76% reservation:- This step of Baghel government will always be remembered

76% आरक्षण:- बघेल सरकार का यह कदम सदा याद रखा जाएगा

संजीव खुदशाह

भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। एक ओर धार्मिक ग्रंथों ने ऊपर के 3 वर्गों के लिए सारे अधिकार आरक्षित कर दिए। वहीं दूसरी ओर नीचे के आखिरी वर्ण शूद्र को सारे अधिकार से वंचित कर दिया। शूद्र जो आज एससी एसटी ओबीसी में गिना जाता है, कई सालों से उपेक्षित और प्रताड़ित रहा है। यह मांग हमेशा से होती रही है कि आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार मिले और यह अधिकार उसकी संख्या बल के हिसाब से हो। यानी जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम सबके पूर्वजों ने मिलकर संविधान की रचना की, जिसमें शोषित और पीड़ित लोगों को आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। कुछ लोग समझते हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन अभियान का हिस्सा है। जबकि यह गलत है। आरक्षण दरअसल शैक्षणिक, सामाजिक रूप से पिछड़े, सताए हुए लोगों को दिए जाने का प्रावधान संविधान में किया गया है। इसी के तहत आरक्षण दिया जाता रहा है। लेकिन सवर्ण आरक्षण इस सिद्धांत के विपरीत आर्थिक आधार पर दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 76% आरक्षण का जो विधेयक पास किया है। जिसमें अनुसूचित जन जाति को 32% अनुसूचित जाति को 13%  अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% सवर्णों को 4% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। यह निर्णय ऐतिहासिक है, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह निर्णय केवल चुनावी या राजनीतिक नहीं है। उन हजारों वर्षों से दबे, कुचले , पिछड़े लोगों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने का जो प्रयास किया गया है। वह सराहनीय है । हालांकि यहां पर पिछड़ा वर्ग को उनकी जनसंख्या से काफी कम आरक्षण दिया जा रहा है। बावजूद इसके यह एक महत्वपूर्ण कदम है। जिस का स्वागत किया जाना चाहिए।

अब तक सरकारी सेवाओं से लेकर राजनीति, व्यापार, प्रोफेशनल केवल ऊची जातियों के ही देखे जाते थे। बाकी जातियों के लोग चतुर्थ श्रेणी का काम करके ही अपना काम चलाते थे। भले ही उनकी योग्यता कहीं अधिक रही हो । यह लोग धार्मिक दृष्टिकोण से भी निम्न माने जाते रहे हैं। इस कारण इनमें मानसिक विकास बाधित होता रहा। क्योंकि अगर आप किसी को लगातार निम्न या ताड़न के अधिकारी कहते रहेंगे । तो वह व्यक्ति अपने आप को कुछ समय बाद वैसा ही मानने लगता है।

यहां बताना जरूरी है कि इसके पहले भी भूपेश बघेल की सरकार ने ओबीसी को 27% आरक्षण देने का आदेश पारित किया था। लेकिन कुछ जातिवादी सवर्णों ने हाई कोर्ट पर मुकदमा दायर कर दिया।  यह आदेश टिक नहीं पाया। हाई कोर्ट ने कहा कि इसके लिए जनगणना का डाटा पेश करें। छत्तीसगढ़ की सरकार ने क्वांटिफिएबल डाटा तैयार किया और उस आधार पर 76% आरक्षण देने का निर्णय लिया।  वह ऐसा विधेयक पास करने में सफल हो गए।

शूद्र जातियों के पिछड़ेपन का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि आज भी उन्हें नहीं मालूम है कि सरकार

Deshbandhu 6 dec 2022

उन्हें क्या बेनिफिट देने जा रही है। भारतीय समाज का 85% हिस्सा शोषण अंधकार अशिक्षा में जी रहा है। उसकी नासमझी का आलम यह है कि उसे अपने हको का इल्म नहीं है।

50% आरक्षण सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने 50% आरक्षण की सीमा तय की थी। लेकिन केंद्र सरकार के 10% सवर्ण आरक्षण ने इस बंधन को तोड़ दिया। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना मुहर लगाया । इस बंधन के टूटने के बाद सबसे पहले झारखंड की सरकार ने अपने यहां आरक्षण की सीमा को बढ़ाया। हालांकि इसके पहले तमिलनाडु की सरकार विधेयक पास करके कई साल पहले से 50% से ज्यादा आरक्षण अपने राज्य में दे रही है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल की सरकार का यह निर्णय बेहद महत्वपूर्ण है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है की धार्मिक रूप से नीच करार दिए जाने वाली जातियों को, उसके साथ साथ सवर्ण जातियों को भी उनके जनसंख्या के अनुपात में ही आरक्षण दिया जाएगा। बावजूद इसके 24% क्षेत्र अनारक्षित होगा। जिसमें किसी भी समुदाय के लोग प्रतियोगिता कर सकेंगे।

यहां पर यह बताना जरूरी है की ओबीसी (यानी अन्य पिछड़ा वर्ग जिसमें पिछड़ा वर्ग की जातियों के साथ अल्पसंख्यक वर्ग के पिछड़े भी शामिल हैं) को मंडल आयोग ने 52% आरक्षण देने की सिफारिश की थी। इस लिहाज से आज भी जो आरक्षण 27% पिछड़ों को दिया जा रहा है यह उनकी जनसंख्या के मुताबिक बेहद कम है। पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक, सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थान में बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ विधायिका, कार्य पालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया में इनकी जनसंख्या नगण्य हैं । उस लिहाज से 27% आरक्षण महत्वपूर्ण है। आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने से ओबीसी की आरक्षण की लिमिट भी भविष्य में बढ़ेगी ऐसा हम मान सकते हैं। जिस प्रकार मंडल आयोग को लागू करने में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने महत्वपूर्ण कदम उठाया था । ठीक उसी प्रकार भूपेश बघेल के इस कदम का भी स्वागत किया जाना चाहिए और उन तमाम दबे कुचले लोगों को उत्सव मनाना चाहिए। अपनी बेड़ियों के खोले जाने के उपलक्ष में।


