ई. व्ही. एम. .......! एक विश्लेषण -श्रवण देवरे

ई. व्ही. एम. .......! एक विश्लेषण -श्रवण देवरे

यह आलेख श्री श्रवण देवरेजी ने डी एम ऐ ग्रुप हेतु खास तौर पर भेजा है, वे चाहते है की इसे सिमित लोगो तक पहुचाया जाय. ध्यान रखे ये प्रकाशन हेतु नहीं है. यदि प्रकाशन करना हो तो उनसे यक्तिगत स्तर संपर्क करे.

आजकल ईव्हीएम के बारे मे चर्चा शिखरपर है! यह चर्चा 2004 से ही दबी आवाज मे शुरू हो यी थी! 2009 मे मैने खुद इसपर लिखा भी था और शंका जाहीर भी की थी! मगर 2014 के बाद चर्चा गतिमान हुई और अब 2017 मे यु.पी. चुनाव के बाद मामला सुप्रिम कोर्टतक पहुच रहा है! वोटींग के साथ (VVPAT) पर्ची का भी जिक्र चल रहा है, जो सुप्रिम कोर्ट ने अनिवार्य किया था मगर नही हो रहा है! इसीलिए शक की जगह (अ) विश्वास भी पक्का होता जा रहा है! सभी पार्टीया शक कर रही है, मगर मान्यवर वामन मेश्रामजी की बहुजन मुक्ती पार्टी, केजरीवालकी आप और बहनजी की बसपा के शिवाय काई मैदान मे नही आना चाहता! मगर इनकी बात लोग क्यों माने? क्योंकी इसी मशिन के सहारे यह दोनो पार्टीया यु.पी. और देल्ही दो-दो बार भारी बहुमत से जितके आई थी!
व्होटिंग मशिन के बारेमे ऐसी चर्चा करते हुए एक बात हमे ध्यान से देखनी पडेगी की, जबतक कॉंग्रेस आक्षेप लेकर आगे नही आएगी तबतक कुछ हल ना निकलेगा! क्योंकी 2014 से सबसे ज्यादा मशिन की मार कॉंग्रेस झेल रही है! इसके हाथसे तो पुरा देश छुट रहा है फिरभी कॉंग्रेस एक शब्द भी व्होटींग मशिन के खिलाफ नही बोल रही है! सवाल यह उठाना चाहीए की, अगर मशिन मे गडबडी की जा सकती है तो सबसे ज्यादा मार खानेवाली राष्ट्रीय पार्टी कॉंग्रेस चूप क्यों है?
इस सवाल के बारे मे बादमे सोचेंगे! पहले यह सोचा जाय की, क्या मशिन मे गडबडी की जा सकती है? अगर की जा सकती है, तो यह गडबडी कब होती है? मशिन बनते वक्त? मशिन बनने के बाद? वोटींग सुरू होने से पहले? वोटींग खतम होने के तुरंत बाद और सील करने के पहले? सील होने के बाद रास्ते मे? स्ट्रॉंग रुम मे बंद होने के बाद? स्ट्रॉंग रुमसे गिणती हॉलतक के रास्तेमे? गिणती हॉल मे गिणती शुरू होने से पहले? कब होती है यह गडबडी? अगर मशिन को गलत साबित करना है तो हर उस मुद्देकी चर्चा हमे करनी चाहीए जो खाल खिचकर अंदरतक जाकर कुछ ठोस मुद्दा रख सके!! लेकीन जो चर्चा मै सून और पढ रहा हुं, उसमे एसा कोई मुद्दा सामने नही आया, जो खाल खिंच सके! बस्स! एकही रट लगायी जाती है, मनुवादी लोग, फेकू महाशय, वगैरे वगैरे! ब्राह्मणों को गाली देकर अपने आपको शांत किया जा रहा है! चर्चा कोई नही कर हा है!
दो अपवाद है! एक संजीव खुदशाह साहब और दुसरे दिलीप मंडल साहब! संजीव जी ने विस्तारसे चर्चा करते हुऐ कहा की वोटींग के बाद जब सबके सामने मतलब अलग अलग पार्टी के पोलींग एजंट्स के सामने मशिन सीलबंद की जाती है, तबतक के सफर मे मशिन मे गडबडी नही की जा सकती है! इसी वजहसे संजीव साहब ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा है की, ‘ नही! मशिन मे कोई गडबडी नही की जा सकती! अगर गडबडी है तो उन लोगों के दिमाग मे है, जो मशिनपर शक कर रहे है!’
दिलीप मंडलसाहब ने कहा था की, ‘जिस राज्य के शासन-प्रशासन मे ओबीसी-बीसी का पर्याप्त प्रतिनिधीत्व है, उन राज्यो मे मशिन मे गडबडी नही की सकती!’ उदाहरण के तौर पर उन्होने बिहार राज्य के ऍसेंब्ली चुनाव बताया जहा भाजपा हार गयी और राजद-जेडीयु का महागठबंधन सत्ता मे आया! और उत्तरप्रदेश मे भी यह गडबडी नही हो सकती ऐसी भविष्यवाणी भी उन्होने की थी! मगर यह मुद्दा साबित ना हुआ! क्योंकी 2014 के पार्लमेंट्री इलेक्शन मे बिहार और युपीमे गैर-भाजपाई पुरी तरहसे वॉशआऊट हो गये थे! जैसे 2017 मे युपी असेंब्ली मे भी वॉशआऊट हो गये है! मगर बिहार राज्य के 2015 के चुनाव मे ऐसा क्यों नही हुआ? क्या उसी वक्त शासन-प्रशासन के ओबीसी जागृत हो गये थे? 2014, 2015, 2017 अंतर तो कुछ ज्यादा नही है! तो हल कैसे निकले?
दुसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है की, जो गडबडी की जा सकती है वो मशिन के अंदर या बाहर? अंदर के बारे मे मैने सोचा! 2009 मे मैने खुद ने एक सवाल उठाया था की क्या सॅटिलाईट के माध्यम से इस मशिनके अंदरकी सिस्टीम को प्रभावित किया जा सकता है? 2009 मे मैने कुछ एक्सपर्ट से बात की! उदाहरण के तौर पर मुंबई के ट्रेन की सिग्नल सिस्टीम जो सॅटेलाईट्से कंट्रोल की जा सकती है, ऐसा मैने सुना था! मगर इस सिस्टीम के एक्सपर्ट से पता चला की ऐसा कुछ नही है और एसा हो भी नही सकता! रिमोट कंट्रोल से यह संभव नही! ऑटो-सेन्सेटिव्ह सिस्टीमसे ही सिग्नल काम करते है! अगर सभी मशिन मे कुछ बदलाव करना है, तो बाहरसे किसी रिमोल कंट्रोल से, सॅटेलाईटसे या किसी चिपसे यह संभव नही! अगर मशिन के अंदर जाकर कुछ बदलाव करना है तो वो भी संभव नही, क्यों की ऐसे कितने मशिन के सील आप तोड सकते है? और सील तोडना भी चाहते है तो फिरसे सील करने के लिए इतने लोगोंकी साईन हुबेहुब करने के लिए लगनेवाला टाईम भी तो ज्यादा होता है! स्ट्रॉंग रूममे हेराफेरी के कम चान्सेस है, क्यों की काऊंटिंग के दिन तक कुछ भी हो सकता है! इससे यह बात साफ होती है की, मशिन के अंदर जाकर या बाहरसे अंदरकी सिस्टीम बदली नही जा सकती! तो फिर हल कैसे निकले? एकही मार्ग बाकी रहता है....  और वो है बाहर से बाहरी फेरफार!
अगर दिलीप मंडल साहब और संजीव खुदशाह साहब इन दोनों के मुद्दे एकसाथ लेकर चर्चा की जाय तो हल मिल सकता है! सोल्युशन को हासिल करने का रास्ता इनके मुद्दों से मिल सकता है! संजीव कहते है के वोटींग के बाद सबके सामने सील की गयी मशिन मे कुछ भी गडबडी नही की जा सकती है! मतलब मशिन के निर्माण से लेकर वोटिंग के बाद सील लगने तक कोई गडबडी नही हो सकती! यह बात 16 आने सच है! मगर सील करने के बाद वाहनसे स्ट्रॉंगरुम मे लाया जाता है! जिस गाडी से अनेक मशिन्स स्ट्रॉंग रुममे लायी जाती है, उस गाडी मे सभी बुथके कर्मचारी उपस्थित रहते है और वो कमसेकम 30-35 लोग रहते है! तो वहा भी बाहरसे बाहरी गडबडी या अंदरसे अंदरकी गडबडी संभव नही! स्ट्रॉंग रुममे भी यह गडबडी संभव नही क्योंकी सीसीटिव्ही लगायी जाती है और आय.ए.एस., आय.पी.एस दर्जे की निगराणी भी होती है!! यह बाहरी गडबडी बाहरसे तभी संभव है जब कमसेकम लोग मशिन्स के संपर्क मे हो, कमसेकम वक्त का सफर हो, कोई सीसीटिव्ही भी ना हो! और काऊंटिंग सुरू होने से कुछ समय पहले हो! ताकी जांच-पडताल को कोई टाइम ना मिले! काउंटिंग हॉल मे पहुचने के बाद तो कुछ गडबडी संभव ही नही क्योंकी वहा तो पार्टी एजंट्स और दुसरे लोगोंकी भीड रहती है! गडबडी करने के लिए यह आवश्यक है की, मशिन्स के आसपास कमसे कम लोग हो, सफर का वक्त कमसे कम हो और कोई कॅमेरा भी नही हो! काऊंटिंग सुरू होने से कुछ समय पहले हो! ताकी जांच-पडताल को कोई टाइम ना मिले! ऐसी स्थिती एकही है और वो है... स्ट्रॉंग रुमसे लेकर काऊंटिंग हॉल का रास्ता! यहापर दिलीप मंडल जी का प्रशासन-कर्मचारी का मुद्दा काम करता है! 3-4 लोग जो गाडीमे रहते है वो आसानी से मॅनेज किये जा सकते है! इस रास्तेपर बाहरसे बाहरी गडबडी की जा सकती है! यह क्या गडबडी है, जो हो सकती है? रास्ते मे सब मिलाकर 10-12 मशिन्स बदले जा सकते है! ओर 10-12 मशिन्स बदलने का मतलब है कमसे कम 12-15 हजार वोटींग का फेरफार! इससे ज्यादा कुछ नही किया जा सकता है! अगर कोई सत्ताधारी वर्गजाती-पक्षका उम्मीदवार इस चुनाव मे 8-10 हजार से हारने की संभावना है तो वो इस तरह की गडबडी की वजहसे थोडी-बहुत मार्जिनसे जीत जाएगा! और उनका कोई उम्मीदवार पहलेसेही अपने दमपे जीत रहा है, तो वो इस गडबडी के वजहसे भारी बहुमतसे जीतेगा!
एक खुलासा जरूर करना चाहुंगा! सायन्स-टेक्नॉलॉजी के बारे मे आज जो कुछ कहा जाएगा वो कलतक कायम नही रहता! क्योंकी सायन्स-टेक्नॉलॉजी निरंतर विकास की दिशा मे जानेवाली चीज होती है, यह तो हम भारतीय इन्सान है, जो टेक्नॉलॉजी के सहारे आगे बढने के बजाय पिछे जाने मे मतलब हासिल करते है! ईव्हीएम घोटाला इसका सही उदाहरण है! ईव्हीएम घोटाला किसी भी कारण हो, कैसे भी किया जाता हो, मगर इस घोटाले के कारण 100 परसेंट जीत इंपॉसिबल है! और जीस दिन घोटाले का परसेंट बढ जाएगा, समझो उस दिन रुलिंग क्लास-कास्ट मे जातीय दरार बढ गयी है और एक बडा हादसा भारतीय पॉलिटिक्स मे होनेवाला है! इसके आसार भी अभी दिखने लगे है! बस्स देरी राईट टाईम की है!
अब सवाल यह खडा होता है की, इसतरह की गडबडी कौन कर रहा है? गडबडी करने का संबंध सिर्फ तैनात प्रशासक-कर्मचारी और रिश्वतके पैसे से है, तो यह गडबडी कोई भी कर सकता है! अपक्ष और स्वतंत्र खडे उम्मीदवार भी कर सकते है! क्योंकी वो भी तो करोडपती-अब्जोपती होते है! क्या वो यह षडयंत्र कर सकते है? नही कर सकते! क्योंकी ईव्हीएम को बदलने के लिए उतनेही और वैसेही दुसरे ईव्हीएम चाहीए और पूरी नकल के साथ चाहिए! और यह इतना आसान काम नही है! दुसरी बात, कौनसी गाडी कौनसे कामपर लगाना है और कौनसी मशिन्स लेकर जा रही है यह इनफर्मेशन वगैरा मिलना आसान नही होता! तो यह कोई पैसों का खेल नही के हर कोई दाव लगा ले! यह दांव है सिस्टीम का! जिसके बारे मे हम क्रांतिकारी, पुरोगामी, फुले-आंबेडकरवादी वगैरा वगैरा हमेशा अन्जान होते है! बस्स! दो-चार गालीयां फेबुपर मोहन भागवत को दे दी ..... तो हो गया हमारा आत्मा शांत और समाधानी! रातको बहोत अच्छी निंद आती है!
इव्हीएम घोटाला को सच माननेवालेको इन मुद्दोंपर ध्यान देना चाहीए!
  1. इव्हीएम मे अगर घोटाला हो रहा है तो वह केवल 2 या 3 परसेंट व्होट का फेरफार करने के लिए हो सकता है, किसीको पुरे 100 परसेंट जीताने के लिए नही!
  2. इव्हीएम का घोटाला किसी भी तरह हो रहा हो, तो वो पैसों की वजहसे नही! सिस्टिम को बचाने के लिए राष्ट्रिय स्तरपर हो रहा है षडयंत्र!
  3. यह घोटाला जो भी कर रहा है वो राष्ट्रीय स्तर के संघटन का षडयंत्र है!
