादा कीट दिए तक आकर्षित किए जा सके। यह तभी होगा जब रात अंधेरी होगी।

मुझे याद है जब उस समय हमारे घरों में दीवाली मनाई जाती थी। तब लाई बताशो के सामने दीप जलाकर तथा धान की झालर[2] से घर सजा कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम वनवास से लौटने की कथा से अनभिज्ञ थे। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान के खेतों से घिरा हुआ था। आसपास धान की खेती के कारण दीवाली के समय धान के कीड़े जीना मुहाल कर देते थे। दिन भर तो ठीक रहता। लेकिन जैसे ही शाम ढलती, यह कीड़े उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। यह पके हुए खानों में गिरते । काफी परेशानी होती इन कीड़ों से। हम इसे दीवाली के कीड़े कहा करते थे। ये बताना यहां पर महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ में दीवाली त्योहार को देवारी नाम से संबोधित किया जाता है।

मेरा बाल मन यही समझता था कि यह कीड़े भी दीवाली मनाने आते हैं या लोगों को याद दिलाने आते हैं कि अब दीवाली मनाने का वक्त आ गया है। धान की खेती से इसका कोई संबंध है यह बात बाद में समझ में आई। छत्तीसगढ़ के गांव में दीवाली का उत्सव मनाया जाता है । इसमें आज भी लाई बताशे एवं स्थानीय पकवान की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती। धर आंगन को गोबर, छूई[3] एवं गेरु[4] से लीपा पोता जाता है। वे आज भी लक्ष्मी पूजा या राम वनवास की कथा से परिचित नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि दीवाली समेत ज्यादातर त्यौहार कृषि एवं उसकी परंपरा पर आधारित है। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने मनगढ़ंत कहानियां रच कर इन त्योहारों को धर्म से जोड़ दिया।

 हमारे देश में दशहरा त्यौहार खरीफ फसल की बुवाई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा कार्यक्रम में राम रावण का नामो-निशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत के दशहरे में लोग राम रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं वह भी राम रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं। यानी दशहरे का  त्यौहार कृषि आधारित है ना कि धर्म पर आधारित, यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे। इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू बौद्ध जैन धर्म के लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रवि फसल की बुवाई के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है। इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है।

यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था। उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मुहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है। भारत में रवि फसल की खुशी में होली मनाई जाती है। लेकिन धार्मिक लोगों ने इन प्राकृतिक त्यौहारों को अपना बताने लगे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। इन्हीं त्यौहारों के बहाने तत्कालीन विरोधियों को भी निशाना बनाया गया। जैसे रावण, होलिका, बली राजा आदि आदि।

जानिये अन्य राज्यों में दिवाली का त्यौहार कैसे मनाया जाता है?

गुजरात- गुजरात में नमक व्यवसाय अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है इसलिए वहां के कृषक नमक को साक्षात धन का प्रतीक मानकर दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है।

राजस्थान- में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात धन का आगमन माना जाता है।

उत्तरांचल- के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं

हिमाचल- प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।

मध्य प्रदेश- मध्‍यप्रदेश के बघेलखण्‍ड क्षेत्र में इस दिन खास तौर पर लाई बताशे के साथ ग्‍वालन की पूजा की जाती थी। इसी प्रकार मालवा क्षेत्र के मुस्लिम दीवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते है । इस अंचल में मुस्लिम समाज द्वारा दीपावली पर्व मनाए जाने की परम्परा आज भी कायम है।

उड़ीसा - उड़ीसा निवासी सुधांशु हरपाल कहते हैं कि उड़ीसा के ग्रामीण अंचल में दिवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता ना ही इस प्रकार के किसी त्योहार मनाने की परंपरा है। लेकिन यहां पर एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके आसपास मनाया जाता है। जिसका नाम नुआखाई है । इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने के हिसाब से अलग-अलग होता है।

आइए अब जाने की कोशिश करते हैं कि इस भारत के इंडिजिनियस आदि त्यौहार को या मूल निवासी त्यौहार को मनाने के लिए विभिन्न धर्म क्या दावे करते हैं?

हिंदू धर्म- इस धर्म में यह दावा किया जाता है कि राम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात इसी दिन अयोध्या लौटे थे । इसीलिए अयोध्या वासी दीपों से उनका स्वागत किया। गौर तलब है की वाल्मीकि रामायण एवं तुलसी रचित रामचरित मानस में ऐसे किसी त्यौहार का जिक्र नहीं मिलता है। उसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि समुद्र मंथन पश्चात इस दिन लक्ष्मी और कुबेर प्रकट हुए थे । इसीलिए यह त्यौहार मनाया जाता है। इसी प्रकार कृष्ण से जुड़ी भी कई कथाएं इस त्यौहार की पीछे जोड़ी जाती है। वेदों और पुराणों में इस तरह के त्यौहार का कोई जिक्र नहीं है।

बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म के अनुयाई द्वारा भी दावा किया जाता है कि यह त्यौहार बौद्धों का है। भगवान बुध ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद इसी दिन अपने निवास कपिल वस्तु गए थे। इसलिए लोगों ने उनका दीपों से स्वागत किया था। यह दावा भी किया जाता है कि इसी दिन सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों में दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था। एक बौद्ध विद्वान का दावा है कि जिस प्रकार वैदिको[5] ने उनके याने बौद्धों के बौद्ध विहार को मंदिर एवं बुध मूर्तियों को देवी देवताओं में बदल दिया। इसी प्रकार इस बौद्ध त्यौहार को काल्पनिक कहानियों के सहारे हिंदू त्यौहार में बदल दिया गया। जबकि दीप और दीप जलाने की परंपरा बौद्धों ने शुरू की है। ‘’अप्पो दीपो भव’’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो की बात सबसे पहले  भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई थी।

जैन धर्म- जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के साथ जो अंतर ज्योति सदा के लिए बुझ गई । उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक में दीप जलाए गए और दीपावली की परंपरा शुरू हुई।

सिख धर्म- सिख धर्म के अनुयायियों का दावा है कि इसी दिन 1618 को सिखों के छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। इस खुशी में सिख समुदाय प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली को मनाते हैं।

मुस्लिम धर्म- जैसा कि पूर्व में बताया गया है। मध्य प्रदेश के मालवा के मुस्लिम इस त्यौहार को जश्ने चिराग के रूप में मनाते हैं। ऐसी जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह भी अपने महलों में इस त्यौहार को शान से मनाते थे और किलों में रोशनी की जाती थी।

अब प्रश्‍न ये उठता है कि ऐसा क्या कारण है कि दीवाली त्यौहार पर लगभग सभी स्थानीय धर्मों द्वारा अपना दावा पेश किया जाता है?