Founder of Chattishgarhi cinema Manu Nayak

छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक

संजीव खुदशाह

पिछले दिनों प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता निर्देशक मनु नायक को राज्य का प्रतिष्ठित सम्मान किशोर साहू से सम्मानित किया गया। यह सम्मान सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए दिया जाता है। मैं यहां बताना चाहूंगा की मनु नायक ने छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म कही देबे संदेश का निर्माण और निर्देशन किया था। यह फिल्म उस वक्त बनी जिस समय फिल्मी दुनिया में जाना किसी सपनों की दुनिया में जाना जैसे था।

publish on navbharat Chattishgarh cinema k janak 
मनु नायक बताते हैं की वे एक गरीब परिवार से ताल्‍लुक रखते थे। वह छत्तीसगढ़ में रायपुर जिले के एक गांव कुरा के निवासी थे। बचपन से उन्हें नाटक में भाग लेने का बड़ा शौक था और वे फिल्मी दुनिया मुंबई में अपना भाग्य आजमाना चाहते थे। पैसे नहीं थे मुंबई जाने के लिए। इसीलिए वह 1955 में हाफ टिकट लेकर जो उस समय ₹12 का था, मुंबई  पहुंचे, लेकिन टीटी ने उन्हें पकड़ लिया। बाद में स्टूडेंट समझ कर उन्हें छोड़ भी दिया। वे चार-पांच दिन रहे और फिर लौट कर आ गए। कुछ दिनों बाद फिर गए और वहां की फिल्म कंपनी अनुपम मित्र में नौकरी करने लगे।

वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और ईमानदारी के बल पर कंपनी में एक खास जगह बना लेते हैं। उन्हें कंपनी का वित्त विभाग संभालने के लिए दे दिया जाता है और वह उस समय के तमाम बड़े कलाकार हीरो, हीरोइन ,पार्श्व गायक, संगीतकारों को पेमेंट किया करते थे। इससे उनकी इन सब कलाकारों से पहचान हो गई। एक व्यक्तिगत रिश्ता कायम हो गया। इनका मुंबई से रायपुर आना जाना चलता रहा। उनके भीतर एक कलाकार भी था जो उन्हें मुंबई तक खींच लाया था। बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था और उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित कर रहा था।

कही देबे संदेश फिल्म बनाने की कहानी

डीएमए इंडिया को दिये गये साक्षात्‍कार के दौरान मनु नायक बताते हैं कि जब वह रायपुर में रहा करते थे। तब उनसे एक दलित यानी सतनामी समाज के लड़के से दोस्ती हो गई थी । वह उनका एक करीबी दोस्त बन गया। कभी वह घर आता तो मां उतने क्षेत्र को जितने एरिया में दोस्‍त खड़ा होता था या बैठता था। उस जगह को गोबर से लीप देती थी। यानि उस वक्‍त छुआ-छूत, जाति-प्रथा चरम पर थी । इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती। लेकिन वह कह नहीं पाते। जब फिल्म बनाने की बारी आई तो उन्होंने इस तरह की घटनाओं को याद करते हुए एक रोमेंटीक कहानी तैयार की जो ग्रामीण सामाजिक परिवेश पर आधारित था। जिसमें हीरो दलित परिवार से और हीरोइन ब्राह्मण परिवार से आती थी। इस फिल्म को बनाने में उन्‍हे बहुत मेहनत करना पड़ा । पहले सारे गीत रिकॉर्ड करवाए गए। जिसमें मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर, महेन्‍द्र कपूर , मन्‍ना डे जैसे बड़े गायकों से गवाया गया। बाद में यह गीत काफी हिट हुए। पैसे की कमी थी इसीलिए सेट में शूटिंग नहीं की जा सकती थी। उन्होंने पूरी फिल्म की शूटिंग के लिए छत्तीसगढ़ के ही पलारी गांव का चयन किया । नवंबर दिसंबर ठंड के महीने में उन्होंने इसकी शूटिंग पूरी की। महीनों मुंबई के टेक्नीशियन कलाकार पलारी में जमे रहे।

यहां पर मनु नायक एक फिल्म निर्माता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वह सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्म का निर्माण नहीं करते हैं। बल्कि समानांतर सिनेमा की तरह वह समाज की सच्चाई जातिवाद छुआ छूत को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म के माध्यम से वे सागर सरहदी, श्याम बेनेगल, बसु भट्टाचार्य जैसे बड़े निर्देशकों की सूची में जगह बना लेते हैं।

फिल्‍म को लेकर विवाद

वे बताते हैं कि जब 1965 में फिल्म कहि देबे संदेश रिलीज हुई तो कुछ कट्टरपंथियो को फिल्म के कथानक को लेकर आपत्ति हुई। वे फिल्म को बैन करने की मांग करने लगते है। फिल्म रिलीज होने से पहले काफी चर्चित हो चुकी होती है। मनु नायक इस फिल्म को टैक्स फ्री करवाने लिए एड़ी चोटी एक कर देते हैं। फिल्म टैक्स फ्री होते ही बैन करने का विवाद समाप्त हो जाता है। इस फिल्म को जनता का बहुत प्यार मिला। समीक्षकों और लेखकों द्वारा इसे काफी सराहा गया। क्योंकि यह छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म थी । यह माना जाता है कि यह फिल्म तकनीकी दृष्टिकोण से कमजोर होगी। लेकिन जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो पाते है कि उस जमाने की उच्च तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थी। बेजोड़ संगीत, मजबूत पटकथा, सधे हुए निर्देशन के आधार पर यह एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित होती है।भले ही यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट है । लेकिन दर्शकों पर पूरा प्रभाव छोड़ती है।

86 वर्षिय मनु नायक कहते हैं कि इस फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट उनके पास नहीं है। जो प्रिंट यूट्यूब पर अपलोड की गई है उसकी क्वालिटी बेहद खराब है । वह इसकी प्रिंट को लेकर चिंतित है। यह कोशिश की जानी चाहिए कि छत्तीसगढ़ी भाषा में पहली फिल्म की ओरिजिनल प्रिंट प्राप्त की जाए और उसका डिजिटलाइजेशन करके छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों में दिखाई जाए। ताकि लोगो को फूहड़ फिल्मों से मुक्ति मिल सके और स्थानीय कलाकारों को मार्गदर्शन। तब कहीं जाकर मनु नायक का सही सम्मान हो सकेगा। यह तारीफें काबिल है कि उन्हें सरकार के द्वारा किशोर साहू सम्मान दिया गया लेकिन उनका कद इस सम्मान से भी कहीं ऊंचा है। हिंदी फिल्म दुनिया में छत्तीसगढ़ के तीन कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। (किशोर साहू, हबीब तनवीर) उनमें से एक मनु नायक भी हैं। उनकी विलक्षण प्रतिभा को एक सलाम तो बनता है।


In the age of silence, who is the supporter of fascism and how?