अब आप कहेंगे की राष्ट्रीय स्तर का संघटन तो केवल आर.एस.एस. है ओर वही भाजपा को जीता रही है! यह सोच बिल्कूल गलत है! कोई भी भूप्रदेश जब राष्ट्र बनने के लीए गठीत होता है तो उसके कुछ उद्दिष्ट होते है! इन उद्दिष्टोंको साध्य करने के लिए कुछ नितीयां होती है! जैसे की अमेरिका का मुख्य उद्दिष्ट दुनियाभर मे उनका (Monopoly Capitalist) वर्चस्व कायम बने रहे! इस उद्दिष्ट को साध्य करने के लिए अमेरिका के रूलींग क्लास ने मिलीट्री, सी.आय.ए., एफ.बी.आय. पेंटॅगॉन वगैरे संस्थाए निर्माण कर रखी है! यह संस्थाए अपने एजंट्स का जाल दुनियाभरमे फैला देते है और अपने राष्ट्र के हित मे काम करते है! इनको इतनी स्वतंत्रता रहती है के यह किसी को जबाबदेही नही रहते है! ऑन पेपर इनका बॉस देशका प्रेसिडेंट होता है, मगर ऑफ दि रेकॉर्ड यह लोग अपने प्रेसिडेंट को भी जान से मार देते है! दुसरे देशो मे इनके एजंट्स इस तरह से काम करते है जिससे वह देश अमेरिका की गुलामी से बाहर ना निकले! उदाहरण के तौरपर मै बताउंगा..... भारत के 50 से अधिक सायंटिस्ट इन दो सालमे मारे गये है, ओर खुनी नही मिल रहे है! 10 चुहे भी अगर किसी एक जगहपर मरे पडे दिख जाए, तो भारतका मिडिया वेल्थ ऑफिसर से लेकर वेल्थ मिनिस्टर तक के सभी जिम्मेदार लोगों के पिछे पड जाता है! मगर इतने बडे पैमाने पर सायंटिस्ट मारे जा रहे है और कोई मिडिया इसको अपनी न्युज नही बना रहा है! बस्स, इस विषयपर सुप्रिम कोर्ट चिल्ला रहा है, और किसी के पास वक्तही नही सुप्रिम कोर्ट की कुछ सुने! तो यह होता है अमरिका का आंतरराष्ट्रीय षडयंत्र, अपने राष्ट्र के हित मे काम करने का! उसी तरह हर देश मे रूलींग क्लास की ऐसी संस्थाऐ होती है, जो हर पाच साल मे आनेवाली-जानेवाली सरकार से बेमतलब रहती है! उसका काम सिर्फ अपने देश के रूलींग क्लास की सिस्टिम को बचाना होता है! जो भी कोई उनकी सिस्टीम को धक्का पहुंचानेकी कोशिश करता है उसके लिए बहिष्कृतता, दहशत, जेल, मौत ऐसा कोईभी हत्यार युज किया जाता है!
भारत मे वर्गव्यवस्था नही है, जातीव्यवस्था है जो वर्गव्यवस्थासे प्रभावी होती जा रही है! इसलिए भारत मे रूलींग क्लास नही, रुलींग कास्ट-क्लास है! ओर इस रुलींग कास्ट ने अपने देश के कुछ उद्दीष्ट तय कीए है! अपनेही देशमे अपने वर्ग-जात का वर्चस्व कायम रहे और अपने अप्पर वर्ग-जातकी सिस्टीम कायम रहे, यह इसका मुख्य उद्दिष्ट है! वह इस तरह है.......
  1. वर्ण सिस्टीम खतम करनेवाले बौद्ध धम्म ने अपनी विचारधारा की युनिव्हर्सिटीज बनायी! इन बौद्ध विद्यापीठोने रेनेसॉन्स मुव्हमेंट चलाया जिसकी वजहसे वर्णसिस्टीम खतम हो गयी! मतलब वर्ण-संघर्ष वर्ण-युद्ध मे तबदिल नही हुआ और वर्णांतकी क्रांती शांतीसे, अहिंसा से कामयाब हो गयी! बौद्धधम्म क्रांतीने जिसतरहसे शांती-अहिंसा से क्रांती का काम किया, इससे सिख लेकर जाती सिस्टीम को निर्माण ओर कायम करने के लिए मनुवादीयों ने बौद्ध युनिव्हर्सिटीज नष्ट कर दी और अपने विचारधारा की युनिव्हर्सिटीज का निर्माण कीया!  
  2. लेकीन जाती सिस्टीम की कमजोरी की वजहसे बाहरी आक्रमणकारी मुस्लीम और अंग्रेज पॉलिटिकल पॉवर मे आ गये! परिणाम यह हुआ की जाती सिस्टीम को खतम करने के लिए संत नामदेव से लेकर संत रईदास और फुले-शाहू-आंबेडकर जैसे महापुरूष निर्माण हो गये!
  3. मुस्लीम और अंग्रेज तो केवल पॉलिटिकल पॉवर मे थे, रिलिजीयस, सोशियल, कल्चरल पॉवरमे तो ब्राह्मीण कास्ट कायम थी! जैसे ही मुस्लीम और अंग्रेज पॉलिटिकल पॉवर से हट गये, पूरी सत्ता ब्राह्मीण कास्ट के हाथमे आ गयी! स्वतंत्र भारत मे अब ब्राह्मीण कास्ट फूल पॉवरमे है! इसी वजहसे आज देशमे जितने भी युनिव्हर्सिटीज है, सभी के सभी ब्राह्मीण विचारधारा की है, जो प्रतिक्रांतिके लिए देश के युवाओं को तय्यार कर रही है! और इस प्रतिक्रांति के लिए SC+ST+OBC को उतावले करने का काम चल रहा है! स्वतंत्रता के बाद तुरंत पहला काम यह किया गया की रुलींग अप्पर कास्टकी सरकारी एजंन्सियां गठीत की गयी, जो हरपल हरक्षण सतर्क रहे ताकी देशकी अप्पर कास्ट डॉमिनेटेड सिस्टीम को कोई धक्का न लगा सके!
  4. कांशीराम साहब के आंदोलन की वजहसे दलित जागा और मंडल कमिशन के लिए किये गये आंदोलन की वजह से जैसेही 52 परसेंट ओबीसी तबका जागृत होने लगा, जाती सिस्टिम की नींव हिलने लगी! 1992 से भारतीय पॉलिटिक्स मे अप्पर कास्ट का वर्चस्व कम होते गया और दलित-ओबीसी का वर्चस्व बढते गया! ऐसी स्थिती मे देशमे केवल दलित-ओबीसी पार्टीज के अलायन्सकी सरकार प्रस्थापित होने की शुरूवात हो गयी, उदाहरण... देवेगौडा की केंद्रिय सरकार....  अब यह सरकारी एजंन्सियों ने रूलिंग कास्ट को सलाह दी की .... आपको बचना है तो EVM लेके आओ! सो लेके आए...
  5. जैसे जैसे दलित-ओबीसी जाग्रती बढने लगी EVM के घोटालेका परसेंटेज बढता गया! लेकीन एक हदतक ही वह बढ सकता था! उससे ज्यादा नही! EVM के घोटाले की वजहसे 2004 मे और 2009 मे हंग पार्लमेंट आयी और कॉंग्रेस ओबीसी-बहुजन पार्टीज की मददसे सत्ता मे आयी!
  6. 2009 जातीगत जनगणना के मुद्देकी वजहसे ओबीसी जाग्रती बढ गयी! EVM घोटाले का परसेंटेज अपनी सीमा के चरम अवस्थापर था! ओबीसी जाग्रती के परसेंटेज को पार करना मुष्कील लग रहा था! केवल अँटीइन्कंबंसी पर भरोसा नही कीया जा सकता था! ऐसी स्थिती मे यह रुलिंग कास्ट की सरकारी संस्थाऐ अपने रूलिंग कास्ट को कुछ हिंट देती है और यह पार्टीज उसपर अमल करती है! उदाहरण के तौर पर बताना चाहता हुं.... 2011 मे सबसे पहले अंबानी ने नेक्स्ट पी.एम. के लिए मोदी जी का नाम आगे किया! उसके बाद 2012 मे इंटरनॅशनल मॅगेझीन ‘टाईम्स’ ने स्पष्ट कर दिया की मोदीजीही अगले पी.एम. होंगे! मोदी जी को प्रधानमंत्री का उम्मिदवार बनाने का सुझाव इसी सरकारी संस्थाओं ने दिया था, जो मान लिया गया और सक्किस भी हो गया!
  7. 2014 मे भी EVM से इलेक्शन हुआ था! अगर केवल EVM के घोटाले के भरोसे इलेक्शन जीता जा सकता है तो कोईभी ब्राह्मीण व्यक्ती प्रधानमंत्री का उम्मिदवार बना देते और EVM से भारत की सत्ता पा लेते! मोदीजी की जरूरत क्या थी? जरूरत थी, और शुद्र-ओबीसीकीही जरूरत थी! परिसंघ के रामराज की नही! क्यों की ओबीसी जाग्रती का पॉलिटिकल परसेंटेज इतना बढ गया की वो EVM के घोटाले के परसेंटेज को परास्त करने जा रहा था! इसीलिए ओबीसी फेस नरेंद्र भाईकी जरूरत आ गयी!
  8. मिडिया मोदीसाहब को जितना ‘ओबीसी फेस’ बता रहा था, उतनाही काफी था, भाजपा डॉमिनेटेड हंग पार्लमेंट के लिए! लेकीन मोदि साहब अपने मातृसंघटन से भी आगे बढ गये! अपनेआपको पिछडा, निची जात का बताने लगे भरी सभाओं मे! और सब दोष रख दिया कॉंग्रेस के सरपर! इसकी वजहसे ओबीसी आक्रमक भी हो गया और उसके जागृती का परसेंटेज भी बढ गया! इसके परिणाम जो होने थे वो चुनाव नतीजे के दिन उजागर हो गये, जिसकी उम्मिद ना कॉंग्रेस ने की थी, ना RSS-BJP ने! विशेषज्ञ की बात तो बहोत दुरकी! भारत के इतिहास मे यह घटना पहलीबार घट रही थी, कोई प्रधानमंत्रीपद का उम्मिदवार प्रचार सभाओ मे खुदको नीचली जातका ओबीसी बताकर वोट मांग रहा हो! ऐसा तब किया जाता है, जब उस कॅटिगोरी की वोट बँक निर्णायक (Dominent and Guranteed ) हो! EVM घोटाले का फायदा इतनाही हुआ की, 20-25 सीट ज्यादा आगयी! लेकीन करिष्मा तो ओबीसी वोटबँककाही था!
अब EVM के विषयपर फिरसे आते है! 2004 के लोकसभा इलेक्शन मे भी EVM था! लेकीन EVM के घोटाले का परसेंटेज ओबीसी जागृती के परसेंटेजपर उतनाही हावी हुआ जितना कॉंग्रेस पार्टी को लाभदायक था! 2009 मे फिर EVM ही था! इसबार भाजपा के जितने के आसार बहुत थे! लेकीन ओबीसी जागृती का झुकाव लालू, मुलायम और मायावती के तरफ जाने के कारण EVM के घोटालेका परसेंटेज कम पड गया और भाजपा नही जीती! दलित-ओबीसी पार्टीज के सपोर्ट से कॉंग्रेस फिरसे सत्ता मे आ गयी! नितिशजी ने ठिक वक्तपर भाजपा से नाता तोडा! क्यों की बिहार मे नितिशजी की वजहसे ओबीसी भाजपा को वोट दे रहे थे! उन्होने ओबीसी जाग्रती का तकाजा जानते हुए लालूजी से दोस्ती कर ली और फायदे मे रहे! लेकीन यु.पी, मे इधर सपा-बसपा अपनी पार्टी की ‘जात’ से और पार्टी के ‘सगे-परिवार’ से बाहर नही आ रही थे! बसपा का माया-प्रेम और सपा का सगा-परिवार-प्रेम बढताही जा रहा था! 2014 तक यह इतना बढ गया की ओबीसी के सामने एकमात्र रास्ता था- ओबीसी-मोदी का! अरे भाइ गणेशकाही दर्शन करना है तो सतिश मिश्रा के हाथी मे क्यों देखे गणेश? सीधे भाजपा के गणेश का दर्शन क्यों ना लिया जाय! मायावतीने कोई ओबीसी फेस सामने ना आने दिया, जैसे सपाने मुस्लीम फेस आजमखान को युज किया! मायावतीने ब्राह्मिण फेस मिश्रा को सामने रखा! 2014 के लोकसभा इलेक्शन मे मार खाने के बावजूद सपा-बसपा नही सुधरे, तो फिरसे ओबीसी ने उनको 2017 मे स्टेट मे भी उलटा लटका दिया!
सपा-बसपा को आत्मपरिक्षण टालने का कारण मिल गया! EVM के सरपर दोष मढनेसे सपा-बसपा की हार को हल्के मे लेने वाले आजका समय तो टाल सकते है, मगर आगे आनेवाले समय मे होनेवाले परिणामों को कौन टाल सकता है?? ओबीसी जाग्रती की वजह से दिन-ब-दिन जातीसिस्टिम का तणाव बढते जा रहा है! EVM की मददसे सपा-बसपा-भाजपा टाईमपास कर लेंगे मगर कितने दिन तक? EVM तो 2-3 परसेंट से कुछ ज्यादा फेरफार नही कर सकता! हवा के झोके से झाड के पन्ने हिल सकते है, झाड नही! 1992 से यह भारतीय पॉलिटिक्स का पूरा वृक्ष इधरसे-उधर हिल रहा है, वो ओबीसी की बढती जाग्रती की वजहसे और उसको ना समजनेवाले सपा-बसपा जैसी नॉन-ब्राह्मिण पार्टीज की वजहसे!
RSS कतई नही चाहती की ओबीसी जाग्रती को ‘ओबीसी’ नामसे पहचाना जाए! 2014 मे उसने ओबीसी जाग्रती को ‘’मोदीलाट’’ (Modi-Wave) के नामसे बदनाम किया! और आज हम EVM का नाम देकर ओबीसी जाग्रती को ठुकरा रहे है! कितने मुर्ख है हम की जो ‘अपनी ही ताकत को नकार रहे है और दुष्मनों की ताकत बढा रहे है!
मैने इस आर्टिकल के दुसरे पॅरॉ मे सवाल उठाया था, कॉंग्रेस 2014 से EVM की मार सबसे ज्यादा झेल रही है और वो आज नामशेष होने जा रही है तो वो फिरभी शांत क्यो है??? EVM के खिलाफ सपा-बसपा की तरह बोल क्यों नही रही! उसका सबसे बडा कारण यह है की कॉंग्रेस रूलिंग कास्ट का सबसे बडा अंहम हिस्सा है! भाजपा दुसरा-दुय्यम हिस्सा है!
भारतीय लोकशाही का एक ट्रेंड है! लोकशाही मे अँटी-इन्कंबस्सी की वजह से लोग कॉंग्रेस के खिलाफ वोट करते है! यह अँटी-इंन्कंबस्सी हर 10 साल के बाद आती है! स्वतंत्र भारत का पहला इलेक्शन 1952 मे हुआ था! पहली अँटी-इन्कंबस्सी 15 साल के बाद आयी, 1967 मे! अँटी-इन्कंबस्सी के सभी वोट समाजवादी पार्टीज को मिले, जिसमे लोहिया-चंदापूरी अलायन्स के कारण ओबीसी नेतृत्व फोकस मे आया! उसके बादकी अँटी-इन्कंबस्सी 1977 मे आयी और इसबार ओबीसी नेतृत्व का वर्चस्व थोडा और बढ गया जिसके कारण पूरा देश मंडल कमिशन के माध्यमसे जाती-संघर्ष के रास्तेपर गतिमान हो गया! इस गती को रोखने के लिए भारी बहुमतवाली जनता पार्टी की सरकार को गिराना जरूरी था, सो वो सबकी सहमती से गिर गयी! RSS ने 75 सीट वाली जनसंघ-भाजपा को अंडरग्राऊंड कर दिया ताकी कॉंग्रेस पूरी तरह बहुमत से सत्ता मे आ जाय! सो वो आ गयी, जिसने कालेलकर आयोग की तरह मंडल कमिशन को भी पूरा दफन कर दिया! मगर इसबार रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज नया प्लॉन बना रही थी! ओबीसी जाग्रती बढती जाएगी और 10 सालबाद आनेवाली अँटी-इन्कंबस्सी मे जो नयी सरकार आएगी उसको मंडल कमिशन अमल मे लाने से कोई नही रोख सकता! 1989 मे जो नयी सरकार आएगी उसमे ओबीसी डॉमिनन्स होगा और मंडल कमिशन के अमलसे उसकी ताकत और बढ जायेगी! इसलिए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने 1985 मे ही नया प्लॉन बनाया और अमल मे भी लाया! प्लॉन था, जब 1989 की नयी सरकार मंडल कमिशन अमल मे लाएगी तो उसको गिराने के लिए बाबरी मस्जिद को गिराना पडेगा! 50 साल से बंद पडा बनावटी रामंदिर का दरवाजा 1985 मे खोला गया और बॅलन्स रखने के नामपर ‘शहाबानो’ नामक चिनगारी को हवा दे दी गयी! 1998-90 मे क्या हुआ और रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज के प्लॉन सक्सेस कैसे हुआ, यह दोहराने की जरूरत नही!