इसका कारण यह है कि दीपावली या दीवाली एक आदि या भारत के मूल वासियों का कृषि आधारित त्यौहार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मानव जीवन किसी त्यौहार के बिना अकल्पनीय है। यह खरीफ फसल पकने की खुशी का त्यौहार है इसे बड़े पैमाने मे तब से मनाया जाता रहा होगा जब से इन धर्मों का  अस्तित्व नहीं था। हम यह कह सकते है कि दीवाली जैसे त्यौहार का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना कृषि का इतिहास। भारत में पनपे किसी भी धर्म के लिए बहुत कठिन रहा होगा की वे इन परंपरागत त्यौहारों को नजरंदाज कर दे। इसलिए सभी धर्मों ने दीवाली पर अपना-अपना दावा पेश किया। वैसे भी धर्म के प्रचार के लिए ये परंपरागत त्यौहार बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आसान जरिया होते है।



[1] एक खास प्रकार के हरे रंग के कीट पतंगे जो धान की बालियों के आकार के होते है।

[2] धान से बनी हुई कलात्मक झालर जिसे स्थानीय भाषा में चिरई चुगनी भी कहा जाता है।

[3] एक प्रकार की मिट्टी जो सफेद रंग की होती है।

[4] एक प्रकार की मिट्टी जो लाल रंग की होती है।

[5] हिन्‍दूओं या ब्राहणो

फिर इतना इठलाना किस बात का (कविता)

फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।
संजीव खुदशाह

यही ना वे तुम्हारी तरह अपनी नस्लों पर घमंड नहीं करते।
यही ना तुम्हारी तरह वे दूसरों की नस्ल पर नाक भौव नहीं सिकोड़ते।
कई जंतुओं को खत्म कर दिया तुमने, याद होगा तुम्हें।
कई जंगलों को कंक्रीट में बदल दिया, याद होगा तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।


यही न वे तुम्हारी तरह ऊंच-नीच, भेदभाव को नहीं करते।
तुम्हारी तरह अपनी मादाओं पर अत्याचार करना नहीं जानते।
इंसान-इंसान में नफरत करते हुये, शर्म नहीं आई होगी तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।

यही ना की वे तुम्हारी तरह भूत और भगवान को नहीं मानते
यही ना वे तुम्हारी तरह किसी अंधविश्वास और पाखंड को नहीं मानते.
नहीं बांटते अपनों को किसी ईश्वर के नाम पर।
नहीं चढ़ाते अपनों के बली किसी अंधविश्वास के नाम पर।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।


यही ना वह तुम्हारी तरह अपने बच्चों को पालने का एहसान नहीं बताते।
जन्म देने के एवज में खुद को नहीं पूजवाते।
तुम्हारी तरह अपने बच्चों को बुढ़ापे की लाठी नहीं बताते
परजीवी बन कर उनके अरमानों का गला नहीं घोटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

यही ना वे तुम्हारी तरह धन-संपत्ति का पहाड़ नहीं बनाते हैं।
यही ना उनके बीच नहीं होती, कोई लड़ाई जमीन जायदाद की।

पेड़ों को काटकर, वे पर्यावरण बचाने का ढोंग नहीं करते।

नदी तालाबों को पाटकर, जल पुरुष होने का ढोल नहीं पीटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

Publish on Navbharat 2/10/2022

There is better employment opportunities for the youth in the field of journalism

पत्रकारिता के क्षेत्र में युवाओं के लिए है, रोजगार के बेहतर अवसर

डॉक्टर धनेश जोशी
12 वीं के बाद छात्रों में अपने भविष्य को लेकर उत्सुकता रहती है कि स्नातक के लिए कौन सा कोर्स चुने जिसमें
नौकरी के ढेर अवसर हो तथा अपना खुद का व्यवसाय करने के भी मौके हो ऐसा कैरियर जिसमें भविष्य में अच्छी आय पद व प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो तथा समाज के लिए कुछ सकारात्मक कार्य किए जा सके.अगर अपने जीवन में कैरियर के साथ देश के विकास में भी अपना योगदान देना चाहते हैं तो आपके लिए पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों में कई ऑप्शंस यह कोर्सेज पूरी तरह से व्यवसायिक कोर्सेज होते हैं इनमें सिखाई गई व्यवसायिक विधाओं को सीखकर निपुण होने वाले छात्रों को नौकरी मिलने की पूरी संभावनाएं होती हैं तथा निपुण विद्यार्थी अगर चाहे तो अपना खुद का व्यवसाय भी कर सकते हैं और दूसरों को नौकरी भी दे सकते हैं इस प्रकार वे देश के आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं 


पत्रकारिता एवं जनसंचार के कोर्स के अंतर्गत मुख्यतः सिखाई जाने वाली 
विधाएं हैं-

• प्रिंट मीडिया न्यूज़पेपर एवं मैगजीन ( NEWS PAPER & MAGZINE)
• इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेडियो और टेलीविजन (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION)
• पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION)
• डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING)
• मल्टीमीडिया ग्राफिक डिजाइनिंग एंड एनिमेशन(MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION)

1. प्रिंट मीडिया (NEWS PAPER & MAGZINE) न्यूजपेपर एंड मैगजीन से संबंधित कोर्सेज करने के बाद छात्रों को रिपोर्टर सब एडिटर कैमरामैन कंटेंट राइटर, प्रूफरीडर इत्यादि की जॉब आसानी से मिल जाती है इसके अलावा अगर आपके पास पैसा है और इच्छाशक्ति है तो आप अपने से खुद का मीडिया पब्लिशिंग हाउस भी शुरू कर सकते हैं और दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

2. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (रेडियो एंड टेलीविजन) (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION) से रिलेटेड कोर्सेज करने के बाद छात्रों को टीवी चैनल एंड रेडियो स्टेशंस में रेडियो एनाउंसर, एंकर, रिपोर्टर, एडिटर, प्रोग्राम प्रोड्यूसर, न्यूजरूम मैनेजर, स्टूडियो इंचार्ज, फोटोग्राफर, वीडियोग्राफर, रेडियो जॉकी इत्यादि की अच्छी जॉब मिल जाती है. अगर आप कुछ बड़ा करना चाहते हैं, और आपके पास प्रोफेशनल्स की एक टीम है और पर्याप्त पैसा है तो आप अपने खुद का टीवी चैनल (यूट्यूब चैनल) या कम्युनिटी रेडियो शुरू करके दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

3. पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION) जनसंचार का एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी कार्पोरेट सेक्टर में बहुत अधिक मांग है. लगभग हर बड़ी कंपनी में पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट या एक जनसंपर्क अधिकारी होता है. जो ऑर्गेनाइजेशन की इमेज बिल्डिंग और कॉरपोरेट कम्युनिकेशन को हैंडल करता है। कार्पोरेट्स अपने स्टॉक होल्डर्स के बीच अपनी पॉजिटिव इमेज बनाने एवं सकारात्मक संचार करने के लिए विभिन्न योजनाएं एवं कैंपेन चलाते हैं इसमें पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एडवरटाइजिंग कैंपेन्स कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत चलने वाली परियोजनाएं सरकारी एवं गैर सरकारी समूहों के साथ संवाद स्थापित करके समाज में अपनी सकारात्मक इमेज को प्रमोट करना करना आदि शामिल है. इस क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध है और स्टार्टअप के इच्छुक छात्रों के लिए खुद के व्यवसाय का एक बेहतरीन मौका है. जहां वे अपने साथ-साथ दूसरों को भी नौकरी दे सकते हैं. 

4. डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING) इंटरनेट की बढ़ती उपलब्धता एवं स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के चलते आजकल यूट्यूबर्स की मांग तेजी से बढ़ी है. यूट्यूब पर क्वालिटी कंटेंट उपलब्ध ना होने के कारण इन दिनों डिजिटल फिल्म मेकिंग का बहुत अधिक स्कोप है. डिजिटल फिल्म मेकिंग को पैसे कमा सकते हैं बल्कि खुद को डिजिटल वर्ल्ड में एक्सपर्ट के रूप में स्थापित कर सकते हैं इस इंडस्ट्री में कैमरामैन, फिल्म डायरेक्टर, वीडियो एडिटर, साउंड रिकॉर्डिस्ट, मार्केटिंग प्रोफेशनल इत्यादि की बहुत मांग है. 

5. मल्टीमीडिया ग्राफिक्स एंड एनीमेशन (MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION) किसी भी कंटेंट को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए आजकल मल्टीमीडिया ग्राफिक एंड एनीमेशंस का इस्तेमाल बहुत होने लगा है. विशेषकर न्यूज़ एजुकेशन म्यूजिक एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में मल्टीमीडिया एंड ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन के विशेषज्ञों की अत्यधिक मांग है. एनीमेटेड मूवीज, कार्टून फिल्म एंड वीडियोज की बढ़ती मांग की वजह से मल्टीमीडिया ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन प्रोफेशनल्स की जबर्दस्त डिमांड है.  

6. डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट (DIGITAL MEDIA MANAGEMENT) इंटरनेट की उपलब्धता और डिजिटल टेक्नोलॉजी में होने वाले नित नए अविष्कारों ने संचार की दुनिया में कई क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं जिसकी वजह से डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट में रोज नए अवसर पैदा हो रहे हैं. जनसंचार के माध्यम अब डिजिटल प्लेटफार्म फेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर, लिंकेडीन, व्हाट्सएप पर उपलब्ध होने की वजह से इस क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों की मांग बहुत बढ़ गई है. इसके अतिरिक्त आजकल सभी ऑर्गेनाइजेशन/बिजनेस हाउस की अपनी वेबसाइट होती है. जिसके लिए डिजिटल मीडिया मैनेजर की सेवाएं लेते हैं. अपना खुद का कारोबार करने के इच्छुक छात्रों के लिए क्षेत्र में अपने व्यवसाय करने के अवसर मौजूद हैं. 

जरूरी योग्यता

मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री के लिए न्यूनतम योग्यता 12वीं अथवा पोस्ट ग्रैजुएट पाठ्यक्रम के लिए पत्रकारिता में स्नातक होना चाहिए। कुछ संस्थानों में पत्रकारिता में एक वर्षीय प्रमाण-पत्र पाठ्यक्रम संचालित किए जाते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए जर्नलिज्म और मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री और पोस्ट ग्रैजुएट डिग्री जरूरी है। लेकिन विशेष प्रशिक्षण या फील्डवर्क और इंटर्नशिप से इस क्षेत्र में बेहतर अवसर बनाए जा सकते हैं।

शुरुआती वेतन और मौका

मास कम्यूनिकेशन में प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद शुरुआती वेतन के तौर पर 12,000 से 25,000 रुपए प्रतिमाह कमाए जा सकते हैं। पांच साल के अनुभव के बाद यह स्तर 50,000 से 1,00,000 रुपए तक पहुंच जाता है। 

         डॉ. धनेश जोशी
         विभागाध्यक्ष 
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई 
   मो. 9425211714

Rakshabandhan and the truth behind it?

रक्षाबंधन और उसके पीछे का सच?