चुप्पीयुग में, फासीवाद के समर्थक कौन और कैसे?

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(जन संस्कृति मंच के 16वें राष्ट्रीय सम्मेलन में पढ़ा गया भाषण)
डॉ. भीमराव आम्बेडकर भारत में गैरबराबरी के दो कारण मानते थे
एक मनुवाद तो दूसरा पूंजीवाद। यही दोनों जब सत्ता पक्ष में काबिज़ होकर मनमानी पर उतर आए तो उसे फासीवाद कहना ही उचित हैं। मनुवाद जिसमें वर्णव्यवस्था के आधार पर समाज को जातियों के आधार पर चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) में बांटा गया। जो मेहनती पेशे जैसे- किसानी और मजदूरी के काम धंधे से जुड़े मूलनिवासी कहे जाते थे उनको सबसे निचले तबके में रखकर उनका जातिगत उत्पीड़न सदियों-सदियों किया जाता रहा। दूसरा फासीवाद (फ़ासिज़्म) जिसकी पृष्ठभूमि इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन रही जो मार्च 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़" से ग्रहण किए गए। जो पूरी दुनिया में पूंजी के बल पर अधिनायकवाद से पूरे तंत्र को अपनी जकड़न में समेटकर अपना सपना बुनता है। व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए मीडिया और धर्म गुरुओं को ऊंचे दामों पर खरीदकर सत्ता के विजयगान और जातियों का गौरवगान उन्माद के स्तर पर गाया जाता है। इसके इतर सब देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं और इसी आधार पर चलता है सत्ता का दमनचक्र।

इसके जरिए एक तो सरकारी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना है, दूसरा धर्म-जातिभेद आधारित नीति को जिसके परिणाम स्वरूप निचले तबके का दोहरा शोषण कर लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में कर लेता है। इसको हमने 2014 से कलबुर्गी, पंसारे और गौरी लंकेश की निर्मम  हत्याओं के रूप में देखना शुरू कर दिया था जब अवॉर्ड वापसी का दौर चल रहा था ठीक उसी समय कुछ लोग इस अवसर की 'आपदा में अवसर' की तर्ज़ पर सम्मान प्राप्त करने में लगे हुए थे। उनकी पहचान न कर हम उन्हें बधाईयां देने उतर गए थे। 

ये कांवड़ को ढोने वाली उन्मादी भीड़ कभी नहीं समझ पायेंगी अपनी मानसिक गुलामी का कारण, ये भागीदारी के दावेदार बस अपने लिए आर्थिक सुरक्षा की दीवार चाहते हैं जो किसी भी कीमत पर क्यों न मिले। देश, समाज और लोकतंत्र के लिए वोट इनके लिए समझौतों का एक पड़ाव भर है, संविधान में दिए गए समता, बंधुता और न्याय से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। ये वही लोग हैं जो हर युग में अवसर तलाशते रहे हैं। बलात्कार और हत्या इनके लिए किसी लॉटरी से कम नहीं है। इन्हें न्याय और स्वाभिमान से कुछ लेना-देना नहीं। पूंजी इनके सब तालों की चाबी बन गई है। ऐसे ही नहीं कोई गुलामी की देहरी पर बैठता। इसके पीछे यही मानसिकता काम करती है। इन्हें अपनी कीमत के आगे झुकना आता है और अवसर के आगे लपलपाना भी। इन्हें गुलामी के लिए लंबा जीवन चाहिए, स्वाभिमान इनके चरित्र पर फबता नहीं। यही हैं फासीवाद को पोसने वाले लोग, यही तो हथियार हैं सत्ता के हाथों में। इन्हें बस अपनी चुप्पी की कीमत चाहिए। ये सदियों तक मौन साधने के आदि हैं। यही फासीवाद की असल ताक़त है। इनके आंदोलन पूंजी की पोटली के नीचे दबकर दम तोड़ते आए हैं। इन्होंने ही फासीवाद के खिलाफ़ जूझने वालों को नागनाथ और सांपनाथ की संज्ञा देकर, जाति के बल पर जनांदोलन को कुचला है। इन्हें बेरोजगारी, महंगाई और अन्याय में रतिभर भी रुचि नहीं लेकिन बातें इन्हीं की करते दिखाई पड़ेंगे ताकि बहुजनों को झांसे में लिया जा सके। यह इनकी, बकरी दिखाकर सिंह पछाड़ने की पुरानी तरकीब है। हमने हाथी को गणेश में तब्दील होते हुए भी देखा है, यही नव ब्राह्मणवाद को जन्म देने वाली मानसिकता है। हमें इस असल दुश्मन की ओर अपनी तर्जनी को कसकर उठाने की ज़रूरत है। ये समय खुलकर बोलने का है लिहाज़ इन पर पर्दा डालने का काम करता है।