मंडल कितना अमल मे आया, कैसे अमल मे आया और किसतरह नॉन-क्रिमी लेयर का रोडा डालकर उसकी गती को रोखने की कोशिश हुइ यह सब जानते है! ओबीसी जाग्रती धीमी हो गयी मगर रूलींग कास्ट की नींव को धक्का देने का काम करती रही!
2009 तक ओबीसी जाग्रती ने रूलींग अप्पर कास्ट की किसी भी पार्टी को बहुमत से राज ना करने दिया! 52 परसेंट जाग्रत ओबीसी वोटर कभी मायावती मे तो कभी मुलायम-लालू-भुजबल मे देश का नया मसिहा ढुंढता रहा! दरम्यान रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने दुसरा प्लॉन बनाया और वो था EVM का, जिसको 2004 से ही धिरे-धिरे कम परसेंटेज के घोटाले के काम मे लगा दिया! ओबीसी वोट कुछ ज्यादाही गतीसे लालू, मुलायम, मायावती और नितीश के तरफ जा रहे थे! दक्षिण मे महाराष्ट्रा जैसे राज्य से छगन भुजबल और स्मृतीशेष गोपीनाथजी मुंडे जैसे ओबीसी लिडर देश के स्तरपर उभर रहे थे! रूलींग कास्ट जानती है की EVM कुछ ज्यादा नही कर सकता! केवल EVM के भरोसे 2014 की इलेक्शन जीतना नामुमकीन है, क्यों की ओबीसी जाग्रती का परसेंटेज इतना बढ गया है, जो EVM के घोटाले के परसेंटेज को परास्त कर सकता है! इसी वजह से रिस्क ना लेते हुए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज ने सलाह दी- ‘मोदीजी को प्र.मं. का उम्मिदवार बनाने की’!
इस दौरान बढती ओबीसी जाग्रती से अन्जान सपा-बसपा-राजद-सजद-भुजबल वगैरा इस गलत फहमी रहे की केवल अपनी अपनी जात के भरोसे हम अपने अपने इलाके मे सुरक्षित है! मायावती समजती थी, जाटव से ब्राह्मिण-जात को जोड लुंगी तो जीत जाऊंगी! अखिलेश-मुलायम सोचते रहे की, यादव से मुस्लीम जुडे है, तो हारने की संभावनाही नही! भुजबल सोचते रह गये की, मेरे पिछे माली बडी संख्या मे है तो कोई माई का लाल मुझे जेल नही भेज सकता! बस्स आप सोचते रहेंगे, जीतते रहेंगे और तुम्हारे दुष्मन शांती से तुम्हारी जीत देखते रहेंगे! असल मे इनको मालूमही नही की हमारा दुष्मन कौन है, वो कितना ताकतवर है और किसी भी हद को पार कर सकता है?? अपने दुष्मन की जानकारी रखनेवाले और जीतने के लिए स्ट्रटेजी बनानेवाले विद्वान केवल ब्राह्मणों मे नही है, बहुजनों मे भी है! लेकीन रूलींग अप्पर कास्ट के विद्वान सरकारी एजन्सीज मे बिठाए जाते है, पत्रकार बना दिये जाते है, पुरस्कारोसे सम्मानित किये जाते है! अप्पर कास्ट विद्वानों का कद इतना ज्यादा बढाया जाता है की उसकी सलाह हमारे SC+ST+OBC नेता भी मानने लगते है! लेकीन खुदकी अपनी जाती के विद्वानों को यह SC+ST+OBC नेता अपने पास भी नही आने देते! बहुजन के सच्चे विद्वानों को उनकी जाति के नेताओ से दूर रखा जाता है! इसका एक उदाहरण देना चाहता हुं---- 2015 मे दो दिन की 7 वी अखिल भारतीय सत्यशोधक गोलमेज परिषद कल्याण (जि. ठाणे) मे संपन्न हुयी! कॉन्फरन्स का अध्यक्ष हमे बनाया गया था और मान्यवर छगन भुजबल साहब को इनॉगरेशन करने के लिए आमंत्रित किया गया था! तो इस कॉन्फरन्स मे श्रावण देवरे और भुजबल पूरे दिन एकसाथ रहनेवाले थे! इस होनी से रुलींग कास्ट के विद्वान इतने डर गये की आप सोच भी नही सकते! जैसेही प्रोग्राम कार्ड प्रकाशित हुआ, सब के सब इस कोशिश मे लग गये की, ‘कुछ भी हो जाय लेकीन भुजबल साहब को इस प्रोग्राम मे जानेसे रोखना होगा!’ इस षडयंत्र का प्लॉन बनानेवाले थे भांडारकरवाले ब्राह्मिण, मगर प्लॉन को अमल लाने का काम कर रहे थे माली विद्वान(?)!
कॉंग्रेस EVM के षडयंत्र के खिलाफ इसलिए नही बोल रही है की, उसको 2024 मे यही EVM दिल्ली मे सत्ता देनेवाली है! भाजपा सरकारकी अँटीइन्कंबस्सी 10 साल मे बढ जाएगी! इसका फायदा माया-मुलायम-लालू-नितिश को नही मिलना चाहिए, सीधे कॉंग्रेसकोही मिलना चाहिए इस कोशिशमे सरकारी एजन्सीज काम कर रही है! सभी दलित-ओबीसी नेताओं को जेल जाने का डर है! दलित-ओबीसी वोटसे वो सत्ता तो पा लेते है, मगर अप्पर-कास्ट सिस्टिम को धक्का नही देना चाहते! जो भी नेता यह काम करेगा उसे तुरंत जेल मे डाल दिया जात है! इसी डर की वजहसे माया-मुलायम-लालू-नितिश-भूजबल ऐसा कोई भी काम नही करेंगे जिससे 10 साल के बाद अँटिइन्कंबस्सी का फायदा उठाते हुए पूरी 100 परसेंट बहुजन-सत्ता केंद्र मे स्थापित हो जाय!  कॉंग्रेस को फिरसे सत्तामे बिठाने के लिए रूलींग कास्ट की रूलर एजन्सीज अब इस फिक्र मे है की, ऐसा कौनसा हादसा किया जाय जिससे भारतीय पॉलिटिक्स मे 1989 की तरह उथल-पुथल मच जाय और लोग फिरसे कॉंग्रेस के तरफ झुक जाय! 2019-2024 के वक्त चुनाव मे EVM भी रहेगा, माया-मुलायम-लालू-नितिश-भूजबलभी रहेंगे और मोदीसाहब भी रहेंगे! मगर EVM का करिष्मा उनके हित मे ना होगा!!
यह सब जो अखिल भारतीय रूलींग कास्ट की अखिल भारतीय रूलर एजन्सीज के माध्यम से षडयंत्रों का सिलसिला चल रहा है, वह सिर्फ ब्राह्मण-वर्चस्ववाली जातीव्यवस्था को कायम रखने के लिए किया जा रहा है! और हमारे बहुजन नेता अपने आपको जेल जाने से बचने के लिए पुरे बहुजन पॉलिटिक्स को खतम कर रहे है! तात्यासाहब महात्मा जोतीराव फुले और बाबासाहेब आंबेडकर के आंदोलनसे और उनके असंख्य प्रामाणिक कार्यकर्ताओं की 225 साल की मेहनत से जातीव्यवस्था खतम करनेवाला बहुजन पॉलिटिक्स आज यशस्वी हो सकता है, मगर हमारे आधे-अधुरे बहुजन नेताओं की वजहसे यह पॉलिटिक्स जीतने मे कामयाब नही हो रहा है! बस्स! अब हमारे हाथमे 2 साल है.... कुछ करो .... करनाही होगा... इन दो सालों मे आगे दिए हुए प्रोग्राम सक्केस हो सकते है..... और अप्पर कास्ट के फांसे पलटा सकते है!
बस्स, दोही मार्ग है! एक लॉंग-टर्म और दुसरा शॉर्ट टर्म
  1. बौद्ध युनिव्हर्सिटिज का मॉडेल सामने रखकर ऑल इंडिया के स्तरपर रेनेसॉन्स मुव्हमेंट चलानी पडेगी, जिससे ओबीसी-बहुजन जागृती निगेटिव्ह से पॉझिटिव्ह हो जाए और केवल जाती-संघर्ष से जातीव्यवस्था को खतम किया जा सके! यह एक लंबा प्रोग्राम है.... लॉंग टर्म!
  2. जातीसंघर्ष का शॉर्ट-टर्म प्रोग्राम ऐसा होना चाहीए की जिससे रूलिंग कास्ट की कमर टूट जाय! आज की तारीख मे ‘’जातीगत जणगणना’’ यह एकमात्र मुद्दा है जो रूलिंग अप्पर-कास्ट को ध्वस्त कर सकता है! इसी मुद्दे की वजहसे अडवाणी कचरे के डिब्बे मे डाल दिये गये, मुंडेजी और जयललिताजीको जान से हाथ धोना पडा और भुजबल चाचा-भतिजे को जेल मे बंद कर दिया गया!!
  3. अगर पूरे देश के ओबीसी-बहुजन बडी संख्या मे ‘जातीगत जणगणना’ का एकमात्र मुद्दा लेकर देल्ही मे 10-12 दिन के लिए रामलीला मैदान मे बैठ गये तो ........  
  1. खुदको ‘ओबीसी फेस’ बतानेवाले मोदीसाहब का ओबीसी मास्क हट जाएगा! क्यों की आर.एस.एस. उनको यह काम किसी भी हालतमे नही करने देंगी!
  2. 2019 के इलेक्शन को देखते हुए मोदीसाहब अपने ओबीसी फेस को बचाने का प्रयत्न करेंगे! इस प्रयत्न मे वो ‘जातीगत जनगणना’ के पक्ष मे कुछ तो बोलेंगे और आर.एस.एस. के खिलाफ उनका संघर्ष बढ जाएगा!
  3. जातीगत जनगणना के मुद्देपर मोदी विरूद्ध आर.एस.एस. संघर्ष मे ओबीसी और दुसरे एम.पी. भी मोदी के नेतृत्व मे एकजूट हो सकते है! सभी मेंबर्स ऑफ पार्लमेंट को एक बात मान्य है, की हम कोईभी चुनाव ओबीसी की मांग के खिलाफ जाकर नही जीत सकते!
  4. जिसतरह कॉंग्रेस तोडकर व्हि. पी. सिंग बाहर आये और ओबीसी-बहुजनोंके सपोर्टसे पी.एम. बन गये! मंडल कमिशन लागू करके रूलींग कास्ट की ऐसी कमर तोडी के आज भी वह संभल नही पा रही है! अगर क्षत्रिय व्हि.पी.सिंगजी ब्राह्मणवाद को ध्वस्त कर सकता है, तो ओबीसी-मोदी क्यों नही???
  5. ओबीसी जातीगणना का आंदोलन इतना बढा और इतना लंबा होना चाहीए की जिससे भाजपा के दोही तुकडे हो... एक- ब्राह्मिण और दुसरा नॉन-ब्राह्मिण
  6. जैसे ही मोदीजी नॉन-ब्राह्मिण भाजपा को साथ लेकर 2019 के चुनाव मे उतरेंगे तो सभी ओबीसी-दलित-मुस्लीम पार्टीज को उनसे महागठबंधन बनाना पडेगा! जैसे 1977 मे कॉंग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के नामसे बनाये थे!
  7. 2019 का नॉन-ब्राह्मिण भाजपा के साथ जो महागठबंधन होगा वो ब्राह्मिण-कॉंग्रेस और ब्राह्मिण-भाजपा के खिलाफ होगा.....
  8. जैसे ही ओबीसी-बहुजन महागठबंधन केंद्रीय सत्ता मे आयेगा तो पहला काम करेगा....... बहुजन रूलिंग कास्ट की बहुजन डॉमिनेटेड सी.बी.आय., आय.बी., इडी, सीडी, रॉ वगैरा... वगैरा.... इन्ही सरकारी संस्थाओं की वजहसे आजतक 3 परसेंटवाले हमपर राज कर रहे थे!
  9. दुसरा महत्वपूर्ण काम होगा--- नचिअप्पन कमिटी की शिफारसे तुरंत प्रभाव से अमल मे लाना, ताकी जाट-पटेल-मराठा से लेकर पिछडे मुस्लीमों को भी अलग आरक्षण देनेसे कोई किसीको नही रोख सकता!
  10. तिसरा महत्वपूर्ण काम हाथ मे लिया जाएगा .... 2021 की सेंसस पूर्णतः जातीगत होगी जिससे समाज के हर तबके को अपनी संख्या के हिसाब से हर क्षेत्र मे भागीदारी देने मे कोई रोख ना होगी!
  11. चौथा महत्वपूर्ण काम होगा.... देशकी सभी युनिव्हर्सिटीज का और स्कूल-कॉलेजेस का करिक्युलम (Text Books) हिंदू-मुस्लीम संघर्ष के बजाय वर्ण-जाती के संघर्ष से भरा होगा! 2000 साल पहले बौद्ध विद्यापीठों ने जीस करिक्युलम की वजहसे वर्णव्यवस्था नष्ट करनेकी प्रबोधनक्रांती की, बस्स उसी तरह आजकी युनिव्हर्सिटीज अपने नये पाठ्यक्रम से जातीव्यवस्था नष्ट करने की प्रबोधन क्रांती (Renaisance Movement) चलाएगी!
  12. 2025 मे आर.एस.एस. की स्थापना को 100 साल पूरे हो रहे है और वो अपनी शताब्दि ‘ब्राह्मिण राष्ट्र’ (पेशवाई) की स्थापना करके मनाना चाहते है! हमारे बेटे, नात-नाती के गलेमे फिरसे मटकी और पिछे झाडू बांधना चाहते है!  तो क्या हमे उस दिनतक रूखना चाहीए? या उपरोक्त दिये हुए ऍक्शन प्रोग्रामपर काम करना चाहिए??? दो साल है हाथमे... बस्स!
                                    प्रतिक्रयाए भेजे...........    
मोबाईल नंबर 9422788546