संजीव खुदशाह

पूरे विश्व में भारत को छोड़कर भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता है। क्योंकि रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है। विदेशों में फ्रेंडशिप डे दोस्ती दिवस जैसे बराबरी वाले त्यौहार जरूर मनाए जाते हैं। 
क्यों रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है 

भाई का बहन की रक्षा का व्रत लेने का मतलब होता है कि बहन कमजोर है और भाई मजबूत है। क्या बहन सचमुच इतनी कमजोर है कि उसे अपनी रक्षा के लिए भाई का मुंह ताकना पड़े? क्या बहन इतनी मजबूत नहीं बनाई जा सकती कि वह भाई का रक्षा कर सकें। इसे भाई-बहन के मोहब्बत का त्यौहार है ऐसा सामंतवादी मीडिया दिखाने की कोशिश करता है। लेकिन यहां पर भाई-बहन के प्यार से कोई वास्ता नहीं है। यही बहन भाई से अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हक चाहती है तो भाई उसका दुश्मन हो जाता है। 

इस त्यौहार के बहाने बहुत ही सस्ते में निपटाया जाता है बहनों को। 

रक्षाबंधन के त्यौहार में बहनों को साड़ी कपड़ा या हजार रुपए देकर बहुत ही आसानी से भाइयों के द्वारा बहनों को निपटाया जाता है। अगर यही बहन अपने पिता अपने पूर्वजों की संपत्ति में हक मांगती है। भाई के बराबर अधिकार मांगती है। यही भाई उसे रक्षाबंधन में गालियां बकता है । उसे अपने घर में घुसने नहीं देता है। यह भारत की कड़वी सच्चाई है। लाखों प्रकरण न्यायालय में लंबित है जहां बहने अपने भाइयों से अधिकार मांग रही है और भाई देना नहीं चाहता। 

इस त्यौहार के मूल में क्या है ? कहां से हुआ इस त्यौहार शुरू? इसकी शुरुआत कब हुई? 

रक्षाबंधन बिल्कुल नया त्यौहार है। बमुश्किल 70-80 साल हुए होंगे इस त्यौहार को शुरू हुए। इससे पहले इसी दिन ब्राह्मण अपने जजमानो को रक्षा सूत्र बांधा करते थे। जिसमें बहनों का कोई रोल नहीं होता था। खासतौर पर ब्राह्मण क्षत्रियों एवं वैश्यो को या फिर राजाओं को रक्षा सूत्र बांधकर अपनी रक्षा करने का शपथ लेते थे। और उसके एवज में दान प्राप्त करते थे। आज भी ब्राह्मण इस त्यौहार में लोगों को रक्षा सूत्र बांधते हुए देखे जाते हैं।
ब्राह्मण रक्षा सूत्र बांधते समय इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः | 
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल ||
इसका अर्थ होता है जिस तरह मैं तुम्हारे महान पराक्रमी दानव राजा बलि को इस सूत्र के माध्यम से बांध रहा हूं इसी प्रकार में तुम्हें भी मैं इस सूत्र से बांध रहा हूं मेरी रक्षा करना। 

अब बताइए रक्षाबंधन के दिन पढ़े जाने वाले इस सूत्र इस मंत्र का भाई बहनों से क्या ताल्लुक है। शुरू से रक्षाबंधन के इस त्यौहार का बौद्धिक लोगों ने विरोध करना प्रारंभ किया और इस पर अपने तर्क दिए इन तर्कों से बचने के लिए ब्राह्मणों ने कई और पुराने संदर्भ देने की कोशिश की। 

कृष्ण-द्रौपदी की कथा का प्रचार इसीलिए किया गया।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून की धार बह निकली। यह सब द्रौपदी से नहीं देखा गया और उसने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में बांध दिया फलस्वरूप खून बहना बंद हो गया।  

कुछ समय पश्चात जब दुःशासन ने द्रौपदी की चीरहरण किया तब श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर इस बंधन का उपकार चुकाया। 

इसे रक्षाबंधन से जोड़ का प्रचारित किया जाता है। जबकि आप ही बताइए कि इसमें भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा क्या है?
इस त्यौहार को प्रचारित करने में सबसे बड़ा योगदान फिल्मों का है। शुरुआत में फिल्में इस त्यौहार को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाती है। बाद में टीवी सीरियल इस पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

महाबली की हत्या का है यह त्यौहार
ऐसा माना जाता है कि रक्षाबंधन बहुजनों दानवों द्रविड़ो के राजा महाबली को आर्यों द्वारा पराजित किया गया था। उसी खुशी में यह त्यौहार प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के रूप में ब्राह्मणों द्वारा मनाया जाता है। जिसमें बड़ी संख्या में दलित बहुजन भी शामिल होते हैं जिनका राजा महाबली बताया जाता है।

रक्षाबंधन जैसे त्यौहार की जरूरत क्यों पड़ी?
भारत का सामंती वर्ग ईसाइयों के त्यौहारो से प्रभावित रहा है। ईसाइयों की तरह भारत में कोई भी त्यौहार ऐसा नहीं है जिसे सब मिलकर मनाते हैं। इसके लिए जातिवाद आड़े आती थी। इसीलिए रक्षाबंधन जैसे त्यौहार गढ़े गए। ताकि विदेशियों को यह बताया जा सके कि हमारे भीतर मोहब्बत और प्यार को फैलाने वाला त्यौहार है। रक्षाबंधन इसी कड़ी में प्रचारित किया गया। इस त्यौहार को प्रचारित करने में पूंजीवाद का भी बहुत बड़ा योगदान है।

धर्म निरपेक्षता के मायने Means of secularism


भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। धर्म निरपेक्ष का सही मतलब होता है ऐसी सरकार जो किसी धर्म के पक्ष में नहीं है। कुछ लोग धर्म निरपेक्ष का मतलब यह भी निकालते है कि ऐसी सरकार जो सभी धर्म के पक्ष में हो सबको लेकर चलती हो।

पिछले दिनों तमिलनाडु में एक सड़क परियोजना के उद्घाटन में सरकारी अधिकारी ने गलती से सिर्फ ब्राम्‍हण पुजारी को बुला लिया सांसद सैंथिलकुमाल ने पूछा की बाकी धर्म के प्रतिनिधि कहां है । बताना चाहूंगा की तमिलनाडु में सिर्फ एक धर्म के पुजारी से सरकारी योजनाओं में पूजा नहीं कराई जाती, आम तौर पर  पूजा होती ही नहीं है।

दरअसल, तमिलनाडु राज्‍य के धर्मपुरी सीट से लोकसभा सांसद सेंथिलकुमार एक सड़क परियोजना की भूमि पूजा के लिए अपने गृह जिले में पहुंचे थे। यहां पहुंचने पर उन्होंने लोक निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता से पूछा कि क्या उन्हें पता है कि एक सरकारी समारोह को इस तरह से आयोजित नहीं किया जाना चाहिए, जिसमें केवल एक विशेष धर्म की प्रार्थना शामिल हो। उन्होंने अधिकारी से पूछा कि आप ये बात जानते हैं या नहीं। 