फासीवाद जिसमें एक रंग, एक धर्म और एक व्यक्ति के सिद्धांत का डंका पीटा जाता है विविधता का यहां कोई स्थान नहीं, लोकमत व हितों की कोई गुंजाइश नहीं, अभिव्यक्ति जहां देशद्रोह कहकर लताड़ी जाती है, भ्रष्टाचार जहां का मूलव्यवहार है, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जहां सिर्फ राजनीति के हंटर से हांके जाते हों, सच को जहां साम, दाम, दण्ड, भेद से नियंत्रित किया जाता हों, जहां धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर, मनुष्यता को दाव पर लगाकर, झूठ का प्रत्यारोपण किया जाता हो, रोजगार जहां सत्ता स्तुति का गान बन जाता हो, लालच और अवसर जहां चाटुकारिता को बढ़ावा देती हो, योग्यता जहां अपराध बना दी जाती हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज फासीवाद को दलितों के कंधों पर ढोया जा रहा है और दलित नेता इसको आपदा में अवसर की तरह लेकर चुप्पी साधे सबकुछ होते देख रहें हैं। पूंजी उनका ध्येय बन चुका है जिसके आधार पर वे बराबरी की कल्पना कर रहे हैं। जो आर्थिक आज़ादी के उलट महत्वकांक्षाओं की रस्सी पर चल रही है। यह आगे निकलने की होड़, समझौतों के बाज़ार में सरेआम बिकाऊ बनकर अपनी कीमत लगा रहे हैं। जब हाथरस की घटना हुई वे चुप रहे, लखिमपुर खीरी की घटनाओं पर वे चुप रहे, अल्पसंख्यकों पर ढाए गए अत्याचारों पर वे चुप रहे, वे चुप रहे संविधान की अवहेलना होने पर भी। इसके बदले में फासीवादी सत्ता की राह में फूल बरसाते रहे। उन्होंने मनुवाद के परशु को भी अपने हाथ में उठाया, उन्होंने सत्ता की चाभी के हासिल में आंबेडकरी सिद्धांतों को पीकदान दिखाए और जो जागे हुए हैं उनके पथ जेलों तक प्रशस्त करने में चुप्पी से समर्थन किया, उसके समर्थन को कमज़ोर व मनोबल को जातिगत समीकरण से प्रभावित किया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के समय में भी ऐसे अवसरवादी उन्हें यह कहकर छोड़कर भाग खड़े हुए थे कि ब्राह्मणों का साथ हमें नागवारा है। लेकिन बाबा साहब ने ऐसे लोगों की परवाह नहीं की और वे अपने अभियान में शामिल हुए सभी साथियों का स्वागत किया और अपने आंदोलनों को आगे बढ़ाते रहे। यही नहीं उन्होंने अंतर्जातीय विवाह कर यह साबित भी किया था। 

अभी हाल ही में साल भर किसान आंदोलन के चलते लगभग 800 किसानों की शहादत हुई, सरकार उन्हें खालिस्तानी, आतंकी और आंदोलनजीवी कहती रही, कोरोना के दौरान गंगा में लाशें तैरती रही सरकार निष्क्रिय रही। आंकड़े प्रस्तुत करने में हलक सूक गए थे। जामिया, जेएनयू, एएमयू के छात्रों को बेरहमी से पीटा गया, ये हमारे से छुपी हुई घटनाएं नहीं है। शहीनबाग के आंदोलन को भाड़े पर चलाया गया साबित करने की कोशिश भी हम देख चुके हैं। दलितों की निष्क्रियता बता रही है कि आरएसएस और भाजपा दलित नेताओं और  बुद्धिजीवियों को  साधने में कामयाब हो गई है। क्योंकि अब लोग हाथरस की घटना को भी भुलाकर पद प्रतिष्ठा के मद में चूर होकर झूम रहे हैं। जिस सरकार ने दलित समाज की बेटी मनीषा की लाश तक परिवार को अंतिम संस्कार के लिए नहीं दी गई आज उन्हीं के गुणगान में सोशल मीडिया में यही समाज उनके साथ मिलकर आज़ादी का अमृत महोउत्सव मना रहे हैं।

समझना होगा कि दलित और मुसलमान इस देश में क्यों इन पिछले आठ सालों में अनापेक्षित करार देकर इसलिए सड़कों पर मारे दिए जा रहे हैं या जेलों में भर दिए जा रहे हैं क्योंकि वे यह दावा कर रहे हैं कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें भी अभिव्यक्ति का अधिकार है वरना गौतम नौलखा, सिद्धीकी कप्पन, हन्नी बाबू, साजिद गुल, शरजील ईमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, मरीन हैदर, सैबाबा, उमर खालिद और आनंद तेलतुमड़े जैसे अनेक मुखर नागरिकों को जेल नहीं भेजा गया होता। दलित-मुस्लिम एकता और जनांदोलन से जुड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा। उनके खिलाफ न्याय धार्मिक उन्मादी भीड़ और पुलिस के हाथों का हथकंडा बन गया। दूसरी तरफ नुपुर शर्मा अभी भी क्यों कानून की गिरफ्त में नहीं आ पाई? मुस्लिमों के खिलाफ दलितों को लगातार हिंदू होने पर गर्व करवाया जा रहा है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि दलितों के प्रतिनिधि भी आंबेडकर की लीक से हट गए हैं। और अपनी महत्वकाक्षाओं के आगे नतमस्तक होकर संविधान की उद्देशिका की धज्जियां उड़ते हुए देख रहे हैं। संविधान के साथ खिलवाड़ देश का हर एक नागरिक देख रहा है और सवाल पूछ रहा है कि क्या एक गांधी - आंबेडकर का भारत है? क्यों आज आज़ादी के 75 सालों बाद भी जाति-धर्म का उन्माद बलबलाता दिखाई पड़ रहा हैं यह लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगा है।



- हीरालाल राजस्थानी
  संरक्षक, दलित लेखक संघ (दिल्ली)
  07 अक्टूबर 2022

Indigenous Agriculture History of Diwali

 

दीवाली का कृषि‍ मूलनिवासी इतिहास

संजीव खुदशाह

अब तक दुनिया में जितने भी त्यौहार हुये है उनका जन्म उनके स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहा है। चाहे आप यूरोप के क्रिसमस की बात करे या अरब के ईद की या फिर भारत के किसी भी पारंपरिक त्यौहार की बात करे सभी स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहे है। भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में दीवाली का प्रमुख स्थान रहा ।