ईमेल- evm2019@gmail.com,

भगवा की जीत के और मायावती की हार के कारण

भगवा की जीत के और मायावती की हार के कारण

(कँवल भारती)
      इस बार उत्तर प्रदेश में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने स्वयं भाजपा का रास्ता साफ़ किया था. इसलिए अब जब वह अति पिछड़ी और अति दलित जातियों के बल पर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ गयी है और योगी युग का आगाज़ हो चुका है, तब विपक्ष का आरोप है कि दलितों और मुसलमानों के लिए बुरे दिन आने वाले हैं, कह तो ऐसे रहे हैं, जैसे उनके राज में अच्छे दिन चल रहे थे. मायावती, मुलायम और अखिलेश के युग में मुसलमानों और दलितों के नहीं, बल्कि उनके दलालों के अच्छे दिन आये थे. मुसलमानों और दलितों की राजनीति करके उनके उन तथाकथित नेताओं ने अपने साम्राज्य खड़े कर लिए. मुलायम और अखिलेश ने दलितों और मुसलमानों के मुहल्लों में भी झांककर नहीं देखा कि वे किस हाल में हैं? वे अपनी पार्टी के दलित-मुस्लिम नेताओं की खुशी को ही दलितों और मुसलमानों की खुशी समझते रहे. आजम खां ने जो चाहा, और जितना चाहा, मुलायम और अखिलेश ने उन्हें दिया, वगैर यह सोचे हुए कि वह अपना विकास कर रहे हैं या मुसलमानों का? सबसे ज्यादा जुल्म सपा सरकार में मुसलमानों पर ही हुए. अल्पसंख्यक और मलिन बस्तियों के विकास के लिए अल्पसंख्यक विभाग का अधिकांश धन रामपुर में पाश और आवास विकास की कालोनियों में खर्च हुआ. यकीन न हो, तो वहाँ लगे उद्घाटन के पत्थर देखे जा सकते हैं. ‘काम बोलता है’ का ढिढोरा पीटने वाले अखिलेश ने कभी जाकर देखा कि मुसलमानों और दलितों के इलाकों में क्या सचमुच विकास हुआ है? संभल में स्टेशन से सोतीपुरा को जाने वाली सड़क इन पांच सालों में भी इसलिए नहीं बनी, क्योंकि वहाँ जाटवों की बस्ती है. कौन से विकास पर वे जीतना चाहते थे, एक्सप्रेस-वे और मेट्रो के बल पर? इस विकास पर तो लखनऊ के लोगों ने ही उन्हें नकार दिया.
      कोई सिर पर लाल टोपी रखने भर से समाजवादी नहीं हो जाता और न प्रो-मुस्लिम होने से कोई धर्मनिरपेक्षतावादी हो जाता है. समाजवादी वह है, जो आर्थिक समानता लाने के लिए काम करता है, और यह समानता मोबाइल या लेपटॉप बांटने से नहीं आती है. धर्मनिरपेक्षतावादी वह है, जो धर्म मात्र से निरपेक्ष होता है. इस अर्थ में तीन तलाक पर मुस्लिम कट्टरपंथियों का पक्ष लेने वाले समाजवादी और बहुजनवादी भी उसी तरह धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, जिस तरह तस्लीमा नसरीन को निर्वासन के लिए मजबूर करने वाले कम्युनिस्ट धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं. जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंशी बजा रहा था. और जब उत्तरप्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों की आग में जल रहा था, तो मुलायम, अखिलेश और उनका समाजवादी कुनबा सैफई में जश्न मना रहा था. आज इन्हें मुसलमानों की चिंता हो रही है, पर इनके राज में ही मुसलमान सबसे ज्यादा दंगों की भेंट चढ़े हैं.
      आज मायावती कह रही हैं कि आरएसएस योगी को आगे करके हिंदुत्व का एजेंडा लागू करने वाली है. इस पर हंसा जाए या सिर धुना जाए? मायावती को आरएसएस का एजेंडा अब पता चला है? भाजपा के समर्थन से तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती आरएसएस के एजेंडे से इतनी अनजान कैसे हो सकती हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि आरएसएस की सहमति  से ही भाजपा ने उन्हें समर्थन दिया था? क्या उन्हें नहीं मालूम कि शिक्षा और संस्कृति की सारी संस्थाओं की बागडोर उन्होंने अपने राज में भाजपा को ही सौंपी थी? तब क्या वहाँ उन्हें आरएसएस का लागू होता हुआ एजेंडा दिखाई नहीं दे रहा था? क्या वह यह भी भूल गयीं कि गुजरात दंगों के बाद वह मोदी जी के लिए गुजरात में दलितों से वोट मांगने गयीं थीं? तब उनके राजनीतिक गुरु कांशीराम जी जीवित थे, और उन्होंने भाजपा को एक ‘गैर-साम्प्रदायिक’ पार्टी बताया था. तब उन्हें इसका अन्दाजा क्यों नहीं हुआ था कि जो हिंदुत्व उन्हें मुख्यमंत्री बना रहा है, उनकी पार्टी के लिए उसका भविष्य क्या होगा? अगर उस समय हिंदुत्व उन्हें अच्छा लग रहा था, तो आज वह कैसे बुरा हो गया? क्या इसलिए कि उनकी बोई हुई फसल से आज हार के फल मिले हैं? आज वह 19 सीटों पर सिमट कर रह गयीं. पर अब मैं यह नहीं कहूँगा कि अगर वह 80-90 सीटें पा जातीं, तो भाजपा से समझौता नहीं करतीं, क्योंकि वह पहले ही घोषणा कर चुकीं थीं कि किसी से समझौता नहीं करेंगी. पर, जनता यह भी जानती है कि राजनीति में दिखाने और खाने के दांत अलग-अलग होते हैं.
      मायावती ने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि आरएसएस ने उनके शासन-काल में ही दलितों और पिछडों का हिन्दूकरण करने का अभियान शुरू किया था, क्योंकि वह स्वयं भी ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ का नारा देकर बहुजनों का हिन्दूकरण कर रहीं थीं. सच तो यह है कि मायावती और आरएसएस दोनों ने मिलकर बहुजनों का हिन्दूकरण किया. ऐसा नहीं है कि इस हिन्दूकरण की धारा में केवल गैर-जाटव दलित ही बहे हैं, जाटव भी खूब बहे हैं, सिवाए उनके, जिन पर बुद्ध और अम्बेडकर का रंग चढ़ चुका है.
मायावती की यह आखिरी पारी थी, जिसमें उनकी शर्मनाक हार हुई है. 19 सीटों पर सिमट कर उन्होंने अपनी पार्टी का अस्तित्व तो बचा लिया है, परन्तु अब उनका खेल खत्म ही समझो. मायावती ने अपनी यह स्थिति अपने आप पैदा की है. मुसलमानों को सौ टिकट देकर एक तरह से उन्होंने भाजपा की झोली में ही सौ सीटें डाल दी थीं. रही-सही कसर उन्होंने चुनाव रैलियों में पूरी कर दी, जिनमें उनका सारा फोकस मुसलमानों को ही अपनी ओर मोड़ने में लगा  रहा था. उन्होंने जनहित के किसी मुद्दे पर कभी कोई फोकस नहीं किया. तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह आज तक जननेता नहीं बन सकीं. आज भी वह लिखा हुआ भाषण ही पढ़ती हैं. जनता से सीधे संवाद करने का जो जरूरी गुण एक नेता में होना चाहिए, वह उनमें नहीं है. हारने के बाद भी उन्होंने अपनी कमियां नहीं देखीं, बल्कि अपनी हार का ठीकरा वोटिंग मशीन पर फोड़ दिया. ऐसी नेता को क्या समझाया जाय! अगर वोटिंग मशीन पर उनके आरोप को मान भी लिया जाए, तो उनकी 19 सीटें कैसे आ गयीं, और सपा-कांग्रेस को 54 सीटें कैसे मिल गयीं? अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आसान है, पर अपनी कमियों को पहिचानना उतना ही मुश्किल.
अब इसे क्या कहा जाए कि वह केवल टिकट बांटने की रणनीति को ही सोशल इंजिनियरिंग कहती हैं. यह कितनी हास्यास्पद व्याख्या है सोशल इंजिनियरिंग की. उनके दिमाग से यह फितूर अभी तक नहीं निकला है कि 2007 के चुनाव में इसी सोशल इंजिनियरिंग ने उन्हें बहुमत दिलाया था. जबकि वास्तविकता यह थी कि उस समय कांग्रेस और भाजपा के हाशिए पर चले जाने के कारण सवर्ण वर्ग को सत्ता में आने के लिए किसी क्षेत्रीय दल के सहारे की जरूरत थी, और यह सहारा उसे बसपा में दिखाई दिया था. यह शुद्ध राजनीतिक अवसरवादिता थी, सोशल इंजिनियरिंग नहीं थी. अब जब भाजपा हाशिए से बाहर आ गयी है और 2014 में शानदार तरीके से उसकी केन्द्र में वापसी हो गयी है, तो सवर्ण वर्ग को किसी अन्य सहारे की जरूरत नहीं रह गयी, बल्कि कांग्रेस का सवर्ण वोट भी भाजपा में शामिल हो गया. लेकिन मायावती हैं कि अभी तक तथाकथित सोशल इंजिनियरिंग की ही गफलत में जी रही हैं, जबकि सच्चाई यह भी है कि मरणासन्न भाजपा को संजीवनी देने का काम भी मायावती ने ही किया था. उसी 2007 की सोशल इंजिनियरिंग की बसपा सरकार में भाजपा ने अपनी संभावनाओं का आधार मजबूत किया था.
मुझे तो यह विडम्बना ही लगती है कि जो बहुजन राजनीति कभी खड़ी ही नहीं हुई, कांशीराम और मायावती को उसका नायक बताया जाता है. केवल बहुजन नाम रख देने से बहुजन राजनीति नहीं हो जाती. उत्तर भारत में बहुजन आंदोलन और वैचारिकी का जो उद्भव और विकास साठ और सत्तर के दशक में हुआ था, उसे राजनीति में रिपब्लिकन पार्टी ने आगे बढ़ाया था. उससे कांग्रेस इतनी भयभीत हो गयी थी कि उसने अपनी शातिर चालों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और वह खत्म हो गयी.  उसके बाद कांशीराम आये, जिन्होंने बहुजन के नाम पर जाति की राजनीति का माडल खड़ा किया. वह डा. आंबेडकर की उस चेतावनी को भूल गए कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता. बसपा की राजनीति कभी भी बहुजन की राजनीति नहीं रही. बहुजन की राजनीति के केन्द्र में शोषित समाज होता है, उसकी सामाजिक और आर्थिक नीतियां समाजवादी होती हैं, पर, मायावती ने अपने तीनों शासन काल में सार्वजानिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचा और निजी इकाइयों को प्रोत्साहित किया. उत्पीडन के मुद्दों पर कभी कोई आन्दोलन नहीं चलाया, यहाँ तक कि रोहित वेमुला, कन्हैया कुमार और जिग्नेश भाई के प्रकरण में भी पूरी उपेक्षा बरती, जबकि ये ऐसे मुद्दे थे, जो उत्तर प्रदेश में बहुजन वैचारिकी को मजबूत कर सकते थे.