इस दौरान मौके पर मौजूद एक भगवा वस्त्र पहने हिंदू पुजारी को देखकर उन्होंने अधिकारी से पूछा कि अन्य धर्मों के प्रतिनिधि कहां है। उन्होंने अधिकारी से कहा कि, "यह क्या है? अन्य धर्म कहां हैं? ईसाई और मुस्लिम कहां हैं? चर्च के फादर, इमाम को आमंत्रित करें, किसी भी धर्म को नहीं मानने वालों को भी आमंत्रित करें। गौरतलब है कि सामाजिक न्याय के प्रतीक पेरियार ईवी रामासामी द्वारा स्थापित एक तर्कवादी संगठन द्रविड़ कड़गम सत्तारूढ़ द्रमुक का मूल निकाय है।

सांसद एस सेंथिलकुमार की डांट के बाद लोक निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता ने सांसद से माफी मांगी। उन्होंने कहा कि  यह शासन का द्रविड़ मॉडल है। सरकार सभी धर्मों के लोगों के लिए है।

ज्ञातव्‍य है कि इसके कुछ दिनों पहले प्रधान मंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने नये संसद भवन में राजकीय चिन्ह अशोक स्तंभ की पूजा सिर्फ ब्राम्‍हण पुजारियों से कराई। जबकि यह देश संविधान से चलता है न कि किसी धर्म के विधान से । कायदे से पूजा नहीं करानी चाहिए थी। यदि करानी पड़ रही है तो भारत में जितने भी धर्म के मानने वाले है उनके पुजारियों से पूजा करानी चाहिए।

यह बताना जरूरी है की संविधान जब निर्माणाधीन था तब इस पर चर्चा हुई जिसमें सभी समाज और स्‍थान के चुने हुये प्रतिनिधि मौजूद थे। ने यह निर्णय लिया था की भारत में एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना की जानी चाहिए। ताकि सभी समता समानता एवं सद्भावना से रह सके। बाद में कांग्रेस की सरकार ने संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ दिया। यह संविधान की भावना के हिसाब से एक अच्छा कदम था। इसी तरह यह बात कॉमन हो गई और इसे गंभीरता नहीं लिया गया।

लेकिन तमिलनाडु सांसद डां सेन्थिल कुमार के वीडियो वायरल हो जाने के बाद, यह बात चर्चा में फिर आ गई की भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्‍ट्र है जिसमें सभी धर्मो का समान आदर होना चाहिए। क्योंकि एक आम हिन्दू भी धर्म निरपेक्ष सरकार चाहता है।

 

 

सरकर को धर्म निरपेक्ष क्‍यो होना चाहिए:

भारत एक ऐसा देश है कि जिसमें कई धर्मों, सैकड़ो पंथो को मानने वाले लोग रहते  है। देश को अखण्‍ड बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि सभी धर्म एवं पंथो का बराबर सम्मान किया जाय। यह सम्मान तभी हो सकता है जब आप सरकार और धर्म में दूरियां रखेगें। आप उत्‍तर भारत के सरकारी कार्यलयों में एक खास धर्म के देवी देवता की तस्वीर या पूजा स्‍थल पाते है। जबकि तमिलनाडु सरकार ने पूर्व में भी संविधान के भावना का आदर करते हुये सरकारी कार्यालय में मंदिर मस्जिद या किसी भी पूजा स्‍थल, तस्वीर न लगाने का आदेश जारी किया था। दर असल तमिलनाडु एवं उसकी सरकार पर प्रसिध्‍द तर्कशास्त्री इ वी रामास्‍वामी पेरियार का प्रभाव रहा है। यही कारण है तमिलनाडु देश का सबसे उन्‍नत राज्‍य है।

 

सरकारी धन का दुरूपयोग:

चूकि सरकार को टैक्‍स सभी धर्म पंथ को मानने वाले लोग देते है । इसलिए सरकार को इस टैक्‍स के पैसे को किसी खास धर्म के उपर खर्च करने से बचना चाहिए। यह संविधान के भावना के खिलाफ है। जनता चाहती है उसे सड़क बिजली पानी मिले, गरीबी दूर हो, बेरोजगारी से देश निजात पाये । सरकारी मेडिकल, इंजिनीयरीग कालेज खुले शिक्षा चिकित्सा सस्ती हो। आज भारत के दूर दराज में ऐसे कई गांव है जहां बिजली पानी सड़क अब तक नहीं पहुची है। इन सामरिक चीजों में टैक्स का पैसा खर्च होना चाहिए।

 

संविधान कहता है तर्क शील बनों अंधविश्वास से निजात पाओ:

संविधान की धारा 51 क की उपधारा ज कहती है कि भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाये। लोग तर्क शील बने। धर्म एक निजी मामला है उसे घर एवं पूजा स्थलों तक सीमित होना चाहिए। आज अंधविश्वास के कारण पूरा देश पिछड़े पन का शिकार है । कई मौतें सिर्फ अंधविश्वास के कारण होती है। लोग अपनी मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों के इलाज के लिए आज भी ओझा, बैगा, मौलवी के भरोसे रहते है। इस कारण स्‍वास्‍थ सूचकांक में भारत पिछड़ता जा रहा है। हमें उन यूरोपीय देशों से सीख लेनी चाहिए जिन्होंने धर्म के बजाए वैज्ञानिक विचारधारा एवं तकनीक अपनाया और विकसित देशों में अपना मुकाम बनाए हुए है।

संजीव खुदशाह

जाति अत्याचार के खिलाफ राजधानी रायपुर में होगा नग्न प्रदर्शन

जाति अत्याचार के खिलाफ हम लोग नंगा ( निर्वस्त्र ) होकर राजधानी रायपुर में प्रदर्शन करने जा रहे हैं।
जिस तरीके से आरक्षित वर्ग के जनप्रतिनिधि और पढ़े लिखे अधिकारी कर्मचारी अपने वर्ग के साथ हो रहे अन्याय अत्याचार और प्रशासनिक दमन के खिलाफ मुंह