दीवाली के किड़े

1978 के दौरान जब मेरी उम्र 5 साल की थी तब दीवाली के दिन अपने पिता से प्रश्न कर बैठा "यह दीपावली त्यौहार क्यों मनाते हैं?" मुझे याद है पिता ने सहज रूप से इसका जवाब दिया "बेटा दीवाली के आसपास धान की फसल या तो पकने की होती है या पक जाती है। इस समय यह दीवाली के कीड़े[1] जिससे माहूर भी कहते हैं। धान की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दीप जलाने का फैसला किया। ताकि ज्यादा से ज्यादा कीड़े मारे जाएं और धान की फसल को कीड़े से बचाया जा सके। इसीलिए दीवाली मनाई जाती है।" ये जानकारी उन्हें कहां से मिली ये मालूम नहीं लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से ये बात कही। दरअसल ज्यादातर त्यौहार पूर्णिमा में मनाए जाते हैं लेकिन दीवाली ही एक ऐसा त्यौहार है जो कि अमावस में मनाया जाता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि ज्यादा से ज्यादा कीट दिए तक आकर्षित किए जा सके। यह तभी होगा जब रात अंधेरी होगी।

मुझे याद है जब उस समय हमारे घरों में दीवाली मनाई जाती थी। तब लाई बताशो के सामने दीप जलाकर तथा धान की झालर[2] से घर सजा कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम वनवास से लौटने की कथा से अनभिज्ञ थे। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान के खेतों से घिरा हुआ था। आसपास धान की खेती के कारण दीवाली के समय धान के कीड़े जीना मुहाल कर देते थे। दिन भर तो ठीक रहता। लेकिन जैसे ही शाम ढलती, यह कीड़े उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। यह पके हुए खानों में गिरते । काफी परेशानी होती इन कीड़ों से। हम इसे दीवाली के कीड़े कहा करते थे। ये बताना यहां पर महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ में दीवाली त्योहार को देवारी नाम से संबोधित किया जाता है।

मेरा बाल मन यही समझता था कि यह कीड़े भी दीवाली मनाने आते हैं या लोगों को याद दिलाने आते हैं कि अब दीवाली मनाने का वक्त आ गया है। धान की खेती से इसका कोई संबंध है यह बात बाद में समझ में आई। छत्तीसगढ़ के गांव में दीवाली का उत्सव मनाया जाता है । इसमें आज भी लाई बताशे एवं स्थानीय पकवान की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती। धर आंगन को गोबर, छूई[3] एवं गेरु[4] से लीपा पोता जाता है। वे आज भी लक्ष्मी पूजा या राम वनवास की कथा से परिचित नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि दीवाली समेत ज्यादातर त्यौहार कृषि एवं उसकी परंपरा पर आधारित है। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने मनगढ़ंत कहानियां रच कर इन त्योहारों को धर्म से जोड़ दिया।

 हमारे देश में दशहरा त्यौहार खरीफ फसल की बुवाई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा कार्यक्रम में राम रावण का नामो-निशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत के दशहरे में लोग राम रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं वह भी राम रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं। यानी दशहरे का  त्यौहार कृषि आधारित है ना कि धर्म पर आधारित, यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे। इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू बौद्ध जैन धर्म के लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रवि फसल की बुवाई के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है। इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है।

यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था। उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मुहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है। भारत में रवि फसल की खुशी में होली मनाई जाती है। लेकिन धार्मिक लोगों ने इन प्राकृतिक त्यौहारों को अपना बताने लगे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। इन्हीं त्यौहारों के बहाने तत्कालीन विरोधियों को भी निशाना बनाया गया। जैसे रावण, होलिका, बली राजा आदि आदि।

जानिये अन्य राज्यों में दिवाली का त्यौहार कैसे मनाया जाता है?

गुजरात- गुजरात में नमक व्यवसाय अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है इसलिए वहां के कृषक नमक को साक्षात धन का प्रतीक मानकर दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है।

राजस्थान- में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात धन का आगमन माना जाता है।

उत्तरांचल- के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं

हिमाचल- प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।

मध्य प्रदेश- मध्‍यप्रदेश के बघेलखण्‍ड क्षेत्र में इस दिन खास तौर पर लाई बताशे के साथ ग्‍वालन की पूजा की जाती थी। इसी प्रकार मालवा क्षेत्र के मुस्लिम दीवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते है । इस अंचल में मुस्लिम समाज द्वारा दीपावली पर्व मनाए जाने की परम्परा आज भी कायम है।

उड़ीसा - उड़ीसा निवासी सुधांशु हरपाल कहते हैं कि उड़ीसा के ग्रामीण अंचल में दिवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता ना ही इस प्रकार के किसी त्योहार मनाने की परंपरा है। लेकिन यहां पर एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके आसपास मनाया जाता है। जिसका नाम नुआखाई है । इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने के हिसाब से अलग-अलग होता है।

आइए अब जाने की कोशिश करते हैं कि इस भारत के इंडिजिनियस आदि त्यौहार को या मूल निवासी त्यौहार को मनाने के लिए विभिन्न धर्म क्या दावे करते हैं?

हिंदू धर्म- इस धर्म में यह दावा किया जाता है कि राम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात इसी दिन अयोध्या लौटे थे । इसीलिए अयोध्या वासी दीपों से उनका स्वागत किया। गौर तलब है की वाल्मीकि रामायण एवं तुलसी रचित रामचरित मानस में ऐसे किसी त्यौहार का जिक्र नहीं मिलता है। उसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि समुद्र मंथन पश्चात इस दिन लक्ष्मी और कुबेर प्रकट हुए थे । इसीलिए यह त्यौहार मनाया जाता है। इसी प्रकार कृष्ण से जुड़ी भी कई कथाएं इस त्यौहार की पीछे जोड़ी जाती है। वेदों और पुराणों में इस तरह के त्यौहार का कोई जिक्र नहीं है।

बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म के अनुयाई द्वारा भी दावा किया जाता है कि यह त्यौहार बौद्धों का है। भगवान बुध ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद इसी दिन अपने निवास कपिल वस्तु गए थे। इसलिए लोगों ने उनका दीपों से स्वागत किया था। यह दावा भी किया जाता है कि इसी दिन सम्राट अशोक ने 84000 स्तूपों में दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था। एक बौद्ध विद्वान का दावा है कि जिस प्रकार वैदिको[5] ने उनके याने बौद्धों के बौद्ध विहार को मंदिर एवं बुध मूर्तियों को देवी देवताओं में बदल दिया। इसी प्रकार इस बौद्ध त्यौहार को काल्पनिक कहानियों के सहारे हिंदू त्यौहार में बदल दिया गया। जबकि दीप और दीप जलाने की परंपरा बौद्धों ने शुरू की है। ‘’अप्पो दीपो भव’’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो की बात सबसे पहले  भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई थी।