इन चुनावों में मायावती को मुसलमानों पर भरोसा था, पर मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया, जिसका कारण भाजपा के साथ उनके तीन-तीन गठबंधनों का अतीत है. उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मात्र 4 और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मात्र 2 सीटें मिली हैं, जिसका मतलब है कि उनके जाटव वोट में भी सेंध लगी है. मायावती की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह जमीन की राजनीति से दूर रहती हैं. न वह जमीन से जुड़ती हैं और न उनकी पार्टी में जमीनी नेता हैं. एक सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन का कोई मंच भी उन्होंने अपनी पार्टी के साथ नहीं बनाया है. यह इसी का परिणाम है कि वह बहुजन समाज के हिन्दूकरण को नहीं रोक सकीं. इसी हिन्दूकरण ने लोकसभा में उनका सफाया किया और यही हिन्दूकरण उनकी वर्तमान हार का भी बड़ा कारण है.
मायावती की इससे भी बड़ी कमी यह है कि वह नेतृत्व नहीं उभारतीं. हाशिए के लोगों की राजनीतिक भागीदारी जरूरी है, पर उससे ज्यादा जरूरी है उनमें नेतृत्व पैदा करना, जो वह नहीं करतीं. इसलिए उनके पास एक भी स्टार नेता नहीं है. इस मामले में वह सपा से भी फिसड्डी हैं.
 मायावती के भक्तों को यह बात बुरी लग सकती है, पर मैं जरूर कहूँगा कि अगर उन्होंने नयी लीडरशिप पैदा नहीं की, वर्गीय बहुजन राजनीति का माडल खड़ा नहीं किया और देश के प्रखर बहुजन बुद्धिजीवियों और आन्दोलन से जुड़े लोगों से संवाद कायम करके उनको अपने साथ नहीं लिया, तो वे 11 मार्च 2017 की तारीख को बसपा के अंत के रूप में अपनी डायरी में दर्ज कर लें.
(11 मार्च 2017)

ईवीएम में गड़बड़ी है या दिमाग मे?

ईवीएम में गड़बड़ी है या दिमाग मे?
संजीव खुदशाह
जिसके दिमाग में गड़बड़ी है वह समझते हैं गड़बड़ी ईवीएम में है bsp और sp की करारी हार के बाद इन दोनों पार्टियों समर्थक यह पोस्ट सोशल मीडिया में फैला रहे हैं कि भाजपा की जीत नहीं है जीत ई वी एम की हुई है। मायावती  के द्वारा  इलेक्शन कमिश्नर को इस संबंध में बाकायदा एक शिकायत भी पेश किया गया है। दरअसल ऐसा कहने वाले लोग दो प्रकार के हैं
1) वे लोग जो चुनाव प्रणाली के बारे में अच्छे से नहीं जानते हैं दूसरा वह लोग ,
1) जो अपनी नाकामी को ईवीएम के सर मढ़ना चाहते हैं।

चलो ठीक है यदि उनकी बात पर यकीन कर भी लें कि  EVM गड़बड़ था इसमें बीएसपी को वोट देने पर बीजेपी को वोट चला जाता है तो वही बीजेपी पंजाब, मणिपुर और गोवा में पीछे क्यों रह गई? बिहार और दिल्ली में उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?
 यह बात तो तय है कि जिस प्रकार बैलेट पेपर द्वारा चुनाव में गड़बड़ी की गुंजाइश रहती है, उसी प्रकार EVM में भी गड़बड़ी के जाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
लेकिन वे लोग जो चुनावी प्रक्रिया के जानकार हैं वह  समझ सकते हैं कि यदि ऐसी गड़बड़ी रह गई है, तो यह गड़बड़ी बिना हारने वाली पार्टी के सहयोग के संभव नहीं है।
आइए मैं बताता हूं कि चुनाव में ईवीएम का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है।
 (पहला) चुनाव के 2 माह पूर्व ईवीएम की तकनीकी जांच की जाती है यह ठीक काम कर रहा है कि नहीं, इस बारे में इंजीनियर इसकी जांच करते हैं 
(दूसरा) जांच में ठीक पाए जाने पर इसे बूथ में ले जाने हेतु तैयार किया जाता है जैसे बैटरी बैकअप, उम्मीदवार की सूची, टेकिंग आदि 
(तीसरा) मतदान के दिन बूथ में मतदान होने के ठीक पहले इसकी मॉक वोटिंग कराई जाती है जिसमें प्रत्येक राजनीतिक पार्टी के अधिकृत प्रतिनिधि जिन्हें रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा मतदान केंद्र में बैठने की अनुमति दी जाती है यह व्यक्ति उस पार्टी का या उम्मीदवार विशेष का कार्यकर्ता होता है ।
आइए जाने मांक कटिंग क्या है?
माक वोटिंग दरअसल वोटिंग या मत मतदान का पूर्वाभ्यास है। सभी पार्टी या उम्मीदवार के द्वारा अधिकृत कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में मॉक वोटिंग कराई जाती है। जिसमें प्रीसाइडिंग ऑफिसर द्वारा EVM को चालू करके सभी अधिकृत कार्यकर्ताओं या उम्मीदवार द्वारा वोट डलवाया जाता हैं एवं उनको वोट काउंटिंग करके बताया जाता है। यानि किसी उम्मीदवार को 2 वोट डाले गए किसी को 1 या 4 तो तदनुसार रिजल्ट आ रहा है या नहीं इसकी जांच उक्त कार्यकर्ता द्वारा कराई जाती है। सही पाए जाने पर ही वोटिंग प्रक्रिया चालू की जाती है। इसके पहले इनके सभी वोट शून्य कर दिए जाते हैं, उनसे मशीन ठीक होने का प्रमाण पत्र लिया जाता है एवं सील पैक कर दिया जाता है जिसमें इन अधिकृत कार्यकर्ताओं के दस्तखत होते हैं और  पूरी मतदान के दौरान यह कार्यकर्ता कक्ष में उपस्थित रहते हैं। ताकि गलती या अन्य किसी गड़बड़ी को रोका जा सके। मतदान पूर्ण होने के बाद ई वी एम को लॉक कर दिया जाता है जिसमें फिर से सील पैक कर इन कार्यकर्ताओं के हस्ताक्षर लिए जाते हैं। तत्पश्चात स्ट्रांगरूम में ईवीएम को रख दिया जाता है। इ वी एम मतगणना दिनांक तक इसी स स्ट्रांगरूम में सुरक्षित रहता है। सुरक्षा के दृष्टिकोण से इस स्ट्रांगरूम को सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया जाता है, जिसमें इन अधिकृत कार्यकर्ताओं की मौजूदगी रहती है। ताकि कोई राजनीतिक दल या उम्मीदवार गड़बड़ी ना कर सके।
मतगणना के समय इ वी एम को इन्ही कार्यकर्ताओं से पुष्टि की जाती है की इसके शील एवं दस्तखत ठीक है या नहीं । इत्मीनान कराया जाता है कि इ वी एम से कोई छेड़छाड़ तो नहीं हुई।  इसके बाद ही इवीएम की काउंटिंग शुरू की जाती है यह सारी प्रक्रिया उम्मीदवार और उसके कार्यकर्ताओं की देखरेख में होता है।
अब आप ही बताइए क्या इस प्रक्रिया में गड़बड़ी किया जाना संभव है? जब तक की अन्य दल इससे सहमत ना हो।
दरअसल ईवीएम में गड़बड़ी है ऐसा कहने वाले लोग इस हार को, जनता के आदेश को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, हार को स्वीकार नहीं करने के कारण वे अपनी कमजोरियों और गलतियों की समीक्षा भी नहीं कर पा रहे हैं जोकि राजनीतिक दल के लिए बेहद जरूरी है।
यह बताना बेहद जरूरी है कि आज की जनता जाग चुकी है। आम जनता को आपका काम चाहिए अपना उत्थान चाहिए। सिर्फ भय दिखा कर उनके वोट नहीं ले जा सकते। एक ओर जनता गुंडाराज, जाति-पाति से परेशान हैं तो दूसरी ओर हिटलर शाही, खुद की मूर्ति राज से परेशान। पार्टी का नाम समाजवादी होने मात्र से जनता आकर्षित नहीं होती। नाही बहुजन का नाम होने से बहुजन आकर्षित होता है। अंबेडकर का नाम लेने मात्र से लोग आप को वोट देने लगेंगे इस भ्रम से निकलना होगा। इसी भ्रम में पढ़े लोग जो जातिगत वोट पर अपना पुश्तैनी अधिकार समझते हैं। वही अपने हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
यह प्रश्न मुह बाय खड़ा है कि मायावती के मुख्यमंत्री कार्यकाल में दलितों आदिवासियों का कितना जीडीपी रेट बढ़ा, उनके लिए कितनी आवास या शिक्षा हेतु प्रबंध किए गए? कौन-कौन सी जातियों या उनके समूह का विकास हुआ? अंबेडकर के सिद्धांत को कितना अमल किया गया कितना पैरों तले रौंदा गया? और इन योजनाओं के बरअक्स आंकड़े क्या कहते हैं?
बहुत से लोगों का यह आरोप है कि मायावती के हारने पर लोग की कमियां गिना आ रहे हैं दरअसल जो लोग कमियां की गिना  रहे हैं, ये वही लोग हैं जो उन्हें जीतते हुए देखना चाहते थे। आज उनके कार्यकर्ता उनके आलोचकों पर अमर्यादित व्यवहार कर रहे हैं ।
जनता के सम्मान के लिए यह बेहद जरूरी है कि आप उनके आदेश को स्वीकार करें। क्योंकि यह वही जनता है जो आप को एक बार मौका देकर आजमा चुकी है। लंबे राजनीतिक भविष्य के लिए जनता के आदेश का सम्मान एवं आत्म विवेचना बेहद जरूरी है। ऐसे समय में आलोचक आपके सबसे हितैषी साथी हैं।
 इस लोकतंत्र में जिसने भी जनता को मूर्ख समझा वह इसी प्रकार धोखा खाया है कम से कम इतिहास तो यही सिखाता है।