खोलने के बजाए चुप्पी साध कर पेटखोर रहते हुए आरक्षण का लाभ उठाते रहना चाहते हैं। 
लेकिन अब हमें अत्याचार की घटनाओं को सुनते हुए देखते हुए जीवन यापन करना सहन नहीं हो रहा है, हम नहीं चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी अपने जीवनकाल  में जातिगत प्रताड़ना एवं अत्याचार वाला दिन देखकर धरना प्रदर्शन रैली आंदोलन करता रहे। 
गरिमामय जीवन और समान नागरिक अधिकार के साथ जीने के लिए धरना प्रदर्शन रैली आंदोलन करना अगर हमारे जाति वर्ग के हिस्से में परंपरा बन गया है तो हम इस परंपरा को खत्म करना चाहते हैं।
 हमारी जाति ऐसी है कि पुलिस हमारी सुनती नहीं है, प्रशासन हम पर यकीन करती नहीं है।
हमारे राजनीतिक वोट को बिकाऊ समझा जाता है हमारे समाज के सामाजिक ठेकेदारों को रूपए और पद की लालच देकर वोट प्रभावित किया जाता है पदलोलुपता के वजह से सामाजिक ठेकेदारों की आवाज सत्ता के सामने दबी रहती है और इसलिए सरकार हमारे अस्तित्व को स्वीकार करती नहीं है।
हमारी गिनती जनगणना के समय हिंदू धर्म में गिना जाता है लेकिन जब तक हिंदू के सामने मुस्लिम न हो तब तक हिंदू धर्म हमें अपना मानती नहीं है।
 हमारे वर्ग के ऊपर अत्याचार करने वाले एवं हमारे आरक्षण के खिलाफ खड़ा होते हमने सदैव हिंदू धर्मी को ही देखा है।
जब हमारे लोगों पर कोई हिंदू धर्मी अत्याचार करता है तब कोई दूसरा हिंदू धर्मी को हमारे पक्ष में खड़ा होते कभी नहीं देखा है।
हम भारत का संविधान पर विश्वास करते हुए पुलिस से निवेदन किए, प्रशासन को आवेदन दिए, सरकार से गुहार लगाए और न्यायपालिका से न्याय मिलने की उम्मीद लगाए रहे अफसोस हर जगह से हमें निराशा हाथ लगी।
अब हमें एहसास होने लगा है कि हमें इस भारत देश में दोयम दर्जे के नागरिक समझा जाने लगा है।
जहां हमारे सारे संवैधानिक अधिकार को धीरे-धीरे निलंबित किए जाने लगा है और मनुस्मृति के अनुसार हम पर शासन करने का योजना बनाए जाने लगा है।
मजबूरन अब हमें खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिए  नंगा (निर्वस्त्र) होकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता हो गई है।
आइए शोषित समाज के युवा स्वाभिमानी साथियों हमें बढ़ चढ़कर साथ और सहयोग करें।
हमारा कदम अपने शोषित समाज के स्वाभिमान के लिए है। स्वाभिमान एवं अस्तित्व के खातिर हम अपनी जान की परवाह नहीं करते हैं।
बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर प्रतिमा स्थल रायपुर में नंगरा ( नग्न ) होकर प्रदर्शन करने वालों में
संजीत बर्मन
मनीष गायकवाड़ 
विनय कौशल 
पंकज भास्कर

ऩोट :- प्रदर्शन करने वाले साथियों की संख्या बढ़ सकती है।
प्रदर्शन की संभावित तिथी 18/07/2022 
दिन सोमवार 
स्थान बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर प्रतिमा स्थल (कलेक्टर आफिस के सामने) रायपुर छत्तीसगढ़। 

#DalitLivesMatter 
#JusticeForGangaPrasadMarkande

शंकराचार्य यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थापना दिवस की रही धूम

 शंकराचार्य यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थापना दिवस की रही धूम 


भिलाई। श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई द्वारा दिनांक-09/06/ 2022 को अपना द्वितीय स्थापना दिवस का कार्यक्रम मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री आई. पी. मिश्रा, कुलाधिपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई रहें। अति विशिष्ट अतिथि के रूप में श्रीमती जया मिश्रा, महानिदेशक एवं विशिष्ट अतिथि श्री पी. के. मिश्रा, कुलसचिव, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई की गरिमामयी उपस्थिति रहीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. (डॉ.) एल.एस. निगम, कुलपति, श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई ने किया। कार्यक्रम में स्वागत व्यक्तव्य श्री पी. के. मिश्रा, कुलसचिव ने दिया। उन्होंने यूनिवर्सिटी के दुसरे स्थापना दिवस पर यूनिवर्सिटी परिवार को बधाई देते हुए छात्रों से कहा कि यूनिवर्सिटी का लक्ष्य एक्सिलेंस इन एजुकेशन प्रदान करने हेतु निरंतर प्रयासरत है। उन्होंने कहा कि इंडस्ट्री में हर रोज नए-नए बदलाव हो रहे हैं, जिसके लिए अपने आप को अपडेट रखना जरूरी है। एक स्टूडेंट्स के लिए जितना जरूरी किताबें पढ़ना है उतना ही जरूरी इंडस्ट्री पर नजर रखना भी है। कार्यक्रम के इस अवसर पर कुलाधिपति श्री आई.पी. मिश्रा जी ने ऑनलाइन माध्यम से अपने उद्बोधन में कहा कि यूनिवर्सिटी ने अपने नाम की अनुरूपता को स्थापना दिवस पर हुए कार्यक्रम में साकार करने का कार्य किया है । तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति में किसी भी नाम का मतलब बिना अर्थ के नहीं होता। नाम के पीछे कुछ ऐसा छुपा रहता है जो उसकी सार्थकता को प्रमाणित करता है। यूनिवर्सिटी श्री शंकराचार्य जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सार्थक करने का पूरा-पूरा प्रयास कर रही है। साथ ही उन्होंने छत्तीसगढ़ शासन का धन्यवाद देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ में शिक्षा के लिए बेहतर वातावरण प्रदान कर रही है उनके सार्थक सहयोग से हम मध्यभारत का गुणवत्तापूर्ण यूनिवर्सिटी संचालित कर पा रहें हैं। विशिष्ट अतिथि श्रीमती जया मिश्रा ने अपने भाषण में कहा कि यूनिवर्सिटी बरगद के वृक्ष की तरह होती है जिसकी हर एक शाखा नए वृक्ष का रूप ले लेने में सक्षम होती है। साथ ही उन्होंने कहा कि समाज उन्नयन के हर क्षेत्र में श्री शंकराचार्य यूनिवर्सिटी अगुवा के रूप में कार्य करें जिससे विश्व बंधुत्व जैसी उदात्त भावनाओं की उपजाऊ भूमि के रूप में स्थापित हो सकें। स्थापना दिवस को गरिमा प्रदान करते हुए महानिदेशक श्रीमती जया मिश्रा ने प्रावीण्य सूची में आने वाले छात्रों के लिए छात्रवृति की घोषणा की। 