जैन धर्म- जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के साथ जो अंतर ज्योति सदा के लिए बुझ गई । उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक में दीप जलाए गए और दीपावली की परंपरा शुरू हुई।

सिख धर्म- सिख धर्म के अनुयायियों का दावा है कि इसी दिन 1618 को सिखों के छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। इस खुशी में सिख समुदाय प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली को मनाते हैं।

मुस्लिम धर्म- जैसा कि पूर्व में बताया गया है। मध्य प्रदेश के मालवा के मुस्लिम इस त्यौहार को जश्ने चिराग के रूप में मनाते हैं। ऐसी जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह भी अपने महलों में इस त्यौहार को शान से मनाते थे और किलों में रोशनी की जाती थी।

अब प्रश्‍न ये उठता है कि ऐसा क्या कारण है कि दीवाली त्यौहार पर लगभग सभी स्थानीय धर्मों द्वारा अपना दावा पेश किया जाता है?

इसका कारण यह है कि दीपावली या दीवाली एक आदि या भारत के मूल वासियों का कृषि आधारित त्यौहार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मानव जीवन किसी त्यौहार के बिना अकल्पनीय है। यह खरीफ फसल पकने की खुशी का त्यौहार है इसे बड़े पैमाने मे तब से मनाया जाता रहा होगा जब से इन धर्मों का  अस्तित्व नहीं था। हम यह कह सकते है कि दीवाली जैसे त्यौहार का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना कृषि का इतिहास। भारत में पनपे किसी भी धर्म के लिए बहुत कठिन रहा होगा की वे इन परंपरागत त्यौहारों को नजरंदाज कर दे। इसलिए सभी धर्मों ने दीवाली पर अपना-अपना दावा पेश किया। वैसे भी धर्म के प्रचार के लिए ये परंपरागत त्यौहार बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आसान जरिया होते है।



[1] एक खास प्रकार के हरे रंग के कीट पतंगे जो धान की बालियों के आकार के होते है।

[2] धान से बनी हुई कलात्मक झालर जिसे स्थानीय भाषा में चिरई चुगनी भी कहा जाता है।

[3] एक प्रकार की मिट्टी जो सफेद रंग की होती है।

[4] एक प्रकार की मिट्टी जो लाल रंग की होती है।

[5] हिन्‍दूओं या ब्राहणो

फिर इतना इठलाना किस बात का (कविता)

फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।
संजीव खुदशाह

यही ना वे तुम्हारी तरह अपनी नस्लों पर घमंड नहीं करते।
यही ना तुम्हारी तरह वे दूसरों की नस्ल पर नाक भौव नहीं सिकोड़ते।
कई जंतुओं को खत्म कर दिया तुमने, याद होगा तुम्हें।
कई जंगलों को कंक्रीट में बदल दिया, याद होगा तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।


यही न वे तुम्हारी तरह ऊंच-नीच, भेदभाव को नहीं करते।
तुम्हारी तरह अपनी मादाओं पर अत्याचार करना नहीं जानते।
इंसान-इंसान में नफरत करते हुये, शर्म नहीं आई होगी तुम्हें।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों को अपने से कमतर बताना किस बात का।

यही ना की वे तुम्हारी तरह भूत और भगवान को नहीं मानते
यही ना वे तुम्हारी तरह किसी अंधविश्वास और पाखंड को नहीं मानते.
नहीं बांटते अपनों को किसी ईश्वर के नाम पर।
नहीं चढ़ाते अपनों के बली किसी अंधविश्वास के नाम पर।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।


यही ना वह तुम्हारी तरह अपने बच्चों को पालने का एहसान नहीं बताते।
जन्म देने के एवज में खुद को नहीं पूजवाते।
तुम्हारी तरह अपने बच्चों को बुढ़ापे की लाठी नहीं बताते
परजीवी बन कर उनके अरमानों का गला नहीं घोटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

यही ना वे तुम्हारी तरह धन-संपत्ति का पहाड़ नहीं बनाते हैं।
यही ना उनके बीच नहीं होती, कोई लड़ाई जमीन जायदाद की।

पेड़ों को काटकर, वे पर्यावरण बचाने का ढोंग नहीं करते।

नदी तालाबों को पाटकर, जल पुरुष होने का ढोल नहीं पीटते।
फिर इतना इठलाना किस बात का।
सभी जीवों में अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाना किस बात का।

Publish on Navbharat 2/10/2022

There is better employment opportunities for the youth in the field of journalism

पत्रकारिता के क्षेत्र में युवाओं के लिए है, रोजगार के बेहतर अवसर

डॉक्टर धनेश जोशी
12 वीं के बाद छात्रों में अपने भविष्य को लेकर उत्सुकता रहती है कि स्नातक के लिए कौन सा कोर्स चुने जिसमें
नौकरी के ढेर अवसर हो तथा अपना खुद का व्यवसाय करने के भी मौके हो ऐसा कैरियर जिसमें भविष्य में अच्छी आय पद व प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो तथा समाज के लिए कुछ सकारात्मक कार्य किए जा सके.अगर अपने जीवन में कैरियर के साथ देश के विकास में भी अपना योगदान देना चाहते हैं तो आपके लिए पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों में कई ऑप्शंस यह कोर्सेज पूरी तरह से व्यवसायिक कोर्सेज होते हैं इनमें सिखाई गई व्यवसायिक विधाओं को सीखकर निपुण होने वाले छात्रों को नौकरी मिलने की पूरी संभावनाएं होती हैं तथा निपुण विद्यार्थी अगर चाहे तो अपना खुद का व्यवसाय भी कर सकते हैं और दूसरों को नौकरी भी दे सकते हैं इस प्रकार वे देश के आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं 


पत्रकारिता एवं जनसंचार के कोर्स के अंतर्गत मुख्यतः सिखाई जाने वाली 
विधाएं हैं-

• प्रिंट मीडिया न्यूज़पेपर एवं मैगजीन ( NEWS PAPER & MAGZINE)
• इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेडियो और टेलीविजन (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION)
• पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION)
• डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING)
• मल्टीमीडिया ग्राफिक डिजाइनिंग एंड एनिमेशन(MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION)