वास्तु शास्त्र एक अंधविश्‍वास है





वास्तु शास्त्र भ्रम शास्त्र 



           भ्रामक शास्त्र – लगभग पिछले 20-25 सालों से अपने यहाँ के सुशिक्षित लोगों को प्राचिन भारत के वास्तुशास्त्र के प्रति रूचि पैदा हो चुकी है। सैंकडों सालों से इतिहास बना हुआ यह शास्त्र 80 वें दशक में अपना अस्तित्व फिर से जताने लगा है। वास्तुशास्त्र जब पर्दे के पीछे था तब भी बिल्डींगे बनाते समय इस देश में वास्तुशास्त्र का आधार लिया जाता छा। अब तो वास्तुशास्त्र बहुत लोकप्रिय हो चुका है। जो कोई इस शास्त्र के अनुसार वास्तु का निर्माण करता है, और इस शास्त्र के अनुसार बनी हुई वास्तु में रहता है उसे यश, आरोग्य, सुख, समृध्दि सबकुछ निश्चित प्राप्त होता है ऐसा प्रचार किया जा रहा है।
यह शास्त्र पूरी तरह से विज्ञाननिष्ठ है सा इस शास्त्र का दावा है जिने हमें जाँचकर देखना। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोन का एक महत्वपूर्ण तत्व  है। सही ज्ञान हमें ज्ञानेंद्रिय के द्वारा प्राप्त हो सकता है। इसी तत्व के अनुसार धीरे-धीरे वैज्ञानिक पध्दति निरीक्षण, अन्वेषण, प्रयोग अनुमान – निष्कर्ष जैसी सीढ़ीयों को पार करके सिध्द हो सकती है। ज्ञानप्राप्ती की यह सर्वाधिक विश्वसनीय पध्दति है।
इस पध्दति से पूरा ज्ञान परखा जाता है। उसकी सत्यता और असत्यता तय की जाती है। इसके पश्चात वह विज्ञान बनता है। वास्तुशास्त्र को भी विज्ञान बनने के लिये इस कसौटी को पार करना पड़ता है। इसके बिना वास्तुशास्त्र को विज्ञान मानना गलत है। वैज्ञानिक प्रगति के कारण सब चीजों का लाभ उठाना मगर विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नकारना, हमारा प्राचीन शास्त्र है ऐसा कहकर विज्ञान की कसौटी को न मानते हुए वास्तुशास्त्र को अपनाना यह दोहरापन छोड़ना चाहिए। वास्तुशास्त्र पर भरोसा करना यह व्यक्तिगत बात हो सकती है मगर उसे विज्ञान कहना याने अपने आपको और अन्यों को भी ठगाने जैसी बात है।
आधुनिक जगत मे किसी को भी विज्ञान, उससे प्राप्त सुखसुविधाएँ, उसकी विश्वसनीयता को नकारना असंभव है। वैज्ञानिक होना बहुत सम्मान और प्रतिष्ठा दैनेवाली बात है।  अत: कुछ भी करके वास्तुशास्त्र को वैज्ञानिक धरातल पर सही साबित करने की कोशिश जारी रहती है। यह शास्त्र विज्ञाननिष्ठ नहीं है इतना कह देना पर्याप्त नहीं।  कौनसी परिस्थिति में इसका निर्माण हुआ, उसकी वृध्दि कैसै हुई, उस वक्त का समाज, लोगों के व्यवहार, खान-पान आदि सारी बातों की चर्चा होनी चाहिए। मकान की जरुरत तोउसे शुरु से ही रही है। आदमी को ही नहीं, पंछी, जानवर, कीटक, चींटी सभी सजीवों को रहने के लिए स्थान लगताही है। अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार हर कोई मकान ढूँढता है या स्वयं उसका निर्माण करता है। यह सबकुछ अन्य प्राणी अपनी आवश्यकता के अनुसार सैंकडों सालों से अपना मकान बनाते आये हैं।  मनुष्यने अपनी बुध्दि का इस्तेमाल करके अपना मकान बनाने की कला में अपनी जरुरतों के अनुसार समय समय पर सुधार किये हैं।
प्रांरभ से ही मकान बनाते वक्त सुधार क्ये जाने लगे मकान बनाने का वास्तुशास्त्र केवलमात्र भारत में ही बनाया गया ऐसी बात नहीं। इस प्रकार का शास्त्र बनाना और स्थल-काल, भौगोलिक परिस्थिति, उस इलाके की हवा, वहाँ की संस्कृति, वहाँ पैदा होनोवाली मुसीबतें आदी के कारण महसूस होनेवाली अलग-अलग आवश्यकताओं के अनुसार मकान बनाने में निरंतर सुधार होते रहे। संसार भर में यह सब चलते ही रहता है।   यहाँपर ध्यान में रखने जैसी बात यह है कि आर्य लोगों की टोलियों ने आक्रमण करके वहाँ की संस्कृति को समाप्त करने के बाद भारतीय वास्तुशास्त्र वास्तुशास्त्र का निर्माण किया। वहाँ की संधोक संस्कृति की भाँति अन्य अनेक प्रगतीशील संस्कृतियों का ऐसी टोलियों ने विध्वंस किया है। ऐसे आक्रमणों से कुछ इनी-गिनी संस्कृतियों ने स्वयं को बचाया है।
ऐतिहासिक पहलु –
इस शास्त्र को विज्ञान कहें या नहीं इस बात को तय करने से पहले यह जब निर्माण हुआ उस काल की घटनाएँ और उसके परिणामों की जाँच करनी होगी। वास्तुशास्त्र के प्रवक्ता लोग कहते हैं कि इस शास्त्र का जनम वैदिक काल में हुआ है। ऋगवेद  में इसके  बारे में कुछ सबूत भी मिलते हैं। आर्य लोग भारत में आने से पहले सिंधू नदी के आसपास मूल रहिवासी बढ़िया ढंग से मकान बनाते थे। इन लोगों पर कब्जा करके अपनी सत्ता स्थापित करने हेतु आर्य लोगों को कई पापड बेलने पडे थे। वास्तुशास्त्र उन्हीं कोशिशों में से एक है। इसका मूल है यज्ञवेदी के निर्माण में यज्ञीय परंपरा और यज्ञीय विधि ज्यों ज्यों विस्तृत होते गये त्यों त्यों चातुवर्ण पध्दति मजबूत बनती गयी और  मकान बंधने के कार्य को करते समय गूढ शक्तियों को शांत करना, तृप्त करना और इसके लिए कर्मकान्ड करना शूरु हुआ। ये महाशक्तियाँ गण, गुरु, स्थपति, पुरुष आदि नामों से पहचानी जाती हैं। इसमें वास्तुपुरुष मंडल और वास्तोस्पती इन कल्पनाओं का सृजन हुआ। शुभ-अशुभ, पितर, वास्तुशास्त्र, ब्रम्ह, ईश्वर, स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा जैसी कल्पनाओं का निर्माण इसीमें से हुआ। आर्य लोग आने से पहले सिंधू नदी के इर्दगिर्द बहुत बारीकी से नियोजन करके कुछ महानगर बस गये थे। खोदकाम के बाद इन बातों का पता चला है। वास्तुशास्त्र की वजह से चार वर्णोवली समाज रचना को बनाया गया। आजकाल जो वर्ण और जाति की व्यवस्था को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यह दुष्ट व्यवस्था इतनी टिककर रहने के पीछे वास्तुशास्त्र का बहुत बड़ा हाथ है। निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है।
वैदिक ज्ञान –
वास्तुशास्त्र को मानने वाले कुछ लोग भृगु ऋषि के कुछ श्लोकों का आधार लेकर कहते रहते हैं कि वेदकाल में बहुत प्रगत वास्तुशास्त्र व्यवहार में था। बड़ी बड़ी बिल्डिंगे थी और हवाई जहाज भी थे। किसी अनुसंधान कर्ता ने उनसे एक महत्वपूर्ण सवाल पूछा था। उसका जिक्र यहाँ करनाही होगा। वास्तव में अपने यहाँ प्राचीन काल से ही हवाई जहाज और आज बननेवाले शस्त्रास्त्र थे। जिन बातों को आज खोजा जा रहा है उन सबके भारत के लोगों ने वेदकाल में ही खोज लिया था आजकल जो अनुसंधान हो रहें हैं वह सब पुरातन वैदिक ज्ञान ही तो है। फिर आप मुझे बताइए कि उन्होंनं दो पहियोंवाले वाहनों को भी संशोधन किया था क्या और वे उनका इस्तेमाव करते थे क्या? यहाँपर सवाल यह खड़ा होता है कि मोहेन्जोदारो, हरप्पा आदि स्थानों पर जो उत्खनन हुआ उसमें वेदकाल से पहले भी यहाँपर जो कुछ इस्तेमाल होता था, उनका पता चलता है। वेदकालीन लोग भी विज्ञान और तंत्रज्ञान के क्षेत्र में काफी माहिर थे इस बात का एक भी सबूत क्यों नहीं मिलता? वास्तुशास्त्र में जिन आठ दिशाओं को महत्व पूर्ण समझा जाता है उनसे हवा की दिशा, सौरउर्जा, गुरुत्वाकर्षण  जैसी बातों से मेल खानेवाले कुछ लोगों का गुट बनता है। इनके आधार पर शुभ-अशुभ को जानना, पैसा और सुखशांति मिलेगी या तकलिफें सहनी पड़ेगी, यश पल्ले पडेगा या अपयशयह सबकुछ तय किया जाता है।   मगर इस बारे में कोई भी वैज्ञानिक निष्कर्ष या सबूत प्राप्त करने की कोशिश वास्तुशास्त्र विशारदों को मंजूर नहीं है।
उपरोक्त सभी कल्पनाएँ ईश्वर, स्वर्ग, नरक, मुक्ति के साथ जोड़ने के कारण लोग उसपर भरोसा करते हैं। उन्हें वैज्ञानिक कसौटियों पर कसने की आवश्यकता नहीं होते। अपनी प्राचीन संस्कृति का गुणगान करते वक्त हमें दुसरी बातों का ध्यान ही नहीं रहता। विज्ञान की कई श्रेणियाँ हैं – आयुर्वेद, गणित, चरकसंहिता, सुश्रुतसेहिंता और वास्तुशास्त्र  ये सभी शाखाएँ प्राचीन काल में ही प्रगतिपथपर थी वे निरर्थक साबित होती गयी। आयुर्वेद की जैसी शाखाएँ केवल जिंदा ही नहीं रही तो अब तक वो तरक्की कर रही है। उसमें अब भी संशोधन जारी है। वास्तुशास्त्र तो 20 साल तक लोगों को मालूम ही नहीं था। इसका कारण स्पष्ट है। कालनाम में लोगों को इस बात का पता चल गया कि शास्त्र का आधार वैज्ञानिक नहीं है। इसलिए यह पुराना सायन्स कालबाह्य हो गया। उसके बाद पिछले कुछ दशकों में इस पुराने सायन्स के लोगों को दुबारा खोजबीन करनी पड़ी और आधुनिक विज्ञान की चौखट में उसे फिट करना पड़ा।
दिशाओं का प्रभाव –
वास्तुशास्त्र में दिशाओं का प्रभाव काबहुत महत्व होता है। अत:  हवामान के परिणामों का अदांजा ले सकते है। फिर उसका ठीक से इस्तेमाल कर सकते है। मगर आज हम जिस वास्तुशास्त्र के बारे में बेहस करते हैं, उसमें व्यावहारिक उपयोग का विचार न करते हुए लोगों के मन पर जबाव महसूस हो ऐसी गूढ कल्पना और उसका यदि अनादर करें तो जो कुछ भोगना पड़ता है उसके भयानक परिणामों का भी विचार किया जाता है। वास्तुशास्त्र का मुल ग्रंथ यदि पढ़े तो इस बात की सत्यता महसूस होगी। धरती के चुबंक क्षेत्र का और आदमी के भविष्य पर होनेवाले उसके परिणाम का जिक्र चक उसमें नहीं करते। वैसे आम तौर पर वास्तुशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने से कौनसे बुरे परिणाम होंगे यह बात सीधे सादे शब्दों में बतलाई जाती है। आये दिन वास्तुशास्त्र में बच्चों की मौत, दरीद्रता, पूर्ण विनाश जैसी भयानक बातें दर्शायी जाती है। विज्ञान में आदमी की वर्ण या जाति को बिलकुल भी महत्व नहीं होता। वास्तुशास्त्र में तो तत्वों को न मामनेवाले को उसकी जाति या वर्ण के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणाम बतलाये गये हैं। ऐसे सायंस को  विज्ञान कैसे कह सकते है ?