जीवन में सफलता तभी मिलेगी, जब आपका लक्ष्य निर्धारित हो। इसके अभाव में आपकी सारी मेहनत बेकार है। स्थापना दिवस पर अध्यक्षीय उद्बोधन में उपस्थित छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए प्रो. निगम ने यह बातें कही। उन्होंने कहा कि यदि लक्ष्य क्लीयरिटी के साथ तय नहीं हो, तो फिर किसी भी मिशन की तैयारी का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि आप जिम्मेवारी के साथ आगे बढ़ेंगे, तो सिर्फ समाज ही नहीं पूरी कायनात आपके सहयोग के लिए आगे आ जाएगी। लेकिन बिना प्रयास किए आप सिर्फ यह सोचकर बैठे रहेंगे कि लोग स्वत: मदद करेंगे, तो आप इंतजार करते रह जाएंगे और गाड़ी छूट जाएगी। डिग्री व विद्वता दोनों में काफी फर्क है। विद्वान बनने के लिए अच्छी पुस्तकों का गहन अध्ययन जरूरी है। उन्होंने बताया कि श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई केवल शिक्षा पर ही केंद्रित नहीं है बल्कि यह 360 डिग्री के तरीके से काम करता है। यह आपके अन्दर सभी तरह के नेतृत्व, टीम वर्क, दृढ़ संकल्प, लचीलापन, आत्मविश्वास, सम्मान इत्यादि जैसे व्यक्तिगत गुणों का विकास करने का काम करता है ताकि आप एक बहुमुखी व्यक्ति के रूप में विकास कर सकें। कुलपति महोदय ने कहा कि हम समय के अनुरूप अध्ययन के साथ-साथ खेल, लेखन, कला, नृत्य, संगीत आदि जैसे अन्य क्षेत्रों को भी बराबरी का दर्जा देने का प्रयास कर रहे हैं, साथ ही हमारा लक्ष्य एक समग्र शिक्षण वातावरण बनाने पर केंद्रित है।

 इस अवसर पर श्री विनय पीताम्बरन, उप-कुलसचिव ने यूनिवर्सिटी के दो वर्षों के शानदार उपलब्धियों को विद्यार्थियों एवं उपस्थित अतिथियों के समक्ष रखा। कार्यक्रम में विभिन्न विभागों के सत्र-2020-21 एवं 2021-22 में प्रावीण्य सूची में उत्तीर्ण 120 छात्र-छात्राओं एवं विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में सफल 30 छात्र-छात्राओं को को प्रशस्ति प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया गया। 

तत्पश्चात विद्यार्थियों द्वारा रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी गई, जिसमें शानदार एकल गायन अमनदीप, अखिल एवं विनय पीताम्बरन, उपकुलसचिव ने गया । एकल नृत्य भूमिका त्रिपाठी प्रियांशु कुर्रे आस्था त्रिपाठी, कृष्णा बहेती एवं मनजोत द्वारा प्रस्तुति दी गई। युगल नृत्य आस्था त्रिपाठी, कृष्णा बहेती ने किया वही समूह नृत्य पत्रकारिता एवं जनसंचार के छात्रों राखी भंडारी एवं उनके समूह द्वारा छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध गीत “डरा लोर गे हे रे” पर दिया गया एवं अभिनय नुक्कड़ क्लब के सदस्यों ने “मोबाईल प्रयोग के बढ़ते खतरे” पर अपनी उत्कृष्ट अभिनय की प्रस्तुति दी साथ ही तुलसी ने मोनो एक्ट व रागिनी ने वीर रस की कविता प्रस्तुत की. कार्यक्रम का संचालन आरुषी जायसवाल बीटेक कंप्यूटर साइंस द्वितीय सेमेस्टर एवं इशिता बिस्वास, बीबीए द्वितीय सेमेस्टर द्वारा एवं आभार प्रदर्शन प्रो.(डॉ.) शिल्पी देवांगन, अकादमिक समन्वयक ने किया गया। स्थापना दिवस के गरिमामयी क्षण पर गणमान्य नागरिकों, विद्यार्थियों, प्राध्यापकों, कर्मचारियों एवं अधिकारीयों की उपस्थिति रही।
विनय पीताम्बरन
उप-कुलसचिव

Light of Asia Lord Gautam Buddha

 बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

भगवान बुद्ध यानी एशिया का प्रकाश

संजीव खुदशाह

बुद्ध को एशिया का प्रकाश यानी Light of Asia कहा जाता है। जापान, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया, चीन, वियतनाम, ताइवान, तिब्बत, भूटान, कंबोडिया, हांगकांग, मंगोलिया, थाईलैंड, मकाउ, वर्मा, लागोस और श्रीलंका की गिनती बुद्धिस्ट देशों में होती है। वैसे तो बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ था। लेकिन बुद्धत्व प्राप्ति से लेकर परिनिर्वाण तक पूरा जीवन भारत के भू भाग में ही बीता। बावजूद इसके भारत में बुद्ध को पूरी तरह भुला दिया गया था। आज भी भारत के लगभग सभी भागों में खुदाई के दौरान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त होती रहती है। इसी प्रकार सम्राट अशोक को भी पूरी तरह भुला दिया गया था 1838 में जब अशोक स्तंभ को पढ़ा गया तब ज्ञात हुआ कि कोई अशोक नाम का सम्राट भी यहां हुआ करता था। हालांकि जनमानस में बुध और अशोक बसे हुए हैं। अशोक के लगाए पेड़ उन्हीं के नाम से आज भी जाने जाते हैं।