1. प्रिंट मीडिया (NEWS PAPER & MAGZINE) न्यूजपेपर एंड मैगजीन से संबंधित कोर्सेज करने के बाद छात्रों को रिपोर्टर सब एडिटर कैमरामैन कंटेंट राइटर, प्रूफरीडर इत्यादि की जॉब आसानी से मिल जाती है इसके अलावा अगर आपके पास पैसा है और इच्छाशक्ति है तो आप अपने से खुद का मीडिया पब्लिशिंग हाउस भी शुरू कर सकते हैं और दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

2. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (रेडियो एंड टेलीविजन) (ELECTRONIC MEDIA RADIO & TELEVISION) से रिलेटेड कोर्सेज करने के बाद छात्रों को टीवी चैनल एंड रेडियो स्टेशंस में रेडियो एनाउंसर, एंकर, रिपोर्टर, एडिटर, प्रोग्राम प्रोड्यूसर, न्यूजरूम मैनेजर, स्टूडियो इंचार्ज, फोटोग्राफर, वीडियोग्राफर, रेडियो जॉकी इत्यादि की अच्छी जॉब मिल जाती है. अगर आप कुछ बड़ा करना चाहते हैं, और आपके पास प्रोफेशनल्स की एक टीम है और पर्याप्त पैसा है तो आप अपने खुद का टीवी चैनल (यूट्यूब चैनल) या कम्युनिटी रेडियो शुरू करके दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

3. पब्लिक रिलेशंस एंड कॉरपोरेट कम्युनिकेशन (PUBLIC RELATIONS & CORPORATE COMMUNICATION) जनसंचार का एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी कार्पोरेट सेक्टर में बहुत अधिक मांग है. लगभग हर बड़ी कंपनी में पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट या एक जनसंपर्क अधिकारी होता है. जो ऑर्गेनाइजेशन की इमेज बिल्डिंग और कॉरपोरेट कम्युनिकेशन को हैंडल करता है। कार्पोरेट्स अपने स्टॉक होल्डर्स के बीच अपनी पॉजिटिव इमेज बनाने एवं सकारात्मक संचार करने के लिए विभिन्न योजनाएं एवं कैंपेन चलाते हैं इसमें पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एडवरटाइजिंग कैंपेन्स कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत चलने वाली परियोजनाएं सरकारी एवं गैर सरकारी समूहों के साथ संवाद स्थापित करके समाज में अपनी सकारात्मक इमेज को प्रमोट करना करना आदि शामिल है. इस क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध है और स्टार्टअप के इच्छुक छात्रों के लिए खुद के व्यवसाय का एक बेहतरीन मौका है. जहां वे अपने साथ-साथ दूसरों को भी नौकरी दे सकते हैं. 

4. डिजिटल फिल्म मेकिंग (DIGITAL FILM MAKING) इंटरनेट की बढ़ती उपलब्धता एवं स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के चलते आजकल यूट्यूबर्स की मांग तेजी से बढ़ी है. यूट्यूब पर क्वालिटी कंटेंट उपलब्ध ना होने के कारण इन दिनों डिजिटल फिल्म मेकिंग का बहुत अधिक स्कोप है. डिजिटल फिल्म मेकिंग को पैसे कमा सकते हैं बल्कि खुद को डिजिटल वर्ल्ड में एक्सपर्ट के रूप में स्थापित कर सकते हैं इस इंडस्ट्री में कैमरामैन, फिल्म डायरेक्टर, वीडियो एडिटर, साउंड रिकॉर्डिस्ट, मार्केटिंग प्रोफेशनल इत्यादि की बहुत मांग है. 

5. मल्टीमीडिया ग्राफिक्स एंड एनीमेशन (MULTI MEDIA GRAPHICS & ANIMATION) किसी भी कंटेंट को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए आजकल मल्टीमीडिया ग्राफिक एंड एनीमेशंस का इस्तेमाल बहुत होने लगा है. विशेषकर न्यूज़ एजुकेशन म्यूजिक एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में मल्टीमीडिया एंड ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन के विशेषज्ञों की अत्यधिक मांग है. एनीमेटेड मूवीज, कार्टून फिल्म एंड वीडियोज की बढ़ती मांग की वजह से मल्टीमीडिया ग्रैफिक्स एंड एनीमेशन प्रोफेशनल्स की जबर्दस्त डिमांड है.  

6. डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट (DIGITAL MEDIA MANAGEMENT) इंटरनेट की उपलब्धता और डिजिटल टेक्नोलॉजी में होने वाले नित नए अविष्कारों ने संचार की दुनिया में कई क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं जिसकी वजह से डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट में रोज नए अवसर पैदा हो रहे हैं. जनसंचार के माध्यम अब डिजिटल प्लेटफार्म फेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर, लिंकेडीन, व्हाट्सएप पर उपलब्ध होने की वजह से इस क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों की मांग बहुत बढ़ गई है. इसके अतिरिक्त आजकल सभी ऑर्गेनाइजेशन/बिजनेस हाउस की अपनी वेबसाइट होती है. जिसके लिए डिजिटल मीडिया मैनेजर की सेवाएं लेते हैं. अपना खुद का कारोबार करने के इच्छुक छात्रों के लिए क्षेत्र में अपने व्यवसाय करने के अवसर मौजूद हैं. 

जरूरी योग्यता

मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री के लिए न्यूनतम योग्यता 12वीं अथवा पोस्ट ग्रैजुएट पाठ्यक्रम के लिए पत्रकारिता में स्नातक होना चाहिए। कुछ संस्थानों में पत्रकारिता में एक वर्षीय प्रमाण-पत्र पाठ्यक्रम संचालित किए जाते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए जर्नलिज्म और मास कम्यूनिकेशन में बैचलर डिग्री और पोस्ट ग्रैजुएट डिग्री जरूरी है। लेकिन विशेष प्रशिक्षण या फील्डवर्क और इंटर्नशिप से इस क्षेत्र में बेहतर अवसर बनाए जा सकते हैं।

शुरुआती वेतन और मौका

मास कम्यूनिकेशन में प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद शुरुआती वेतन के तौर पर 12,000 से 25,000 रुपए प्रतिमाह कमाए जा सकते हैं। पांच साल के अनुभव के बाद यह स्तर 50,000 से 1,00,000 रुपए तक पहुंच जाता है। 

         डॉ. धनेश जोशी
         विभागाध्यक्ष 
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई 
   मो. 9425211714

Rakshabandhan and the truth behind it?