वास्तुशास्त्र की भाँति अन्य कई शास्त्र अपनी सच्चाई को साबित करने हेतु वैज्ञानिक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और लोगों के मन में कई गलतफ़हमियाँ पैदा करते हैं। पढ़ेलिखे बुध्दिमान लोग भी ऐसी वैज्ञानिक संज्ञाओं के शिकार हो जाते हैं। मूल में जिनकी नीवं हो दोषयुक्त और वैज्ञानिक हो उस वास्तुशास्त्र की खामियों की और वे ध्यान नहीं देते। इस भ्रामक शास्त्रों का आधार है आठ दिशाएँ। ये आठ दिशाएँ नॅचरल नहीं होती। उन्हें अपनी सुविधानुसार लोग ही तय करते हैं। हमारा पूर्व दिशा का प्रदेश ब्रम्हदेश के पश्चिम में होता है। ऐसी अनिश्चित दिशाएँ शुभ या अशुभ, अच्छा या बुरा परिणाम कैसे दिखला सकती है ? पृथ्वी तो हमेशा अपने ही इर्दगिर्द पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते रहती है। किसी प्रचंड पहिए पर बैठकर हम लोग घूमते हैं वैसे। वह पहिया घूमते रहने पर हमें अपने आसपास की सभी वस्तुएँ घूमती हुई नजर आती है। प्रत्यक्ष में हम ही घूम रहे होते हैं और आसपास की सभी चीजें स्थिर होती है। ऐसे ही सूर्य  भी हमें पूर्व दिशा की ओर उगा हुआ दिखता है और दिनभर का सफर करके शाम को पश्चिम में अस्त होता हुआ दिखता है। ऐसी स्थिति में दिशाओं को शुभाशुभ, लाभदायक या धोकादायक जैसे विश्लेषण लगाने में कहाँ की समझदारी है? इससे भी मजेदार स्थिति आर्क्टिक एवं अटांर्टिक प्रदेशों में पायी जाती है। इन प्रदेशों में 6 महिने का दिन और 6 महिने की रात होती है। 21 मार्च से 23 सितंबर की कालावधि में आधी रात में आसमान में सूरज दिखाई देता है। फिर यहाँपर आप वास्तुशास्त्र के महान तत्व कैसे लगा पायेंगे?
वास्तु का रहस्य –
वास्तु याने क्या ? इसका सही अर्थ क्या है? संस्कृत भाषा में इस शब्द का अर्थ है – हम रहते हैं वह स्थान याने वास्तू! वास्तुशास्त्र का जब जन्म हुआ था तब नगर-पालिकाएँ नही थी। शहर विकास अधिकारी भी नहीं थे और मकान बनाने का कानून भी नहीं थे। वास्तुशास्त्र के अनुसार रसोईघर वातविमुख दिशामें होना चाहिए और यह बात ठिक भी है क्योंकि रसोईघर में पैदा होनेवाला धुंआ घर में फैलने के स्थानपर हवा के साथ बाहर फेंका जाय। पहले घर में हवा को बाहर फेंकने वाले पंखे नहीं थे। मगर आये दिन ये सुविधाएँ होने के कारण वास्तुपंडित प्राचीन बातों का मजाक उडाते हैं। कारखानों में बॉयलर रुम कहाँ होनी चाहिए इसके बारे में वे सलाह देते हैं क्योंकि रसोईघर में जैसे अग्नि होता है वैसे ही  बॉयलर रुम भी होता है। भारत फोर्ज कंपनी ने बहुत सी पूंजी खर्च करके अपने फ्लॅट की रचना वास्तुशास्त्र के कथनानुसार बदली। ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। मगर वास्तुशास्त्र में एकाध श्लोक में भी बॉयलर और फॅक्टरी का विवेचन नहीं मिलता। तब उनका अस्तित्व था ही नहीं। अब स्थिति बदल चुकी हैं। धुआं नहीं होगा ऐसी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है। फिर हम वास्तुशास्त्र के इन तत्वोंपर कब सक काम करेंगे?
वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी बिल्डिंग का प्रवेशद्वार दक्षिण की ओर होना अशुभ माना जाता है और ऐसा होगा तो विनाश अटला है। किसी बाजारपेठ में रास्ते को दोनों ओर जहाँ दुकान लगे होते हैं वहाँपर आधी दुकानों का प्रवेश दक्षिण दिशा से ही होगा। वे सबके सब दुकानदार असफल होते हैं क्या? वॉशिंग्टन, डी.सी. के व्हाईट हाऊस का प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा की ओर है।  वास्तुनियमों से बिलकुल विरोध में। पर वहाँ रहते है अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष संसार की प्रबल महासत्ता के प्रमुख।
वास्तुशास्त्र के काल में घर के दरवाजे और खिडकियाँ हवा खेलने के लिए सीधी लकीर में होना जरुरी समझा जाता था एक किताब में कहा गया था कि पश्चिम दिशा की तरफ छाया दनेवाले बड़ेबड़े पेड़ होने चाहिए। उस विभाग की कड़ी धूप को रोकने के लिए इनकी आवश्यकता है। पर उत्तर भारत में इसकी जरुरत नहीं होती। द। भारत में सूरज की रोशनी उत्तर की तरफ से आती है। इसलिएँ यहाँ पर यह नियम लागू होता है। वास्तुशास्त्र के सभी ग्रंथ उस इलाके की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखे गए है। मगर आये दिन उन को दिल्ली से कन्याकुमारी तक भी स्थानों पर लागू किया जाता है। एक वास्तुशास्त्र में तो ऐसा कहा गया है कि ब्राम्हणों को घर होने ही नहीं चाहिए। उस काल के हिसाब मे यह बात ठीक होगी भी। पर अब भी हम अंधे बनकर उसे अपनाए क्या ?
आजकल वास्तुशास्त्र के द्वारा जो बात स्पष्ट नहीं की जाती क्योंकि सेंकड़ों साल पहले वास्तुशास्त्र के कई वास्तुशास्त्र रुप थे। उनके लेखक भी कई थे – वराहमिहीर, भृमु,मनुसार, मयमत वगैरा। हर एक का अलग ग्रंथ, स्वतंत्र स्पष्टिकरण और खुद के प्रांत की आबोहवा, सामाजिक नियम, उपलब्ध साहित्य इन सबका विचार करके बनाये गए मकान एक जैसे होना असंभव है। हर एक ने अपने सुविधा के अनुसार नियम बनाये थे।
पानी पश्चिम दिशा की ओर रखा हो तो  वास्तुशास्त्र के अनुसार दुर्भाग्य का कारण होता है। मुबंई में तो अरबी समुद्र पश्चिम दिशा की ओर है और मुबंई तो हमारे देश का प्रमुख व्यापारी शहर है। वहाँ कितनी बड़ी आर्थिक बातें दिनरात चलते रहती है। फिर कैसा आया दुर्भाग्य ? आजकल के वास्तुपंडित कहते हैं कि  मुबंई में शहर को समुद्र में मिट्टी भरकर बनायी गयी जमीन पर बसाया गया है इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम वहाँ पर लागू नहीं होते। मगर पूरा मुबंई शहर ऐसी जमीन पर नहीं बसा है। फिर इस सवाल का क्या जवाब होगा ?
अपने यहाँ का इतिहास देखना होगा। हमारे मराठी शासक पेशवेजी ने सुखसमृध्दि प्राप्त हो इसके लिए उत्तर दिशा की ओर मुख हो ऐसे दरवाजे बनवाए। पुना का शनिवारवाडा लिजिए। उसका बड़ा सा प्रवेशद्वार उत्तर दिशा की ओर है। फिर भी वे मुसीबतों से हैरान हो गए थे। कर्ज के बोझ से लद गए थे।
वास्तुशास्त्र की एक किताब में लिखा है कि पूर्व दिशा की ओर से बहनेवाली नदियाँ ही उस प्रदेश को सुजलां सुफलां बना सकती है। उस जमानें में कुछ खास इलाकों में ऐसा हो गया होगा मगर यह संसारभर का नियम नहीं हो सकता। भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल इन राज्यों में पूर्व दिशा की ओर बहनेवाली नदियाँ है ही नहीं। परंतु इन राज्यो में समुध्दि नहीं है ऐसा नहीं कह सकते। तिरूपति का मंदिर वहाँ की वास्तू के कारण बहुत धनवान है। अन्य मंदिर उनकी वास्तु की वजह से गरीब हैं। भगवान भी इस वास्तू के लफड़े से छूट नहीं पाते।
और एक सवाल पैदा होता है। वास्तु के प्रति इतना प्यार अभी क्यो उमड़कर आया है। यह सवाल सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरुप का है। उसके चार कारण हो सकते हैं।  वे हैं – अपनी असफलताओं का कारण वास्तू को बताना। कई लोग रातभर में अमीर हो जाते हैं। फिर वे किसी वास्तुपंडित को पापविमोचन करने हेतु, प्राप्त धन से भगवान को भी हिस्सा लेने के लिए बुला लेते हैं। भगवान भी बहुत जल्द उनकी पुकार सुन लेते हैं। ऐसी अंधश्रध्दाएँ कभी  कभी बीमारियों की तरह फैल जाती हैं।एखाद मंत्री ऐसी ही कुछ बातों के लिए वास्तुशास्त्रज्ञ से मिलता है और फिर उसके पीछे अन्य लोग भी उसी राह से लगते हैं।
इन सारी बातों का दुष्परिणाम मकान बनाने वाले बेपारियों को भुगतने पड़ते हैं।  आधुनिक वास्तुतज्ञ अलग-अलग 50 विषयों का पांच साल तक भरसक अध्ययन करते हैं इतना परिश्रम करने के बाद प्राप्त ज्ञान को कुछ लोग क्षणभर में फालतू करार देते हैं। उसमें से कई लोगों को कॉलम, लिटेंल, बीम इनके बीच का फर्क भी मालूम नहीं होता। फिर भी पूरा निर्माण कार्य और पूरे शहर की रचना के बारे में वे सलाह देते रहते हैं। लोग भी उनकी बातें मानते हैं। मेरे यहाँ कई आर्किटेक्ट विद्यार्थी निराश होकर आते हैं और अपने वास्तुशास्त्री के बारें में शिकायत करते हैं। मकान का निर्माण का परफेक्ट नक्शा बनाने के बाद हमारे ग्राहक किसी वास्तुविद को ले आते हैं। यह ज्ञानी हमें कई सुधार सुझाता है जो मकान को विद्रूप बना दैते है और ऐसे सुधार करना उस ग्राहक के हित में नहीं होते।
किसी वास्तुविद ने देवेगौडाजी से कहा “आपके घर में प्रवेश करने हेतु दो सीढियाँ है इसलिए आप पूरे पाँच साल तक शासन नहीं कर पायेंगे।  आर्किटेक्ट ने एक आयडिया की।  प्रवेशद्वार के पास एक गढ्ढा खोदा और वहाँ एक फर्श बिठाकर नाममात्र की क सिढी बनायी। तीन सिढ़ीयाँ हो जाने से अब सभी खुश हो गए। मगर इस तिसरी सीढ़ी को भी देवेगौड़ाजी को पाँच साल तक टिका पाना संभव नहीं रहा।
एन. टी. रामारावजी को सलाह दी गई थी कि उनके सेक्रेटरिएट की उत्तर दिशा में कुछ मीटर का एक खुला पॅसेज होना चाहिए। वहाँ पर बहुत सा धन खर्च करके वहाँ की  झोपडियाँ हटाई गई और रामारावजी के लिए उत्तर दिशा में बड़ासा प्रवेशद्वार बना। गया। मगर दुर्भाग्य से जल्द ही उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटाया गया और साक महीनों के बाद ही वे स्वर्गवासी हो गए। वास्तुशास्त्र के अनुसार परिर्वतन करने के लिए जनता के करोड़ो रुपये मंत्री गण अपनी इच्छाके अनुसार खर्च करते रहते है। उनके विरोध में न्यायलय में जनहितयाचिका पेश करनी चाहिए।दुःख की बात यह है कि इन वास्तुशास्त्र विदों पर किसी तरह की बंदी नहीं और कोई भी कानून उनपर लागू नहीं होता। उनके ये सभी कार्य ग्राहक सुरक्षा कानू  के अंतर्गत लाने चाहिए। समाचारपत्र, टिव्ही और अन्य मिडियावालों को सजग रहकर उनकी प्रशंसा करना बंद करना चाहिए। वास्तुशास्त्र के मूल ग्रंथ में कहा गया है कि भोंदू लोगों के द्वारा ऐसा व्यवसाय किया जाय तो उन्हें कड़ी सजा देनी चाहिए। इस मामलें में व्स्तुपंडितों का क्या कहना है ?
ख्रिस्टोफर रेन ने एक चर्च बनवाया। उसके भीतर एक भी खंबा नहीं था। वह चर्च ढह जाएगा ऐसा भय सबको हो रहा था मगर ख्रिस्टोफर ने दावे के साथ कहा कि वह एकदम पक्का बना है और सौ साल तक जरुर टिकेगा। लोगों का भय खत्म करने हेतु अंत में उसने एक खंबा भीतार खड़ा किया। मगर यह खंबा छत तक पहुँच ही नहीं सका छह इंच जानबूझकर छत के नीचे रखा था। इस खंबे से छत को नहीं मगर लोगों की मानसिकता को सहार मिल रहा था।
“और एक दुर्भाग्य की बात यह है कि आये दिन ख्रिश्चन और मुस्लीम लोग भी वास्तुशास्त्र के भंवरे में फंस चुके है।  इस लहर के विरोध में लड़ रहा हूँ।  मुझे अब स्वयं-सेवकों की मदद चाहिए।  इस संदर्भ में मेडिकल रेमेडीज एक्ट 1910  वास्तुशास्त्र के व्यवसाय लिए बन जाना चाहिए। वास्तुशास्त्र के जानकार लोगों ने अपना मत लिखित रूप में सूचित करना चाहिए।  इस विषय की अंधश्रध्दाओं पर रोकथाम लगाने के लिए महाराष्ट्र अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति के जैसी समितियाँ बननी चाहिए ”
आर. व्ही. कोल्हटकर
डेक्कन हेरॉल्ड से साभार
http://mahaanis.com/wp-content/uploads/2016/09/Presentation1-1.jpg 
महाराष्ट्र अंधश्रध्दा निर्मूलन समिति  –