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प्रसंगवश यह बताना जरूरी है कि वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी वन में इसवी सन से 563 वर्ष पूर्व हुआ था। उनकी माता महामाया देवी जब अपने नैहर देवदह जा रही थी तो कपिलवस्तु और देवदह के बीच लुंबिनी वन हुआ करता था। इसी वन में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। इसी दिन 528 ईसा पूर्व बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ और वह बोधिसत्व कहलाए। मान्‍यता है कि इसी दिन यानी वैशाख पूर्णिमा के दिन 483 ईसा पूर्व 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ।

शोध बताते हैं कि दुनिया में सर्वाधिक प्रवचन बुद्ध के ही रहे हैं। यह रिकॉर्ड है कि बुद्ध ने जितना कहा और जितना समझाया उतना किसी और ने नहीं। धरती पर अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ जो बुद्ध के बराबर कह गया। सैकड़ों ग्रंथ है जो उनके प्रवचनों से भरे पड़े हैं और आश्चर्य कि उनमें कहीं भी दोहराव नहीं है। 35 की उम्र के बाद बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय और धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो कुछ भी कहा वह त्रिपिटक में संकलित है। त्रिपिटक अर्थात तीन पिटक- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के एक अंश धम्मपद को पढ़ने का ज्यादा प्रचलन है। इसके अलावा बौद्ध जातक कथाएं विश्व प्रसिद्ध हैं।

आज हम जितना उनके बारे में जानते हैं। पूरी जानकारी का केवल 20% है। बौद्ध साहित्य जो त्रिपिटक के रूप में था। काफी पहले नष्ट हो गया। अच्छी बात यह थी कि यह साहित्य पाली से तिब्बती भाषा में अनूदित हो चुका था। राहुल सांकृत्यायन ने इसे हिंदी भाषा में अनुवाद करके उपलब्ध कराया। कट्टरपंथियों ने नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय पर हमले किये उसे जलाया, 3 महीने तक किताबे जलती रही।  न जाने कितनी बहुमूल्य किताबें, कीमती जानकारियां रही होगी , सब राख में तब्दील हो गई।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बुद्ध के पीछे सारी दुनिया पागल थी। उस बुद्ध को उसी के जन्म और कार्यस्‍थली में लगभग भुला दिया गया। ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे विभिन्न मत है जिसकी चर्चा यहां गैर जरूरी है।

गौतम बुद्ध को लाइट ऑफ एशिया के नाम से पुकारने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है उनके विचार, उनकी शिक्षाएं। वे दुख का कारण और उसका निवारण बताते हैं। गृहस्थों के लिए जीवन जीने की पद्धति बताते हैं जिसे पंचशील कहा जाता है। वे दुनिया के पहले ऐसे विचारक हैं जो यह कहते हैं कि अपना दीपक खुद बनोयानी अत्त दीपो भव। वे कहते हैं कि कोई बात इसलिए नहीं मानो कि कोई बड़ा व्यक्ति कह रहा है या किसी पवित्र ग्रंथ में लिखा है या मैं कह रहा हूं। इस बात का स्वयं मूल्यांकन करो और खुद अनुभव करो तभी वह बात को मानो। यही वे पहलू थे जिसके कारण बुद्ध सर्वत्र स्वीकार किये गये।

दुनिया के अन्य धर्मों की तरह बुद्ध उपासना की कोई एक पद्धति या रिवाज या कोई ड्रेस कोड अथवा कोई रूमानी आदेश नहीं है। जिससे यह तय हो की आप बुद्धिस्ट हो। सिर्फ बुद्ध के विचारों को मानना जरूरी है। जिसे सम्यक विचार कहते हैं। यही कारण है संसार के सारे बुद्धिस्ट की उपासना पद्धति अलग-अलग है। जापान के बुद्ध वहां की संस्कृति में रचे बसे हैं। ठीक उसी प्रकार चीन के बुद्ध वहां की संस्कृति में समाये है। बुद्ध को मानने के लिए संस्कृति को बदलने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सभी जगहों में पंचशील अष्टशील पाली भाषा में ही स्मरण किए जाते हैं।

भगवान बुद्ध कहते हैं कि जीवन ऐसे जियो जैसे वीणा के तार। वीणा के तारों को इतना ढीला ना रखो कि उसकी ध्वनि बेसुरी लगे और इतना ना कसो कि उसकी ध्वनि कानों में चुभे। वीणा के तारों को ऐसे एडजस्ट करो कि उससे मधुर संगीत की उत्पत्ति हो। लोगों को खुशी मिले। यानी जीवन को वीणा के तारो की तरह जीने की बात बुद्ध कहते हैं।

दुनिया का ऐसा कोई हिस्सा नहीं बचा था जहां बौद्ध भिक्षुओं के कदम न पड़े हों। दुनिया भर के हर इलाके से खुदाई में भगवान बुद्ध की प्रतिमा निकलती है। दुनिया की सर्वाधिक प्रतिमाओं का रिकॉर्ड भी बुद्ध के नाम दर्ज है। बुत परस्ती शब्द की उत्पत्ति ही बुद्ध शब्द से हुई है। बुद्ध के ध्यान और ज्ञान पर बहुत से मुल्कों में शोध जारी है

पश्चिम देशो के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक बुद्ध को पिछले कुछ वर्षों से बड़ी ही गंभीरता से ले रहे हैं। चीन, जापान, श्रीलंका और भारत सहित दुनिया के अनेक बौद्ध राष्ट्रों के बौद्ध मठों में पश्चिमी जगत की तादाद बढ़ी है। वे बुद्ध के बारे मे और जानना चाहते है। वे उन रहस्यों से पर्दा उठाना चाहते है की किन कारणो से बुद्ध को भारत से भुला दिये गये। वे क्या कारण है कि सारे विश्व में अपने विचार का परचम लहराने वाले बुद्ध के अनुयायी भारत से गायब हो गये। भगवान बुद्ध की खोज अभी भी जारी है।

नवभारत संडे कवर स्‍टोरी में 15 मई 2022 को प्रकाशित