रक्षाबंधन और उसके पीछे का सच?

संजीव खुदशाह

पूरे विश्व में भारत को छोड़कर भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता है। क्योंकि रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है। विदेशों में फ्रेंडशिप डे दोस्ती दिवस जैसे बराबरी वाले त्यौहार जरूर मनाए जाते हैं। 
क्यों रक्षाबंधन एक भेदभाव बढ़ाने वाला त्यौहार है 

भाई का बहन की रक्षा का व्रत लेने का मतलब होता है कि बहन कमजोर है और भाई मजबूत है। क्या बहन सचमुच इतनी कमजोर है कि उसे अपनी रक्षा के लिए भाई का मुंह ताकना पड़े? क्या बहन इतनी मजबूत नहीं बनाई जा सकती कि वह भाई का रक्षा कर सकें। इसे भाई-बहन के मोहब्बत का त्यौहार है ऐसा सामंतवादी मीडिया दिखाने की कोशिश करता है। लेकिन यहां पर भाई-बहन के प्यार से कोई वास्ता नहीं है। यही बहन भाई से अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हक चाहती है तो भाई उसका दुश्मन हो जाता है। 

इस त्यौहार के बहाने बहुत ही सस्ते में निपटाया जाता है बहनों को। 

रक्षाबंधन के त्यौहार में बहनों को साड़ी कपड़ा या हजार रुपए देकर बहुत ही आसानी से भाइयों के द्वारा बहनों को निपटाया जाता है। अगर यही बहन अपने पिता अपने पूर्वजों की संपत्ति में हक मांगती है। भाई के बराबर अधिकार मांगती है। यही भाई उसे रक्षाबंधन में गालियां बकता है । उसे अपने घर में घुसने नहीं देता है। यह भारत की कड़वी सच्चाई है। लाखों प्रकरण न्यायालय में लंबित है जहां बहने अपने भाइयों से अधिकार मांग रही है और भाई देना नहीं चाहता। 

इस त्यौहार के मूल में क्या है ? कहां से हुआ इस त्यौहार शुरू? इसकी शुरुआत कब हुई? 

रक्षाबंधन बिल्कुल नया त्यौहार है। बमुश्किल 70-80 साल हुए होंगे इस त्यौहार को शुरू हुए। इससे पहले इसी दिन ब्राह्मण अपने जजमानो को रक्षा सूत्र बांधा करते थे। जिसमें बहनों का कोई रोल नहीं होता था। खासतौर पर ब्राह्मण क्षत्रियों एवं वैश्यो को या फिर राजाओं को रक्षा सूत्र बांधकर अपनी रक्षा करने का शपथ लेते थे। और उसके एवज में दान प्राप्त करते थे। आज भी ब्राह्मण इस त्यौहार में लोगों को रक्षा सूत्र बांधते हुए देखे जाते हैं।
ब्राह्मण रक्षा सूत्र बांधते समय इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः | 
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल ||
इसका अर्थ होता है जिस तरह मैं तुम्हारे महान पराक्रमी दानव राजा बलि को इस सूत्र के माध्यम से बांध रहा हूं इसी प्रकार में तुम्हें भी मैं इस सूत्र से बांध रहा हूं मेरी रक्षा करना। 

अब बताइए रक्षाबंधन के दिन पढ़े जाने वाले इस सूत्र इस मंत्र का भाई बहनों से क्या ताल्लुक है। शुरू से रक्षाबंधन के इस त्यौहार का बौद्धिक लोगों ने विरोध करना प्रारंभ किया और इस पर अपने तर्क दिए इन तर्कों से बचने के लिए ब्राह्मणों ने कई और पुराने संदर्भ देने की कोशिश की। 

कृष्ण-द्रौपदी की कथा का प्रचार इसीलिए किया गया।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून की धार बह निकली। यह सब द्रौपदी से नहीं देखा गया और उसने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में बांध दिया फलस्वरूप खून बहना बंद हो गया।  

कुछ समय पश्चात जब दुःशासन ने द्रौपदी की चीरहरण किया तब श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर इस बंधन का उपकार चुकाया। 

इसे रक्षाबंधन से जोड़ का प्रचारित किया जाता है। जबकि आप ही बताइए कि इसमें भाई बहन का रक्षाबंधन जैसा क्या है?
इस त्यौहार को प्रचारित करने में सबसे बड़ा योगदान फिल्मों का है। शुरुआत में फिल्में इस त्यौहार को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाती है। बाद में टीवी सीरियल इस पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

महाबली की हत्या का है यह त्यौहार
ऐसा माना जाता है कि रक्षाबंधन बहुजनों दानवों द्रविड़ो के राजा महाबली को आर्यों द्वारा पराजित किया गया था। उसी खुशी में यह त्यौहार प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के रूप में ब्राह्मणों द्वारा मनाया जाता है। जिसमें बड़ी संख्या में दलित बहुजन भी शामिल होते हैं जिनका राजा महाबली बताया जाता है।

रक्षाबंधन जैसे त्यौहार की जरूरत क्यों पड़ी?
भारत का सामंती वर्ग ईसाइयों के त्यौहारो से प्रभावित रहा है। ईसाइयों की तरह भारत में कोई भी त्यौहार ऐसा नहीं है जिसे सब मिलकर मनाते हैं। इसके लिए जातिवाद आड़े आती थी। इसीलिए रक्षाबंधन जैसे त्यौहार गढ़े गए। ताकि विदेशियों को यह बताया जा सके कि हमारे भीतर मोहब्बत और प्यार को फैलाने वाला त्यौहार है। रक्षाबंधन इसी कड़ी में प्रचारित किया गया। इस त्यौहार को प्रचारित करने में पूंजीवाद का भी बहुत बड़ा योगदान है।