काले धन पर लगाम के नाम पर मुद्रा परिवर्तन-कितना सही कितना गलत एक विश्‍लेषण

काले धन पर लगाम के नाम पर मुद्रा परिवर्तन-कितना सही कितना गलत एक विश्‍लेषण
संजीव खुदशाह
आज सुबह घरों में काम करने वाली एक महिला ने बताया की 500 और 1000 रूपए के नोट बंद हो गये है। वो काफी परेशान लग रही थी, उसने आगे बताया की इस रविवार उसकी बी सी खुली थी जिसके 12000 रूपए(500 और 1000 नोट में) उसे मिले है। लेकिन आज ही मुहल्‍ले के किराना दुकान वाले ने 500 नोट के बदले किराना देने से इनकार कर दिया, वो बच्‍चे के दूध के लिए भटक रही थी। मै इस खबर से हतप्रद हो गया सहसा मुझे यकीन नही हुआ लेकिन न्यूज़पेपर की हेड लाईन से उसके बातों पर यकीन होगया।
मैने कहा की तुम बैंक में पैसे बदल सकती हो बहुत आसान है। तो उसने बताया की उसका बैंक में एकाउंट ही नही है। दर असल यह समस्‍या लगभग हर मध्‍यम, निम्‍न मध्‍यम परिवार की है।
मैं बताना चाहूँगा की 500 एवं 1000 रूपये के नोट आज 9 नवंबर 2016 की बीती रात से अवैध(बंद) कर दिये गये है। उनकी जगह 500 तथा 2000 के  नये नोट जारी किये गये है। इसके पीछे आर बी आई का तर्क है जो आज के अधिकृत विज्ञापन में विस्‍तृत रूप से सामने आया है। वे इस प्रकार है
1 काले धन पर लगाम, 2 भ्रष्‍टाचार पर लगाम 3 जाली नोट पर रोक 4 आतंकवाद का वित्‍तपोषण पर नकेल आदि
सरकार के इस फैसले पर चारों ओर से प्रतिक्रिया आ रही है कुछ इसे साहसी कदम बता रहे है तो कूछ लोग केवल सनसनी पैदा करने वाला कदम बता रहे है। कुछ लोग ड़ॉ अंबेडकर के हवाले से भी इस तर्क का समर्थन कर रहे है।
डॉं अंबेडकर ने नही कहा की 10 वर्ष में नोट बदलने से भ्रष्‍टाचार में कमी आयेगी
हालांकि प्रख्‍यात अ‍र्थशास्‍त्री एवं आर बी आई के जनक डॉं अंबेडकर के हवाले से ये खबर फैलाई जा रही है की वे प्रति 10 वर्ष में नोट बदले जाने के पक्ष में है। उनके निम्‍न उद्हरण जो उनकी प्रसिध्‍द किताब  (रूपए की समस्‍या) Problem of Rupee से लिया गया है
‘And as the Government chose to have legal-tender notes, the Legislature in its turn insisted on their being of higher denomination. At first it adhered to notes of Rs. 20 as the lowest denomination/n, though it later on yielded to bring it down to 10, which was the lowest limit it could tolerate in 1861. Not till ten years after that, did the legislature consent to the issue of Rs. 5 notes, and that, too, only when the Government had promised to give extra legal facilities for their encashment. [f1][f20]
यह उध्‍दहरण इस किताब में सर रिचर्ड टेम्‍पल के हवाले से लिया गया है इसका हिन्‍दी अनुवाद इस प्रकार है।
‘’सर्व प्रथम विधान मण्‍डल ने कम से कम मूल्‍य वर्ग के रूपए में 20 रूपए के नोट को जारी करने का बल दिया। परंतु बाद में वह इस मूल्‍य वर्ग को घटाकर दस रूपय के नोटो पर सहमत हो गई और यह बाद तक विघानमण्‍डल ने 5 रूपय के नोटो के जारी किये जाने की अनुमति नही दी और यह अनुमति तभी दी गई जब सरकार ने उनके भुनाने के लिए अतिरिक्‍त सुविधाएँ देने का वचन दिया’’
वाल्‍यूम 12 पृष्‍ठ 57 रूपये की समस्‍या उद्धव और समाधान
द्वारा बाबासाहेब डां अंबेडकर सम्‍पूर्ण वाडमय

गौर तलब है कि इस संदर्भ को डॉं अंबेडकर के नाम पर समाचार पत्र पत्रिकाओं सोशल मीडिया में प्रसारित किया जा रहा है। ऐसा करने के पीछे क्‍या मकसद है ये एक षड्यंत्र है या अज्ञानता यह एक जांच का विषय है। जबकि उक्‍त उदाहरण को ध्‍यान से पढेगे तो आप पायेंगे की इसमें कुछ और बात लिखी गई, 10 वर्ष में मुद्रा बदले जाने संबंध में यहां कोई बात नही की गई है।
यहां यह बताना जरूरी है की सरकार ने एक अच्‍छे मकसद से मुद्रा परिवर्तन का कदम उठाया है लेकिन नाम न बताने की शर्त पर एक व्‍यवसायी बताते हे कि विगत 5-6 दिनों से भारी मात्रा में कुछ धनिको द्वारा बैंक में धन जमा कराया जा रहा था। आशंका है की सरकार के इस निर्णय की भनक कुछ धनकुबेरो को लग गई थी।
क्‍या काले धन पर लगाम लगेगा?
जैसा की आर बी आई ने कालाधन, जाली नोट, आतंकवाद पर रोक लगाने की बात कही है। चूकि बड़े नोट बंद नही हुये है इसलिए इन समस्‍याओं पर क्षणिक असर तो पड़ेगा लेकिन बाद में समस्‍या जस की तस रहेगी। क्‍योकि काले धन का कैश ट्रांजेक्‍सन आसान होता है।
आईये जाने की काला धन कहां जमा है किन पर कार्यवाही की जरूरत है
1) भूमि पति- कालाधन का सबसे आसान निवेश है ज़मीन खरिदी। भारत में भूमि सीलिगं एक्‍ट लागू है यानि कोई भी व्‍यकित 10 एकड़ से ज्‍यादा सिंचित भूमि नही रख सकता। लेकिन इस नियम को या तो सीथील कर दिया गया या इसकी धज्‍जीयां उड़ा दी गई । आज एक ओर एक व्‍यक्ति के पास सर छिपा ने को न छत है न जमीन, तो दूसरी एक एक व्‍यक्ति के पास 100 से 1000 एकड़ भूमि के मालिकों की संख्‍या लगातार बढती जा रही है। आजादी के बाद काले धन का सबसे ज्‍यादा निवेश भूमि में हुआ है। अत: सीलिंग अधिनियम को और मजबूत बनाने की जरूरत है साथ ही जरूरत है उसे कड़ाई से लागू करवाने की।
2) स्‍वर्ण खरीदी- डॉं अंबेडकर अपनी किताब रूपये की समस्‍या में बताते है की सोवियत रूस समेत कुछ विकसित देश में स्‍वर्ण की खरीदी की सीमा बांधी गई है। भारत में काला धन निवेश की दूसरी सबसे पसंदीदा जगह स्‍वर्ण खरिदी है। अत: स्‍वर्ण खरीदी पर अंकुश लगाया जाना चाहिए तथा पूर्व में घरो में जमा सोना का घोषणा पत्र लिया जाना चाहिए।
3) राजनीतिक पार्टियो को चंदा- चूकि राजनीति पार्टी को दिया जाने वाला चंदा आर टी आई के अंतर्गत नही आता इसलिए यहां निवेश अत्‍यंत अच्‍छा माना जाता है बडे अद्यौगिक घराने वे इसके सहारे संविधान में संशोधन अपने व्‍यसायीक लाभ को बढाने के लिए करते रहे है।
4) धार्मिक स्‍थल को दिया जाने वाला धन- भारत एक धार्मिक देश है लोग अपनी आत्‍म संतुष्टि के लिए चंदा देते है ते वहीं गुप्‍त धन के रूप में काला धन भी खूब दिया जाता है। उसी प्रकार काला धन को सफेद बानने का गोरख धधा भी किया जाता है। पिछले दिनो ऐसा ही मामलो सामने आया एक संत काला धन को सफेद करने का समाचार मीडिया मे सुर्खियों में था।
5)शेयर एवं महंगी चल संपत्ति- इसके बाद कालाधन का निवेश शेयर बाजार तथा महँगी चल सम्‍पत्ति में किया जा रहा है।
यदि वास्‍तव में कालेधन/ आतंकवाद/ जाली नोट में अंकुश लगाना है तो इन 5 बिन्‍दुओ पर गौर करना आवश्‍यक है। क्‍याकि काला धन की खपत की गुन्‍जाईश जिस देश में ज्‍यादा होगी वहां भ्रष्‍टाचार/ आतंकवाद/ जाली नोट का बजार फलेगा फूलेगा।
अत: सबसे पहले आज़ादी के बाद काला धन जमा कररने वाले लागो पर कड्री कार्यवाही किया जाना चाहिए तभी भविष्‍य में लोग इससे बाज आयेगे। मुद्रा बदलने की प्रक्रिया को काला धन पर प्रहार के रूप में देखा जाना उचित नही है क्‍योकि 1946 और 1978 में भी इस प्रकार मुद्रा की वापसी या परिवर्तन हुआ था किन्‍तु काला धन पर कितना अं‍कुश लगा ये बात किसी से छि‍पी नही है।
बहर हाल सरकार के फैसले का स्‍वागत है देखना है कि इन पांच बिन्‍दुओ पर कठोर कदम कब उठाया जायेगा या मुद्रा (वापसी) परिवर्तन ग़रीबों की परेशानी का सबब बनकर रह जायेगा।
 [f1]For such extra facilities, and measures adopted to materialise them, Cf. the interesting speech of the Hon. Sir Richard Temple on the Paper Currency Bill dated January 13, 1871, S.L.C.P., Vol. X, pp. 22-25